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क्या है देवी दुर्गा के विभिन्न प्रतीकों का रहस्य ?????

जब भी हम देवी दुर्गा का मानसिक ध्यान करते हैं तो जो छवि हमारे ध्यान में आती है, वह है—अष्टमी तिथि को पूजी जाने वाली, सिंह पर सवार, लाल वस्त्रों में सजी, माथे पर लाल बिंदिया और मांग में लाल सिंदूर लगाए, गुड़हल और गुलाब के पुष्प धारण किए, हाथ के त्रिशूल से असुरों का मर्दन करती हुई देवी, जिनका प्रिय भोग है हलुआ, चना, मेवा व लोंग का जोड़ा और जिनका मन्दिर जगमग ज्योति और लाल ध्वजा से सुशोभित रहता है । देवी दुर्गा के इन प्रतीकों का क्या है रहस्य, जानते हैं इस प्रस्तुति में ।

जब-जब लोक में दानवी बाधा उपस्थित हो जाती है, चारों ओर अनीति, अत्याचार फैल जाता है, तब-तब देवी पराम्बा विभिन्न नाम व रूप धारण कर प्रकट होती हैं और समाज विरोधी तत्वों का नाश करती हैं । देवी दुर्गा का प्रादुर्भाव समस्त देवताओं की शक्ति के समुदाय से हुआ और सभी देवताओं ने उन्हें अपने अस्त्र प्रदान किए हैं; इसलिए देवी दुर्गा महापराक्रमी और असुरों का नाश करने वाली हैं ।

देवीपुराण के अनुसार दुर्गा शब्द में ‘द’कार दैत्यनाशक, ‘उ’कार विघ्ननाशक, ‘रेफ’ रोगनाशक, ‘ग’कार पापनाशक तथा ‘आ’कार भयशत्रुनाशक है। अत: ’दुर्गा’ शब्द का अर्थ ही है ‘दुर्गा दुर्गतिनाशिनी’–‘जो दुर्गति का नाश करे’ क्योंकि यही पराशक्ति पराम्बा दुर्गा ब्रह्मा, विष्णु और महेश की शक्ति है।

विश्व की संचालिका शक्ति दुर्गा के नौ स्वरूप हैं—शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघण्टा, कूष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, और सिद्धिदात्री । इन्हें ‘नवदुर्गा’ कहते हैं । नवरात्र के नौ दिनों में देवी के इन्हीं नौ रूपों की प्रतिदिन एक-एक रूप को प्रधान मानकर पूजा-अर्चना की जाती है ।

दक्ष प्रजापति का यज्ञ विध्वंस करने के लिए भगवती भद्रकाली का अवतार अष्टमी तिथि को ही हुआ था, अत: अष्टमी तिथि के दिन देवी के पूजन का विशेष महत्त्व है ।

सिंहवाहिनी देवी दुर्गा को लाल रंग के चमकदार वस्त्रों से सज्जित किया जाता है । लाल रंग बल, उत्साह, स्फूर्ति, तेज, शौर्य और पराक्रम का प्रतीक है । हिन्दू धर्म में लाल रंग उन देवताओं को दिया गया है जिन्होंने अपने बाहुबल, अस्त्र-शस्त्र और पराक्रम से दुष्ट दैत्यों और आसुरी शक्तियों का संहार किया है ।

देवी दुर्गा महिषासुरमर्दिनी, मधु-कैटभ हारिणी और चण्ड-मुण्ड विनाशनी है । देवी के मन्दिरों में लाल ध्वजा शत्रुओं व आसुरी प्रवृत्तियों पर विजय-पताका के रूप में चढ़ाई जाती है ।

देवी की आरती में हम गाते हैं—‘मांग सिन्दूर विराजत टीको मृगमद (कस्तूरी) को’ । देवी की मांग में लाल सिन्दूर और माथे पर कस्तूरी या रोली की लाल बिंदिया लगायी जाती है ।

लाल रंग नारी की मर्यादा की भी रक्षा करता है और उसका सौभाग्य-चिह्न है । जब असुरराज शुम्भ-निशुम्भ के भृत्य (सेवक) चण्ड-मुण्ड ने देवी की सुन्दरता का वर्णन उनसे किया तो शुम्भ ने देवी दुर्गा पर बुरी नजर डालते हुए उन्हें प्राप्त करने का प्रयास किया । मां दुर्गा ने सेना सहित उनका नाश कर नारी जाति के गौरव और उनकी मर्यादा की इज्जत करने का पाठ संसार को पढ़ाया । इसीलिए विवाहित स्त्रियां अपने पातिव्रत धर्म की रक्षा के लिए मांग में सिंदूर और लाल बिन्दी सजाती हैं ।

मां दुर्गा दुर्गतिनाशिनी हैं । दुर्गति के नाश के लिए वीरता की आवश्यकता होती है । वीर मनुष्य ही सिंह के समान शत्रुओं को वश में रख सकता है । यही दर्शाने के लिए मां सिंह की सवारी करती हैं ।

देवी दुर्गा का त्रिशूल पापियों को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रोग और शोक देता है और भक्तों के त्रितापों का नाश करता है ।

देवी दुर्गा को जपाकुसुम का पुष्प बहुत प्रिय है । जपाकुसुम बहुत ही ऊर्जावान पुष्प माना जाता है । असुरों के संहार के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है । दुर्गा को जपाकुसुम अर्पित करने से विरोधी और शत्रु परास्त होते हैं । साथ ही गुड़हल पुष्प का सम्बन्ध गर्भाशय से है और देवी जगन्माता है इसलिए उन्हें जपाकुसुम अर्पित किया जाता है ।

