Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

क्या है मुद्रा ?-

06 FACTS;-

1-हमारा शरीर पांच तत्व और पंच कोश से नीर्मित है, जो ब्रह्मांड में है वही शरीर में है। शरीर को स्वस्थ बनाए रखने की शक्ति स्वयं शरीर में ही है। इसी रहस्य को जानते हुए भारतीय योग और आयुर्वेद में ऋषियों ने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, बंध और मुद्रा के लाभ को लोगों को बताया।
2-यह शरीर पांच तत्वों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से मिलकर बना है। शरीर में ही पांच कोश है जैसे अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनंदमय कोश। शरीर में इन तत्व के संतुलन या कोशों के स्वस्थ रहने से ही शरीर, मन और आत्मा स्वस्थ ‍रहती है। इनके असंतुलन या अस्वस्थ होने से शरीर और मन में रोगों की उत्पत्ति होती है। इन्हें पुन: संतुलित और स्वस्थ बनाने के लिए मुद्राओं का सहारा लिया जा सकता है।

3-योग अनुसार आसन और प्राणायाम की स्थिति को मुद्रा कहा जाता है। बंध, क्रिया और मुद्रा में आसन और प्राणायाम दोनों का ही कार्य होता है। योग में मुद्राओं को आसन और प्राणायाम से भी बढ़कर माना जाता है। आसन से शरीर की हडि्डयाँ लचीली और मजबूत होती है जबकि मुद्राओं से शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है।मुद्राओं का संबंध शरीर के खुद काम करने वाले अंगों और स्नायुओं से है।

4-अंगुली में पंच तत्व .. हाथों की सारी अंगुलियों में पांचों तत्व मौजूद होते हैं जैसे अंगूठे में अग्नि तत्व, तर्जनी अंगुली में वायु तत्व, मध्यमा अंगुली में आकाश तत्व, अनामिका अंगुली में पृथ्वी तत्व और कनिष्का अंगुली में जल तत्व।अंगुलियों के पांचों वर्ग से अलग-अलग
विद्युत धारा बहती है। इसलिए मुद्रा विज्ञान में जब अंगुलियों का रोगानुसार आपसी स्पर्श करते हैं, तब रुकी हुई या असंतुलित विद्युत बहकर शरीर की शक्ति को पुन: जाग देती है और हमारा शरीर निरोग होने लगता है। ये अद्भुत मुद्राएं करते ही यह अपना असर दिखाना शुरू कर देती हैं।

5-मुद्रा संपूर्ण योग का सार स्वरूप है। इसके माध्यम से कुंडलिनी या ऊर्जा के स्रोत को जाग्रत किया जा सकता है। इससे अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों की प्राप्ति संभव

है।सामान्यत: अलग-अलग मुद्राओं से अलग-अलग रोगों में लाभ मिलता है। मन में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है। शरीर में कहीं भी यदि ऊर्जा में अवरोध उत्पन्न हो रहा है तो मुद्राओं से वह दूर हो जाता है और शरीर हल्का हो जाता है।

6-मुद्राओं की संख्या को लेकर काफी मतभेद पाए जाते हैं।योगमुद्रा को कुछ योगाचार्यों ने ‘मुद्रा‘ के और कुछ ने ‘आसनों‘ के समूह में रखा है।मुद्रा और दूसरे योगासनों के बारे में बताने वाला सबसे पुराना ग्रंथ ‘घेरण्ड संहिता‘ है। हठयोग पर आधारित इस ग्रंथ को महर्षि घेरण्ड ने लिखा था। घेरंड में 25 और हठयोग प्रदीपिका में 10 मुद्राओं का उल्लेख मिलता है।जिनमें 5 हंसों की और 5 विशेष परमहंसों की मुद्राएं हैं ।

क्या कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने में विशेष मुद्राओं से सहायता मिलती है?-

20 FACTS;-
1-तंत्र मार्ग में कुण्डलिनी शक्ति की बड़ी महिमा बतलाई गई है । इसके जागृत होने से षटचक्र भेद हो जाते हैं और प्राणवायु सहज ही में सुषुम्ना से बहने लगती है इससे चित्त स्थिर हो जाता है और मोक्ष मार्ग खुल जाता है । इस शक्ति को जागृत करने में मुद्राओं से विशेष सहायता मिलती है ।इनकी विधि योग ग्रंथों में बतलाई गई है।
2-तंत्र-शास्त्र भारतवर्ष की बहुत प्राचीन साधन-प्रणाली है । इसकी विशेषता यह बतलाई गई है कि इसमें आरम्भ ही से कठिन साधनाओं और कठोर तपस्याओं का विधान नहीं है, वरन् वह मनुष्य के भोग की तरह झुके हुए मन को उसी मार्ग पर चलाते हुए धीरे-धीरे त्याग की ओर प्रवृत्त करता है । इस दृष्टि से तंत्र को ऐसा साधन माना गया कि जिसका आश्रय लेकर साधारण श्रेणी के व्यक्ति भी आध्यात्मिक मार्ग में अग्रसर हो सकते हैं ।

3-यह सत्य है कि बीच के काल में तंत्र का रूप बहुत विकृत हो गया और इसका उपयोग अधिकांश मे मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि जैसे जघन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाने लगा, पर तंत्र का शुद्ध रूप ऐसा नहीं है । उसका मुख्य उद्देश्य एक-एक सीढ़ी पर चढ़कर आत्मोन्नति के शिखर पर पहुँचता ही है ।

4-वैज्ञानिक अभी तक इतना ही जान पाये हैं कि नाक से ली हुयी साँस मन से होती हुई फेफड़ों तक पहुँचती है। फेफड़ों के छिद्रों में भरे हुये रक्त को वायु शुद्ध कर देती है। और रक्त-परिसंचालन की गतिविधि शरीर में चलती रहती है। किन्तु प्राणायाम द्वारा श्वाँस-क्रिया को बन्द करके भारतीय योगियों ने यह सिद्ध कर दिया कि चेतना जिस प्राण-तत्व को धारण किये हुये जीवित है, उसके लिये श्वाँस- क्रिया आवश्यक नहीं है।साँस ली हुई हवा का स्थूल भाग
ही रक्त शुद्धि का काम करता है, उसका सूक्ष्म भाग सुषुम्ना शीर्षक में अवस्थित खड़ा और पिंगला नाड़ियों के माध्यम से नाभि-कन्द स्थित चेतना को उद्दीप्त किये रहता है।

5-”गोरक्ष पद्धति” में श्लोक 48 में इस क्रिया को शक्ति-चालन महामुद्रा, नाड़ी शोधन आदि नाम दिये है और लिखा है कि सामान्य अवस्था में इड़ा और पिंगला-नाड़ियों का शरीर की जिस ग्रन्थि या इन्द्रिय से सम्बन्ध होता है, मनुष्य उसी प्रकार के विचारों से प्रभावित होता रहता है, इस अवस्था में नाड़ियों के स्वतः संचालन का अपना कोई क्रम नहीं होता। किन्तु जब विशेष रूप (प्राणायाम) से प्राण-वायु को जगाया जाता है तो इड़ा (गर्म नाड़ी) और पिंगला (ठण्डी नाड़ी) दोनों सम-स्वर में प्रवाहित होने लगती है।
6-इस अवस्था के विकास के साथ-साथ नाभि-कन्द में प्रकाश स्वरूप गोला भी विकसित होने लगता है। उसके प्राण-शक्ति का विद्युत-शक्ति के समान निस्तारण होता है। चूँकि सभी नाड़ियाँ इसी भाग से निकलती है, इसलिये वह इस ज्योति के संस्पर्श में होती है। सभी नाड़ियों में वह विश्व-व्यापी शक्ति भरने से सारे शरीर में वह तेज ‘ओजस’ के रूप में प्रकट होने लगता हैं। इन्द्रियों में वही जल के रूप में, नेत्रों में चमक के रूप में परिलक्षित होता है। इस प्राण-शक्ति के कारण प्रबल आकर्षण शक्ति पैदा होती है।

