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श्री रामचरितमानस का सार!!!!!

भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्‌॥

भावार्थ:-श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥ यह श्रीरामचरितमानस के शुरू में ही श्री तुलसीदास जी ने लिखा है| आओ इस को समझने का प्रयास करें|

एक जीव के मन में अनेको प्रकार के भाव उठते रहते हैं, कभी श्रद्धा का, कभी विश्वास का, कभी दया का, कभी क्रोध का, कभी परोपकार का, कभी अहंकार का, कभी काम का, कभी मोह का, कभी लोभ इत्यादि का| हर जीव इन अनेको भावो को महसूस करता है इसी कारण इसको विस्तार नहीं देते|

यह सब भाव हर जीव केवल महसूस कर सकता है अगर हम जीव को किसी भी भाव को परिभाषित करने को कहें तो यह उस जीव के लिए अति कठिन कार्य होगा|

चूँकि यह भाव हर जीव में उठते है तो दूसरा जीव इन भावो के नाम लेते ही इसे महसूस करके इस जीव की बात को समझ तो जाता है परन्तु वह भी इसे व्यक्त नहीं कर पाता| मुझे श्री राम भगवान् में विश्वास है यह सब कहते हैं पर विश्वास के भाव को व्यक्त करके समझा नहीं सकते|

किसी भी भाव को हम आकार देने में समर्थ नहीं हैं| अगर कोई जीव विश्वास के भाव को समझना चाहे तो हम केवल उसे विश्वास के मिलते जुलते शब्द ही दे सकते हैं, समझाने में कठिनाई अनुभव करेंगे| श्रीरामचरितमानस में मुख्य मुख्य भावो को आकार दिया है जिससे प्राणी यह जान सके की वह अपने अच्छे भावो को कैसे बल दे सके और निम्न भावो को ख़त्म कर सके।

श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की वंदना करता हूँ|
अथार्थ श्रद्धा एक भाव है जिसका कोई रूप अथवा आकार नहीं होता उस श्रद्धा को माँ पार्वती का और विश्वास भाव को श्री शंकरजी का रूप देकर संबोधित किया है|

श्रद्धा की मूर्ति माँ पार्वती हैं और विश्वास की श्री शंकर भगवान्| कैलाश पर्वत पर शंकर भगवान् विराजमान हैं, कैलाश पर्वत अचल और अडिग है अत: विश्वास भी अचल और अडिग होना चाहिए|

भगवान् राम को हम सर्वश्रेष्ठ भाव (सच्चिदानंद) का रूप मानते हैं, श्री तुलसीदास जी ने श्री राम जन्म से पहले शिव पार्वती का प्रसंग भी इसलिए लिखा की जब तक जीव के ह्रदय में श्रद्धा और विश्वास नहीं होगा वह ईश्वर श्रीराम को जो की सर्वश्रेष्ठ भाव का रूप हैं, ह्रदय में धारण नहीं कर पायेगा|

अगर जीव को अपने अंत:करण में ईश्वर को लाना है तो पहले जीव के हृदय में श्रद्धा और विश्वास को लाना होगा|

आओ इसे और विस्तार दें :-

भगवान् शिव और माँ सती श्री अगस्त्य जी के आश्रम में श्री राम कथा सुनने गए| वहां श्री अगस्त्य जी ने दोनों का पूजन अवम आदर सत्कार किया| भगवान् शिव ने सोचा की श्री अगस्त्य जी कितने महान होते हुए भी विनम्र हैं, वक्ता होते हुए भी श्रोता का सम्मान कर रहें हैं और माँ सती जी ने सोचा की जो हमारा ही पूजन करता हो वह हमें क्या राम कथा सुनाकर ज्ञान देगा अत: माँ सती का श्री राम कथा में ध्यान ना लगा |

जब वापस आते हुए माँ सती ने श्री राम को पत्नी वियोग में रोते देखा, तथा शिवजी ने श्री राम को सच्चिदानंद परमधाम कहकर प्रणाम किया तो मन में संशय उत्पन्न हो गया| माँ सती प्रजापति दक्ष की कन्या है| दक्ष का भाव बुद्धि से है| एक व्यक्ति किसी कार्य में दक्ष है अर्थात वह बुद्धिमान है, तो माँ सती बुद्धि की पुत्री हुई और बुद्धि में संशय अवम तर्क-वितर्क का भाव रहता है|

विश्वास भाव के साथ श्रद्धा होती है संशय अथवा तर्क-वितर्क कदापि नहीं| इसलिए विश्वास रूपी शिव ने बुद्धि की पुत्री का त्याग कर दिया| जब माँ सतीके ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ की योगाग्नि में अपने शरीर को भस्म किया तो ईश्वर से वर माँगा की अगले जन्म में भी मुझे श्री शिवजी ही पति मिलें तो ईश्वर ने पुछा की क्या पिता भी बुद्धि {दक्ष} चाहिए तो माँ सती ने कहा अबकी बार चाहे मुझे पत्थर के घर जन्म दे देना जो की जड़ होता है परन्तु बुद्धि [दक्ष} पिता नहीं चाहिए |

क्योंकि बुद्धि चलाये मान होती है और पत्थर जड़ होता है| और माँ सती का जन्म पर्वत राज हिमालय के घर हुआ| और पर्वत के घर जन्म लेने से वह पार्वती कहलायीं| जब तक वह बुद्धि जो संशय और तर्क-वितर्क की थी श्रद्धा में परिवर्तित नहीं हुई, भगवान् शिव ने उसको नहीं अपनाया| माता पिता और सप्तऋषि ने चाहे कैसे भी इस श्रद्धा को विचलित करने का प्रयास किया हो यह श्रद्धा रूपी माँ पार्वती अडिग रही|

इसी प्रकार मेघनाथ काम का भाव है, कुम्भकरण {जिसके घड़े के समान कान है और जो सदा अपनी प्रसंशा सुनना चाहता है} वह अहंकार का भाव है, रावण को मोह का प्रतीक कहा गया है|

अथार्थ जीव का काम मर जाता है, अहंकार मर जाता है परन्तु मोह बड़ी ही कठिनाई से मरता है अत: श्री राम (सर्वश्रेष्ठ भाव ) को मोह को मारने में ही सबसे ज्यादा कठिन परिश्रम करना पड़ा| माता सीता को भक्ति,शक्ति और लक्ष्मी कहते हैं| श्री लक्ष्मण जी को वैराग्य, श्री भरतजी को धरम का सार और श्री शत्रुघनजी को अर्थ के भाव का रूप दिया गया है| श्री हनुमान जी को सेवा, श्री सुग्रीव जी को डर अवम बालीजी को पुन्यभिमान का रूप बताया गया है|

श्री रामचरितमानस का पाठ करने से हमारे ह्रदय में जब श्रीराम (सर्वश्रेष्ठ भाव) आ जाता है तो सारे दूषित भावो का नाश होता है और जीव को इस प्रकार भक्ति प्राप्त होती है|

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