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[नस पर नस चढ़ना या माँस-पेशियों की ऐंठन का सबसे आसान अद्भुत उपचार

आधुनिक जीवन शैली जिसमें व्यक्ति आराम पसंद जीवन जीना चाहता है और सभी काम मशीनों के द्वारा करता है तथा खाओ पीओ और मौज करो की इच्छा रखता है जो आपके जीवन में इस प्रकार के जटिल रोगों को जन्म दे रही हैं रात को सोते समय या अचानक ही कभी-कभी नस(Vein)चढ़ जाती है इसकी वजह से लगता है कि बस जान निकल जायेगी और कई लोगों को टांगों और पिंडलियों में मीठा दर्द सा भी महसूस होता है तथा पैरों में दर्द के साथ ही जलन, सुन्न, झनझनाहट (Sensation) या सुई चुभने जैसा एहसास होता है

नस पर नस चढ़ना एक बहुत साधारण सी प्रक्रिया है लेकिन जब भी शरीर में कहीं भी नस पर नस चढ़ना जाए तो आपकी जान ही निकाल देती है और अगर रात को सोते समय पैर की नस पर नस(Vein climbing on Vein)चढ़ जाए तो व्यक्ति चकरघिन्नी की तरह घूम कर उठ बैठता है यदि आपके साथ हो जाये तो तुरंत ये उपाय करें-

क्या करें-

1- अगर आपकी नस पर नस चढ़ जाती है तो आप जिस पैर की नस चढ़ी है तो  उसी तरफ के हाथ की बीच की ऊँगली के नाखून के नीचे के भाग को दबाए और छोड़ें ऐसा जब तक करें जब तक ठीक न हो जाए-

2-आप लंबाई में अपने शरीर को आधा आधा दो भागों में चिन्हित करें अब जिस भाग में नस चढ़ी है उसके विपरीत भाग के कान के निचले जोड़ पर उंगली से दबाते हुए उंगली को हल्का सा ऊपर और हल्का सा नीचे की तरफ बार बार 10 सेकेंड तक करते रहें-नस उतर जाएगी या इसे हम ऐसे कहें की कान खिंच कर माफी मांगे या पहले के गुरु जी या माता पिता के द्वारा दिया गया दंड मुर्गा बनने की प्रक्रिया की तरह कान को पकड़ कर खीचें

3- सोते समय पैरों के नीचे मोटा तकिया रखकर सोएं तथा जब भी आराम करें तो पैरों को ऊंचाई पर रखें-

4- जिस अंग में सुन्नपन हो तो प्रभाव वाले स्थान पर बर्फ की ठंडी सिकाई करे ये सिकाई 15 मिनट दिन में तीन-चार बार करे-

5- अगर गर्म-ठंडी सिकाई तीन से पांच मिनट की करें तो इस समस्या और दर्द दोनों से जल्द ही राहत मिलेगी-

6- आहिस्ते से ऎंठन वाली पेशियों यानी तंतुओं पर हल्का सा खिंचाव दें और आहिस्ता से मालिश करें-

7- वेरीकोज वेन के लिए पैरों को ऊंचाई पर रखे तथा पैरों में इलास्टिक पट्टी बांधे जिससे पैरों में खून जमा न हो पाए-

8- 250ml तिल के तेल में 200 ग्राम गेंदे के फूल की पंखुड़ी को कड़क होने तक धीमी आँच पर गर्म करें व इस तेल को छानकर कांच की शिसी में रखे व इस तेल से नियमित मालिस करें
9 – एलोवेरा गुदा 100 ग्राम 50 ग्राम अरण्ड तेल में भुने लाल होने तक इसे 200 ग्राम मिश्री या गुड़ की चाशनी में डुबोये व इसमे मेथी सौठ अश्वगंधा दालचिनी अर्जुन छाल सभी 25 25 ग्राम लेकर पाउडर बनाये व इस पाउडर को भुना एलोवेरा चाशनी में मिला दे व इस गृध्सी नाशक पाक एक एक चम्मच खाना के बाद गर्म दुध्य या गर्म पानी से सेवन करे नियमित 3 माह

10- नियमित गौमूत्र 25 25 ml सुबह शाम सेवन करे

क्या परहेज करें-

1- यदि आप मधुमेह या उच्च रक्तचाप से ग्रसित हैं तो परहेज और उपचार से नियंत्रण करें तथा शराब, तंबाकू, सिगरेट, नशीले तत्वों का सेवन नहीं करें-
2- सही नाप के आरामदायक, मुलायम जूते पहनें और यदि आप में अतिरिक्त वसा है तो अपना वजन घटाएं तथा रोज सैर पर जाएं या जॉगिंग करें-इससे टांगों की नसें मजबूत होती हैं-

3- फाइबर युक्त भोजन करें जैसे चपाती, ब्राउन ब्रेड, सब्जियां व फल आदि और मैदा व पास्ता जैसे रिफाइंड फूड का सेवन बिलकुल भी न करें-
4- लेटते समय आप अपने पैरों को ऊंचा उठा कर रखें तथा पैरों के नीचे तकिया रख लें-इस स्थिति में सोना आपके लिए बहुत फायदेमंद रहता है-

भोजन में क्या लें- आप अपने भोजन में नीबू-पानी, नारियल-पानी, फलों का विशेषकर मौसमी, अनार, सेब, पपीता केला आदि अवश्य ही शामिल करें-

जय माता दी
स्वस्थ व समृद्ध भारत निर्माण हेतु
एक अपील अनुरोध आग्रह विनती

स्वथ्य शरीर से धन कमाया जा सकता है लेकिन धन से स्वथ्य शरीर नहीँ

आप से बेहतर आप के शरीर को कोई नही जान सकता

85% रोगों का इलाज आप स्वम कर सकते हैं

आपको अपने भोजन को पहचानने की जरूरत है
साथ ही ये नियम का पालन करे

  1. खाना खाने के 90 मिनट बाद पानी पिये
  2. फ्रीज या बर्फ (ठंडा) का पानी न पिये
  3. पानी को हमेशा घुट घुट कर पिये ( गर्म दूध की तरह)
  4. सुबह उठते ही बिना कुल्ला किये गुनगुना पानी पिये
    5.खाना खाने से 48 मिनट पहले पानी पिये
  5. सुबह में खाना खाने के तुरंत बाद पीना हो तो जूस पिये
  6. दोपहर में खाना खाने के तुरंत बाद पीना हो तो मठ्ठा पिये
  7. रात्रि में खाना खाने के तुरंत बाद पीना हो तो दूध पिये
  8. उरद की दाल के साथ दही न खाए (उरद की दाल का दही बडा )
    10.हमेशा दक्षिण या पूर्व में सर करके सोये
  9. खाना हमेशा जमीन पर सुखासन में बैठ कर खाये
  10. अलमुनियम के बर्तन का बना खाना न खाए(प्रेशर कुकर का )
    13.कभी भी मूत्र मल जम्हाई प्यास छिक नींद इस तरह के 13 वेग को न रोकें
  11. दूध को खड़े हो कर पानी को बैठ कर पिये
  12. मैदा चीनी रिफाइंड तेल और सफेद नमक का प्रयोग न करे ( इसकी जगह पर गुड , काला या सेंधा नमक का प्रयोग करे)

आप से विनती है कि आप ऊपर के पांच नियम का पालन जरूर करेंगे क्योंकि स्वथ्य शरीर बहुत ही ज्यादा कीमती है

स्वथ्य शरीर से पैसा और खुशियाँ पाया जा सकता है लेकिन पैसा और समय से स्वस्थ शरीर नहीं

अब आप को स्वयं चिकसक बनने की जरूरत है

आप अपने शरीर को जितना जानते हैं उतना डॉक्टर नही

Astro Physics

खगोल विज्ञान (ASTRO PHYSICS ) भारत के ग्रंथों में|

खगोल विज्ञान को वेद का नेत्र कहा गया, क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टियों में होने वाले व्यवहार का निर्धारण काल से होता है और काल का ज्ञान ग्रहीय गति से होता है। अत: प्राचीन काल से खगोल विज्ञान वेदांग का हिस्सा रहा है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राहृण आदि ग्रथों में नक्षत्र, चान्द्रमास, सौरमास, मल मास, ऋतु परिवर्तन, उत्तरायन, दक्षिणायन, आकाशचक्र, सूर्य की महिमा, कल्प का माप आदि के संदर्भ में अनेक उद्धरण मिलते हैं। इस हेतु ऋषि प्रत्यक्ष अवलोकन करते थे। कहते हैं, ऋषि दीर्घतमस् सूर्य का अध्ययन करने में ही अंधे हुए, ऋषि गृत्स्मद ने चन्द्रमा के गर्भ पर होने वाले परिणामों के बारे में बताया। यजुर्वेद के 18वें अध्याय के चालीसवें मंत्र में यह बताया गया है कि सूर्य किरणों के कारण चन्द्रमा प्रकाशमान है।

यंत्रों का उपयोग कर खगोल का निरीक्षण करने की पद्धति रही है। आर्यभट्ट के समय आज से 1500 से अधिक वर्ष पूर्व पाटलीपुत्र में वेधशाला (Observatory) थी, जिसका प्रयोग कर आर्यभट्ट ने कई निष्कर्ष निकाले।

भास्कराचार्य सिद्धान्त शिरोमणि ग्रंथ के यंत्राध्याय प्रकरण में कहते हैं, “काल” के सूक्ष्म खण्डों का ज्ञान यंत्रों के बिना संभव नहीं है। इसलिए अब मैं यंत्रों के बारे में कहता हूं। वे नाड़ीवलय यंत्र, यष्टि यंत्र, घटी यंत्र, चक्र यंत्र, शंकु यंत्र, चाप, तुर्य, फलक आदि का वर्णन करते हैं।

प्रत्यक्ष निरीक्षण एवं अचूक ग्रहीय व कालगणना का 6000 वर्ष से अधिक पुराना इतिहास :-

श्री धर्मपाल ने “Indian Science and Technology in the Eighteenth Century” नामक पुस्तक लिखी है। उसमें प्रख्यात खगोलज्ञ जॉन प्लेफेयर का एक लेख “Remarks on the Astronomy of the brahmins” (1790 से प्रकाशित) दिया है। यह लेख सिद्ध करता है कि 6000 से अधिक वर्ष पूर्व में भारत में खगोल का ज्ञान था और यहां की गणनाएं दुनिया में प्रयुक्त होती थीं। उनके लेख का सार यह है कि सन् 1667 में एम.लॉ. लाबेट, जो स्याम के दूतावास में थे, जब वापस आये तो अपने साथ एक पंचांग लाए। दो पंचांग मिशनरियों ने भारत से भेजे, जो एक दक्षिण भारत से था और एक वाराणसी से। एक और पंचांग एम.डी. लिस्ले ने भेजा, जो दक्षिण भारत के नरसापुर से था। वह पंचांग जब उस समय के फ्रेंच गणितज्ञों की समझ में न आया तो उन्होंने वह जॉन प्लेफेयर के पास भेज दिया, जो उस समय रॉयल एस्ट्रोनोमर थे। उन्होंने जब एक और विचित्र बात प्लेफेयर के ध्यान में आई कि स्याम के पंचांग में दी गई यामोत्तर रेखा-दी मेरिडियन (आकाश में उच्च काल्पनिक बिन्दु से निकलती रेखा) 180-15″। पश्चिम में है और स्याम इस पर स्थित नहीं है। आश्चर्य कि यह बनारस के मेरिडियन से मिलती है। इसका अर्थ है कि स्याम के पंचांग का मूल हिन्दुस्तान है।

दूसरी बात वह लिखता है, “एक आश्चर्य की बात यह है कि सभी पंचांग एक संवत् का उल्लेख करते हैं, जिसे वे कलियुग का प्रारंभ मानते हैं। और कलियुग के प्रारंभ के दिन जो नक्षत्रों की स्थिति थी, उसका वर्णन अपने पंचांग में करते हैं तथा वहीं से काल की गणना करते हैं। उस समय ग्रहों की क्या स्थिति थी, यह बताते हैं। तो यह बड़ी विचित्र बात लगती है। क्योंकि कलियुग का प्रारंभ यानि ईसा से 3000 वर्ष पुरानी बात।
(1) ब्राहृणों ने गिनती की निर्दोष और अचूक पद्धति विकसित की होगी तथा ब्रह्मांड में दूर और पास के ग्रहों को आकर्षित करने के लिए कारणीभूत गुरुत्वाकर्षण के नियम से ब्राहृण परिचित थे।

(2) ब्राहृणों ने आकाश का निरीक्षण वैज्ञानिक ढंग से किया।

प्लेफेयर के निष्कर्ष
अंत में प्लेफेयर दो बातें कहते हैं-

(1) यह सिद्ध होता है कि भारत वर्ष में एस्ट्रोनॉमी ईसा से 3000 वर्ष पूर्व से थी तथा कलियुगारम्भ पर सूर्य और चन्द्र की वर्णित स्थिति वास्तविक निरीक्षण पर आधारित थी।

(2) एक तटस्थ विदेशी का यह विश्लेषण हमें आगे कुछ करने की प्रेरणा देता है।

श्री धर्मपाल ने अपनी इसी पुस्तक में लिखा है कि तत्कालीन बंगाल की ब्रिाटिश सेना के सेनापति, जो बाद में ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य बने, सर रॉबर्ट बारकर ने 1777 में लिखे एक लेख Bramins observatory at Banaras (बनारस की वेधशाला) पर प्रकाश डाला है। सन् 1772 में उन्होंने वेधशाला का निरीक्षण किया था। उस समय इसकी हालत खराब थी क्योंकि लंबे समय से उसका कोई उपयोग नहीं हुआ था। इसके बाद भी उस वेधशाला में जो यंत्र व साधन बचे थे , उनका श्री बारकर ने बारीकी से अध्ययन किया। उनके निरीक्षण में एक महत्वपूर्ण बात यह ध्यान में आई कि ये साधन लगभग 400 वर्ष पूर्व तैयार किए गए थे।

प्राचीन खगोल विज्ञान की कुछ झलकियां

(1) प्रकाश की गति :- क्या हमारे पूर्वजों को प्रकाश की गति का ज्ञान था? उपर्युक्त प्रश्न एक बार गुजरात के राज्यपाल रहे श्री के.के.शाह ने मैसूर विश्वविद्यालय के भौतिकी के प्राध्यापक प्रो. एल. शिवय्या से पूछा। श्री शिवय्या संस्कृत और विज्ञान दोनों के जानकार थे। उन्होंने तुरंत उत्तर दिया, “हां जानते थे।” प्रमाण में उन्होंने बताया कि ऋग्वेद के प्रथम मंडल में दो ऋचाएं है-

मनो न योऽध्वन: सद्य एत्येक: सत्रा सूरो वस्व ईशे अर्थात् मन की तरह शीघ्रगामी जो सूर्य स्वर्गीय पथ पर अकेले जाते हैं। ( 1-71-9) (“तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिकृदसि सूर्य विश्वमाभासिरोचनम्” अर्थात् हे सूर्य, तुम तीव्रगामी एवं सर्वसुन्दर तथा प्रकाश के दाता और जगत् को प्रकाशित करने वाले हो। ( 1.50.9)
योजनानां सहस्रे द्वे द्वेशते द्वे च योजने।
एकेन निमिषार्धेन क्रममाण नमोऽस्तुते।।
अर्थात् आधे निमेष में 2202 योजन का मार्गक्रमण करने वाले प्रकाश तुम्हें नमस्कार है।

इसमें 1 योजन- 9 मील 160 गज
अर्थात् 1 योजन- 9.11 मील
1 दिन रात में- 810000 अर्ध निषेष
अत: 1 सेकेंड में – 9.41 अर्ध निमेष

इस प्रकार 2202 x 9.11- 20060.22 मील प्रति अर्ध निमेष तथा 20060.22 x 9.41- 188766.67 मील प्रति सेकण्ड। आधुनिक विज्ञान को मान्य प्रकाश गति के यह अत्यधिक निकट है।

(2) गुरुत्वाकर्षण: “पिताजी, यह पृथ्वी, जिस पर हम निवास करते हैं, किस पर टिकी हुई है?” लीलावती ने शताब्दियों पूर्व यह प्रश्न अपने पिता भास्कराचार्य से पूछा था। इसके उत्तर में भास्कराचार्य ने कहा, “बाले लीलावती, कुछ लोग जो यह कहते हैं कि यह पृथ्वी शेषनाग, कछुआ या हाथी या अन्य किसी वस्तु पर आधारित है तो वे गलत कहते हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि यह किसी वस्तु पर टिकी हुई है तो भी प्रश्न बना रहता है कि वह वस्तु किस पर टिकी हुई है और इस प्रकार कारण का कारण और फिर उसका कारण… यह क्रम चलता रहा, तो न्याय शास्त्र में इसे अनवस्था दोष कहते हैं।

लीलावती ने कहा फिर भी यह प्रश्न बना रहता है पिताजी कि पृथ्वी किस चीज पर टिकी है?

तब भास्कराचार्य ने कहा,क्यों हम यह नहीं मान सकते कि पृथ्वी किसी भी वस्तु पर आधारित नहीं है।….. यदि हम यह कहें कि पृथ्वी अपने ही बल से टिकी है और इसे धारणात्मिका शक्ति कह दें तो क्या दोष है?

इस पर लीलावती ने पूछा यह कैसे संभव है।
तब भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।4

मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
सिद्धांत शिरोमणी गोलाध्याय-भुवनकोश (5)
आगे कहते हैं-
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं
गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति

समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।

सिद्धांत शिरोमणी गोलाध्याय-भुवनकोश- (6)

अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियां संतुलन बनाए रखती हैं।

आजकल हम कहते हैं कि न्यूटन ने ही सर्वप्रथम गुरुत्वाकर्षण की खोज की, परन्तु उसके 550 वर्ष पूर्व भास्कराचार्य ने यह बता दिया था।

आर्यभट्ट ने खंगाला खगोल

लीलावती अपने पिता से पूछती है कि पिताजी, मुझे तो पृथ्वी चारों ओर सपाट दिखाई देती है, फिर आप यह क्यों कहते हैं कि पृथ्वी गोल है।

तब भास्कराचार्य कहते हैं कि पुत्री, जो हम देखते हैं वह सदा वैसा ही सत्य नहीं होता। तुम एक बड़ा वृत्त खींचो, फिर उसकी परिधि के सौवें भाग को देखो, तुम्हें वह सीधी रेखा में दिखाई देगा। पर वास्तव में वह वैसी नहीं होता, वक्र होता है। इसी प्रकार विशाल पृथ्वी के गोले के छोटे भाग को हम देखते हैं, वह सपाट नजर आता है। वास्तव में पृथ्वी गोल है।
समो यत: स्यात्परिधे: शतांश:
पृथ्वी च पृथ्वी नितरां तनीयान्‌।

नरश्च तत्पृष्ठगतस्य कुत्स्ना

समेव तस्य प्रतिभात्यत: सा॥ १३ ॥
सिद्धांत शिरोमणी गोलाध्याय-भुवनकोश

पृथ्वी स्थिर नहीं है:-पश्चिम में १५वीं सदी में गैलीलियों के समय तक धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है तथा सूर्य उसका चक्कर लगाता है, परन्तु आज से १५०० वर्ष पहले हुए आर्यभट्ट, भूमि अपने अक्ष पर घूमती है, इसका विवरण निम्न प्रकार से देते हैं-
अनुलोमगतिनौंस्थ: पश्यत्यचलम्‌
विलोमंग यद्वत्‌।
अचलानि भानि तद्वत्‌ सम
पश्चिमगानि लंकायाम्‌॥
आर्यभट्टीय गोलपाद-९

अर्थात्‌ नाव में यात्रा करने वाला जिस प्रकार किनारे पर स्थिर रहने वाली चट्टान, पेड़ इत्यादि को विरुद्ध दिशा में भागते देखता है, उसी प्रकार अचल नक्षत्र लंका में सीधे पूर्व से पश्चिम की ओर सरकते देखे जा सकते हैं।

इसी प्रकार पृथुदक्‌ स्वामी, जिन्होंने व्रह्मगुप्त के व्रह्मस्फुट सिद्धान्त पर भाष्य लिखा है, आर्यभट्ट की एक आर्या का उल्लेख किया है-

भ पंजर: स्थिरो भू रेवावृत्यावृत्य प्राति दैविसिकौ।
उदयास्तमयौ संपादयति नक्षत्रग्रहाणाम्‌॥

अर्थात्‌ तारा मंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी दैनिक घूमने की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है।

अपने ग्रंथ आर्यभट्टीय में आर्यभट्ट ने दशगीतिका नामक प्रकरण में स्पष्ट लिखा-प्राणे नैतिकलांभू: अर्थात्‌ एक प्राण समय में पृथ्वी एक कला घूमती है (एक दिन में २१६०० प्राण होते हैं)

सूर्योदय-सूर्यास्त-भूमि गोलाकार होने के कारण विविध नगरों में रेखांतर होने के कारण अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग समय पर सूर्योदय व सूर्यास्त होते हैं। इसे आर्यभट्ट ने ज्ञात कर लिया था, वे लिखते हैं-
उदयो यो लंकायां सोस्तमय:
सवितुरेव सिद्धपुरे।
मध्याह्नो यवकोट्यां रोमक

विषयेऽर्धरात्र: स्यात्‌॥

(आर्यभट्टीय गोलपाद-१३)

अर्थात्‌ जब लंका में सूर्योदय होता है तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। यवकोटि में मध्याह्न तथा रोमक प्रदेश में अर्धरात्रि होती है।

चंद्र-सूर्यग्रहण- आर्यभट्ट ने कहा कि राहु केतु के कारण नहीं अपितु पृथ्वी व चंद्र की छाया के कारण ग्रहण होता है।

अर्थात्‌ पृथ्वी की बड़ी छाया जब चन्द्रमा पर पड़ती है तो चन्द्र ग्रहण होता है। इसी प्रकार चन्द्र जब पृथ्वी और सूर्य के बीच आता है तो सूर्यग्रहण होता है।