7-यह शक्ति नाभि प्रवेश में प्रस्फुटित होती है और चूँकि दृष्टि प्रवेश भी उसी के समीप है, इसलिए वह भाग शीघ्र और तेजी से प्रभावित होता है। इसलिये यौन-शक्ति केन्द्रों का नियन्त्रण में रखना अधिक आवश्यक होता है। साधना की अवधि में संयम पर इसीलिये अधिक जोर दिया जाता है, जिससे कुण्डलिनी शक्ति का फैलाव ऊर्ध्वगामी हो जाये उसी से ओज की वृद्धि होती है।
8-स्थूल रूप से शरीर के वायु मंडल की ही प्रख्यात वैज्ञानिक देख पाते है, वे अभी तक नाड़ियों के भीतर बहने और जीवन की गतिविधियों को मूलरूप से प्रभावित करने वाले प्राण प्रवाह को नहीं जान सके। सूक्ष्म नेत्रों से उसे देखा जाना संभव भी नहीं है। उसे भारतीय योगियों ने चेतना के अति सूक्ष्म-स्तर का चेतन करके देखा।

9-योग शिखोपनिषद् में 101 नाड़ियों का वर्णन करते हुये सुषुम्ना को परानाड़ी बताया है। यह कोई नाड़ी नहीं है वरन इड़ा और पिंगला के समान विद्युत-प्रवाह से उत्पन्न हुई एक तीसरी धारा है। जिसका स्थूल रूप से अस्तित्व नहीं भी है और सूक्ष्म रूप से इतना व्यापक एवं विशाल है कि जीव की चेतना अब उसमें से होकर चला करती है तो ऐसा लगता है कि वह किसी आकाश गंगा में प्रभावित हो रही हो। वहाँ से विशाल ब्रह्माण्ड की भाँति होती है।

10-अन्तरिक्ष में अव-स्थित अगणित सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह-नक्षत्र की स्थिति समझने का अलभ्य अवसर, जो किसी चन्द्रयान या राकेट के द्वारा भी सम्भव नहीं है, इसी शरीर में मिलता है। उस स्थिति का वर्णन किया जाये तो प्रतीत होगा कि जो कुछ स्थल और सूक्ष्म इस संसार में विद्यमान् है, उन सब के साथ सम्बन्ध मिला लेने और उनका मान उपलब्ध करने की क्षमता उस महान् आत्म-तेज में विद्यमान् है जो कुण्डलिनी के भीतर बीज रूप में मौजूद है।
11-सुषुम्ना नाड़ी मेरुदण्ड में प्रवाहित होती है और ऊपर मस्तिष्क के चौथे निचले भाग में जाकर सहस्रार चक्र में उसी तरह प्रविष्ट हो जाती है, जिस तरह तालाब के पानी में से निकलती हुई कमल नाल से शत-दल कमल विकसित हो उठता है। सहस्रार चक्र ब्रह्माण्ड लोक का प्रतिनिधि है, यहाँ ब्रह्म की सम्पूर्ण विभूति-बीज रूप से विद्यमान् है और कुण्डलिनी की ज्वाला वहीं जाकर अन्तिम रूप से जा ठहरती है, उस स्थिति में निरन्तर मधुपान का सा, सुख जिसका कभी अन्त नहीं होता; प्राप्त होता है, उसी कारण कुण्डलिनी शक्ति से ब्रह्म प्राप्ति होना बताया जाता है।
12-कुण्डलिनी का महत्व इसी शरीर में परिपूर्ण और सामर्थ्य का स्वामी बनकर आत्मा की अनुभूति और ईश्वर दर्शन प्राप्त करने से निःसन्देह बहुत अधिक बढ़ जाता है। पृथ्वी का आधार जिस प्रकार शेष भगवान को मानते है, उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति पर ही प्राणि मात्र का जीवन अस्थित्व टिका हुआ है। सर्प के आकर की वह महाशक्ति ऊपर जिस प्रकार मस्तिष्क में अवस्थित शून्य-चक्र से मिलती है, उसी प्रकार नीचे वह यौन-स्थान में विद्यमान् कुण्डलिनी के ऊपर टिकी रहती है।

13-प्राण और अपान वायु के चौंकने से वह धीरे-धीरे सशक्त होने लगती है। साधना की प्रारम्भिक अवस्था में यही क्रिया धीरे-धीरे होती है। किन्तु साक्षात्कार या सिद्धि की अवस्था में यह सीधी हो जाती है और सुषुम्ना का द्वार खुल जाने से शक्ति का स्फुरण वेग से फूट कर सारे शरीर में-विशेष रूप से मुख्यकृति में-फूट पड़ता है। कुण्डलिनी जागरण से दिव्य-ज्ञान ,दिव्य अनुभूति और अलौकिक सुख का सरोवर इसी शरीर में मिल जाता है।
14-सुषुम्ना नाड़ी का रुका हुआ छिद्र जब खुल जाता है तो साधक को एक ध्वनि प्रारम्भ में मेघ के गर्जन, वर्षा समुद्र की हहराहट, घण्टा, भक्ति, विराग और भ्रमर-गुजार के तुल्य विकसित होती है, यही बाद में अनहद नाद में परिवर्तित हो जाती है। नाभि से 4 उंगल ऊपर यह आवाज सुनाई देती है, उसे सुनकर चित्त उसी प्रकार मोहित होता है, जिस प्रकार वेणुनाद सुनकर सर्प सब कुछ भूल जाता है। अनहद नाद से साधक के मन पर चढ़े हुए जन्म-जन्मान्तरों के सुसंस्कार छूट जाते हैं। नाद ही नहीं कुण्डलिनी शक्ति अपने जिस पुर्यष्टक नाम प्राण-स्वरूप में स्थिर है उसमें ऐसी सुगन्ध प्रस्फुटित होती है, जैसे वहाँ कोई मञ्जरी या कस्तूरी बड़े यत्न से सुरक्षित रखी गई है।
15-कुण्डलिनी जाग्रत करने के लिये जितनी दुस्तर उसकी सिद्धियाँ है, उतना कठिन साहस भी करना पड़ता है, किन्तु यह शक्ति जब जागृत हो जाती है और उसके प्रवाह का अन्त नाड़ियों में फैलने से रोककर ब्रह्म नाड़ी से ऊपर की ओर से जाते है। ब्रह्म नाड़ी सुषुम्ना की भी मध्यवर्ती और अत्यन्त सूक्ष्म नाड़ी है। सुषुम्ना के भीतर भी केले के पत्तों की तरह बज्व्रा और चित्रणी नाड़ी है, उनकी विषम धारा का नाम ब्रह्म नाड़ी है, जो इस शरीर को आकाश गगन की शक्ति से भर देती है। इन नाड़ियों को पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने एक धूमर पदार्थ (ग्रे कैटर) के रूप में जानने का प्रयत्न किया है पर वे अभी तक इस सम्बन्ध में कोई यांत्रिक जानकारी उपलब्ध नहीं कर सके है।

