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वैदिक संस्कार

वैज्ञानिक जिन वस्तुओं को आँख से नहीं देख सकेंगे उनको देखने के लिए यन्त्रों का निर्माण करते है। इसके अनुकूल ही वे शिक्षा से संस्कारों को प्राप्त किये हैं। जो इस संकार को शिक्षा से पाते है वे पूर्वोक्त दक्षता को प्राप्त करते हैं। अचेतन पदार्थ चेतन के कार्य कर लेते है, उन अचेतनों मे चैतन्य शक्ति के न रहने पर वे चेतन के कार्यों को नहीं कर सकेंगे। उस चैतन्य को पहचान कर वैज्ञानिक कृत्रिम चैतन्य का आविष्कार करते है। किन्तु जैसे कि चक्षु अपने को नहीं देख पाता है वैसे वैज्ञानिक अपने चैतन्य को नहीं देख पाते है और समझ लेते हैं कि अपनी बुद्धि से ही कार्य सम्पन्न होता है। मानवमात्र के पास बुद्धि और विवेक की वह शक्ति विद्यमान है किन्तु उसके उद्बोधक सस्कार न होने से सभी एक-रूपता को नही प्राप्त करते हैं। विज्ञान का पाठ पढ़ने वाले सभी बड़े वैज्ञानिक नहीं बनते है, पढ़ाने वाले भी सभी को एकरूप से ही पढ़ाते हैं किन्तु पढ़ने वालों मे कतिपय ही उत्कृष्ट कोटि में आते हैं। इसका कारण है अपनी विशिष्ट मनन-क्रिया के द्वारा मन-बुद्धि को एकाग्रता मे लाकर तत्त्व का परीक्षण करना । वही विशिष्ट वैज्ञानिक कहलाता है। उनमें भी तर-तमभाव होता है, उसका कारण है कि अपनी बुद्धि पर ही अहंभाव हो जाता है। बुद्धि से भी अतीत तत्त्व को न मानकर अपनी बुद्धि पर ही विश्वास करता है और बुद्धि के प्रेरक तत्त्व पर ध्यान नहीं रखता है। जो उस तत्त्व पर ध्यान रखता हुआ अपनी मनन प्रणाली में लगा रहता है वह सर्वोत्कृष्ट वैज्ञानिक बनता है। इस प्रकार की मनन प्रणाली में रहता हुआ वह निर्दिष्ट विषय के अतिरिक्त समस्त विश्व को भूल जाता है। इसी एकाग्रता का परिणाम है उनके द्वारा आविष्कृत पदार्थ । एकाग्रता के तर-तम भाव से वैज्ञानिकों में तारतम्य सिद्ध होता है । अत एव ऋषि, राजर्षि, महर्षि, ब्रह्मर्षियों में तारतम्य माना जाता है । इन शब्दों की प्रवृत्ति-निमित्त क्रियाएँ होती है, ये शब्द जातिप्रवृत्तिनिमित्तक नहीं है । जिन क्रियाओं को हम प्रवृत्तिनिमित्त मानते है उनमें सामान्य-विशेष भाव है। अत एव इनमे भेद परिलक्षित होता है। वैज्ञानिकों में भी यही स्थिति है । आज के वैज्ञानिक और ऋषि-महर्षियों में इतना भेद अवश्य मानना पड़ता है कि वैज्ञानिक लोकोपयोगी पदार्थों का आविष्कार करते हैं और ऋषि-महर्षि अलौकिक पदार्थो का आविष्कार करते है।

निरुक्तकार भास्कराचार्य ने ‘दर्शनाद् ऋषिः’ कहा है। अपनी अतिशयित मनन-क्रिया द्वारा उन अलौकिक पदार्थों का दर्शन किया, अत एव ऋषि बने है। जितने वेद के मन्त्र हैं वे ऋषियों के मनन द्वारा आविर्भूत हुए है-‘मननान्मन्त्रः’ । वैज्ञानिक भी अपने आविष्कृत पदार्थों के फारमूले लिखते है, तदनुसार अन्य लोग उनका प्रयोग कर पदार्थो के आविष्कार में लगते है। ऋषियों के मन्त्र भी फारमूले है, उनका प्रयोग हमें करना है, तभी हम अलौकिक पदार्थ तक पहुँच सकते है। जैसे पञ्चभूत-पदार्थो मे विद्यमान शक्ति को जानकर वैज्ञानिक अनुसन्धानात्मक क्रिया द्वारा लौकिक पदार्थों का आविष्कार करते हैं, वे ही पञ्चभूत, ऋषियों के मनन द्वारा समुद्भूत मन्त्रों के अक्षरों में विद्यमान है। व्यास-शिक्षा में महर्षि कहते हैं-

अनिलाग्निमहीन्द्वर्काः

अनिल वायु, अग्नि-तेज, मही-पृथ्वी, इन्दु-जल, अर्क-ऊर्जा ये पाँच मन्त्रों के अक्षरों में विभक्त हैं।

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