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: लग्न में चन्द्रमा का प्रभाव

लग्नस्थ चन्द्रमा जातक को सुन्दर , चंचल , संवेदनशील एवं दूसरों का आदर करने वाला बनाता है. दूसरों को प्रसन्न व् सुखी बनाने के लिए ऐसे जातक कुछ भी करने को तत्पर हो जाते हैं. व्यक्ति स्वभाव से उदार , विनम्र और महत्वाकांक्षी होता है. महत्वाकांक्षी जातक जल्दबाजी में कभी कभी असामान्य कार्य भी कर जाते हैं. निडरता एवं बुद्धिमानी लग्नस्थ चन्द्रमा के जातकों की पहचान है.

जातक को ललित कलाओं में रूचि लग्नस्थ चन्द्रमा दे ही देता है. लग्नस्थ चन्द्रमा का जातक अस्थिर बुद्धि (मूडी) तथा पुरानी यादों में डूबा हुआ रहता है तथा अपने सुख दुःख दूसरों के साथ बांटने में उसे प्रसन्नता होती है.

जिनके लग्न में चन्द्रमा हो वह हठी नहीं होते अपितु दूसरों के अच्छे गुण शीघ्र अपनाने वाले होते हैं. ऐसे जातकों को रोग या जल का भय होना संभव है.

राशि यदि मेष , वृष या कर्क हो तो लग्नस्थ चन्द्रमा सौभाग्यशाली माना जाता है. ऐसा जातक बहुत धनवान , वैभव संपन्न तथा समाज में मान प्रतिष्ठा पाने वाला होता है.

लग्नस्थ चन्द्रमा यदि शुभ गृह से दृष्ट हो तो जातक मृदुभाषी , धनि , वैभवी व्यवहार कुशल एवं स्वस्थ होता है.

महिलाओं में लग्नस्थ चन्द्रमा मासिक धर्म व् स्वास्थ्य सूचक होता है.

द्विस्वभाव या चर राशि का चन्द्रमा जातक को पर्यटन प्रेमी, व्यवहार कुशल परन्तु डरपोक बनता है.

स्थिर राशि का चन्द्रमा जातक को दयालु , मिलनसार , संतुष्ट एवं निर्णय का पक्का बनाता है.

अग्नितत्व राशी (मेष, सिंह, धनु )का चन्द्रमा जातक को स्थिर बुद्धि , शांत, एवं सक्रीय स्वभाव, काम सुख में कम रूचि लेने वाला बनता है. ऐसा जातक अक्सर धन के प्रति लापरवाह होता है.

भूतत्व राशि (वृषभ, मकर, कन्या ) का चन्द्रमा जातक को घमंडी एवं स्वयं को बहुत अधिक चतुर समझने वाला बनाता है. ऐसा जातक बहुत लोगों के बीच डर जाता है और अपनी बात कह नहीं पता है.

वायु तत्व राशि (तुला, कुम्भ, मिथुन) का चन्द्रमा जातक को स्वार्थी एवं सत्ता का लोभी बनाती है. ऐसे जातक की रूचि राजनीति या नेतागिरी में अधिक होती है.

जल तत्व राशि (कर्क, वृश्चिक, मीन) का चन्द्रमा जातक को सुखी स्वस्थ परन्तु बातूनी एवं अविश्वसनीय बनता है. चन्द्रमा एक जल प्रधान ग्रह और जल तत्व राशि में होने के कारण जातक को और अधिक गति एवं अस्थिरता दे देता है. ऐसे जातक अक्सर भावनायों में बह जाते हैं.

लग्नस्थ चन्द्रमा यदि पाप गृह से पीड़ित हो तो नेत्र विकार बधिरता या बुद्धि बल कमज़ोर करता है. ऐसी स्थिति में सर दर्द अनिद्रा नजला जुकाम, व्यर्थ की चिंता एवं मानसिक रोग भी संभव हैं.
[: ज्योतिष मे चंद्र ग्रह का महत्व।

सूर्य के बाद धरती के उपग्रह चन्द्र का प्रभाव धरती पर पूर्णिमा के दिन सबसे ज्यादा रहता है। जिस तरह मंगल के प्रभाव से समुद्र में मूंगे की पहाड़ियां बन जाती हैं और लोगों का खून दौड़ने लगता है उसी तरह चन्द्र से समुद्र में ज्वार-भाटा उत्पत्न होने लगता है।

जितने भी दूध वाले वृक्ष हैं सभी चन्द्र के कारण उत्पन्न हैं। चन्द्रमा बीज, औषधि, जल, मोती, दूध, अश्व और मन पर राज करता है। लोगों की बेचैनी और शांति का कारण भी चन्द्रमा है।

चन्द्रमा माता का सूचक और मन का कारक है। कुंडली में चन्द्र के अशुभ होने पर मन और माता पर प्रभाव पड़ता है।

कैसे होता चन्द्र खराब? :

  • घर का वायव्य कोण दूषित होने पर भी चन्द्र खराब हो जाता है।
  • घर में जल का स्थान-दिशा यदि दूषित है तो भी चन्द्र मंदा फल देता है।
  • पूर्वजों का अपमान करने और श्राद्ध कर्म नहीं करने से भी चन्द्र दूषित हो जाता है।
  • माता का अपमान करने या उससे विवाद करने पर चन्द्र अशुभ प्रभाव देने लगता है।
  • शरीर में जल यदि दूषित हो गया है तो भी चन्द्र का अशुभ प्रभाव पड़ने लगता है।
  • गृह कलह करने और पारिवारिक सदस्य को धोखा देने से भी चन्द्र मंदा फल देता है।
  • राहु, केतु या शनि के साथ होने से तथा उनकी दृष्टि चन्द्र पर पड़ने से चन्द्र खराब फल देने लगता है।

शुभ चन्द्र व्यक्ति को धनवान और दयालु बनाता है। सुख और शांति देता है। भूमि और भवन के मालिक चन्द्रमा से चतुर्थ में शुभ ग्रह होने पर घर संबंधी शुभ फल मिलते हैं।

कैसे जानें कि चन्द्र खराब है…

  • दूध देने वाला जानवर मर जाए।
  • यदि घोड़ा पाल रखा हो तो उसकी मृत्यु भी तय है, किंतु आमतौर पर अब लोगों के यहां ये जानवर नहीं होते।
  • माता का बीमार होना या घर के जलस्रोतों का सूख जाना भी चन्द्र के अशुभ होने की निशानी है।
  • महसूस करने की क्षमता क्षीण हो जाती है।
  • राहु, केतु या शनि के साथ होने से तथा उनकी दृष्टि चन्द्र पर पड़ने से चन्द्र अशुभ हो जाता है।
  • मानसिक रोगों का कारण भी चन्द्र को माना गया है।

चंद्र ग्रह से होती ये बीमारी:

  • चन्द्र में मुख्य रूप से दिल, बायां भाग से संबंध रखता है।
  • मिर्गी का रोग।
  • पागलपन।
  • बेहोशी।
  • फेफड़े संबंधी रोग।
  • मासिक धर्म गड़बड़ाना।
  • स्मरण शक्ति कमजोर हो जाती है।
  • मानसिक तनाव और मन में घबराहट।
  • तरह-तरह की शंका और अनिश्चित भय।
  • सर्दी-जुकाम बना रहता है।
  • व्यक्ति के मन में आत्महत्या करने के विचार बार-बार आते रहते हैं।

कुंडली के 12 घरों में चंद्रमा देता है शुभ और अशुभ फल

  1. पहले लग्न में चंद्रमा हो तो जातक बलवान, ऐश्वर्यशाली, सुखी, व्यवसायी, गायन वाद्य प्रिय एवं स्थूल शरीर का होता है।
  2. दूसरे भाव में चंद्रमा हो तो जातक मधुरभाषी, सुंदर, भोगी, परदेशवासी, सहनशील एवं शांति प्रिय होता है।
  3. तीसरे भाव में अगर चंद्रमा हो तो जातक पराक्रम से धन प्राप्ति, धार्मिक, यशस्वी, प्रसन्न, आस्तिक एवं मधुरभाषी होता है।
  4. चौथे भाव में हो तो जातक दानी, मानी, सुखी, उदार, रोगरहित, विवाह के पश्चात कन्या संततिवान, सदाचारी, सट्टे से धन कमाने वाला एवं क्षमाशील होता है।
  5. लग्न के पांचवें भाव में चंद्र हो तो जातक शुद्ध बुद्धि, चंचल, सदाचारी, क्षमावान तथा शौकीन होता है।
  6. लग्न के छठे भाव में चंद्रमा होने से जातक कफ रोगी, नेत्र रोगी, अल्पायु, आसक्त, व्ययी होता है।
  7. चंद्रमा सातवें स्थान में होने से जातक सभ्य, धैर्यवान, नेता, विचारक, प्रवासी, जलयात्रा करने वाला, अभिमानी, व्यापारी, वकील एवं स्फूर्तिवान होता है।
  8. आठवें भाव में चंद्रमा होने से जातक विकारग्रस्त, कामी, व्यापार से लाभ वाला, वाचाल, स्वाभिमानी, बंधन से दुखी होने वाला एवं ईर्ष्यालु होता है।
  9. नौंवे भाव में चंद्रमा होने से जातक संतति, संपत्तिवान, धर्मात्मा, कार्यशील, प्रवास प्रिय, न्यायी, विद्वान एवं साहसी होता है।
  10. दसवें भाव में चंद्रमा होने से जातक कार्यकुशल, दयालु, निर्मल बुद्धि, व्यापारी, यशस्वी, संतोषी एवं लोकहितैषी होता है।
  11. लग्न के ग्यारहवें भाव में चंद्रमा होने से जातक चंचल बुद्धि, गुणी, संतति एवं संपत्ति से युक्त, यशस्वी, दीर्घायु, परदेशप्रिय एवं राज्यकार्य में दक्ष होता है।
  12. लग्न के बारहवें भाव में चंद्रमा होने से जातक नेत्र रोगी, कफ रोगी, क्रोधी, एकांत प्रिय, चिंतनशील, मृदुभाषी एवं अधिक व्यय करने वाला होता है।
    [रामचरितमानस की चौपाइयों में ऐसी क्षमता है कि इन चौपाइयों के जप
    से ही मनुष्य बड़े-से-बड़े संकट में भी मुक्त हो जाता है।
    इन मंत्रो का जीवन में प्रयोग अवश्य करे प्रभु श्रीराम आप के जीवन को
    सुखमय बना देगे।

1. रक्षा के लिए
मामभिरक्षक रघुकुल नायक |
घृत वर चाप रुचिर कर सायक ||

2. विपत्ति दूर करने के लिए
राजिव नयन धरे धनु सायक |
भक्त विपत्ति भंजन सुखदायक ||

*3. *सहायता के लिए*
मोरे हित हरि सम नहि कोऊ |
एहि अवसर सहाय सोई होऊ ||

4. सब काम बनाने के लिए
वंदौ बाल रुप सोई रामू |
सब सिधि सुलभ जपत जोहि नामू ||

5. वश मे करने के लिए
सुमिर पवन सुत पावन नामू |
अपने वश कर राखे राम ||

6. संकट से बचने के लिए
दीन दयालु विरद संभारी |
हरहु नाथ मम संकट भारी ||

7. विघ्न विनाश के लिए
सकल विघ्न व्यापहि नहि तेही |
राम सुकृपा बिलोकहि जेहि ||

8. रोग विनाश के लिए
राम कृपा नाशहि सव रोगा |
जो यहि भाँति बनहि संयोगा ||

9. ज्वार ताप दूर करने के लिए
दैहिक दैविक भोतिक तापा |
राम राज्य नहि काहुहि व्यापा ||

10. दुःख नाश के लिए
राम भक्ति मणि उस बस जाके |
दुःख लवलेस न सपनेहु ताके ||

11. खोई चीज पाने के लिए
गई बहोरि गरीब नेवाजू |
सरल सबल साहिब रघुराजू ||

12. अनुराग बढाने के लिए
सीता राम चरण रत मोरे |
अनुदिन बढे अनुग्रह तोरे ||

13. घर मे सुख लाने के लिए
जै सकाम नर सुनहि जे गावहि |
सुख सम्पत्ति नाना विधि पावहिं ||

14. सुधार करने के लिए
मोहि सुधारहि सोई सब भाँती |
जासु कृपा नहि कृपा अघाती ||

15. विद्या पाने के लिए
गुरू गृह पढन गए रघुराई |
अल्प काल विधा सब आई ||

16. सरस्वती निवास के लिए
जेहि पर कृपा करहि जन जानी |
कवि उर अजिर नचावहि बानी ||

17. निर्मल बुद्धि के लिए
ताके युग पदं कमल मनाऊँ |
जासु कृपा निर्मल मति पाऊँ ||

18. मोह नाश के लिए
होय विवेक मोह भ्रम भागा |
तब रघुनाथ चरण अनुरागा ||

19. प्रेम बढाने के लिए
सब नर करहिं परस्पर प्रीती |
चलत स्वधर्म कीरत श्रुति रीती ||

20. प्रीति बढाने के लिए
बैर न कर काह सन कोई |
जासन बैर प्रीति कर सोई ||

21. सुख प्रप्ति के लिए
अनुजन संयुत भोजन करही |
देखि सकल जननी सुख भरहीं ||

22. भाई का प्रेम पाने के लिए
सेवाहि सानुकूल सब भाई |
राम चरण रति अति अधिकाई ||

23. बैर दूर करने के लिए
बैर न कर काहू सन कोई |
राम प्रताप विषमता खोई ||

24. मेल कराने के लिए
गरल सुधा रिपु करही मिलाई |
गोपद सिंधु अनल सितलाई ||

25. शत्रु नाश के लिए
जाके सुमिरन ते रिपु नासा |
नाम शत्रुघ्न वेद प्रकाशा ||

26. रोजगार पाने के लिए
विश्व भरण पोषण करि जोई |
ताकर नाम भरत अस होई ||

27. इच्छा पूरी करने के लिए
राम सदा सेवक रूचि राखी |
वेद पुराण साधु सुर साखी ||

28. पाप विनाश के लिए
पापी जाकर नाम सुमिरहीं |
अति अपार भव भवसागर तरहीं ||

29. अल्प मृत्यु न होने के लिए
अल्प मृत्यु नहि कबजिहूँ पीरा |
सब सुन्दर सब निरूज शरीरा ||