विभिन्न ग्रहों की दूरी- आर्यभट्ट ने सूर्य से विविध ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह आजकल के माप से मिलता-जुलता है। आजकल पृथ्वी से सूर्य की दूरी (15 करोड़ किलोमीटर) है। इसे AU ( Astronomical unit) कहा जाता है। इस अनुपात के आधार पर निम्न सूची बनती है।
ग्रह आर्यभट्ट का मान वर्तमान मान
बुध ०.३७५ एयू ०.३८७ एयू
शुक्र ०.७२५ एयू ०.७२३ एयू
मंगल १.५३८ एयू १.५२३ एयू
गुरु ५.१६ एयू ५.२० एयू
शनि ९.४१ एयू ९.५४ एयू
व्रह्माण्ड का विस्तार- व्रह्माण्ड की विशालता का भी हमारे पूर्वजों ने अनुभव किया था। आजकल व्रह्माण्ड की विशालता मापने हेतु प्रकाश वर्ष की इकाई का प्रयोग होता है। प्रकाश एक सेकेंड में ३ लाख किलोमीटर की गति से भागता है। इस गति से भागते हुए एक वर्ष में जितनी दूरी प्रकाश तय करेगा उसे प्रकाश वर्ष कहा जाता है। इस पैमाने से आधुनिक विज्ञान बताता है कि हमारी आकाश गंगा, जिसे Milki way ‌ कहा जाता है, की लम्बाई एक लाख प्रकाश वर्ष है तथा चौड़ाई दस हजार प्रकाश वर्ष है।

इस आकाश गंगा के ऊपर स्थित एण्ड्रोला नामक आकाश गंगा इस आकाश गंगा से २० लाख २० हजार प्रकाश वर्ष दूर है और व्रह्माण्ड में ऐसी करोड़ों आकाश गंगाएं हैं।

श्रीमद्भागवत में राजा परीक्षित महामुनि शुकदेव से पूछते हैं, व्रह्माण्ड का व्याप क्या है? इसकी व्याख्या में शुकदेव व्रह्माण्ड के विस्तार का उल्लेख करते हैं- ‘हमारा जो व्रह्माण्ड है, उसे उससे दस गुने बड़े आवरण ने ढंका हुआ है। प्रत्येक ऊपर का आवरण दस गुना है और ऐसे सात आवरण मैं जानता हूं। इन सबके सहित यह समूचा व्रह्माण्ड जिसमें परमाणु के समान दिखाई देता है तथा जिसमें ऐसे करोड़ों व्रह्माण्ड हैं, वह समस्त कारणों का कारण है।‘ ये बात बुद्धि को कुछ अबोध्य-सी लगती है। पर हमारे यहां जिस एक शक्ति से सब कुछ उत्पन्न-संचालित माना गया, उस ईश्वर के अनेक नामों में एक नाम अनंत कोटि व्रह्माण्ड नायक बताया गया है। यह नाम जहां व्रह्मांडों की अनन्तता बताता है, वहीं इस विश्लेषण के वैज्ञानिक होने की अनुभूति भी कराता है। इस प्रकार इस संक्षिप्त अवलोकन से हम कह सकते हैं कि काल गणना और खगोल विज्ञान की भारत में उज्ज्वल परम्परा रही है। पिछली सदियों में यह धारा कुछ अवरुद्ध सी हो गई थी। आज पुन: उसे आगे बढ़ाने की प्रेरणा पूर्वकाल के आचार्य आज की पीढ़ी को दे रहे हैं।

धर्म-धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् ।
धर्मण लभते सर्वं धर्मप्रसारमिदं जगत् ॥

भावार्थ :
धर्म से ही धन, सुख तथा सब कुछ प्राप्त होता है । इस संसार में धर्म ही सार वस्तु है ।

सत्य -सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः । सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥

भावार्थ :
सत्य ही संसार में ईश्वर है; धर्म भी सत्य के ही आश्रित है; सत्य ही समस्त भव – विभव का मूल है; सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है ।

उत्साह-उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम् । सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चदपि दुर्लभम् ॥

भावार्थ :
उत्साह बड़ा बलवान होता है; उत्साह से बढ़कर कोई बल नहीं है । उत्साही पुरुष के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।

क्रोध – वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित् । नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नवाच्यं विद्यते क्वचित् ॥

भावार्थ :
क्रोध की दशा में मनुष्य को कहने और न कहने योग्य बातों का विवेक नहीं रहता । क्रुद्ध मनुष्य कुछ भी कह सकता है और कुछ भी बक सकता है । उसके लिए कुछ भी अकार्य और अवाच्य नहीं है ।

कर्मफल-यदाचरित कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् । तदेव लभते भद्रे! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ॥

भावार्थ :
मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है । कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।

सुदुखं शयितः पूर्वं प्राप्येदं सुखमुत्तमम् ।
प्राप्तकालं न जानीते विश्वामित्रो यथा मुनिः ॥

भावार्थ :
किसी को जब बहुत दिनों तक अत्यधिक दुःख भोगने के बाद महान सुख मिलता है तो उसे विश्वामित्र मुनि की भांति समय का ज्ञान नहीं रहता – सुख का अधिक समय भी थोड़ा ही जान पड़ता है ।

निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः ।
सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ॥

भावार्थ :
उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम बिगड़ जाते हैं , वह घोर विपत्ति में फंस जाता है ।

अपना-पराया-गुणगान् व परजनः स्वजनो निर्गुणोऽपि वा
निर्गणः स्वजनः श्रेयान् यः परः पर एव सः ॥

भावार्थ :
पराया मनुष्य भले ही गुणवान् हो तथा स्वजन सर्वथा गुणहीन ही क्यों न हो, लेकिन गुणी परजन से गुणहीन स्वजन ही भला होता है । अपना तो अपना है और पराया पराया ही रहता है ।

दशमेश का विभिन्न भावो में फल।

दशम भाव के स्वामी का अन्य भाव में होने से फल कथन में बदलाव आ जाएगा। यदि दशमेश लग्न में हो तो ऐसा जातक पिता का आज्ञाकारी एवं उनकी सेवा करने वाला होगा। मातृपक्ष से थोड़ा वैमनस्य रखने वाला होगा।

दशम भाव का स्वामी अशुभ हुआ तो पिता की मृत्यु छोटी आयु में ही हो जाती है। ऐसे जातक का जीवन पूर्वार्ध में कष्टमय व्यतीत होता है लेकिन आयु जैसे-जैसे बढ़ती जाती है वैसे-वैसे जातक सुखी होता जाता है। ऐसा जातक विद्वान, धनी, कवि एवं विख्यात होकर समाज और जाति में सम्मानित होकर यशस्वी होता है।

यदि दशम भाव का स्वामी द्वितीय भाव में हो तो वह लोभी वृत्ति का होता है। माता का इसके प्रति विशेष स्नेह होता है तथा वह जातक की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखती है लेकिन इतने पर ही जातक प्रसन्न नहीं रहता, बल्कि माता में दोष ढूँढता रहता है। इसमें आलस्य अधिक होता है।

यदि दशमेश शुभ ग्रह हो तो उसे पिता का पूर्ण सुख मिलता है। वह पैतृक धन-संपदा का स्वामी होता है। ऐसा जातक राज्यपक्ष में मान-सम्मान पाने वाला होता है। यदि

दशमेश की स्थिति तीसरे स्थान पर हो तो प्रायः अशुभ फल मिलते हैं, कारण इस अवस्था में दशमेश अपने स्थान से छठे स्थान में स्थित होता है। ऐसे जातक का अपने सहोदरों एवं कुटुंबीजनों से विरोध रहता है। उसे प्रत्येक कार्य में असफलता ही मिलती है।

यदि दशमेश शुभ ग्रह हो तो भाइयों, मित्रों एवं सहकर्मियों का पूर्ण सुख मिलता है। ऐसा जातक सत्यभाषी, पराक्रमी, सद्‍गुणयुक्त एवं सर्वसुख संपन्न होता है।

यदि दशमाधिपति चतुर्थ स्थान में हो तो वह सभी सुखों को पाने वाला होता है। ऐसा व्यक्ति सदाचारी तथा माता-पिता की सेवा करने वाला होता है। उसे समाज एवं जाति में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है तथा वाहन एवं गृह का भी उसे पूर्ण सुख मिलता है। उसे राज्यपक्ष से धन-मान की प्राप्ति होती है। पिता से लाभ पाने वाला राजनीति में सफल, जनता की रुचिनुसार चलने वाला होकर प्रसिद्ध होता है।

यदि दशम भाव का स्वामी पंचम भाव में स्थित हो तो ऐसा जातक सद्कर्मों को करने वाला, माता का पूर्ण सुख पाने वाला, राज्यपक्ष से मान पाने वाला, गाने-बजाने का शौकीन, मनोरंजन के प्रति रुझान वाला, पुत्रों से सुखी, पुत्रों द्वारा यश पाने वाला होता है। यदि दशमेश अशुभ हुआ तो जीवन नारकीय बन जाता है।

यदि दशमेश छठे भाव में हुआ तो वह कलह करने वाला शत्रुभय से त्रस्त, आपदा के समय साहसहीन होता है। पिता के सुख से वंचित या बैर रखने वाला होता है तथा बाल्यावस्था कष्टमय व्यतीत होती है। चालाक होते हुए भी शत्रुओं के कुप्रभावों से बच नहीं पाता व धन से दुःखी होकर ऋणी रहता है।

दशमेश सप्तम जया भाव में हुआ तो उसकी स्त्री गुणवान, रूपवान, धर्मपरायण, शुभ गुणों से संपन्न, पति के साथ कदम मिलाकर चलने वाली होती है। यह सत्यप्रिय, सास-ससुर व परिवार के अन्य सदस्यों की सेवा करने वाली होती है। ऐसा जातक स्वयं भी स्वधर्म का पालन करने वाला, आगंतुकों का आदर करने वाला, ससुराल से लाभ पाने वाला होगा। यदि दशम भाव का स्वामी अशुभ, नीच राशि या शत्रु राशि का हुआ तो विपरीत फल देने वाला होगा।

दशमेश अष्टम भाव में हो तो जातक झूठ बोलने वाला एवं अपनी माता को सुख देने वाला होता है। स्वभाव से क्रूर एवं कपटी भी होता है। जाति व समाज में निन्दा पाने वाला पूर्व जन्म के कर्मों का फल पाने वाला भी होता है।

यदि दशमेश शुभ हुआ तो दीर्घायु व सम्मान पाने वाला, सुखी होता है।

दशमेश नवम भाव में हो तो जातक का कुटुंब परिवार संयुक्त होता है। यदि अलग भी रहे तो जातक परिवार की मदद करता है। ऐसे जातक सामाजिक, राजनीतिक प्रतिष्ठा पाने वाले होते हैं। यह उत्तम स्वभाव वाला एवं उसके अच्छे मित्र होते हैं। उसकी माता सुशील, धर्मपरायण, सुंदर गुणवती होती है। यदि दशमेश अशुभ ग्रह हो तो पिता के सुख से वंचित व अनेक कष्टों को पाने वाला होता है।

दशमेश दशम भाव में स्वग्रही हुआ तो माता का सुख पाने वाला, ननिहाल से सुखी, पिता का भक्त, ऐसा जातक राजसुख पाने वाला, भाग्यशाली, देवगुरु, ब्राह्मणों की विधिपूर्वक सेवा करने वाला, राज्य पद, मान-सम्मान पाने वाला होता है। ऐसा जातक सभी सुख को पाने वाला होता है। यदि दशम भाव का स्वामी अशुभ हुआ तो सभी सुखों से वंचित होता है।

दशम भाव का स्वामी एकादश भाव में हुआ तो उसकी माता दीर्घजीवी एवं सत्कर्मी होगी। उद्योग एवं व्यापार में उसे सफलता मिलती है तथा धन-मान प्राप्त कर यशस्वी होता है। पुत्र-पौत्रादि का सुख पाने वाला व पूर्ण सुखी होता है। यदि दशमेश की स्थिति अशुभ हुई तो सभी विपरीत फल मिलते हैं।

दशम भाव का स्वामी द्वादश भाव में हो तो व्यापार-व्यवसाय, राजकाज में व्यस्त, माता से विरक्त, पिता से उसे कुछ भी लाभ नहीं मिलता। स्वप्रयत्नों से सफलता पाने वाला, स्वाभिमानी होता है। यदि दशमेश अशुभ हुआ तो दाम्पत्य जीवन सुखी नहीं रहता। द्वितीय विवाह भी हो सकता है।
Health care
उबलतें दूध में जब डाली जाती हैं तुलसी की पतियाँ तो होता है चमत्कार – Tulsi with Milk
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घरेलू नुस्खे बिना किसी साइड इफेक्ट के कई बीमारियों को दूर करते हैं। पीढि़यों से चले आ रहे ये नुस्खे हमेशा से फायदेमंद साबित हुए है और शायद आगे भी होते रहेंगे। ऐसे ही कुछ टिप्स तुलसी को लेकर भी है। तुलसी एक ऐसा हर्ब है जो कई समस्याओं को आसानी से दूर कर सकती है। सर्दी जुकाम हो या सिरदर्द तुलसी का काढ़ा बनाकर पीने से लाभ मिलता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि तुलसी को अगर दूध के साथ मिला लिया जाये तो ये कई बीमारियों के लिए रामबाण साबित होती है।
आज हम आपको बता रहे हैं कैसे तुलसी की तीन से चार पत्तियां उबलते हुए दूध में डालकर खाली पेट पीने से आप सेहतमंद रह सकते हैं।
किडनी की पथरी में
यदि किडनी में पथरी की समस्या हो गई हो और पहले दौर में आपको इसका पता चलता है तो तुलसी वाला दूध का सेवन सुबह खाली पेट करना शुरू कर दें। इस उपाय से कुछ ही दिनों में किडनी की पथरी गलकर निकल जाएगी। आपको इस समस्या से छुटकारा मिल जाएगा।
दिल की बीमारी में
यदि घर में किसी को दिल से सबंधित कोई बीमारी है या हार्ट अटैक पड़ा हो तो आप तुलसी वाला दूध रोगी को सुबह के समय खाली पेट पिलाएं। इससे दिल से संबंधित कई रोग ठीक होते हैं।
सांस की तकलीफ में
सांस की सबसे खतरनाक समस्या है दमा। इस रोग में इंसान को सांस लेने में बड़ी परेशानी आती है। खासतौर पर तब जब मौसम में बदलाव आता है। इस
समस्या से बचने के लिए जरूरी है कि आप दूध और तुलसी का सेवन करें। नियमित इस उपाय को करने से सांस से संबंधित अन्य रोग भी ठीक हो जाएगें।
कैंसर की समस्या
एंटीबायोटिक गुणों की वजह से तुलसी कैंसर से लड़ने में सक्षम होती है। दूध में भी कई तरह के गुण होते हैं जब दोनों आपस में मिलते हैं तो इसका प्रभाव बेहद प्रभावशाली और रोग नाशक हो जाता है। यदि आप नियमित तुलसी वाला दूध पीते हैं तो कैंसर जैसी बीमारी शरीर को छू भी नहीं सकती है।
फ्लू
वायरल फ्लू होने से शरीर कमजोर हो जाता है। यदि आप दूध में तुलसी मिलाकर सुबह खाली पेट इसका सेवन करते हो ता आपको फ्लू से जल्दी से आराम मिल जाएगा।
टेंशन में
अधिक काम करने से या ज्यादा जिम्मेदारियों से अक्सर हम लोग टेंशन में आ जाते हैं एैसे में हमारा नर्वस सिस्टम काम नहीं कर पाता है और हम सही गलत का नहीं सोचते हैं। यदि इस तरह की समस्या से आप परेशान हैं तो दूध व तुलसी वाला नुस्खा जरूर अपनाएं। आपको फर्क दिखने लगेगा।
सिर का दर्द और माइग्रेन में
सिर में दर्द होना आम बात है। लेकिन जब यह माइग्रेन का रूप ले लेती है तब सिर का दर्द भयंकर हो जाता है। ऐसे में सुबह के समय तुलसी के पत्तों को दूध में डालकर पीना चाहिए। यह माइग्रेन और सिर के सामान्य दर्द को भी ठीक कर देती है। अक्सर हमारे घर में बहुत सी प्राकृतिक औषधियां होती है जिनके बारे में पता रहने से हम मंहगी दवाओं से होने वाले साइड इफेक्ट से बच सकते हैं।
यह मैसेज अगर आपको अच्छा लगे या समझ में आये की यह किसी के लिया रामबाण की तरह काम आएगा तो आप से 🙏निवेदन है कि इस 📨मैसेज को अपने परिचित /मित्र/ या आपके व्हाट्स एप्प ग्रुप फ्रेंड्स तक भेज दे ।

आपका यह कदम स्वस्थ भारत के निर्माण मैं योगदान के रूप में होगा

दुआ मैं बड़ी ताकत है‌।

*स्वस्थ रहो मस्त रहो व्यस्त रहो और सदा खुश रहो * 🙏🏼सुप्रभात 🙏🏼
[ 💐सुपारी पाक
🍃हालाँकि यह औरत और मर्द दोनों के लिए फायदेमंद दवा है पर औरतों की बीमारी जैसे ल्यूकोरिया और गर्भाशय की प्रॉब्लम के अधिक इस्तेमाल की जाती है और इसी के लिए यह पोपुलर भी है


🍂इसके इस्तेमाल से ल्यूकोरिया और गर्भाशय की प्रॉब्लम दूर होती है और संतान होने की सम्भावना बढ़ती है

🍃महिलाओं के लिए यह दवा अमृत तुल्य है, इसका इस्तेमाल महिलाओं की डेलिवेरी के बाद भी गर्भाशय टॉनिक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है

🍃यह एक बेहतरीन टॉनिक है जो ल्यूकोरिया, शारीरिक कमज़ोरी, पीठ और कमर की दर्द, खून की कमी, चेहरे का पीलापन, थोड़ा काम करते ही थक जाना जैसे महिला रोगों के लिए बेहद असरदार दवा है स्नेहा समुह

🍃पुरुषों के नर्वस system की कमज़ोरी, infertility, शीघ्रपतन और वीर्य विकार में भी इसके इस्तेमाल से फ़ायदा होता है

🌺सुपारी पाक का मुख्य घटक सुपारी है और इसके अलावा इसमें कई सारी जड़ी-बूटी और खनिज लवण मिलाये जाते हैं

🥀तो आईये जानते हैं कि इसका कम्पोजीशन क्या है –

🌹इसमें मिलाया जाता है सुपारी, गाय का दूध, गाय का घी और चीनी के अलावा ये सारी जड़ी-बूटियां
इलायची
बला
नागबला
पिप्पली
जायफल
जावित्री
शिवलिंगी
तेजपात
तालिशपत्र
दालचीनी
सोंठ
उशीर
तगर
मोथा
हर्रे
बहेड़ा
आँवला
वंशलोचन
शतावर
शुद्ध कौंच बीज
मुनक्का
तालमखाना
गोक्षुर
खजूर
धनिया
कसेरू
मुलेठी
सिंघाड़ा
जीरा
बड़ी इलायची
अजवाइन
कुशुब के बीज
जटामांसी
सौंफ़
मेथी
विदारीकन्द
सफ़ेद मुसली
असगंध
कचूर
नागकेशर
काली मिर्च
चिरोंजी
सेमल के बीज
गज पीपल
कमलगट्टा
सफ़ेद चन्दन
🌼लाल चन्दन और लौंग के अलावा
🌸
🌼बंग भस्म, नाग भस्म, लौह भस्म, कस्तूरी और कपूर भी मिलाया जाता है स्नेहा समुह
🌻आप समझ सकते हैं कि इतनी सारी जड़ी-बूटी और भस्मों के मिश्रण से यह दवा कितनी असरदार बन जाती है

🌻यह एक शास्त्रीय आयुर्वेदिक दवा है हमदर्द से लेकर डाबर, बैद्यनाथ जैसी कई सारी आयुर्वेदिक और यूनानी कंपनियां बनाती हैं और यह हर जगह मिल जाती है

🌹अब जानते हैं सुपारी पाक के फ़ायदे –

🏵️इसके इस्तेमाल से औरतों की बीमारी ल्यूकोरिया ठीक हो जाती है और इसके सेवन से गर्भाशय को ताक़त मिलती है

🍂प्रसव के बाद इसके इस्तेमाल से योनी संकुचित होती है और शरीर को बल मिलता है

🌹ल्यूकोरिया और इस से होने वाले लक्षण जैसे ताक़त की कमी, कमज़ोरी, सर दर्द, पैर और कमर में दर्द, थकावट, चिंता, सर का भारीपन, थोड़े से काम से ही थक जाना जैसी प्रॉब्लम दूर होती है

🌻पेल्विक Inflammatory डिजीज या PID में भी इस से फ़ायदा होता है, इसके लिए इसे अशोकारिष्ट के साथ लेना चाहिए

🌻🌻बार-बार गर्भपात या मिस कैरज होने भी असरदार है, जिन महिलाओं को मिस कैरेज हो जा रहा हो उनको इसका इस्तेमाल ज़रूर करना चाहिए स्नेहा समुह

🌷पुरुषों के रोग जैसे वीर्य विकार, शीघ्रपतन और शुक्राणुओं की कमी में भी इसके इस्तेमाल से फ़ायदा होता है

🌼अब जानते हैं सुपारी पाक के डोज़ के बारे में –

🌼सुपारी पाक को 12 से 24 ग्राम तक दिन में दो बार दूध या पानी से खाना खाने के बाद लेना चाहिए

🌷इसकी मात्रा का निर्धारण बल, आयु और पाचन शक्ति के मुताबिक करना चाहिए
🌼इसकी मात्रा का निर्धारण बल, आयु और पाचन शक्ति के मुताबिक करना चाहिए

🌾यह पूरी तरह से आयुर्वेदिक दवा है जिसका कोई साइड इफ़ेक्ट नहीं है, लम्बे समय तक इस्तेमाल किया जा सकता है

