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भगवान् श्रीकृष्ण की सोलह कलाएं —-

१. अमृतदा — जीवात्मा तथा परमात्मा का साक्षात्कार कराकर , ज्ञान रूपी अमृत पिलाकर मुक्त करने वाली कला अमृतदा है ।

२. मानदा — मानवती स्वाभिमानिनी गोपिकाओं को मान देने वाली ; भगवान् की रास-क्रीड़ा में दो प्रकार की गोपिकाएं थी , उनमें से एक निराभिमानिनी तथा दूसरी मानिनी थी ।

उनमें राधा सहित आठ सखियां मानिनी थी , बात-बात में रूठ जाती थी , तब भगवान् उन्हें अनुनय-विनय द्वारा मनाया करते थे —- यह भगवान् की कला इसी कारण मानदा कही गई है ।

३ . पूषा — अनन्त-कोटि ब्रह्माण्ड का भरण-पोषण करने वाली ।

४ . पुष्टि — गीता के पन्द्रहवें अध्याय में भगवान् ने कहा है —

“पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमोभूत्वा रसात्मक:।”

मैं रस-स्वरूप चन्द्रमा होकर सभी औषधियों को पुष्ट करता हूँ अर्थात् औषधि शब्द का प्रयोग यहां पर सभी स्थावर-जंगम प्राणियों को पुष्ट करने के अर्थ में है , ऐसी भगवान् की कला पुष्टि नाम की है ।

५ . तुष्टि — प्रारब्धानुसार जो प्राप्त हो जाये , उसी में सन्तोष देने वाली शक्ति तुष्टि कही जाती है ।

६ . रति — भगवान् के प्रति अभेद तथा स्वार्थ रहित अनुरागात्मक भक्ति रति है ।

७ . धृति — अनुकूल पदार्थों के मिलने पर उनको शीघ्र न भोगने की सामर्थ्य तथा प्रतिकूल दुःख देने वाले पदार्थों के मिलने पर मन-बुद्धि को स्थिर रखने वाली कला का नाम धृति है ।

८ . शीर्षणि — विदेह-कैवल्य मुक्ति देने वाली शक्ति शीर्षणि है ।

९ . चण्डिका — बाहर तथा भीतर के शत्रुओं को दण्डित करने वाली शक्ति चण्डिका है ।

१० . कान्ति — भगवान् की स्वयंप्रकाशिनि कला कान्ति है ।

११ . ज्योत्स्ना — शम-दमादि के द्वारा शीतल प्रकाश देकर अंतःकरण की ज्योति को जलाकर परमात्मा की दिव्य ज्योति से मिलाने वाली कला ज्योत्स्ना है ।

१२ . मोक्षदा — ब्रह्म-विद्या के द्वारा जीव के तीनों कर्म , तीनों शरीरों को ज्ञानरूपी अग्नि से दग्ध करके ब्रह्म के साथ मिलाने वाली कला मोक्षदा है ।

१३ . प्रीति — लोक-परलोक के अपयश या नरक के भय की चिन्ता से रहित भगवान् के प्रति सच्चा अनुराग कराने वाली कला प्रीति है ।

जैसे भगवान् ने सभी रानियों तथा गोपियों की प्रेम-परीक्षा के लिए पेट में दर्द का बहाना किया ।

अनेकों उपचार करने पर भी भगवान् ठीक न हुये , नारद जी उस समय वहीं थे , उन्होंने पूछा — “आपका दर्द कैसे दूर होगा ?”

तब भगवान् ने कहा —- “कोई प्रेमी भक्त अपने चरणों की धूलि या चरणोदक दे दे , तब पीड़ा दूर होगी ।”

नारद जी कमण्डलु लेकर ब्रह्मा-विष्णु-शिव के पास गये , सनकादिकों से मिले , गोलोक से लेकर पाताल तक किसी ने भी चरणोदक नहीं दिया ।

सभी कानों पर हाथ रखकर कहने लगे — “इतना बड़ा पाप करके कौन अनन्त काल तक नरक भोगेगा !”

अन्त में नारद जी ब्रज में पहुँचे , ब्रज की गोपियाँ सकुचा गई , किन्तु जब राधा ने सुना तो परम-प्रसन्न चित्त से बोली —

“यदि मेरे इष्ट को चरण-रज तथा पादोदक से सुख मिल सकता है , तो मुझे भले ही नरक में जाना पड़े , किन्तु मेरे प्रियतम को रंच मात्र भी कष्ट नहीं होना चाहिए ।”

प्रसन्नता से चरणोदक दे दिया । इस प्रकार की स्वार्थ रहित सच्ची भक्ति का नाम प्रीति है ।

१४. अंगदा — भगवान् के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग के समान सारूप्य मुक्ति देने वाली कला अंगदा है ।

१५ . पोषणा — अष्टाङ्ग-योग के द्वारा या नवधा-भक्ति के द्वारा , साधन-चतुष्टय द्वारा अथवा वेदान्त के महावाक्यों के श्रवण-मनन-निदिध्यासन द्वारा जीव की संसाराकार वृत्ति को हटाकर ब्रह्माकार या भगवदाकार वृत्ति का पोषण करने वाली कला पोषणा है ।

१६ . पूर्णा — जिस प्रकार घड़ा फूटने पर घटाकाश महाकाश में लय हो जाता है , दूध दूध में , जल सागर में मिलकर पूर्णता को प्राप्त करता है , उसी प्रकार भगवान् की वह शक्ति जो जीव की सम्पूर्ण उपाधियों को दूर करके सच्चिदानन्द रूपी महासागर में लीन कर भगवान् के पूर्ण पद को प्राप्त कराने वाली जो कला है — उसे पूर्णा कहते हैं ।

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