30. दरिद्रता दूर के लिए
नहि दरिद्र कोऊ दुःखी न दीना |
नहि कोऊ अबुध न लक्षण हीना |

31. प्रभु दर्शन पाने के लिए
अतिशय प्रीति देख रघुवीरा |
प्रकटे ह्रदय हरण भव पीरा ||

32. शोक दूर करने के लिए
नयन बन्त रघुपतहिं बिलोकी |
आए जन्म फल होहिं विशोकी ||

33. क्षमा माँगने के लिए
अनुचित बहुत कहहूँ अज्ञाता |
क्षमहुँ क्षमा मन्दिर दोऊ भ्राता ||

जय सियाराम
जय जय हनुमान
🌹🌹
: बगलामुखी महाविद्या की विभिन्न शक्तिपीठ पं. मनोहर शर्मा ‘पुलस्त्य’ यूंतो देश भर में शक्ति उपासना से जुड़ी कई पीठें हैं, पर मां बगलामुखी से जुड़ी पीठ अथवा बगला शक्तिपीठ कम ही हैं। वैसे, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद भी हैं, लेकिन कुछ ऐसे स्थलों के नाम हम यहां दे रहे हैं जो बगला शक्तिपीठ के रूप में जाने जाते हैं अथवा प्रसिद्ध हैं। दतिया: यहां मां बगलामुखी शक्ति का ऐतिहासिक मंदिर है। यह मंदिर महाभारतयुगीन का बताया जाता है। यह पीतांबरा शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है। यह झांसी से 30 कि.मी. दिल्ली की ओर ग्वालियर व झांसी के मध्य है। इस स्थान को भक्तजन ‘पीतवसन धारिणी का न्यायालय भी मानते हैं। मान्यता है कि आचार्य द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा चिरंजीवी होने के कारण आज भी इस मंदिर में पूजा-अर्चना करने आते हैं। इसके परिसर में भगवान आशुतोष भी वनखंडेश्वर रूप में विद्यमान हैं। वाराणसी: यह उŸार प्रदेश में हिन्दुओं का तीर्थ स्थल एवं प्रसिद्ध नगर है। यहां पर भी माता बगला की शक्तिपीठ है। वनखंडी: जिला कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) में मां बगलामुखी का मंदिर ज्वालामुखी वनखंडी नामक स्थान पर है। इस मंदिर का नाम श्री 1008 बगलामुखी वनखंडी मंदिर है। यह मंदिर भी महाभारतयुगीन है। इस मंदिर में कांगड़ा के राजा सुशर्मा चंद्र घटोच ने महाभारत काल में पूजा की थी। कोटला: यह स्थान भी जिला कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) में स्थित है। यह शक्तिपीठ पठानकोट से 45 कि.मी. दूर पठानकोट-कांगड़ा मार्ग पर है सड़क से 50 मी. दूर पहाड़ी पर पुराने किले की परिक्रमा करने में मां बगलामुखी का भव्य मंदिर है जिसके रास्ते में 138 सीढ़ियां हैं। मंदिर की स्थापना सन् 1810 में हुई थी। गंगरेट: यह स्थान भी हिमाचल प्रदेश के जिला ऊना में स्थित है। यहां मां बगलामुखी का भव्य मंदिर है। यहां प्रति वर्ष भव्य मेला लगता है। त्रिशक्ति माता: यह मध्य प्रदेश के नलखेड़ा में लखुंदर नदी के किनारे स्थित है। द्वापरयुगीन यह मंदिर अत्यंत चमत्कारिक है। इसकी स्थापना महाभारत में विजय प्राप्त करने के लिए महाराजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के निर्देश पर की थी। इस मंदिर में बेलपत्र, चंपा, सफेद आक, आंवला, नीम व पीपल के वृ़क्ष भी हैं। मां बमलेश्वरी: यह छŸाीसगढ़ के राजनांदगांव जिले से लगभग 40 कि.मी. दूर पहाड़ी पर स्थित है। यहां माता व बगलामुखी मां बम्लेश्वरी कहलाती हैं यहां प्रतिवर्ष आश्विन एवं चैत्र की नवरात्रियों में भव्य मेले लगते हैं। यहां बहुत दूर से लोग मां के दर्शन करने आते हैं। बिलई माता: यह छŸाीसगढ़ के धमतरी जिले में रायपुर से 80 किमी. दूर जगदलपुर (बस्तर) मार्ग पर स्थित है। यहां माता बगलामुखी बिलईमाता के नाम से प्रसिद्ध हैं। मुम्बादेवी: महाराष्ट्र में भगवत पूजा का स्वरूप मुख्यतः देवीपरक ही है। माता बगला शक्ति ही ‘तुलजा भवानी के रूप में इस प्रदेश की कुल देवी हैं। इनका दूसरा नाम ‘मुम्बा देवी भी है। ‘मुम्बादेवी’ के नाम पर ही इस प्रदेश की राजधानी का नाम रखा गया ‘मुम्बई’ है।

👆 यह msg फ्यूचर समाचार मैगज़ीन से लिया गया है

संसार में करोड़ों व्यक्ति हैं । सब का ज्ञान का स्तर अलग अलग है। विद्वानों ने कहा है, मित्रता समान विचारों या स्वभाव वालों में होती है। जिन लोगों के गुण कर्म स्वभाव आपस में मिलते जुलते हों, उनमें मित्रता हो जाती है और लंबे समय तक बनी रहती है। ऐसे ही लोगों से बातचीत करने में आनंद आता है । क्योंकि उनसे भय नहीं लगता।
कुछ लोग आप से ऊंचे स्तर के हो सकते हैं। धन में , बल में , विद्या में , किसी भी क्षेत्र में वे आप से बहुत अधिक हो सकते हैं । ऐसे लोगों से आपको संकोच और भय होता है। उनसे आप इतना खुलकर बात नहीं कर पाते ।

कुछ लोग आप से काफी नीचे स्तर के होते हैं। धन बल विद्या आदि के क्षेत्र में आपसे बहुत छोटे हैं । उनसे भी आप प्रायः बात नहीं करते । आपको लगता है , यह तो छोटा व्यक्ति है , यह हमारी बात को क्या समझेगा? इसलिए ऐसा सोचकर आप उससे बात करने से कतराते हैं । उससे भी बात करने में आपको आनंद नहीं आता ।
आनंद तो बस उसी से बात करने में आता है जो आप के बराबर का हो । उससे आप को भय नहीं लगता। खुल कर बात कर पाते हैं ।
हां , अपवाद रूप से उन लोगों के साथ भी आप अच्छी तरह खुलकर बात कर पाते हैं, जिनसे आपको भय नहीं लगता । क्योंकि उनका स्वभाव बहुत सरल होता है , चाहे वे आपसे कितने ही ऊंचे स्तर के धनवान बलवान या विद्वान भी क्यों न हों! –
[ बरसात में खानपास कैसा हो

बरसात के मौसम में बॉडी और खाने पीने की हर चीज में कुछ कैमिकल बदलाव आ जाते हैं। इस मौसम में कीड़ों की संख्या बढ़ जाती है। पानी उतना साफ नहीं रह जाता। इसलिए इस मौसम में तबीयत बिगड़ने के ज्यादा चांस होते हैं। अगर मौसम बदला है तो हमें खाना पीना और उसके तौर तरीकों में भी बदलाव लाना होगा। नहीं तो हम दो तरह से रोगों का शिकार हो सकते हैं, एक जिनके नतीजे तुरंत नजर आ जाते हैं और दूसरे जो देर से रंग दिखाते हैं।
हर मौसम की अपनी एक तासीर होती है। हवा में नमी, तापमान सब बदलता रहता है। आपने गौर किया होगा कि हर मौसम में अलग अलग सब्जियां और फल बाजार में आते हैं। इन्हें ही हम मौसमी सब्जियां और फल कहते हैं।

जला देने वाली गर्म और सूखी हवाओं के बाद आता है बरसात का मौसम। हर ओर इस समय नमी बनी रहती है, हवा भी नमी लिए होती है। बरसात रुकती है तो सूरज पूरे तेज के साथ खिलता है। इससे माहौल में उमस बढ़ जाती है। आपने शायद गौर नहीं किया होगा मगर बरसात के मौसम में पानी के स्वाद और उसकी महक बदल जाती है। इसकी वजह होती है धरती से निकलने वाली गर्म गैंसें। दरअसल भारी गर्मी के तपी हुई धरती के भीतर जब पानी जाता है तो एकदम से गैसें बाहर निकलती हैं। ये गैसें एसिड के नेचर की होती हैं।

बारिश में यूं होता है हाजमा कमजोर
गर्मियों के समय में शरीर में जमा हुआ वात दोष इस समय बाहर आता है। वात दोष और माहौल में जो एसिड होता है दोनों मिलकर हाजमे की ताकत पर हमला कर देते हैं। इस मौसम में हाजमा कमजोर हो जाता है और जो लोग पेट के कच्चे होते हैं उनका पेट चलने लगता है। बाकी लोगों में एसिडिटी की शिकायत बढ़ जाती है। इसकी वजह से डायरिया ओर पेचिश के मरीजों की गिनती बढ़ जाती है। पेट फूला फूला रहता है। अब अगर इन हालात में आप गैस बढ़ाने वाली चीजें खाएंगे तो आपकी हेल्थ का तो भगवान ही मालिक होगा। आयुर्वेद ने हर मौसम के हिसाब से खानपान को बांटा हुआ है। उसके नियम लंबी रिसर्च और अनुभव के आधार पर बने हैं। अगर आप बीमारियों से बचना चाहते हैं तो उनका पालन करें।

बरसात में करें इनसे परहेज – मसूर, मक्का, आलू, कटहल, मटर, उड़द, चने की दाल, मोठ जैसी भारी व गैस को बढ़ाने वाली चीजें नहीं खानी हैं। बासी और रूखा खाना भी न खाएं। अगर पत्तेदार सब्जियां बना रहे हैं तो उसके साथ दही का इस्तेमाल करें। रात के समय छाछ व दही का इस्तेमाल न करें। कलौंजी, जैम, मुरब्बा और अचार वगैरा से भी इन दिनों जरा दूरी बना कर रखें। नॉन वेज से जितना हो सके परहेज करें। साफ पानी पर सबसे ज्‍यादा जोर देना चाहिए। इस मौसम में सबसे पहले पानी में गड़बड़ पैदा होती है।
बरसात का मौसम जब जा रहा हो तो बहुत तेज मसाले वाली वस्तुएं, तली हुई चीजें, बेसन की पकौड़ियां, गर्म और खट्टी तासीर वाली चीजें न खाएं।

बरसात के मौसम में क्या खाएं
ये तो हम आपको पहले ही बता चुके हैं इस मौसम में हाजमे की ताकत कमजोर पड़ जाती है। इसलिए ऐसी चीजें खाएं जो आसानी से पच जाती हों। घीया, तोरी, टमाटर, भिंडी, प्याज और पुदीना शौक से खाएं। फलों में सेब, केला, आडू व अनार खा सकते हैं। मोटे अनाज में चावल, गेहूं, मूंग की दाल, खिचड़ी, दही, लस्सी, सरसों का सेवन करें। अगर चौलाई मिल जाए तो उसे खाने में जरूर शामिल करें। बरसात के मौसम में चौलाई खाना खासतौर पर फायदा पहुंचाता है। चौलाई अच्‍छी तरह से हजम हो जाती है और इससे गैस की दिक्‍कत भी घटती है। खाने में धनिया, अदरक, हींग, काली मिर्च डालें।

रहन सहन कैसा हो
इस मौसम में बॉडी पर उबटन लगाना, मालिश करना और सिकाई करना अच्‍छा रहता है। ढीले-ढाले कपड़े पहनने चाहिएं। कोशिश करें कि जहां आप सोएं वहां नमी न हो। नीम की पत्‍तियां, लोबान, हींग और गूगल को जलाकर धुंआ करेंगे तो मच्‍छर और मक्‍खियां कम परेशान करेंगे। हल्‍की फुल्‍की कसरत करें और सैर पर जाएं। बारिश के दिनों में दिन के वक्त सोना नहीं चाहिए और बहुत ज्यादा मेहनत वाला काम भी नहीं करना चाहिए।

हाजमा दुरुस्‍त कैसे करें
करें आपकी हाजमे की ताकत कमजोर है तो जाहिर तौर पर बरसात के दिनों में ये और कमजोर हो गई होगी और आपको गैस व बदहजमी की शिकायत हो रही होगी। इससे बचने का एक आसान सा उपाय है। खाने से पहले 5 से 10 ग्राम अदरक का टुकड़ा सेंधा नमक के साथ चबा चबाकर खाएं। इससे हाजमे की ताकत बढ़ेगी, भूख खुलकर लगेगी। मगर फिर भी इस बात का ध्‍यान रखें कि इस मौसम में बारबार खाना या जरूरत से ज्‍यादा ठीक नहीं है..

