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, वृक्ष जीवन का आधार

परमपिता परमेश्वर को नमन करते हुए सभी आर्य विद्वानों को नमस्ते जी।
वृक्षों के बारे में कुछ रोचक और महत्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत है,
जो भी व्यक्ति या समाज ये कहता कि वृक्षों में जीवन नहीं होता वृक्षों में आत्मा नही होती उनके लिए बताना चाहते कि वृक्ष उद्भिज प्राणियों में आते यानी जो जमीन के भीतर से उत्पन्न होते है। जब एक बीज बोया जाता तो वो भूमि से आवश्यक पोषक तत्व,वायुमंडल से प्राणवायु व सूर्य का प्रकाश ले कर स्वयं का विकास करता है।
और जमीन को भेद कर बाहर निकलता हमारे वैदिक ऋषियों ने वृक्ष को उद्द्भिज की श्रेणी में रखा है।

वृक्षो में आत्मा है इस बात के बहुत से प्रमाण है उनमे से कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं।

संसार में दो प्रकार के जगत हैं जड़ और चेतन. चेतन जगत में दो विभाग हैं एक चर और एक अचर. वृक्ष आदि अचर कोटि में आते हैं जबकि मानव पशु आदि चर कोटि में आते हैं.

महाभारत के अनुसार वृक्ष आदि में वनस्पति, औषधि, गुल्म, गुच्छ, लता, वल्ली, तृण आदि अनेक प्रजातियाँ हैं।
(सन्दर्भ- ५८.२३)

मनु स्मृति में बीज या शाखा से उत्पन्न होने वाले को उदभिज्ज स्थावर बीज कहा गया हैं।
(सन्दर्भ- १.४६)

मनु स्मृति के अनुसार मनुष्य जब शरीर से पापाचरण करता हैं तो उसके फलस्वरूप अगले जन्म में वृक्ष आदि का जन्म पाता हैं।
(सन्दर्भ- १२.९)

मनु स्मृति के अनुसार जो मनुष्य अत्यंत तमोगुणी आचरण करते हैं या अत्यंत तमोगुणी प्रवृति के होते हैं तो उसके फल स्वरुप वे अगले जन्म में स्थावर = वृक्ष, पतंग, कीट ,मत्स्य , सर्प, कछुआ, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं।
(सन्दर्भ- १२.४२)

आगे मनु महाराज स्पष्ट रूप में घोषणा करते हैं की पूर्वजन्मों के अधम कर्मों के कारण वृक्ष आदि स्थावर जीव अत्यंत तमोगुण से अवेष्टित होते हैं. इस कारण ये अंत: चेतना वाले होते हुए आन्तरिक रूप से कर्म फल रूप सुख-दुःख की अनुभूति करते हैं। बाह्य सुख-दुःख की अनुभूति इनको अन्य जंगम पशु-पक्षियों या मनुष्यों की भांति नही होती किन्तु वृक्षों को भी सुख-दुःख का अनुभव होता अवश्य है। आगे अन्य प्रमाणों द्वारा इस बात को और स्पष्ट किया जाएगा।

