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प्रमाण- मन की पहली वृत्ति
महर्षि पतंजलि कहते हैं,

“मन की पांच तरह की वृत्तियाँ हैं- प्रमाण, विपर्याय, विकल्प, निद्रा एवं स्मृति। मन इन्हीं पांचों वृत्तियों में से किसी न किसी में उलझा रहता है।”

इस ज्ञान पत्र में हम पहली वृत्ति प्रमाण को समझते हैं।

मन प्रमाण खोजता रहता है, मन को निरंतर स्पष्ट ठोस प्रमाण की चाह रहती है, यह मन की गतिविधि का एक तरीका है।

प्रमाण तीन तरह के हैं-

1. प्रत्यक्षनुमानागमाः प्रमाणानि।
प्रत्यक्ष
अनुमान
आगम
क्या आप अभी स्विट्ज़रलैंड में हैं, आप कहेंगे हाँ; क्योंकि आपके मन में उसका प्रमाण है, यहाँ की नदी, पहाड़ सब आपको दिख रहे हैं; जो भी अभी आप देख रहे हैं, वही सब प्रमाण है… किसी से आपको पूछने की भी जरुरत नहीं, यह प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष अर्थात जो स्पष्ट है, आपके अनुभव में है।

दूसरा है अनुमान, अर्थात जो उतना स्पष्ट नहीं है, आप उसे मान लेते है, विश्वास कर लेते है।

फिर है आगम, अर्थात शास्त्र, क्योंकि कहीं कुछ लिखा है इसीलिए आप उसे मान लेते है। लोग कहते हैं, देखो लिखा हुआ है और लोग उसका अनुसरण भी करते हैं। कई बार ऐसे भी मान लेते हैं क्योंकि कोई फलां वैसा कहते हैं या कई सारे लोग वैसा करते हैं या कहते हैं- मन इसी तरह चलता है।

प्रमाण से मुक्ति
आप निरंतर कुछ न कुछ प्रमाण ढूंढ़ते रहते हैं, यह मन की गतिविधि है, योग है इससे मुक्त हो जाना, योग है मन को इस वृत्ति से पुनः स्वयं में वापिस ले आना। तुम्हें प्रमाण चाहिए कि तुम स्विट्ज़रलैंड में हो या नहीं, यह तुम्हें तुम्हारी इन्द्रियों बता देंगी पर तुम यहाँ हो, इसके प्रमाण की तुम्हें इन्द्रियों से आवश्यकता नहीं। यह बहुत गहरी बात है, क्या आप समझ रहे हैं। आपको ऐसी ही दिखने वाली जगह क्रोएशिया में ले जाया जा सकता है जहाँ आपकी इन्द्रियाँ आपको मूर्ख बना सकती हैं, और आपको लग सकता है कि आप स्विट्ज़रलैंड में हैं- इस सत्य से परे है यह अवधारणा की तुम हो, तुम्हारे अस्तित्त्व के लिए तुम्हारी सजगता।

सत्य प्रमाण से परे है।
सत्य को प्रमाण से नहीं समझ सकते, जो भी प्रमाणित किया जा सकता है वो अप्रमाणित भी किया जा सकता है। सत्य प्रमाण और अप्रमाण के परे है- क्या तुम यह समझ रहे हो। ईश्वर प्रमाण के परे है- तुम न ईश्वर के होने का प्रमाण दे सकते हो न उनके न होने का। प्रमाण तर्क से जुड़ा हुआ है और तर्क का दायरा बहुत सीमित है। ऐसे ही आत्मज्ञान, ऐसे ही प्रेम… न तुम उसे प्रमाणित कर सकते हो न ही अप्रमाणित।

किसी के क्रियाकलाप उसके प्रेम का प्रमाण नहीं है, सिनेमा के अभिनेता अभिनेत्री प्रेम दिखा सकते हैं पर उसका लेशमात्र प्रेम भीतर में नहीं हो सकता है- वो सिर्फ इसका प्रदर्शन भी कर सकते हैं। तुम्हें सब कुछ का प्रमाण चाहिए, कोई तुम्हें प्रेम करता है की नहीं, तुम्हें सबसे स्वीकृति चाहिए। प्रमाण मन की प्रमुख वृत्ति है, संसार में प्रमाण ही मुख्य है, जिसमे तुम फंस सकते हो।

आत्मा इस सब के परे है। आत्मा का संसार प्रमाण से परे है।
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