[ दर्द घुटने टेक देगा आयुर्वेद घरेलू होनेओपैथी के आगे बिना दुष्प्रभाव के एक बार इस्तेमाल तो करें नियमित

यह लेख बड़ा जरूर है लेकिन आपकी स्वास्थ्य व समृद्धि की रक्षा जरूर करेगा

साइटिका, गठिया का दर्द, कमर का दर्द ,जोड़ों का दर्द और कंधे की जकड़न स्नायू शूल मांशपेशियों का दर्द को सिर्फ़ 1 मिनट में ख़त्म करने का अद्भुत उपाय

शरीर में दर्द होना एक आम समस्या है। लेकिन इसके लिए यह तो जरूरी नहीं है कि आप दर्द निवारक दवाईयों का सेवन करें। भारत में अक्सर देखा गया है कि यदि शरीर के किसी भी अंग में दर्द हो रहा होता है तो वे तुरंत दर्द नाशक गोलियां खा लेते हैं। जिसके दुष्प्रभाव उन्हें आगे चलकर झेलने पड़ते हैं। पेन किलर के साइड इफेक्टस होते हैं। इनकी जगह आप अपने घर में दर्द निवारक तेल बनाकर उसकी मालिश कर सकते हो जिससे दर्द पल भर में दूर हो जाएगा और आपको इसका फायदा भी मिलेगा।आइये जानते हैं दर्द निवारक तेल बनाने का तरीका।

दर्द नाशक तेल बनाने का तरीका :

1. पहला तरीका : कांच कि शीशी में एक छोटा कपूरए पुदीने का रस एक छोटा चम्मचए एक चम्मच अजवायन को डालकर अच्छे से मिलाएं और इसमें एक चम्मच नीलगिरी का तेल डालकर इसे अच्छे से हिलाएं। अब इस तेल को दर्द वाली जगह पर लगाएं।

2. दूसरा तरीका : तारपीन का तेल 60 ग्राम, कपूर 25 ग्राम। इन दोनों को मिलाकर किसी कांच की शीशी में भरकर इसे धूप में रख दें। और समय.समय पर इसे हिलाएं भी। जिससे कि इसमें मौजूद कपूर अच्छे से घुल जाए। अब आपका दर्द निवारक तेल तैयार है।

3. तीसरा तरीका : पचास ग्राम सरसों के तेल को किसी बर्तन में डाल दें। और उसमें दो गांठ छिला और पिसा हुआ लहसुन का पेस्ट और एक चम्मच सेंधा नमक को डाल कर इसे गैस या चूले पर तब तक पकाते रहें जब तक इसमें मौजूद लहसुन काला न पड़ जाए। फिर बाद में इसे ठंडा करके किसी छोटी बोतल या कांच की शीशी में भर कर रख लें।

इन तीनों तेलों को आप अलग-अलग बनाकर बोतलों या कांच की शीशीयों में भरकर रख लें। ये तेल दर्द निवारक तेल गठिया के दर्द कमर के दर्द जोड़ों के दर्द और शरीर के अन्य किसी हिस्से में होने वाले दर्द में राहत देते हैं।

साइटिका, रिंगन बाय, जोड़ों के दर्द, घुटनो के दर्द, कंधे की जकड़न, कमर दर्द के लिए एक अद्भुत तेल

साइटिका, रिंगन बाय, गृध्रसी, जोड़ों के दर्द, घुटनो के दर्द, कंधे की जकड़न एक टांग मे दर्द (साइटिका, रिंगन बाय, गृध्रसी), गर्दन का दर्द (सर्वाइकल स्पोंडोलाइटिस), कमर दर्द आदि के लिए ये तेल अद्भुत रिजल्ट देता हैं। दर्द भगाएँ चुटकी में एक बार जरूर अपनाएँ। ये चिकित्सा आयुर्वेद विशेषज्ञ “श्री श्याम सुंदर” जी ने अपनी पुस्तक रसायनसार मे लिखी हैं। मैं इस तेल को पिछले 2 सालों से बना रहा हूँ और प्रयोग कर रहा हूँ। कोई भी तेल जैसे महानारायण तेल, आयोडेक्स, मूव, वोलीनी आदि इसके समान प्रभावशाली नहीं है। एक बार आप इसे जरूर बनाए।

आवश्यक सामग्री :

कायफल = 250 ग्राम,

तेल (सरसों या तिल का) = 500 ग्राम,

दालचीनी = 25 ग्राम

कपूर = 5 टिकिया

कायफल- “यह एक पेड़ की छाल है” जो देखने मे गहरे लाल रंग की खुरदरी लगभग 2 इंच के टुकड़ों मे मिलती है। ये सभी आयुर्वेदिक जड़ी बूटी बेचने वाली दुकानों पर कायफल के नाम से मिलती है। इसे लाकर कूट कर बारीक पीस लेना चाहिए। जितना महीन/ बारीक पीसोगे उतना ही अधिक गुणकारी होगा।

तेल बनाने की विधि :

एक लोहे/ पीतल की कड़ाही मे तेल गरम करें। जब तेल गरम हो जाए तब थोड़ा थोड़ा करके कायफल का चूर्ण डालते जाएँ। आग धीमी रखें। फिर इसमें दालचीनी का पाउडर डालें। जब सारा चूर्ण खत्म हो जाए तब कड़ाही के नीचे से आग बंद कर दे। एक कपड़े मे से तेल छान ले। तेल ठंडा हो जाए तब कपड़े को निचोड़ लें। यह तेल हल्का गरम कर फिर उसमें 5 कपूर की टिकिया मिला दे या तेल में अच्छे से कपूर मिक्स हो जाये इसलिए इसका पाउडर बना कर डाले तो ठीक होगा। इस तेल को एक बोतल मे रख ले। कुछ दिन मे तेल मे से लाल रंग नीचे बैठ जाएगा। उसके बाद उसे दूसरी शीशी मे डाल ले।

प्रयोग विधि :

अधिक गुणकारी बनाने के लिए इस साफ तेल मे 25 ग्राम दालचीनी का मोटा चूर्ण डाल दे। जो कायफल का चूर्ण तेल छानने के बाद बच जाए उसी को हल्का गरम करके उसी से सेके। उसे फेकने की जरूरत नहीं। हर रोज उसी से सेके।

जहां पर भी दर्द हो इसे हल्का गरम करके धीरे धीरे मालिश करें। मालिश करते समय हाथ का दबाव कम रखें। उसके बाद सेक जरूर करे।

बिना सेक के लाभ कम होता है। मालिस करने से पहले पानी पी ले। मालिश और सेक के 2 घंटे बाद तक ठंडा पानी न पिए।

दर्दनिवारक तेल बनाने की एक और विधि जो मेरी 70 वर्षीय मासी जी हर चिकित्सा पद्धति से इलाज कराने के बाद थक हार कर नानी माँ के ज्ञानानुसार इस घरेलू तेल का उपयोग कर रही हैं 30 वर्षो से इस तेल का उपयोग कर रही हैं और दर्दनिवारक दवायों से कोषों दूर हैंसाथ ही अपना और हृदयरोग से ग्रसित मौसा जी का देखभाल कर लेती हैं जबकि एलोपैथी चिकित्सा ने 20 साल पहले घुटना बदलने की सलाह दे चुके हैं*

समय के साथ दर्द बर्दाश्त करने की शक्ति रखे अन्यथा स्वास्थ्य व समृद्धि दोनो का नाश हो जाएगा जब दिल सामाज पारिवारिक भौतिक दर्द बर्दाश्त कर सकते हैं तो इसका दर्द क्यों नहीं दर्द निवारक आयुर्वेद होमेओपेथी पंचगव्य या घरेलू ही उपयोग में लायें

*दर्दनिवारक तेल :-

दर्दनिवारक तेल बनाने की विधि

500ml तिल का तेल या सरसो तेल
100gram लहसुन की कली
50 ग्राम सौठ
25 ग्राम कच्चा कपूर
15 ग्राम पीपरमेंट
अजवायन 2 चम्मच
मेथी 2 चम्मच
लौंग 15 20
दालचीनी 25 ग्राम
सफेद प्याज 1
गौमुत्र 100 ml या गौ अर्क 20ml
बड़ी इलायची 2 pcs
जवन्तरि 10 ग्राम
सबसे पहले धीमी आंच पर तेल में सभी का पाउडर बनाकर या पेस्ट बनाकर डालकर गर्म करें गर्म होते होते झाग व बुलबुले बनने बन्द हो जाएंगे तो आग को तेज करे जब सभी सुनहरे या काले रंग को हो तो आग बन्द कर दे इस बीच मे चलाते रहे । अब कपूर व पीपरमेंट डालकर खूब घोल दे अब छान कर कांच की शीशी में रखे व दर्द होने पर इस्तेमाल करें।
बाजार से शुद्ध व उत्तम कोटि का तेल ।
इस्तेमाल व शेयर करे साथ ही उपयोग के बाद अनुभव शेयर करें स्वस्थ व समृद्ध भारत निमार्ण हेतु

कुछ अन्य उपाये करें

दो गेंहूं के दाने के बराबर चुना दूध छोड़कर किसी भी तरल पेय में पथरी की समस्या हो तो न ले

या

2 चम्मच मेथी रात को एक गिलास पानी मे भिगो दें सुबह इस पानी को पिये व मेथी को चबाकर खाये

या

हरड़ को गौमुत्र में भिगोकर रातभर के लिए सुबह इसे साँवली छाँव में सुखाकर अरण्ड के तेल में भूनकर पाउडर बनाले इस पाउडर का एक चम्मच या भुने हरड़ का एक पीस भोजन के बाद ले गुनगुने जल के साथ

या

सुबह प्रतिदिन एक चम्मच अरण्ड का तेल गौमुत्र के साथ सेवन करें

या

प्रतिदिन एक कप गौमुत्र पिये सर्वरोगनाशक हेतु

या

बराबर मात्रा में मेथी हल्दी सौठ का चूर्ण बनाकर रखे सुबह शाम भोजन के बाद एक चम्मच गर्म जल या गर्म पानी के साथ सेवन करे

जब दर्द बिस्तर पर लेटा कर छोड़ दे आर्थत घुटने बदलने की नौबत आये तब इस दिव्य औषधि का उपयोग करें

हरसिंगार (पारिजात) के पत्तो की चटनी 2 चम्मच बनाये और एक गिलास पानी मे उबाले जब पानी आधा रह जाये तो इसे रातभर छोड़ दे सुबह इस पानी को पी लें
: माइग्रेन के कारण
हाई ब्लड प्रैशर
ज्यादा तनाव लेना
नींद पूरी न होना
मौसम में बदलाव के कारण
दर्द निवारक दवाईयों का अधिक सेवन

माइग्रेन के लक्षण
भूख कम लगना
पसीना अधिक आना
कमजोरी मसूस होना
आंखों में दर्द या धुंधला दिखाई देना
पूरे या आधे सिर में तेज दर्द
तेज आवाज या रोशनी से घबराहट
उल्टी आना या जी मचलाना
किसी काम में मन न लगना

माइग्रेन के घरेलू नुस्खे
देसी घी
माइग्रेन के दर्द से छुटकारा पाने के लिए रोजाना शुद्ध देसी घी की 2-2 बूंदे नाक में डालें। इससे आपको माइग्रेन दर्द से राहत मिलेगी।

सेब
रोज सुबह खाली पेट सेब का सेवन करें। माइग्रेन से छुटकारा पाने के लिए यह काफी असरदार तरीका है।

लौंग पाउडर
अगर सिर में ज्यादा दर्द हो रहा है तो तुरंत लौंग पाउडर और नमक मिलाकर दूध के साथ मिलाकर पिएं। ऐसा करने से सिर का दर्द झट से गायब हो जाएगा।

नींबू का छिलका
नींबू के छिलके को धूप में सूखाकर पेस्ट बना लें। इस पेसट को माथे पर लगाने से आपको माइग्रेन के दर्द से छुटकारा मिल जाएगा।

पालक और गाजर का जूस
माइग्रेन के दर्द से छुटकारा पाने के लिए पालक और गाजर का जूस पीएं। इससे आपका दर्द मिनटों में गायब हो जाएगा।

खीरा
खीरे की स्लाइस को सिर पर रगड़े या फिर इसे सूंघे। इससे आपको माइग्रेन के दर्द से आराम मिलेगा।

अदरक
1 चम्मच अदरक का रस और शहद को मिक्स करके पीएं। इसके अलावा माइग्रेन के दर्द को दूर करने के लिए आप अदरक का टुकड़ा भी मुंह में रख सकते हैं। अदरक का किसी भी रूप में सेवन माइग्रेन में राहत दिलाता है।

माइग्रेन के लिए योग
माइग्रेन के दर्द से छुटाकारा पाने के लिए आप रोजाना योग और व्यायाम करें। नियमित रूप और सही तरीके से योग करने पर भी आपकी माइग्रेन की समस्या हमेशा के लिए दूर हो जाएगी। माइग्रेन की समस्या में आप अनुलोम-विलोम प्रायाणाम, अधो मुखा सवनआसन, जानु सिरसासन, शिशुआसन और सेतुबंधा आसन कर सकते हैं।

: 🐚 मुंह के छाले 🐚

• तवे पर सुहागे को फुलाकर शहद के साथ छालों पर लगाना
चाहिए। इससे मुंह के छाले ठीक हो जाते हैं।
• छोटी इलायची को पीसकर बारीक चूर्ण बना लें। फिर शहद
में मिलाकर छालों पर लगायें।
• फिटकरी को पानी में घोल लें और एक चम्मच शहद के साथ
मिलाकर कुल्ला करें। यह कुल्ला भोजन करने से पहले सुबह,
दोपहर तथा शाम को करना चाहिए।
• पेट में गर्मी ज्यादा हो तो त्रिफला का चूर्ण शहद के साथ लेना
चाहिए। केवल आंवले का चूर्ण शहद के साथ लेने से भी पेट
की गर्मी शांत होती है और मुंह के छाले ठीक होने लगते हैं।
मोटापा दूर करके त्वचा का रंग निखारना है? तो नींबू के ये नुस्खे आपको जरूर पता होने चाहिए

नींबू केवल खाने-पीने की चीजों में ही इस्तेमाल नहीं होता। इसके कुछ ऐसे नुस्खे भी है जिन्हें आजमाकर आप कई तरह की सेहत और सौन्दर्य समस्याओं से निजात पा सकते हैं। आइए, जानते हैं नींबू के 10 कमाल के घरेलू नुस्खे –
1 शुद्ध शहद में नींबू की शिकंजी पीने से मोटापा दूर होता है।
2 नींबू के सेवन से सूखा रोग दूर होता है।
3 नींबू का रस एवं शहद एक-एक तोला लेने से दमा में आराम मिलता है।
4 नींबू का छिलका पीसकर उसका लेप माथे पर लगाने से माइग्रेन ठीक होता है।
5 नींबू में पिसी काली मिर्च छिड़क कर जरा सा गर्म करके चूसने से मलेरिया ज्वर में आराम मिलता है।
6 नींबू के रस में नमक मिलाकर नहाने से त्वचा का रंग निखरता है और सौंदर्य बढ़ता है।
7 नौसादर को नींबू के रस में पीसकर लगाने से दाद ठीक होता है।
8 नींबू के बीज को पीसकर माथे पर लगाने से गंजापन दूर होता है।
9 बहरापन हो तो नींबू के रस में दालचीनी का तेल मिलाकर डालें।
10 आधा कप गाजर के रस में नींबू निचोड़कर पिएं, रक्त की कमी दूर होगी। 
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।।ॐ नमो नमः।।
तेल के बारह अचूक उपाय…

तेल शनि से संबंधित पदार्थ है। तेल का हमारे जीवन में बहुत बड़ा योगदान है। तेल के कई फायदे भी हैं और नुकसान भी।