16-योग वसिष्ठ में कुण्डलिनी साधन की दिव्य सिद्धियों का वर्णन करते हुए लिखा है;-
”रेचक के प्रयोग से जब कुण्डलिनी शक्ति मस्तिष्क में थोड़ी देर के लिये टिक जाती है तो उन सिद्ध पुरुषों के दर्शन होते है जो बहुत पहले इस नश्वर देह का परित्याग कर चुके है। प्राणों को मुख से 12 गुना बाहर रखने का अभ्यास कर लेने वाला योगी किसी दूसरे शरीर में प्रवेश कर सकता है। इन्हीं युक्तियों से योगी में जीव को कुण्डली से उसी प्रकार बाहर निकालने की क्षमता मिल जाती है, जिस प्रकार वायु से सुगन्ध खींच ली जाये। इस स्थिति में शरीर कही भी पड़ा रहे चेतना उससे अलग होकर बाहर के दृश्यों का उसी प्रकार घूम कर आनन्द ले सकती है, जैसे कोई इस शरीर से ही कहीं भ्रमण कर रहा हो। दूसरे शरीर चाहे यह जड़ जैसे वृक्ष ही क्यों न हों उसमें भी यह चेतना प्रवेश करके यहाँ के सब रहस्य जान सकती है, किसी और के शरीर में प्रवेश करके उस शरीर को मिलने वाले भोग आदि सुखों का रसास्वादन किया जा सकता है। अपने शरीर से भोग-भोग कर चेतना को किसी और के शरीर में बदलता रहे तो बहुत काल तक भौतिक सुख और उसे सारे संसार में फैला कर वह सर्व-व्यापी और अन्तर्यामी हो सकता है”।
17-कुण्डलिनी शक्ति की सिद्धियों का कोई आर-पार नहीं है। अन्य योगों की अपेक्षा यह योग सरल भी है, किन्तु साधना काल के विक्षेप और कठिनाइयों को सम्भालने के लिये उसमें भी बड़े साहस और कठोर तप की आवश्यकता होती है। कुण्डलिनी शक्ति मूलतः नाड़ियों से सम्बन्धित है। और नाड़ी जाल के द्वारा ही वह सारे शरीर में फैलती है। इसलिये उसे जाग्रत करने का सम्पूर्ण विश्राम नाड़ियों के उत्तेजन से ही सम्भव होता है।

18-साधना काल में साधक को अपनी मन स्थिति को वशवर्ती और स्थिर बनाये रखने के लिये यधति यम, नियम, ध्यान, धारण, प्रत्याहार आदि का भी अभ्यास करना आवश्यक होता है किन्तु कुण्डलिनी प्राण-शक्ति है, इसलिये उनका जागरण मूलतः प्राणायाम की क्रियाओं से होता है। कुछ साधन ऐसे भी है जिनमें प्राणायाम के साथ मूलबन्ध और उड्डियान -ग्रन्ध भी करने पड़ते है। यह क्रियायें हठवादी होने से कई जोखिम भी हो सकते है यद्यपि इनमें कुण्डलिनी शक्ति का जागरण थोड़े समय में ही हो जाता है, किन्तु योगियों ने उन कठिनाइयों और बाधाओं को देखकर ऐसे सुगम प्राणायाम में खोज निकाले जो किसी भी स्वरूप, निर्मल, युवक, वृद्ध या नारियों द्वारा किये जा सके और कुण्डलिनी के क्रमिक विकास का लाभ प्राप्त कर सकें।
19-प्राणायाम के अभ्यास से यहाँ शरीर में प्राण शक्ति बढ़ती है, वहाँ कुण्डलिनी जागरण के लिये आवश्यक साहस और आत्मबल भी प्राप्त होता है। आत्मबल के विकास में कठिन साधनायें लोग स्वरूप समय में ही छोड़ बैठते है, किन्तु प्राणायाम के शारीरिक और मानसिक लाभ तुरन्त मिलते है, जिससे मनोबल बढ़ता है और आगे का मार्ग साफ होता चला जाता है।

बुद्धि के सूक्ष्म क्षमताओं का विकास होने से स्थूल भागो का विकास और दुर्बल साधनाओं से भी अधिक लाभ होने लगती है और पारलौकिक साधना में आस्था बढ़ने लगती है |

20-इस विधि से मार्ग में पड़ने वाली कठिनाइयों के प्रति उसी तरह साहस बढ़ता जाता है जिस तरह किसी को यदि यह मालूम हो जाये कि यहाँ से इतनी दूरी पर रत्नों का भण्डार छिपा हुआ है तो वह मनुष्य रत्नों के लोभ में मार्ग में आने वाली बाधाओं को भी ठहराकर उन्हें प्राप्त करने के लिये चल पड़ता है।

बन्ध का क्या अर्थ है?-

04 FACTS;-

1-बन्ध का अर्थ है ताला लगाना, बन्द करना, रोक देना। बन्ध के अभ्यास में, शरीर के विशेष क्षेत्र में ऊर्जा प्रवाह को रोक दिया जाता है। जब बंध खुल जाता है तो ऊर्जा शरीर में अधिक वेग से वर्धित दबाव के साथ प्रवाहित होती है।

2-मूलबंध यानी गुदाद्वार (मलद्वार) को संकोचन करना, उड्डियान बंध याने पेट को अन्दर ले जाना, जलंधर बंध याने ठोड़ी को कंठ कूप में लगाना।

3-तीन बंध कब करना चाहिये ….प्राणायाम के आरंभ से अन्त तक मूलबंध कायम रखना ;कुँभक (श्वाँस फेफड़े में रोके रखना) करते समय जालंधर बन्ध और रेचक करते समय (श्वाँस बाहर निकालते समय) उड्डियान बन्ध करना।

4-सामान्यत:, बन्धों के अभ्यास के समय श्वास रोका जाता है। मूल बन्ध और जालन्धर बंध पूरक के बाद व रेचक के बाद भी किये जा सकते हैं। उड्डियान बंध और महाबन्ध केवल रेचक के बाद ही किये जाते हैं।

2-बन्ध के चार प्रकार;-

(1) मूूलबन्ध (2)उड्डीयान बन्ध (3) जालन्धर बन्ध(4) महाबन्ध

लाभ ; –

03 FACTS;-

1-चूंकि बन्धों में क्षणिक रूप से रक्त का प्रवाह रुक जाता है, इसीलिए बन्ध के खुलने पर ताजा रक्त का बढ़ा हुआ प्रवाह होता है जो पुराने मृत कणों को बहाकर दूर ले जाता है। इस प्रकार से सभी अंग मजबूत, नये और पुनर्जीवित होते हैं और रक्त संचार में सुधार हो जाता है।

2-बन्ध मस्तिष्क केन्द्रों, नाडिय़ों और चक्रों के लिए भी लाभदायक है। ऊर्जा माध्यम शुद्ध कर दिये जाते हैं, रुकावटें हटा दी जाती हैं और ऊर्जा का प्रवाह, आना-जाना सुधर जाता है। बन्ध, दबाव और मानसिक व्यग्रता को शमित कर देते हैं एवं आन्तरिक सुव्यवस्था और संतुलन में सुधार लाते हैं।

