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हिंदू धर्म में श्राद्ध पक्ष को लेकर काफी मान्‍यताएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि पितृ पक्ष के दौरान तर्पण करने से पितरों की आत्‍मा को शांति मिलती है और वे प्रसन्‍न होकर हमें आशीर्वाद देते हैं जिससे हमारे जीवन के सभी दुख एवं कष्‍ट दूर हो जाते हैं।

मित्रो, सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो, जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है, जैसे सत्य सनातन है, ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है, वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है, जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है, उस सत्य को ही सनातन कहते हैं, यही सनातन सत्य है।

वैदिक या हिंदू धर्म को इसलिये सनातन धर्म कहा जाता है, क्योंकि यही एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है, मोक्ष का कांसेप्ट इसी धर्म की देन है, एकनिष्ठता, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण का मोक्ष मार्ग है, अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है, मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है, यही सनातन धर्म का सत्य है।

वृहदारण्य उपनिषद् में एक श्लोक हैंं- “असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योर्तिगमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय” सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम-नियम आदि हैं जिनका शाश्वत महत्व है, अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व वेदों में इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था, अर्थात असत्य से सत्य की ओर चलना, अंधकार से प्रकाश की ओर चलना, मृत्यु से अमृत की ओर चलना, जो लोग उस परम तत्व परब्रह्म परमेश्वर को नहीं मानते हैं वे असत्य में गिरते हैं, असत्य से मृत्युकाल में अनंत अंधकार में पड़ते हैं।

उनके जीवन की गाथा भ्रम और भटकाव की ही गाथा सिद्ध होती है, वे कभी अमृत्व को प्राप्त नहीं होते, मृत्यु आयें इससे पहले ही सनातन धर्म के सत्य मार्ग पर आ जाने में ही भलाई है, अन्यथा अनंत योनियों में भटकने के बाद प्रलयकाल के अंधकार में पड़े रहना पड़ता है, सत्य यानी सत् और तत्, सत का अर्थ यह और तत का अर्थ वह, दोनों ही सत्य है, “अहं ब्रह्मास्मी और तत्वमसि” अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ और तुम भी ब्रह्म हो, यह संपूर्ण जगत ब्रह्ममय है।

पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

ब्रह्म पूर्ण है, यह जगत् भी पूर्ण है, पूर्ण जगत् की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है, पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होने पर भी ब्रह्म की पूर्णता में कोई न्यूनता नहीं आती, वह शेष रूप में भी पूर्ण ही रहता है, यही सनातन सत्य है, जो तत्व सदा, सर्वदा, निर्लेप, निरंजन, निर्विकार और सदैव स्वरूप में स्थित रहता है उसे सनातन या शाश्वत सत्य कहते हैं।

वेदों का ब्रह्म और गीता का स्थितप्रज्ञ ही शाश्वत सत्य है, जड़, प्राण, मन, आत्मा और ब्रह्म शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं, सृष्टि व ईश्वर (ब्रह्म) अनादि, अनंत, सनातन और सर्वविभु हैं, भाई-बहनों, दो सितंबर सें पितृपक्ष (श्राद्धपक्ष) की शुरूआत हो रही हैं, हर साल पितृपक्ष में सोलह दिन तक विशेष पूजा पाठ करते हैं, और अपने पितरों की कृपा प्राप्त करने के लिये ये सोलह दिन श्राद्ध पक्ष कहलाते हैं।

भारतीय ऋषियों ने ये दिन इसलिये निकाले थे जिससे की लोग अपने जीवन को सुखमय कर सके, और अपने साथ साथ अपने पूर्वजो का कल्याण भी कर सके, वास्तव में ये हमारा कर्त्तव्य है की हम अपने पूर्वजो (पितरो) को समय समय पर याद करे, और उनकी कृपा के लिए उनका धन्यवाद दे, क्योंकि? हमारा अस्तित्व इस धरती पर है तो हमारे पित्रो के कारण।

