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गीता युद्ध के मैदान पर क्यों ?
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योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान उस समय कहा जब महाभारत के रणस्थल में दोनों सेनायें आमने-सामने खड़ी थीं- ‘प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते’- शस्त्र चलाने के लिए उद्यत थीं, उस समय कहा, ”इसे केवल अधिकारी के प्रति कहना चाहिये।” अर्जुन अधिकारी था।
भीषण संग्राम के मुहाने पर ही भगवान् ने इस शास्त्र को क्यों कहा? भगवान् भली प्रकार जानते थे कि अरबों-खरबों का रक्त बहाकर जो विजेता होगा वह भी असफल मनोरथ हतप्रभ ही होगा, चैन से नहीं रह पायेगा, शान्ति-लाभ नहीं कर पायेगा, तब उन्होंने वास्तविक युद्ध जिसमें सदा रहनेवाला जीवन, सदा रहनेवाली समृद्धि और शान्ति प्रदाता युद्ध का सूत्रपात ठीक इसी मुहाने पर किया कि विजय के पश्चात हताश होने पर यह समझ में आयेगा। ठोकर खाने पर मनुष्य सँभलता है, तभी वह वैरागयोन्मुख हो पाता है। राजा भर्तिहरि को अपनी प्राण-प्रिय महारानी में दोष प्रतीत हुआ तभी उनका गृह-त्याग हो पाया।
महाभारत के रणांगन में युधिष्ठिर जीत तो गये किन्तु खोये-खोये से रहते थे। वह रात-दिन चिन्तित रहते, कभी कर्ण के लिए तो कभी भाइयों के लिए! उस गद्दी पर बैठकर उन्होंने क्या पाया? तब तक सुनाई पड़ा यदुवंशी आपस में लड़कर खेत रहे और भगवान् श्रीकृष्ण ने भी धराधाम का परित्याग कर दिया। ऐसी चोट लगी कि सिंहासन, हार-जीत की नश्वरता दृष्टि-पटल पर स्पष्ट रूप से कौंध गयी। वह तत्काल उठकर खड़े हो गये, सिंहासन का परित्याग कर दिया और उसी राह पर चल पड़े जो गीता की राह थी।

    

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