3-सावधानी..बन्धों को करने के प्रयास से पूर्व, स्तरों की श्वसन तकनीकों का अभ्यास नियमित रूप से काफी लंबी अवधि तक कर लेना चाहिए।

1-मूल बन्ध :-

03 FACTS;-

1-मूल बन्ध अर्थात गुदा संबंधी रोक।मूलाधार प्रदेश (गुदा व जननेन्द्रिय के बीच का क्षेत्र) को ऊपर की ओर खींचे रखना मूलबन्ध कहलाता है।

2-गुदा को संकुचित करने से अपान स्थिर रहता है। प्राण की अधोगति रुककर ऊर्ध्व गति होती है। मूलाधार स्थित कुण्डलिनी में मूलबन्ध से चैतन्यता उत्पन्न होती है,आँतें बलवान् होती हैं। मलावरोध नहीं होता, रक्त सच्चार की गति ठीक रहती है।

3-अपान और कूर्म दोनों पर ही मूलबन्ध का प्रभाव पड़ता है। वे जिन तन्तुओं में फैले रहते हैं, उनका संकुचन होने से यह बिखराव एक केन्द्र में एकत्रित होने लगता है।

2-उड्डियान बन्ध : –

03 FACTS;-

1-मध्य पेट को उठाना।पेट को ऊपर की ओर जितना खींचा जा सके, उतना खींच कर उसे पीछे की ओर पीठ में चिपका देने का प्रयत्न इस बन्ध में किया जाता है। इससे मृत्यु पर विजय होती है। जीवनी शक्ति को बढ़ाकर दीर्घायु तक जीवन स्थिर रखने का लाभ उड्डियान से मिलता है। आँतों की निष्क्रियता दूर होती है।

2-उदर तथा मूत्राशय के रोगों में इस बन्ध से बड़ा लाभ होता है। नाभि स्थित समान और कृकल प्राणों में स्थिरता तथा वात, पित्त, कफ की शुद्धि होती है। सुषुम्रा नाड़ी का द्वार खुलता है और स्वाधिष्ठान चक्र में चेतना आने से वह स्वल्प श्रम से ही जाग्रत् होने योग्य हो जाता है।

3-सावधानियाँ… आँतों की सूजन, आमाशय या आँतों के फोड़े, हर्निया, आँख के अन्दर की बीमारी ग्लूकोमा, हृदय रोगी, उच्च रक्तचाप रोगी एवं गर्भवती महिलाएँ न करें।

3-जालन्धर बन्ध : –

03 FACTS;-

1-जालन्धर बन्ध अर्थात ठोड्डी को बन्द करना।मस्तक को झुकाकर ठोड़ी को कण्ठ- कूप (कण्ठ में पसलियों के जोड़ पर जो गड्ढा है, उसे कण्ठ -कूप कहते हैं) अथवा छाती से लगाने को जालन्धर बन्ध कहते हैं। हठयोग में बताया गया है कि इस बन्ध का सोलह स्थान की नाड़ियों पर प्रभाव पड़ता है….

1-पादाङ्गुष्ठ 2- गुल्फ 3- घुटने 4-जंघा 5-सीवनी 6-लिंग 7-नाभि 8-हृदय, 9-ग्रीवा 10-कण्ठ 11- लम्बिका 12-नासिका 13-भ्रू 14-कपाल 15-मूर्धा 16- ब्रह्मरन्ध्र यह सोलह स्थान जालन्धर बन्ध के प्रभाव क्षेत्र हैं।

2-जालन्धर बन्ध से श्वास- प्रश्वास क्रिया पर अधिकार होता है। ज्ञानतन्तु बलवान् होते हैं। विशुद्धि चक्र के जागरण में जालन्धर बन्ध से बड़ी सहायता मिलती है।

3-सावधानियाँ- सर्वाइकल स्पाण्डिलाइटिस, उच्च रक्तचाप, हृदय रोगी न करें।

2-4-महाबन्ध :-

06 FACTS;-

1-महाबन्ध अर्थात एक ही समय पर तीनों बन्धों का अभ्यास।यह मुद्रा दो बन्धो का सयुक्त रूप है। इसी कारण इसे महाबंध भी कहते है।

2-यह मुद्रा तीन प्रकार के प्राणो का समायोजन करती है। अर्थात प्राण अपान को मिलाती है समान के क्षेत्र में।इस बन्ध के कारण शरीर में अनेक आश्चर्यजनक परिवर्तन भी होते है।

3-हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है कि ”यह महाबंध मुद्रा सभी नाड़ियो

में प्राण के उर्ध्व गति को रोकता है और महान सिद्धियो को प्रदान करता है।यह मुद्रा कालपाश रूपी महान बंधन को काट देती है।इसके अभ्यास

से तीनो नाड़ियो (इड़ा,पिंगला,सुषुम्ना )का संगम होता है जिससे मन अंतराकश या महाकाश जिसे शिवस्थान भी कहते है में पहुँच जाता है।”

4-घेरण्ड सहिंता में कहा गया है कि ”यह मुद्रा बुढ़ापा तथा मृत्यु को

नष्ट करने वाली है। इसकी सिद्धि से समस्त कामनाओ की सिद्धि हो जाती है।”

5-शिव सहिंता में कहा गया है कि ”इस मुद्रा के अभ्यास से साधक

अपने शरीर को पुष्ट करने के साथ ही अस्थियो को भी सुदृढ़ कर लेता है। इसके द्वारा मानव मन संतुष्ट रहता है तथा अभ्यासी के सभी मनोरथो की सिद्धि हो जाती है।”
6-इस प्रकार कहा जा सकता है की महाबंध मुद्रा शारीरिक लाभ व अध्यात्मिक लाभ दोनों हो प्रदान करती है। लाभ शरीर से प्रारम्भ होकर दिव्य स्तर तक जाते है।

3-महाबंध की विधि;-

03 FACTS;-

1-प्रथम दायां पांव उठाकर उसकी एड़ी से सीवनी को दृढ़ता से दबाकर गुदा मार्ग को बंद करें। यह मूलबंध की स्थिति है। फिर दायां पांव बाईं जांघ पर रखकर गोमुखासन करें और तब ठोढ़ी की छाती पर दृढ़ता से लगाकर रखें। यह जालन्धरबंध की स्थिति है। फिर पेट को दबाकर रखें। इससे अपानवायु ऊपर की ओर प्रवाहित होती है। इस समय में ध्यान त्रिकुटी पर लगाकर रखें। इस संपूर्ण स्थिति को महाबंध कहा जाता है।

2-इस प्रकार कहा जा सकता है की एड़ी को गुदा व उपस्थ के बीच दृढ़ता से सटाकर दूसरे पैर को ऐसे रखे की अर्द्धपद्मासन की स्थिति बन जाए। फिर मूल बंध लगाए उसके बाद कुम्भक प्राणायाम करके साथ ही जालन्धर बंध भी लगाए।इसी प्रकार पैरो के दूसरे क्रम से भी अर्धपद्मासन में बैठे और सारी प्रक्रिया को दोहराये। इसे ही महाबंध मुद्रा कहते है।

3-उसी अवस्था में नीचे से अपान वायु को उपर की तरफ ले जाए और नासिका से ली गई वायु अर्थात प्राण को नीचे की तरह ले जाकर जठर अर्थात उदर क्षेत्र में ले जाए और वहाँ पर प्राण समान कहलाता है इसी जगह समान और अपान वायु को मिला दे। ये एक अध्यात्मिक यात्रा है इसी कारण से इसे केवल साधक ही समझ सकते है।