वृक्षों में जीव विषयक आर्य समाज की मान्यता

वृक्षों में जीव विषयक मान्यता आर्य समाज के प्रारम्भिक विद्वानों में भी विवाद का विषय रही है। कुछ विद्वान् वृक्षों में जीव की सत्ता मानते थे जिनमें पं. गणपति जी शर्मा आदि विद्वान् मुख्य थे तथा कुछ विद्वान् वृक्षों में जीव की सत्ता स्वीकार नहीं करते थे जिनमें स्वामी दर्शनानन्द जी सरस्वती का नाम मुख्य रूप में लिया जा सकता है। आजकल भी इस विषय में आर्य विद्वानों में मतैक्य नहीं है! कुछ वृक्षों में जीव मानते हैं तथा कुछ केवल प्राणमात्र मानते हैं, जीव नहीं। वृक्षों में जीव न मानने वालों का प्रबल तर्क यह है कि यदि वृक्ष वनस्पतियों में जीव माना जाए तो एक व्यक्ति गाजर-मूली उखाड़ कर खाता है तथा दूसरा व्यक्ति गाय बकरे आदि को मार कर खाता है। तब दोनों में अन्तर क्या रहा? शीर्षक में हमारे वृक्ष शब्द का तात्पर्य वृक्ष, औषधि, वनस्पति, लता, वल्लरी आदि सभी से है, केवल वृक्ष से ही नहीं।
यह प्रश्न बड़ी गरिमा रखता है तथा समाधान चाहता है। इस गहन गुत्थी को सुलझाए बिना हम भी कन्दादि उखाड़ कर खाने पर उसी कोटि में आ जाते हैं जिस कोटि में वधिक या व्याध आते हैं। इस गुत्थी के समाधान की ओर बढ़ने से पहले हम यह देखें कि वृक्षों में जीव की सत्ता के विषय में वेद, उपनिषद्, स्मृति, दर्शन आदि ग्रन्थ तथा आचार्य शंकर एवं महषि दयानन्द आदि की क्या मान्यता है।

वृक्षों में जीव विषय में वेद के प्रमाण

अथर्ववेद का एक मन्त्र है जिसमें कहा है कि –

मंत्र

इदं जनासो विदथ महद् ब्रह्म वदिष्यति।
न तत् पृथिव्यां नो दिवि येन प्राणन्ति वीरुध: ॥ (1.32.1)

अर्थ

हे मनुष्यों! तुम इस बात को जानते हो कि वह पृज्य ब्रह्मज्ञानी परब्रह्म का उपदेश करेगा, जो ब्रह्म न केवल पृथिवी या द्युलोक में ही है (अपितु सर्वत्र है तथा) जिससे ये लता (आदि) प्राण लेते हैं।

इस मन्त्र में लताओं को प्राण लेने वाली बतलाया है। प्राणन क्रिया का आधार आत्मा ही है। प्राय: अन्दर से बढ़ने वाली बस्तुएं आत्मा की ही प्रतीति कराती हैं। वृक्ष, वनस्पति, लता, ओषधि आदि सब अन्दर से बढ़ते हैं, अतः इनमें आत्मा को मानना ही पड़ेगा।

सायणाचार्य ने भी “प्राणन्ति” का अर्थ “जीवन्ति”ही किया है। एक अन्य मन्त्र में –

मंत्र

जीवलां नघारिषां जीवन्तीमोषधीमहम्।।
(अथर्व. 8.7.6)

अर्थ

ओषधी को जीवनदात्री, हानि न पहुंचाने वाली तथा जीवित रहने वाली कहा है। ‘जीवन्तीम्’ का अर्थ क्षेमकरणदास त्रिवेदी ने भी “जीव रखने वाली” ही किया है।

उपयुक्त मन्त्रों में वीरुध तथा ओषधि को प्राण लेने वाली तथा जीवित रहने वाली कहा है। प्राण तथा जीवन का सम्बन्ध आत्मा से ही है। जड़ प्रकृति में तो जीवन तथा प्राणन क्रिया का प्रश्न ही नहीं उठता। भूमि, जल आदि न तो श्वास लेते हैं और न प्रश्वास छोड़ते हैं। किन्तु वृक्षादि श्वास के रूप में कार्बन लेते तथा प्रश्वास के रुप में ओषजन छोड़ते हैं। अतः ओषधी आदि में जीव की सत्ता वेद को मान्य है।

वृक्षादि में जीव विषयक उपनिषद् के प्रमाण

उपनिषद् भी वेद के इस सिद्धान्त की पृष्टि करती हैं। कठोपनिषद् में “मरने के पश्चात् कोई तत्त्व शेष रहता है या नहीं?”
नचिकेता के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यमाचार्य कहते हैं – हे नचिकेता! मुझे प्रसन्नता है कि मैं तुझे इस शाश्वत गुप्त ज्ञान को बतलाऊंगा कि मर कर आत्मा का क्या होता है। अपने ज्ञान तथा कर्म के अनुसार कुछ आत्मा तो शरीर धारण के लिए (मनुष्यादि) योनि को प्राप्त होते हैं तथा कुछ जीव (मानवादि से भिन्न) स्थावर अर्थात् वृक्षादि की योनि को प्राप्त कर लेते हैं।