🌼प्रेगनेंसी में इसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए

🌾तो दोस्तों, ये थी आज की जानकारी बहुत ही प्रचलित दवा सुपारी पाक के बारे में. स्नेहा समुह
[: सूर्य दशा मे समस्त ग्रहो की अन्तर्दशा फल
सूर्य मे सूर्य – सूर्य उच्च, स्वराशि का हो और 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 । 11 वे भाव में हो तो उसकी अन्तर्दशा मे धन लाभ, राज सम्मान, कार्य सिद्धि, विवाह, रोग, यश प्राप्ति होती है। यदि सूर्य नीच या अशुभ या अन्य भाव मे हो तो प्रभाव माध्यम होते है। यदि सूर्य द्वितीयेश या सप्तमेश हो तो अपमृत्यु भी हो सकती है। जातक के मन मे अशांति, खिन्नता, द्वन्द रहता है।

सूर्य मे चंद्र – चंद्र लग्न, केंद्र, त्रिकोण मे हो तो धनवृद्धि, घर, खेत और वाहन मे वृद्धि होती है। चन्द्रमा उच्च, स्वग्रही हो तो स्त्री सुख, धन प्राप्ति, पुत्र लाभ, राजा से समागम होता है। क्षीण या पापयुक्त हो तो धन-धान्य का नाश, स्त्री पुरुष को कष्ट, भृत्य नाश और राज विरोध होता है। 6 । 8 । 12 हो तो जल से भय, मानसिक चिंता, बंधन (कारावास, नजरबन्द, अपहरण या अन्य) रोग, पीड़ा, मूत्रकच्छ, स्थानभ्रंस होता है। यदि दशनाथ 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 वे हो तो संतोष, स्त्री- पुत्र की वृद्धि, राज्य से लाभ, विवाह, रोग मुक्ति, द्रव्यलाभ और सुख होता है। दशानाथ 6। 8। 12 वे भाव मे हो तो धन हानि, रोग कष्ट, झंझट होती है।

सूर्य मे मंगल – उच्च या स्वग्रही 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 । 11 वे भाव मे हो तो इस दशाकाल में भूमि लाभ, धन प्राप्ति, मकान लाभ (नव निर्माण) पराक्रम वृद्धि, सेना मे उच्च पद, शासन से सम्बन्ध और भाइयो की वृद्धि, शत्रु नाश, मानसिक शांति होती है। दशेश सूर्य से मंगल 8। 12 हो या पापग्रह युक्त हो तो धन हानि, चिंता, भाइयो से विरोध, जेल, क्रूर बुद्धि, मानसिक रोग, उद्यमो मे असफलता आदि फल होते है। यदि मंगल नीच या बलहीन या पापग्रह से युत हो तो राज कोप के कारण धन नाश होता है। यदि मंगल द्वितीय भाव या सप्तम भाव का स्वामी हो तो रोग मुक्ति, आयु वृद्धि, रोमांच मे सफलता सम्भव होती है।

सूर्य मे राहु – राहु 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 12 वे भाव मे हो तो धन हानि, चोरी, सर्पदंश का भय, स्त्री-पुत्रो को कष्ट होता है। यदि राहु 3। 6 । 10 । 11 वे भाव मे हो तो राजमान्य, राजोन्नति, विदेश यात्रा, धनलाभ, भाग्यवृद्धि, स्त्री-पुत्रो को कष्ट होता है। दशा के स्वामी से राहु 8 । 12 वे भाव मे हो तो बंधन, स्थाननाश, कारावास, क्षय, अतिसार आदि रोग, सर्पदंश या घाव का भय होता है। यदि राहु द्वितीय या सप्तम मे हो तो अल्पमृत्यु हो सकती है। बृहत्पाराशर होरा शास्त्र अनुसार यदि लग्न से राहु केंद्र या त्रिकोण मे हो तो पहले दो माह मे अर्थ हानि, चोर भय, सर्प, धावो का आघात, स्त्री-बच्चो को कष्ट होता है किन्तु दो माह बाद प्रतिकूल प्रभाव विलीन हो जाते है और आनंद और आराम, अच्छा स्वास्थ्य, संतुष्टि, राजा और सरकार आदि के पक्ष मे अनुकूल प्रभाव होगे।

सूर्य मे गुरु – गुरु उच्च या स्वराशि या स्ववर्ग का 1। 4 । 5 । 7 । 9 ।10 । 11 वे भाव मे हो तो इस दशा काल मे विवाह, पदोन्नति, पुत्रोत्पत्ति, मंगलकार्य, पुत्र-पुत्री विवाह, अधिकार प्राप्ति, महपुरुषो के दर्शन, धन-धान्य की प्राप्ति, सरकार से सहयोग, इछाओ की पूर्ति होती है। दशेश यानि दशा के स्वामी से 6। 8 वे भाव मे नीच या पापग्रह से युत या अस्त या वक्री हो तो राजकोप, स्त्री-पुत्र को कष्ट, रोग, धननाश, शरीरनाश, मानसिक चिंताऐ रहती है। गुरु नवमेश या दशमेश हो तो विशेष शुभ और सुखकारी होता है।

सूर्य मे शनि – उच्च, स्वक्षेत्री, मित्रराशि 1 । 4 । 5 । 7 । 9 । 10 । 11 वे भाव मे शनि हो तो शत्रुनाश, विवाह, पुत्रलाभ और धन प्राप्ति होती है। यदि दशेश से 8।12 वे भाव मे नीच या पापग्रह से युति हो तो धननाश, पापकर्मरत, कलह और दर्द, रूमेटिज्म, पेचिस, जेल, उद्यमो से हानि, नानारोग, सहयोगी और दावेदारों से विवाद, झगडे होते है। यदि शनि द्वितीयेश या सप्तमेश हो तो अल्पमृत्यु भी हो सकती है। बृहत्पराशर होराशास्त्र अनुसार यदि शनि नीचस्थ हो तो दशा प्रारम्भ मे मित्रो से विछोह, मध्य मे अच्छे प्रभाव और अंत मे कष्ट होता है इनके आलावा शनि नीच का हो तो अन्य दुष्प्रभाव, अभिभावक से अलग होना, आवारागर्दी होती है।

सूर्य मे बुध – स्वगृही ;;या उच्चराशि या मित्रराशि बुध 1 । 4 । 5 । 7 । 9 । 10 । 11 वे भाव मे हो तो यह दशाकाल उत्साहवर्धक, सुखदायक, जीवंतता, तीर्थयात्रा, धनलाभ कराने वाली होती है। यदि शुभ राशि में हो तो सम्मान, पुत्र लाभ, विवाह आदि होते है। यदि 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो या दशा स्वामी से 12 वे भाव मे हो तो पीड़ा, आर्थिक संकट, राजभय होता है। बुध दशा स्वामी से 6 । 8 वे भाव मे नही हो सकता है। यदि बुध द्वितीयेश या सप्तमेश हो तो ज्वर, अर्श आदि रोग होते है। बुध यदि नवम भाव के स्वामी से युत है तो बहुत लाभकारी होता है। यदि नवम, पंचम, दशम भाव मे हो तो पुत्रजन्म लोगो के बीच सम्मान और लोकप्रियता, धार्मिक कर्मों और धार्मिक संस्कारो का प्रदर्शन, भक्त और देवताओं की भक्ति, धन और अनाज मे वृद्धि, शुभ प्रभाव होते है।

सूर्य मे केतु – केतु की अन्तर्दशा मे मनसन्ताप, मानसिक व्यथा, आपसी झगड़े, राजकोप, कुटम्बियो से वैमनस्य, शत्रुभय, धनहानि, पदच्युत, नेत्र रोग होते है। दशानाथ से केतु 8 । 12 वे भाव मे हो तो दन्त रोग, मूत्रकच्छ, स्थानभ्रंश, पिता की मृत्यु, शत्रुपीड़ा, परदेशगमन आदि फल होते है। द्वितीय या सप्तम स्थान का स्वामी केतु हो तो अल्पमृत्यु हो सकती है। यदि 2 । 3 । 6 । 10 । 11 वे भाव मे हो तो शुभ, सुखदायक होता है। बृहत्पराशर होराशास्त्र अनुसार यदि केतु लग्न के स्वामी से युत हो तो दशा के प्रारम्भ मे कुछ ख़ुशी मध्य मे कष्ट और अंत मे मृत्यु के समाचार मिलते है।

सूर्य मे शुक्र – शुक्र स्वक्षेत्री, उच्चराशि, मित्रराशि या उच्च के वर्ग में हो अथवा 1 । 4 । 5 । 7 । 9 । 10 । 11 वे भाव मे हो तो इस दशा काल मे संपत्ति लाभ, राज लाभ, यश लाभ और नाना प्रकार के सुख, विवाह, खुशी, दूसरे स्थानों की यात्रा, महानता और महिमा प्राप्त होते है। यदि शुक्र 6 । 8 या दशानाथ से 12 वे भाव हो तो राजकोप,
चित्त मे क्लेश, स्त्री पुत्र धन की हानि होती है। शुक्र यदि लग्न से 12 वे भाव में हो तो विशेष धन दाता होता है। आठवे स्थान मे शुक्र हो तो बदनामी होती है। बृहत्पराशर होराशास्त्र अनुसार शुक्र यदि 6 । 8 भाव के स्वामी से युत हो तो अपमृत्यु होती है। अन्तर्दशा प्रारम्भ मे प्रभाव मध्यम, मध्य मे प्रभाव अच्छे और अंत मे बुरे प्रभाव जैसे बदनामी, प्रतिष्ठा की हानि, रिश्तेदारो से दुश्मनी, आराम मे नुकसान होता है।

चंद्र दशा मे समस्त ग्रहो की अन्तर्दशा फल
चंद्र मे चंद्र – चन्द्रमा उच्च या स्वक्षेत्री या 1 । 5 । 7 । 9 । 10 । 11 वे स्थान मे हो या भाग्येश या कर्मेश से युत हो तो इस दशाकाल मे धनधान्य की प्राप्ति, यशलाभ, राजसम्मान, राजोन्नति, कन्याप्राप्ति, कन्या विवाह, अक्षयकीर्ति, पुस्तक लेखन, मंगल कार्य आदि फल मिलते है। इसमें उत्तम व्यक्तियो से परिचय होता है। पापयुक्त चन्द्रमा हो या नीच का हो या 6 । 8 वे स्थान मे हो तो धननाश, स्थानच्युत, संताप, आलस्य, खिन्नता, रोग, माता को कष्ट या मृत्यु, राजकोप, कारावास और भार्या को कष्ट होता है। यदि चंद्र द्वितीय या सप्तमेश हो या अष्टमेश या व्ययेश से युत हो तो अल्पायु या दुर्घटना होती है।

चंद्र मे मंगल – चंद्र मे मगल की अन्तर्दशा उत्तम रहती है। मंगल 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 । 11 वे भाव मे हो तो इस दशा काल मे सौभाग्य वृद्धि, राज्य से सम्मान, घर-क्षेत्र मे वृद्धि आदि फल होते है। 3 । 6 । 11 वे भाव मे हो या उच्च या स्वगृही हो तो राज्यवृद्धि, पदवृद्धि, समाजसम्मान, कार्यलाभ, सुखप्राप्ति, धनागम होता है। यदि मंगल 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो या पापयुक्त या पापदृष्ट 6 । 8 भाव मे हो या दशानाथ से 12 वे हो तो इसकी अंतर दशा मे घर-क्षेत्र की हानि, बन्धुओ से वियोग, कृषि हानि, व्यापार लेनदेन मे नुकसान, प्रतिद्वंदता, कर्मचारियो (नौकरो) और राजा से प्रतिकुल सम्बन्धो के कारण नुकसान, गर्म स्वभाव,अनेक कष्ट होते है।

चंद्र मे राहु – चंद्र मे राहु की अन्तर्दशा होने पर शत्रुपीड़ा, चोर-सर्प-राज भय, बांधवो का नाश, मित्रो से हानि, दुःख, संताप, अर्थक्षय, चिन्ता होती है। यदि राहु शुभग्रह से दृष्ट हो या कारक ग्रह से युत हो या 3 । 6 । 10 । 11 भाव मे हो तो कार्यसिद्धि, दक्षिण-पश्चिम दिशा मे लाभ, उद्यमाे मे सफलता होती है। दशेश से 8 । 12 वे स्थान पर हो तो स्थान भ्रंश, दुःख, पुत्र क्लेश, भय, स्त्री को कष्ट होता है। बृहत्पाराशर होराशास्त्र अनुसार दशानाथ से राहु केंद्र, त्रिकोण, तीसरे या ग्यारहवे हो तो पवित्र तीर्थ स्थलो की यात्रा, आलोकिक मंदिरो की यात्रा, लाभ, दान कार्य की ओर झुकाव होता है। द्वितीय या सप्तम मे हो तो शरीर पीड़ा होती है।

चंद्र मे गुरु – चंद्र मे गुरु की अन्तर्दशा श्रेष्ट व्यतीत होती है। गुरु उच्च या स्वगृही हो या लग्न से 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 वे भाव मे हो तो शासन से सम्मान, धनप्राप्ति, पुत्रलाभ, कीर्ति, मांगलिक उत्सव, इष्ट देवता का लाभ, राजकीय सहयता और लाभ, सभी उद्यमो में सफलता आदि फल होते है। यदि 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो या अस्त, नीच या शत्रु क्षेत्री हो तो अशुभ फल की प्राप्ति, गुरुजन अथवा पुत्र नाश, स्थानच्युत, कलह, दुःख आदि होते है। यदि दशा स्वामी यानि चन्द्र से 1। 3 । 4। 5 । 7 । 9 । 10 वे भाव मे हो तो धैर्य, पराक्रम, विवाह, धन लाभ व अन्य लाभ होते है। यदि दशानाथ से 6 । 8 । 12 हो तो जातक अल्पायु होता है। यदि दशानाथ से गुरु 3। 11 हो तो मवेशियो की वृद्धि, धान्य, ख़ुशी, भाइयो से ख़ुशी, संपत्ति, बहादुरी, धैर्य, दायित्व, उत्सव, विवाह जैसे अनुकूल प्रभाव होते है। अन्तर्दशा प्रारम्भ मे अच्छे प्रभाव और अंत मे दुष्प्रभाव होते है।

चंद्र मे शनि – शनि 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 ।11 वे भाव मे हो या स्वगृही या उच्च का हो या शुभ ग्रह से धृष्ट या युत हो या स्वनवांश मे हो तो इस दशाकाल मे पुत्र-धन मित्र की प्राप्ति, व्यवसाय मे लाभ, घर-खेत आदि की वृद्धि, शुद्रो से व्यापार मे लाभ राज्य कृपा से धन और महिमा, मित्रता होती है। यदि 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो या अस्त, नीच या शत्रु क्षेत्री या द्वितीय भाव मे हो तो पुण्य क्षेत्र मे स्नान, पूजा अर्चना, कष्ट, उदार पीड़ा, शूल, शस्त्र पीड़ा होती है। यदि दशानाथ से शनि केंद्र या त्रिकोण मे हो तो एक समय पर अर्थ लाभ तथा आराम और दूसरे समय पर विरोध तथा पत्नी व बच्चो से मनमुटाव होता रहता है।

चंद्र मे बुध – बुध उच्च या 1। 4 । 5 । 7 । 9 ।10 । 11 वे भाव मे हो तो राजा से आदर, विद्या लाभ, धन प्राप्ति, ज्ञान वृद्धि, संतान प्राप्ति, संतोष, व्यवसाय दूर प्रचुर लाभ, ननिहाल से धन लाभ, विवाह, पशु लाभ, लेखन, परीक्षा या प्रतियोगिता मे सफलता आदि फल होते है। यदि दशेश से बुध 2। 11 वे स्थान मे हो या केन्द्र या त्रिकोण मे हो तो निश्चय विवाह, धारासभा सदस्य, आरोग्य व सुख की प्राप्ति, यज्ञ, दान, धार्मिक कृत्य, विद्वान पुरुषो से सामाजिक संपर्क, राजा से निकट सम्बन्ध, रत्नो का संचय, सोमरस या अन्य स्वादिष्ट पेयो का आनन्द, होता है। यदि बुध 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो या अस्त, नीच या शत्रु क्षेत्री हो तो बाधा, कष्ट, भूमिनाश, कारावास, स्त्री-पुत्र को कष्ट होता है। यदि बुध द्वितीयेश या सप्तमेश हो तो ज्वर से पीड़ा होती है।

चन्द्र मे केतु – यदि केतु केंद्र या त्रिकोण या सहज भाव या बलवान हो तो धन प्राप्ति, पत्नी-बच्चो की ख़ुशी, भोग-उपभोग, धार्मिक झुकाव आदि होता है। अन्तर्दशा के प्रारम्भ मे थोड़ी अर्थ हानि होती है जो बाद मे ठीक हो जाती है। यदि दशा स्वामी से केतु केन्द्र या लाभ भाव या सहज भाव या त्रिकोण मे हो तो धन सुख, मवेशी की प्राप्ति होती है। अन्तर्दशा के अंत मे धनहानि होती है। यदि पापग्रह से युत या दृष्ट या 8 वे भाव मे हो या दशेश से 12 वे भाव मे हो तो कलह, दुश्मनो और झगड़ो के कारण उद्यमो मे बाधा होती है। यदि द्वितीय या सप्तम भाव मे हो तो आरोग्य की हानि होती है।

चंद्र मे शुक्र – शुक्र केन्द्र या लाभ स्थान या त्रिकोण मे हो या उच्च या स्वक्षेत्री हो तो इस दशा काल मे राज्य शासन मे अधिकार, मन्त्री या अधिकारी, ख्याति, स्त्री-पुत्र की वृद्धि, नवीन गृह निर्माण, सुख, रमणीय स्त्री का लाभ, विविध भोग, आरोग्य, मिष्ठान, इत्र-फुलेल आदि फल होते है। यदि शुक्र चंद्र की युति हो तो देहसुख, सुविख्यात, सुख-सम्पत्ति, घर खेत की वृद्धि आदि होती है। यदि 6 । 12 भाव मे हो तो विशेष धन लाभ होता है। यदि नीच या अस्तगत हो या पापग्रह से युत या धृष्ट हो तो धन भूमि पुत्र मित्र, पत्नी का नाश, दोषारोपण, संताप, व्याधि, कलह होता है। यदि शुक्र धनेश या उच्च या स्वग्रही हो तो निधि लाभ होता है। दशेश से 6 । 8 । 12 हो तो परदेश वास से दुःखी होता है। यदि द्वितीयेश या सप्तमेश हो तो अल्पायु भय होता है।

चंद्र मे सूर्य – सूर्य उच्च या स्वग्रही या 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 ।11 वे भाव मे हो तो राज सम्मान, धन लाभ, गृह सुख, मित्र और राजा के सहयोग से ग्राम या भूमि अधिग्रहण, संतान सुख, व्यापार वृद्धि,खोया धन व राज्य, उन्नति का सुयोग मिलता है। यदि 8 । 12 हो तो चोर-सर्प-राज से भय, नेत्र पीड़ा, पिता की मृत्यु, परदेश गमन आदि फल होते है। यदि 2 । 7 भाव का स्वामी हो या अंतरदशा दस अंत मे तन्द्रा, ज्वर बाधा होती है।

मंगल दशा मे समस्त ग्रहो की अन्तर्दशा फल
मंगल मे मंगल – मंगल 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 वे भाव मे हो लग्नेश से युत हो त्रिकोणेश या 2, 3 भाव मे हो इसकी दशा काल में वैभव की प्राप्ति, धनलाभ, पुत्रप्राप्ति, सुखप्राप्ति होती है। यदि उच्च या स्वगृही हो तो घर- खेत की वृद्धि या धनलाभ, भूमि क्रय-विक्रय से लाभ, पुलिस या सेना मे हो तो पदलाभ होता है। यदि 8 । 12 हो तो मूत्रकच्छ, रोग, धाव, फोड़ा-फुंसी, सर्प चोर भय, राज्य से पीड़ा आदि होते है। यदि द्वितीयेश या सप्तमेश हो तो शारीरिक कष्ट होता है।
➧ मतान्तर अनुसार मंगल मे मंगल की अन्तर्दशा काल मे गृह कलह, परिवार मे विरोध, राजयचिंता, नौकरी मे मुअत्तली या पदावनति, काम बिगड़ना, शारीरिक गर्मी, क्रोध का आधिक्य, चिन्ता जैसे अशुभ फल होते है।

मंगल मे राहु – राहु उच्च, मूलत्रिकोण, शुभ ग्रह से दृष्ट या 3 । 6 । 11 वे स्थान मे हो तो इस दशा काल मे राजा से सम्मान, धर खेत का लाभ, व्यवसाय मे असाधारण लाभ, परदेश गमन आदि फल होते है। यदि पापग्रह युत 8 । 12 स्थान मे हो तो चोर सर्प राज भय, वात-पित्त- कफ विकार, क्षयरोग, जेल आदि फल होते है। राहु द्वितीय भाव मे हो तो धन नाश और सप्तम मे हो तो असमय मरण हो सकता है।

मंगल मे गुरु – गुरु 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 ।11 वे भाव मे हो या उच्च, स्वगृही, मूलत्रिकोण या स्वनवांश मे हो तो इस दशा मे अच्छी प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि, यश लाभ, देश मे मान्य, धन-धान्य की वृद्धि, शाशन मे अधिकार, लाभ, उच्च कोटि का ग्रन्थ लेखन, पुत्र लाभ, विवाह, परिवार और जाति मे सम्मान होता है। यदि दशानाथ से गुरु 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 ।11 वे भाव मे हो कृषिभूमि, मकान आदि की वृद्धि, आरोग्य लाभ, यश प्राप्ति, व्यापार मे लाभ, उद्यम मे सफलता, ऐश्वर्य आदि फल होते है। यदि 6 । 8 । 12 वे स्थान मे हो, अस्त, नीच, पापग्रह से युत या दृष्ट हो तो घर में चोरी, पित्त विकार, राज्य से हानि, पदावनति, भातृ नाश, उन्मत्तता होती है।