लाभ;-

05 FACTS;-

1-इसके नियमित अभ्यास से जठराग्नि अधिक बढ़ती है, जिससे पाचन शक्ति उत्तम बनी रहती है। जरा-मृत्यु आदि निकट नहीं आ पाते और साधक योगी बन जाता है।
2-शरीर के विभिन्न प्रकार के रोग जैसे कब्ज,गैस,अपच दूर हो जाते है। मूत्र व धातु के समस्त रोग दूर हो जाते है। घुटने व जंघा मजबूत होती है। कोहनियों के जोड़ मजबूत होते है। थायरॉयड संबंधी समस्या दूर हो जाती है। गर्दन दर्द नहीं होता। शरीर के लगभग सभी रोग महाबंध मुद्रा के अभ्यास से ठीक हो जाते है।
3-अध्यात्मिक स्तर पर तो इसके बहुत ही लाभ है।यह मुद्रा सुषुम्ना को
छोड़कर अन्य सभी नाड़ियो में प्राण की उर्ध्व गति को रोक देती है। जिसका बहुत फायदा साधक को मिलता है जो प्राण अब तक अनेक जगह पर बटा हुआ था वो सब जगह से रूककर सुषुम्ना से बहने लगता है।

4-इस मुद्रा के अभ्यास से साधक मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेता है अर्थात शरीर का क्षरण भी नहीं होता और साधक के ह्रदय से मृत्यु का भय भी नष्ट हो जाता है। वह अपने मूल स्वरूप का दर्शन करने से अभय हो जाता है।

5-प्राण जो सामान्यत इड़ा या पिंगला से बहता है इस मुद्रा के अभ्यास से रूक जाता है और सुषुम्ना से होकर बहने लगता है। और इन तीनो नाड़ियो के संगम अर्थात आज्ञाचक्र पर पहुँच जाता है। आज्ञा चक्र को अन्ताकाश या महाकाश भी कहते है।
सावधानियाँ :-

04 FACTS;-
1-खाली पेट ही अभ्यास करें।
2-कमर दर्द या घुटने या हाथ का दर्द हो तो यह अभ्यास ना करें।
3-गर्दन संबंधी समस्या हो तो अभ्यास न करें।
4-कई बार अभ्यास के समय पेट में अधिक गर्मी उत्पन्न हो जाती है जिस कारण कब्ज,मुँह में छाले जैसे समस्या हो जाती है।यह समस्या अपान प्राण को मिलाने से होती है।

कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने में विशेष मुद्राओं का महत्व;-

02 FACTS;-

1-तंत्र-शास्त्र में जो साधना बतलाई गई है, उसमें मुद्रा साधन बड़े महत्व का और श्रेष्ठ है । मुद्रा में आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि योग की सभी क्रियाओं का समावेश होता है । मुद्रा की साधना द्वारा मनुष्य शारीरिक और मानसिक शक्तियों की वृद्धि करके अपने आध्यात्मिक उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है । मुद्राएँ अनेक हैं ।घेरण्ड संहिता में उनकी संख्या 25 बतलाई गई है,

2-घेरण्ड संहिता में कुल पच्चीस (25) मुद्राओं का उल्लेख मिलता है । इन पच्चीस मुद्राओं के नाम निम्न हैं –

1.महामुद्रा, 2. नभोमुद्रा, 3. उड्डियान बन्ध, 4. जालन्धर बन्ध, 5. मूलबन्ध, 6. महाबंध, 7. महाबेध मुद्रा, 8. खेचरी मुद्रा, 9. विपरीतकरणी मुद्रा, 10. योनि मुद्रा, 11. वज्रोली मुद्रा, 12. शक्तिचालिनी मुद्रा, 13. तड़ागी मुद्रा, 14. माण्डुकी मुद्रा, 15. शाम्भवी मुद्रा, 16. पार्थिवी धारणा, 17. आम्भसी धारणा, 18. आग्नेयी धारणा, 19. वायवीय धारणा, 20. आकाशी धारणा, 21. अश्विनी मुद्रा, 22. पाशिनी मुद्रा, 23. काकी मुद्रा, 24. मातङ्गी मुद्रा, 25. भुजङ्गिनी मुद्रा ।

3-पर शिव-संहिता में उनमें से मुख्य मुद्राओं को छांट कर इसकी ही गणना कराई है , जो इस प्रकार है;-

(1) महामुद्रा (2)खेचरी (3)अगोचरी मुद्रा(4)‍ विपरीत-करणी (5) योनि मुद्रा (6) शक्ति चालिनी(7)अश्विनी मुद्रा(8)अगोचरी(9)उनमनी मुद्रा (10)शाम्भवी मुद्रा
2-उक्त मुद्राओं को सही तरीके से अभ्यास करने से बुढ़ापा जल्दी नहीं आ सकता।
तंत्र मार्ग में कुण्डलिनी शक्ति की बड़ी महिमा बतलाई गई है ।इसके जागृत होने से षटचक्र भेद हो जाते हैं और प्राणवायु सहज ही में सुषुम्ना से बहने लगती है इससे चित्त स्थिर हो जाता है और मोक्ष मार्ग खुल जाता है । इस शक्ति को जागृत करने में मुद्राओं से विशेष सहायता मिलती है।दो मुद्राओं को विशेष रूप से कुंडलिनी जागरण में उपयोगी माना गया है;– शाम्भवी मुद्रा, खेचरी मुद्रा।

1) महामुद्रा;-

04 FACTS;-

1-मूलबंध लगाकर दाहिनी एड़ी से कंद (मलद्वार और जननांग का मध्य भाग) को दबाएँ। बाएँ पैर को सीधा रखें। आगे की ओर झुककर बाएँ पैर के अँगूठे को दोनों हाथों से पकड़े। सिर को नीचे झुका कर बाएँ घुटने का स्पर्श कराएँ। इस स्थिति को जानुशिरासन भी कहते हैं।
2-महामुद्रा में जानुशिरासन के साथ-साथ, बंध और प्राणायाम, किया जाता है। श्वास लीजिए। श्वास रोकते हुए जालंधर बंध करें (ठुड्डी को छाती के साथ दबाकर रखें)। श्वास छोड़ते हुए उड्डीयान बंध (नाभी को पीठ में सटाना) करें। इसे जितनी देर तक कर सकें करें।
3-दाहिने पैर को सीधा रखते हुए बाई एड़ी से कंद को दबाकर इसी क्रिया को पुन: करें। आज्ञाचक्र पर ध्यान करें। भ्रू मध्य दृष्टि रखें। इसके अतिरिक्त सुषुम्ना में कुंडलिनी शक्ति के प्रवाह पर भी ध्यान कर सकते हैं।
4-जितनी देर तक आप इस मुद्रा को कर सकें उतनी देर तक करें। इसके पश्चात महाबंध और महाभेद का अभ्यास करें। महामुद्रा, महाबंध और महाभेद को एक दूसरे के बाद करना चाहिए।
लाभ :-

यह मुद्रा महान सिद्धियों की कुँजी है। यह प्राण-अपान के सम्मिलित रूप को सुषुम्ना में प्रवाहित कर सुप्त कुंडलिनी जाग्रत करती है। इससे रक्त शुद्ध होता है। यदि समुचित आहार के साथ इसका अभ्यास किया जाय तो यह सुनबहरी जैसे असाध्य रोगों को भी ठीक कर सकती है। बवासीर, कब्ज, अम्लता और शरीर की अन्य दुष्कर व्याधियाँ इस के अभ्यास से दूर की जा सकती हैं। इसके अभ्यास से पाचन क्रिया तीव्र होती है तथा तंत्रिकातंत्र स्वस्थ और संतुलित बनता है।