हिन्दू शाश्त्रो में पितरो को पूजने के लिये भी निर्देश दिये गये हैं, जिससे की लोग सुखी और संपन्न जीवन जी सके, हिन्दू पंचांग के हिसाब से आश्विन माह में ये सोलह दिन आते हैं जब लोगो को विशेष रूप से पितरो के निमित पूजा पाठ, दान, तर्पण करना चाहिये, ऐसा विश्वास किया जाता है की जो भी हम दान-पुण्य पितरो के नाम से करते हैं वो उनको प्राप्त होता है, और बदले में वो हमे आशीष प्रदान करते हैं।

श्राद्ध पक्ष का आखरी दिन अमावस्या होता है, जिसे की “पितृ मोक्ष अमावस्या” के नाम से भी जानते हैं, इस दिन सभी लोग सभी दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए प्रार्थना, दान, पूजा-पाठ आदि कर सकते हैं, अगर किसी व्यक्ति को अपने परिवार के किसी दिवंगत सदस्य की तिथि नहीं मालूम है, तो वह पितृ मोक्ष अमावस्या को उसके लिए श्राद्ध कर सकता है।

मित्रो! हमारे शास्त्रों के हिसाब से सभी को अपने कर्मो का फल तो भोगना ही है, और शरीर छोड़ने के पश्चात सभी को कर्मो के अनुसार फल प्राप्त होता है, और ये भी सत्य है की जो भी हम दान पुण्य अपने पितरो के मुक्ति और कल्याण हेतु करते हैं, उससे भी उनको गति मिलती है और वो आगे बढ़ते है, उनकी मुक्ति के रास्ते खुलते हैं, हमारे शास्त्रों के अनुसार पितृ पक्ष में किया गया दान पुण्य उन्हें जरुर प्राप्त होता है।

ऐसी भी मान्यता है की पितृ पक्ष में दिवंगत आत्मायें अपने सुक्ष्म शरीर से अपने अपने घरो में आते हैं और आशीर्वाद प्रदान करते हैं, अत: श्राद्ध पक्ष में उनके निमित्त पूजा पाठ, पिंड दान, तर्पण आदि करना चाहिये, भाई-बहनों! ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार कुंडली में अगर पितृ दोष हो तो व्यक्ति जीवन में सफल नहीं हो पाता, या फिर उसे सफलता के लिए बहुत संघर्ष करना होता है, अत: ये जरुरी है की पितृ दोष का निवारण करें।

देवता, तीर्थ, ब्राह्मण, मन्त्र, ज्योतिषी, औषधि और गुरु में जिसकी जैसी भावना रहती है, उसे वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है।



पितृ पक्ष विशेष
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एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन
दद्याज्जलाज्जलीन।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणदेव नश्यति।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी जब सूर्य नारायण कन्या राशि में विचरण करते हैं तब पितृलोक पृथ्वी लोक के सबसे अधिक नजदीक आता है। श्राद्ध का अर्थ पूर्वजों के प्रति श्रद्धा भाव से है। जो मनुष्य उनके प्रति उनकी तिथि पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार फलफूल, अन्न, मिष्ठान आदि से ब्राह्मण को भोजन कराते हैं। उस पर प्रसन्न होकर पितृ उसे आशीर्वाद देकर जाते हैं। पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं, प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और द्वितीय पितृ पक्ष में जिस मास और तिथि को पितर की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उसका दाह संस्कार हुआ है। वर्ष में उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध में केवल एक पितर की संतुष्टि के लिए श्राद्ध किया जाता है। इसमें एक पिंड का दान और एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। पितृपक्ष में जिस तिथि को पितर की मृत्यु तिथि आती है, उस दिन पार्वण श्राद्ध किया जाता है। पार्वण श्राद्ध में 9 ब्राह्मणों को भोजन कराने का विधान है, किंतु शास्त्र किसी एक सात्विक एवं संध्यावंदन करने वाले ब्राह्मण को भोजन कराने की भी आज्ञा देते हैं।