श्लोक

हन्त त इदं प्रवक्ष्यामि गुह्य ब्रह्म सनातनम्।
यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम॥
योनिमन्ये प्रपद्मयन्ते शरीरत्वाय देहिनः।
स्थाणुमन्येऽनु संयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्॥
(कठ. उप. 2.5.6-7)

छान्दोग्योपनिषद् में भी वृक्षादि में आत्मा की सत्ता को स्वीकार किया गया है।
वहाँ आरुणि उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु को आत्मा के विषय में बतलाते हुए कहते हैं – हे प्रिय! जो व्यक्ति इस महान् वृक्ष की जड़ में चोट करे तो वह जीता हुआ रस गिराए, जो मध्य भाग में चोट करे वह जीवित रहता हुआ रिसता रहे, तथा जो अग्र भाग में चोट करे तो भी वह जीता हुआ स्रवित होता रहे, पर सूखे वा मरे नहीं। क्योंकि वह वृक्ष जीवन तथा आत्मा से परिपूर्ण है इसमें जीवन-प्राण भी है और आत्मा भी।

इसी कारण यह पानी पीता हुआ हर्ष से रहता है। इस वृक्ष की एक शाखा को जब जीव छोड़ देता है तो वह सूख जाती है, दूसरी को छाड़ देता है तो वह सूख जाती है, तीसरी को छोड़ देता हैं तो वह सूख जाती है और यदि जीव समस्त वृक्ष को छोड़ देता है तो सारा वृक्ष सूख जाता है।

श्लोक

अस्य सोम्य महतो वृक्षस्य यो मूलेऽभ्याहन्यात् जीवन् स्रवेद्योमध्येऽभ्याहन्याज्जीवन् स्रवेद्योऽग्रेऽभ्याहन्याज्जीवन् स्रवेत्। स एष जीवेनात्मनानु प्रभूतः पेपीयमानो मोदमानस्तिष्ठति॥ अस्य यदेकाशाखां जीवो जहात्यथ सा शुष्यति, द्वितीयां जहात्यथ सा शुष्यति, तृतीयां जहात्यथ सा शुष्यति, सर्वं जहाति सर्वः शुष्यति॥
(छा. उ. 6.11.1-2)

इससे अधिक स्पष्ट वृक्षादि में आत्मा की सत्ता का उल्लेख और क्या होगा?
अन्यत्र भी छान्दोग्य में ओषधि, वनस्पति आदि में जीव की सत्ता का उल्लेख करते हुए कहा है कि – वे यहाँ धान, जौ, औषधि, वनस्पति, तिल तथा उड़द के रूप में उत्पन्न होते हैं। –

“त इह ब्रीहियवा ओषधिवनस्पतयस्तिलभाषा इति जायन्ते॥”
(छा. उ. 5.0.6)

मनु की सम्मति

मनुस्मृति भी वृक्षों में आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन करती हैं। कर्मानुसार जीवों को किस किस प्रकार की योनियाँ प्राप्त होती हैं, उनका उल्लेख करते हुए वे कहते हैं –

श्लोक

“शरीर जैः कर्म दोषर्याति यातिस्थावरतां नरः॥
(मनु. 12.9)

अर्थ

प्राणी कर्मानुसार किन किन योनियों में जन्म लेते हैं, वह मैं बताऊंगा। वहाँ जीव की उद्भिज योनि में उन्होंने बीज तथा गाँठ से उगने वाले सब स्थावर, पकने पर समाप्त हो जाने वाली ओषघियाँ, बिन फूल के फल लगने वाली वनस्पति, फूल फल लगकर झड़ जाने पर भी स्थिर रहने वाले वृक्ष, गुच्छे, गुल्मयुक्त लता वल्लरी को गिनाया है।” उनके अनुसार- शरीर से दोष युक्त कर्म करने से जीव स्थावर योनि को पाता है। –

