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||सुख, दुख और कर्म||
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प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में सुख और दुख का सामना करना ही पड़ता है जहां दुख होता है वहां एक दिन सुख की सुबह भी जरूर होती है और जहां सुख होता है वहां कभी न कभी दुख रूपी अंधेरे से सामना अवश्य होता है। वो सब हमें इस जन्म तथा पूर्व जन्म के कर्म और संस्कार के अनुरूप मिलता है। अक्सर हमने देखा है कि जब मनुष्य के जीवन में दुख का समय होता है तो वह बहुत जल्दी घबरा जाता है, परेशान हो जाता है। उसे लगता है कि मुझ से ज्यादा दुखी इस दुनिया में कोई है ही नहीं और वो सोचता है कि मै जीवन में बहुत दुखी हूँ क्योंकि मेरा जीवनसाथी मेरा साथ नहीं देता, मुझे रोग भी हैं, मेरी संतान मेरे अनुकूल नहीं चलती, मेरे पास सुख के साधन कम है, पैसा भी कम है, रोजगार भी कम है, समाज में नाम भी कम है। मुझे प्यार भी कम मिलता है, सारा दिन डरता रहता हूँ किसी भी भोग में आनंद नहीं आता, रात को ठीक से नींद भी नहीं आती। हर तरह से दुखी रहता हूँ। बहुत प्रयास करने पर भी अपनी कमी नहीं निकाल पाता हूँ। कभी कभी ज्ञानी का रूप धारण करके अपने पूर्वजन्मो के कर्मो के फलो को मानता हूँ।
दूसरों के द्वारा किये कर्म मुझे दुःख देते प्रतीत होते हैं। कभी मुझे दूसरों का सुख और सफलता दुख देती प्रतीत होती है
यही बात श्रीरामचरितमानस में विस्तार पूर्वक समझाई गयी है। आओ समझें।

वनगमन होने के बाद वन में प्रभु श्री राम और माँ जानकी जमींन पर आनंद के साथ लेट गए और सोने लगे। प्रभु को जमींन पर सोते देखकर प्रेमवश निषादराज के ह्रदय में विषाद हो आया। उसका शरीर पुलकित हो गया और वह प्रेमसहित लक्ष्मणजी से वचन कहने लगा कि महाराज दशरथ का महल जो स्वभाव से ही सुंदर है, सुंदर तकिये और गद्दे हैं। जहाँ सुंदर पलंग और मणियो के दीपक हैं वही श्रीसीता और श्रीराम आज घास-फूस की साथरी पर थके हुए बिना वस्त्र के ही सोये हैं। कैकयी ने बड़ी कुटिलता की, वह सुर्यकुल्रूपी वृक्ष के किये कुल्हाड़ी हो गयी। उस कुबुद्धि ने सारे विश्व को दुखी कर दिया। श्रीराम-सीता को जमींन पर सोते हुए देखकर निषाद को बड़ा दुःख हुआ। तब लक्ष्मणजी ज्ञान,वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले–

काऊ न कोऊ सुख दुख कर दाता,
निज कृति कर्म भोग फल भ्राता।

हे भाई! कोई किसी को सुख दुःख देने वाला नहीं है। सब अपने ही किये हुए कर्मो का फल भोगते हैं। यहां विचार करने वाली बात है कि प्रभु श्रीराम और माँ जानकी ने इस जन्म अथवा पूर्व जन्मो में क्या कर्म किये होंगे जो इनको इतना दुःख सहना पड़ रहा है। यह विचार भी आता है कि श्री लक्ष्मण, प्रभु राम अथवा माता सीता में तो दोष निकाल ही नहीं सकते। तब लक्ष्मण जी ने यह क्यों कहा, कि सब अपने कर्मो का फल भोगते हैं तो अब यहां एक ही बात निकाल कर आती है, की लक्ष्मण जी किसको समझा रहे हैं, “निषाद राज को” रो कौन रहा है, दुखी कौन है? प्रभु राम और सीता माता तो सुख और आनंद के साथ कुश की शय्या पर सो रहें हैं दुखी तो निषादराज है और रो भी वही रहा है इसका अर्थ निषादराज आपके कर्म आपको दुःख दे रहे हैं।
जो कोई भी व्यक्ति इस संसार में किसी भी तरह से दुखी है वह केवल अपने ही कर्मो का फल भोगता है किसी दुसरे के किये किसी भी प्रकार के कर्म उसके लिए दुःख और सुख का कारण नहीं बन सकते।

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