👉 चमेली का तेल: को हर मंगलवार या शनिवार को सिन्दूर और चमेली का तेल अर्पित करना चाहिए। नियमित रूप से हनुमानजी को धूप-अगरबत्ती लगाना चाहिए। हार-फूल अर्पित करना चाहिए। हनुमानजी को चमेली के तेल का दीपक नहीं लगाया जाता बल्कि तेल उनके शरीर पर लगाया जाता है। ऐसा करने पर सभी तरह की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।

👉 सरसों का तेल: एक कटोरी में सरसों का तेल लेकर उसमें अपनी छाया देखकर उसे शनिवार के दिन शाम को शनिदेव के मंदिर में रख आएं। इसके अलावा आप अलग से शनिदेव को तेल चढ़ा भी सकते हैं। इस उपाय से आपके ऊपर शनिदेव की कृपा बनी रहेगी।

👉 तिल का तेल: तिल के तेल का दीपक 41 दिन लगातार पीपल के नीचे प्रज्वलित करने से असाध्य रोगों में अभूतपूर्व लाभ मिलता है और रोगी स्वस्थ हो जाता है। भिन्न-भिन्न साधनाओं व सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए भी पीपल के नीचे दीपक प्रज्वलित किए जाने का विधान है।

👉 शारीरिक कष्ट दूर करने के लिए: शनिवार को सवा किलो आलू व बैंगन की सब्जी सरसों के तेल में बनाएं। उतनी ही पूरियां सरसों के तेल में बनाकर अंधे, लंगड़े व गरीब लोगों को यह भोजन खिलाएं। ऐसा कम से कम 3 शनिवार करेंगे तो शारीरिक कष्‍ट दूर हो जाएगा।

👉 दुर्भाग्य से पीछा छुड़ाने का टोटका: सरसों के तेल में सिंके गेहूं के आटे व पुराने गुड़ से तैयार सात पूए, सात मदार (आक) के फूल, सिन्दूर, आटे से तैयार सरसों के तेल का दीपक, पत्तल या अरंडी के पत्ते पर रखकर शनिवार की रात में किसी चौराहे पर रखकर कहें- ‘हे मेरे दुर्भाग्य, तुझे यहीं छोड़े जा रहा हूं, कृपा करके मेरा पीछा ना करना।’ सामान रखकर पीछे मुड़कर न देखें।

👉 धन-समृद्धि हेतु: कच्ची घानी के तेल के दीपक में लौंग डालकर हनुमानजी की आरती करें। अनिष्ट दूर होगा और धन भी प्राप्त होगा।

👉 सुख-शां‍ति हेतु: खुशहाल पारिवारिक जीवन के लिए किसी भी आश्रम में कुछ आटा और सरसों का तेल दान करें।

👉 नया घर चाहिए तो करें ये उपाय: शमी के पौधे के पास लोहे के दीये में तिल के तेल में सरसों का तेल मिलाकर काले धागे की बत्ती जलाएं। दीये का मुख 4 दिशाओं और 4 कोणों सहित आठों दिशाओं में करें। फिर दीये को जल में प्रवाहित कर दें। यह कार्य 27 शनिवार तक करेंगे तो निश्चित ही आप नए घर में प्रवेश कर जाएंगे।

👉 शराब छुड़वाने का टोटका: एक शराब की बोतल किसी शनिवार को शराब पीने वाले के सो जाने के बाद उसके ऊपर से 21 बार वार लें। फिर उस बोतल के साथ किसी अन्य बोतल में 800 ग्राम सरसों का तेल लेकर आपस में मिला लें और किसी बहते हुए पानी के किनारे में उल्टा गाड़ दें जिससे बोतलों के ऊपर से जल बहता रहे। यह उपाय किसी योग्य गुरु से पूछकर ही करें।

👉 मंदी से छुटकारा पाने के लिए: अगर आपके व्यापार या नौकरी में मंदी का दौर चल रहा है तो आप किसी साफ शीशी में सरसों का तेल भरकर उस शीशी को किसी तालाब या बहती नदी के जल में डाल दें। शीघ्र ही मंदी का असर जाता रहेगा। व्यापार या नौकरी में उन्नति होती रहेगी।

👉 रोग के कारण किसी के मरने की आशंका हो तो: गुड़ को तेल में मिश्रित करके जिस व्यक्ति के मरने की आशंका हो, उसके सिर पर से 7 बार उतारकर मंगलवार या शनिवार को भैंस को खिला दें। ऐसा कम से कम 5 मंगलवार या शनिवार को करें। यह उपाय भी किसी योग्य गुरु से पूछकर ही करें।

👉 पीपल के नीचे सरसों तेल का दीपक लगातार 41 शनिवार तक प्रज्वलित करने से मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है।।ॐ नमो नमः।।: 🔆 दुःख और सुख 🔆

🔷 पाप से मन को बचाये रहना और उसे पुण्य में प्रवृत्त रखना यही मानव जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है।

🔶 एक बहुत अमीर सेठ थे। एक दिन वे बैठे थे कि भागती-भागती नौकरानी उनके पास आई और कहने लगीः

🔷 “सेठ जी! वह नौ लाख रूपयेवाला हार गुम हो गया।”

🔶 सेठ जी बोलेः “अच्छा हुआ….. भला हुआ।” उस समय सेठ जी के पास उनका रिश्तेदार बैठा था। उसने सोचाः बड़ा बेपरवाह है! आधा घंटा बीता होगा कि नौकरानी फिर आईः “सेठ जी! सेठ जी! वह हार मिल गया।” सेठ जी कहते हैं- “अच्छा हुआ…. भला हुआ।”

🔷 वह रिश्तेदार प्रश्न करता हैः “सेठजी! जब नौ लाख का हार चला गया तब भी आपने कहा कि ‘अच्छा हुआ…. भला हुआ’ और जब मिल गया तब भी आप कह रहे हैं ‘अच्छा हुआ…. भला हुआ।’ ऐसा क्यों?”

🔶 सेठ जीः “एक तो हार चला गया और ऊपर से क्या अपनी शांति भी चली जानी चाहिए? नहीं। जो हुआ अच्छा हुआ, भला हुआ। एक दिन सब कुछ तो छोड़ना पड़ेगा इसलिए अभी से थोड़ा-थोड़ा छूट रहा है तो आखिर में आसानी रहेगी।”

🔷 अंत समय में एकदम में छोड़ना पड़ेगा तो बड़ी मुसीबत होगी इसलिए दान-पुण्य करो ताकि छोड़ने की आदत पड़े तो मरने के बाद इन चीजों का आकर्षण न रहे और भगवान की प्रीति मिल जाय।

🔶 दान से अनेकों लाभ होते हैं। धन तो शुद्ध होता ही है। पुण्यवृद्धि भी होती है और छोड़ने की भी आदत बन जाती है। छोड़ते-छोड़ते ऐसी आदत हो जाती है कि एक दिन जब सब कुछ छोड़ना है तो उसमें अधिक परेशानी न हो ऐसा ज्ञान मिल जाता है जो दुःखों से रक्षा करता है।

🔷 रिश्तेदार फिर पूछता हैः “लेकिन जब हार मिल गया तब आपने ‘अच्छा हुआ…. भला हुआ’ क्यों कहा?”

🔶 सेठ जीः “नौकरानी खुश थी, सेठानी खुश थी, उसकी सहेलियाँ खुश थीं, इतने सारे लोग खुश हो रहे थे तो अच्छा है,….. भला है….. मैं क्यों दुःखी होऊँ? वस्तुएँ आ जाएँ या चली जाएँ लेकिन मैं अपने दिल को क्यों दुःखी करूँ ? मैं तो यह जानता हूँ कि जो भी होता है अच्छे के लिए, भले के लिए होता है।

🔷 जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा अच्छा ही है। होगा जो अच्छा ही होगा, यह नियम सच्चा ही है। मेरे पास मेरे सदगुरू का ऐसा ज्ञान है, इसलिए मैं बाहर का सेठ नहीं, हृदय का भी सेठ हूँ।”

🔶 हृदय का सेठ वह आदमी माना जाता है, जो दुःख न दुःखी न हो तथा सुख में अहंकारी और लम्पट न हो। मौत आ जाए तब भी उसको अनुभव होता है कि मेरी मृत्यु नहीं। जो मरता है वह मैं नहीं और जो मैं हूँ उसकी कभी मौत नहीं होती।

🔷 मान-अपमान आ जाए तो भी वह समझता है कि ये आने जाने वाली चीजें हैं, माया की हैं, दिखावटी हैं, अस्थाई हैं। स्थाई तो केवल परमात्मा है, जो एकमात्र सत्य है, और वही मेरा आत्मा है। जिसकी समझ ऐसी है वह बड़ा सेठ है, महात्मा है, योगी है। वही बड़ा बुद्धिमान है क्योंकि उसमें ज्ञान का दीपक जगमगा रहा है।

🔶 संसार में जितने भी दुःख और जितनी परेशानियाँ हैं उन सबके मूल में बेवकूफी भरी हुई है। सत्संग से वह बेवकूफी कटती एवं हटती जाती है। एक दिन वह आदमी पूरा ज्ञानी हो जाता है। अर्जुन को जब पूर्ण ज्ञान मिला तब ही वह पूर्ण संतुष्ट हुआ। अपने जीवन में भी वही लक्ष्य होना चाहिए।

✍ साभार:(अखण्ड ज्योति)

🙏 जय गुरुदेव 🙏
🌹पेट का कैंसर

🌹नित्य भोजन के आधे 1 घंटे के बाद लहसुन के 1 ,2 कली छीलकर चबाया करें। ऐसा करने से पेट का कैंसर नहीं होता । कैंसर हो भी गया हो तो लगातर एक दो माह तक नित्य खाना खाने के बाद आवश्यकता के अनुसार लहसुन की 1,2 कली पीस कर पानी में घोलकर पीने से पेट के कैंसर में लाभ होता है ।

🌻😊🙏 👇👇🌻

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🌹बालों के उत्तम स्वास्थ्य के लिए

🔹क्या करें

🌻सिर में नियमित तेल लगाने से बाल स्वस्थ लंबे काले घने होने के साथ उनमे मजबूती व कोमलता आती है |

🌻इसके लिए नारियल तेल। आँबला भृंगराज आदि के तेल लाभकारी हैं |”

🌻शिकाकाई रीठा आँबला पाउडर को रात में एक बर्तन में भिगो दें | प्रातः इस पानी से बाल धोने से बालों को सफेद होने झड़ने से रोकने में मदद मिलती हैं |

🌻सप्ताह में कम से कम दो बार सिर में मुल्तानी मिट्टी लगाने से बालों की विविध समस्याओं में लाभ होता है |

🌻बालों में रूसी हो या बाल झड़ते हों तो सप्ताह में दो-तीन बार घृतकुमारी रस बालों की जड़ों में लगाएं , नाक में प्रतिदिन दो-दो बूंद योगी आयु तेल डालने से बालों की जड़े मजबूत होती है |

🔹क्या न करें

🌻अधिक ठंड या गर्मी में सिर खुला रखकर बाहर ना घूमें |

🌻पापड़ ,आचार ,उष्ण, तीक्ष्ण व अम्ल, रसयुक्त आहार का अधिक सेवन स्निग्ध पदार्थ के सेवन का अभाव , बाल गीले रखना जोर लगाकर कंघी करना ,तरह-तरह के बाजारों तेल शैंपू डाई का प्रयोग बालों पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं |

🌻कुछ-कुछ बाल सफेद हो तो उन्हें उखाड़ नहीं बल्कि चुनकर काट दे बाल उखाड़ने से यह समस्या तेजी से बढ़ती है |

🌻अति व्यायाम ,अल्प आहार, बालों की उचित देखभाल ना करना , मानसिक तनाव , क्रोध , चिंता के कारण बाल जल्दी सफेद होते हैं वो झड़ते हैं |

🌻कब्ज ना होने दें अनिद्रा अनियमित दिनचर्या से बचें |

🙏 👇👇

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🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉. हमारे शरीर में नींद, भूख, प्यास, छींक, मल निष्कासन, मूत्र निष्कासन, अधोवायु, खांसी, हँसना, रोना, हिचकी, डकार, जम्हाई और वीर्य आदि चौदह प्रकार के वेग हैं जिन्हें रोकने से स्वास्थ्य हानि होती है। वेग समय-समय पर शरीर द्वारा आरम्भ की गयी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष स्वच्छता प्रणाली है। इनमे से मुख्य वेग शारीरिक स्वच्छता के लिए अनिवार्य हैं। इनमे से कुछ वेगों को रोकना तो बहुत अधिक हानिकारक है।

