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रामायण के 10 विचार जो हमेशा आपको रखेंगे दूसरों से आगे!

रामचरितमानस में भगवान श्रीराम के चरित्र का चित्रण जितने प्रभावशाली तरीके से किया गया है उतने ही प्रभावशाली तरीके से भगवान राम के माध्यम से जीवन को जीने का तरीका भी बताया गया है। मानस में मनुष्य को बताया गया है कि जीवन को सफल और सुखी बनाना है तो राम को भजने के साथ ही सांसारिक व्यवहार का भी रखें ध्यान…

नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा।।

रामचरित मानस में यह चौपाई उस समय की है जब भगवान राम सागर पार करने के लिए सागर से रास्ता मांगने के लिए ध्यान करने जा रहे थे। लक्ष्मणजी ने तब भगवान रामजी को उनकी शक्ति और क्षमता को याद दिलाते हुए कहा था कि आप स्वयं इतने शक्तिशाली हैं कि एक बाण में समुद्र को सुखा सकते हैं फिर सागर से अनुनय-विनय क्यों। देवता-देवता आलसी और शक्तिहीन पुकारते हैं आप अपने भरोसे पर काम कीजिए ईश्वर स्वयं आपकी सहायता करेंगे। भगवान राम यह सब जानते थे लेकिन फिर भी इन्होंने शक्ति से पहले शांति से परिस्थितियों को हल करने का प्रयास किया और बताया कि शक्तिशाली को संयमी होना भी जरूरी है।

बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ।

रामचरित मानस के बालकांड में भगवान विष्णु के रामावतार का कारण और भगवान की लीला का उद्देश्य समझाते हुए यहां भगवान शिव कहते हैं- कोई भी इस भ्रम में न रहे कि वह सर्वज्ञानी है या कोई हमेशा मूर्ख ही रहेगा। भगवान की जब जैसी इच्छा होती है, तब वह प्रत्येक प्राणी को वैसा बना देते हैं। इसलिए कभी किसी चीज का अहंकार नहीं करना चाहिए, जो अहंकार करते हैं। वह समाज में कभी आगे नहीं बढ़ पाते।

काम, क्रोध, मद, लोभ, सब, नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि, भजहुँ भजहिं जेहि संत।

विभीषणजी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं। काम के वश होकर आपने जो देवी सीता का हरण किया है और आपको जो बल का अहंकार हो रहा है वह आपकी विनाश का रास्ता है। जिस प्रकार साधु लोग सब कुछ त्यागकर भगवान का नाम जपते हैं आप भी राम के हो जाएं। मनुष्य को भी इस लोक में और परलोक में सुख, शांति और उन्नति के लिए इन पाप की ओर ले जाने वाले तत्वों से बचना चाहिए।

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥

रामचरित मानस में भगवान राम और सुग्रीव की मित्रता के संदर्भ में यह चौपाई मनुष्य को यह ज्ञान देती है कि मित्रता निभाने वाले की भगवान भी सहायता करते हैं। जो लोग मित्र या फिर दूसरों के दुख को देखकर दुखी नहीं होते, उन लोगों की मदद नहीं करते हैं। ऐसे लोगों को देखने से भी पाप लग जाता है। जो लोग अपने दुख को भूलकर दूसरों की सहायता करते हैं ईश्वर स्वयं उसकी मदद करते है।

आगें कह मृदु बचन बनाई।
पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥

भावार्थ: जो आपके सामने अच्छा और कोमल वचन बोलता है और आपके पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है। ऐसे लोगों से मित्रता रखने में कोई भलाई नहीं है। ऐसे लोग स्वार्थी होते हैं, जो आपको कभी आगे नहीं बढ़ने देते हैं। आगे बढ़ने के लिए ऐसे लोगों का त्याग करने में ही भलाई है।

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।
तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा॥

भावार्थ: सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है। ऐसे लोग जीवन में कुछ नहीं कर पाते। हमेशा आगे बढ़ने के लिए इन चीजों को त्यागना जरूर पड़ता है।

नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।
संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥
पर उपकार बचन मन काया।
संत सहज सुभाउ खगराया॥

जगत में दरिद्रता यानी गरीबी के समान कोई दुख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत में कोई सुख नहीं है। क्योंकि मन, वचन और शरीर से परोपकार करना ही संतों का सहज स्वभाव है। महान संत आपको अच्छे विचार देते हैं, जिससे आप समाज की भलाई के लिए काम करते हैं।

सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेहुँ मुनिनाथ।
हानि, लाभ, जीवन, मरण,यश, अपयश विधि हाँथ।

भले ही लाभ हानि जीवन, मरण ईश्वर के हाथ हो लेकिन हानि के बाद हम हार मानकर बैठें न, यह हमारे ही हाथ है। लाभ को हम शुभ लाभ में परिवर्तित कर लें, यह भी जीव के ही अधिकार क्षेत्र में आता है। जीवन जितना भी मिले उसे हम कैसे जिएं यह सिर्फ जीव अर्थात हम ही तय करते हैं, मरण अगर प्रभु के हांथ है, तो उस परमात्मा का स्मरण हमारे अपनें हाथ है।

अपि च स्वर्णमयी लंका, लक्ष्मण मे न रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

भगवान राम छोटे भाई लक्ष्मण से कहते हैं कि पूरी लंका नगरी ऊपर से नीचे तक सोने से मढ़ी हुई है, फिर भी हे लक्ष्मण, यह मुझे जरा भी अच्छी नहीं लग रही।

मेरे लिए तो मां और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक मूल्यवान है। राम कहते हैं कि जो व्यक्ति अपनी जन्मभूमि से जुड़ा रहता है, वहां के मूल्यों को आगे बढ़ाता है। वही दूसरों से आगे रहता है।

    

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