इस सृष्टि में हर चीज का अथवा प्राणी का जोड़ा है। जैसे – रात और दिन, अँधेरा और उजाला, सफ़ेद और काला, अमीर और गरीब अथवा नर और नारी इत्यादि बहुत गिनवाये जा सकते हैं। सभी चीजें अपने जोड़े से सार्थक है अथवा एक-दूसरे के पूरक है। दोनों एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। इसी तरह दृश्य और अदृश्य जगत का भी जोड़ा है। दृश्य जगत वो है जो हमें दिखता है और अदृश्य जगत वो है जो हमें नहीं दिखता। ये भी एक-दूसरे पर निर्भर है और एक-दूसरे के पूरक हैं। पितृ-लोक भी अदृश्य-जगत का हिस्सा है और अपनी सक्रियता के लिये दृश्य जगत के श्राद्ध पर निर्भर है।

धर्म ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है।

पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारंभ भी माना जाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न रहते हैं। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है।

श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है।

श्राद्ध से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं। मगर ये बातें श्राद्ध करने से पूर्व जान लेना बहुत जरूरी है क्योंकि कई बार विधिपूर्वक श्राद्ध न करने से पितृ श्राप भी दे देते हैं।

पितरों की संतुष्टि के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले तर्पर्ण, ब्राह्मण भोजन, दान आदि कर्मों को श्राद्ध कहा जाता है। इसे पितृयज्ञ भी कहते हैं। श्राद्ध के द्वारा व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है और पितरों को संतुष्ट करके स्वयं की मुक्ति के मार्ग पर बढ़ता है।

श्राद्ध या पिण्डदान दोनो एक ही शब्द के दो पहलू है पिण्डदान शब्द का अर्थ है अन्न को पिण्डाकार मे बनाकार पितर को श्रद्धा पूर्वक अर्पण करना इसी को पिण्डदान कहते है दझिण भारतीय पिण्डदान को श्राद्ध कहते है।

श्राद्ध के प्रकार
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शास्त्रों में श्राद्ध के निम्नलिखित प्रकार बताये गए हैं।

1👉 नित्य श्राद्ध : वे श्राद्ध जो नित्य-प्रतिदिन किये जाते हैं, उन्हें नित्य श्राद्ध कहते हैं. इसमें विश्वदेव नहीं होते हैं।

2👉 नैमित्तिक या एकोदिष्ट श्राद्ध : वह श्राद्ध जो केवल एक व्यक्ति के उद्देश्य से किया जाता है. यह भी विश्वदेव रहित होता है. इसमें आवाहन तथा अग्रौकरण की क्रिया नहीं होती है. एक पिण्ड, एक अर्ध्य, एक पवित्रक होता है।

3👉 काम्य श्राद्ध : वह श्राद्ध जो किसी कामना की पूर्ती के उद्देश्य से किया जाए, काम्य श्राद्ध कहलाता है।

4👉 वृद्धि (नान्दी) श्राद्ध : मांगलिक कार्यों ( पुत्रजन्म, विवाह आदि कार्य) में जो श्राद्ध किया जाता है, उसे वृद्धि श्राद्ध या नान्दी श्राद्ध कहते हैं।

5👉 पावर्ण श्राद्ध : पावर्ण श्राद्ध वे हैं जो भाद्रपद कृष्ण पक्ष के पितृपक्ष, प्रत्येक मास की अमावस्या आदि पर किये जाते हैं. ये विश्वदेव सहित श्राद्ध हैं।

6👉 सपिण्डन श्राद्ध : वह श्राद्ध जिसमें प्रेत-पिंड का पितृ पिंडों में सम्मलेन किया जाता है, उसे सपिण्डन श्राद्ध कहा जाता है।

7👉 गोष्ठी श्राद्ध : सामूहिक रूप से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे गोष्ठीश्राद्ध कहते हैं।

