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यज्ञ क्या है?बेदों में यज्ञ परम्परा को इतनाः अधिक महत्त्व क्यों दिया गया है?

इसके लिए तीन विभिन्न स्तरों पर विचार किया जा सकता है।एक- यज्ञ की क्रिया, दूसरा-यज्ञ में निहित भावना और तीसरा -उसका तात्त्विक उद्देश्य।

सामान्य ब्यक्ति के लिए इसकी उपादेयता इतनी ही है कि आहुति पाकर विभिन्न देवता प्रसन्न हो जाते हैं और यजमान की कामना पूर्ण करते हैं,और बिधिपूर्वक इसकी संपन्नता से उसके संकल्प के फलीभूत होने का विश्वास प्रगाढ़ हो जाता है।कार्य की पूर्ति को देवताओं से जोड़ना भी सोद्देश्य है।ब्यक्ति की दृश्यमान जगत में आस्था उसे संकुचित बना देती है।

ब्यक्ति बिराट् ब्रह्मांड का एक अंग है और यह विश्व उतना ही नहीं है,जितना उसे दृष्टिगोचर होता है।ब्यक्ति और पदार्थों की श्रृष्टि किसने की?पौराणिक मान्यता यह है कि इस विराट् विश्व के रचयिता का नाम ब्रह्मा है।जड़ और चेतन पृथक दिखाई देने पर भी,वे निर्माता के द्वारा एक सूत्र में पिरोये गये हैं।जैसे शरीर के किसी एक अंग की स्वस्थता,समग्र शरीर से संबंधित है,ठीक इसी तरह ब्यक्ति भी विराट से जुड़ा हुआ है।

गीता में भगवान कृष्ण द्वारा यज्ञ की उपादेयता के लिए जो तर्क दिए गये हैं,इसमें इसी तथ्य को इंगित किया गया है–
“सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्या पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वो$स्तित्वषटकामधुक्।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।”(श्री मद.भाग.गीता-3/10,11)

अर्थात् प्रजापति ब्रह्मा ने आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर उनसे कहा कि यह यज्ञ तुम्हें इच्छित भोग प्रदान करने वाला है।तुम लोग यज्ञ के द्वारा देवताओं की आराधना करो और वे तुम्हारी कामनाओं को पूर्ण करेंगे।इस तरह एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त करो। गीता में निष्कामता का प्रतिपादन बार बार किया गया है,पर भगवान कृष्ण भी भलीभाँति यह जानते हैं कि ऐसा सबके लिए संभव नहीं है।इसलिए सकामता को यज्ञ से जोड़कर उसे परिष्कृत रूप देने की चेष्टा की गयी।

जब ब्यक्ति और समाज की सकामता केवल “मैं” तक सीमित होती है,तब वह लोक की चिन्ता से पूरी तरह उन्मुक्त हो जाता है।पर जब उसे यह ज्ञात होता है कि उसकी कामना की पूर्ति समाज और समष्टि ब्रह्मांड से किसी-न-किसी रूप से जुड़ी हुयी है,तब वह सकाम होते हुए भी धीरे धीरे स्वार्थ से ऊपर उठ जाता है।स्वार्थ की निन्दा तो उसके ब्यक्तिपरक होने से ही है।जब हमारा स्वार्थ समष्टि के स्वार्थ से जुड़ जाता है तब टकराहट और वैमनस्य के लिए स्थान ही कहाँ रह जाता है?

बहिरंग दृष्टि से देखने पर लगता है कि यज्ञ द्वारा प्रकृति के जड़ पदार्थ की पूजा की जा रही है।पृथ्वी, जल आदि को ब्यक्ति,जड़ मानने का ही अभ्यस्त है–
“गगन समीर अनल जल धरनी।इन्ह कह नाथ सहज जड़ करनी।”

तो क्या चेतन ब्यक्ति के द्वारा जड़ पदार्थों की पूजा बुद्धिमानी का काम है? यहीं पर यज्ञ का भावनात्मक और तात्त्विक पक्ष प्रगट होता है।

