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#शैव_साम्प्रदाय –

जब भी कोई वैदिक शास्त्रो के आधार पे कहता है कि, वैदिक शास्त्रो में मांसाहार नही है कुछ महान मांसाहारी अपना कुतर्क लेकर आ जाते है… कि शैव और शाक्त सम्प्रदाय में मांसाहार की अनुमति है। जबकि जब उनसे ये पूछा जाता है कि, ऐसा कहा है तो वो कहते है बताना वर्जित है । शैव और शाक्त में कही भी मांसाहार नही है ….जैसे वैष्णव मत में भगवान विष्णु को अपना ईस्ट मानकर पूजा की जाती है वैसे ही शैव में भगवान शिव और शाक्त में देवी भगवती को अपना आराध्य मानते है ।।

#शैव और शाक्त है क्या ,और क्या वाकई में इनमें मांसाहार है आइये देखते है …..

#शैव सम्प्रदाय की सभी जातियों के लिए नियम थे कि वे गाँव, बस्ती में प्रवेश नहीं करते थे। शैव सम्प्रदाय की सभी शाखायें वनौषधियों की जानकार होती थीं, यह उनका कर्तव्य कर्म था।
#वर्षा ऋतु में जब एक तरफ तो आवागमन के सभी मार्ग अस्त-व्यस्त हो जाते दूसरी तरफ मौसमी बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता तब ये लोग गांव के बाहर शिवालय में या उसके पास अपनी धूणी जमाते थे। लोग इस धूणी की भभूति[राख] लेने आते। एक तरफ श्रद्धा भाव, दूसरी तरफ औषधियों का प्रभाव ग्रामीण लोग उस भभूति को ग्रहण करके स्वस्थ हो जाते। विशेष बीमारी होने पर विशेष औषधि दे देते।
, #शैव_ सम्प्रदायों की आगे से आगे अनेक शाखायें है तथा इन्हीं के समानान्तर शाक्त सम्प्रदाय की शाखायें हैं। ये सभी शाखाएँ फोरेस्ट ईकोलोजी से जुड़ी शाखायें है।
वनौषधियों के जानकारों की तीन शाखायें थी।

1- #जैनाचार्य सूखी हुई जड़ी-बूटियों का उपयोग करते थे।

2- #संन्यासी हरी एवं ताज़ा जड़ी-बूटियों का प्रयोग करते थे।
3- #नाथ लोग प्राणियों के अंगों एवं विषों का उपयोग करते थे।(surgical)

#उदासीन और #वैरागी सम्प्रदाय वाले भूतविद्या(साईको-थेरेपी) से होने वाली चिकित्सा से जुड़े ओझा यानी झाड़ फूँक करने वाले होते। लेकिन इसमें भी मांसाहार निषेध है।।

#आचार्य_ शंकर ने संन्यासी सम्प्रदाय को काल-स्थान-परिस्थिति के अनुरूप एक नई दशनामी व्यवस्था दी और इनको दस वर्गों में विभाजित किया तथा प्रत्येक वर्ग विशेषज्ञ चिकित्सक की तरह काम करता था। ये दस नाम इस प्रकार हैं:-
(1) तीर्थ (2) आश्रम (3) सरस्वती (4) भारती (5) वन (6) अरण्य (7) पर्वत (8) सागर (9) गिरि (10) पुरी