मंगल मे शनि – शनि स्वक्षेत्री या उच्च या मूलत्रिकोण मे हो तो ही शुभ फलदायक होकर राज सुख, यश वृद्धि पुत्र-पौत्र की प्राप्ति देता है। अन्य स्थतियो मे या नीच या अस्तगत या शत्रुक्षेत्री या 8 । 12 वे स्थान मे हो तो स्त्री बाधा, संतान पीड़ा, शारीरिक कष्ट, मुकदमे मे पराजय, धन हानि, स्थानांतरण, जेल, रोग, चिंता, कष्ट आदि अशुभ फल होते है।
➧ बृहत्पाराशर होराशास्त्र अनुसार यदि शनि लग्न के स्वामी या शुभ ग्रह से युत हो तो शुभ फल दशा काल मे शनिवार को विशेषकर मिलते है इसी प्रकार शनि यदि द्वितीय या सप्तम के स्वामी या पापग्रह से युत हो तो महा खतरा, जीवन की हानि, राजा का क्रोध, मानसिक पीड़ा, चोरों और आग से खतरा, राजा द्वारा दंड, सह-जन्म के नुकसान, परिवार के सदस्यों मे असंतोष, मवेशियों का नुकसान, मृत्यु का डर, पत्नी और बच्चों को परेशानी, कारावास इत्यादि प्रभाव महसूस होते है । दशानाथ से शनि केन्द्र या ग्यारहवे या पांचवे स्थान मे हो तो विदेशी भूमि की यात्राऐ, प्रतिष्ठा का नुकसान, हिंसक कार्य, कृषि भूमि की बिक्री से हानि, स्थिति मे कमी, पीड़ा, युद्ध मे हार, मूत्र संबंधी परेशानी इत्यादि होते है।

मंगल मे बुध – बुध लग्न से केन्द्र या त्रिकोण मे हो तो धार्मिक और पवित्र लोगो से सहयोग, दान, धार्मिक संस्कारों का सम्मान, प्रतिष्ठा का लाभ, कूटनीति की ओर झुकाव, राजा के पुनरुत्थान मे अधिकार का सम्मान, कृषि परियोजनाओ मे सफलता, सुन्दर कन्या का जन्म, यश लाभ, धर्म में रुची, न्याय से प्रेम होता है तथा स्वादिष्ट व्यजनो की प्राप्ति होती है। नीच अस्त वक्री या 6 । 8 । 12 वे स्थान मे हो तो हृदय रोग, पैरो मे बेड़ी का पड़ना, असंतोष, गृह कलह, स्त्री मरण, पुत्र मरण, बंधुओ का नाश, नाना कष्ट होते है। यदि दशेश से बुध 6 । 8 । 12 वे स्थान मे हो या पापग्रह से युत हो तो मानहानि व्याधि, पाप पूर्ण सोच, कठोर भाषण, चोरो, आग और राजा से खतरे, कारणो के बिना झगड़ा होता है।
➧ बृहत्पाराशर होराशास्त्र अनुसार यदि बुध दशा के स्वामी से युत हो तो विदेशी भूमि की यात्रा, दुश्मनो की संख्या में वृद्धि, कई प्रकार की बीमारियो के साथ दुःख, राजा के साथ विरोध होता है। यदि दशानाथ से केन्द्र या त्रिकोण या उच्च राशि मे हो तो सभी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति, धन और अनाज का लाभ, राजा द्वारा मान्यता, राज्य का अधिग्रहण, कपड़े और गहने का लाभ, कई प्रकार के संगीत वाद्ययंत्रो से जुड़ाव, सेना के कमांडर की स्थिति की प्राप्ति, शास्त्रो और पुराण पर चर्चाएं, पत्नी और बच्चो के लिए धन का लाभ और देवी लक्ष्मी का लाभ बहुत शुभ परिणाम होते है।

मंगल मे केतु – मंगल में केतु की अन्तर्दशा मे पेट रोग, बंधुओ से विग्रह, दुष्टो से शारीरिक क्षति, अग्नि से संपत्ति नाश, व्याधि, भय, कष्ट अदि होते है। केतु शुभग्रह से धृष्ट या युत हो तो धन भूमि पुत्र का लाभ, यशवृधि, सेनापति, सम्मान आदि होता है। यदि केतु दशा स्वामी से 6 । 8 । 12 वे स्थान मे हो या पापग्रह से युत हो तो व्याधि, भय, अविश्वास, कष्ट आदि होता है। यदि केतु धन या युवती मे है तो बीमारिया, अपमान, पीड़ा और धन की हानि होगी। यदि केन्द्र या त्रिकोण के स्वामी से युति है तो कुछ शुभ फल होगे।

मंगल मे शुक्र – शुक्र 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 वे भाव मे हो या उच्च, स्वगृही, मूलत्रिकोण या 6।12 भाव मे हो तो इस दशा काल मे राज्य लाभ, राज्य सम्मान, आभूषण प्राप्ति, सुख प्राप्ति होती है। यदि लग्नेश से युत हो तो पुत्र-स्त्री आदि की वृद्धि, ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। इस दशा मे प्रेम सम्बन्धो मे वृद्धि होती है, जातक भावुक, मनमौजी, कल्पनाशील, शानशौकत पर खर्चीला हो जाता है। यदि दशा के स्वामी से 5 । 9 । 11 । 2 वे भाव मे हो लक्ष्मी की प्राप्ति, संतान सुख, सुख की प्राप्ति, नृत्य गीत का होना, तीर्थ यात्रा आदि होता है। यदि शुक्र कर्मेश से युत हो तो जातक तालाब, कुंवा, धर्मशाला आदि परोपकारी कार्य करता है। दशा स्वामी से 6 । 8 । 12 वे स्थान मे हो तो कष्ट, झंझट, संतान चिंता, धन नाश, मिथ्यापवाद, कलह आदि होते है।

मंगल मे सूर्य – सूर्य उच्च, स्वगृही, मूलत्रिकोण, केंद्र या त्रिकोण मे हो या कर्म या लाभ के स्वामी के साथ हो तो धन लाभ, यश प्राप्ति, पुत्र लाभ, धन-धान्य की वृद्धि, परिवार मे सुखद वातावरण, व्यापार मे असाधारण लाभ, शक्ति होती है। दशानाथ से 6 । 8 । 12 वे स्थान मे हो या पापग्रह से धृष्ट या युत हो तो पीड़ा, संताप, धन नाश, कष्ट, कार्य बाधा होती है।

मंगल मे चन्द्र – चंद्र उच्च या मूलत्रिकोणी या स्वग्रही या शुभयुक्त केन्द्र या त्रिकोण मे हो या नवम, चतुर्थ, दशम, लग्न के स्वामी के साथ हो तो इस दशा काल मे राज्य लाभ, मंत्रिपद, सम्मान, उत्सवो का होना, विवाह, स्त्री-पुत्र का सुख, माता-पिता का सुख, मनोरथ सिद्धि, अधिक साम्राज्य का अधिग्रहण, जलाशयो का निर्माण, शुभ कार्यों के जश्न, संपत्ति के अधिग्रहण से लाभ संप्रभु, वांछित परियोजनाओ मे सफलता आदि फल होता है। चन्द्रमा वृद्धिगत (शुक्लपक्ष) हो तो प्रभाव पूरी तरह होते है और क्षीण चंद्र (कृष्णपक्ष) हो तो प्रभाव कुछ कम हद तक होते है। दशेश या लग्न से 6 । 8 । 12 वे स्थान मे हो या नीच या शत्रु राशि मे हो तो स्त्री-पुत्र की हानि, पशु और धान्य का नाश, मृत्यु, चोर भय, भूमि का नुकसान आदि होते है। यदि द्वितीय या सप्तम का स्वामी हो तो समय से पहले मृत्यु, शारीरिक कष्ट, मानसिक पीड़ा की सम्भावना होती है।

राहु की दशा मे समस्त ग्रहो की अन्तर्दशा फल
राहु मे राहु – कर्क, वृषभ, वृश्चिक, धनु राशि का राहु हो तो सम्मान, शासन लाभ, व्यापार मे लाभ होता है। राहु 3 । 6 । 11 वे स्थान मे हो, शुभग्रह से दृष्ट या युत हो या उच्च का हो तो इसकी दशा मे राज्य शासन मे उच्च पद, उत्साह, कल्याण होता है। 8 । 12 वे स्थान मे पापग्रह से युत या दृष्ट हो तो कष्ट, हानि, बंधुओ का वियोग, झंझटे चिंताए आदि फल होते है। सप्तम में हो तो रोग होते है।
➧ मतान्तर – राहु दशा मे राहु की अंतर दशा काल मे स्वास्थ्य मे गिरावट, तनाव, चिंता, समय से पहले मृत्यु, स्थानांतरण, पदावनाति होती है। राहु सप्तम मे हो तो पत्नी का मरण, दूसरे मे हो तो प्रचुर धन क्षय होता है।

राहु मे गुरु – गुरु केन्द्र त्रिकोण मे हो या उच्च, स्वगृही, मूलत्रिकोण स्वनवांश मे हो तो इस दशा काल मे शत्रु नाश, पूजा, ईश्वर अराधन, लेखन, यश, सम्मान, सवारी, स्वास्थ्य लाभ, रोग मुक्ति, धैर्य, दुश्मनो का विनाश, आनंद, राजा के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध, धन और संपत्ति मे नियमित वृद्धि, पश्चिम या दक्षिण-पूर्व की यात्रा, वांछित उद्यमो मे सफलता, देवताओ और ब्राह्मणो की भक्ति आदि होते है। गुरु यदि नीच, अस्त, शत्रु राशि लग्न या दशा स्वामी से 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो तो धन हानि, विघ्न-बाधाओ का बाहुल्य, कष्ट, पीड़ा, बदनामी आदि होते है। यदि गुरु दशानाथ से केंद्र या त्रिकोण, ग्यारह या दूसरा या तीसरा और बलवान है तो भूमि लाभ, अच्छा भोजन, मवेशियों के लाभ इत्यादि, धर्मार्थ और धार्मिक कार्य के प्रति झुकाव होता है।

राहु मे शनि – शनि केन्द्र त्रिकोण या एकादश भाब मे हो या उच्च, स्वक्षेत्री मूलत्रिकोणी हो तो उसकी दशा मे उत्सव, लाभ, सम्मान, बड़े कार्य, धर्मशाला, तालाब का निर्माण, आमदनी मे कमी, शूद्रो से धन वृद्धि, पश्चिम की यात्रा से राज्य द्वारा धन हानि आदि फल होते है। नीच शत्रुक्षेत्री होकर 8 । 12 वे भाव मे हो तो स्त्री-पुत्र का मरण, स्थानांतरण, विरोध, लड़ाई-झगड़ा, अनेक कष्ट आदि होते है। यदि 2। 7 का स्वामी हो तो असामयिक मृत्यु हो सकती है। यदि दशानाथ से शनि 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो तो हृदय रोग, मानहानि, झगड़े, दुश्मनो से खतरे, विदेशी यात्रा, गुल्म के साथ दिक्कत, अस्वास्थ्यकर भोजन और दुःख इत्यादि होते है।

राहु मे बुध – बुध केंद्र, त्रिकोण, उच्च, स्वगृही और बलवान हो तो कल्याण, व्यापार से लाभ व धन प्राप्ति, यश लाभ विद्या प्राप्ति, विवाहोत्सव, बिस्तर और महिलाओ के आराम, राज योग जैसे फल आदि होते है। यदि 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो या शनि की राशि मे हो या शनि से युत या दृष्ट हो या दशा स्वामी से 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो तो कलह, संकट, राजकोप, पुत्र वियोग होता है। यदि बुध द्वितीय या सप्तम का स्वामी हो तो अकाल मृत्यु हो सकती है। यदि बुध दशा का स्वामी से केन्द्र या दशा स्वामी से 11। 3। 9।10 वे भाव मे हो तो अच्छा स्वास्थ्य, इष्ट सिद्धी, पुराणो और प्राचीन इतिहास पर प्रवचन श्रवण, विवाह, भाषण, दान, धार्मिक झुकाव और दूसरों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण होता है।

राहु मे केतु – राहु मे केतु मे अंतर मे वातज्वर, भ्रमण, मानहानि, पशुओ का मरण, स्वजन का विछोह, नाना प्रकार के उपद्रव और दुःख होता है। यदि शुभग्रह से केतु युति हो तो धन की प्राप्ति, सम्मान, भूमि लाभ, आनंद, राजा द्वारा मान्यता, सोने का अधिग्रहण होता है। यदि केन्द्र त्रिकोण या बारवे भाव में केतु हो तो इस दशा काल मे अधिक कष्ट होता है। यदि केतु आठवे स्थान के स्वामी से युत है तो शारीरिक परेशानी और मानसिक तनाव होगा। यदि लग्न के स्वामी से युत या दृष्ट है तो इष्ट सिद्धि, और धन लाभ होता है।

राहु मे शुक्र – शुक्र 1। 4 । 5 । 7 । 9 । 10 ।11।12 वे भाव मे हो तो उसकी दशा मे पुत्रोत्सव, राज सम्मान, वैभव प्राप्ति, विवाह, ब्राह्मणो से अर्थ प्राप्ति, राज्य से मान्यता व सरकार मे उच्च पद, आराम और सुख सुविधा आदि होते है। 6।8 भाव मे शुक्र नीच, शत्रु क्षेत्री, शनि या मंगल से युत हो तो रोग, कलह, वियोग, बंधु, हानि, स्त्री को पीड़ा, शूल रोग, बदनामी आदि फल होते है। यदि दशेश से 6 । 8 । 12 वे भाव मे हो तो अचानक विपत्ति, झूठे दोषारोपण, प्रमेह-मधुमेह आदि रोग होते है। यदि दूसरे या सप्तम का स्वामी हो तो दुर्घटना या अकाल मृत्यु की संभावना होती है।

राहु मे सूर्य – सूर्य स्वक्षेत्री या उच्च का हो या केन्द्र या 5 । 9 । 11 भाव में हो तो धन-धान्य की वृद्धि, कीर्ति, परदेश गमन, राज्याश्रय से धन प्राप्ति, प्रसिद्धि और सम्मान, ग्राम मुखिया की सम्भावना होती है। सूर्य नीच राशि या लग्न या दशा स्वामी से 6 । 8 । 12 वे नीच का हो तो ज्वर, अतिसार, कलह, राज द्वेष, नेत्र पीड़ा, अग्नि पीड़ा, झगड़े, राजा के साथ विरोध, यात्रा, दुश्मनो, चोरो, आग आदि से खतरे आदि फल होते है। यदि लग्न, धन, कर्म (1,2, 10) के स्वामियों की सूर्य पर दृष्टि हो तो सरकार द्वारा अच्छी प्रतिष्ठा और प्रोत्साहन और सहायता, विदेशी देशो की यात्रा, देश की संप्रभुता का अधिग्रहण, गहने, महत्वाकांक्षाओ की पूर्ति, बच्चों को खुशी आदि होते है। यदि 2 रे और 7 वे भाव स्वामी हो तो असाध्य रोग हो सकता है।

राहु मे चन्द्र – बलवान चन्द्रमा केंद्र या त्रिकोण या 11 वे हो या स्वग्रही या मित्र राशि मे तो इस दशा काल मे ख़ुशी, धनागम, सम्पत्ति मे वृद्धि, सुख सम्रद्धि होती है। दशेश या लग्न से 6 । 8 । 12 वे या नीच का हो तो अनेक प्रकार के कष्ट, धन हानि, मुकदमा आदि से कष्ट, विवाद होता है। देवी लक्ष्मी की लाभार्थ, पूरे दौर की सफलता, धन और अनाज मे वृद्धि, अच्छी प्रतिष्ठा और देवताओ की पूजा परिणाम होगा, यदि चन्द्र दशा स्वामी से 5 वे, 9 वे, केन्द्र मे या 11 वे स्थान पर हो।

राहु मे मंगल – मंगल केन्द्र या त्रिकोण या 11 भाव, उच्च या स्वग्रही हो तो उसकी दशा मे खेत, घर की वृद्धि, संतान सुख, शरीरिक कष्ट, अकस्मात किसी प्रकार की विपत्ति, नौकरी मे परिवर्तन, उच्च पद की प्राप्ति, खोये हुए धन की वसूली, कृषि उत्पादन मे वृद्धि, घरेलू ईश्वर का आशीर्वाद, अच्छे भोजन का आनंद होता है। यदि मंगल दशा स्वामी से केन्द्र या त्रिकोण या 3, 11 वे भाव मे हो तो लाल रंग के वस्त्र, बच्चो वे नियोक्ता के कल्याण, राजा के दरबारी, सेना मे कमांडर पद पर पदोन्नति, उत्साह, रिश्तेदारो के माध्यम से धन होता है। दशेश से 6 । 8 । 12 वे या पापयुक्त हो तो सहोदर भाई को पीड़ा, हानि, अनेक प्रकार की झन्झटे आती है। मतान्तर से नाना प्रकार के उपद्रव, थकान, मानसिक चिंता, बाधा, स्मरण शक्ति का ह्रास, असफलता पदावनति होती है।
[Mmk प्रथम भाव

जन्म कुंडली में प्रथम भाव यानि लग्न का विशेष महत्व है। हिन्दू ज्योतिष शास्त्र की उत्पत्ति ऋग्वेद से हुई है, इसलिए इसे वैदिक ज्योतिष कहा गया है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जन्म कुंडली में कुल 12 भाव होते हैं और हर भाव की अपनी विशेषताएँ और महत्व होता है। इनमें प्रथम भाव को इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह मनुष्य के व्यक्तित्व, स्वभाव, आयु, यश, सुख और मान-सम्मान आदि बातों का बोध कराता है। प्रथम भाव को लग्न या तनु भाव भी कहा जाता है। हर व्यक्ति के जीवन का संपूर्ण दर्शन लग्न भाव पर निर्भर करता है।

लग्न का महत्व और विशेषताएँ

जब कोई भी व्यक्ति जन्म लेता है तो उस समय विशेष में आकाश में स्थित राशि, नक्षत्र और ग्रहों की स्थिति के प्रभाव को ग्रहण करता है। दूसरे शब्दों में जन्म के समय पूर्वी क्षितिज पर जो राशि उदय होती है, वही व्यक्ति का लग्न बन जाता है। लग्न के निर्धारण के बाद ही कुंडली का निर्माण होता है। जिसमें ग्रहों की निश्चित भावों, राशि और नक्षत्रों में स्थिति का पता चलता है। इसलिए बिना लग्न के जन्म कुंडली की कल्पना नहीं की जा सकती है।

ज्योतिष में प्रथम भाव से क्या देखा जाता है?

प्रथम भाव का कारक सूर्य को कहा जाता है। इस भाव से व्यक्ति की शारीरिक संरचना, रुप, रंग, ज्ञान, स्वभाव, बाल्यावस्था और आयु आदि का विचार किया जाता है। प्रथम भाव के स्वामी को लग्नेश का कहा जाता है। लग्न भाव का स्वामी अगर क्रूर ग्रह भी हो तो, वह अच्छा फल देता है।

शारीरिक संरचना: प्रथम भाव से व्यक्ति की शारीरिक बनावट और कद-काठी के बारे में पता चलता है। यदि प्रथम भाव पर जलीय ग्रहों का प्रभाव अधिक होता है तो व्यक्ति मोटा होता है। वहीं अगर शुष्क ग्रहों और राशियों का संबंध लग्न पर अधिक रहता है तो जातक दुबला होता है।
स्वभाव: किसी भी व्यक्ति के स्वभाव को समझने के लिए लग्न का बहुत महत्व है। लग्न मनुष्य के विचारों की शक्ति को दर्शाता है। यदि चतुर्थ भाव, चतुर्थ भाव का स्वामी, चंद्रमा, लग्न व लग्न भाव के स्वामी पर शुभ ग्रहों का प्रभाव होता है तो व्यक्ति दयालु और सरल स्वभाव वाला होता है। वहीं इसके विपरीत अशुभ ग्रहों के प्रभाव से व्यक्ति क्रूर प्रवृत्ति का होता है।
आयु और स्वास्थ्य: प्रथम भाव व्यक्ति की आयु और सेहत को दर्शाता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार जब लग्न, लग्न भाव के स्वामी के साथ-साथ सूर्य, चंद्रमा, शनि और तृतीय व अष्टम भाव और इनके स्वामी मजबूत हों तो, व्यक्ति को दीर्घायु एवं उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। वहीं यदि इन घटकों पर क्रूर ग्रहों का प्रभाव हो या कमजोर हों, तो यह स्थिति व्यक्ति की अल्पायु को दर्शाती है।
बाल्यकाल: प्रथम भाव से व्यक्ति के बचपन का बोध भी होता है। ज्योतिषीय गणनाओं के अनुसार यदि लग्न के साथ लग्न भाव के स्वामी और चंद्रमा पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव हो, तो व्यक्ति को बाल्यकाल में शारीरिक कष्ट उठाने पड़ते हैं। वहीं शुभ ग्रहों के प्रभाव से बाल्यावस्था अच्छे से व्यतीत होती है।
मान-सम्मान: प्रथम भाव मनुष्य के मान-सम्मान, सुख और यश को भी दर्शाता है। यदि लग्न, लग्न भाव का स्वामी, चंद्रमा, सूर्य, दशम भाव और इनके स्वामी बलवान अवस्था में हों, तो व्यक्ति को जीवन में मान-सम्मान प्राप्त होता है।
वैदिक ज्योतिष के पुरातन ग्रन्थों में प्रथम भाव

“उत्तर-कालामृत” के अनुसार, “प्रथम भाव मुख्य रूप से मनुष्य के शरीर के अंग, स्वास्थ्य, प्रसन्नता, प्रसिद्धि समेत 33 विषयों का कारक होता है।”
प्रथम भाव को मुख्य रूप से स्वयं का भाव कहा जाता है। यह मनुष्य के शरीर और शारीरिक संरचना का प्रतिनिधित्व करता है। यह हमारे शरीर के ऊपरी हिस्से जैसे चेहरे की बनावट, नाक-नक्शा, सिर और मस्तिष्क आदि को प्रकट करता है। काल पुरुष कुंडली में प्रथम भाव मेष राशि को दर्शाता है, जिसका स्वामी ग्रह मंगल है।

