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स्व संकेतों द्वारा व्यक्तित्व सम्पन्न बनें

अथर्ववेद के मेधावर्धन मुक्त 6/108/1 में उल्लेख है-’र्स्व नो मेधे प्रथमा’ अर्थात् सद्विचार ही संसार में सर्वश्रेष्ठ है। विचार ही वह आधार भूत तत्व है जिसके ऊपर जीवन का वटवृक्ष खड़ा होता है। मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ, संस्कार, स्वभाव, आदतें भावनाएं, प्रसुप्त आकाँक्षायें, आदि जिस आधार शिला पर अवस्थित हैं, मनोविज्ञान वेत्ता उसे विचार कहते हैं। व्यक्तित्व की उत्कृष्टता, निकृष्टता का निर्माण इसी बीज के सहारे होता है। बीज के अनुसार ही वृक्ष की उत्पत्ति होती है।
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जैसा बीज बोया जायेगा वैसा ही पौधा उत्पन्न होगा, वैसा ही जीवन निर्माण होगा। जीवन की यथार्थता हमारे विचारों पर निर्भर है। आज हम जैसे सभी हैं, अपने जीवन को जिस उत्कृष्ट या निकृष्ट स्थिति में रखे हुए हैं, हमारा अंतःकरण, इच्छाएं बाह्य स्वरूप, वातावरण, मानसिक संतुलन आदि सभी तत्व हमारे अपने विचारों के परिणाम हैं। यह एक तथ्य है कि जैसे विचार होंगे वैसा ही हमारा व्यक्तित्व बनेगा। जैसा हम विचार करेंगे वैसी ही हमारी आदतें बनेंगी। जैसी हमारी आदतें विकसित होंगी, वैसा ही मारा चरित्र विकसित होंगी, वैसा ही मारा चरित्र विकसित होगा। जिस श्रेणी के विचार मनः संस्थान में उत्पन्न होंगे, वैसे ही स्वभाव का निर्माण होता चला जायेगा। जीवन में जो भी प्रकाश या अन्धकार, प्रतिकूलता या अनुकूलता हमें दृष्टिगोचर होती है, वह सब विचारों के ही प्रतिफल हैं। मनुष्य की सर्वांगीण महत्ता, जीवन के सर्वोत्तम कर्तव्य, श्रेष्ठ व्यक्तित्व उसके प्रबल स्थायी विचारों पर निर्भर हैं।
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अध्यात्मवेत्ता एवं मूर्धन्य मनःशास्त्रियों का मानना है कर्म हमारे विचारों के ही रूप हैं। सर्वप्रथम विचार हमारे मन में प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं और जब वे मन में प्रबलता के साथ अंकित हो जाते हैं-गरी नींव पकड़ लेते हैं, तद्नुरूप ही बाह्य-अंग-प्रत्यंग क्रियाएं करते हैं। जैसे ही विचार मन में उत्पन्न होते हैं, मस्तिष्क के संयुक्त गतिवाहक सूक्ष्म तंतुओं पर उसका प्रभाव पड़ता है। अन्त में प्रबल विचार के अनुरूप ही कार्य करने की बलवत्तर प्रेरणा की उत्पत्ति होती है। पहले विचार तत्पश्चात् क्रिया और व्यवहार रूप में परिणति-यही नियम हैं।
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यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जिन विचारों पर हम दृढ़तापूर्वक विश्वास करते हैं, जिनके पीछे प्रचण्ड प्रेरणा प्रस्तुत रहती है, जो विचार बारम्बार मनःमस्तिष्क में उठता रहता है तथा जिसका पुनरावर्तन चलता रहता है, उसी के अनुसार हमारा जीवन ढल जाता है। तात्पर्य यह है कि अपने आपको हम जैसा कुछ मानने लगते हैं अपने बारे में जो दृढ़ मान्यता बना लेते हैं, दृढ़ चिन्तन कर लेते हैं, निरन्तर जिन विचारों और भावों में संलग्न रहते हैं, क्रमशः वैसे ही ढलते जाते हैं। जैसे हमारे आदर्श होते हैं, ठीक उन्हीं का प्रतिबिम्ब हमारे मुखमण्डल पर द्युतिमान हो उठता है और कुछ काल पश्चात् हम वैसे ही हो जाते हैं। वैसे ही मारा आभामण्डल बनता चला जाता है।