दस प्रकार के रोगों और उनसे जुड़े दस प्रकार की औषधियों की जानकारी के परिप्रेक्ष्य में दसनामी सम्प्रदाय को समझना चाहिये।
1- #पुरी – जो पुर अर्थात् परकोटे यानी घिरे हुए क्षेत्र में रहने वाले बड़े गाँवों में होने वाली बीमारियों का निदान एवं चिकित्सा करते थे।
2- #तीर्थ – तीर्थाटन पर आने वाले लोग विभिन्न क्षेत्र, जातीय और आर्थिक वर्गों के होते हैं। उनमें संक्रमण से होने वाले रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है। उनका निदान एवं चिकित्सा का विषय तीर्थ सन्यासियों का था।
3- #आश्रम – आश्रम उस स्थान को कहा जाता है जहाँ अनाथों से लेकर शोधकर्ताओं तक को आश्रय दिया जाता है। इस आश्रमों को रेज़ीडेन्शियल हॉस्पिटल भी कहा जा सकता है। यहाँ असाध्य रोगों का निदान एवं चिकित्सा होती थी।
4- #सरस्वती – जो वर्ग नृत्य, संगीत एवं वाद्य यंत्रों को बजाने वाले तथा गायक होते हैं उनमें जोड़ों एवं मांसपेशी तंत्र के रोग होते है। उनका उपचार करना इनका विषय था।
5- #भारती = जो लोग आहार की कमी यानी कुपोषण के शिकार होते हैं उन्हें आहार में पौष्टिक तत्वों को दिये जाने की जानकारी देने वाले भारती भ्रमणशील सन्यासी होते थे। ये लोग स्वर्ण निर्माण की विद्या भी जानते थे इस विद्या का उपयोग वहाँ करते थे जहाँ पूरे क्षेत्र में अकाल पड़ जाता था।
6 – #वन = जहाँ रेन फोरेस्ट होता है वहाँ अत्यधिक नमी के कारण पित्त के विकार से होने वाले रोग होते हैं वहाँ के लोगों के रोगों का निदान एवं चिकित्सा का काम वन करते थे।
7- #अरण्य = जहाँ रेन फोरेस्ट के साथ-साथ चारागाह भी होते हैं और मांसाहारी तथा हिंसक पशु भी रहते हैं वह क्षेत्र अरण्य कहा जाता है। ऐसे स्थानों पर मूत्र रोग तथा डिहाईड्रेशन से सम्बन्धित रोग अधिक होते हैं उनका निदान एवं चिकित्सा करना इनका विषय होता है।
8- #पर्वत = पहाड़, गिर, मेरू इत्यादि नाम पर्यायवाची शब्द हैं। लेकिन पर्वत उन पहाड़ों को कहा जाता है जिनकी चोटियाँ ऊँची तथा पथरीली, पठारी होती है।वहाँ के निवासियों की बीमारी का इलाज करने वाले और वहां से वनौषधियों को एकत्र करने वाले।।
9- #गिरि = गिर उन पहाड़ों का कहा जाता है जो कम ऊँचे तथा हरियाली से अच्छादित होते हैं।वहाँ के निवासियों का इलाज करने वाले और वहां से वनौषधियों को एकत्र करने वाले।।
10- #सागर = जो वर्ग सागर किनारे रहने वाला तथा समुद्री जीवों को पकड़ कर आजीविका चलाने वाली जातीय समूहों के होते हैं उनमें कुछ विशेष प्रकार के त्वचा रोग होते हैं । उनका निदान एवं चिकित्सा इनका विषय रहा है।

#विशेष – शैव सम्प्रदायों की आगे से आगे अनेक शाखायें है तथा इन्हीं के समानान्तर शाक्त सम्प्रदाय की शाखायें हैं। और इनके विषय में अज्ञानता ही नकली ढोंगियों को बढ़ावा देती है और वो अपनी कुत्सित इक्षाओ की पूर्ति के लिए अनुचित मांग रखते है (शराब , मांस आदि) जिनका इन सम्प्रदाओ से कोई लेना देना है ही नही और न ही उनके अंदर वो छमता की वो इसका इलाज कर सकें।।
#कापलिक _संप्रदाय के ईष्ट देव भैरव थे, इस संप्रदाय का प्रमुख केंद्र शैल नामक स्थान था.(इसे लोग शैव साम्प्रदाय का मानते है लेकिन इन्हें इस मत का नही माना जा सकता क्योंकि इनके ईष्ट देव शिव नही भैरव है जो तामसी पूजा (राक्षसों की पूजा ) को कहते है जो कितनी सही है खुद सोच लें।।)

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