सत्याचार्य के अनुसार, कुंडली में प्रथम भाव अच्छे और बुरे परिणाम, बाल्यकाल में आने वाली समस्याएँ, हर्ष व दुःख और देश या विदेश में निवेश की संभावनाओं को प्रकट करता है।
नाम, प्रसिद्धि और सामाजिक प्रतिष्ठा का विचार भी लग्न से किया जा सकता है। उच्च शिक्षा, लंबी यात्राएँ, पढ़ाई के दौरान छात्रावास में जीवन, बच्चों के अनजान और विदेशी लोगों से संपर्कों (विशेषकर पहली संतान के) का बोध भी लग्न से किया जाता है।

‘प्रसन्नज्ञान’ में भट्टोत्पल कहते हैं कि जन्म, स्वास्थ्य, हर्ष, गुण, रोग, रंग, आयु और दीर्घायु का विचार प्रथम भाव से किया जाता है।
प्रथम भाव से मानसिक शांति, स्वभाव, शोक, कार्य की ओर झुकाव, दूसरों का अपमान करने की प्रवृत्ति, सीधा दृष्टिकोण, संन्यास, पांच इंद्रियां, स्वप्न, निंद्रा, ज्ञान, दूसरों के धन को लेकर नजरिया, वृद्धावस्था, पूर्वजन्म, नैतिकता, राजनीति, त्वचा, शांति, लालसा, अत्याचार, अहंकार, असंतोष, मवेशी और शिष्टाचार आदि का बोध होता है।

मेदिनी ज्योतिष में लग्न से पूरे देश का विचार किया जाता है, जो कि राज्य, लोगों और स्थानीयता को दर्शाता है।
प्रश्न ज्योतिष में प्रथम भाव प्रश्न पूछने वाले को दर्शाता है।
प्रथम भाव का अन्य भावों से अंतर्संबंध

प्रथम भाव अन्य भावों से भी अंतर्संबंध बनाता है। यह पारिवारिक धन की हानि को भी दर्शाता है। यदि आप विरासत में मिली संपत्ति को स्वयं के उपभोग के लिए इस्तेमाल करते हैं, अतः यह संकेत करता है कि आप अपने धन की हानि कर रहे हैं। इससे आपके स्वास्थ्य के बारे में भी पता चलता है, अतः आप विरासत में मिले धन को इलाज पर भी खर्च कर सकते हैं। यह मुख्य रूप से अस्पताल के खर्च, कोर्ट की फीस और अन्य खर्चों को दर्शाता है। यह भाव भाई-बहनों की उन्नति और स्वयं अपने प्रयासों, कौशल और संवाद के जरिये तरक्की करने का बोध कराता है।

प्रथम भाव करियर, सम्मान, माता की सामाजिक प्रतिष्ठा, आपके बच्चों की उच्च शिक्षा, आपके बच्चों के शिक्षक, आपके बच्चों की लंबी दूरी की यात्राएँ, बच्चों का भाग्य, आपके शत्रुओं की हानि और उन पर आपकी विजय को प्रकट करता है। इसके अतिरिक्त यह कर्ज और बीमारी को भी दर्शाता है।

यह भाव आपके जीवनसाथी और उसकी इच्छाओं के बारे में दर्शाता है। इसके अतिरिक्त यह भाव आपके ससुराल पक्ष के लोगों की सेहत और जीवनसाथी की सेहत को भी प्रकट करता है। ठीक इसी प्रकार प्रथम भाव पिता के व्यवसाय से जुड़ी संभावनाओं को दर्शाता, पिता के भाग्य, पिता के बच्चों (यानि आप) और उनकी शिक्षा के बारे में बताता है।

लग्न भाव आपकी खुशियां और समाज में आपकी प्रतिष्ठा को भी दर्शाता है। वहीं कार्यस्थल पर अपने कौशल से वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा मिलने वाली प्रशंसा को भी प्रकट करता है। यह बड़े भाई-बहनों के प्रयास और उनकी भाषा, स्वयं के प्रयासों द्वारा अर्जित आय का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह भाव धन संचय के अलावा व्यय को भी दर्शाता है।
[ द्वितीय भाव

कुंडली के 12 भावों में से द्वितीय भाव को कुंटुंब भाव और धन भाव के नाम से जाना जाता है। यह भाव धन से संबंधित मामलों को दर्शाता है, जिसका हमारे दैनिक जीवन में बड़ा महत्व है। द्वितीय भाव परिवार, चेहरा, दाईं आँख, वाणी, भोजन, धन या आर्थिक और आशावादी दृष्टिकोण आदि को दर्शाता है। यह भाव ग्रहण करने, सीखने, भोजन और पेय, चल संपत्ति, पत्र व दस्तावेज का प्रतिनिधित्व करता है।

द्वितीय भाव का महत्व और विशेषताएँ

वैदिक ज्योतिष में द्वितीय भाव से धन, संपत्ति, कुटुंब परिवार, वाणी, गायन, नेत्र, प्रारंभिक शिक्षा और भोजन आदि बातों का विचार किया जाता है। इसके अतिरिक्त यह भाव जातक के द्वारा जीवन में अर्जित किये गये स्वर्ण आभूषण, हीरे तथा अन्य बहुमूल्य पदार्थों के बारे में भी बोध कराता है। द्वितीय भाव को एक मारक भाव भी कहा जाता है।

ज्योतिष में द्वितीय भाव से क्या देखा जाता है?

द्वितीय भाव का कारक ग्रह बृहस्पति को माना गया है। इस भाव से धन, वाणी, संगीत, प्रारंभिक शिक्षा और नेत्र आदि का विचार किया जाता है।

आर्थिक स्थिति: कुंडली में आमदनी और लाभ का विचार एकादश भाव के अलावा द्वितीय भाव से भी किया जाता है। जब द्वितीय भाव और एकादश भाव के स्वामी व गुरु मजबूत स्थिति में हों, तो व्यक्ति धनवान होता है। वहीं यदि कुंडली में इनकी स्थिति कमजोर हो तो, आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
शुरुआती शिक्षा: चूंकि द्वितीय भाव का व्यक्ति की बाल्य अथवा किशोरावस्था से गहरा संबंध होता है इसलिए इस भाव से व्यक्ति की प्रारंभिक शिक्षा देखी जाती है।
वाणी, गायन और संगीत: द्वितीय भाव का संबंध मनुष्य के मुख और वाणी से होता है। यदि द्वितीय भाव, द्वितीय भाव के स्वामी और वाणी का कारक कहे जाने वाले बुध ग्रह किसी प्रकार से पीड़ित हो, तो व्यक्ति को हकलाने या बोलने में परेशानी रह सकती है। चूंकि द्वितीय भाव वाणी से संबंधित है इसलिए यह भाव गायन अथवा संगीत से भी संबंध को दर्शाता है।
नेत्र: द्वितीय भाव का संबंध व्यक्ति के नेत्र से भी होता है। इस भाव से प्रमुख रूप से दायें नेत्र के बारे में विचार करते हैं। यदि द्वितीय भाव में सूर्य अथवा चंद्रमा पापी ग्रहों से पीड़ित हों या फिर द्वितीय भाव व द्वितीय भाव के स्वामी पर क्रूर ग्रहों का प्रभाव हो, तो व्यक्ति को नेत्र पीड़ा या विकार हो सकते हैं।
रूप-रंग और मुख: द्वितीय भाव मनुष्य के मुख और चेहरे की बनावट को दर्शाता है। यदि द्वितीय भाव का स्वामी बुध अथवा शुक्र हो और बलवान होकर अन्य शुभ ग्रहों से संबंधित हो, तो व्यक्ति सुंदर चेहरे वाला होता है, साथ ही व्यक्ति अच्छा बोलने वाला होता है।
वैदिक ज्योतिष के पुरातन ग्रन्थों में द्वितीय भाव

उत्तर-कालामृत के अनुसार, द्वितीय भाव नाखून, सच और असत्य, जीभ, हीरे, सोना, तांबा और अन्य मूल्यवान स्टोन, दूसरों की मदद, मित्र, आर्थिक संपन्नता, धार्मिक कार्यों में विश्वास, नेत्र, वस्त्र, मोती, वाणी की मधुरता, सुंगधित इत्र, धन अर्जित करने के प्रयास, कष्ट, स्वतंत्रता, बोलने की बेहतर क्षमता और चांदी आदि को दर्शाता है।

द्वितीय भाव आर्थिक संपन्नता, स्वयं द्वारा अर्जित धन या परिवार से मिले धन को दर्शाता है। यह भाव पैतृक, वंश, महत्वपूर्ण वस्तु या व्यक्ति आदि का बोध भी कराता है। कालपुरुष कुंडली में द्वितीय भाव की राशि वृषभ होती है जबकि इस भाव का स्वामी शुक्र को कहा जाता है।

प्रसन्नज्ञान में भट्टोत्पल कहते हैं कि द्वितीय भाव मोती, माणिक्य रत्न, खनिज पदार्थ, धन, वस्त्र और व्यवसाय को दर्शाता है।

मेदिनी ज्योतिष के अनुसार, द्वितीय भाव का आर्थिक मंत्रालय, राज्य की बचत, बैंक बेलैंस, रिजर्व बैंक की निधि या धन व आर्थिक मामलों से संबंध है।

प्रश्न ज्योतिष के अनुसार, द्वितीय भाव धन से जुड़े प्रश्न का निर्धारण करता है। इनमें लाभ या हानि, व्यवसाय से वृद्धि आदि बातें प्रमुख हैं।

द्वितीय भाव का अन्य भावों से अंतर्संबंध

द्वितीय भाव कुंडली के अन्य भावों से भी अंतर्संबंध रखता है। यह भाव छोटे भाई-बहनों को हानि, उनके खर्च, छोटे भाई-बहनों से मिलने वाली मदद और उपहार, जातक के हुनर और प्रयासों में कमी को दर्शाता है। द्वितीय भाव आपकी माँ के बड़े भाई-बहन, आपकी माँ को होने वाले लाभ और वृद्धि, समाज में आपकी माँ के संपर्क आदि को भी प्रकट करता है। वहीं द्वितीय भाव आपके बच्चों की शिक्षा, विशेषकर पहले बच्चे की, समाज में आपके बच्चों की छवि और प्रतिष्ठा का बोध कराता है।

द्वितीय भाव प्राचीन ज्ञान से संबंधित कर्म, मामा का भाग्य, उनकी लंबी यात्राएँ और विरोधियों के माध्यम से लाभ को दर्शाता है। यह आपके जीवनसाथी की मृत्यु, पुनर्जन्म, जीवनसाथी की संयुक्त संपत्ति, साझेदार से हानि या साझेदार के साथ मुनाफे की हिस्सेदारी का बोध कराता है।

द्वितीय भाव आपके सास-ससुर, आपके ससुराल पक्ष के व्यावसायिक साझेदार, ससुराल के लोगों से कानूनी संबंध, ससुराल के लोगों के साथ-साथ बाहरी दुनिया से संपर्क और पैतृक मामलों को दर्शाता है।

यह भाव स्वास्थ्य, रोग, पिता या गुरु की बीमारी, शत्रु, मानसिक और वैचारिक रूप से आपके विरोधी, निवेश, करियर की संभावना, शिक्षा, ज्ञान और आपके अधिकारियों की कलात्मकता को प्रकट करता है।

वैदिक ज्योतिष के अनुसार, कुंडली में द्वितीय भाव बड़े भाई-बहनों की सुख-सुविधा, मित्रों का सुख, मित्रों के लिए आपका दृष्टिकोण, बड़े भाई-बहनों का आपकी माँ के साथ संबंध को दर्शाता है। यह भाव लेखन, आपकी दादी के बड़े भाई-बहन और दादी के बोलने की कला को भी प्रकट करता है। द्वितीय भाव गुप्त शत्रुओं की वजह से की गई यात्राओं पर हुए खर्च और प्रयासों को भी दर्शाता है।
[24 जुलाई 2019
आनन्द और उदासी, जीवन के दो पहलू हैं, जैसे एक ही सिक्के के दो पहलू। इसमें से किसी एक का चुनाव और दूसरे के प्रति तिरस्कार, हमें जीवन से तोड़ देता है। पकड़ने-छोड़ने की रस्साकशी में हम निरन्तर उलझते चले जाते हैं। बिना काली रात के, तारों के दर्शन नहीं किये जा सकते। बिना दुःख के सुख का पता ही नहीं चलता।इसलिए दोनों को सहर्ष स्वीकार करने से ही जीवन का सारा द्वंद्व/झगड़ा/विरोध चला जाता है। आनंद आए तो आनंद और उदासी आए तो उदासी। “मांगना ही नहीं कि आनंद आए तो रुके, जाए न और उदासी आई है, तो चली जाए, रुके न।” आनंद भी मेहमान है और उदासी भी। तब हमारे जीवन में एक क्रांति घटित होती है, हमारे भीतर साक्षी भाव का जन्म होता है। इस साक्षित्व में ही यह स्पष्ट होने लगता है कि हम न तो आनंद हैं और न ही उदासी। हम तो इसको देखने वाले/द्रष्टा/साक्षी/चलचित्र का पर्दा मात्र हैं, जिसके सामने दोनों आते हैं, नाचते हैं, विदा हो जाते हैं। पर्दा, खाली/शून्य रह जाता है, अछूता, दर्पण की भांति। इसी साक्षीभाव को अनुभव कर लेना ही समस्त धर्मों का सार है। सुप्रभात -आज का दिन शुभ व मंगलमय हो।
[ पिछले दिनों Gurgoan जाना हुआ ।
वहां एक मित्र के घर रुका । उनकी छोटी बहन अमरीका में रहती हैं । छुट्टियों में घर आई हुई थीं । बातों बातों में बताने लगी कि अमरीका में बहुत गरीब मजदूर वर्ग McDonald , KFC और Pizza Hut का burger पिज़्ज़ा और chicken खाता है ।

अमरीका और Europe के रईस धनाढ्य करोड़पति लोग ताज़ी सब्जियों उबाल के खाते हैं ,
ताज़े गुंधे आटे की गर्मा गर्म bread/रोटी खाना बहुत बड़ी luxury है ।
ताज़े फलों और सब्जियों का Salad वहां नसीब वालों को नसीब होता है …….. ताजी हरी पत्तेदार सब्जियां अमीर लोग ही Afford कर पाते हैं ।

गरीब लोग Packaged food खाते हैं । हफ़्ते / महीने भर का Ration अपने तहखानों में रखे Freezer में रख लेते हैं और उसी को Micro Wave Oven में गर्म कर कर के खाते रहते हैं ।

आजकल भारतीय शहरों के नव धनाढ्य लोग अपने बच्चों का हैप्पी बड्डे मकडोनल में मनाते हैं । उधर अमरीका में कोई ठीक ठाक सा मिडल किलास आदमी McDonalds में अपने बच्चे का हैप्पी बड्डे मनाने की सोच भी नही सकता ……… लोग क्या सोचेंगे ? इतने बुरे दिन आ गए ? इतनी गरीबी आ गयी कि अब बच्चों का हैप्पी बड्डे मकडोनल में मनाना पड़ रहा है ?

भारत का गरीब से गरीब आदमी भी ताजी सब्जी , ताजी उबली हुई दाल भात खाता है ……… ताजा खीरा ककड़ी खाता है । अब यहां गुलामी की मानसिकता हमारे दिल दिमाग़ पे किस कदर तारी है ये इस से समझ लीजे कि Europe अमरीका हमारी तरह ताज़ा भोजन खाने को तरस रहा है और हम हैं कि Fridge में रखा बासी packaged food खाने को तरस रहे हैं । अमरीकियों की Luxury जो हमें सहज उपलब्ध है हम उसे भूल उनकी दरिद्रता अपनाने के लिए मरे जाते हैं ।

ताज़े फल सब्जी खाने हो तो फसल चक्र के हिसाब से दाम घटते बढ़ते रहते है ।
इसके विपरीत डिब्बाबंद Packaged Food के दाम साल भर स्थिर रहते है बल्कि समय के साथ सस्ते होते जाते हैं । जस जस Expiry date नज़दीक आती जाती है , डिब्बाबंद भोजन सस्ता होता जाता है और एक दिन वो भी आ जाता है कि Store के बाहर रख दिया जाता है , लो भाई ले जाओ , मुफ्त में । हर रात 11 बजे Stores के बाहर सैकड़ों लोग इंतज़ार करते हैं ……. Expiry date वाले भोजन का ।

125 करोड़ लोगों की विशाल जनसंख्या का हमारा देश आज तक किसी तरह ताज़ी फल सब्जी भोजन ही खाता आया है ।
ताज़े भोजन की एक तमीज़ तहज़ीब होती है । ताज़े भोजन की उपलब्धता का एक चक्र होता है । ताज़ा भोजन समय के साथ महंगा सस्ता होता रहता है । आजकल समाचार माध्यमों में टमाटर और हरी सब्जियों के बढ़ते दामों के लेकर जो चिहाड़ मची है वो एक गुलाम कौम का विलाप है …….. जो अपनी ऐतिहासिक सांस्कृतिक विरासत को भूल अपनी गुलामी का विलाप कर रही है ।

भारत बहुत तेज़ी से ताजे भोजन की समृद्धि को त्याग डिब्बेबन्द भोजन की दरिद्रता की ओर अग्रसर है ।

आओ एक बार पुनः अपनी प्राचीन संस्कृति की ओर दौड़े इंडिया से भारत की ओर
💊 गर्म पानी है अमृत 💊

कुछ स्वास्थ्य समस्याओं को हल करने में गर्म पानी 100% प्रभावी है। जैसे कि :–

1 माइग्रेन
2 High BP
3 Low BP
4 जोड़ों के दर्द
5 दिल की धड़कन की अचानक तेज़ी और कमी
6 मिर्गी
7 Cholestrol का बढ़ता Level
8 खांसी
9 शारीरिक असुविधा
10 गोलु दर्द
11 अस्थमा
12 पुरानी खांसी
13 नसों के रुकावट
14 Uterus और Urine से संबंधित रोग
15 पेट समस्याओं
16 भूख की कमी
17 आँखें, कान और गले से संबंधित सभी बीमारियां
18 सिरदर्द

गर्म पानी का उपयोग कैसे करें ?

सुबह जल्दी उठें और Toilet से फारिग होने के बाद लगभग 4 गिलास गर्म पानी (लगभग 1 से सवा लीटर) पीयें। शुरू में 4 गिलास पीने में असुविधा हो सकती है लेकिन धीरे धीरे आप आदत बना लेंगे।

गर्म पानी लेने के बाद 45 मिनट के अंदर कुछ भी नहीं खाएं।

गर्म जल के लाभ

🤙30 दिनों में diabetese पर प्रभाव
🤙30 दिनों में BP पर प्रभाव
🤙10 दिनों में पेट की समस्याएं
🤙9 महीनों में सभी प्रकार के कैंसर पर प्रभाव
🤙6 महीनों में नसों की रुकावट में काफी कमी
🤙10 दिनों में भूख की कमी दूर
🤙10 दिनों में UTERUS और संबंधित रोग
🤙10 दिनों में नाक, कान और गले की समस्याएं
🤙15 दिनों में महिला समस्याएं
🤙30 दिनों में हृदय रोग
🤙3 दिनों में सिरदर्द/माइग्रेन
🤙4 महीने में CHOLESTROL
🤙 9 महीनों में लगातार मिर्गी और पक्षाघात
🤙4 महीने में अस्थमा

ठंडा पानी आपके लिए हानिकारक है

अगर ठंडा पानी आपको कम उम्र में प्रभावित नहीं करता है, तो यह आपको बुढ़ापे में नुक्सान पहुंचाएगा।

🙀 ठंडा पानी दिल की नसों को बंद कर देता है और दिल का दौरा पड़ सकता है। COLD DRINK हार्ट अटैक का मुख्य कारण है

🙀 यह LEVER में भी समस्याएं पैदा करता है।
🙀 यह FAT को जिगर के साथ चिपका देता है। जिगर प्रत्यारोपण के लिए इंतजार कर रहे अधिकांश लोग ठंडे पानी पीने के शिकार हैं।

🙀 ठंडा पानी पेट की आंतरिक दीवारों को और कैंसर में बड़ी आंत को प्रभावित करता है।

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[ एसिडिटी और हाइपर एसिडिटी का रामबाण इलाज।
क्या आप जानते हैं, एसिडिटी की दवा से हो सकती हैं आपकी किडनी खराब। जब हम खाना खाते हैं तो इस को पचाने के लिए शरीर में एसिड बनता हैं। जिस की मदद से ये भोजन आसानी से पांच जाता हैं। ये ज़रूरी भी हैं। मगर कभी कभी ये एसिड इतना ज़्यादा मात्रा में बनता हैं के इसकी वजह से सर दर्द, सीने में जलन और पेट में अलसर और अलसर के बाद कैंसर तक होने की सम्भावना हो जाती हैं।

ऐसे में हम नियमित ही घर में इनो या पीपीआई (प्रोटॉन पंप इनहिबिटर्स) दवा का सेवन करते रहते हैं। मगर आपको जान कर आश्चर्य होगा के ये दवाये सेहत के लिए बहुत खतरनाक हैं। पीपीआई ब्लड में मैग्‍नीशियम की कमी कर देता है। अगर खून पर असर पड़ रहा है तो किडनी पर असर पड़ना लाज़मी है। जिसका सीधा सा अर्थ की ये दवाये हमारी सेहत के लिए खतरनाक हैं। हमने कई ऐसे मूर्ख लोग भी देखे हैं जो एसिडिटी होने पर कोल्ड ड्रिंक पेप्सी या कोका कोला पीते हैं ये सोच कर के इस से एसिडिटी कंट्रोल होगा। ऐसे लोगो को भगवान ही बचा सकता हैं।

