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🌹🕉श्री परमात्मने नमः🌹

   वैराग्य क्या है?
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 💐वैराग्य क्या है? संयम क्या है? वैराग्य किसे कहते हैं? संयम किसे कहते हैं? वैरागी या संयमी का आचार-विचार-व्यवहार कैसा होता है? किस प्रकार वह पौद्गलिक सुखों को दुःखरूप मानता है और पौद्गलिक दुःखों को सुखरूप मानकर उन्हें आनन्द पूर्वक सहन कर लेता है? वैरागी कितना फक्कड होता है, कितना मस्तमौला कि उसे लोकप्रवाह की कोई परवाह ही नहीं होती, वह तो अपनी ही धुन में अपनी ही आत्मा में रमण करने वाला होता है। 
    वैराग्य पर कई मनीषियों ने विचार किया है, मात्र विचार ही नहीं, उसे बडी गहराई और उदाहरणीय ढंग से अपने चरित्र में प्रतिबिम्बित किया है, जिया है, जी रहे हैं; इसलिए वैराग्य को किसी अकल्पनीय, अव्यावहारिक, स्वप्निल अथवा अनुपयोगी वृत्ति के रूप में नहीं देखा जा सकता। कुछ लोग जो वैराग्य के आधारभूत अर्थ को जानने का प्रयत्न नहीं करते, इसे जीवन और जगत को नकारने वाली अथवा पलायनवादी प्रवृत्ति के रूप में समझते-समझाते हैं, वस्तुतः वैराग्य जीवन की निषेधात्मक वृत्ति नहीं है। इसे उलट-पलट कर सब ओर से देखने पर इसकी प्रभावशाली रचनात्मकता स्पष्ट होने लगती है। वैराग्य को जब हम अनुराग या अतिरिक्त पाने की विरोधी वृत्ति के रूप में देखते हैं तो बात बिगडने लगती है। विरोध, चाहे वह जैसा हो बहुधा काम बिगाड देता है। भावना जगत में हमें विरोध की जगह संवेदना और सापेक्षता को देनी चाहिए तथा इसी दृष्टि से देखना चाहिए कि वैराग्य का मूल संदर्भ क्या है? इसका सीधा अर्थ है "निष्काम पार्थक्य"। इस शब्द के माध्यम से हमें वैराग्य के अलग-अलग रंग देखने चाहिए।

  वैराग्य एक बहुप्रयत्न शब्द है। वैराग्य-महल की बुनियादी ईंट निष्काम चित्त है। कामना-शून्य होना एक कठिन काम है। हर आदमी कामनाओं की एक हरीभरी फसल होता है। कोई काम न हो तो भी कामना तो करनी ही है। शेखचिल्ली के पास कोई साधन नहीं थे, किन्तु उसकी नगण्य कामना के एक बिन्दु में से कई सिन्धु जन्म लेने लगे। निष्कामता संयम की अनुपस्थिति में संभव नहीं है। संयमी हुए बिना निष्काम-चित्त होना प्रायः स्वप्न ही है। हम चाहें कि नींव के बिना कोई महल उठाए, तो वह स्वप्न ही होगा, महल नहीं, ठीक ऐसे ही संयम के बिना वैराग्य संभव नहीं है।

  संयम का सीधा संबंध मन से है। मन पर इतना शासन या नियंत्रण हो कि मन चाहे समय पर उससे मन चाहा काम लिया जा सके। मन का साम्राज्य अनंत है, उसे पराजित करना और उस पर सत्ता कायम करना किसी राजनीतिक प्रलाप की तरह आसान नहीं है। वैराग्य प्राप्त करने के लिए पहला काम होगा मन पर कडा अंकुश। वह यदि दृढता से आदमी के आत्मानुशासन की पकड में आ गया तो फिर निष्काम और विरक्त होने में वक्त नहीं लगता।
     भारतीय दर्शन में प्रवृत्ति और निवृत्ति शब्द बहुत चर्चित हैं। हम डूब जाएं और समझ बैठें कि हम उससे भिन्न नहीं हैं, तो यह प्रवृत्ति है। वस्तुतः प्रवृत्त होना शायद उतना घातक नहीं है, जितना प्रवृत्त होने के बाद अपनी मूल सत्ता और स्वरूप का भान न रखना और चित्त के ऐसे स्वामित्व से वंचित हो जाना कि “जब चाहा तब संलग्न और जब चाहा तब विलग्न”। इसे प्रवृत्ति सूचक निवृत्ति की संज्ञा दी जा सकती है। असल में प्रवृत्ति और निवृत्ति के बिना जीवन की व्यवस्था हो ही नहीं सकती। प्रतिक्षण हम किसी न किसी रूप में प्रवृत्त या निवृत्त होते ही हैं; किन्तु जब हम इतने स्वाधिकार सम्पन्न होते हैं कि जब चाहा तब प्रवृत्त और जब चाहा तब निवृत्त, तब हमारे उस कर्तव्य में एक ओज और आभा दिखलाई देती है ।
   बहुत साधारण-सा सवाल है कि हम खाने के लिए जी रहे हैं या जीने के लिए खा रहे हैं? प्रवृत्ति और निवृत्ति, संयम और वैराग्य की समझ इस सवाल की गहराई में है, यदि इसका जवाब प्रतिपल हमारे मन, विचार और व्यवहार में रहे। एक और बात कि मैं शरीर से संचालित नहीं हूं, शरीर मुझसे संचालित है। मैं अपनी अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं को स्वतः देखता हूँ। शरीर मेरा दृष्टा और नियामक नहीं है। इसीलिए जब चाहता हूं तब और जितनी देर चाहता हूं, उतनी देर सो लेता हूं। मेरे हिसाब में दिन काम करने के लिए और रात सोने के लिए नहीं है। यह विभाजन साधारणतः ठीक हो सकता है, किन्तु इसे किसी भी रूप मेंअंतिम नहीं मानना चाहिए। 
     वैराग्य जीवन और जगत को झुठलाने का नाम नहीं है, वह इन्हें माँझने और इनके यथार्थ रूप के अनावरण की एक प्रक्रिया है। वैराग्य सम्पन्न व्यक्ति प्रवृत्ति में हर्ष और निवृत्ति में शोक नहीं देखते। उनका प्रसन्न और खिन्न होना किसी अन्य के हाथ में नहीं होता। उन्हें परिस्थितियां सम्पन्नता-विपन्नता और संयोग-वियोग में प्रसन्न या अप्रसन्न करने में समर्थ नहीं होती। सच्चा वैरागी झुंझलाना तक नहीं जानता; वह चित्तवृत्तियों के नियमन की कला भलीभाँति जानने लगता है।💐

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