सावधानियाँ :-

04 FACTS;-

1-खाली पेट ही अभ्यास करें।

2-जालन्धर बंध पूर्ण ढंग से लगाए।

3-अगर पेट का कोई आपरेशन हुआ तो अभ्यास न करें।

4-कुम्भक के बाद धीरे धीरे रेचन करें।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

2)खेचरी मुद्रा
क्या है खेचरी मुद्रा ?-

05 FACTS;-

(केवल साधकों के लिए)

1-योग में कुछ मुद्राएं ऐसी हैं जिन्हें सिर्फ योगी ही करते हैं। सामान्यजनों को इन्हें नहीं करना चाहिए। खेचरी मुद्रा साधकों के लिए मानी गई है।खेचरी मुद्रा योगसाधना की एक मुद्रा है। इस मुद्रा में चित्त एवं जिह्वा दोनों ही आकाश की ओर केंद्रित किए जाते हैं जिसके कारण इसका नाम ‘खेचरी’ पड़ा है (ख = आकाश, चरी = चरना, ले जाना, विचरण करना)।

2इस मुद्रा की साधना के लिए पद्मासन में बैठकर दृष्टि को दोनों भौहों के बीच स्थिर करके फिर जिह्वा को उलटकर तालु से सटाते हुए पीछे रंध्र में डालने का प्रयास किया जाता है। इस स्थित में चित्त और जीभ दोनों ही ‘आकाश’ में स्थित रहते हैं, इसी लिये इसे ‘खेचरी’ मुद्रा कहते हैं । इसके साधन से मनुष्य को किसी प्रकार का रोग नहीं होता ।

3-इसके लिये जिह्वा को बढ़ाना आवश्यक होता है। जिह्वा को लोहे की शलाका से दबाकर बढ़ाने का विधान पाया जाता है। कौल मार्ग में खेचरी मुद्रा को प्रतीकात्मक रूप में ‘गोमांस भक्षण’ कहते हैं।’गौ’ का अर्थ इंद्रिय अथवा जिह्वा और उसे उलटकर तालू से लगाने को ‘भक्षण’ कहते हैं।
4-मनुष्य की जीभ (जिह्वा) दो तरह की होती हैं- लंबी और छोटी। लंबी जीभ को सर्पजिह्वा कहते हैं। कुछ लोगों की जीभ लंबी होने से वे उसे आसानी से नासिकाग्र पर लगा सकते हैं और खेचरी-मुद्रा कर सकते हैं। मगर जिसकी जीभ छोटी होती है उसे तकलीफों का सामना करना पड़ता है। सबसे पहले उन्हें अपनी जीभ लंबी करनी पड़ती है और उसके लिए घर्षण व दोहन का सहारा लेना पड़ता है। जीभ नीचे की ओर से जिस नाड़ी से जुड़ी होती है उसे काटना पड़ता है।

5-इसके प्रभाव से कपाल-गह्वर में होकर प्राण-शक्ति का संचार होने लगता है और सहस्रदल कमल में अवस्थित अमृत-निर्झर झरने लगता है, जिससे दिव्य आनन्द की प्राप्ति होती है। प्राण की उर्द्धगति हो जाने से मृत्यु-काल में जीव ब्रह्मरन्ध्र में होकर ही प्रयाण करता है, इसलिये उसे मुक्ति या स्वर्ग की सद्गति प्राप्त होती है।

विधि :-

03 FACTS;-

1-इसके लिए जीभ और तालु को जोड़ने वाले मांस-तंतु को धीरे-धीरे काटा जाता है अर्थात एक दिन जौ भर काटकर छोड़ दिया जाता है। फिर तीन-चार दिन बाद थोड़ा-सा और काट दिया जाता है।इस प्रकार थोड़ा काटने से उस स्थान की रक्त वाहिनी शिरायें अपना स्थान भीतर की तरफ बनाती जाती हैं ।खेचरी मुद्रा की साधना के लिए हठयोगी जीभ को लम्बी करके ‘काकं चंचु’ तक पहुँचाने के लिए जिव्हा पर कालीमिर्च, शहद, धृत का लेपन करके उसे थन की तरह दुहते, खीचते हैं और लम्बी करने का प्रयत्न करते हैं।

2-जीभ के नीचे वाली पतली त्वचा को काट कर भी अधिक पीछे मुड़ने के योग्य बनाया जाता है ।इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा काटने से उस स्थान की रक्त शिराएं अपना स्थान भीतर की तरफ बनाती जाती हैं। जीभ को काटने के साथ ही प्रतिदिन धीरे-धीरे बाहर की तरफ खींचने का अभ्यास किया जाता है।इसका अभ्यास करने से कुछ महीनों में जीभ इतनी लंबी हो जाती है कि यदि उसे ऊपर की तरफ लौटा (उल्टा करने) दिया जाए तो वह श्वास जाने वाले छेदों को भीतर से बंद कर देती है।इससे समाधि के समय सांस का आना जाना पूर्णतः रोक दिया जाता है ।

3-खेचरी मुद्रा को सिद्ध करने एवं अमृत के स्राव हेतु आवश्यक उद्दीपन में कुछ वर्ष भी लग सकते हें। यह व्यक्ति की योग्यता पर भी निर्भर करता है। इसमें तनिक सी भी भूल होने पर पूरा जिह्वा तंत्र ही नष्ट हो सकता है।इस मुद्रा से प्राणायाम को सिद्ध करने और समाधि लगाने
में विशेष सहायता मिलती है ।साधनारत साधुओं के लिए यह मुद्रा बहुत ही लाभदायी मानी जाती है।

योगमार्ग की एक महान क्रिया :-

06 FACTS;-

1-ब्रह्माण्ड की सबसे महान प्रक्रिया कुण्डलिनी जागरण (kundalini shakti awakening) में सिद्धि के लिए खेचरी मुद्रा ) और शाम्भवी मुद्रा में सफलता जरूरी होती है। योगमार्ग में “खेचरी मुद्रा” को ‘योगियों की माँ’ कहकर सम्बोधित किया गया है। जिस प्रकार माँ अपनी सन्तान का पालन पोषण सभी संकट हटाकर करती है, ठीक उसी प्रकार खेचरी की शरण में रहने वाला साधक सदैव उसकी कृपा का पात्र बनता है।

2-ऐसा नहीं है की सिर्फ हठ योग से ही खेचरी मुद्रा सिद्ध होती है, राज योग , कर्म योग , भक्ति योग व तंत्र योग से भी यह मुद्रा सिद्ध हो सकती है ।इस मुद्रा के सिद्ध होने पर अचानक

से जीभ पर बर्फ के समान ठंडा महसूस होता है जो की जीभ पर अवतरित हुए अमृत कणों की वजह से होता है जिससे जीभ उस समय अप्रत्याशित रूप से चिकनी महसूस होती है !

3-यह अमृत ( Nectar or Ambrosia) जीभ की सूक्ष्म ग्रंथियों द्वारा शरीर में घुल जाता है ! ऐसा नहीं है की यह अमृत शरीर में जाते ही शरीर को अमर बनाना शुरू कर देता है !

