हमारा अपना स्वरूप यह शरीर नहीं है;
यह परम आत्मा ही हम सभी का वास्तविक स्वरूप है और इस हमारे स्वरूप आत्मा के लिये तो भगवान् श्रीकृष्णजी कहते हैं –
न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।
इस आत्माको शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता।।
इस हमारे स्वरूप अर्थात् आत्मा के लिये तो ये शरीर ऐसे हैं जैसे कि –
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है।।
यह हमारा वास्तविक स्वरूप आत्मा तो –
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है।।
इस प्रकार से जान लेना अथवा पढ़ लेना तो केवल परोक्ष ज्ञान ही कहलाता है लेकिन जब हमें पञ्चीकरण के माध्यम से तत्त्वोंसहित तत्त्वज्ञान हो जाता है तब यही ज्ञान प्रत्यक्ष सिद्ध हो जाता है, इसी प्रत्यक्ष ज्ञान को ही अपरोक्ष ज्ञान कहते हैं।
और जब हमें यह प्रत्यक्ष सिद्ध हो जाता है कि हम शरीर नहीं हैं, हम तो परम आत्मा ही हैं, तब यही विवेक हमें निश्चयात्मिका बुद्धि प्रदान करता है और यही निश्चय ही हमें निर्भय बनाकर परमानन्द देता है और परमात्माको प्राप्त हो जाना भी इसी को कहते हैं।
जय जय श्री कृष्ण