वस्तुतःसमष्टि के जड़ और चेतन में विभाजन तो समझाने हेतु पहली कक्षा है।पर ज्ञान की जिज्ञासा के क्रमिक विकास के अन्तर्गत,जब खोज करते करते यह पता चलता है कि अगणित ब्रह्मांडों के मूल में एक ही अब्यक्त सच्चिदानंद तत्त्व है और उसने ही स्वयं को ब्रह्मांड के रूप में अभिब्यक्ति दी है,तब सृष्टि का ऐसा विभाजन तात्त्विक कैसे हो सकता है?अतः चेतन प्रतीत होने वाला तो चैतन्य है ही,जड़ की प्रतीति भी तत्त्व को न देख पाने के कारण ही है।

विनय पत्रिका में गोस्वामीजी इसी तथ्य की ओर इंगित करते हुए कहते हैं कि,यह सृष्टि तो चैतन्य का विलास है। इसे धीरे धीरे ही समझा जा सकता है–

“रघुपति-भगति-बारि-छालित-चित,बिनु प्रयास ही सूझै।
तुलसिदास कह चिद-बिलास जग बूझत बूझत बूझै।।”(वि.प.-124)

अर्थात इस मन के विकार कब छूटेंगे,जब श्रीरामजी की भक्ति रूपी जल से धुलकर चित्त निर्मल हो जायेगा,तब अनायास ही परमात्मा दिखलाई देंगे।किन्तु तुलसीदासजी कहते हैं,इस चैतन्य के बिलास रूप जगत का सत्य तत्त्व परमात्मा समझते समझते ही समझ में आवेगा।

प्रारंभ में जड़ चेतन के विभाजन समझाने के बाद कहा जाता है कि जड़ प्रतीत होने वाले पदार्थों के भी भिन्न भिन्न देवता हैं।

अग्नि देवता,वरुण देवता,पृथ्वी देवता के रूप में जड़ पदार्थों में भी चेतना की भावना करके उनकी पूजा की जाती है।इस तरह जड़ता का विवेक मिटाकर सर्वत्र चैतन्य का बोध कराया जाता है।चेतना के विभिन्न स्वरूप के अंतराल में एक ही ईश्वर तत्त्व का दर्शन आध्यात्मिक चिन्तन की अन्तिम कक्षा है।एक ईश्वर अनेक रूपों में प्रतिभासित होता है,यह यज्ञ प्रक्रिया का चरम उद्देश्य है।इस तरह यज्ञ,ब्यवहार से लेकर परमार्थ तक पहुँचाने की अनोखी प्रक्रिया है।

महाराज दशरथ के पूर्वजन्म के इतिहास पर दृष्टि डालने पर यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि जब वे मनु के रूप में भगवान से पुत्र के रूप में अवतरित होने का वरदान प्राप्त कर चुके थे,तब फिर इस जन्म मे? कामना-पूर्ति के लिए यज्ञ की क्या आवश्यकता थी?

अच्छा तो यह था कि उनकी पुत्रेच्छा के जबाब
में त्रिकालज्ञ, गुरु वशिष्ठ,उन्हें बता देते कि आप निश्चिंत रहें।आपको मनु के रूप में ईश्वर ने आपका पुत्र बनने का वरदान, आपको दिया हुआ है।पर गहराई से चिंतन करने पर इसमें प्रभु की लीला-कौतुक का रहस्य सामने आता है।मनु ने जहाँ प्रभु को पुत्र रूप में अवतरित होने की प्रार्थना की थी,वहीं उनका आग्रह यह भी था कि अवतार काल में उन्हें मात्र पुत्रसुख की ही अनुभूति कराएँ,ईश्वरत्व की नहीं–
“बन्दि चरन मनु कहेउ बहोरी।अवर एक बिनती प्रभु मोरी।।
सुत बिषयिक तव पद रति होई।मोहिं बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ।।”

मनु के अंतःकरण में समग्र वात्सल्य का आनंद लेने की भावना थी और वे यह जानते थे कि ईश्वरत्व का ज्ञान, रस में ब्यवधान उपस्थित करेगा।प्रभु ने उनकी इस आकांछा को पूर्ण करने की स्वीकृति दी थी।अब यदि गुरु वशिष्ठ, महाराज दशरथ के समक्ष यह रहस्य खोल देते तो वे उस वात्सल्य-सुख से वंचित रह जाते,जिसे पाने के लिए वे मनु के रूप मेँ ब्यग्र थे।

कर्म-सिद्धान्त के अनुकूल,जो कुछ ब्यक्ति के प्रारब्ध में है,वह उसे प्राप्त होता ही है।कई प्रसंगों में यह भी स्पष्ट किया गया,कि देवता या मुनियों के आशीर्वाद से जो कुछ मिलता है,वह भी ब्यक्ति के प्रारब्ध का ही परिणाम है।फिर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि पूजा,पाठ,यज्ञ या देवताओं के आराधना की सार्थकता क्या है?यदि किसी ब्यक्ति को पुत्र प्राप्त होना ही है,तो इसके लिए वह किसी महात्मा का आश्रय क्यों ले?

इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि जब ब्यक्ति की उपलब्धि के पीछे अपना ही प्रारब्ध और पुरुषार्थ दिखाई देता है,तब उसमें अपने कर्तब्य के प्रति अभिमान उदय होना स्वाभाविक ही है।

किन्तु इसी को वह किसी महापुरुष की कृपा से जोड़ देता है,तब कृपा की अनुभूति में उसमें जिस विनम्रता का उदय होता है,वह उसके कर्तृत्वाभिमान को नष्ट कर देती है।शिष्टाचार के रूप में भी यही उपयुक्त है।सामान्यतया हम सब इसी स्तुत्य चिंतन के ही आधार पर अपनी उपलब्धियों को अपने बड़ों के आशीर्वाद से जोड़कर हर्षित होते रहते हैं,और बड़ों के स्नेह-भाजक बन जाते हैं।

साधना का सर्वस्व यही है कि साधक, तात्त्विक पक्ष पर बल देने के स्थान पर,उस भावना पर बल दे,जो उसके अंतःकरण में सद्भाव की सृष्टि करे।

महाराज दशरथ ने भी पुत्र प्राप्ति के लिए किसी भौतिक प्रयत्न के स्थान पर,गुरु की कृपा का आश्रय लिया था।वे जीवन भर,इस कृतज्ञता की भावना से अभिभूत रहे कि मुझे गुरु कृपा से ही पुत्र प्राप्त हुए हैं,यह मेरे किसी पुरुषार्थ का परिणाम नहीं है।इसलिए ऋषि विश्वामित्र की याचना को उन्होंने अस्वीकार कर दिया था,किन्तु गुरु वशिष्ठ के आदेश पर वह राम,लक्ष्मण को देने को प्रस्तुत हो जाते हैं —
“तब वशिष्ठ बहु बिधि समुझावा।नृप संदेह नास कहँ पावा।
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ।तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ।।”

इधर गुरु वशिष्ठ भी इस अभिमान को पालने के लिए प्रस्तुत नहीं हैं कि,महाराज दशरथ को जो पुत्र प्राप्त हुए हैं,वह उनकी कृपा या आशीर्वाद का परिणाम है।इसलिए उनके पुत्रेष्टि यज्ञ का आचार्यत्व तक उन्होंने स्वीकार नहीं किया, तथा श्रृंगी ऋषि को बुलवाया भी–
“सृंगी रिषिहि बशिष्ठ बोलावा।पुत्रकाम सुभ जग्य करावा।”

पुरुषार्थ जहाँ ब्यक्ति को निष्क्रिय बनने से रोकता है,वहीं पुरुषार्थजन्य अभिमान को मिटाने के लिए कृपा की अनुभूति सबसे बड़ी औषधि है।मित्रों! यही “परस्परः भावयन्तः”के रूप में गीता में प्रजापति ब्रह्मा द्वारा “यज्ञ तत्त्व ” की सहज ब्याख्या है,यही गीता-दर्शन है।यही संतुलन इस प्रसंग में दृष्टिगत है।

यहाँ गुरु वशिष्ठ की निष्पक्षता भी सराहनीय है।वे स्वयं ब्रह्मा के पुत्र के रूप में बेदों के मंत्र-द्रष्टा थे।विभिन्न यज्ञों में संपन्न होने वाली प्रक्रिया के वे पूर्ण पंडित थे।पर इस यज्ञ को अपने आचार्यत्व में न संपन्न कराके,श्रृंगी ऋषि को सौंप दिया।

साधक अपने गुरु पर अविचल श्रद्धा रक्खे,यह तो उपयुक्त ही है,किन्तु वहीं पर गुरु भी अपने गुरुत्व के अभिमान से स्वयं को मुक्त करले,यह भी आवश्यक है।यहाँ गुरु और शिष्य में यही सामंजस्य विद्यमान है।

  

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