Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

कूर्म अवतार को ‘कच्छप अवतार’
🌻🌻🌷🌻🌻🌷🌻🌻🌷🌻🌻
(कछुआ अवतार) भी कहते हैं। कूर्म अवतार में भगवान विष्णु ने क्षीरसागर के समुद्रमंथन के समय मंदर पर्वत को अपने कवच पर संभाला था। इस प्रकार भगवान विष्णु, मंदर पर्वत और वासुकि नामक सर्प की सहायता से देवों एवं असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्नों की प्राप्ति की। इस समय भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप भी धारण किया था।

धार्मिक मान्यताएं
〰️〰️〰️〰️〰️
हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार श्रीहरि ने सन्तति प्रजनन के अभिप्राय से कूर्म का रूप धारण किया था। इनकी पीठ का घेरा एक लाख योजन का था। कूर्म की पीठ पर मन्दराचल पर्वत स्थापित करने से ही समुद्र मंथनसम्भव हो सका था। ‘पद्म पुराण’ में इसी आधार पर विष्णु का कूर्मावतार वर्णित है।

पौराणिक उल्लेख
〰️〰️〰️〰️〰️
नृसिंह पुराण के अनुसार द्वितीय तथा भागवत पुराण(1.3.16) के अनुसार ग्यारहवें अवतार। शतपथ ब्राह्मण(7.5.1.5-10), महाभारत (आदि पर्व, 16) तथा पद्मपुराण (उत्तराखंड, 259) में उल्लेख है कि संतति प्रजनन हेतु प्रजापति, कच्छप का रूप धारण कर पानी में संचरण करता है। लिंग पुराण (94) के अनुसार पृथ्वी रसातल को जा रही थी, तब विष्णु ने कच्छप रूप में अवतार लिया। उक्त कच्छप की पीठ का घेरा एक लाख योजन था। पद्मपुराण (ब्रह्मखड, 8) में वर्णन हैं कि इंद्रने दुर्वासा द्वारा प्रदत्त पारिजातक माला का अपमान किया तो कुपित होकर दुर्वासा ने शाप दिया, तुम्हारा वैभव नष्ट होगा। परिणाम स्वरूप लक्ष्मी
समुद्र में लुप्त हो गई। तत्पश्चात्‌ विष्णु के आदेशानुसार देवताओं तथा दैत्यों ने लक्ष्मी को पुन: प्राप्त करने के लिए मंदराचल की मथानी तथा वासुकि की डोर बनाकर क्षीरसागर का मंथन किया। मंथन करते समय मंदराचल रसातल को जाने लगा तो विष्णु ने कच्छप के रूप में अपनी पीठ पर धारण किया और देव-दानवों ने समुद्र से अमृत एवं लक्ष्मी सहित 14 रत्नों की प्राप्ति करके पूर्ववत्‌ वैभव संपादित किया।एकादशी का उपवास लोक में कच्छपावतार के बाद ही प्रचलित हुआ।कूर्म पुराण में विष्णु ने अपने कच्छपावतार में ऋषियों से जीवन के चार लक्ष्यों (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) का वर्णन किया था।

कूर्म अवतार की कहानी
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
एक समय की बात है कि महर्षि दुर्वासा देवराज इंद्र से मिलाने के लिये स्वर्ग लोक में गये। उस समय देवताओं से पूजित इंद्र ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो कहीं जाने के लिये तैयार थे। उन्हें देख कर महर्षि दुर्वासा का मन प्रसन्न हो गया और उन्होंने विनीत भाव से देवराज को एक पारिजात-पुष्पों की माला भेंट की।

देवराज ने माला ग्रहण तो कर ली, किन्तु उसे स्वयं न पहन कर ऐरावत के मस्तक पर डाल दी और स्वयं चलने को उद्यत हुए। हाथी मद से उन्मत्त हो रहा था उसने सुगन्धित तथा कभी म्लान न होने वाली उस माला को सूंड से मस्तक पर से खींच कर मसलते हुए फेंक दिया और पैरों से कुचल डाला।

यह देखकर ऋषि दुर्वासा अत्यंत क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने शाप देते हुए कहा- रे मूढ़! तुमने मेरी दी हुई माला का कुछ भी आदर नहीं किया। तुम त्रिभुवन की राजलक्ष्मी से संपन्न होने के कारण मेरा अपमान करते हो, इसलिये जाओ आज से तीनों लोकों की लक्ष्मी नष्ट हो जायेगी और यह तुम्हारा यह वैभव भी श्रीहीन हो जाएगा।

इतना कहकर दुर्वासा ऋषि शीघ्र ही वहाँ से चल दिये। श्राप के प्रभाव से इन्द्रादि सभी देवगण एवं तीनों लोक
श्रीहीन हो गये। यह दशा देख कर इन्द्रादि देवता अत्यंत दु:खी हो गये। महर्षि का शाप अमोघ था, उन्हें प्रसन्न करने की सभी प्राथनाएं भी विफल हो गयीं।

तब असहाय, निरुपाय तथा दु:खी देवगण, ऋषि-मुनि आदि सभी प्रजापति ब्रह्माजी के पास गये। ब्रह्मा जी ने उन्हें साथ लेकर वैकुण्ठ में श्री नारायण के पास पहुंचे और सभी ने अनेक प्रकार से नारायण की स्तुति की और बताया कि “प्रभु” एक तो हम दैत्यों के द्वारा अत्यंत कष्ट में हैं और इधर महर्षि के शाप से श्रीहीन भी हो गये हैं।
आप शरणागतों के रक्षक हैं, इस महान कष्ट से हमारी रक्षा कीजिये।

