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ईश्वर भक्ति और प्रेम-साधना का तत्वज्ञान!!!!!!

मोह और प्रेम में वही अन्तर है जो काया और छाया में होता है। छाया तो काया से मिलती-जुलती तो होती है पर उसमें न तो जीवन होता है और न बल। फोटो देखकर आभास तो मूल मनुष्य का होता है पर उस कागज के टुकड़े से प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता। मोह में जलन भर होती है पर वह प्रकाश और उल्लास नहीं होता जो प्रेम में पाया जाता है।

प्रेम में प्रेमास्पद की प्रसन्नता का ध्यान रखा जाता है। मोह में प्रेम को अपनी इच्छानुसार चलाने की ललक रहती है। मोह तब प्राप्त होता है जब मनोरथ की पूर्ति होती है, उसमें व्यवधान आने पर खीज और झूँझल का उद्वेग उमड़ता है इसके विपरीत प्रेम में चाहने का, पाने का कोई प्रश्न ही नहीं रहता।

जिसमें प्रेमास्पद को सुविधा और प्रसन्नता अनुभव हो वही सोचना उचित लगता है और वही करने की आकाँक्षा उठती है। मोह में प्रेमास्पद पर यह दबाव डाला जाता है कि वह इच्छानुकूल कार्य करे पर प्रेम में अपने को ही उसके संकेतों पर चलने एवं ढलने के लिए उत्साह उमड़ता है।

मोह अन्धकार में भटकता है। उसमें भय, आशंका, असफलता की सम्भावना बनी रहती है पर प्रेम तो शाश्वत है उसमें सफलता के अतिरिक्त और कहीं कुछ भी नहीं। प्रेम एकाँगी होता है। वह अपने पक्ष में ही परिपूर्ण होता है। दूसरा उसे स्वीकार करता है या अस्वीकार इससे सच्चे प्रेमी की स्थिति में कोई अन्तर नहीं आता।

मूर्ति पूजा-प्रेम योग साधना का एक उत्कृष्ट माध्यम है। भक्त इष्टदेव की प्रतिमा पर अपनी श्रद्धा भक्ति का आरोपण करता ही चला जाता है। वह यह नहीं देखता कि प्रतिमा ने प्रत्युत्तर दिया या नहीं। मूर्ति सदा मौन ही रहती है कभी बदले में प्रेम प्रदर्शित नहीं करती तो भक्त के मन पर उसकी कोई बुरी प्रतिक्रिया नहीं होती।

वह अपने प्रेम पक्ष को अपने में पूर्ण मानता है और विश्वास करता है कि प्रतिमा का कोई प्रत्युत्तर न मिलने पर भी उसकी साधना की प्रगति में कोई अन्तर-आने वाला नहीं है। मीरा के “गिरधर गोपाल” एकांगी थे। पाषाण प्रतिमा में से जीवन्त कृष्ण का सृजन मीरा की एकांगी श्रद्धा ने ही सम्पन्न कर लिया था। एकलव्य की साधना में यह तथ्य और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है।

प्रेम अपने आप में आनन्द से ओत-प्रोत है। उसकी उपलब्धि के बाद और कुछ पाने योग्य रह ही नहीं जाता। प्रेम अपने अतिरिक्त और कुछ किसी को नहीं देता और वह प्रेमी की अहंता से कम कुछ मूल्य भी स्वीकार नहीं करता। कामनाओं के जाल में मोहासक्ति ही उलझी रहती है। जो चाहता है वह प्रेमी नहीं हो सकता।

लेन-देन की यदि कुछ प्रेमी और प्रेमास्पद के बीच गुंजाइश भी है तो इतनी ही कि वह दिया हुआ दुःख शिरोधार्य करता है और अपने सुखों को निछावर करने से पीछे नहीं हटता। प्रियतम का दिया दुख लेकर तपस्वी बन जाता है और उसे अपना सुख देकर त्यागी की पंक्ति में बैठने की पात्रता प्राप्त होती है।

दिव्य प्रेम की परिणति आत्मदान में होती है। आत्मदान और दिव्य प्रेम को अन्योन्याश्रित समझा जाना चाहिये। परमेश्वर को देने के लिये मनुष्य के पास पवित्र प्रेम के अतिरिक्त और कुछ अपनी वस्तु है भी नहीं।

पदार्थ तो प्रकृति के हैं, प्रकृति परमेश्वर की। कोई वस्तु ऐसी नहीं जिसे हम अपनी कह सकें और परमेश्वर को अर्पण कर सकें। यदि प्रेम रहित मनः स्थिति में अपने वैभव का थोड़ा सा अंश दे भी दें तो उतने से परमेश्वर को सन्तोष नहीं हो सकता। प्रियतम की तृप्ति आत्मदान से ओत-प्रोत दिव्य प्रेम के बिना हो ही नहीं सकती।

