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• कौन है भगवान् श्रीकृष्ण ?
…जिसमें प्रभु के गुणों और स्वरूपों की व्याख्या….

  1. सुन्दर स्वरूप
    भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर के विभिन्न अंगों की तुलना विविध भौतिक वस्तुओं से नहीं की जा सकती । सामन्य लोंगों को जिन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि भगवान् का स्वरूप कितना उन्नत होता है , भौतिक तुलना के द्वारा समझने का अवसर प्रदान करता है । कहा जाता है कि भगवान् कृष्ण का मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है , उनकी जांघे हांथी की सूंड की तरह बलिष्ठ है, उनकी दोनों भुजायें मानो खम्भे हों ,उनकी हथेलियां मानों खुले कमल के फूल हों , उनका वक्षस्थल कपाट जैसा है, उनके नितम्ब, गुफा की तरह सटे हुए हैं , तथा उनका कटि प्रदेश खुली छत की भांति है ।
  2. शुभ लक्षणों से युक्त……
    शरीर के विभिन्न अंगों के कुछ ऐसे लक्षण हैं जिन्हें अत्यंत शुभ माना जाता है और वे सब भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर में पूर्णतया विद्यमान रहते हैं । इस प्रसंग में नन्द महाराज के एक मित्र ने भगवान् कृष्ण के शुभ शारीरिक लक्षणों के विषय में कहा हैं ” हे गोपराज ! मुझे आपके पुत्र के शरीर में बत्तीसों शुभ लक्षण दिखते हैं । मुझे आश्चर्य होता है कि इस बालक ने ग्वालों के परिवार में क्यों जन्म लिया है ? ” सामान्यतया जब भगवान श्रीकृष्ण अवतार लेते हैं तो छत्रियों के कुल में अवतार लेते हैं जैसा कि भगवान् रामचन्द्र ने किया कभी-कभी वे ब्रह्मणों के कुल में जन्मते हैं । किंतु कृष्ण ने महाराज नन्द का पुत्र बनना स्वीकार किया , यद्यपि नन्द वैश्य जाती के थे । वैश्य जाती का कर्म व्यापार , कृषि तथा गोरक्षा है । अतएव नन्द के मित्र ने , जो सम्भवतया ब्राह्मण कुल का था , आश्चर्य व्यक्त किया कि ऐसा उन्नत बालक वैश्य कुल में किस तरह जन्मा ? जो भी हो , उसने कृष्ण के शरीर के शुभ चिन्हों का संकेत उसके पोषक पिता से कर दिया ।
    उसने कहा , ” इस बालक के सात स्थानों पर – उसकी आंखों हथेलियों ,तलवों ,तालू , होंठ, जीभ तथा नाखूनों पर लालिमा है । इन सात स्थानों की लालिमा शुभ मानी जाती है । उनके तीन अंग अत्यंत विस्तृत हैं – कमर ,मस्तक तथा वक्ष स्थल । इसी तरह शरीर के तीन अंग अत्यंत गहरे हैं – उनकी वाणी ,उनकी बुद्धि तथा उनकी नाभि । उनके पांच अंग उन्नत हैं – उनकी नाक , उनकी बाहें ,उनके कान ,उनके मस्तक तथा जांघे । उनके पांच अंगों में सुकोमलता है – उनकी त्वचा ,उनके शिर के बाल अन्य अंगों के बाल , उनके दांत तथा उनके अंगुलियों के पोर । इन समस्त स्वरुपों के समुच्चय महापुरुषों के ही शरीर में देखा जाता है । ” हथेली की भग्य रेखाएं भी शुभ मानी जाती हैं । इस प्रसंग में एक गोप वृद्धा ने महाराज नन्द को बतलाया कि ” आपके पुत्र की हथेली में अनेक अद्भुत रेखाएं हैं । उसके हथेली में कमल के फूल तथा चक्र के चिन्ह हैं और उसके पैरों के तलवों में ध्वजा ,वज्र ,मछली,अंकुश तथा कमल के चिन्ह हैं । देखिये न ! ये कितने शुभ हैं । “
  3. रुचिर…..
    नेत्रों को बरबस आकृष्ट करने वाले सुन्दर अंग रुचिर कहलाते हैं । कृष्ण के शारीरिक अंगों में यह आकर्षक रुचिर स्वरुप पाया जाता हैं । श्रीमद्भागवतम् में ( 3.2.13.) इस सम्बध में एक कथन मिलता है , ” जहां राजा युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ कर रहे थे उस स्थल में भगवान् मनोहर वेश धारण किये प्रकट हुए । इस यज्ञ स्थल में विश्वभर के विभिन्न भागों से सभी महत्वपूर्ण पुरूषों को आमंत्रित किया गया था । कृष्ण को देख कर इन सबों को लगा मानो स्रष्टा ने कृष्ण के इस शरीर की सृष्टि करने में अपना सारा कौशल लगा दिया हो ।”
    कहा जाता है कि कृष्ण के दिव्य शरीर के आठ अंग कमल पुष्प से समानता रखते हैं – उनका मुख , उनके दोनों नेत्र , उनके दोनों हांथ , उनकी नाभि तथा उअंके दोनों पांव । गोपियां तथा वृन्दावन वासी सर्वत्र इन कमल पुष्पों की कांती देखते और ऐसे दृश्य से दृष्टि हटने को उनका जी नहीं चाहता था ।
  4. तेजोमय…..