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अनुसंधान कर्ता मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि यदि मनुष्य अपने आपको स्वस्थ, निरोग, सामर्थ्यशील एवं प्रतिभावान होने की- मानो निरन्तर इसी भावना का स्व संकेत अपनी आत्मा को करता रहे-ऑटोसजैशन देता रहे, इन्हीं सशक्त विचारों में पूर्ण निश्चय एवं विश्वास भर कर अपने आपको सूचित करता रहे तो निश्चय ही उसका व्यक्तित्व प्रतिभावान एवं शक्तिशाली बन जायेगा। आवश्यकता केवल निरन्तर स्वसंकेत-ऑटोसजैशन देते रहते की है। जितने उत्कृष्ट एवं परिपुष्ट संकेत होंगे, उतना ही महान परिवर्तन एवं उत्कृष्ट तत्वों की सिद्धि होगी।
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संकेत और स्वसंकेत-’सजेशन और ऑटोसजैशन’ का यहाँ अन्तर समझ लेना आवश्यक है। पुष्ट एवं दृढ़ विचार, स्पर्श, ध्वनि, शब्द, दृष्टि तथा विभिन्न वस्त्रों, मुद्राओं एवं क्रियाओं द्वारा किसी के मन पर प्रभाव डालने तथा अपनी इच्छा द्वारा कार्य सम्पन्न कराने का नाम संकेत करना है। यह एक तरह की सम्मोहन प्रक्रिया है। स्वसंकेत को स्व-सम्मोहन भी कहा जा सकता है जिसमें प्रयोगकर्ता व्यक्ति स्वयं ही अपने ऊपर प्रयोग करता है। अपने संकेतों से स्वयं प्रभावित होना ही स्व-संकेत है। इस प्रक्रिया में अपना ही शरीर, मन एवं विचार उपकरण या ‘सबजेक्ट’ होता है। इसमें ऐसे सशक्त विचारों से व्यक्ति अपने आपको संकेत देता है जिनमें अपूर्व दृढ़ता, गहन श्रद्धा एवं शब्द-शब्द में प्रचंड शक्ति भरी होती है।
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इसमें कुछ शब्दों, वाक्यों या सूत्रों को बार-बार अपने मस्तिष्क में उठाना और उन पर विचार क्रिया को दृढ़ करना होता है। ऐसा बार-बार करने से कुछ काल पश्चात् विचार स्थायी स्वभाव में परिणत हो जाते हैं। मन को जिस प्रकार का प्रबोध बार-बार दिया जाता है, कालान्तर में वही उसकी स्थायी सम्पदा बन जाती है। मन ही हमारे सम्पूर्ण कार्यों का संचालक व नियंत्रण कर्ता है। यह प्रचण्ड शक्तिशाली यंत्र है। विचारों की उत्पत्ति, परिवर्धन एवं परिष्कार का कार्य भी इसी के द्वारा संचालित होता है, अतः स्व-संकेत का प्रभाव हमारे मन-मस्तिष्क पर भी पड़ता है। जितनी शीघ्रता से हमारा मन उत्कृष्ट विचारों के संकेतों को स्वीकार कर उनसे तादात्म्य स्थापित कर लेता है, उतनी ही जल्दी हमारे क्रिया-कलापों में परिवर्तन आने लगता है और व्यक्तित्व परिष्कार की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है।