श्लोक

येषां तु यादृशं कर्म भूतानामिह कीर्तितम्।
तत्तथा वोऽमिषास्यामि क्रमयोगं च जन्मनि॥
उद्भिजा: स्थावरा: सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिण:।
ओषध्य: फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः॥
अपुष्पा: फलवन्तो ये ते वनस्पतय: स्मृताः।
पुष्पिण: फलिनश्चैव वृक्षास्तूभतः स्मृता:॥
गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव तृणजातय:।
बीजकाण्डरुहाण्येव प्रताना वल्ल्य एव च॥
(मनु. 1.42, 46-48)

शंकराचार्य का एतद्विषयक मत

दार्शनिक शिरोमणि, अपनी प्रतिभा से बौद्धों को परास्त करने वाले, वैदिकमत संस्थापक तथा परिस्थितिवश व सैद्धान्ति रूप से जीव-ब्रह्म की एकता के प्रतिपादक शंकराचार्य ने भी उपनिषद् भाष्य में लिखा है कि – वृक्षों के रस स्रवण आदि चिन्हों से उनका जीववाला होना सिद्ध है।

  • “वृक्षस्य रसस्रवणादि लीङ्गज्जीववत्मम्”
    (छां.उ. 6.11.1 का शांकरभाष्यम्)

इससे स्पष्ट है कि शंकराचार्य भी वृक्षादि में जीव की सत्ता स्वीकार करते हैं।

वृक्षादि में जीव विषयक ऋषि दयानन्द का मत

वेदों के परम विद्वान्, योगी, अपनी प्रतिभा से वेद विरुद्ध मत को परास्त करने वाले, देव दयानन्द, जो एक मात्र वेदों को ही स्वतः प्रमाण मानते हैं, वे भी वृक्षादि में जीव को मानते हैं। सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुल्लास में उन्होंने प्रश्न उठाया है –
“ईश्वर ने किन्हीं जीवों को मनुष्य जन्म, किन्हीं को सिंहादि क्रूर जन्म,किन्हीं को हरिण, गाय, आदि पशु, किन्हीं को वृक्षादि कि कीट, पंतग आदि जन्म दिये हैं”।

उत्तर में इसका कारण पूर्व जन्म के कर्म बतलाए हैं जिससे स्पष्ट है कि वे किन्हीं कर्मों के कारण जीव का वृक्ष योनि में जाना मानते हैं। नवम समुल्लास में मनु के एक श्लोक का अर्थ करते हुए उन कर्मों का, जिनसे वृक्षादि की योनि मिलती है, उल्लेख करते हुए लिखते हैं – जो नर शरीर से चोरी परस्त्री गमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है, उसको वृक्षादि स्थावर का जन्म मिलता है।

गणपति शर्मा का मत

स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती से इस विषय में शास्त्रार्थ करते हुए एक स्थान पर वे वेदान्त दर्शन

सूत्र

अन्याधिष्ठितेषु पृ्र्ववदमिलापात्॥
वेदान्त. 3.24

को उद्यत करते हुए कहते हैं -आगे अन्य जीवों से अधिष्ठित ब्रीहियवादि में अनुशयी अनुशय कम करने वाले जीवों का सम्बन्ध बतलाया है। इस सूत्र में ‘अन्याधिष्ठितेषु’ पद स्पष्ट कर रहा है कि ब्रीहियवादि अन्य जीवों से अधिष्ठित होते हैं। अर्थात् अन्य जीव ब्रीहि यव आदि के उसी प्रकार अधिष्ठाता- अभिमानी जीव हैं, जैसे कि हम अपने शरीर के अधिष्ठाता हैं।

आधुनिक विज्ञान का पौधों में जीवन विषयक मत

आधुनिक विज्ञान में वृक्षों में जीव विषयक मत की पुष्टि डॉ जगदीश चन्द्र बसु जीवात्मा के रूप में न करके चेतनता के रूप में करते हैं. देखा जाये तो दोनों में मूलभूत रूप से कोई अंतर नहीं होता क्यूंकि चेतनता जीव का लक्षण हैं. भारतीय दर्शन सिद्धांत के अनुसार जहाँ चेतनता हैं वही जीव हैं और जहाँ जीव हैं वही चेतनता हैं.