8👉 शुद्धयर्थ श्राद्ध : शुद्धयर्थ श्राद्ध वे हैं, जो शुद्धि के उद्देश्य से किये जाते हैं।

9👉 कर्मांग श्राद्ध : कर्मांग श्राद्ध वे हैं, जो षोडश संस्कारों में किये जाते हैं।

10👉 दैविक श्राद्ध : देवताओं की संतुष्टि की संतुष्टि के उद्देश्य से जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें दैविक श्राद्ध कहते हैं।

11👉 यात्रार्थ श्राद्ध : यात्रा के उद्देश्य से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे यात्रार्थ कहते हैं।

12👉 पुष्टयर्थ श्राद्ध : शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक पुष्टता के लिये जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें पुष्टयर्थ श्राद्ध कहते हैं।

13👉 श्रौत-स्मार्त श्राद्ध : पिण्डपितृयाग को श्रौत श्राद्ध कहते हैं, जबकि एकोदिष्ट, पावर्ण, यात्रार्थ, कर्मांग आदि श्राद्ध स्मार्त श्राद्ध कहलाते हैं।

कब किया जाता है श्राद्ध?
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श्राद्ध की महत्ता को स्पष्ट करने से पूर्व यह जानना भी आवश्यक है की श्राद्ध कब किया जाता है. इस संबंध में शास्त्रों में श्राद्ध किये जाने के निम्नलिखित अवसर बताये गए हैं ।

1👉 भाद्रपद कृष्ण पक्ष के पितृपक्ष के 16 दिन।

2👉 वर्ष की 12 अमावास्याएं तथा अधिक मास की अमावस्या।

3👉 वर्ष की 12 संक्रांतियां।

4👉 वर्ष में 4 युगादी तिथियाँ।

5👉 वर्ष में 14 मन्वादी तिथियाँ।

6👉 वर्ष में 12 वैध्रति योग।

7👉 वर्ष में 12 व्यतिपात योग।

8👉 पांच अष्टका।

9👉 पांच अन्वष्टका।

10👉 पांच पूर्वेघु।

11👉 तीन नक्षत्र: रोहिणी, आर्द्रा, मघा।

12👉 एक कारण : विष्टि।

13👉 दो तिथियाँ : अष्टमी और सप्तमी।

14👉 ग्रहण : सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण।

15👉 मृत्यु या क्षय तिथि।

किसके निमित्त कौन कर सकता है श्राद्ध
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हिन्दू धर्म के मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का प्रमुख स्थान माना गया है। शास्त्रों में लिखा है कि नरक से मुक्ति पुत्र द्वारा ही मिलती है। इसलिए पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान का अधिकारी माना गया है और नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर मनुष्य करता है। इसलिए यहां जानते हैं कि शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है।

👉 पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए।

👉 पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।

👉 पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।

👉 एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।

👉 पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।

👉 पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।

👉 पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।

👉 पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।

👉 पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर सकता है।

👉 गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी है।

👉 कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का विधान है।

क्यों आवश्यक है श्राद्ध?
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श्राद्धकर्म क्यों आवश्यक है, इस संबंध में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं।

1👉 श्राद्ध पितृ ऋण से मुक्ति का माध्यम है।

2👉 श्राद्ध पितरों की संतुष्टि के लिये आवश्यक है।

3👉 महर्षि सुमन्तु के अनुसार श्राद्ध करने से श्राद्धकर्ता का कल्याण होता है।

4👉 मार्कंडेय पुराण के अनुसार श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितर श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विघ्या, सभी प्रकार के सुख और मरणोपरांत स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं।

5👉 अत्री संहिता के अनुसार श्राद्धकर्ता परमगति को प्राप्त होता है।

6👉 यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितरों को बड़ा ही दुःख होता है।

