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भद्रा – क्या हैएक सम्पूर्ण जानकारी
भद्रा-धन्या दधमुखी भद्रा महामारी खरानना।
कालारात्रिर्महारुद्रा विष्टिश्च कुल पुत्रिका।
भैरवी च महाकाली असुराणांक्षयन्करी।
द्वादश्चैव तु नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्।
न च व्याधिर्भवैत तस्य रोगी रोगात्प्रमुच्यते।
गृह्यः सर्वेनुकूला: स्यर्नु च विघ्रादि जायते।।
पूर्वकाल में जब देवताओ और असुरो का युद्घ हुआ तो देवगण हारने लगे तब शिवजी को क्रोध आ गया शिवजी की आँखे एकदम सुर्ख लालहो गयीदसों दिशाएं कांपने लगी इसी समय शिवजी की दृष्टि उनके हृदय पर पड़ी और उसी समय एक गधी के सामान गरदन सिंह के समान सात हाथो से व तीन पैरों से युक्त कौड़ी के समान नेत्र पतला शरीर कफन जैसे वस्त्रो को धारण किये हुए धुम्रवर्ण की कान्ति से युक्त विशाल शरीर धारण किये हुए एक कन्या की उतपत्ति हुई जिसका नाम “भद्रा” था।
देवताओ की तरफ से असुरो से युद्घ करते हुए असुरो का विनाश कर डाला देवताओ की विजय हुई,तब देवगण प्रसन्न होकर उसके कानो के पास जाकर कहा-
“दैत्यघ्नी मुदितै: सुरैस्तु करणं
प्रान्त्ये नियुक्ता तु सा “
तभी से भद्रा को करणों में गिना जाने लगा यह भद्रा अब भूख से व्याकुल होने लगी तब भगवान शिवजी से कहा हे मेरे उत्पात्तिकर्ता मुझे बहुत भूख लग रही है,
मेरे लिए भोजन की व्यवस्था करिये।
तब शिवजी ने कहा-
विष्टि नामक करण में जो भी मंगल या शुभ कार्य किये जाए तुम उसी कर्म के सभी पुण्यो का भक्षण करो और अपनी भूख मिटाओ भद्राकाल में किये जाने वाले सभी मांगलिक कार्यो को सिद्घि को ये अपनी लपलपाती सात जीभों से भक्षण करती है इसीलिए
भद्राकाल में शुभ मांगलिक कार्य नही किये जाते है।
पंचांग में जो करण होते है
उसमे विष्टि नामक करण को ही भद्रा एवं विष्ट करण के काल को ही भद्रा काल कहते है।
शुक्लपक्ष में अष्टमी व पूर्णिमा तिथि के पूर्वार्द्घ में व एकादशी तिथि के उत्तरार्द्घ मेंविष्टि करण अर्थात भद्रा होती है जबकि कृष्णपक्ष में तृतीया व दशमी तिथि के उत्तरार्द्घ में एवं सप्तमी व चतुर्दशी के पूर्वार्द्घ में भद्रा होती है तिथि के सम्पूर्ण भोगकाल का प्रथम आधा हिस्सा पूर्वार्द्घ तथा अंतिम आधा हिस्सा उत्तरार्द्घ होता है।
मुख्यतः जितने समय तक विष्टि करण रहता है।
उतने समय तक ही भद्रा रहती है,सभी शुभ कार्य के प्रारम्भ करने में वर्जित है।
शुक्लपक्ष में
चतुर्थी को 27 घटी
अष्टमी को 5 घटी
एकादशी को 12 घटी
पूर्णिमा को 20 घटी के उपरान्त
3 घटी भद्रा पुच्छ संज्ञक होती है।
जबकि कृष्णपक्ष में
तृतीया को 20 घटी
सप्तमी को 12 घटी
दशमी को 5 घटी
चतुर्दशी को 27 घटी के उपरान्त
3 घटी भद्रा पुच्छ संज्ञक होती है,भद्रा पुच्छ को शुभ माना गया है।
भद्रा अंग विभाग –
भद्रा के सम्पूर्ण काल मान के आधार पर किया जाता है। इसलिए भद्रा का सम्पूर्ण काल का मापन पहले कर लेना चाहिए।
चूँकि तिथियों में घटत-बढ़त होती रहती है।
तिथि का आधा भाग एक करण मान का होता है। इस हिसाब से माना तिथि का मान 60घटी है तो भद्रा या विष्टि करण का मान 30घटी हो गया।यदि भद्रा का मान 30घटी हुआ तो अंग विभाग इस क्रम में होता है भद्राकाल का 6ठां भाग 5घटी मुख संज्ञक अगला 30वां भाग 1घटी कण्ठ संज्ञक 5वां भाग 6घटी कटि संज्ञक अंतिम 3घटी पुच्छ संज्ञक होती है।
भद्रा मुख में किये गए कार्य नष्ट हो जाते है।
गले में करने से स्वास्थ्य की हानि होती है।
हृदय में करने से कार्य की हानि होती है।
नाभि में करने से कलह होती है।
कटि में कार्यारम्भ करने से बुद्घि भ्रमित होती है ।
जबकि भद्रा पुच्छ में किये गए कार्य सफल होते है।
भद्रानिवास व् विहितकार्
मुहूर्तचिंतामणि चन्द्रमा से
भद्रावास-
कुम्भ मीन कर्क या सिंह राशि में होतो भूमि पर वास मेष वृषभ मिथुन या वृश्चिक राशि में हो तो स्वर्गलोक में वास कन्या धनु तुला या मकर राशि में हो तो पाताल में वास इस प्रकार भद्रा का वास देखा जाता है जिस लोक में भद्रा का वास होता है प्रभाव भी उसी लोक में होता है कुम्भ मीन कर्क तथा सिंह राशि में भद्रा स्थित हो तो पृथ्वी वासियो को त्याग करना चाहिए।
भद्रा विहित कार्य-
भद्रा में युद्घ वाद-विवाद राजा मंत्री से मिलना डाक्टर को बुलाना जल में तैरना रोग निवारण दवा लेना पशुओ का संग्रह करना स्त्री की इच्छा पूर्ति करना
कालिदास जी के अनुसार-
महादेव जी का जप अनुष्ठान में मीन राशि के चन्द्रमा में देव पूजन करने में एवं दुर्गा माँ जी का हवन करने तथा सभी प्रकार के कार्यो में एवं मेष राशि के चन्द्रमा होने पर भद्रा अशुभ फलदायिनी नही होती है।दिन की भद्रा यदि रात्रि में ही समाप्त होती है तो वह भी कल्याण कारी हो जाती है।

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