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🌺 आखिर क्या है सत्संग, कैसे करे, क्यों करे, कब करें, एक संपूर्ण उत्तर!! 🌺👏🏻

हमारे ग्रन्थ पुराणों, संत-महात्माओं और भगवन ने सत्संग की अनंत महिमा गाई है। श्रीमद भागवत पुराण में आया है की सत्संग करो। जब आशक्ति संसार के प्रति होती है तो वह बंधन बन जाती है और जब यही आशक्ति भगवान के प्रति हो जाती है तो मोक्ष के द्वार खुल जाते हैं।

सत्संग का अर्थ :- ‘सत्’ का अर्थ है परम सत्य। इसलिए सत्य का संग करना ही सत्संग कहलाता है। यहाँ पर सत्य का अर्थ केवल भगवान से है। क्योंकि वो परम सत्य है। आप यहाँ पर सत्संग का अर्थ पढ़ रहे हैं। ये सत्य है। थोड़ी देर बाद आप अपने काम करेंगे। ये भी सत्य है। लेकिन परम सत्य नही है। क्योंकि परम सत्य वो है जो अब भी यहाँ है। कल भी था और कल भी रहेगा। इसलिए केवल भगवान ही परम सत्य है। जब आप भगवान के साथ हैं तभी आप सत्संग कर रहे हैं।

इसके लिए आपको केवल किसी कथा पंडाल या सत्संग भवन में जाने की जरुरत नही है। आपके पास समय है तो कथा में जरूर जाइये लेकिन समय नही है तो आप जहाँ पर भी हैं यदि आपको भगवान की याद आ गई तो आप सत्संग में हैं। आप कोई अच्छी पुस्तक पढ़ रहे हैं वो भी सत्संग है। अपने दोस्तों से भगवत चर्चा कर रहे हैं वो भी सत्संग है। सबके कल्याण की आप सोच रहे हैं तो वो भी सत्संग है। यदि आपसे कोई भगवान की कथा पूछना चाहे तो बता दो, ये सत्संग है।

यदि आपको कोई भगवान की कथा, चर्चा सुनाना चाहे तो आप सुन लो ये भी सत्संग है। अगर कोई नही है तो भगवान को ह्रदय से याद कीजिये ये भी सत्संग है। क्योंकि सत्संग से ह्रदय में प्रकाश आ जाता है। और वो प्रकाश भगवान ही हैं। और एक बार ह्रदय में भगवान आ गए तो किसी की भी कमी महसूस नही होगी।

कृष्ण ने उद्धव से जाते हुए कहा था कि उद्धव मुझे अफसोस है कि मुझे जीवन में अच्छे लोग नहीं मिले। जाते-जाते कह गए यदि कोई भूले से अच्छा आदमी आपके पास आए तो बाहों में भर लेना, दिल में उतार लेना। बड़ा मुश्किल है दुनिया में अच्छे आदमी को ढूंढऩा, नहीं मिलेंगे। आपको ऐसा लगता है कि आपने माता-पिता की सेवा कर ली, सत्संग भी कर लिया लेकिन चिंतन करके आपने जो भी कुछ किया है, रात को सोने से पहले स्वयं से एक बार पूछ लीजिएगा कि आज सबकुछ ठीक रहा।

भगवान कहते हैं – जो लोग सहनशील, दयालु, समस्त देहधारियों के अकारण हितू, किसी के प्रति भी शत्रुभाव न रखनेवाले, शान्त, सरलस्वभाव और सत्पुरुषों का सम्मान करनेवाले होते हैं, जो मुझमें अनन्यभाव से सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे लिए सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे-संबंधियों को भी त्याग देते हैं और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओं का श्रवण, कीर्तन करते हैं तथा मुझमें ही चित्त लगाए रहते है- उन भक्तों को संसार के तरह-तरह के ताप कोई कष्ट नहीं पहुंचाते हैं ।

ऐसे-ऐसे सर्वसंगपरित्यागी महापुरुष ही साधू होते हैं, तुम्हें उन्ही के संग की इच्छा करनी चाहिए, क्योंकि वे आसक्ति से उत्पन्न सभी दोषों को हर लेनेवाले हैं । सत्पुरुषों के समागम से मेरे पराक्रमों का यथार्थ ज्ञान करानेवाली तथा हृदय और कानों को प्रिय लगनेवाली कथाएँ होती हैं । उनका सेवन करने से शीघ्र ही मोक्षमार्ग में श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का क्रमशः विकास होगा।

सत्संग मतलब -अच्छे विचार। सत्संग से शांति मिलती है। सत्संग हमे अच्छे बुरे की पहचान बताता है । ‘पुण्य कर्म के प्रभाव से ही इंसान को साधु व संतों का संग व वचन-प्रवचन सुनने को मिलते हैं। सत्संग संत बनाता है। सत्संग राम बनने की प्रेरणा देता है। जबकि कुसंग हमें हराम बनाता है। सत्संग से हमें अपने साधना-पथ पर दृढता से आगे बढने की प्रेरणा मिलती है।

सत्संग की महिमा अपरम्पार है..!!