तो ऐसी स्थिति में कैसे करे इस acidity ka ilaj.
आज हम आपको बता रहे हैं भयंकर से भयंकर एसिडिटी का चुटकी बजाते आसान सा इलाज। ये इलाज आपकी सोच से कई गुना ज़्यादा कारगार हैं। तो क्या हैं ये उपचार। ये हर रसोई की शान हैं। हर नमकीन पकवान इसके बिना अधूरा हैं। ये हैं आपकी रसोई में मौजूद जीरा। जी हाँ जीरा।

कैसे करे jeere ka sewan. acidity ka gharelu ilaj in hindi
जब भी आपको एसिडिटी हो जाए कितने भी भयंकर से भयंकर एसिडिटी हो आपको बस जीरा कच्चा ही चबा चबा कर खाना हैं। एसिडिटी के हिसाब से आधे से एक चम्मच (ढाई से पांच ग्राम) जीरा खाए। इसके 10 मिनट बाद गुनगुना पानी पी ले। आप देखेंगे के आपकी समस्या ऐसे गायब हो गयी है ।
[: बालों को लंबा करने के लिए ट्राई करें ये 5 घरेलू तेल
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1)जैतून का तेल
जैतून का तेल बालों में सबसे ज्यादा नमी पहुंचाने वाला तेल है, जोकि विटामिन ई से भरपूर होता है| विटामिन ई बालों के विकास के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस तेल में प्रचुर मात्रा में एंटी—ऑक्सीडेंट्स पाए जाते हैं। जो बालों एवं त्वचा के लिए बहुत ही अच्छे होते हैं। बाकी तेलों के मुकाबले जैतून का तेल काफी हल्का होता है और बहुत ही आसानी से इसे बालों में लगाया जा सकता है।
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2)तिल का तेल:
सफेद तिल का तेल बालों को लंबा करने के लिए उपयोग में लाया जाता है। तिल के तेल में एंटी माइक्रोबियल गुण पाए जाते हैं, जिसके कारण सिर में हो रहा है फंगल इंफेक्शन को दूर किया जा सकता है। ऐसे में गुनगुने तिल का तेल बालों पर एवं उनकी जड़ों पर उपयोग किया जा सकता है। जिससे बालों को नमी भी पहुंचती है और साथ ही साथ बाल झड़ना भी कम हो जाते हैं। अगर बाल कम झड़ेंगे तो बालों में लंबाई अपने आप बढ़ने लगती है।
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3)आर्गन का तेल:
आर्गन का तेल बालों को स्वस्थ रखने में सबसे महत्वपूर्ण तेलों में से एक है। यह तेल बालों की जड़ों में भी अच्छे से पहुंचता है, जिससे बालों में हो रही कमी को पूरा करता है। क्षतिग्रस्त, रूखे एवं बेजान बालों पर इस तेल के इस्तेमाल से वे चमकदार हो जाते हैं। इसीलिए इस तेल को लिक्विड गोल्ड भी कहते हैं। आर्गन का तेल जल्दी बाल बढ़ाने के लिए सबसे असरदार तेल माना जाता है।
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4)नारियल का तेल
अगर आपको स्वस्थ्य, मुलायम और चमकदार बाल चाहिए तो नारियल का तेल हमेशा उपयोग में लाएं। नारियल का तेल बहुत ही आसानी से हर जगह प्राप्त हो जाता है, इस तेल में विटामिन ई और एंटी—ऑक्सीडेंट्स की भरपूर मात्रा होती है। यह तेल बहुत ही आसानी से बालों की जड़ में पहुंचता है, जिससे बालों को भरपूर नमी प्राप्त होती है और बालों का बढ़ना भी शुरू हो जाता है।
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5) बादाम का तेल
बादाम का तेल सबसे हल्का और बगैर चिपचिपा माना गया है। जिन लोगों को तेल लगाने के बाद चिपचिपाहट की समस्या होती है उनके लिए यह तेल लाभकारी है। नियमित रूप से बादाम का तेल बालों में इस्तेमाल करने से उनकी लंबाई बढ़ती है|
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यह सभी प्रकार के तेल आप अपने बालों की अच्छी सेहत और उन्हें बढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। बालों की ग्रोथ के लिए ये घरेलू उपचार काफी मददगार हैं। आप अपने बालों की अच्छी देखभाल के लिए सप्ताह में 2 बार ऑइल की मसाज कर सकते हैं।

बालों की अच्छी सेहत और उनकी ग्रोथ के लिए जरूरी है कि आप उनकी नियमिति रूप से देखभाल करें। केमिकलयुक्त प्रॉडक्ट के इस्तेमाल से बचें और घरेलू हेयर ऑइल्स का इस्तेमाल करें।
: हंसी है हर मर्ज की दवा
हंसी से शरीर को क्या -क्या फायदे होते है?


  1. तनाव कम करने में मदद करे: एक अध्ययन के अनुसार, हंसी तनावपूर्ण स्तिथियों में बेहतरीन इलाज का काम करती है। हंसने से शरीर में कोर्टिसोल और एपिनेफ्रीन नामक स्ट्रेस होर्मोनेस का उत्पादन कम हो जाता है, जिससे दिमागी सेहत पर सकारत्मक प्रभाव पड़ता है।
  2. सांसों के लिए फायदेमंद: क्या आपने दिल खोलकर हंसने के बाद राहत का अनुभव किया है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि, हंसने के दौरान हम गहरी सांसें लेते हैं। जिससे ह्रदय गति और ब्लड प्रेशर का स्तर कम हो करके आपको सुकून का एहसास दिलाने में मदद करता हैं। गहरी सांस लेने की तरह, हंसी में भी अंदरूनी सफाई के तत्व होते हैं, जिनसे इम्फीसेमा और सांसों से जुड़ी अन्य बीमारियों से पीड़ित लोगों को मदद मिलती है।
  3. प्राकृतिक व्यायाम: हंसने के अंदरूनी फायदों के अलावा, हंसने से शरीर में मांसपेशियों की एक्सरसाइज भी होती है। जब आप हंसते हैं तो आपके मसल्स में हरकत होती है। हंसने से चेहरे के मसल्स और पेट में कॉन्ट्रैक्शन होता है, यही वजह है, कि देर तक हंसने के बाद हम अपने जबड़ों और पेट में हल्का दर्द महसूस करते हैं। जोर से हंसने से पैरों, पीठ, कांधों और बाजुओं की एक्सरसाइज हो जाती है। हंसने से काफी कैलोरीज भी बर्न करने में मदद मिलती हैं।
  4. इम्युनिटी को बेहतर बनाए: रिसर्च के द्वारा पता चलता है, कि हंसने से शरीर में उन एंटीबॉडीज का उत्पादन होता है जिनसे बीमारियों और इंफेक्शन से लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है। सकारात्मक विचार न्यूरोपैप्टाइड रिहा कर देते है, जिससे तनाव से बाहर आने में और बहुत गंभीर बीमारी से लड़ने मदद करते है।
  5. अनिद्रा की शिकायत दूर करे: अगर नींद की कमी का शिकार हैं या आपको रात में आसानी से नींद नहीं आती तो खुलकर हंसने की आदत दाल लें। हंसने से शरीर में मेलाटोनिन नाम के हार्मोन उत्पादन बढ़ जाता है जिसके कारण हम सुकून भरी नींद ले पाते हैं।

इन सब खूबियों के अलावा हंसने से याददाश्त को बेहतर बनाने, ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करने, मूड को बेहतर करने और शरीर को ऊर्जा प्रदान करने में मदद मिलती है। यही वजह है, कि सेहत के एक्सपर्ट्स अक्सर आपको हंसते-मुस्कुराते रहने की सलाह देते हैं।
[ सुप्रभात मित्रों … ॐ नमः शिवाय !
आज का दिन आप सभी के लिये शुभ हो।

🌷केदारादीनि लिंगानी पृथ्वियं यानि कानिचित
तानि दृष्टिवाच यत्पुण्य तत्पुण्यं रसदर्शनात !🌷

  • इस पृथ्वी पर केदारनाथ से लेकर जितने भी महादेव जी के लिंग हैं,
    उन सबसे दर्शन से जो पुण्य होता है, वह पुण्य केवल पारद शिवलिंग के दर्शन करने मात्र से ही मिल जाता है।

🌷
पारद संहिता मे भी लिखा हुआ है कि
पारद शब्द मे
प: विष्णु,
आ: कालिका,
र: शिव,
द: ब्रह्मा,
इस तरह सभी विद्यमान है।

🌷
पारद से बने लिंग की पूजा की जाए तो धन, ज्ञान, सिद्धि और ऐश्वर्य प्राप्त होता है।

पारा एकमात्र तरल धातु है , जिसे शिव का वीर्य माना गया है।
पारद का शोधन अत्यन्त कठिन कार्य है और इसे ठोस बनाने के लिए मुर्छित खेचरित, कीलित, शम्भू विजित और शोधित जैसी कठिन प्रक्रियाओं मे से गुजरना पड़ता है,
तब कहीं पारा ठोस आकार ग्रहण करता है और उससे शिवलिंग का निर्माण होता है।

शिवलिंग निर्माण के बाद कई वैदिक क्रियाओं से गुजरने पर ही पारद शिवलिंग रस-सिद्ध एवं चैतन्य हो पाता है जिससे वह पूर्ण सक्षम एवं प्रभावयुक्त बनता है।

🌷
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मे पारद ही एकमात्र तत्व है जिसके द्वारा मोक्ष और ऐश्वर्य दोनों ही पाए जा सकते हैं।

इसी विद्या के द्वारा कलयुग मे भी जगत गुरु आदिशंकराचार्य ने स्वर्ण वर्षा करवा कर दिखाया था।
उनके गुरुदेव श्री गोविन्द पादाचार्य का पारद व लोह सिद्धि पर लिखा रस ह्रदय तंत्र ग्रन्थ विख्यात है…
जिसमे दी गयी क्रियाये आज भी उतनी ही सत्य हैं जितनी तब रही होंगी।

🌷
यदि व्यक्ति ब्रह्म हत्या का भी दोषी हो या कैसे भी पाप उसने किए हो तब भी पारद का स्पर्श , दर्शन व पूजन सभी दोषों से मुक्त कर देता है।

🌷
रावण रससिद्ध योगी था,
उसने पारद शिवलिंग की पूजा कर शिव को पूर्ण प्रसन्न किया ।
जीवन मे जो मनुष्य सर्वश्रेष्ट बने रहना चाहते हैं,
जो व्यक्ति सामान्य घर से जन्म लेकर विपरीत परिस्थितियों मे बडे होकर सभी प्रकार की बाधाओं, कष्टों और समस्याओं के होते हुए भी जीवन मे अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते है अथवा
जो व्यक्ति आर्थिक, व्यापारिक और भौतिक दृष्टि से पूर्ण सुख प्राप्त करना चाहते है उन्हें अपने घर मे अवश्य ही पारद शिवलिंग की स्थापना करनी चाहिए।

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जिसके घर मे पारद शिवलिंग है उस घर मे सर्वसिद्धियॉं परमात्मा के सहित उपस्थिति रहती है …
वह अगली पीढियों तक के लिए रिद्धी सिद्धि एवं स्थायी लक्ष्मी को स्थापित कर लेता है।
उस घर मे रहने वालों पर किसी भी प्रकार का कोई तांत्रिक अभिचार नहीं हो पाता।

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शिवपुराण मे कहा गया है कि इसकी अर्चना से यमराज का दूत भी शांत होकर वापिस चला जाता है।
ये सभी बातें तथ्यों पर आधारित तथा मेरे स्वयं के अनुभव के आधार पर भी सच हैं।

🌷
घर मे पारद शिवलिंग सौभाग्य, शान्ति, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के लिए अत्यधिक सौभाग्यशाली है।
जो व्यक्ति पारद शिवलिंग का पूजन करता है उसे शिव की कृपा से सुख समृद्धि आदि की प्राप्ति होती है ।

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पंचामृत बनाकर पारद शिवलिंग पर अर्पित करते हुये निम्न मंत्र का जप करते जायें ,

” ॐ ह्रीम तेजसे श्रीं कामसे क्रीं पूर्णत्व सिद्धिं देहि पारदेश्वराय क्रीं श्रीं ह्रीम ॐ ”

यह मंत्र समस्त कामनाओं को पूर्ण करता है ।

!! ॐ सुरभ्यै नमः !!
[कुंङली में #बाधाकारकग्रह और उसका

उपाएदान

कई बार देखा जाता है कि जन्म पत्री में शुभ ग्रह, उच्च के ग्रह, मित्र के ग्रह होने पर भी हमें आशातीत सफलता नहीं मिलती तब हमें यह जानना पड़ेगा कि जन्मपत्री का कोई ग्रह सफलता या कार्य में बाधा तो नहीं कर रहा है।

जन्म पत्री के ग्रहो से यदि कार्य ना हो तो समझ लेना चाहिए कि जन्म पत्री के ग्रह काम नहीं कर रहे है। इसका मतलब है कि कोई ग्रह पत्री में बाधाकारक अर्थात बाधा कर रहा है क्योकि बाधाकारक ग्रह के कारण शुभ ग्रह फल नहीं देते है पता लगने पर बाधाकारक ग्रह की पूजा किसी विद्वान ब्राम्हण से करा कर शांति करे जिससे सभी कार्य सफल हो व ग्रहो का शुभ फल मिले। इस समय उस ग्रह का दान भी किया जा सकता है।

यहाँ पर हम सभी लग्नो की जन्म पत्रियो के बाधाकारक ग्रह आपकी सुविधा के लिए बता रहे है जिनकी पूजा करके शांति व शुभ फल पा सके।

1 : मेष लग्न होने पर ग्यारहवें भाव का स्वामी बाधाकारक होता है यदि शुभ ग्रह होने पर शुभ फल या मनोरथ पुरे नहीं होते, कार्य में अड़चन आती है तो ग्यारहवें भाव के स्वामी का जाप व पूजन करने से सभी कार्य निर्विध्न पुरे होगे। यहाँ पर ग्यारहवें भाव का स्वामी शनि होगा इस कारण शनि की पूजा करे, पीपल पर साम को जोत जलाये व काली वस्तु का दान शनिवार को करे।

2 : वृष लग्न होने पर नवम भाव का स्वामी बाधाकारक होता है नवम भाव में मकर राशि(10) पड़ती है। इसका स्वामी शनि होता है जैसा कि चित्र में दिखाया गया है इस कारण यदि शुभ फल या कार्यो में बाधा आ रही हो तब जानना चाहिए कि शनि के कारण बाधा आ रही है तो शनिवार को शनि पर सरसो का तेल चढ़ाये व शनि चालीसा का पाठ करे।

3 : यदि जातक व जातिका की जन्म कुंडली में मिथुन लग्न हो तो सप्तम भाव का स्वामी बाधाकारक होता है इस लग्न में सप्तम भाव का स्वामी गुरु(बृहस्पति) होता है जैसा कि चित्र में दिखाया गया है। जब विवाह आदि शुभ कार्यो में अड़चन आ रही हो तो सप्तम भाव के स्वामी गुरु(बृहस्पति) की पूजा किसी विद्वान ब्राह्मण से कराये और पीली वस्तुओ का दान गुरुवार को करे, गुरु मंत्र का जाप करे जिससे सभी बाधा दूर होकर शुभ फल मिले।

4 : यदि जातक व जातिका की जन्म कुंडली में कर्क लग्न होने पर ग्यारहवे(11) भाव का स्वामी बाधाकारक होता है यहाँ पर कर्क लग्न में ग्यारहवे(11) भाव का स्वामी शुक्र होगा जिससे सभी भौतिक सुखो में कमी होना, सुख कम मिलना, भोग की वस्तुओ की कमी रहती है इस कारण शुक्र ग्रह की पूजा करने से सभी मनोरथ पूरे होंगे। लक्ष्मी चालीसा का पाठ व सफ़ेद वस्तुओ का दान शुक्रवार करे।

5 : यदि जातक व जातिका की जन्म कुंडली में सिंह लग्न होने पर नवम भाव का स्वामी बाधाकारक होता है जो जन्म पत्री के अनुसार मंगल होगा। इससे झगड़ा, वाद-विवाद, तनाव, मुकदमा आदि होते है इस कारण बाधाकारक ग्रह मंगल का जाप व दान करे यहाँ पर आप हनुमान चालीसा का पाठ करना शुभ रहेगा जिससे शांति रहेगी।

6 : यदि जातक व जातिका की जन्म कुंडली में कन्या लग्न होने पर सप्तम भाव का स्वामी बाधाकारक होता है यहाँ पर सप्तम भाव का स्वामी गुरु(बृहस्पति) होगा। जिससे वैवाहिक जीवन में तनाव, झगड़ा, खर्च आदि होना तब जानना चाहिए कि ये सब गुरु(बृहस्पति) के कारण बाधा आ रही है तो गुरु(बृहस्पति) की पूजा करे, ब्राह्मण को प्रणाम करे, गुरुवार का व्रत करे तो सुख-शांति रहेगी।

7 : यदि जातक व जातिका की जन्म कुंडली में तुला लग्न होने पर सभी ग्रह शुभ होते हुए फल नहीं दे रहे हो तो जानना चाहिए कि ग्यारहवे(11) भाव का स्वामी बाधा कर रहा है जो यहाँ पर बाधाकारक गृह सूर्य है जिससे मान, अपमान और यश न मिलना, आमदनी में परेशानी होती है इस समय सूर्य की पूजा करना व सूर्य को जल देना, पिता का सम्मान करना और गायत्री मंत्र का जाप करना शुभ रहेगा।

8 : यदि जातक व जातिका की जन्म कुंडली में वृश्चिक लग्न होने पर यदि कार्य नहीं हो रहे हो तो समझ ले कि नवम भाव का स्वामी बाधा कर रहा है जो यहाँ पर नवम भाव का स्वामी चन्द्रमा है जैसा कि चित्र में दिखाया गया है। जिससे मानसिक परेशानी होना, ब्लड प्रेशर होना, धन खर्च होना, किसी कार्य या भगवन की पूजा में मन न लगना तब यहाँ पर चन्द्रमा की पूजा शुभ फल देगी। यहाँ पर आप सफ़ेद वस्तु का दान सोमवार को करे व शिवलिंग पर दूध चढ़ावे तो सभी कार्य पुरे होंगे और शांति मिलेगी।

9 : यदि जातक व जातिका की जन्म कुंडली में धनु लग्न हो तब बाधाकारक ग्रह सप्तम भाव का स्वामी होता है यहाँ पर सप्तम भाव का स्वामी बुध बाधाकारक होगा तब जानना चाहिए कि बुध के कारण ग्रह शुभ फल नहीं दे रहे है बुध एक नपुंसक ग्रह भी है इसकी शांति के लिए बुध का जाप, दुर्गा का पाठ, हिजड़ो को हरी वस्तु का दान बुधवार को करे।

10 : यदि जातक व जातिका की जन्म कुंडली में मकर लग्न होने पर ग्यारहवे(11) भाव ,का स्वामी बाधाकारक होता है यहाँ पर ग्यारहवे(11) भाव में वृश्चिक राशि पड़ती है इसका स्वामी मंगल होता है इस कारण मंगल ही बाधाकारक ग्रह हुआ जिससे धन का नुकसान होना, आमदनी में तनाव, उदर रोग तथा संतान सबंधी परेशानी होने पर मंगल ग्रह की शांति करे। मंगल का जाप, गाये को गुड़ खिलाये और हनुमान चालीसा का पाठ करे तो सुख-शांति रहेगी याद रखे कि मंगलवार को कभी कर्ज ना ले।

11 : यदि जातक व जातिका की जन्म कुंडली में कुम्भ लग्न होने पर नवम भाव का स्वामी बाधाकारक होता है यहाँ पर नवम भाव का स्वामी शुक्र होगा जिससे भौतिक सुख में कमी, धर्म-कर्म में कमी तथा मन परेशान रहना तब यहाँ पर शुक्र ग्रह की शांति करे लक्ष्मी चालीसा का पाठ, सफ़ेद वस्तु का दान करना, शुक्रवार को जंडी का पूजन करना शुभ रहेगा।

12 : यदि जातक व जातिका की जन्म कुंडली में मीन लग्न होने पर सप्तम भाव का स्वामी बाधाकारक होता है यहाँ पर बाधाकारक ग्रह बुध होगा जैसा की चित्र में दर्शाया गया है जिससे वैवाहिक जीवन में परेशानी, शादी में विधन होना, व्यापार में नुकसान होना तब बुध ग्रह की शांति करे यहाँ पर दुर्गा का पाठ करना, हिजड़ो को दान देना शुभ रहेगा।
[ शिवलिंग पर दूध क्यों चढ़ाया जाता है ?
क्या है इसमें वैज्ञानिक पक्ष ?

भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है क्योंकि उनका अपना चरित्र अनेक विरोधाभासों से भरा हुआ है जैसे शिव का अर्थ है जो शुभकर व कल्याणकारी हो, जबकि शिवजी का अपना व्यक्तित्व इससे जरा भी मेल नहीं खाता, क्योंकि वे अपने शरीर में इत्र के स्थान पर चिता की राख मलते हैं तथा गले में फूल-मालाओं के स्थान पर विषैले सर्पों को धारण करते हैं। वे अकेले ही ऐसे देवता हैं जो लिंग के रूप में पूजे जाते हैं। सावन में शिवलिंग पर दूध चढ़ाने का विशेष महत्व माना गया है। इसीलिए शिव भक्त सावन के महीने में शिवजी को प्रसन्न करने के लिए उन पर दूध की धार अर्पित करते हैं।

पुराणों में भी कहा गया है कि इससे पाप क्षीण होते हैं। लेकिन सावन में शिवलिंग पर दूध चढ़ाने का सिर्फ धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक महत्व भी है। सावन के महीने में दूध का सेवन नहीं करना चाहिए। शिव ऐसे देव हैं जो दूसरों के कल्याण के लिए हलाहल भी पी सकते हैं। इसीलिए सावन में शिव को दूध अर्पित करने की प्रथा बनाई गई है क्योंकि सावन के महीने में गाय या भैस घास के साथ कई ऐसे कीड़े-मकोड़ो को भी खा जाती है। जो दूध को स्वास्थ्य के लिए गुणकारी के बजाय हानिकारक बना देती है। इसीलिए सावन मास में दूध का सेवन न करते हुए उसे शिव को अर्पित करने का विधान बनाया गया है।

आयुर्वेद कहता है कि वात-पित्त-कफ इनके असंतुलन से बीमारियाँ होती हैं और श्रावण के महीने में वात की बीमारियाँ सबसे ज्यादा होती हैं. श्रावण के महीने में ऋतू परिवर्तन के कारण शरीर मे वात बढ़ता है. इस वात को कम करने के लिए क्या करना पड़ता है ?ऐसी चीज़ें नहीं खानी चाहिएं जिनसे वात बढे, इसलिए पत्ते वाली सब्जियां नहीं खानी चाहिएं !और उस समय पशु क्या खाते हैं ?