यह अमृत मुंह से खायी अन्य चीजों की तुलना में उलटे तरीके से काम करता है ! मतलब जब हम मुंह से खाना खाते हैं तो ये खाना सबसे पहले हमारे स्थूल शरीर (हांड मांस से बना शरीर) को पोषण देता है और फिर स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर उर्जा पाता है और अन्ततः कारण शरीर !

4-वास्तव में हमारे कारण शरीर और आत्मा में अन्तर बस इतना होता है की हमारे पूर्व जन्म के सारे कर्मों के संस्कार हमारे कारण शरीर को चारों ओर से ढके रहते हैं जबकि आत्मा विशुद्ध

होती है !तो खेचरी मुद्रा से निकला अमृत सबसे पहले हमारे कारण शरीर के संस्कारों को नष्ट करता है फिर सूक्ष्म शरीर को सबल बनाता है और अन्त में स्थूल शरीर की सभी व्याधियों को नष्ट करते हुए स्थूल शरीर को वज्र के समान अभेद्य बनाता है !पर अजर से अमर बनने की

प्रक्रिया बहुत ही लम्बी होती है जिसमें बहुत कम ही योगी सफल हो पाते हैं !

5-जीभ पर गिरे अमृत में एक अक्षर तत्व होता है जिसकी वजह से इसका स्वाद अलग अलग योगियों को अलग अलग तरह से महसूस होता है ! ये अमृत के कण जब स्थूल शरीर में अपना काम शुरू करते हैं तो ये शरीर की हर सेल्स (cells या कोशिका) में बारी बारी घुसकर उसके नाभिक को जकड़ कर रक्षा कवच (armour) बना लेते हैं जिससे वो कोशिका अजर अर्थात व्याधि रहित होती जाती है लेकिन शरीर में अत्याधिक कोशिकाएं होती हैं इसलिए पूरे शरीर को अजर बनने में काफी समय लग जाता है

6-भविष्य में यही अमृत नाभि स्थित मुख्य कोटर (जिसमे शरीर का मुख्य प्राण रहता है) के चारो ओर भी कवच बना लेता है जिससे शरीर अमर अर्थात इच्छा मृत्यु की सिद्धि प्राप्त कर

लेता है !इस मुद्रा को सिर्फ योग्य गुरु के सानिध्य में ही सीखना चाहिए क्योंकि हर बड़े फल देने वाली हर बड़ी साधना के बीच में कई डरावने अनुभव होते हैं जिनसे पैदा हुए भ्रम से योग्य गुरु ही रक्षा करते हैं !

विशेषता :-

निरंतर अभ्यास करते रहने से जीभ जब लंबी हो जाती है, तब उसे नासिका रन्ध्रों में प्रवेश कराया जा सकता है। इस प्रकार ध्यान लगाने से कपाल मार्ग एवं बिंदु विसर्ग से संबंधित कुछ ग्रंथियों में उद्दीपन होता है। जिसके परिणामस्वरूप अमृत का स्राव आरंभ होता है। उसी अमृत का स्राव होते वक्त एक विशेष प्रकार का आध्यात्मिक अनुभव होता है। इस अनुभव से सिद्धि और समाधि में तेजी से प्रगति होती है।
चेतावनी :-

यह आलेख सिर्फ जानकारी हेतु है। कोई भी व्यक्ति इसे पढ़कर करने का प्रयास न करे, क्योंकि यह सिर्फ साधकों के लिए है आम लोगों के लिए नहीं।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
3)अगोचरी मुद्रा : –
नाक से चार उँगली आगे के शून्य स्थान पर दोनों नेत्रों की दृष्टि को एक बिन्दु पर केन्द्रित करके ध्यान लगाना। इस मुद्रा को करने के लिए सबसे पहले किसी ध्यान के आसन में बैठकर गहरी सांस भरकर सांस को अंदर ही रोककर रखें तथा नाक के आगे के भाग पर अपनी नज़र टिकाकर ईश्वर की सुगंध मन में महसूस करें।
अगोचरी मुद्रा के लाभ :-

03 FACTS;-
1-ये मुद्रा बहुत तेजी से पाप भक्षण करती है और ईश्वर प्राप्ति में बहुत सहयोगी है।
2-अगर मन अशांत हो तो यह बहुत ही लाभकारी मुद्रा है ,यह मन के विचारों की उथल-पाथल को शांत करती है |
3-यह ध्यान की शक्ति में विकास करती है |
4)विपरीत करणी मुद्रा;-

03 FACTS;-
1-योगियों ने मनुष्य के शरीर में दो मुख्य नाड़ियाँ बतलाई हैं । एक सूर्यनाड़ी और दूसरी चन्द्र नाड़ी । सूर्य नाड़ी नाभि के पास है और चन्द्रनाड़ी तालु के मध्य में है । मस्तक में रहने वाले सहस्रा दल कमल से जो अमृत झरता है वह सूर्य नाड़ी के मुख में जाता है । इसी से अन्त में मनुष्य की मृत्यु हो जाती है । यहि अमृत चन्द्रनाड़ी के मुख में गिरने लगे तो मनुष्य निरोगी, बलवान और दीर्घजीवी हो सकता है ।

2-इसके लिए तेज शास्त्र में साधक को आदेश दिया गया है कि सूर्यनाड़ी को ऊपर और चन्द्रनाड़ी को नीचे ले आवे । इसके लिए जो मुद्रा बतलाई गई है उसकी विधि शीर्षासन की है, अर्थात मस्तक को जमीन पर टिका कर दोनों पैरों को सीधे ऊपर की तरफ तान दें और दोनों हाथ की हथेलियों को मस्तक के नीचे लगा दें ।तब कुम्भक प्राणायाम करें ।

3-मस्तक को जमीन पर रख कर दोनों हाथों को उसके समीप रखना और पैरों को ऊपर की तरफ सीधा करना उसको विपरीत करणी मुद्रा कहते हैं। शीर्षाषन भी इसी का नाम है। इसके साधन से मस्तिष्क को बड़ी शक्ति प्राप्त होती है।
5)योनि मुद्रा;-

02 FACTS;-
1-इसके लिए सिद्धासन पर बैठकर दोनों अंगुठों से दोनों कान, दोनों तर्जनी उँगलियों से दोनों मध्यमा (बीच की उंगली) से दोनों नाक के छेद और दोनों अनामिका से मुंह बन्द करना चाहिए । फिर काकी मुद्रा (कौवे की चौच के समान होठो को आगे बढ़ाकर साँस खीचना) से प्राण वायु के भीतर खींच कर अपान वायु से मिला देना चाहिए । शरीर में स्थित छहों चक्रों का ध्यान करके ‘हूँ’ और ‘हंस’ इन दो मंत्रों द्वारा सोयी हुई कुण्डलिनी का जगाना चाहिये ।

2-जीवात्मा के साथ कुण्डलिनी को युक्त करके सहस्र दल कमल पर ले जाकर ऐसा चिंतन करना कि मैं स्वयं शक्तिमय होकर शिव के साथ नाना प्रकार का बिहार कर रहा हूँ । फिर ऐसा चिंतन करना चाहिए कि ‘शिवशक्ति के संयोग से आनन्द स्वरूप होकर मैं ही ब्रह्म रूप में स्थित हूँ ।’ यह योनि मुद्रा बहुत शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाली है और साधक इसके द्वारा अनायास ही समाधिस्थ हो सकता है ।

