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प्रसिद्ध विद्वान पंडित वाचस्पति मिश्र का विवाह कम आयु में ही हो गया था। जब वह विद्या अर्जित करके घर लौटे तो उन्होंने अपनी मां से वेदांत दर्शन पर ग्रंथ लिखने की आज्ञा मांगी। उन्होंने कहा कि जब तक उनका ग्रंथ पूरा न हो, तब तक उनका ध्यान भंग न किया जाए। उनकी माता चूंकि काफी बूढ़ी हो चुकी थीं, सो उन्होंने अपने पुत्र की साहित्य साधना में सहयोग करने के लिए अपनी पुत्रवधू भामती को बुला लिया। भामती ने वाचस्पति की सेवा का दायित्व अपने ऊपर ले लिया। कुछ समय बाद माता जी का देहावसान हो गया। भामती तन-मन से पति की सेवा में लगी रही। वाचस्पति मिश्र साहित्य साधना में ऐसे लीन रहे कि उन्हें इस बात का बोध ही नहीं हो पाया कि उनकी सेवा कौन कर रहा है। इस तरह तीस वर्ष की अवधि बीत गई।
एक शाम दीपक का तेल खत्म हो गया, लेकिन तभी वाचस्पति मिश्र का ग्रंथ भी पूरा हो गया। दीपक के बुझने से भामती को बड़ा दुख हुआ। उसने सोचा कि वाचस्पति को लिखने में नाहक बाधा पडी़। वह अन्य काम छोड़कर दीपक में जल्दी जल्दी तेल डालने लगी। अपने लेखन से अभी अभी मुक्त हुए वाचस्पति ने जब अपनी पुस्तक से सिर उठाया तो सामने एक अपरिचित नारी को देखकर चौंक गए। उन्होंने सोचा कि यह तो उनकी मां नहीं है, फिर उनके अध्ययन कक्ष में कौन चला आया है। उन्होंने आदर पूर्वक पूछा, ‘हे देवी, आप कौन हैं?’ भामती ने कहा, ‘हे देव! मैं आपकी पत्नी हूं।’ सुनकर वाचस्पति मिश्र जैसे सघन निद्रा से जागे और पूछ बैठे,’ देवी, तुम्हारा नाम क्या है?’ उसने उसी तरह सकुचाते हुए कहा, ‘मेरा नाम भामती है।’
अपराध बोध के कारण वाचस्पति मिश्र ने इतने दिनों तक विस्मृत किए जाने का पश्चाताप करते हुए क्षमा याचना की। पति का स्नेह पाकर भामती भाव-विभोर हो गर्इ। पंडित जी ने पूछा-मैंने इतने दिनों तक आपका कोर्इ ध्यान नहीं दिया, फिर भी दिनचर्या में कोर्इ व्यतिरेक नहीं आया जीवन निर्वाह की सारी व्यवस्था कैसे हुर्इ?
भामती ने बताया-स्वामी ! हम जंगल से मूँज काट लाते थे। उसकी रस्सी बट कर बाजार में बेच आते थे। इससे इतनी आजीविका मिल जाती थी कि हम दोनों का जीवन निर्वाह भलीभाँति हो जाता था। इसी तरह हम दोनों के भोजन तेल, लेखन सामग्री आदि की सभी आवश्यक व्यवस्थायें होती चलीं आर्इ। आप इस देश, जाति, धर्म और संस्कृति के लिए ब्रह्मसूत्र के भाष्य जैसा कठिन तप कर रहे थे उसमें मेरा आपकी सहधर्मिणी का भी तो योगदान आवश्यक था?
इस अभूतपूर्व कर्त्तव्य परायणता से विभोर वाचस्पति मिश्र ने अपना ग्रन्थ उठाया और उसके ऊपर ‘‘भामती’’ लिखकर ग्रन्थ का नामकरण कर दिया। वाचस्पति मिश्र की अपेक्षा अपने नाम के कारण ‘‘भामती’’ ब्रह्मसूत्र की आज कहीं अधिक ख्याति है।

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