सब घास और पत्तियां ही तो खाते हैं. इस कारण उनका दूध भी वात को बढाता है ! इसलिए आयुर्वेद कहता है कि श्रावण के महीने में दूध नहीं पीना चाहिए.इसलिए श्रावण मास में जब हर जगह शिव रात्रि पर दूध चढ़ता था तो लोग समझ जाया करते थे कि इस महीने मे दूध विष के सामान है, स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है, इस समय दूध पिएंगे तो वाइरल इन्फेक्शन से बरसात की बीमारियाँ फैलेंगी और वो दूध नहीं पिया करते थे !

बरसात में भी बहुत सारी चीज़ें होती हैं लेकिन हम उनको दीवाली के बाद अन्नकूट में कृष्ण भोग लगाने के बाद ही खाते थे (क्यूंकि तब वर्षा ऋतू समाप्त हो चुकी होती थी). एलोपैथ कहता है कि गाजर मे विटामिन ए होता है आयरन होता है लेकिन आयुर्वेद कहता है कि शिव रात्रि के बाद गाजर नहीं खाना चाहिए इस ऋतू में खाया गाजर पित्त को बढाता है !तो बताओ अब तो मानोगे ना कि वो शिवलिंग पर दूध चढाना समझदारी है ?

ज़रा गौर करो, हमारी परम्पराओं के पीछे कितना गहन विज्ञान छिपा हुआ है ! ये इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारी परम्पराओं को समझने के लिए जिस विज्ञान की आवश्यकता है वो हमें पढ़ाया नहीं जाता और विज्ञान के नाम पर जो हमें पढ़ाया जा रहा है उस से हम अपनी परम्पराओं को समझ नहीं सकते !

जिस संस्कृति की कोख से हमने जन्म लिया है वो सनातन है, विज्ञान को परम्पराओं का जामा इसलिए पहनाया गया है ताकि वो प्रचलन बन जाए और हम भारतवासी सदा वैज्ञानिक के पक्षपात मे रहे

जय हिंदुत्व
[राम

शिव जी ने अपने कंठ में राम नाम क्यों धारण किया है।

राम जी के सबसे बड़े भक्त शिवजी है।शिवजी निरन्तर राम ,नाम का जप करते है।
रामायण के सबसे प्राचीन आचार्य भगवान शिव है।इन्होंने राम नाम श्लोक का वर्णन सौ करोड़ श्लोक में किया।शिवजी ने दैत्य ,देवता,ऋषि ,मुनियों में इसका समान बंटवारा किया।सबके हिस्से में तैंतीस करोड़ ,तैंतीस लाख,तैंतीस हजार,तीन सौ श्लोक आए।

एक श्लोक शेष बचा । देवता, दैत्य और ऋषि-ये तीनों एक श्लोक के लिए लड़ने-झगड़ने लगे । यह श्लोक बत्तीस अक्षर वाले अनुष्टुप छन्द में था । शिवजी ने देवता, दैत्य और ऋषि-मुनियों-प्रत्येक को दस-दस अक्षर दे दिए । तीस अक्षर बंट गए और दो अक्षर शेष रह गए । तब भगवान शिव ने देवता, दैत्य और ऋषियों से कहा-

‘मैं ये दो अक्षर मैं किसी को भी नहीं दूंगा । इन्हें मैं अपने कण्ठ में रखूंगा ।’

ये दो अक्षर ‘रा’ और ‘म’ अर्थात् ‘राम-नाम’ हैं । यह ‘राम-नाम’ रूपी अमर-मन्त्र शिवजी के कण्ठ और जिह्वा के अग्रभाग में विराजमान है ।

भगवान शिव को ‘र’ और ‘म’ अक्षर क्यों प्रिय हैं ?

ऐसा माना जाता है कि सती के नाम में ‘र’कार अथवा ‘म’कार नहीं है, इसलिए भगवान शिव ने सती का त्याग कर दिया । जब सती ने पर्वतराज हिमाचल के यहां जन्म लिया, तब उनका नाम ‘गिरिजा’ (पार्वती) हो गया । इतने पर भी ‘शिवजी मुझे स्वीकार करेंगे या नहीं’-ऐसा सोचकर पार्वतीजी तपस्या करने लगीं । जब उन्होंने सूखे पत्ते भी खाने छोड़ दिए, तब उनका नाम ‘अपर्णा’ हो गया । ‘गिरिजा’ और ‘अपर्णा’-दोनों नामों में ‘र’कार आ गया तो भगवान शिव इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने पार्वतीजी को अपनी अर्धांगिनी बना लिया । इसी तरह शिवजी ने गंगा को स्वीकार नहीं किया परन्तु जब गंगा का नाम ‘भागीरथी’ पड़ गया, (इसमें भी ‘र’कार है) तब शिवजी ने उनको अपनी जटा में धारण कर लिया । इस प्रकार राम-नाम में विशेष प्रेम के कारण भगवान शिव दिन-रात राम-नाम का जप करते रहते हैं।

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती।
सादर जपहु अनंग आराती।। (मानस १।१०८।४)

राम-नाम प्रेमी भगवान शिव को राख (भस्म) और मसान (श्मशान) क्यों प्रिय हैं ?

भगवान शिव को राख और मसान इसलिए प्रिय हैं क्योंकि राख में ‘रा’ और मसान में ‘म’ अक्षर है जिनको जोड़ देने से ‘राम’ बन जाता है और भगवान शिव का राम-नाम पर बहुत स्नेह है ।

एक बार कुछ लोग एक मुरदे को श्मशान ले जा रहे थे और ‘राम-नाम सत्य है’ ऐसा बोल रहे थे । शिवजी ने राम-नाम सुना तो वे भी उनके साथ चल दिए । जैसे पैसों की बात सुनकर लोभी आदमी उधर खिंच जाता है, ऐसे ही राम-नाम सुनकर भगवान शिव का मन भी उन लोगों की ओर खिंच गया । अब लोगों ने मुरदे को श्मशान में ले जाकर जला दिया और वहां से लौटने लगे । शिवजी ने विचार किया कि बात क्या है ? अब कोई आदमी राम-नाम ले ही नहीं रहा है । उनके मन में आया कि उस मुरदे में ही कोई करामात थी, जिसके कारण ये सब लोग राम-नाम ले रहे थे, अत: मुझे उसी के पास जाना चाहिए । शिवजी ने श्मशान में जाकर देखा कि वह मुरदा तो जलकर राख हो गया है । अत: शिवजी ने उस मुरदे की राख अपने शरीर में लगा ली और वहीं मसान में रहने लगे । किसी कवि ने कहा है-

बार-बार करत रकार व मकार ध्वनि,
पूरण है प्यार राम-नाम पे महेश को।।

कण्ठ में ‘राम-नाम’ की शक्ति से भगवान शिव द्वारा हलाहल का पान

नाम प्रभाव जान सिव नीको ।
कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।

जब देवताओं और असुरों के द्वारा समुद्र-मंथन किया गया तो सर्वप्रथम उसमें से हलाहल विष प्रकट हुआ, जिससे सारा संसार जलने लगा । देवता और असुर भी उस कालकूट विष की ज्वाला से दग्ध होने लगे । इस पर भगवान विष्णु ने भगवान शिव से कहा कि ‘आप देवाधिदेव और हम सभी के अग्रणी महादेव हैं । इसलिए समुद्र-मंथन से उत्पन्न पहली वस्तु आपकी ही होती है, हम लोग सादर उसे आपको भेंट कर रहे हैं ।’
भगवान शिव सोचने लगे-‘यदि सृष्टि में मानव-समुदाय में कहीं भी यह विष रहे तो प्राणी अशान्त होकर जलने लगेगा । इसे सुरक्षित रखने की ऐसी जगह होनी चाहिए कि यह किसी को नुकसान न पहुंचा सके । लेकिन, यदि हलाहल विष पेट में चला गया तो मृत्यु निश्चित है और बाहर रह गया तो सारी सृष्टि भस्म हो जाएगी, इसलिए सबसे सुरक्षित स्थान तो स्वयं मेरा ही कण्ठप्रदेश है ।’

भगवान विष्णु की प्रार्थना पर जब शिवजी उस महाविष का पान करने लगे तो शिवगणों ने हाहाकार करना प्रारम्भ कर दिया । तब भगवान भूतभावन शिव ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा-

‘भगवान श्रीराम का नाम सम्पूर्ण मन्त्रों का बीज-मूल है, वह मेरा जीवन है, मेरे सर्वांग में पूर्णत: प्रविष्ट हो चुका है, अत: अब हलाहल विष हो, प्रलय की अग्नि की ज्वाला हो या मृत्यु का मुख ही क्यों न हो, मुझे इनका किंचित भय नहीं है ।’

इस प्रकार राम-नाम का आश्रय लेकर महाकाल ने महाविष को अपनी हथेली पर रखकर आचमन कर लिया किन्तु उसे मुंह में लेते ही भगवान शिव को अपने उदर में स्थित चराचर विश्व का ध्यान आया और वे सोचने लगे कि जिस विष की भयंकर ज्वालाओं को देवता लोग भी सहन नहीं कर सके, उसे मेरे उदरस्थ जीव कैसे सहन करेंगे? यह ध्यान आते ही भगवान शिव ने उस विष को अपने गले में ही रोक लिया, नीचे नहीं उतरने दिया जिससे उनका कण्ठ नीला हो गया, जो दूषण (दोष) न होकर उनके लिए भूषण हो गया ।
कुछ लोगों का कहना है कि भगवान शिव द्वारा हलाहल विष का पान करना पार्वतीजी के स्थिर सौभाग्य के कारण हुआ और कुछ अन्य लोगों के अनुसार यह भगवान शिव के कण्ठ में राम-नाम है, उसी के प्रभाव के कारण संभव हुआ था ।

जय शिव शंकर ,राम राम
[: सुख पदार्थ में नही, सुख परमार्थ में है ।

अगर पदार्थों में सुख होता तो जिनके घर पदार्थों से भरे पड़े हैं, वे ही दुनियांँ में सबसे सुखी होते।

इस दुनियाँ का एक नियम है , जहाँ जिसके पास जो वस्तु है वह उस वस्तु के बदले पैसा कमाना चाहते हैं और जिनके पास पैसा है वे पैसा देकर वस्तु को अर्जित करना चाहते हैं ।

मतलब साफ है कि एक को पदार्थ विक्रय में सुख नजर आ रहा है तो दूसरे को उसी पदार्थ को क्रय करने में सुख नज़र आ रहा है । जबकि दोनों ही भ्रम में हैं। स्थायी सुख तो भगवद् शरणागति में है, त्याग में हैं।
[: ये छः सुगंध चमत्कारिक रूप से बदल देंगी आपका भविष्य… ?

हिन्दू धर्म में सुगंध या खुशबू का बहुत महत्व माना गया है। वह इसलिए कि सात्विक अन्न से शरीर पुष्ट होता है तो सुगंध से सूक्ष्म शरीर। यह शरीर पंच कोष वाला है। जड़, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद। सुगंध से प्राण और मनोमय कोष पुष्ट होता है। इसलिए जिस व्यक्ति के जीवन में सुगंध नहीं उसके जीवन में शांति भी नहीं। शांति नहीं तो सुख और समृद्धि भी नहीं।

सुगंध का असर : सुगंध से आपना मस्तिष्क बदलता है, सोच बदलती और सोच से भविष्य बदल जाता है। सुगंध आपके विचार की क्षमता पर असर डालती है। यह आपकी भावनाओं को बदलने की क्षमता रखती है।

सुगंध के लाभ : सुगंध के चमत्कार से प्राचीनकाल के लोग परिचि‍त थे तभी तो वे घर और मंदिर आदि जगहों पर सुगंध का विस्तार करते थे। यज्ञ करने से भी सुगंधित वातावरण निर्मित होता है। सुगंध के सही प्रयोग से एकाग्रता बढ़ाई जा सकती है। सुगंध से स्नायु तंत्र और डिप्रेशन जैसी बीमारियों को दूर किया जा सकता है। जानिए सुगंध का सही प्रयोग कैसे करें और साथ ही जानिए सुगंध का जीवन में महत्व।

मनुष्य का मन चलता है शरीर के चक्रों से। इन चक्रों पर रंग, सुगंध और शब्द (मंत्र) का गहरा असर होता है। यदि मन की अलग-अलग अवस्थाओं के हिसाब से सुगंध का प्रयोग किया जाए तो तमाम मानसिक समस्याओं को दूर किया जा सकता है।

सावधानी : ध्यान रहे कि परंपरागत सुगंध को छोड़कर अन्य किसी रासायनिक तरीके से विकसित हुई सुगंध आपकी सेहत और घर के वातावरण को नुकसान पहुंचा सकती है। बहुत से लोग घर में मच्छर मारने की दवा छिड़कते हैं या कोई बाजारू प्रॉडक्ट जलाते हैं। यह एक ओर जहां आपकी सेहत को नुकसान पहुंचा सकता है, वहीं यह आपके घर के वातावरण को बिगाड़कर वास्तुदोष निर्मित भी कर सकता है। हालांकि मच्छरदानी इसका अच्छा विकल्प हो सकता है।

सुगंध का उपयोग : यदि आप सुगंध के रूप में धूपबत्ती या अगल बत्ती जला रहे हैं या घर में कहीं पर इत्र का उपयोग कर रहे हैं तो ध्यान रहे कि सुगंध प्राकृतिक और हल्की होना चाहिए। बहुत तीखी सुगंध का विपरित असर हो सकता है। भीनी-भीन सुगंध ही असरकारक होती है। और यदि शरीर पर सुगंध का उपयोग कर रहे हैं तो कलाइयों पर, गर्दन के पीछे और नाभि पर लगाकर इसका उपयोग करें। अगर आप चाहें तो जल में भी सुगंध डालकर इससे स्नान कर सकते हैं।

विद्यार्थियों, अविवाहितों को केवल चंदन का इस्तेमाल करना चाहिए। काम करने या पूजा करने के पहले ही सुगंध का उपयोग करना चाहिए। कार्यस्थल या पूजा स्थल पर चंदन और गुग्गल की सुगंध का ही उपयोग करना चाहिए इससे कार्य और पूजा में मन लगा रहता है। ध्यना करते वक्त भी इसी सुगंध का प्रयोग करना चाहिए। मानसिक तनाव को दूर करने और अच्छी सेहत के लिए अपने बैडरूम में और नहाने के दौरान गुलाब, रातरानी और मोगरे की सुगंध का उपयोग करना चाहिए। सोने के पहले अपनी नाभि पर चंदन या गुलाब की सुगंध लगाकर सो जाइये।

कर्पूर और अष्टगंध : कर्पूर अति सुगंधित पदार्थ होता है तथा इसके दहन से वातावरण सुगंधित हो जाता है। कर्पूर जलाने से देवदोष व पितृदोष का शमन होता है। प्रतिदिन सुबह और शाम घर में संध्यावंदन के समय कर्पूर जरूर जलाएं। हिन्दू धर्म में संध्यावंदन, आरती या प्रार्थना के बाद कर्पूर जलाकर उसकी आरती लेने की परंपरा है।

पूजन, आरती आदि धार्मिक कार्यों में कर्पूर का विशेष महत्व बताया गया है। रात्रि में सोने से पूर्व कर्पूर जलाकर सोना तो और भी लाभदायक है। इसके अलावा प्रतिदिन घर में अष्टगंध की सुगंध भी फैलाएं। बाजार से अष्टगंध का एक डिब्बा लाकर रखें और उसे देवी और देवताओं को लगाएं।

घर के वास्तुदोष को मिटाने के लिए कर्पूर का बहुत‍ महत्व है। यदि सीढ़ियां, टॉयलेट या द्वार किसी गलत दिशा में निर्मित हो गए हैं, तो सभी जगह 1-1 कर्पूर की बट्टी रख दें। वहां रखा कर्पूर चमत्कारिक रूप से वास्तुदोष को दूर कर देगा। रात्रि में सोने से पहले पीतल के बर्तन में घी में भीगा हुआ कर्पूर जला दें। इसे तनावमुक्ति होगी और गहरी नींद आएगी

अष्टगंध : अष्टगंध को 8 तरह की जड़ी या सुगंध से मिलाकर बनाया जाता है। अष्टगंध 2 प्रकार का होता है- पहला वैष्णव और दूसरा शैव। यह प्रकार इसके मिश्रण के अनुसार है।

शैव अष्टगंध :

कुंकुमागुरुकस्तूरी चंद्रभागै: समीकृतै।
त्रिपुरप्रीतिदो गंधस्तथा चाण्डाश्व शम्भुना।। -कालिका पुराण

कुंकु, अगुरु, कस्तूरी, चंद्रभाग, गोरोचन, तमाल और जल को समान रूप में मिलाकर बनाया जाता है।

वैष्णव अष्टगंध :

चंदनागुरुह्रीबेकरकुष्ठकुंकुसेव्यका:।
जटामांसीमुरमिति विषणोर्गन्धाष्टकं बिन्दु।। -कालिका पुराण

चंदन, अगुरु, ह्रीवेर, कुष्ट, कुंकुम, सेव्यका, जटामांसी और मुर को मिलाकर बनाया जाता है।

जो भी हो अष्टगंध की सुगंध अत्यंत ही प्रिय होती है। इसका घर में इस्तेमाल होते रहने से चमत्कारिक रूप से मानसिक शांति मिलती है और घर का वास्तुदोष भी दूर हो जाता है। इसके इस्तेमाल से ग्रहों के दुष्प्रभाव भी दूर हो जाते हैं।

गुग्गुल की सुगंध : गुग्गुल एक वृक्ष का नाम है। इससे प्राप्त लार जैसे पदार्थ को भी ‘गुग्गल’ कहते हैं। इसका उपयोग सुगंध, इत्र व औषधि में भी किया जाता है

इसकी महक मीठी होती है और आग में डालने पर वह स्थान सुंगध से भर जाता है। गुग्गल की सुगंध से जहां आपके मस्तिष्क का दर्द और उससे संबंधित रोगों का नाश होगा वहीं इसे दिल के दर्द में भी लाभदायक माना गया है।

घर में साफ-सफाई रखते हुए पीपल के पत्ते से 7 दिन तक घर में गौमूत्र के छींटे मारें एवं तत्पश्चात शुद्ध गुग्गल की धूप जला दें। इससे घर में किसी ने कुछ कर रखा होगा तो वह दूर हो जाएगा और सभी के मस्तिष्क शांत रहेंगे। हफ्ते में 1 बार किसी भी दिन घर में कंडे जलाकर गुग्गल की धूनी देने से गृहकलह शांत होता है।

गुड़-घी की सुगंध : इसे धूप सुगंध या अग्निहोत्र सुगंध भी कह सकते हैं। गुरुवार और रविवार को गुड़ और घी मिलाकर उसे कंडे पर जलाएं। चाहे तो इसमें पके चावल भी मिला सकते हैं।

इससे जो सुगंधित वातावरण निर्मित होगा, वह आपके मन और मस्तिष्क के तनाव को शांत कर देगा। जहां शांति होती है, वहां गृहकलह नहीं होता और जहां गृहकलह नहीं होता वहीं लक्ष्मी वास करती हैं।

रातरानी: इसके फूल रात में ही खिलकर महकते हैं। एक टब पानी में इसके 15-20 फूलों के गुच्छे डाल दें और टब को शयन कक्ष में रख दें। कूलर व पंखे की हवा से टब का पानी ठंडा होकर रातरानी की ठंडी-ठंडी खुशबू से महकने लगेगा।

सुबह रातरानी के सुगंधित जल से स्नान कर लें। दिनभर बदन में ताजगी का एहसास रहेगा व पसीने की दुर्गंध से भी छुटकारा मिलेगा। रातरानी की सुगंध से सभी तरह की चिंता, भय, घबराहट आदि सभी मिट जाती है। सुगंध में इसे सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। अधिकतर लोग इसे अपने घर आंगन में इसलिए नहीं लगाते हैं क्योंकि यह सांप को आकर्षित करती है।

गुलाब : गुलाब के इत्र से शायद दुनिया की हर संस्कृति वाकिफ है। गुलाब बहुत ही गुणकारी फूल है, लेकिन केवल देशी गुलाब, जो सिर्फ गुलाबी और लाल रंग का होता है और जो बहुत ही खुशबूदार होता है। गुलाब का इत्र लगाने से देह के संताप मिट जाते हैं।

इन फूलों का गुलकंद गर्मी की कई बीमारियों को शांत करता है। गुलाब जल से आंखों को धोने से आंखों की जलन में आराम मिलता है। गुलाब का इत्र मन को प्रसन्नता देता है। गुलाब का तेल मस्तिष्क को ठंडा रखता है और गुलाब जल का प्रयोग उबटनों और फेस पैक में किया जा सकता है।

चंदन की सुगंध : हम यहां चंदन की अगरबत्ती की सुगंध की बात नहीं कर रहे हैं। पूजन सामग्री वाले के यहां चंदन की एक बट्टी या टुकड़ा मिलता है। उस बट्टी को पत्थर के बने छोटे से गोल चकले पर घिसा जाता है। प्रतिदिन चंदन घिसते रहने से घर में सुगंध का वातावरण निर्मित होता है।

सिर पर चंदन का तिलक लगाने से शांति मिलती है। जिस स्थान पर प्रतिदिन चंदन घीसा जाता है और गरूड़ घंटी की ध्वनि सुनाई देती है, वहां का वातावरण हमेशा शुद्ध और पवित्र बना रहता है। चंदन के प्रकार : हरि चंदन, गोपी चंदन, सफेद चंदन, लाल चंदन, गोमती और गोकुल चंदन।

सीक्रेट : भीनी-भीनी और मनभावन खुशबू वाले चंदन को न सिर्फ इत्र के रूप में प्रयोग किया जाता है बल्कि इसके तेल को गुलाब, चमेली या तुलसी के साथ मिलाकर उपयोग करने से कामेच्छा भी प्रबल होती है। चंदन की तरह की खस की सुगंध भी अति महत्वपूर्ण होती है। हालांकि इन दोनों ही तरह की सुगंध का उपयोग गर्मी में किया जाता है।
[: किन किन लग्नों के लिए कौन कौन से ग्रह मारक होते हैं ?