7👉 ब्रह्मपुराण में उल्लेख है की यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितर श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को शाप देते हैं और उसका रक्त चूसते हैं. शाप के कारण वह वंशहीन हो जाता अर्थात वह पुत्र रहित हो जाता है, उसे जीवनभर कष्ट झेलना पड़ता है, घर में बीमारी बनी रहती है। श्राद्ध-कर्म शास्त्रोक्त विधि से ही करें पितृ कार्य कार्तिक या चैत्र मास मे भी किया जा सकता है।

श्राद्ध में कुश और तिल का महत्व
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दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है। यह भी मान्यता है कि कुश और तिल दोंनों विष्णु के शरीर से निकले हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार, तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश कुश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं। कुश का अग्रभाग देवताओं का, मध्य भाग मनुष्यों का और जड़ पितरों का माना जाता है। तिल पितरों को प्रिय हैं और दुष्टात्माओं को दूर भगाने वाले माने जाते हैं। मान्यता है कि बिना तिल बिखेरे श्राद्ध किया जाये तो दुष्टात्मायें हवि को ग्रहण कर लेती हैं।

महालयश्राद्ध 2020 की तिथियां

1 सितंबर मंगलवार👉 मूकबधिर (गूंगे बहरे पितृ का श्राद्ध प्रातः 9: 40 के बाद पूर्णिमा तिथि का श्राद्ध।

2 सितंबर बुधवार👉 प्रतिपदा तिथि का श्राद्ध।

3 सितंबर गुरुवार👉 द्वितीया तिथि का श्राद्ध ।

5 सितम्बर शनिवार👉 तृतीय तिथि का श्राद्ध।

6 सितम्बर रविवार👉 चतुर्थी तिथि का श्राद्ध।

7 सितम्बर सोमवार👉 पंचमी तिथि का श्राद्ध (भरणी श्राद्ध)।

8 सितम्बर मंगलवार👉 षष्ठी तिथि का श्राद्ध।

9 सितम्बर बुधवार👉 सतमी तिथि का श्राद्ध ।

10 सितम्बर गुरुवार👉 अष्टमी तिथि का श्राद्ध।

11 सितम्बर शुक्रवार👉 नवमी तिथि का श्राद्ध-सौभाग्यवती (मातृ नवमी) श्राद्ध।

12 सितम्बर शनिवार👉 दशमी तिथि का श्राद्ध।

13 सितम्बर रविवार👉 एकादशी तिथि का श्राद्ध।

14 सितम्बर सोमवार👉 द्वादशी तिथि का श्राद्ध।

15 सितम्बर मंगलवार👉 त्रयोदशी तिथि का श्राद्ध।

16 सितम्बर बुधवार👉 चतुर्दशी तिथि का श्राद्ध – अकाल मृत्यु (शस्त्र अथवा दुर्घटना में मरे) पित्रो का श्राद्ध।

17 सितम्बर गुरुवार👉 अमावस्या तिथि का श्राद्ध / सर्वपित्र श्राद्ध।

विशेष👉 पित्रो के निमित्त श्राद्ध तर्पण आदि का समय दिन के मध्यान काल मे माना जाता है इस वर्ष आश्विन कृष्ण द्वितीया तिथि 3 और 4 सितंबर दोनों दिन अपराह्न व्यापिनी है अतः यहां द्वितीया का श्राद्ध 3 सितंबर को किया जाएगा। क्योंकि इस स्थिति में श्राद्ध उसी दिन किया जाता है जिस दिन तिथि अपराह्न को अधिक व्यापत करें इस वर्ष द्वितीया अपराह्न काल के अधिक भाग को 3 सितंबर के दिन ही व्याप्त कर रही थी इसलिए द्वितीया का महालय श्राद्ध 3 सितंबर को किया जाएगा और तृतीया का महालय श्राद्ध 5 सितंबर 2020 को होगा क्योंकि इस दिन तृतीया तिथि संपूर्ण अपराह्न को व्याप्त कर रही है जबकि यह तृतीया 4 सितंबर को आंशिक रूप से ही व्याप्त कर रही है इस प्रकार 4 सितंबर को कोई महालय श्राद्ध नहीं बनता।
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