6)शक्ति चालन क्रिया;-

09 FACTS;-

1-शरीर में प्राण के पाँच रूप हैं, जिन्हें पंच वायु कहते हैं। इनमें हैं – प्राण वायु, समान वायु, उदान वायु, अपान वायु, व्यान वायु। ये मानव-तंत्र के विभिन्न पहलू हैं। शक्ति चालन क्रिया जैसे यौगिक अभ्यासों की मदद से, आप पंच वायु की डोर अपने हाथ में ले सकते हैं। अगर आपने इन पर महारत हासिल कर ली तो आप अधिकतर रोगों से मुक्त हो जाएंगे – खासकर मानसिक रोगों से अपना बचाव कर सकेंगे।

2-शक्ति चालन क्रिया के साथ, रूपांतरण धीरे-धीरे होता है। अपने प्राण का दायित्व लेना और तंत्र में इसकी प्रक्रियाओं पर ध्यान देना, एक अद्भुत सिलसिला है। शक्ति चालन क्रिया उसी स्तर पर काम करती है। अगर आप इसका अभ्यास करें, तो आप अपने तंत्र की बुनियाद मजबूत कर सकते हैं।

3-शक्ति चालन क्रिया एक अद्भुत प्रक्रिया है, पर आपको सजग होना होगा। आपको पूरे चालीस से साठ मिनट तक केन्द्रित रहना होगा। अधिकतर लोग एक पूरी साँस पर अपना ध्यान नहीं टिका सकते। बीच में कहीं उनके विचार कहीं और चले जाते हैं, या फिर वे गिनती भूल जाते हैं। उस बिंदु पर आने के लिए महीनों और सालों के अभ्यास की जरूरत होगी जिस पर आ कर, अपनी श्वास पर ध्यान केंद्रित करने के सारे चक्रों को पूरा कर सकें। यही वजह है कि शक्ति चालन क्रिया को शून्य-ध्यान के साथ सिखाया जाता है।

4-यह ध्यान आपको उस जगह ले आता है, जिसमें आंखें बंद करते ही आप दुनिया से दूर हो जाते हैं। यह अपने-आप में किसी वरदान से कम नहीं है। अगर आप ऐसा कर लें तो आप किसी भी चीज पर कुछ समय तक एकाग्र रह सकेंगे। अगर आप ऐसा जबरन करना चाहें तो उससे कोई लाभ नहीं होगा। अगर आप अपनी आंखों को बंद करें तो आपके लिए मौजूद होना चाहिए – सिर्फ आपकी सांस, धड़कन, शरीर की कियाएं और आपके प्राण के क्रियाकलाप।

5-सिर्फ वही जो भीतर घटित हो रहा है, वही जीवन है। जो कुछ भी बाहर घटित हो रहा है, वह सिर्फ छाया है। यहां तक कि अगर आप किसी इंसान को देख रहे हैं, तो आप दरअसल उसे नहीं देख रहे हैं, आप तो वह देख रहे हैं जो उस इंसान ने आपकी स्क्रीन पर प्रोजेक्ट किया है (आपके दिमाग में)।शक्ति चलन क्रिया में- केन्द्रित रहना ही मूलमंत्र है।शून्य और अन्य साधना

उसी ओर ले जाती हैं। आप कितनी दूर जा पाते हैं, वह अलग बात है-।

6-अन्तिम मुद्रा के रुप में शक्तिचालिनी मुद्रा का वर्णन है।इस मुद्रा का वर्णन हठयोग के सभी ग्रंथो जैसे घेरण्डसंहिता व शिवसंहिता आदि ग्रंथो

में किया गया है। शक्तिचालिनी,शक्ति अर्थात कुंडलीनी चालिनी अर्थात चलाने वाली कुंडलीनी को चलाने वाली मुद्रा को शक्ति चालिनी कहते है।

7-हठयोगप्रदीपिका व घेरण्डसंहिता में वर्णित शक्ति चालिनी मुद्रा में कुछ अंतर है।हठयोगप्रदीपिका के अनुसार….

शक्ति चालिनि मुद्रा में कुण्डलिनी का चालन व उत्थान किया जाता है।

यह क्रिया दो क्रम में की जाती है।प्रातः सायं आधा पहर अर्थात डेढ़ घंटे

सुबह व डेढ़ घंटे शाम को पिंगला नाड़ी( दाहिने नाक से) से पूरक करके परिधानयुक्ति से मूलाधार स्थित कुण्डलिनी को चलाना चाहिए।

8-मूलस्थान (गूदामूल से) एक बित्ता (9 इंच) ऊंचाई पर चार अंगुल (3 इंच) लम्बाई चौड़ाई व मोटाई वाला वस्त्र में लिपटे हुए के समान, सफ़ेद व कोमल एक नाड़ी केंद्र होता है।जिसे कंद कहा गया है।

व्रजासन में बैठ कर दोनों हाथो से पाँवो के टखनों को दृढ़ता से पकड़कर उससे कंद को जोर से दबाये।

9-इस प्रकार कुण्डलिनी को चलाने की क्रिया की जाती है। और उसके

अनन्तर भस्त्रिका कुम्भक करते है।जिससे कुण्डलिनी शीघ्र जगती है,

अर्थात उसका उत्थान होता है।उसके बाद नाभि प्रदेश स्थित सूर्य नाडी का (अर्थात नाभि का) आकुच्चन कर कुण्डलिनी को चलावे।

विशलेषण :-

04 FACTS;-

1- आम साधक इस मुद्रा का अभ्यास कर ही नहीं सकता है। प्रत्येक वह साधक जिसमे योग का कोई भी बाधक तत्व अधिक भोजन, अधिक श्रम, अधिक बोलना, नियम पालन में आग्रह, अधिक लोकसंपर्क तथा मन की चंचलता उपस्थित है, वह इस मुद्रा की सिद्धि नहीं कर सकता और उसे करनी भी नहीं चाहिए।

2-इस मुद्रा में कुण्डलिनी की दो अवस्थाओं का वर्णन है। चालन तथा उत्थान वास्तव में ये कुण्डलिनी या प्राण के ऊपर चलने की दो अलग – अलग अवस्थाएं है। चालन में प्राण का मेरुदण्ड में ऊपर चढ़ने का अनुभव होता है। और उत्थान में यह अनुभव बहुत तीव्र, गहरा और लय में स्थिर हो जाता है।

3-परिधानयुक्ति के सम्बन्ध में सभी ग्रंथो में गुरु द्वारा सिखने का निर्देश है। (यह एक गुप्त युक्ति है।गुरु द्वारा जानकर इसका अभ्यास करे)अर्थात डेढ़ घंटा सुबह व डेढ़ घंटा शाम पिंगला नाड़ी से पूरक करके कुम्भक करे और उसके बाद गुरु द्वारा बताई गयी युक्ति से कुण्डलिनी को चलाए।

4-उदर में पेडू के भीतर मूलाधार से 9 इंच उपर एक नाड़ी केंद्र होता है।जिसे कंद कहा गया है।गुरु द्वारा बताये अनुसार इस कंद को दबाने से कुण्डलिनी तेजी से ऊपर की तरफ चलती है।कुण्डलिनी के चलाने

वाले भाग से ही साधक रोगो से छुटकारा पा जाता है।दो मुहूर्त तक

निर्भय होकर चलाने से वह शक्ति सुषुमा में प्रवेश कर जाती है।

Recommended Articles

Leave A Comment