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एक बहुत सारगर्भित एवम ज्ञानवर्धक प्रस्तुति!

जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥

विज्ञान कहता है जड से ही चेतना प्रकट होती है, और आध्यात्म कहता है कि चेतना से जड प्रकट होता है, इसमें क्या तर्क है? आध्यात्म का कहना है कि जड उस चे्तना की शक्ति का घनीभूत रूप है, जो उससे भिन्न नहीं है, जड के भीतर चेतना तो एक सुप्ताववस्था में रहती है, जो उचित वातावरण पाकर प्रकट होती है, वह नया निर्मित नही होता।

जैसे देखें तो लकडी में अग्नि है, धातुओं में जो अग्गि है वह घर्षण से प्रकट होती है, यह अग्नि नईं नहीं है, वायु की अग्नि दवाव से प्रकट होती है, जल में अग्नि है, इसी प्रकार जब चेतना उचित वातावरण पाकर प्रकट हो जाती है, अन्यथा वह सुप्त अवस्था में पडी रहती है, विज्ञान तो बुद्धि की उपज है, और बुद्धि से चेतना को नहीं जाना जा सकता है।

चेतना तो बुद्धि के पार की चीज है, इसकी तो केवल अनुभूति ही हो सकती है, विज्ञान की खोज तो भौतिक जगत के लिए सही है, जो भी खोज उसने की है वह सही है, लेकिन चेतना किस प्रकार कार्य करती है इसे वह नहीं जान पाया, इसलिये कि विज्ञान पदार्थ का विज्ञान है, जबकि आध्यात्म चेतना का विज्ञान है, और दोनों के अलग-अलग क्षेत्र हैं।

विज्ञान में तो केवल भौतिक तत्वों की खोज की जाती है, और आध्यात्म में चेतनाशक्ति की खोज की जाती है, इसलिये भौतिक दृष्टि से विज्ञान तथा चेतना जगत की दृष्टि से आध्यात्म को ही प्रमाण माना जाना चाहिये, वेदान्त के अनुसार प्रकृति कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है बल्कि ब्रह्म की शक्ति है, जो उसी से प्रकट होकर उसी में विलीन हो जाती है, इसलिये यह सत्य नहीं है।

भ्रम से ही यह सत्य जैसा लगता है, इसीलिये इसे माया कहा गया है, सांख्य में इसी को प्रकृति कहा गया है, उसी प्रकार जैसे अंधेरे में रस्सी में सर्प का भ्रम हो जाता है, या आकाश में न होते हुये भी इन्द्रधनुष दिखाई देता है, उसी प्रकार सत्य ज्ञान के अभाव में ही यह प्रकृति सत्य ज्ञात होती है, जो प्रत्यक्ष है उसे असत्य,भ्रम या मिथ्या माना जाय?

प्रत्यक्ष तो इन्द्रधनुष भी दिखाई देता है, स्वप्न के दृष्य भी स्वप्नावस्था में सत्य लगते हैं, लेकिन सत्य का ज्ञान होने पर ही ज्ञात होता है कि वह सत्य नहीं था, शाश्वत नहीं है, इस भ्रम के निदान के लिए सत्य ज्ञान और प्रत्यक्ष अनुभूति आवश्यक है, यह अनुभूति समाधि अवस्था में जब आत्म चैतन्य की अनुभूति हो जाती है तो तभी यह मिथ्या ज्ञात हो सकता है, जिस प्रकार दीपक लेकर देखने से रस्सी में सर्प का भ्रम दूर हो जाता है।

चेतनाशक्ति को जाना जा सकता है? चूंकि प्रकृति जड होने से कोई भी क्रिया नहीं कर सकती है, वह तो इस चेतना के संयोग से ही क्रिया करती है, वनस्पति, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी व मनुष्य में जो क्रिया होती है वह इसी चेतनाशक्ति के कारण से होती है, यह आत्मज्ञान अज्ञान के आवरण के कारण नहीं हो पाता है, गीता में भगवान् श्री कृष्णजी ने कहा गया है कि मै माया से आवृत्त होने के कारण सभी के सामने प्रत्यक्ष नहीं होता हूं।

और माया के इस आवरण को हटाने के लिए निरन्तर ईश्वर चिंतन करना चाहिये, गीता में तो कहा गया है कि चार वर्ण वाली सृष्टि मेरे द्वारा रची गई है, किन्तु मैं कर्ता नहीं हूं, इसका क्या अर्थ है? ईश्वर स्वयं कोई कर्म नहीं करता है, वह तो कर्मों का करण मात्र है, सभी कर्म प्रकृति के गुणों के अनुसार ही होते हैं, किन्तु यह प्रकृति उस चेतनाशक्ति से कार्य करती है।

जिस प्रकार शरीर जड तत्वों से निर्मित है, लेकिन उस आत्म चेतना से वह कार्य करता है, आत्मा स्वयं क्रिया नहीं करती है, किन्तु उसके बिना भी क्रिया नहीं हो सकती है, जैसे सूर्य के कारण इस पृथ्वी पर सभी क्रियायें संचालित होती है, जबकि सूर्य इन कार्यों को नहीं करता है, बल्कि सूर्य के प्रकाश और ताप से सब कार्य स्वयं हो जाते हैं, इसी प्रकार ईश्वर की चेतनाशक्ति भी है।