• नींद को रोकने से बहुत ही भयानक परिणाम होते है। यदि कोई व्यक्ति सदा कम ही नींद लेता है तो वह बैचैन हो जाएगा, अधीर हो जाएगा, उसमे चिडचिडापन बढेगा, क्रोध बढेगा और वह अपराधिक प्रवृति वाला भी हो सकता है।
• भूख एवं प्यास शरीर में भोजन एवं पानी की आपूर्ति के लिए उत्पन्न होते हैं जिन्हें अधिक देर तक रोकने पर अतिअम्लता (एसिडिटी) एवं वायु विकार आदि स्वास्थ्य हानि होती है।
• जम्हाई शरीर में अतिरिक्त ऑक्सीजन की आपूर्ति के लिए उत्पन्न होती है।
• छींक एवं खांसी श्वसन तंत्र में उत्पन्न हुए अवरोध को दूर करती है और इन्हें रोकने से नाडी तंत्र (nervous system) पर दुष्प्रभाव पड़ता है।
• हालांकि हँसना एवं रोना भी प्राकृतिक वेग हैं और इन्हें रोकने से भी कुछ सीमा तक हानि होती है परन्तु कभी-कभी परिस्थिति विशेष में इन्हें रोकना आवशक हो जाता है।
• डकार अमाशय से अतिरिक्त वायु को बाहर निकालने के लिए उत्पन्न होती है।
• अधोवायु मल द्वार से दूषित एवं अतिरिक्त वायु को बाहर निकालने का ही कार्य करती है जिसे रोकने से पाचन एवं मल विसर्जन के लिए आँतों की शक्ति क्षीण होती है। अधोवायु में दुर्गन्ध तभी होती है जब पेट में भोजन सड़ता है और वर्तमान समय में प्रचलित दूषित जीवन शैली के वजह से पाचन संस्थान भली प्रकार कार्य नहीं करता और पेट में पड़ा हुआ भोजन सड़ता रहता है। अतः जीवन शैली को प्रकृति के अनुसार ढ़ालकर भोजन को सड़ने न दें ताकि अधोवायु में दुर्गन्ध न हो।
• यदि कोई व्यक्ति मल विसर्जन के वेग को रोकता है तो उस पड़े हुए मल से पानी भाप बन कर उड़ता चला जाएगा। शरीर के अन्य भागों की अपेक्षा गुदा का तापमान थोड़ा ज्यादा रहता है। इसके कारण पानी भाप बनकर और जल्दी उड़ता जाता है जिसके परिणामस्वरूप मल कठोर हो जाता है। जैसे जैसे मल कठोर होता जाएगा, उसका शरीर से बाहर निकलना कठिन हो जाएगा और कब्ज रोग असाध्य होता जाएगा। यह स्थिति यदि अधिक समय तक बनी रही तो मलाशय का कैंसर भी हो सकता है।
• यदि हम मूत्र निष्कासन देरी से करें और पानी कम पियें तो हमे गुर्दे एवं मूत्राशय की पथरी जैसे रोग उत्पन्न हो सकते हैं। मूत्राशय में पड़े मूत्र में से पानी भाप बनकर उड़ता रहता है। जैसे-जैसे मूत्राशय का पानी उड़ता जाता है, वैसे-वैसे मूत्र में मिनिरल/साल्ट की सांद्रता (concentration) बढती जाती है। जब मूत्र में स्थित घुले हुए साल्ट (सोडियम, पोटेशियम, यूरिया, कैल्शियम आदि) की मात्रा एक सीमा से बाहर हो जाए तो ये साल्ट स्टोन में बदल जाते हैं। विज्ञान के एक सिद्धांत के अनुसार – when ionic product exceeds solubility product, precipitation occurs. अतः मूत्र के वेग को कभी भी अधिक देर तक न रोकें। व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो बहुत से व्यक्ति इस वेग को अपने-अपने कारणों से रोकते हैं| कुछ व्यक्तियों के कार्य स्थल पर मूत्र विसर्जन की सुविधा उपलब्ध न होने के कारण वे इस वेग को रोकते हैं| कुछ व्यक्ति कार्य स्थल चुनने से पहले इस सुविधा को उपयुक्त महत्त्व नहीं देते| नकदी का कार्य सम्हालने वाले बहुत से दूकान के मालिक/व्यक्ति इस वेग को रोकते हैं क्योंकि यह कार्य वे किसी और को नहीं सौंप सकते| कुछ व्यक्ति पानी कम पीते हैं ताकि मूत्र विसर्जन के लिए भी कम जाना पड़े | कुछ व्यक्ति बहुत अधिक वेग बनने तक प्रतीक्षा करते हैं ताकि पूरे दिन में कम बार मूत्र विसर्जन के लिए जाना पड़े और कार्य में बाधा कम पड़े| कारण अथवा सोच कुछ भी हो, स्वयं के वृक्कों (kidney) पर किये गए इस अत्याचार की क्षति पूर्ती (भरपाई) बहुत कठिन, पीड़ा दायक और कई बार असंभव होती है|

आज के इस आधुनिक सामाज में हम स्वयं को सभ्य दिखाने के लिए या शर्म के कारण वेगों को रोकते हैं और इनके दुष्परिणामों को झेलते हैं। अतः शर्म को दूर करते हुए स्वास्थ्य को प्राथमिकता दें ताकि आप असाध्य रोगों के शिकार न हो जाएँ।


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देर रात खाना खाने के हानिकारक परिणाम

हर पल चौबीस घड़ी और सातों दिन इस भागमभाग की दुनिया में रात के भोजन को पूर्णरूप से गलत ठहराना उचित तो नहीं होगा। क्योंकि देर रात खाना कई लोगों की मजबूरी है, कइयों की आदत तो कई लोग इसे फैशन मानते है। कारण चाहे जो भी हो लेकिन शारीरिक दृष्टि से यह आदत हानिकारक ही है। एक अमेरिकन शौध के निष्कर्ष से यह सामने आया की जो लोग देर रात खाना खाते है वे तुलनात्मक रूप से अन्य से ज्यादा खा लेते है जिसमें किसी तरह का कोई नियम नहीं होता। इस कारण अधिक कैलोरी का सेवन हो जाता है और ना चाहते हुए भी कई बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं।

देखा जाए तो आज के समय में लोगों के पास समय ही नहीं है ना खुद के लिए और ना ही जरूरी कामों के लिए। इन जरूरी कामों में से एक काम है समय पर भोजन करना। जबकि इस बात से सभी वाकिफ है अच्छी सेहत के लिए सोने से तीन घंटे पहले भोजन करना हितकर है। लेकिन फिर भी लोग अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ कर रहे है। डॉक्टर के अनुसार रात के समय शरीर की पाचनक्रिया और मेटाबॉलिज्‍म प्रोसेस स्लो होता है। जिससे भोजन पूरी तरह से पच नहीं पाता और शरीर में एक्‍ट्रा फैट जमा होने लगता है। जो कई बीमारियों को बुलावा देता है. भोजन को पचाने के लिए शरीर को 3-4 घंटे का समय लगता है, लेकिन रात को समय के अभाव में लोग भोजन के तुरंत बाद सोने चले जाते है और मोटापे के शिकार होने लगते हैं।

हमारे बड़े-बुजुर्ग कहा करते थे जल्दी खाने और जल्दी सोने से शरीर चुस्त-दुरुस्त बना रहता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से आज भी ग्रामीण लोग अधिक तंदुरुस्त है। जबकि शहरी लोगों में स्वास्थ्य इसके बिल्कुल विपरीत है। देर रात डिनर करने की आदत से अधिक मात्रा में कार्बोहाइड्रेट ले लेते है। जिससे कोलेस्ट्रॉल बढ़ जाता है। खतरे तमाम है फिर भी आदत से लाचार है लोग। जिनको रात की शिफ्ट में काम करना पड़ता है उनके लिए यह समझना बहुत ही मुश्किल है की वे क्या करे। ऐसे में इन लोगों को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए की उनके भोजन में फाइबर की मात्रा अधिक हो, भोजन गरिष्ठ ना हो। जहाँ तक हो सके हल्का और शाकाहारी भोजन का चुनाव बेहतर है जो जल्दी पच जाता है। पोषण विशेषज्ञ भी रात को भूखा रहने से मना करते है। रात को कम खाएं लेकिन कुछ-कुछ अंतराल में थोड़ा-थोड़ा खाते रहे। यह सलाह उन्हीं लोगों के लिए है जो रातभर काम करते है और रात को खाना उनकी मजबूरी हैं।

जीवन में पैसा ही सब कुछ नहीं होता! एक बार सोचिए जब यह शरीर ही स्वस्थ नहीं होगा तो यह पैसा भी आपके क्या काम आयेगा। अपने काम के प्रति जिम्मेदार रहना बहुत ही अच्छी बात है लेकिन स्वास्थ्य की कीमत पर जिम्मेदार होना आपको महंगा पड़ सकता है। अपनी आदत में थोड़ा बहुत सुधार करे और खुद को बीमारियों से बचा के रखे। वो कहते है ना ”कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती” तो चलिए एक कोशिश अपनी सेहत के लिए भी कर ली जाएं।

जो लोग देर रात खाना खाने की आदत से पीड़ित है उन्हें इन परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।

  1. मोटापा – देर रात खाना खाने से अपच की समस्या हमेशा बनी रहती है क्योंकि शरीर में पाचन तंत्र की क्रिया बहुत ही धीमी हो जाती है और जो भी भोजन हम खाते है वो ट्राइग्लिसराइड्स में बदल जाता है। जिससे शरीर में एक्सट्रा फैट जमने लगता है जो मोटापा और वजन बढ़ने का बहुत बड़ा कारण है। अगर आप अधिक वजन या मोटापा की समस्या से पीड़ित है तो देर रात भोजन करने की आदत को सुधार लीजिए।
  2. अल्सर – देर रात खाना खाके तुरंत सोने से पेट का एसिड फुड नली के द्वारा मुँह में आने लगता है जिससे खट्टी डकारे, गैस, बदहजमी के अलावा अल्सर और कैंसर जैसी समस्या भी दस्तक दे सकती है।
  3. अनिद्रा – भोजन चाहे दोपहर का हो या रात का, उसे डाइजेस्ट होने में काफी समय लगता है। दिन की तुलना में रात को शारीरिक क्रिया स्लो होने के कारण भोजन पचता नहीं है और शरीर भी हल्का महसूस नहीं करता। इस कारण नींद में बाधा आती है जो धीरे-धीरे अनिद्रा की समस्या बन जाती है।
  4. उच्च रक्तचाप – जिन लोगों को देर रात खाना खाने की आदत है उनके शरीर में ऐड्रेनलाइन हॉर्मोन का लेवल बढ़ता है जो हाई बीपी का बहुत बड़ा कारण है। भोजन करने के 3 घंटे बाद सोने जाने का नियम बनाए।
  5. मधुमेह – अगर आप देर रात खाना खाने के आदि है तो मधुमेह की संभावना कई गुणा बढ़ जाती है। रात को अधिक देरी से भोजन करने पर शरीर का मेटाबॉलिज्‍म प्रोसेस ठीक से काम नहीं करता। जिससे शुगर का लेवल बढ़ सकता है और डायबिटीज जैसी गंभीर समस्या भी हो सकती है।
  6. तनाव – अधिक देरी से खाना खाने से नींद समय पर नहीं आती और सुबह जल्दी उठने के चक्कर में नींद पूरी भी नहीं होती। अगर यह आदत लंबे समय तक बनी रहती है तो तनाव यानी स्ट्रेस का लेवल बहुत बढ़ने लगता है। यह एक ऐसी समस्या है जो बहुत सी समस्याओं को बुलावा देती है।
  7. हृदय घात – देर रात खाना खाने से वजन में धीरे-धीरे इज़ाफा होने लगता है जिससे शरीर में बेड कॉलेस्ट्रॉल का लेवल बढ़ने लगता है जो हार्ट डिज़िज का खतरा बढ़ा देता है। खराब कॉलेस्ट्रॉल की वजह से हृदय कमजोर होने लगता है जो बाकी दिल संबंधी बीमारी का कारण भी होता है।
  8. मानसिक डिस्‍ऑर्डर – देर रात खाना खाने की आदत से एक विशेष प्रकार का डिस्‍ऑर्डर उत्पन्न हो जाता है। इस तरह के मानसिक दोष में व्‍यक्ति को सदा खाने के बारे में अजीब-अजीब ख्याल आते रहते है। जिससे नींद प्रभावित होती है। यहाँ तक की नींद में भी भोजन के सपनें देखने लग जाता है। इस डिस्‍ऑर्डर में उसकी चिंता काफी बढ़ जाती है और मूड भी खराब व चिड़चिड़ा रहने लगता है। मेलाटोनिन का रेट कम और कार्सिटोन का रेट शरीर में बढ़ जाता है। देर रात किया गया भोजन किसी भी लिहाज से अच्छा नहीं है ना मानसिक और ना शारीरिक तौर पर।
  9. मांसपेशियों में दर्द – देर रात खाना खाने से टहलने का समय नहीं मिलता और ना ही हल्के व्यायाम कर पाते है सोने से पहले। क्योंकि व्यायाम तभी संभव है जब भोजन सही समय पर किया जाएं। सोने से पहले हल्के व्यायाम मांसपेशियों के दर्द में राहत पहुँचाते है। लेकिन ऐसा संभव ना होने पर शरीर में एनर्जी की कमी होने लगती है और मांसपेशियों में दर्द की समस्या शुरू हो जाती हैं।

स्वाद की चिंता कम और सेहत की चिंता अधिक कीजिए। रात को हरी सब्जियाँ, सलाद, फलों का रस जैसे विकल्प को चुने. भूख से कम भोजन करे। हल्का व सुपाच्य शाकाहारी भोजन लें। जिसे पचने में समय ना लगे। रात का भोजन तब सेहत के लिए खतरे का सबब बन जाता है, जब हम स्वाद के आदी हो जाते है और सेहत की अनदेखी करने लगते है। दिन ढलने के साथ शारीरिक क्रियाएं शिथिल यानी धीमी पड़ने लग जाती हैं। यह एक प्राकृतिक नियम है। जाहिर है, ऐसे में आंतों को भी भारी काम देना समझदारी नहीं हैं। रात का भोजन भारी होगा तो आंतों को अतिरिक्त सक्रियता दिखानी पड़ती हैं। जिसके परिणाम स्वरूप उपरोक्त समस्या के अलावा अपच, गैस, एसिडिटी, हाइपरटेंशन, बेचैनी और चिड़चिड़ेपन जैसी समस्या भी घेर लेती है। हृदय रोग विशेषज्ञ का कहना हैं कि शरीर को सलामत रखना है तो पश्चिमी नकल से बचना होगा। रात में ज्यादा तैलीय, जंक फूड, मसालेदार, आइसक्रीम जैसी वसायुक्त और कार्बोहाइड्रेट वाली चीजों से बचना चाहिए।

अगर आप शाम को 6 बजे भोजन लेते है और सोते है आधी रात को तो ऐसे में आपको भूख तो लगेगी। इस दौरान अगर आप फिर से कुछ भारी खा लेते है तो शारीरिक प्रक्रिया का गड़बढ़ होना लाजमी हैं। इसलिए भोजन और सोने के बीच में 3 घंटे का अंतराल जरूरी है। फिर भी अगर भूख लगती है तो जूस जैसा कुछ हल्का ले सकते है। इससे नींद में भी बाधा नहीं आयेगी। कोशिश कीजिए भोजन का समय सही हो जिससे शरीर को जरूरी पोषण मिल सके। रात के भोजन के उपरांत ब्रश करना ना भूले। अंत में हमारी यही सलाह है शरीर के साथ खिलवाड़ ना करें और स्‍वस्‍थ रहने का हर संभव प्रयास करें।