आधुनिक विज्ञान वृक्षों में जीव इसलिए नहीं मानता हैं क्यूंकि वो केवल उसी बात को मानता हैं जिसे प्रयोगशाला में सिद्ध किया गया हैं और जीवात्मा को कभी भी प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं किया जा सकता.

डॉ जगदिश चन्द्र बसु पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने ऐसे यंत्रों का अविष्कार किया वृक्षों पौधों में वायु, निद्रा,भोजन, स्पर्श आदि के जैविक प्रभावों का अध्यनन किया जा सकता हैं. उन्होंने यह सिद्ध किया कि वृक्ष भी आनंद का विलास का प्रेम का सुख का और नकारात्मक भावों का अनुभव करते है। उनके द्वारा किये विस्तृत शोध को आप इन्टरनेट के माध्यम से पढ़ सकते हैं।

आपने जगदीश चन्द्र बोस का नाम सुना होगा। 1901 में अपने प्रयोगों के माध्यम से बोस ने यह दिखाया कि वृक्षों में भी जीवन होता है। केस्कोग्राफ नामक उपकरण के आविष्कार द्वारा पौधों में जीवन के लक्षण दिखाकर उन्होंने पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया। पौधे की जड़ को ब्रोमाइड में डालने के बाद उनकी प्रतिक्रिया को रिकॉर्ड किया गया जिसमें जीवन के संकेत दिखे। कुछ देर बाद वह संकेत गायब हो गया, जिससे यह पता चल गया कि वृक्ष का जीवन समाप्त हो गया है।

यहाँ एक और तथ्य जोड़ना भी उचित रहेगा। मनुष्य में उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया के लिए तंत्रिका तंत्र और हॉर्मोन्स होते हैं। यह उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया पौधों में भी दिखती है। यह अलग बात है कि उनमें मष्तिष्क नहीं होता है लेकिन उनमें हॉर्मोन्स होते हैं। उदाहरणस्वरूप ऑक्सीन, जिबेरेलिन आदि। पौधे का ऊपरी भाग हमेशा सूर्य की तरफ बढ़ता है तथा जड़ गुरुत्व के प्रभाव में नीचे की तरफ। लाजवन्ती का पौधा इसका अनूठा उदाहरण है।

व्यवहारिक पक्ष

जैसे मनुष्य की ऊंचाई बढ़ती है, उसी प्रकार पौधों की भी बढ़ती है। इनका भी एक जीवन काल होता है। वृक्ष भी गति करते हैं। भले ही ये मनुष्य की तरह एक स्थान से दूसरे स्थान पर गति नहीं करें लेकिन वृक्ष के अंग तो गति करते हैं। उम्मीद है, आपको जवाब मिल गया होगा।

जगदीश चन्द्र बोस ने एक यन्त्र क्रेस्कोग्राफ का आविष्कार किया और इससे विभिन्न उत्तेजकों के प्रति पौधों की प्रतिक्रिया का अध्ययन किया। उनके योगदान को देखते हुए चाँद पर प्राप्त ज्वालामुखी विवर को भी उन्ही के नाम पर रखा गया।

साल 1901 में 10 मई को भारतीय वैज्ञानिक सर जगदीश चंद्र बोस ने साबित कर दिया था कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है.

१. बोस ने आविष्‍कार क्रेस्‍कोग्राफ के जरिए ये करके दिखाया, जिसमें बाहरी तबदीली पर पेड़-पोधों की प्रतिक्रिया रिकॉर्ड की गई.

२. पौधों में जीवन साबित करने का ये प्रयोग लंदन की रॉयल सोसाइटी में हुआ और दुनिया बोस का लोहा मान गई.

३. एक पौधे की जड़ ब्रोमाइड में डाली गई. पौधे की धड़कन स्क्रीन पर एक चिन्ह के रूप में दिख रही थी, जिसे उपकरण के जरिए देखा गया. कुछ देर बाद ही ये अनियमित होने लगी.