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जब उच्चस्तरीय संकेत हमारे व्यक्तित्व का एक हिस्सा बन जाते हैं और मानसिक क्षेत्र में दृढ़ता पूर्वक जम जाते हैं, तब ये अपनी प्रतिक्रियाएं प्रदर्शित करना आरंभ कर देते हैं। ये संकेत शक्ति-सामर्थ्य के जीवन निर्माण के स्रोत हैं। अंतःकरण में आग्रहपूर्वक ये संकेत नवीन संस्कार उत्पन्न करते हैं। पुराने कुसंस्कारों, बुरी आदतों को, जो स्वभाव का अंग बन चुकी हैं, इन्हीं संकेतों के द्वारा नष्ट किया जा सकता है। जिस प्रकार कोई विरेचक पदार्थ खा लेने पर वह पेट में हलचल उत्पन्न कर देता है और विजातीय तत्व को निकालकर बाहर कर देता है, उसी प्रकार मनःक्षेत्र में प्रवेश कर संकेत बड़ी भारी उथल-पुथल मचा देते हैं-मन-मस्तिष्क को मथ डालते हैं। पूर्व संचित संस्कारों तथा इन नवीन संकेतों में एक संघर्ष उत्पन्न होता है। निश्चय ही सुदृढ़ता एवं भावना की प्रबलता के अनुसार इस देवासुर संग्राम में सफलता मिलती हैं।
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यदि हमारी पूर्व भावना बलवती हुई तो ये संकेत निष्प्रयोजन सिद्ध होते हैं, किन्तु यदि इनके पीछे दृढ़ निश्चय की विश्वास की प्रचण्ड प्रेरणा विद्यमान रही तो इन संकेतों के अनुसार निश्चय ही मनःसंस्थान का एवं तद्नुरूप व्यक्तित्व का निर्माण आरंभ हो जाता है।
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वस्तुतः स्व-संकेतों में ही मानसिक कायाकल्प का मर्म छिपा पड़ा है। श्रुति की मान्यता है कि- श्रयो मयो अयम् पुरुशः यो यच्छ्रद्धः स एव सः। अर्थात् जो जैसा सोचता और अपने सम्बन्ध में भावना करता है वह वैसा ही बन जाता है। उत्कृष्ट एवं विधेयात्मक चिन्तन, महापुरुषों के गुणों को अपने अन्दर समावेश होने की भावना से सजातीय विचार अपने भीतर खिंचते चले आते हैं और वाँछित सद्गुणों को-विद्युत प्रवाहों को जन्म देने लगते हैं।
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मनोवैज्ञानिक इसी आधार पर व्यक्तित्व में, विचार प्रवाह में परिवर्तन लाने की बात कहते हैं।
उनका मत है कि जैसा कि पृथ्वी के चारों ओर ‘आयनोस्फियर’ है इसी प्रकार मानवी मस्तिष्क के चारों ओर भी एक ‘आइडियोस्फियर’ होता है। यह वैसा ही होता है जैसा मनुष्य का चिन्तन क्रम होता है। क्षण मात्र में यह बदल भी सकता है व पुनः वैसा ही सोचने पर पूर्ववत् भी हो सकता है। इसी चिन्तन प्रवाह के आदर्शोन्मुख, श्रेष्ठता की ओर गतिशीलता होने पर व्यक्ति का मुखमंडल चमकने लगता है। दूसरों को आकर्षित करता है एवं ऐसे व्यक्ति के कथन प्रभावोत्पादक होते हैं, इसी सीमा तक कि अन्य अनेकों में भी परिवर्तन ला सकें।
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एक प्रकार से स्व संकेतों द्वारा अपने आभा मंडल को-व्यक्तित्व को एक सशक्त चुम्बक में परिणत किया जाता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं-’थिंक एण्ड ग्रो रिच’ अथवा ‘एडाँप्ट पॉजिटिव प्रिंसिपल टूडे’। आशय यह कि सोचिये-विचारिये- पर विधेयात्मक सोचिये एवं अभी इसी क्षण सोचिये ताकि आप स्वयं को श्रेष्ठ एवं समुन्नत बना सकें। सारे महामानव स्वसंकेतों से ही महान बने हैं। गाँधी जी ने हरिश्चन्द्र के नाटक को देखकर इस स्वयं संकेत से अपने मन-मस्तिष्क को भर लिया कि सत्य के प्रयोगों को अपने जीवन में उतारो व उसके परिणाम देखो। उनके शिखर पर चढ़ने के मूल में इस चिंतन चेतना की कितनी महान भूमिका थी, यह सभी जानते हैं।