  • मेष लग्न – शुक्र और बुध
  • वृष लग्न – बृहस्पति और चन्द्र
  • मिथुन लग्न – मंगल और चन्द्र
  • कर्क लग्न – बुध और शनि
  • सिंह लग्न – शनि और बुध
  • कन्या लग्न – मंगल और चन्द्र
  • तुला – बृहस्पति और मंगल
  • वृश्चिक – बुध और शुक्र
  • धनु लग्न – शुक्र और शनि
  • मकर लग्न – चन्द्र और सूर्य
  • कुम्भ लग्न – सूर्य और बृहस्पति
  • मीन लग्न – शुक्र और शनि

ज्योतिष का एक सामान्य नियम है कि जब कोई ग्रह , शुभ हो या अशुभ, किसी भाव में बैठते हैं तो अपनी शुभता या अशुभता उस भाव को प्रदान करते हैं साथ ही वे उस भाव के शुभता या अशुभता को ग्रहण कर लेते हैं । अतः मारक भाव में बैठे शुभ ग्रह उस भाव को शुभता प्रदान करते है जबकि उस भाव का मारकत्व ग्रहण करते है। ऐसे में यदि क्रूर ग्रह मारक स्थान पर वैठ जाएं तो वो भी मारक की भूमिका निभाते है और यदि मृत्यु नही तो मृत्युतुल्य कष्ट तो अपनी दशा/अन्तर्दशा में प्रदान करते ही है।
[ उच्च, नीच, वक्री और अस्त ग्रह
उच्च ग्रह और नीच ग्रह

भारतीय ज्योतिष में 9 ग्रह बताए गए हैं। इसमें 2 छाया ग्रह हैं। सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि ग्रह हैं जो आकाशीय मंडल में दृष्टमान हैं। राहु-केतु छाया ग्रह हैं, जो ग्रह नहीं हैं क्योंकि ये आकाशीय मंडल में दिखाई नहीं देते हैं। सूर्य ग्रहों के राजा हैं तो मंगल सेनापति , शनि न्यायाधीश हैं. शुक्र दानवों और बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं। ये सभी ग्रह कभी उच्च-नीच नही होते , केवल ग्रहों की युतियों के कारण शुभ -अशुभ फल प्रदान करते हैं। हर ग्रह अपनी उच्‍च राशि में तीव्रता से परिणाम देता है और नीच राशि में मंदता के साथ। अगर वह ग्रह आपकी कुण्‍डली में अकारक है तो कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह उच्‍च का है या नीच का।

उच्च ग्रह

नवग्रहों में से प्रत्येक ग्रह को किसी एक राशि विशेष में स्थित होने से अतिरिक्त बल प्राप्त होता है जिसे इस ग्रह की उच्च की राशि कहा जाता है।

नीच ग्रह

इसी तरह अपनी उच्च की राशि से ठीक सातवीं राशि में स्थित होने पर प्रत्येक ग्रह के बल में कमी आ जाती है तथा इस राशि को इस ग्रह की नीच की राशि कहा जाता है। ग्रह कोई भी हो नीच नही होता बस उनका फल शुभ -अशुभ होता है। नीच ग्रह से मतलब शब्द के अर्थ में नहीं होता अपितु उस ग्रह में ताकत कम होती है और वो ग्रह कमजोर होता है। उच्च और नीच ग्रह दो ग्रहों की युतियां होने पर भिन्न भिन्न तत्व की प्रधानता होने से उनके फल शुभ अथवा अशुभ हो जाते हैं। जब दो ग्रहों की युति हो जाती है और दोनों ग्रहो में विपरीत तत्वों की प्रधानता हो तो उसे नीच कहा जाता है।

इस सम्पूर्ण चराचर जगत में दो तत्वों की प्रधानता है -पहला अग्नि और दूसरा वायु। यदि इन दोनों तत्वों के ग्रह एक ही घर या भाव में उपस्थित हो जाते हैं तो वे नीच ग्रह के और जब समान तत्व वाले ग्रह एक ही घर या भाव में आ जाये तो वे उच्च ग्रह के कहलाते हैं। जो ग्रह जिस राशि में उच्च का होगा , उससे सातवीं राशि मे जाकर वह नीच का हो जायेगा।

सूर्य मेष में उच्च, तुला में नीच का होता है। चंद्रमा वृषभ में उच्च, वृश्चिक में नीच, मंगल मकर में उच्च, कर्क में नीच, बुध कन्या में उच्च, मीन में नीच का होता है। गुरु कर्क में उच्च, मकर में नीच, शनि तुला में उच्च, मेष में नीच का होता है। राहु मिथुन मतांतर से, वृषभ में उच्च का धनु मतांतर से वृश्चिक में नीच का होता है। केतु धनु मतांतर से वृश्चिक में उच्च का, मिथुन मतांतर से वृषभ में नीच का होता है।

उच्च राशि में स्थित ग्रह द्वारा सदा शुभ फल देने और अपनी नीच राशि में स्थित ग्रह सदा नीच फल देने की बात प्रचलित है। किंतु यह बात सत्य न होकर एक झूठ से अधिक कुछ नहीं है। ये बात वास्तविकता से बहुत परे है। उच्च या नीच की राशि में ग्रह के होने का संबंध उसके स्वाभाव से ना होकर उसके बल से होता है अर्थार्त वो बलवान है या बलहीन। उसके शुभ या अशुभ होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

कभी-कभी उच्च और नीच ग्रह अपने शाब्दिक अर्थ या स्वभाव से परे प्रभाव देने लगते हैं। बहुत सी कुंडलियों में उच्च राशि में स्थित ग्रह बहुत अशुभ फल दे रहा होता है और अशुभ होने की स्थिति में अधिक बलवान होने के कारण सामान्य से बहुत अधिक हानि करता है। बहुत सी कुंडलियों में नीच राशि में स्थित ग्रह स्वभाव से शुभ फल दे रहा होता है और बलहीन होने के कारण शुभ फलों में कुछ न कुछ कमी रह जाती है। कुंडली में नीच ग्रह के प्रभाव को कम करने के लिए राशि में स्थित शुभ फलदायी ग्रहों के रत्न धारण करने से बहुत लाभ होता है। राशि में शामिल ग्रहों के रत्न धारण करने से अतिरिक्त बल से अधिक बलवान होकर ग्रह अपने शुभ फलों में वृद्धि करने में सक्षम हो जाते हैं।

सभी ग्रहों की अपनी उच्च व नीच राशियां हैं और ग्रहों की अपनी मूलत्रिकोण राशि भी होती है। किसी भी ग्रह की सबसे उत्तम स्थिति उसका अपनी उच्च राशि में होना माना गया है। उसके बाद मूलत्रिकोण राशि में होना उच्च राशि से कुछ कम प्रभाव देता है। यदि ग्रह स्वराशि का है तब मूल त्रिकोण से कुछ कम प्रभावी होगा लेकिन ग्रह की स्थिति तब भी शुभ ही मानी जाती है।

अस्त गृह

जन्म कुंडली का अध्ययन बिना अस्त ग्रहों के अध्ययन के बिना अधूरा है और कुंडली धारक के विषय में की गई कई भविष्यवाणियां गलत हो सकती हैं। जन्म कुंडली में अस्त ग्रहों का अपना एक विशेष महत्व होता है। आकाश मंडल में कोई भी ग्रह जब सूर्य से एक निश्चित दूरी के अंदर आ जाता है तो सूर्य के तेज से वह ग्रह अपनी आभा तथा शक्ति खोने लगता है जिसके कारण वह आकाश मंडल में दिखाई देना बंद हो जाता है तथा इस ग्रह को अस्त ग्रह का नाम दिया जाता है। किसी भी ग्रह के अस्त हो जाने की स्थिति में उसके बल में कमी आ जाती है तथा वह किसी कुंडली में सुचारू रुप से कार्य करने में सक्षम नहीं रह जाता। किसी भी अस्त ग्रह की बलहीनता का सही अनुमान लगाने के लिए उस ग्रह का किसी कुंडली में स्थिति के कारण बल, सूर्य का उसी कुंडली विशेष में बल तथा अस्त ग्रह की सूर्य से दूरी देखना आवश्यक होता है।

जिस मापदंड से हर ग्रह की सूर्य से समीपता नापी जाती है वो डिग्रियों में मापी जाती है। इस मापदंड के अनुसार हर ग्रह सूर्य से निश्चित दूरी पर आते ही अस्त हो जाता है। आइये जाने सूर्य से कब-कब अस्त होते हैं ग्रह:

• चन्द्रमा सूर्य के दोनों ओर 12 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।
• गुरू सूर्य के दोनों ओर 11 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।
• शुक्र सूर्य के दोनों ओर 10 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं। किन्तु यदि शुक्र अपनी सामान्य गति की बनिस्पत वक्र गति से चल रहे हों तो वह सूर्य के दोनों ओर 8 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।
• बुध सूर्य के दोनों ओर 14 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं। किन्तु यदि बुध अपनी सामान्य गति की बनिस्पत वक्र गति से चल रहे हों तो वह सूर्य के दोनों ओर 12 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।
• शनि सूर्य के दोनों ओर 15 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।
• राहु-केतु छाया ग्रह होने के कारण कभी भी अस्त नहीं होते।

अस्त ग्रह का प्रभाव कैसे कम करे :

अस्त ग्रहों को सुचारू रूप से चलने के लिए अतिरिक्त बल की आवश्यकता होती है तथा कुंडली में किसी अस्त ग्रह का स्वभाव देखने के बाद ही यह निर्णय किया जाता है कि उस अस्त ग्रह को अतिरिक्त बल कैसे प्रदान किया जा सकता है।

• यदि किसी कुंडली में कोई ग्रह अस्त है और स्वभाव से उसका फल शुभ है तो उसे अतिरिक्त बल प्रदान करना चाहिए। अतिरिक्त बल देने का सबसे आसान तथा प्रभावशाली उपाय है रत्न धारण करना। कुंडली धारक को उस ग्रह विशेष का रत्न धारण करवा देने से ग्रह को अतिरिक्त बल मिल जाता है।

• यदि किसी कुंडली में कोई ग्रह अस्त है और स्वभाव से उसका फल अशुभ है तो उसे अतिरिक्त बल प्रदान करना चाहिए। बल देने के लिए रत्न का प्रयोग सर्वथा वर्जित है भले ही वह ग्रह कितना भी बलहीन हो। अतिरिक्त बल देने का सबसे आसान तथा प्रभावशाली उपाय है उस ग्रह का मंत्र जपना-बीज मंत्र अथवा वेद मंत्र । उस ग्रह के मंत्र का निरंतर जाप करने से या उस ग्रह के मंत्र से पूजा करवाने से ग्रह को अतिरिक्त बल तो मिलता है और साथ ही साथ उसके स्वभाव में भी परिवर्तन आता है। उसका स्वभाव अशुभ से शुभ फल हो जाता है।

वक्री ग्रह

वक्री ग्रहों को लेकर कई धारणायें है लेकिन लगभग हर दूसरे व्यक्ति की जन्म कुंडली में एक या इससे अधिक वक्री ग्रह पाये जाते हैं। समस्त ग्रह घड़ी की सुई की विपरीत दशा में सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं, किन्तु कभी-कभी देखने पर इनकी गति विपरीत दिशा में अर्थात पश्चिम से पूर्व प्रतीत होती है जिसे ग्रह की वक्री अवस्था कहते हैं | कोई भी ग्रह विशेष जब अपनी सामान्य दिशा की बजाए उल्टी दिशा यानि विपरीत दिशा में चलना शुरू कर देता है तो ऐसे ग्रह की इस गति को वक्र गति कहा जाता है तथा वक्र गति से चलने वाले ऐसे ग्रह विशेष को वक्री ग्रह कहा जाता है। इस वक्री अवस्था के कारण ही ग्रहों का परिभ्रमण पथ (कक्षा) पूर्णरुपेण वृत्ताकार न होकर अंडाकार होता है जिसके कारण इनकी पृथ्वी से दूरी परिवर्तित होती रहती है |

उदाहरण के लिए शनि यदि अपनी सामान्य गति से कन्या राशि में भ्रमण कर रहे हैं तो इसका अर्थ यह होता है कि शनि कन्या से तुला राशि की तरफ जा रहे हैं, किन्तु वक्री होने की स्थिति में शनि उल्टी दिशा में चलना शुरू कर देते हैं अर्थात शनि कन्या से तुला राशि की ओर न चलते हुए कन्या राशि से सिंह राशि की ओर चलना शुरू कर देते हैं और जैसे ही शनि का वक्र दिशा में चलने का यह समय काल समाप्त हो जाता है, वे पुन: अपनी सामान्य गति और दिशा में कन्या राशि से तुला राशि की तरफ चलना शुरू कर देते हैं। वक्र दिशा में चलने वाले अर्थात वक्री होने वाले बाकी के सभी ग्रह भी इसी तरह का व्यवहार करते हैं।

वक्री ग्रहों के प्रभाव

वक्री ग्रहों के प्रभाव बिल्कुल सामान्य गति से चलने वाले ग्रहों की तरह ही होते हैं तथा उनमें कुछ भी अंतर नहीं आता। नवग्रहों में सूर्य तथा चन्द्र सदा सामान्य दिशा में ही चलते हैं तथा यह दोनों ग्रह कभी भी वक्री नहीं होते। इनके अतिरिक्त राहु-केतु सदा उल्टी दिशा में ही चलते हैं अर्थात हमेशा ही वक्री रहते हैं। इसलिए सूर्य-चन्द्र तथा राहु-केतु के फल तथा व्यवहार सदा सामान्य ही रहते हैं तथा इनमें कोई अंतर नहीं आता।

हर ग्रह सामान्य से उल्टी दिशा में भ्रमण करने में सक्षम नहीं होता इसलिए केवल सामान्य दिशा में ही भ्रमण करता है। अधिकतर मामलों में किसी ग्रह के वक्री होने से कुंडली में उसके शुभ या अशुभ होने की स्थिति में कोई फर्क नही पड़ता अर्थात सामान्य स्थिति में किसी कुंडली में शुभ फल प्रदान करने वाला ग्रह वक्री होने की स्थिति में भी शुभ फल ही प्रदान करेगा तथा सामान्य स्थिति में किसी कुंडली में अशुभ फल प्रदान करने वाला ग्रह वक्री होने की स्थिति में भी अशुभ फल ही प्रदान करेगा। अधिकतर मामलों में ग्रह के वक्री होने की स्थिति में उसके स्वभाव में कोई फर्क नहीं आता किन्तु उसके व्यवहार में कुछ बदलाव अवश्य आ जाते हैं।

वक्री ग्रह को लेकर विभिन्न धारणाएं

• वक्री ग्रह उल्टी दिशा में चलने के कारण किसी भी कुंडली में सदा अशुभ फल ही प्रदान करते हैं।
• वक्री ग्रह किसी कुंडली विशेष में स्वभाव से विपरीत आचरण करते हैं। किसी कुंडली में सामान्य रूप से शुभ फल देने वाला ग्रह वक्री होने की स्थिति में अशुभ फल देना शुरू कर देता है या फिर अगर किसी कुंडली में सामान्य रूप से अशुभ फल देने वाला वक्री होने की स्थिति में शुभ फल देना शुरू कर देता है। वक्री ग्रह उल्टी दिशा में चलने के कारन कुंडली में शुभ या अशुभ का प्रभाव भी उल्टा कर देता है।
• अगर कोई ग्रह अपनी उच्च की राशि में स्थित होने पर वक्री हो जाता है तो उसके फल अशुभ हो जाते हैं तथा यदि कोई ग्रह अपनी नीच की राशि में वक्री हो जाता है तो उसके फल शुभ हो जाते हैं।
• प्रत्येक ग्रह केवल सामान्य दिशा में ही भ्रमण करता है तथा कोई भी ग्रह सामान्य से उल्टी दिशा में भ्रमण करने में सक्षम नहीं होता इसलिए वक्री ग्रहों के प्रभाव बिल्कुल सामान्य गति से चलने वाले ग्रहों की तरह ही होते हैं तथा उनमें कुछ भी अंतर नहीं आता।

नव ग्रहों से सम्बंधित रोग,रत्न व दान।

सूर्य।
रोग : सिरदर्द , ज्वर , नैत्रविकार , मधुमेय , पित्त रोग , हैजा , हिचकी आदि |
रत्न उपरत्न : माणिक्य , लालड़ी , तामडा , महसूरी |
जड़ी बूटिया : बेलपत्र की जड़
दान : गेंहू , लाल और पीले मिले हुए रंग के वस्त्र , लाल फल लाल मिठाई , सोने के कण , गाय, गुड और तांबा।

चन्द्रमा से सम्बंधित :
रोग : तिल्ली , पांडू , यकृत , कफ , उदार सम्बन्धी विकार , मनोविकार
रत्न उपरत्न : मोती , निमरू , चंद्रमणि ,
जड़ी बूटिया :खिन्नी की जड़
दान : चावल , श्वेत वस्त्र , कपूर , चांदी , शुद्ध , सफ़ेद चन्दन , वंश फल , श्वेत पुष्प , चीनी , वृषभ , दधि , मोती आदि।

मंगल से सम्बंधित :
रोग : पित्त , वायु , कर्ण रोग , गुणगा , विशुचिका , खुजली , रक्त सम्बन्धी बीमारिया , प्रदर , राज , अंडकोष रोग , बवासीर आदि।
रत्न – उपरत्न : मूंगा , विद्रुम
जड़ी बूटिया : अनंत मूल की जड़
दान : लाल मक्का , लाल मसूर , लाल वस्त्र , लाल फल , लाल पुष्प।

बुध से सम्बंधित :
रोग : खांसी , ह्रदय रोग , वातरोग , कोढ़ , मन्दाग्नि , श्वास रोग , दम , गूंगापन
रत्न उपरत्न : पन्ना , संग पन्ना , मरगज तथा ओनिक्स
जड़ी बूटिया : विधारा की जड़
दान : हरी मुंग , हरे वस्त्र , हरे फल , हरी मिठाई , कांसा पीतल , हाथी दांत , स्वर्ण कपूर , शस्त्र , षटरस भोजन , घृत आदि।

वृहस्पति से सम्बंधित :
रोग : कुष्ठ रोग , फोड़ा , गुल्म रोग , प्लीहा , गुप्त स्थानों के रोग
जड़ी बूटिया : नारंगी या केले की जड़
दान : चने की दल , पीले वस्त्र , सोना , हल्दी , घी , पीले वस्त्र , अश्व , पुस्तक , मधु , लवण , शर्करा , भूमि छत्र आदि।

शुक्र से सम्बंधित :
रोग : प्रमेह , मंद बुद्धि , वीर्य विकार , नपुंसकता , वीर्य का इन्द्रिय सम्बन्धी रोग
रत्न उपरत्न : सफ़ेद पुखराज , ओपल, जरकन,हिरा, करगी , सिग्मा
जड़ी बूटिया : सरपोखा की जड़
दान : चावल , चांदी , घी , सफ़ेद वस्त्र , चन्दन , दही , गंध द्रव्य , चीनी , गाय , जरकन , सफ़ेद पुष्प आदि।

शनि से सम्बंधित :
रोग : उन्माद , वात रोग , भगंदर , गठिया , स्नायु रोग , टीबी , केंसर , अल्सर
रत्न उपरत्न : नीलम , नीलिमा , जमुनिया , नीला कटहल
जड़ी बूटिया : बिच्छु बूटी की जड़ या शमी की जड़
दान : काले चने , काले कपडे , जामुन फल , कला उड़द , काली गाय , गोमेद , कालेजूते , तिल , उड़द , भैस , लोहा , तेल , उड़द , कुलथी , काले पुष्प , कस्तूरी सुवर्ण।

राहू से सम्बंधित :
रोग : अनिंद्रा , उदर रोग , मस्तिष्क रोग, पागलपन
जड़ी बूटिया : सफ़ेद चन्दन
रत्न उपरत्न : गोमेद , तुरसा , साफा
दान : अभ्रक , लौह , तिल , नीला वस्त्र , छाग , ताम्रपत्र , सप्त धान्य , उड़द , कम्बल , जोऊ , तलवार।

केतु से सम्बंधित :
रोग : चर्म रोग , मस्तिष्क तथा उदर सम्बन्धी रोग , जटिल रोग , अतिसार , दुर्घटना , शल्य क्रिया आदि
रत्न उपरत्न : वैदूर्य , लहसुनिया , गोदंती संगी
जड़ी बूटिया : असगंध की जड़
दान : कस्तूरी तिल , छाग , कला वस्त्र , ध्वज , सप्त धान्य , उड़द , कम्बल।

रोग की हालत में ग्रह का प्रकोप अर्थात ग्रह की महादशा, अन्तर्दशा लगी हुई समझनी चाहिए |
उच्च राशि का है तो उसे मजबूत किया जाता है।मंत्र जाप, रत्न ,एवं जड़ी बूटिया धारण करनी चाहिए |*इससे रोग हल्का होगा और ठीक होने लगेगा | रत्न उपरत्न सम्बंधित ग्रह के वार व नक्षत्र में धारण करने चाहिए |
यदि कोई ग्रह नीच का है तो उसका दान संकल्प करके ब्रह्मण या जरूरतमंद को श्रद्धापूर्वक देना चाहिए

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