    ब्रह्माण्ड में व्याप्त तेज को भगवान् की रश्मियां माना जाता है । कृष्ण धाम से सदैव ब्रह्मज्योति विकिर्ण होती रहती है और यह तेज उनके शरीर से निकलता है । भगवान् के वक्षस्थल पर सुशोभित मणियों की कांती सूर्य की कांती को भी मात कर देने वाली है ; फिर भी भगवान् श्रीकृष्ण की शारीरिक कांति की तुलना में ये मणियां आकाश के एक नक्षत्र जैसी चमकीली लगती हैं । अतएव क़ृष्ण का दिव्य तेज इतना अधिक है कि वह किसी को भी परास्त कर सकता है । जब कृष्ण अपने शत्रु राजा कंस के य़ज्ञ स्थल में गये तो वहां पर उपस्थित मल्लों ने कृष्ण के शरीर की सुकुमारता की प्रशंसा तो की , किंतु वे इंके साथ मलयुद्ध करने के विचार से भयभीत एवं उद्विग्न हो उठे ।
    5.बलवान्….
    अद्वितीय शारीरिक शक्तिवाला व्यक्ति बलियान् कहलाता है । जब कृष्ण ने अरिष्टासुर का वध कर दिया तो कुछ गोपियां कहने लगीं , ” सखियों ! देखो न, कृष्ण ने किस तरह अरिष्टासुर को मार डाला ! यद्यपि यह असुर पर्वत से भी कठोर था , किंतु कृष्ण ने रूई की तरह उठाकर बिना किसी कठिनाई के दूर फेंक दिया ।” एक अन्य पद्य में कहा गया है , ” हे कृष्ण भक्तों कन्दुक के समान गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले कृष्ण का बायां हांथ सारे संकटों से तुम्हारी रक्षा करे ।”
  5. नित्य युवा……
    श्रीकृष्ण विभिन्न अवस्थाओं में -अपनी शैशवास्था,कुमारावस्था तथा युवावस्था में सुन्दर हैं । इन तीनों अवस्थाओं उनकी युवावस्था समस्त आनन्दों का आगार है और यह वह अवस्था है जब अधिकाधिक प्रकार की भक्ति स्वीकार की जाती । इस आयु में कृष्ण समस्त दिव्य गुणों से ओत -प्रोत रहते हैं और अपनी दिव्य लीलाओं में व्यस्त रहते हैं । अतएव भक्तों ने उनकी युवाव्स्था के प्रारम्भ को भाव -प्रेम में सर्वाधिक आकर्षक स्वरूप स्वीकार किया है ।
    इस आयु में कृष्ण का वर्णन इस प्रकार हुआ है ,” कृष्ण की युवाव्स्था का बल उनकी सुन्दर मुस्कान से मिलकर पूर्ण चन्द्र के भी सौन्दर्य को परास्त करने वाला था । वे अच्छी तरह से वस्त्राभूषित थे और सुन्दरता में कामदेव से भी बढकर थे । वे गोपियों के मनों को सदैव आकृष्ट करते थे जिससे उन्हें सदैव आनन्द की अनुभूति होती थी । “
  6. अद्भुत भाषाविद्……..
    श्रील रुप गोस्वामी कहते हैं कि जो पुरुष विभिन्न देशों की भाषाएं जानता है, विषेशतया देवभाषा संस्कृत तथा विश्व की अन्य भाषाएं जिनमें पशु भाषाएं शामिल हैं वह अद्भुत भाषाविद् कहलाता है । इस कथन से प्रतित होता है कि कृष्ण पशुओं की भषाएं भी बोल तथा समझ सकते थे । कृष्ण की लीलाओं के समय उपस्थित वृन्दावन की एक वृद्धा स्त्री ने आश्चर्य व्यक्त किया था ,” ब्रजभूमि की तरुणियों का हृदय चुराने वाला वह कृष्ण इतना अद्भुत है कि गोपियों के साथ ब्रजभूमि की भषा बोलता है ,देवताओं से संस्कृत बोलता है ,और पशुओं की भाषा में गायों से और भैंसों से भी बात कर सकता है ! इसी प्रकार कश्मीर प्रांत की भाषा , सुगों तथा अन्य पक्षियों की भाषा एवं अधिकांश लोकभाषाओं में कृष्ण कितने दक्ष हैं ! ” उसने गोपियों से पूछा कि विभिन्न प्रकार की भाषाएं बोलने में वह इतना दक्ष कैसे हुआ ?
  7. सत्यवादी……..