यह संसार अनित्य, परिवर्तनशील है, किन्तु अज्ञानतावश लोग इसे नित्य व स्थिर समझ बैठते हैं, बस यही अज्ञान है, यह अज्ञान सृष्टि का कारण है, क्योंकि इस सृष्टि का मूल तत्व ब्रह्म है, जिसकी चेतना शक्ति ही ज्ञान स्वरूप है, लेकिन अकेला ज्ञान सृष्टि की रचना नहीं कर सकता, सृष्टि की रचना तो प्रकृति से होती है, जो कि जड है, जिसमें कि ज्ञान का अभाव है, इसलिये यह सम्पूर्ण दृष्य जगत प्रकृति निर्मित है, जिससे इसे अज्ञान कहा गया है।

जो इस सृष्टि को ही सत्य मानता है, उसी को अज्ञानी कहा गया है, इस अज्ञानता को उसी प्रकार दूर किया जा सकता है, जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से अन्धकार दूर हो जाता है, ज्ञान के प्रकाश से ही अज्ञान अपने आप दूर हो जाता है, ज्ञान होने पर यह सृष्टि तो रहती है, मगर ज्ञानी को इसकी सत्यता का बोध हो जाता है, जिससे वह ब्रह्म को ही सत्य मानता है, उसे सभी मिथ्या ज्ञात होते हैं।

एक छोटा सा शुक्राणु पूरे मानव शरीर का निर्मॉण करता है, जिस प्रकार विभिन्न पौधों के बीज उसी प्रकार के पौधे व बृक्ष में तना, पत्ते-लता, शाखायें, फल, फूल व बीज तैयार करते हैं, उसी प्रकार यह मनुष्य बीज शुक्राणु भी वैसी ही शरीर की रचना करता है, उस बीज के भीतर चेतनाशक्ति प्रकृतिके गुणों के अनुसार उसी प्रकार के शरीर की रचना करती है।

प्रकृति के तत्वों में परिवर्तन करके इनमें परिवर्तन किया जा सकता है, इसी आधार पर वैज्ञानिकों ने प्रयोग करके वनस्पति की नईं-नईं जातियों का विकास किया है, मनुष्यों में भी इस प्रकार के प्रयोग हुये हैं,इन्हीं से संसार में विभिन्न जातियों का निर्मॉण हुआ है, जिनके कि रंग-रूप-आकार तथा गुणों में भिन्नता पाई जाती है।

पदार्थ में निहित चेतनाशक्ति का निरन्तर विकास होता रहता है, और यह माना जाता है कि सर्वप्रथम वनस्पति के रूप में प्रकट होती है, फिर धीरे-धीरे विकसित होकर जीव-जन्तु ,कीट-पतंग, पशु-पक्षी व अन्त में मनुष्य रूप में प्रकट होती है, इसलिये कि चेतना शक्ति का प्रारम्भिक विकास पहले मनुष्य रूप में प्रकट नहीं हो सकता है।

इस चेतना शक्ति का मुख्य घटक मन है, जब मन की शक्ति अधिक विकसित हो जाती है, तो मनुष्य का रूप धारण करता है, यदि मनुष्य इस विकास प्रकृया की अन्तिम कडी है, तो इसके बाद की अवस्था अति मानव (सुपर ह्यूमन) बन जायेगा, जिससे उसकी कई सुप्त आध्यात्मिक शक्तियां और जागृत हो जायेंगी, सभी ईश्वरीय शक्तियों से सम्पन्न होकर ईश्वर के तुल्य हो जायेंगे, यही उसकी अन्तिम स्थित होगी।

शास्त्र कहता है कि मनुष्य को ईश्वर ने पैदा किया है? इस सृष्टि में मनुष्य की श्रेष्टता को लेकर ऐसा कहा जाता है कि वह ईश्वर की सर्व श्रेष्ठ रचना है, और सभी कुछ ईश्वर की शक्ति से प्रकट होते हैं, लेकिन ये सब विकास की प्रकिया से गुजरकर ही वर्तमान स्थिति में पहुंचे हैं, विज्ञान यह भी कहता है कि मनुष्य किसी अन्य लोक से आया है?

विज्ञान का तो यह अनुमान मात्र है, यदि प्रमॉण मिल जाता है, तो इसी धारणॉ को स्वीकार कर लेना चाहिये, मृत्यु के समय तो यह भौतिक शरीर यहॉ छूट जाता है, अन्य सभी साथ जाते हैं, जैसे मनुष्य का मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त, संस्कार, कामना, वासना, इच्छायें,आदतें, महत्वाकाक्षांयें तथा कर्म साथ जाते हैं।

ये तो सूक्ष्म शरीर में ही रहते हैं, जब तक मन रहता है तब तक ही सूश्र्म शरीर रहता है, मृत्यु के समय यह सूक्ष्म शरीर विलीन हो जाता है लेकिन मरता नहीं है, मृत्यु के समय जिनकी भोग वासनायें शेष रहती है, वे सभी प्रेत योनि में रहते हैं, और जिनकी भोगों की वासनायें शेष नहीं रहती वे आगे के लोकों में निकल जाते हैं, जैसे पितरलोक, स्वर्ग लोक आदि।

स्वर्ग तो सद्कर्मों से ही प्राप्त होता है, मृत्यु के बाद मनुष्य अपने आपको हल्का अनुभव करता हैं, संसार के सभी झंझटों से स्वयं को मुक्त अनुभव करता है, लेकिन सांसारिक भोगों की वासना शेष रहने पर उन्हें वहां न मिलने पर उसे बडी बेचैनी होती है, जिससे उसकी आत्मा भटकती रहती है।

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