बिनु सत्संग विवेक न होई ।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।

बिना सत्संग के विवेक नही होता। विवेक का अर्थ है अच्छे बुरे की पहचान। और राम कृपा के बिना वो सत्संग नसीब नही होता है।

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥

भावार्थ :- हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है॥

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख साधु सगं में, सो बैकुंठ न होय ॥

जिस समय कबीर जी का अंत समय आया तो कबीरदास जी रोने लगे। भगवान बोले कबीरा, तुम सारा जीवन नही रोये लेकिन आज जाने का समय आया है तो रो रहे हो? क्या जाने का मन नही है? या मरने से डर लगता है? कबीरदास जी कहते है, नही!नहीं! प्रभु, ऐसी बात नहीं है, जाना तो पड़ेगा क्योंकि आपका आदेश है लेकिन जो सत्संग रूपी सुख इस धरा पर है वो आपके धाम में नही मिलेगा।

संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय । कह
कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ॥

कबीरदास जी कहते हैं संगति से सुख होता है और कुसंग से दुःख होता है। इसलिए हमेशा वहां जाना चाहिए जहाँ पर साधु संत हो। क्योंकि वहां पर आनंद ही आनंद होता है।

तबहिं होइ सब संसय भंगा।
जब बहु काल करिअ सतसंगा।।

सब सन्देहों का तो तभी नाश हो जब दीर्घ कालतक सत्संग किया जाय।।

बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग।।

सत्संग के बिना हरि की कथा सुननेको नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गये बिना श्रीरामचन्द्रजी के चरणोंमें दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता।।

बड़े भाग पाईये सतसंगा.बिनहि प्रयास होही भव–भंगा..!
एक घडी आधी घडी आधी ते पुनि आध..!
तुलसी संगति साधू की कटे कोटि अपराध..!

तुलसीदास जी कहते हैं यदि आपको संतो के सत्संग की केवल एक घडी मिलती है तो बहुत अच्छी बात है। यदि एक घडी भी न मिल पाये तो कोई बात नही आधी ही मिल जाये तो भी अच्छी बात है। लेकिन आधी भी न मिल पाये उसकी भी आधी मिल जाये तो भी तुम्हारे कोटि जनम के पाप नष्ट हो जाते हैं।

सुत दारा अरु लक्ष्मी पापी घर भी होय।
संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय ||

कहा है कि पुत्र, सुंदर पत्नी और धन सम्पति यह तो पापी मनुष्य के पास भी हो सकती है | परन्तु संत का समागम अर्थात संत का संग और प्रभु की कथा, हरि चर्चा यह दोनों ही इस भौतिक जगत में दुर्लभ है |

कबीरदास जी कहते हैं :-

आग लगी आकाश में, झर झर गिरे अंगार !
संत न होते जगत में ,तो जल मरता संसार !!
कबीर कलह रु कल्पना, सत्संगति से जाय।
दुख वासो भागा फिरै, सुख में रहै समाय।।

मन की सभी प्रकार की कलह और कल्पनायें सत्संगति से परे होती हैं। ऐसे में दुख भी उससे भागा फिरता है और आदमी का मन सुखी रहता है।’’

मथुरा काशी द्वारिका हरिद्धार जगनाथ।
साधु संगति हरिभजन बिन, कछु न आवै हाथ।।

‘‘चाहे मथुरा हो या काशी, द्वारिका, हरिद्वार और जगन्नाथ हो उसे घूमने से कुछ हाथ नहीं आता। इससे अच्छा तो साधु संगति और हरिभजन में लिप्त होने से मन वैसे ही प्रसन्न होता है।’’

मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ॥
सो सब जानब सत्संग प्रभाऊ।लोकहुँ वेद न आन उपाऊ।

राम चरित मानस कहती है अच्छी बुद्धि , यश , सद्गति और सांसारिक सुख, जिस किसी ने जहाँ कहीं भी पाया है उसे सत्संग का ही प्रभाव जानना चाहिए । मानस के हंस स्वामी तुलसी दास ने इतनी दृढ़ता से सभी सांसारिक और पारमार्थिक सुखों का मूल सत्संग को बताया है कि तर्क करने वाले कि बुद्धि भी एक क्षण को स्तम्भित हो जाए ।

सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥

सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥

सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वम।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्वं निश्चलतत्वे जीवन्मुक्ति:।।

अर्थ :- सत्संग से निस्संगता पैदा होती है और निस्संगता से अमोह! अमोह से चित्त निश्चल होता है और निश्चल चित्त से जीवन मुक्ति उपलब्ध होती है।

सत्संगत्वे निस्संगत्वं। निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
जब व्यक्ति नि:संग हो तभी वह अमोह (मोह रहित) हो जाता है। इसका मतलब है उसका मन परेशान नहीं होता।
बार बार बर मांगऊँ हरषि देहु श्रीरंग ।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग ।।

*मैं बार बार आपसे मांगता हूँ। वस्तु का मूल्य ही इतना है कि बार बार मांगना ही उचित है। मैं आपके चरण कमलों में शरणागत हुँ और आप मुझे भक्ति और सत्संग दीजिये।

*”सत्संग बहुत दुर्लभ है और जिसे सत्संग मिलता है उस पर विशेष कृपा होती है ईश्वर की!

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