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संकेत हमारे वातावरण में-आइडियोस्फियर में चारों ओर फैले हैं। जिस प्रकार हम हवा में साँस लेते हैं, उसी प्रकार अपने वातावरण में से संकेत खींचा करते हैं। प्रातः काल से सायंकाल तक-उठने से लेकर सोने तक हम अपने अव्यक्त को, अपनी आत्मा को, अपनी शक्तियों को कुछ न कुछ आज्ञा-आदेश देते रहते हैं। ये सब हमारे खुद के लिए है, अतः इन्हें स्वसंकेत कहना चाहिए।
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उच्चस्तरीय स्वसंकेत की प्रक्रिया इस प्रकार है-शान्त वातावरण में स्थिर शरीर और एकाग्र मन से बैठा जाय। भावना की जाय कि एक प्रखर आत्म ज्योति हमारे हृदय में सूर्य की भाँति प्रकाशित है। इसके दिव्य प्रकाश में हमें अपना कर्तव्य भली-भाँति दृष्टिगोचर हो रहा है। मेरा अंतर्जगत सब ओर से प्रकाशित है। उस प्रकाश में सारी भ्रान्तियाँ विलीन हो गयी हैं। वासना, लोभ एवं तृष्णा के पंजे से छुटकारा मिल चुका है। समस्त चिन्तायें, भय, शंका और क्षोभ तिरोहित हो गये हैं। अन्तराल की सृजनशक्ति, आकर्षक शक्ति ईश्वरीय सत्ता को प्राप्त करने से जाग्रत हो उठी है और प्राण चेतना से अपना मन-मस्तिष्क लबालब भर उठा है। उससे निस्सृत प्राण विद्युत का समुच्चय शरीर के अंग-अवयवों में रोम-राम में अधिकाधिक मात्रा में प्रवाहित हो रहा है। शिथिलता का स्थान समर्थ सक्रियता ग्रहण कर रही है। उस आधार पर प्रत्येक अवयव पुष्ट हो रहे हैं। इन्द्रियों की क्षमता का अभिवर्धन हो रहा है। चेहरे पर चमक बढ़ रही है। बौद्धिक स्तर में उभार आ रहा है, प्रतिभा में अभिवृद्धि हो रही है जिसकी फलश्रुति परिष्कृति एवं आकर्षक व्यक्तित्व के परिवर्धन के रूप में अपने को और दूसरों को हो रहा है।
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स्व-संकेतों का आधार हमारी श्रद्धा है। जितना ही हमें अपने में विश्वास होगा, उतनी ही तीव्रता से संकेत कार्य करेंगे। श्रद्धा हमारे अणु-अणु को नव जीवन प्रदान करती है। विश्वास ही दृढ़ संकल्प शक्ति को उत्पन्न करने वाला तत्व है। एक बार आत्मविश्वास उद्दीप्त हो जाने से उसका प्रभाव जीवन पर्यन्त बना रहता है। श्रद्धा व पूर्ण विश्वास के विचारों से भरे संकेतों में यौवन, बल और सफलता का महान रहस्य छिपा हुआ है। अतः स्व संकेत करते समय अपने अभ्यन्तर प्रदेश में विश्वास करने वाली वास्तविक महत्ता पर अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिए।
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स्व-संकेत के प्रयोग प्रातः कालीन शाँत वातावरण में करना अत्यन्त फलदायी सिद्ध होता है, किन्तु जिन्हें ऐसा अवसर न मिलता हो, वे रात्रि शयन से पूर्व इस अभ्यास को सरलतापूर्वक कर सकते हैं और अपने भाग्य, भविष्य, दृष्टिकोण एवं वातावरण को परिवर्तित कर सकते हैं। (व्यक्तित्व परिष्कार की इससे सरल एवं प्रभावी प्रक्रिया और कोई हो नहीं सकती।)

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