४. थोड़े वक्त के बीतते ही पौधे की जान दिखाने वाला चिन्‍ह कांपने लगा और अचानक रुक गया जो इस बात का संकेत था कि पौधे की मौत हो चुकी है.

शास्त्रों व प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध किया गया है की वृक्ष आदि में आत्मा होती हैं।

तो किसी व्यक्ति का यह कहना कि वृक्षों में आत्मा नही होती अज्ञानता व उसकी मनसिक संकीर्णता का द्योतक है।

पेड़ो के बारे मे महत्वपूर्ण जानकारी

👉. पेड़ धरती पर सबसे पुरानें जीव हैं, और ये कभी भी ज्यादा उम्र की वजह से नही मरते.
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👉 हर साल 5 अऱब पेड़ लगाए जा रहे है लेकिन हर साल 10 अऱब पेड़ काटे भी जा रहे हैं.
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👉 एक पेड़ दिन में इतनी ऑक्सीजन देता है कि 4 आदमी जिंदा रह सकें.
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👉देशों की बात करें, तो दुनिया में सबसे ज्यादा पेड़ रूस में है उसके बाद कनाडा में उसके बाद ब्राज़ील में फिर अमेरिका में और उसके बाद भारत में केवल 35 अऱब पेड़ बचे हैं.

👉दुनिया की बात करें, तो 1 इंसान के लिए 422 पेड़ बचे है. लेकिन अगर भारत की बात करें,तो 1 हिंदुस्तानी के लिए सिर्फ 28 पेड़ बचे हैं.

👉 पेड़ो की कतार धूल-मिट्टी के स्तर को 75% तक कम कर देती है. और 50% तक शोर को कम करती हैं.

👉 एक पेड़ इतनी ठंड पैदा करता है जितनी 1 A.C 10 कमरों में 20 घंटो तक चलने पर करता है. जो इलाका पेड़ो से घिरा होता है वह दूसरे इलाकों की तुलना में 9 डिग्री ठंडा रहता हैं.

👉पेड़ अपनी 10% खुराक मिट्टी से और 90% खुराक हवा से लेते है. एक पेड़ में एक साल में2,000 लीटर पानी धरती से चूस लेता हैं.

👉एक एकड़ में लगे हुए पेड़ 1 साल में इतनी Co2 यानि कार्बनडाईआक्साईड सोख लेते है जितनी एक कार 41,000 km चलने परछोड़ती हैं.

👉 दुनिया की 20% oxygen अमेजन के जंगलो द्वारा पैदा की जाती हैं. ये जंगल 8 करोड़ 15 लाख एकड़ में फैले हुए हैं.

👉 इंसानो की तरह पेड़ो को भी कैंसर होती है.कैंसर होने के बाद पेड़ कम ऑक्सीजन देने लगते हैं.

👉. पेड़ की जड़े बहुत नीचे तक जा सकती है. दक्षिण अफ्रिका में एक अंजीर के पेड़ की जड़े 400 फीट नीचे तक पाई गई थी.

👉 दुनिया का सबसे पुराना पेड़ स्वीडन के डलारना प्रांतमें है.टीजिक्कोनाम का यह पेड़ 9,550 साल पुराना है. इसकी लंबाई करीब 13 फीट हैं.

👉किसी एक पेड़ का नाम लेना मुश्किल है लेकिन तुलसी, पीपल, नीम और बरगद दूसरों के मुकाबले ज्यादा ऑक्सीजन पैदा करते हैं.

एक विशेष आग्रह

अब आप यह जान चुके हैं कि वृक्षों में भी जीवन होता है। इनकी महत्ता को हर व्यक्ति जानता है। मेरा आप सबसे एक आग्रह है कि हर व्यक्ति एक पेड़ अवश्य लगाए ताकि आने वाली पीढ़ियों का अस्तित्व बरकरार रहे। सनद रहे-
एक वृक्ष सौ पुत्र समान।

  

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