जहाँ प्रेम और आत्मदान के साथ समग्र वैभव भी जुड़ा होता है वहाँ आत्मदानी का ऐसा कुछ बनता ही नहीं जो उसने प्रियतम के चरणों पर अर्पण न कर दिया हो, आत्मदानी के धन, यश, वैभव, विलास, मन, मस्तिष्क आदि का उपयोग परमेश्वर के लिए-उसके संकेतों पर निछावर करने के लिए ही सुरक्षित रहता है, इसमें कम में न प्रेम की पूर्णता होती है और न प्रेमास्पद को सन्तोष।

दिव्य प्रेम अनवरत होता है। उसके लिए अलग से समय निर्धारित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। जिस प्रकार अपने शरीर मन का क्रिया-कलाप हर घड़ी ध्यान में रहता है इसी प्रकार प्रेमी भी रोम-रोम में समाया रहता है, उसी के लिये सारी क्रियाएं होती हैं, उसी को प्रसन्न करने के लिये मस्तिष्क सोचता है। ऐसी दशा में हर घड़ी उसी का स्मरण भजन होता रहता है।

सच्चा स्मरण वही है जिसमें और सब कुछ विस्मरण हो जाय यहाँ तक कि अपना आपा भी। जीवन, मरण, व्यय और संग्रह सब कुछ जिसमें प्रियतम के लिये होता रहे उसी को समर्पित जीवन कह सकते हैं।

मोह से निवृत्ति पाने के लिए दिव्य प्रेम की आवश्यकता है। जहाँ सच्चा प्रेम होगा वहाँ मोह नहीं रहेगा और जहाँ मोह का साम्राज्य होगा वहाँ प्रेम का प्रकाश उदय न हो सकेगा।

प्रेमी न तो लोभ या भय दिखाकर प्रेमास्पद को आकर्षित करता है और न स्वयं इनके कारण उसकी और आकर्षित होता है। ईश्वर हमारी मनोकामना पूर्ण करे अथवा उसका अनुग्रह पाप कर्मों के दण्ड से बचा दे इस प्रकार भय और लोभ के कारण की जाने वाली भक्ति उपहासास्पद है उसमें वह उत्कृष्टता कहाँ रही सकती है जिससे आत्मा का अजस्र आनन्द और सन्तोष की उपलब्धि होती है।

स्वर्ग का लोभ और नरक का भय भी जिसे प्रभावित न करे- जो अपने आप में सरल स्वाभाविक हो, आत्मोल्लास ही जिसका लक्ष्य हो, दिव्य प्रेम उसी को कहा जाना चाहिए। जिससे सिद्धियों की कामना हो उसे भी भक्ति की संज्ञा में नहीं गिनना चाहिए। प्रेम के उदय के साथ-साथ मिलन की जो उत्कंठा प्रबल होती है उसे द्वैत के अद्वैत में परिवर्तित होने की भावनात्मक तितीक्षा और तप साधना ही कहना चाहिए।

प्रेम का अभ्यास एक बिन्दू से आरम्भ किया जा सकता है पर उतने तक वह सीमित नहीं रह सकता, इष्टदेव को लक्ष्य बनाकर उसका शुभारम्भ श्रीगणेश किया जा सकता है। किसी व्यक्ति विशेष को भी प्रेमास्पद वरण किया जा सकता है। पर दिव्य प्रेम उतनी छोटी परिधि में सीमाबद्ध नहीं रह सकता।

बत्ती जलाकर प्रकाश उत्पन्न करने की प्रक्रिया सही है पर प्रकाश को बत्ती में ही सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता वह समीपवर्ती क्षेत्र में फैले बिना, बिखरे बिना रह ही नहीं सकता। प्रेम असीम है। जो उसका साधना करेगा वह किसी व्यक्ति या देवता तक अपने भाव विस्तार को सीमाबद्ध नहीं कर सकता।

चन्दन वृक्ष से उद्भूत गन्ध की तरह प्रेम भावना निरन्तर विस्तृत होती रहती है और उसका रसास्वादन करने का उस क्षेत्र के प्रत्येक प्राणधारी को अवसर मिलता है। प्रेम का विस्तार सहृदयता, सज्जनता, सहानुभूति, उदारता, करुणा, सेवा और आत्मीयता की सद्भावनाओं में विस्तृत होता चला जाता है।

प्रेमी की सहज प्रवृत्ति यह होती है कि दूसरों के दुखों को बाँट लेने के लिए अपने सुखों को वितरित करने के लिए आतुरता एवं अनुकूलता अनुभव करे।

           

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