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[: Treatment by clapping 👏

*गठिया रोग, हृदय रोग, हाथों की कमजोरी *
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बहुत कम लोग जानते हैं कि ताली बजाना स्वास्थ्य के लिए अति महत्वपूर्ण लाभदायक है।
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आज हम आपको ताली बनाने से हाने वाले महत्वपूर्ण परखे फायदों के बारे में बता रहे हैं।
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वैज्ञानिकों द्वारा प्रमाणित किया गया हैकि तालियां बजाने से हजारों स्वास्थ्यवर्धक फायदें।

जिन्हें बहुत कम लोग जानते। और ताली बजाना एक मजाक और उपहास मात्र समझते हैं।
परन्तु हम आपको तालियां बजाने के मुख्य फायदे विस्तार से बता रहें हैं।
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ताली बजाने से महत्वपूर्ण फायदे / Benefits of Clapping

👉1. रोज 400 तालियां बजाने / Clapping से गठिया रोग ठीक हो जाता है। लगातार 3-4 महीने सुबह शाम ताली बजायें। ताली बजाने से उगलियों, हाथों का रक्त संचार / Blood Flow तीव्र गति से होता है। जोकि सीधे नसों को प्रभावित करता है जिससे गठिया रोग / Arthritis ठीक हो जाता है।

👉2. Hand Paralysis / हाथों में लकवा और हाथ कापना, हाथ कमजोर होने पर रोज नियमित सुबह शाम 400 तालियां बजाने से 5-6 महीनें में समस्या से निदान मिलता है।

👉3. Internal Organs / हृदय रोग, फेडडे़ खराब होने पर, लिवर की समस्या होने पर रोग नियमित सुबह शाम 400-400 तालियां बजायें। आंतरिक बीमारियों से तुरन्त छुटकारा मिलता है।

👉4. Immune System / रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाने में तालियां अहम हैं। तालियां बजाने से शरीर में तीव्र रक्त संचार होता है। शरीर का अंग अंग काम करने लगता है।

👉5. तालियां बजाने से नसें और धमिनयों सही तरह से सुचारू हो जाती है। Veins, Muscles Strains / मांसपेशियों का तनाव खिचाव ठीक करने में तालियां बजाना सक्षम है।

👉6. तालियां बजाने से सिरदर्द, अस्थमा, मधुमेह नियंत्रण में रहता है। Clapping / तालियां मारना हेल्थ समस्याऐं नियंत्रण में रखने में सहायक है।

👉7. Hair Fall / बालों के झड़ने से रोकने में तालियां खास फायदा करती है। तालियां बजाने से हाथों में घर्षण बनता है। हाथ की अंगूठे उगलियां नसे सिर से जुड़ी होती हैं।

👉8. प्रतिदिन भोजन ग्रहण के बाद 400 तालियों बजाने से शरीर समस्त रोगों से दूर रहता है। शरीर में फालतू चर्बी नहीं जमती और मोटापा / Obesity, Fat से दूर रखने में तालियां अहम हैं।

👉9. तालियां बजाने से स्मरण शक्ति / Memory Power बढ़ती है। क्योंकि हाथ का अंगूठे की नसें सीधें दिमाग से जुड़ी होती है।

👉10. शरीर के समस्त जोड़ पाइन्टस हाथों की हथेलियों उगलियों से जुड़े होते हैं। इसलिए तालियां बजानें से Healthy Body Fit Mind / शरीर स्वस्थ और निरोग रहता है।

Technique
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तालियां बजाने का तरीका / Clasping Hands, Steps

💪1. ताली बजाने से पहले हाथों पर नारियल, जैतून, बादाम, तिल, अखरोट आदि कोई भी एक तेल लगा लें।

💪2. रोज सुबह 400 तालियां और रोज शाम 400 तालियां बजायें।

💪3. 200 तालियां हाथ ऊपर कर और 200 तालियां साधारण स्थिति में रह कर बजायें।

💪4. हाथों पर तीव्र घषर्ण, या हाथ गर्म होने पर कुछ सेकेंड़ रूकें।

💪5. तालियां बजाने के तुरन्त बाद कुछ खायें पीने नहीं। 20-25 मिनट बाद ही कुछ खायें पीयें।
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स्वस्थ शरीर के लिए तालियां बजाना अति उत्तम फायदेमंद है। ताली बजाने से शरीर में रक्त संचार तीव्र गति से होता है। जोकि सम्पूर्ण शरीर / Whole Body को दुरूस्त करने में सक्षम है

हमारे पूर्वज बहुत ज्ञानी थे , वो जानते थे कि व्यक्ति अच्छे कार्य आसानी से नहीं करता है, इसलिए उन्होंने हर उस कार्य को जो हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा हो उसे धर्म से जोड़ा ताकि हम नियमित रूप से वो सब कार्य करें जो हमारे स्वास्थ्य के लिए सर्वश्रेष्ठ हो ।
उदाहरण के लिए-
सुबह शाम भगवान की आरती के साथ ताली बजानी चाहिए ।
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Smile and spread smile
[ नरक के तीन – महाद्वार

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्रयं त्यजेत् ॥

नारायण ! भगवान् ने तीन दरवाजे हैं जो नरक की तरफ खुलते हैं , नरक में इन तीन दरवाजों से ही जाया जाता है । भगवान् ने तीन की संख्या कह दी और आगे काम , क्रोध , लोभ ये तीन गिना भी दिये । नियम है कि यदि संख्या कह दी जाये और गिना भी दिया जाये , तो उसका मतलब हो जाता है , ” ये ही , और कोई नहीं ” । जैसे किसी से कहे ” आप , आपके भाई साहब और आपका बड़ा लड़का , ये तीन लोग कल भोजन के लिये आना । ” तीन की संख्या भी कह दी , और नाम भी बतला दिये , तो इसका मतलब हो गया कि इन तीन के अतिरिक्त और कोई न आवे । यदि बड़े लड़के को कहीं काम पड़ गया , तो उसकी जगह छोटा लड़का भी नहीं जा सकता क्योंकि तीन को गिना भी दिया और तीन की संख्या भी कह दी । इसी प्रकार यहाँ अभिप्राय हो गया कि ये तीन ही हैं , इनके अतिरिक्त और कोई नरक में जाने का द्वार नहीं । नरक क्या है ? ” आत्मानः नाशनम् ” । ये द्वार आत्मा का नाश करने वाले हैं । आत्मा का नाश तो संभव है नहीं । भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि आत्मा न मरता है न जन्म लेता है । अतः आत्मा का नाश , इसका मतलब क्या ? पुरुषार्थ से भ्रष्ट हो जाना – यही इसका नाश है । उपनिषद् में भी ” आत्महन्तो जनाः ” कहा तो उसका अर्थ बताया कि आत्मा को पुरुषार्थ – प्राप्ति की तरफ प्रवृत्त न करना यही आत्मा का हनन है । आत्मा की तरफ दृष्टि करें तब तो आत्मा पुरुषार्थ की तरफ जायेगा और अनात्मा की तरफ दृष्टि करेंगे तो आत्मा पुरुषार्थ – रहित हो जायेगा । ” पुरुषार्थ ” अर्थात् पुरुष जिसके लिये , जिस अर्थ के लिये , जिस प्रयोजन के लिये , प्रयत्न करता है । शरीर से लेकर मन तक , सब चीजें अनात्मरूप होने से , अनात्मा के लिये ही प्रवृत्ति करेंगी । एकमात्र अहं – प्रत्यत्य में जो प्रतिबिम्बित चेतन है , वह आत्मा की जाति का है । मोटी भाषा में जिसको जीव कहते हैं , अन्तःकरण की उपाधि अथवा अविद्या की उपाधि वाला चेतन । वह उभय स्वरूप है , उपाधि के साथ एक हुआ तो अनात्मा की तरफ पुरुषार्थ करता है , और चेतन – प्रधान हुआ परमात्मा की तरफ पुरुषार्थ करता है । आत्मरूप की प्रधानता को लेकर आत्मा की ओर जायेगा और जड – प्रधानता को लेकर अनात्मा की ओर जायेगा । इसलिये उपनिषदों के अन्दर जहाँ शरीरादि को चलने वाले रथ की उपमा दी , वहाँ आत्मा को रथी कहा है , बुद्धि को सारथी कहा है , इन्द्रियों को घोड़ा कहा है , शरीर को रथ कहा है । वहाँ आत्मा अर्थात् जीव । बुद्धि रथ को परमात्मा की तरफ चलावे या अनात्मा की तरफ चलावे , यह हुक्म तो आत्मा का है । आगे चलाने का काम सारथी बुद्धि करेगी । चलने का काम शरीर इन्द्रियाँ करेंगी । किस तरफ चलाया जाये – यह आत्मा की आज्ञा के अनुसार होगा । यदि इन्द्रियाँ ठीक नहीं हैं , बुद्धि ठीक नहीं है , तो रथ खड्डे में गिर सकता है , और ये सब शिक्षित हैँ , तो बुद्धि इनको श्रीविष्णु के परम पद तक ले जा सकती है । अतः जीव ने हुक्म दे दिया इतने मात्र से काम तो नहीं होता , उसके बाद ये सब चीजें नियन्त्रित भी होनी चाहिये । परन्तु ये सब नियन्त्रित होने पर भी जब तक आत्मा इनको परमात्मा की तरफ नहीं ले जायेगा , तब तक ये उस तरफ नहीं जायेंगी । इस प्रकार ” आत्मनः नाशनम् ” का मतलब है , आत्मा अनात्मा की तरफ बुद्धि देहादि का प्रवर्तन करे ।

नारायण ! जीव ऐसी प्रवृत्ति क्यों करता है ? भगवान् ने बताया , ” ये तीन ही द्वार हैं – नरक के । ” या तो काम के कारण अनात्मा की तरफ जाता है , या क्रोध के कारण अनात्मा की तरफ जाता है , या लोभ के कारण अनात्मा की तरफ जाता है । किसी विषय के लिये मन में अभिलाषा होना कि यह मेरा हो जाये , काम है । विषय अनात्मा है । कामना हमेशा अनात्मा की , विषयों की होती है । कई बार लोगों के मन में प्रश्न होता है कि परमात्मा की कामना भी कामना है ; किन्तु परमात्मा अनात्मा नहीं है , विषय नहीं है । कामना विषय की होती है। विषय अनात्मा है । इसलिये जैसे ही कामना का द्वारा खुला , वैसे ही हमारा प्रवेश आत्मा के नाश की तरफ हो गया , अर्थात् आत्मा के लिये पुरुषार्थ न कर के अब पुरुषार्थ विषय के लिये करने लग गये ।

इस प्रकार यह नरक का द्वार है । जैसे कामना कारण है , वैसे ही क्रोध भी कारण है । जब क्रोध आता है , तब इतना तीव्र होता है क्रोध का वेग , कि लाख समझायें फिर भी उस समय , कहता है ” मैं भी जानता हूँ , परन्तु पहले इसको ठीक कर दूँगा फिर चाहे प्रायश्चित कर लूँ । ” क्रोध का वेग ऐसा होता है । क्रोध भी किसी – न – किसी अनात्मा की तरफ ही होता है । चाहे किसी मनुष्य का शरीर हो , पशु पक्षी का शरीर हो , अथवा पत्थर ही हो ! क्रोध खाली चेतन पर आता है ऐसा नहीं है। पत्थर पर भी कोध आ जाता है । रास्ते में जाते हुए , ऊपर से पत्थर गिर गया , तो उस पत्थर पर क्रोध करते हैं , उसी को गालियाँ देते हैं , नीचे पटक भी देते हैं । जड पदार्थ को गाली देकर , फेंककर होता तो कुछ नहीं है , परन्तु क्रोध शान्त होता है । क्रोध के समय भी , जिस किसी अनात्म पदार्थ से हमको द्वेष होता है , उसको नष्ट करने में प्रवृत्ति होती है , आत्म – प्रवृत्ति नहीं होती । तीसरी चीज भगवान् ने कहा लोभ ; अनात्म – विषयक इच्छा तो कामना है , पर जो अनात्म – विषय हमारे पास है वह हमारे पास से कभी हटे ही नहीं , किसी भी सत्कार्य में इसका व्यय होवे ही नहीं – इस भावना का नाम लोग है ।

नारायण ! भगवान् कहते हैं ” तस्माद् ” , ये नरक का रास्ता होने से , आत्मा का नाश करने वाले होने से , ” एतत्रयं ” इन तीनों को छोड़ दे । इसे समझाने के लिए एक कथा बृहदारण्यक उपनिषद् में आयी है । ब्रह्मा जी के पास देव , दानव और मानव गये कि ” हमको उपदेश दे दीजिये । ” ब्रह्मदेव ने विचार किया कि तीनों अधिकारी अलग – अलग हैं , परन्तु यदि इनको अलग – अलग उपदेश देंगे तो हर एक सोचेगा , ” दूसरे को उपदेश बढ़िया मिल गया । ” लोगों का विचित्र स्वभाव होता है । ब्रह्माजी जानते थे । हर आदमी दबाव देकर दूसरे को जो मन्त्र मिला है उसको जानने का प्रयत्न करता है । स्त्रियों की स्थायी शिकायत रहती है कि उन्हें गायत्री क्यों नहीं जपने देते ! उनके मन में बैठा है कि उन्हें जो मन्त्रोपदेश मिलता है वह कमजोर है , पुरुषों वाला मन्त्र बलवान है । प्रजापति ब्रह्मा को तो पता ही है । उन्होंने सोचा इनको अलग – अलग उपदेश देंगे तो हर एक समझेगा ” दूसरे वाला ठीक है । ” अधिकारी अलग – अलग हैं , इसलिये एक उपदेश तीनों के लिये उपयुक्त हो नहीं सकता ! ब्रह्मा जी सर्वज्ञ हैं , सबके गुरु हैं , उन्होंने तीनों को कहा , ” द द द ” । तीन बार ” द ” बोल दिया । तीनों प्रसन्न होकर चले गये ! उनके जाने के बाद ब्रह्मा जी ने सोचा कि ” देखें तो सही ये ठीक समझे कि नहीं । ” सबसे पहले देवताओं को बुलाया , ” तुम हमारे उपदेश का क्या मतलब समझे ? ”