    जिस व्यक्ति का वचन कभी भंग नही होता वह सत्यवादी कहलाता है । एक बार कृष्ण ने पाण्डवों की माता कुंती को यह वचन दिया था कि वे उनके पांचों पुत्रों को कुरुक्षेत्र -युद्ध स्थल से वापस लायेंगे । युद्ध समाप्त होने पर जब पांचों पाण्डव घर आये तो कुंती ने कृष्ण की प्रशंसा की , क्योंकि उन्होंने अपने वचन को पूरा किया था । वे बोलीं ” भले ही किसी दिन सूर्य शीतल पड जाय और चन्द्रमा किसी दिन उष्ण बन जाय , किंतु तो भी आपका वचन असत्य नहीं होगा । ” इसी प्रकार जब भीम तथा अर्जुन के साथ कृष्ण जरासंध को ललकारने गये तो उन्होंने जरासंध से स्पष्ट कह दिया था कि दोनों पाण्डवों के साथ उपस्थित वे साक्षात् कृष्ण हैं । कथा इस प्रकार है कि कृष्ण तथा पाण्डव ( भीम तथा अर्जुन ) दोनों क्षत्रिय थे । जरासंध भी क्षत्रिय था और वह ब्राह्मणों को खूब दान देता था । इसलिये जरासंध से युद्ध करने की योजना बनाकर कृष्ण ब्राह्मण का वेश धारण कर लिया और भीम तथा अर्जुन के साथ चल दिये । चूंकि जरासंध ब्राह्मणों को दान देता था , अतएव उसने कृष्ण से कहा कि ” तुम क्या चाहते हो ? ” और तब उन्होंने उससे युद्ध की इच्छा व्यक्त की । ब्राह्मण वेशधारी कृष्ण ने तब अपने को वही कृष्ण घोषित किया जो राजा का नित्य शत्रु था ।
  8. मधुर भाषी………
    जो अपने शत्रु को भी शांत करने के लिए मीठे वचन बोलता है वह मधुर भाषी कहलाता है । कृष्ण ऐसे मधुर भाषी थे कि अपने शत्रु कालिय को यमुना नदी में परास्त करने के बाद उससे बोले , ” हे नागराज! यद्यपि मैनें तुम्हें इतनी पीड़ा पहुंचाई है , किंतु मुझसे रुष्ट मत होवो । यह मेरा धर्म है कि देवताओं के भी पूज्य इन गायों की रक्षा करुं इनको तुम्हारे भय से बचाने के लिए ही मैंने तुम्हें इस स्थान से बाहर निकाला है । “
    कालिय यमुना के जल के भीतर रहता था , अतएव नदी का पिछला भाग विषैला हो चुका था । इसलिए जिन गायों ने जल पिया था वे मर गयीं थीं । यद्यपि कृष्ण चार पांच वर्ष के थे , किंतु उन्होंने पानी में डुबकी लगा कर कालिय को कठोर दण्ड दिया और उससे उस स्थान को छोड़कर अन्यत्र जाने को कहा ।
    कृष्ण ने उस समय कहा कि गौवें देवताओं द्वारा भी पूजित हैं और उन्होंने यह प्रत्यक्ष दिखला दिया कि किस तरह रक्षा की जाती है । कम से कम उन लोगों को जो कृष्ण भावना भावित हैं उनके चरण चिन्हों पर चल कर गायों की सुरक्षा प्रदान करनी चाहिये । गायें केवल देवताओं द्वारा ही पूजित नहीं हैं । कृष्ण ने भी अनेक अवसरों पर , विशेषतया गोपाष्टमी तथा गोवर्धन पूजा के समय , गायों की पूजा की थी ।
  9. वाक्पटु (बावदूक)……
    जो व्यक्ति समस्त विनय शीलता तथा उअत्तम गुणों के साथ सार्थक शब्द बोल सकता है वह बावदूक अथवा वाक्पटु कहलाता है । श्रीमद्भागवतम् में कृष्ण द्वारा विनय शीलता से बोलने का सुन्दर उदाहरण मिलता है । जब कृष्ण ने अपने पिता नन्द महाराज से वर्षा के देवता इन्द्र के सम्मान में अत्यंत शीष्टतापूर्वक किये जाने वाले यज्ञ को बन्द करने को कहा तो गांव की एक ग्वालिन उन पर मोहित हो गयी । बाद में वह कृष्ण के बोलने के विषय में अपनी सखियों से इस प्रकार बोली – ” कृष्ण अपने पिता से इतनी शिष्टता तथा विनयशीलता से बोल रहे थे मानो वे वहां पर उपस्थित लोगों के कानों में अमृत उडेल रहे हों । कृष्ण के ऐसे मधुर शब्द सुनकर भला ऐसा कौन होगा जो उनकी ओर आकृष्ट न हो जाय ।
    कृष्ण की वाणी ब्रह्माण्ड के समस्त उत्तम गुणों से युक्त है । उद्धव ने इसका वर्णन इस प्रकार किया है , कृष्ण के वचन इतने आकर्षक होते हैं कि अपने विपक्षी के भी हृदय को तुरंत परिवर्तन कर देते हैं । उनके वचन विश्व के सारे प्रश्नों तथा सारी समास्याओं को तुरंत हल करने वाले हैं। वे अधिक नहीं बोलते । उनके मुख से निकला हर शब्द अर्थपूर्ण होता है । कृष्ण के ये वचन मेरे हृदय को अत्यंत सुहावने लगते हैं ।

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