स्तुति से प्रसन्न होकर श्रीहरि ने गंभीर वाणी में कहा- तुम लोग समुद्र का मंथर करो, जिससे लक्ष्मी तथा अमृत की प्राप्ति होगी, उसे पीकर तुम अमर हो जाओगे, तब दैत्य तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट न कर सकेंगे। किन्तु यह अत्यंत दुष्कर कार्य है, इसके लिये तुम असुरों को अमृत का प्रलोभन देकर उनके साथ संधि कर लो और दोनों पक्ष मिलकर समुद्र मंथन करो। यह कहकर प्रभु अन्तर्हित हो गये।

प्रसन्नचित्त इन्द्रादि देवों ने असुरराज बलि तथा उनके प्रधान नायकों को अमृत का प्रलोभन देकर सहमत कर लिया। मथानी के लिये मंदराचल का सहारा लिया और वासुकिनाग की रस्सी बनाकर सिर की ओर दैत्यों ने तथा पूछ की ओर देवताओं ने पकड़ कर समुद्र का मंथन आरम्भ कर दिया।

किन्तु अथाह सागर में मंदरगिरी डूबता हुआ रसातल में धसने लगा। यह देखकर अचिन्त्य शक्ति संपन्न लीलावतारी भगवान श्रीहरि ने कूर्मरूप धारण कर मंदराचल पर्वत अपनी पीठ पर धारण कर लिया। भगवान कूर्म की विशाल पीठ पर मंदराचल तेजी से घूमने लगा और इस प्रकार समुद्र मंथन संपन्न हुआ।

कूर्म मंत्र
〰️〰️〰️
ॐ कूर्माय नम:
ॐ हां ग्रीं कूर्मासने बाधाम नाशय नाशय
ॐ आं ह्रीं क्रों कूर्मासनाय नम:
ॐ ह्रीं कूर्माय वास्तु पुरुषाय स्वाहा

श्री कूर्म भगवान की आरती
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
ॐ जय कच्छप भगवान,प्रभु जय कच्छप भगवान।
सदा धर्म के रक्षक-2,भक्त का राखो मान।ॐ जय कच्छप भगवान।।

सत्यनारायण के अवतारा,पूर्णिमाँ तुम शक्ति-2.प्रभु पूर्णिमाँ..
विष्णु के तुम रूपक-2,द्धितीय ईश शक्ति।ॐ जय कच्छप भगवान।।

घटी जब देवो की शक्ति तब,सागर मंथन दिया उपाय-2..
मंद्राचल पर्वत को थामा-2,कच्छप पीठ अथाय।।ॐ जय कच्छप भगवान।।

वासुकि को मथनी बनाया,देव दैत्य आधार-2..
चौदह रत्न मथित हो निकले-2,अमृत मिला उपहार।।ॐ जय कच्छप भगवान।।

चतुर्थ धर्म ऋषियों को बांटा,विश्व किया कल्याण-2..
एकादशी व्रत को चलाया-2,भक्तों को दे ज्ञान।।ॐ जय कच्छप भगवान।।

महायोग का रहस्य है प्रकट,कच्छप मूलाधार भगवान-2..प्रभु..
मूल बंध लगा कर-2,चढ़ाओ अपने प्राण अपान।ॐ जय कच्छप भगवान।।

श्वास प्रश्वास देव दैत्य है,इनसे मंथन सागर काम-2.प्रभु..
सधे जीवन ब्रह्मचर्य-2,जगे कुंडलिनी बन निष्काम।ॐ जय कच्छप भगवान।।

चौदह रत्न इस योग मिलेंगे,लक्ष्मी अमृत स्वास्थ अपार-2..प्रभु..
नाँद शांति आत्म ज्ञान हो-2,कर्मयोग कूर्म अवतार।ॐ जय कच्छप भगवान।।

इष्ट देव तुम कुर्मी जाति,सनातन द्धितीय अवतार-2..
कर्मयोग के तुम हो ज्ञानी-2,दिया कर्मठता व्यवहार।।ॐ जय कच्छप भगवान।।

पँच कर्म ज्ञान कच्छप अवतारा,पँच इंद्री कर वशीभूत-2.प्रभु..
सदा रहो स्वं आवरण-2,ज्यों सिमटे कच्छप कूप।ॐ जय कच्छप भगवान।।

धीरे धीरे कर्म करो सब,राखों कर्मी ध्यान-2..
अंत लक्ष्य पर पहुँचे साधक-2,पचा कर्म फल मान।ॐ जय कच्छप भगवान।।

खीर प्रसाद बनाकर,ईश कच्छप भोग लगाय-2..प्रभु..
स्वान और निर्धन बांटो-2,दे पूर्णिमाँ मन वरदाय।ॐ जय कच्छप भगवान।।

जो पढ़े ज्ञान आरती कच्छप,पाये जगत सब मान-2..प्रभु..
मिले सभी कुछ खोया-2,अंत शरण हो कूर्म भगवान।ॐ जय कच्छप भगवान।।


🌻🌻🌷🌻🌻🌷🌻🌻🌷🌻🌻🌷🌻🌻🌷🌻🌻

Recommended Articles

Leave A Comment