तो उन्होंने कहा कि ” हम लोग भोगी बहुत हैं इसलिये आपने कहा कि दमन करो , द मायने दमन करो , इन्द्रियों को , मन को , भोगों की तरफ मत जाने दो । ” ब्रह्मा जी ने कहा , ” हाँ ठीक समझे । ” फिर असुरों को बुलाया , ” तुम लोग हमारे उपदेश का क्या मतलब समझे ? ” उन्होंने कहा , ” जी , हम लोग क्रूर बहुत हैं , इसलिये आपने कहा , क्रूरता छोड़ो , दया करो । आपने हम लोगों को ” द ” से दया का उपदेश दिया। ” उन्होंने कहा , ” ठीक है , तुम लोग भी ठीक समझे । ” फिर मनुष्यों को बुलाया , ” तुम लोग हमारे उपदेश का मतलब क्या समझे ? ” उन्होंने कहा , ” हम लोग लोभी बहुत हैं , इसलिये आपने हम लोगों को ” द ” से उपदेश किया कि दान करो । ” उन्होंने कहा , ” ठीक समझे । ” एक ही ” द ” के द्वारा तीनों काम , क्रोध , लोभ छोड़ना समझे । इस कथा के अन्त में भाष्यकार आचार्य सर्वज्ञ शङ्कर स्वामी कहते हैं , कि यद्यपि यहाँ कहा है देव , दानव , मानव , तथापि मनुष्यों में ही देव , दानव और मानव – ये तीनों जातियाँ हैं। जो भोगप्रधान हैं वे देव हैं , जो क्रोधप्रधान हैं वे दानव हैं , जो लोभप्रधान हैं वे मानव है। अनेक युक्तियों से इस बात को सिद्ध किया है , कि शास्त्र में मनुष्य का ही अधिकार है इसलिये ये उपदेश काम – प्रधान , क्रोध – प्रधान , लोभ – प्रधान मानवों को ही दिया गया है । अपनी – अपनी प्रकृति अपने को अपने आप पता चलती है । ” मेरी प्रधानता भोग की है , मेरी प्रधानता क्रोध की है , मेरी प्रधानता लोभ की है ” यह अपने को ही पता चलता है । उसके अनुसार ही , दम , दया और दान का अभ्यास करने से धीरे – धीरे ये तीनों वृत्तियाँ ख़त्म होती है । भगवान् ने कहा ” एतत्रयं त्यजेत् ” , इन तीनों को छोड़े , पर छोड़ने का मतलब है , इनके जो विरोधी प्रत्यय हैं , दान दम और दया उनका अभ्यास करे , उनका अभ्यास करने से ही ये तीनों छूटेंगे । ” ये तीनों न रहें , न रहें ” , ऐसा सोचने मात्र से ये छूटते नहीं ! इनके विरोधी धर्मोँ का अभ्यास करने से ही ये छूटते हैं ।

नारायण ! भगवान् भाष्यकार आचार्य शङ्कर अपने श्रीमद्भगवद्गीता भाष्यम् में एक सूक्ष्म बात कहते है कि आत्मा के नाश का द्वार इन तीन कारणों को जो बताया गया है उसका मूल कारण अज्ञान है । परमात्मा को न जानने के कारण ही हम शरीर के भोगों को अपना भोग समझ कर उधर प्रवृत्ति करते हैं ।

सूक्ष्म – स्थूल शरीर के अपमान आदि को , ” मेरा अपमान ” मानकर क्रोध करते हैं । शरीरादि की आवश्यकताओं को लेकर लोभ करते हैं । जो चीजें हम जरूरी समझते हैं उन्हीं का काम – क्रोध – लोभ होता है । किसी को यह कामना नहीं होती कि सूअर की विष्टा हमें मिल जाये क्योंकि सूअर की विष्टा के बारे में हमको यह ज्ञान नहीं है कि वह हमारे शरीरादि के काम आयेगी । यथाकथंचित् यदि हो जाये तो उसकी भी कामना हो जाती है ।

एक सज्जन को कोइ बीमारी थी । किसी वैद्य ने उनसे कहा कि कबूतर की बीट खाने से बीमारी ठीक हो जाती है । उन्हें जब उपयोग समझ आया तो जहाँ कबूतरों को दाना डालते हैं वहाँ स्वयं जाकर बीट बटोर लाने लगे । यदि इस प्रकार उसमें बुद्धि हो जाये कि हमारे उपयोग की चीज़ है , तो उसकी भी कामना हो जाती है । यही स्थिति लोभ की है । किन्तु उपयोग किसका देखते हैं ? स्थूल – सूक्ष्म शरीरों का । शरीर को रोग होगा तो उसके उपयोगी हो सकती है । ऐसे ही मन के उपयोग को सोचकर कामादि होते हैं ।

यदि ” स्थूल सूक्ष्म शरीर मैं नहीं हूँ ” यह पता है , तब उनके पीछे आपकी प्रवृत्ति नहीं होगी । काम , क्रोध , लोभ – तीनों द्वारों का महाद्वार जो पहले होना चाहिये , वह अज्ञान है । अज्ञान को छोड़ने से नरक के दरवाज़े में नहीं जायेंगे । काम और लोभ तो स्थूल और सूक्ष्म शरीर के लिये प्रवर्तक बनते हैं । क्रोध एक बड़ी जबर्दस्त बाढ़ की तरह है । अगर आपके कामना का अवरोध होवे , कामनापूर्ति में कोई रुकावट डाले , तब भी क्रोध आता है और आपपके लोभ में कोई रुकावट डाले , तब भी क्रोध आता है । जैसे आप चाहते हैं कि बैंक से उधार मिल जाए । सरकार के बहुत कानून हैं , सारे कानून लगते है कि बेकार बना दिये हैं , किस काम के । सरकार पर क्रोध आता है , कि सरकार किसी को काम नहीं करने देती , रुकावट डालती है । लोभ की रुकावट , जैसे जब सरकार कर माँगती है तब उसपर क्रोध आता है । है यह भी अज्ञान – मूलक । जब काम और लोभ अनात्म – विषय का है , तभी अनात्म – विषय के न मिलने पर क्रोध आयेगा । लेकिन क्रोध सीधा अज्ञान से न होकर अवरोध के द्वारा पैदा होता है । इसलिये क्रोध को रोकने का तरीका है काम और लोभ को कम करें , छोड़ें । क्रोध आने के बाद यदि आप चाहे कि हम नियन्त्रण करें , तो नहीं हो पाता । यह तो बाढ़ की तरह आता है । फायदा भी इसमें है , कि जैसे बाढ़ वेग से आती है वैसे कुछ समय में चली जाती है ।

इसी प्रकार क्रोध निरन्तर नहीं रहता । बाढ़ की तरह आयेगा और कुछ समय बाद चला जायेगा । काम व लोभ की तरह यह स्थिर भाव से बना नहीं रहता । खराबी इसमें है कि क्रोध आने के बाद रोक नहीं सकते , बहुत मुश्किल है । परन्तु यदि काम और लोभ कम होगा , तो उनका अवरोध भी कम होगा और तब यह क्रोध आयेगा नहीं । हर हालत में , समूल नष्ट होने के लिये तो अज्ञान – निवृत्ति आवश्यक है । इसलिये इन तीन को छोड़ने से नरक का रास्ता आपके लिये बन्द हो जायेगा यह जो भगवान् ने कहा उसे आचार्य शङ्कर कहते है ” त्यागस्तुतिः इयम् ” कि त्याग की स्तुति कर रहे हैं । वैसे तो अज्ञान – निवृत्ति से ही नरक जाना बन्द हो सकता है , केवल इन तीन के चले जाने से नहीं । जाते तो ये तीनों सुषुप्ति , समाधि व प्रलय में है ही , पर उस से मोक्ष कहाँ होता है ! इसलिये वस्तुतस्तु अज्ञान की निवृत्ति अपेक्षित है ।
[घर में शंख रखने और बजाने के ये हैं ग्यारह लाभ।

पूजा-पाठ में शंख बजाने का चलन युगों-युगों से है. देश के कई भागों में लोग शंख को पूजाघर में रखते हैं और इसे नियम‍ित रूप से बजाते हैं. ऐसे में यह उत्सुकता एकदम स्वाभाविक है कि शंख केवल पूजा-अर्चना में ही उपयोगी है या इसका सीधे तौर पर कुछ लाभ भी है।

दरअसल, सनातन धर्म की कई ऐसी बातें हैं, जो न केवल आध्यात्मिक रूप से, बल्कि कई दूसरे तरह से भी फायदेमंद हैं. शंख रखने, बजाने व इसके जल का उचित इस्तेमाल करने से कई तरह के लाभ होते हैं. कई फायदे तो सीधे तौर पर सेहत से जुड़े हैं. आगे चर्चा की गई है कि पूजा में शंख बजाने और इसके इस्तेमाल से क्या-क्या फायदे होते हैं।

  1. ऐसी मान्यता है कि जिस घर में शंख होता है, वहां लक्ष्मी का वास होता है. धार्मिक ग्रंथों में शंख को लक्ष्मी का भाई बताया गया है, क्योंकि लक्ष्मी की तरह शंख भी सागर से ही उत्पन्न हुआ है. शंख की गिनती समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों में होती है।
  2. शंख को इसलिए भी शुभ माना गया है, क्योंकि माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु, दोनों ही अपने हाथों में इसे धारण करते हैं।
  3. पूजा-पाठ में शंख बजाने से वातावरण पवित्र होता है. जहां तक इसकी आवाज जाती है, इसे सुनकर लोगों के मन में सकारात्मक विचार पैदा होते हैं. अच्छे विचारों का फल भी स्वाभाविक रूप से बेहतर ही होता है।
  4. शंख के जल से श‍िव, लक्ष्मी आदि का अभि‍षेक करने से ईश्वर प्रसन्न होते हैं और उनकी कृपा प्राप्त होती है।

‍5. ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि शंख में जल रखने और इसे छ‍िड़कने से वातावरण शुद्ध होता है।

  1. शंख की आवाज लोगों को पूजा-अर्चना के लिए प्रेरित करती है. ऐसी मान्यता है कि शंख की पूजा से कामनाएं पूरी होती हैं. इससे दुष्ट आत्माएं पास नहीं फटकती हैं।
  2. वैज्ञानिकों का मानना है कि शंख की आवाज से वातावरण में मौजूद कई तरह के जीवाणुओं-कीटाणुओं का नाश हो जाता है. कई टेस्ट से इस तरह के नतीजे मिले हैं।
  3. आयुर्वेद के मुताबिक, शंखोदक के भस्म के उपयोग से पेट की बीमारियां, पथरी, पीलिया आदि कई तरह की बीमारियां दूर होती हैं. हालांकि इसका उपयोग एक्सपर्ट वैद्य की सलाह से ही किया जाना चाहिए।
  4. शंख बजाने से फेफड़े का व्यायाम होता है. पुराणों के जिक्र मिलता है कि अगर श्वास का रोगी नियमि‍त तौर पर शंख बजाए, तो वह बीमारी से मुक्त हो सकता है।
  5. शंख में रखे पानी का सेवन करने से हड्डियां मजबूत होती हैं. यह दांतों के लिए भी लाभदायक है. शंख में कैल्श‍ियम, फास्फोरस व गंधक के गुण होने की वजह से यह फायदेमंद है।
  6. वास्तुशास्त्र के मुताबिक भी शंख में ऐसे कई गुण होते हैं, जिससे घर में पॉजिटिव एनर्जी आती है. शंख की आवाज से ‘सोई हुई भूमि’ जाग्रत होकर शुभ फल देती है।. : 💧💧💧💧💧💧💧💧💧💧💧💧
    खुद के ऊपर विश्वास रखो फिर देखना एक दिन ऐसा आएगा कि घड़ी दूसरे की होगी और समय आपका
    जीवन बहुत छोटा है, उसे जियो प्रेम दुर्लभ है, उसे पकड़ कर रखो क्रोध बहुत खराब है, उसे दबा कर रखो. भय बहुत भयानक है, उसका सामना करो. स्मृतियां बहुत सुखद हैं, उन्हें संजो कर रखो.
    अगर आपके पास मन की शांति है तो समझ लेना आपसे अधिक भाग्यशाली कोई नहीं है!
    💧💧💧💧💧सुप्राभात💧💧💧💧💧
    🚩🚩ओ३म् 🚩🚩
    🙏🏻 नमस्कार🙏🏻
    जीवात्मा का स्वरूप

1) जीवात्मा किसे कहते है ?
उत्तर = एक ऐसी वस्तु जो अत्यन्त सूक्ष्म है, अत्यन्त छोटी है , एक जगह रहने वाली है, जिसमें ज्ञान अर्थात् अनुभूति का गुण है, जिस में रंग रूप गंध भार (वजन) नहीं है, कभी नाश नहीं होता, जो सदा से है और सदा रहेगी, जो मनुष्य-पक्षी-पशु आदि का शरीर धारण करती है तथा कर्म करने में स्वतंत्र है उसे जीवात्मा कहते हैं ।

2) जीवात्मा के दुःखों का कारण क्या है ?
उत्तर = जीवात्मा के दुःखों का कारण मिथ्याज्ञान है ।

3) क्या जीवात्मा स्थान घेर सकती है ?
उत्तर = नहीं, जीवात्मा स्थान नहीं घेरती । एक सुई की नोक पर विश्व की सभी जीवात्माएँ आ सकती हैं ।

4) जीवात्मा का प्रलय मे क्या स्थिति होती है । क्या उस समय उसमें ज्ञान होता है ?
उत्तर = प्रलय अवस्था मे बद्ध जीवात्माएँ मूर्च्छित अवस्था में रही है । उसमें ज्ञान होता हे परंतु शरीर, मन आदि साधनो के अभाव से प्रकट नहीं होता ।

5) प्रलय काल मे मुक्त आत्माएं किस अवस्था में रहती है ?
उत्तर = प्रलय काल में मुक्त आत्माएँ चेतन अवस्था में रहती है और ईश्वर के आनन्द में मग्न रहती है ।

6) जीवात्मा के पर्यायवाची शब्द क्या क्या है ?
उत्तर = आत्मा, जीव, इन्द्र, पुरुष, देही, उपेन्द्र, वेश्वानर आदि अनेक नाम वेद आदि शास्त्र में आये हैं।

7) क्या जीवात्मा अपनी इच्छा से दुसरे शरीर मे प्रवेश कर सकता है ?
उत्तर = नहीं कर सकता।

8) मुक्ती का समय कितना है ?
उत्तर = 1 महाकल्प – ऋग्वेद = 1 मंडल 24 सूक्त 2 मन्त्र । 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्ष मुक्ति का समय है ।

