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“शिक्षा और विद्या में अंतर समझना आवश्यक है। अधिकांश व्यक्ति दोनों को एक ही समझते हैं। शिक्षा का अर्थ है – जानकारी को व्यापक बनाना, बुद्धि विस्तार करना। शिक्षा मनुष्य को लौकिक जगत की उपलब्धियाँ, धन-दौलत एवं सुख-सुविधाएं देती है, किन्तु विद्या मनुष्य का आत्मिक उत्थान करती है, मनुष्य को भोग-विलास से हटाकर उसे त्यागी, तपस्वी एवं परोपकारी बनाती है। दूसरे शब्दों में शिक्षा मनुष्य को सभ्य बनाती है तथा विद्या सुसंस्कारी बनाती है। ये दोनों मनुष्य के लिए उपयोगी हैं किन्तु विद्या को समाविष्ट किए बिना शिक्षा अधूरी है।”
हमारी जिह्वा में सत्यता हो, चेहरे में प्रसन्नता हो और हृदय में पवित्रता हो तो इससे बढ़कर सुखद जीवन का और कोई अन्य सूत्र नहीं हो सकता। निश्चित समझिए असत्य हमें भीतर से कमजोर बना देता है। जो लोग असत्य भाषित करते हैं उनका आत्मबल बड़ा ही कमजोर होता है।
जो लोग अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहते हैं वही सबसे अधिक असत्य का भाषण करते हैं। हमें सत्य का आश्रय लेकर एक जिम्मेदार व्यक्ति बनने का सतत प्रयास करना चाहिए। उदासी में किये गये प्रत्येक कर्म में पूर्णता का अभाव पाया जाता है। हमें प्रयास करना चाहिए कि प्रत्येक कर्म को प्रसन्नता के साथ किया जाना चाहिए।
जीवन हमें उदासी और प्रसन्नता दोनों विकल्प प्रस्तुत करता है। अब ये हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हमें क्या पसंद है। हम क्या चुनना चाहते हैं ? निष्कपट और निर्बैर भाव ही हृदय की पवित्रता है। जीवन में अगर कोई बहुत बड़ी उपलब्धि है तो वह पवित्र हृदय की प्राप्ति है। पवित्र हृदय से किये गये कार्य भी पवित्र ही होते हैं।

सादा जीवन यानी सादगी से भरा हुआ जीवन। एक ऐसा जीवन जिसमें आवश्यकताएँ कम हों, जिसमें महत्वाकांक्षाएँ कम हो, जिसमें इच्छाएँ कम हों ; और जो हमारे पास हो बस, उसी में संतोष का भाव हो। व्यक्ति की इच्छाएं जब बहुत बढ़ जाती हैं तो उन्हें पूरा करने के लिए वह उन्हीं के अनुरूप भागदौड़ करता है। चिंता करते हुए तनाव में रहता है, लेकिन जब उसकी इच्छाएँ सिमट जाती हैं तो उन्हीं के अनुरूप उसकी चिंता व तनाव भी कम हो जाते हैं।

वन्दे देव उमापतिं सुरुगुरु वन्दे जगत्कारणम,
वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं वन्दे पशूनांपतिम।

वन्दे सूर्य शशांक वहिनयनं वन्चे मुकुन्दप्रिय:,
वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवशंकरम॥

बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः।
*प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः।।
*जन-सुखकृतेथ सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः।
*प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः।।
हे भव, मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपका नमन करता हूँ। हे हर, मैं आपको तामस गुण से युक्त, विलयकर्ता मान आपका नमन करता हूं। हे मृड, आप सतोगुण से व्याप्त सभी का पालन करने वाले हैं। आपको नमस्कार है। आप ही ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं। हे परमात्मा, मैं आपको इन तीन गुणों से परे जान कर शिव रूप में नमस्कार करता हूँ।

अणुभ्यश्च महद्भ्यश्च शास्त्रेभ्य: कुशलो नर: ।
*सर्वत: सारमादद्यात् पुष्पेभ्य इव षट्पद: ।।
भँवरा जैसे विविध पुष्पों से केवल मधु एकत्र करता है तथा हंस जैसे दूध ग्रहण करके जल को छोड़ देता है उसी प्रकार बुद्धिमान् मनुष्यों को व्यर्थ और कुतर्कों में न फँसकर शास्त्रों का सार ग्रहण करना चाहिये।

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