देवी दुर्गा का सबसे प्रिय भोग हलुआ और काला चना है । देवी का प्रादुर्भाव असुरों और बुराइयों का नाश करने के लिए हुआ इसलिए वे सदैव असुरों के संहार में लगी रहती हैं । इस कार्य में अत्यन्त बल, पराक्रम, स्फूर्ति और शौर्य की आवश्यकता होती है । हलुए से ज्यादा शक्तिवर्धक और कोई व्यंजन नहीं है । सूजी, देसी घी, चीनी और मेवों से बना हलुआ अत्यन्त पौष्टिक, तुरन्त शक्ति व बल देने वाला और त्रिदोषों को शांत करने वाला होता है ।

काले चने में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, फाइबर, कैल्शियम, मैग्नीशियम और दूसरे मिनरल्स होते हैं । चने का इस्तेमाल हर तरह से फायदेमंद है । यह तुरन्त शक्ति देता है । इसीलिए शक्ति की देवी दुर्गा का यह प्रिय भोग है । देवी को पंचमेवा (पांच तरह की मेवा—अखरोट, छुहारे, मखाने, बादाम और काजू) का भोग लगता है । ये सब चीजें भी शरीर को तुरन्त शक्ति, बल व ऊर्जा देने के साथ ही फुर्तीला बनाये रखती हैं ।

देवी दुर्गा पहाड़ों पर निवास करती हैं जहां काफी सर्दी रहती है । लोंग की तासीर बहुत गर्म होती है; इसीलिए देवी को लोंग का जोड़ा अर्पित किया जाता है । आयुर्वेद के अनुसार लोंग एंटी-ऑक्सीडेण्ट्स से भरपूर है जो शरीर की इम्युनिटी बढ़ाती है और पाचनशक्ति को सही रख कर बीमारियों से दूर रखती है ।

देवी राक्षसों का संहार कर उनके मुण्डों को माला के रूप में धारण करती हैं ताकि आसुरी प्रवृतियों को सबक मिल सके कि स्त्री जाति को कमजोर न समझा जाए, उनके गौरव व मर्यादा की तरफ आंख उठाकर देखने वालों का यही हश्र होगा ।

दुर्गासप्तशती (३ अध्याय, ३८) में देवी महिषासुर से कहती हैं—‘ओ मूढ़ ! मैं जब तक मधु पीती हूँ, तब तक तू क्षण भर के लिए खूब गर्ज ले । मेरे हाथ से यहीं तेरी मृत्यु हो जाने पर अब शीघ्र ही देवता भी गर्जना करेंगे ।’

देवी दुर्गा के भय से पापियों और राक्षसों के रक्त-मांस सूख जाते हैं; इसलिए ऐसा कहा जाता है कि वे रक्त-मांस का उपयोग करती हैं । मद्य या मधु से अर्थ अभिमान और पापियों के उन्मत्त आचरण से है । ईश्वर को अभिमान बिल्कुल अच्छा नहीं लगता इसीलिए देवी दैत्यों व शत्रु के अभिमान को पी जाती हैं । यही उनका मधुपान या मद्यपान है ।

देवी की सात्विक पूजा में कूष्माण्ड (पेठा), श्रीफल, ईख, नीबू आदि की बलि दी जाती है या खोया, उड़द, दधि, आटा या चावल के पिण्ड से पशु बनाकर बलि दी जाती है । वाल्मीकीय रामायण में पंचवटी में लक्ष्मणजी ने पुष्पों से बलि दी थी ।

जबकि वामाचार पूजा पद्धति में बलि में पशु का मस्तक धड़ से अलग कर देवता के चरणों में अर्पित किया जाता है । देवी तो जगन्माता अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, चर, अचर सबकी माता हैं । वे सबकी रक्षा व पालन-पोषण करती हैं । ऐसी दयामयी माता अपनी पशु-संतान की बलि क्यों चाहेगी ?

पशु-बलि का वास्तविक अर्थ—वेद और तन्त्रशास्त्र में इन्द्रियों के विकार काम-क्रोध, लोभ आदि दुर्गुणों को पशु कहा जाता है । बकरे को काम, भैंसे (महिष) को क्रोध, बिलाव को लोभ, भेड़े को मोह और ऊंट को मात्सर्य कहा गया है और इन दुर्गुणों और विकारों के त्याग को पशु-बलि कहा गया है । इन्हीं दुर्गुणों से मुक्ति पाने के लिए दुर्गा को बलि दी जाती है ।

▪️बकरे की बलि का अर्थ है–बकरे में जीभ इन्द्रिय अर्थात् खाने का लोभ बहुत प्रबल होता है । अत: ज्यादा तला-भुना मिर्च मसालेदार भोजन तामसिक भोजन की आसक्ति छोड़कर सात्विक भोजन करना जीभ रूपी बकरे की बलि करना है।

▪️भैंसे में क्रोध की प्रबलता होती है, अत: क्रोध को छोड़ना महिष की बलि है ।

▪️कबूतर में काम की प्रबलता है, कामासक्ति का त्याग कबूतर की बलि है ।

सबसे अच्छी बलि आत्म-बलि,अपने इन्द्रिय विकारों–काम, क्रोध, लोभ, मोह, मान, मत्सर को दूर कर देवी को अर्पित करना ही सच्चे अर्थ में बलि है । एक और अर्थ में अपने इष्टदेव को अपना सब कुछ बलिदान देकर आराध्य से अपना भेद मिटा देना, यही सच्ची बलि है । बलिदान के बिना न जगन्माता प्रसन्न होती हैं और न ही भारतमाता ।

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