9) जीवात्मा स्त्री है या पुरुष है या नपुंसक है ?
उत्तर = जीवात्मा तीनो भी नहीं । ये लिंग तो शरीरों के हैं।

10) क्या जीवात्मा ईश्वर का अंश है ?
उत्तर = नहीं , जीवात्मा ईश्वर का अंश नहीं है । ईश्वर अखण्ड है उसके अंश= टुकड़े नहीं होते हैं।

11) क्या जीवात्मा का कोई भार, रुप, आकार, आदि है ?
उत्तर = नहीं।

12 ) जीवात्मा की मुक्ती एक जन्म में होती है या अनेक जन्म मे होती है ?
उत्तर = जीवात्मा की मुक्ती एक जन्म में नहीं अपितु अनेकों जन्मों में होती है।

13) क्या जीवात्मा मुक्ती मे जाने के बाद पुनः संसार में वापस आता है ?
उत्तर = जी हाँ । जीवात्मा मुक्ति में जाने का बाद पुनः शरीर धारण करने के लिए वापस आता है ।

14) जीवात्मा के लक्षण क्या है?
उत्तर = जीवात्मा के लक्षण इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, ज्ञान, सुख, दुःख की अनुभूति करना है ।

15) मेरा मन मानता नहीं, यह कथन ठीक है ?
उत्तर = नहीं । जड़ मन को चलाने वाला चेतन जीवात्मा है ।

16) क्या जीवात्मा कर्मो का फल स्वयं भी ले सकता है ?
उत्तर = हाँ । जीवात्मा कुछ कर्मो का फल स्वयं भी ले सकता है जैसै चोरी का दण्ड भरकर । किन्तु अपने सभी कर्मो का फल जीवात्मा स्वयं नहीं ले सकता है ।

17) क्या जीवात्मा कर्म करते हुऐ थक जाता है ?
उत्तर = नहीं, जीवात्मा कर्मो को करते हुवे थकता नहीं है अपितु शरीर, इन्द्रियाँ का सामर्थ्य घट जाता है ।

18) जीवात्मा में कितनी स्वाभाविक शक्तियाँ हैं ?
उत्तर = 24 स्वाभाविक शक्तियाँ हैं ।

19) शास्त्रों में आत्मा को जानना क्यों आवश्यक बताया गया है ?
उत्तर = जीवात्मा के स्वरूप को जानने से शरीर, इन्द्रिय और मन पर अधिकार प्राप्त हो जाता है , परिणाम स्वरुप आत्मज्ञानी बुरे कामों से बचकर उत्तम कार्यों को ही करता है ।

20) जीवात्मा का स्वरूप ( गुण, कर्म, स्वभाव, लम्बाई, चौड़ाई, परिमाण ) क्या है ?
उत्तर = जीवात्मा अणु स्वरूप, निराकार, अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान है, वह चेतन है और कर्म करने मे स्वतंत्र है, बाल की नोंक के दश हजारवें भाग से भी सूक्ष्म है । यह अपनी विषेश स्वतन्त्र सत्ता रखता है ।

21) जीवात्मा शरीर मे कहाँ रहता हे ?
उत्तर = जीवात्मा मुख्य रूप से शरीर में स्थान विशेष जिसका नाम ह्रदय है, वहाँ रहता है किन्तु गौण रूप से नेत्र, कण्ठ इत्यादि स्थानों में भी वह निवास करता है ।

२२) क्या, मनुष्य, पशु पक्षी , किट पतंग आदि शरीरों में जीवात्मा भिन्न भिन्न होते है या एक ही प्रकार के होते है ?
उत्तर = आत्मा तो अनेक है किन्तु हर एक आत्मा एक सामान है | मनुष्य, पशु, पक्षी आदि किट पतंग के शरीरो में भिन्न-भिन्न जीवात्माएं नहीं किन्तु एक ही प्रकार के जीवात्माएं है | शरीरों का भेद है आत्माओ का नहीं।

२३) जीवात्मा शरीर क्यों धारण करता है? कब से कर रहा है और कब तक करेगा ?
उत्तर = जीवात्मा, अपने कर्मफल को भोगने और मोक्ष को प्राप्त करने के लिए शरीर को धारण करता है संसार के प्रारम्भ से यह शरीर धारण करता आया है और जब तक मोक्ष को प्राप्त नहीं करता तब तक शरीर धारण करते रहेगा ।

२४) क्या मरने के बाद जीव, भूत, प्रेत, डाकन आदि भी बनकर भटकता है ?
उत्तर = मरने के बाद जीव न तो भूत, प्रेत बनता है और न ही भटकता है | यह लोगों के ज्ञान के कारन बानी हुई मिथ्या मान्यता है।

२५) शरीर में जीवात्मा कब अत है ?
उत्तर = जब गर्भ धारणा होता है तभी जीवात्मा आ जाता है , अर्थात वह वीर्य में ही पहलेसे उपस्थित होता है , और जब रजवीर्य मिलते है तब | यह मिथ्या धारणाये है ३ रे महीने में अथवा ८ या ९ वे महीने में आता है।

२६) क्या जीव और ब्रह्म (ईश्वर) एक ही है ? अथवा क्या ‘ आत्मा सो परमात्मा ‘एक ही है ?
उत्तर = जीव और ब्रह्म एक ही नहीं है अपितु दोनों अलग-अलग पदार्थ हैं जिनके गुण कर्म स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं। अतः यह मान्यता ठीक नहीं गलत है।

२७) क्या जीव ईश्वर बन सकता है ?
उत्तर = जीव कभी भी ईश्वर नहीं बन सकता है।

२८) क्या जीवात्मा एक वस्तु है ?
उत्तर = हाँ , जीवात्मा एक चेतन वस्तु है, वैदिक दर्शनों में वस्तु उसको कहा गया है, जिसमे कुछ गुण कर्म, स्वभाव होते हों।

२९) क्या जीवात्मा शरीर को छोड़ने में और नए शरीर को धारण करने में स्वतंत्र है ?
उत्तर = जीवात्मा को नए शरीर को धारण करने में स्वतंत्र नहीं है अपितु ईश्वर के अधीन है। ईश्वर जब एक शरीर में जीवात्मा का भोग पूरा हो जाता है तो जीवात्मा को निकल लेता है और उसे नया शरीर को प्रदान करता है। मनुष्य आत्मा हत्या करके शरीर छोड़ने में स्वतन्त्र भी है।

३०) निराकार अणु स्वरुप वाला जीवात्मा इतने बड़े शरीरों को कैसे चलता है ?
उत्तर = जैसी बिजली बड़े=बड़े यंत्रों को चला देती है ऐसे ही निराकार होते हुए भी जीवात्मा अपनी प्रयत्न रुपी चुम्बकीय शक्ति से शरीरों को चला देता है।

३१) मनुष्य के मरने के बाद ८४ लाख योनियों में घूमने के बाद ही मनुष्य जन्म मिलता है | क्या यह मान्यता सही है ?
उत्तर = नहीं, मनुष्य के मृत्यु के बाद तुरंत अथवा कुछ जन्मों के बाद ( अपने कर्फल भोग अनुसार ) मनुष्य जन्म मिल सकता है।

३२) शरीर छोड़ने के बाद (मृत्यु पश्च्यात) कितने समय में जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करता है ?
उत्तर = जीवात्मा शरीर छोड़ने के बाद (मृत्यु पश्च्यात) ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार कुछ पलों में शिघ्र ही दूसरे शरीर को धारण कर लेता है। यह सामान्य नियम है।

३३) क्या इस नियम का कोई अपवाद भी होता है ?
उत्तर = जी हाँ , इस नियम का अपवाद होता है। मृत्यु पश्च्यात जब जीवात्मा एक शरीर को छोड़ देता है लेकिन अगला शरीर प्राप्त करने के लिए अपने कर्मोंनुसार माता का गर्भ उपलब्ध नहीं होता है तो कुछ समय तक ईश्वर की व्यवस्था में रहता है। पश्च्यात अनुकूल माता-पिता मिलने से ईश्वर की व्यवस्थानुसार उनके यहाँ जन्म लेता है।

३४) जीवात्मा की मुक्ति क्या है और कैसे प्राप्त होती है ?
उत्तर = प्रकृति के बंधन से छूट जाने और ईश्वर के परम आनंद को प्राप्त करने का नाम मुक्ति है। यह मुक्ति वेदादि शास्त्रों में बताये गए योगाभ्यास के माध्यम से समाधी प्राप्त करके समस्त अविद्या के संस्कारों को नष्ट करके ही मिलती है।

३५) मुक्ति में जीवात्मा की क्या स्थिति होती है, वह कहाँ रहता है? बिना शरीर इन्द्रियों के कैसे चलता, खाता, पिता है ?
उत्तर = मुक्ति में जीवात्मा स्वतंत्र रूप से समस्त ब्रम्हांड में भ्रमण करता है और ईश्वर के आनंद से आनंदित रहता है तथा ईश्वर की सहायता से अपनी स्वाभाविक शक्तियों से घूमने फिरने का काम करता है। मुक्त अवस्था में जीवत्मा को शरीरधारी जीव की तरह खाने पिने की आवश्यकता नहीं होती है।

३६) जीवात्मा की सांसारिक इच्छाएं कब समाप्त होती है ?
उत्तर = जब ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है और संसार के भोगों से वैराग्य हो जाता है तब जीवात्मा की संसार के भोग पदार्थ को प्राप्त करने की इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं।

३७) जीवात्मा वास्तव में क्या चाहता है ?
उत्तर = जीवात्मा पूर्ण और स्थायी सुख , शान्ति, निर्भयता और स्वतन्त्रता चाहता है।

३८) भोजन कौन खाता है शरीर या जीवात्मा ?
उत्तर = केवल जड़ शरीर भोजन को खा नहीं सकता और केवल चेतन जीवात्मा को भोजन की आवश्यकता नहीं है शरीर में रहता हुआ जीवात्मा मन इन्द्रियादि साधनों से कार्य लेने के लिए भोजन खाता है।

३९) एक शरीर में एक ही जीवात्मा रहता है या अनेक भी रहते हैं ?
उत्तर = एक शरीर में करता और भोक्ता एक ही जीवात्मा रहता है अनेक जीवात्माएं नहीं रहते। हाँ, दूसरे शरीर से युक्त दूसरा जीवात्मा तो किसी शरीर में रह सकता है, जैसे माँ के गर्भ में उसका बच्चा।

४० ) जीवात्मा शरीर में व्यापक है या एकदिशी ( एक स्थानीय ) ?
उत्तर = शरीर में जीवात्मा एकदेशी है व्यापक नहीं, यदि व्यापक होता तो शरीर के घटने बढ़ने के कारन यह नित्य नहीं रह पायेगा।

४१) जीव की परम उन्नति, सफलता क्या है ?
उत्तर = जीवात्मा परम उन्नति आत्मा-परमात्मा का साक्षातकार करके परम शांतिदायक मोक्ष को प्राप्त करना है।

४२) क्या जीवात्मा को प्राप्त होने वाले सुख दुःख अपने ही कर्मों के फल होते है ? या बिना ही कर्म किये दूसरों के कर्मों के कारण भी सुख दुःख मिलते हैं ?
उत्तर = जीवात्मा को प्राप्त होने वाले सुख दुःख अपने कर्मों के फल होते है किन्तु अनेकों बार दूसरे के कर्मों के कारण भी परिणाम प्रभाव के रूप में ( फल रूप में नहीं ) सुख दुःख प्राप्त हो जाते है।

४३) किन लक्षणों के आधार पर यह कह सकते है की किस व्यक्ति ने जीवात्मा का साक्षात्कार कर लिया है ?
उत्तर = मन, इन्द्रियों पर अधिकार करके सत्यधर्म न्यायाचरण के माध्यम से शुभकर्मों को ही करना और असत्य अधर्म के कर्मों को न करना तथा सदा शान्त, सन्तुष्ट और प्रसन्न रहना इस बात का ज्ञापक होता है की इस व्यक्ति ने आत्मा का साक्षात्कार कर लिया है।

जन्म कुंडली का सबसे महत्वपूर्ण भाव दशम भाव।

जन्म कुंडली का सबसे महत्वपूर्ण भाव दशम भाव होता है। दशम भाव पिता, व्यापार, उच्च नौकरी, राजनीति, राजसुख, प्रतिष्ठा, विश्वविख्याति का कारक भाव माना जाता है। इसे कर्म भाव भी कहते हैं। जातक अपने कर्म से महान विख्यात एवं यशस्वी भी होता है और अपने पिता का नाम रोशन करने वाला भी होता है। यदि इस भाव का स्वामी बलवान होकर कहीं भी हो उस प्रकार से फल प्रदाता होता है।

दशमेश का मतलब होता है दशम भाव में जो भी राशि नंबर होगा, उस भाव के स्वामी को दशमेश कहा जाएगा। यथा दशम भाव में कुंभ यानी 11 नंबर लिखे होंगे तो उसका स्वामी शनि होगा। यदि इस भाव में 5 नंबर लिखा है तो सिंह राशि होगी, यदि 12 नंबर लिखा है तो मीन राशि होगी।

दशमेश नवांश कुंडली में जिस ग्रह की राशि में होता है उसी ग्रह के कारकत्व अनुरूप व्यवसाय व्यक्ति के लिए लाभदायक होता है। ग्रहों के कारकत्व निम्न प्रकार है –

*सूर्य राज्य, फल-फूल, वृक्ष, पशु, वन, दवा, चिकित्सा, नेत्र, कंबल, लकड़ी, भूषण, मंत्र, भूमि, यात्रा, अग्नि, आत्मा, पिता, लाल चंदन, पराक्रम, धैर्य, साहस, न्याय प्रियता, गेहूं, घी ।

*चंद्र जलीय पदार्थ, पशुपालन, डेरी उद्योग, कपड़ा, सुगंधित पदार्थ, कल्पना शक्ति, नेत्र, स्त्री सहयोग, भेड़, बकरी, स्त्री संबंधी पदार्थ, कृषि, गन्ना, चांदी, चावल, सफेद वस्त्र, सिल्क का कपड़ा, चमकीली वस्तु, यात्रा, तालाब, क्षय रोग, खारी वस्तुएं, माता, मन, प्रजा।

*मंगल भूमि, अग्नि, गरमी, घाव, राज्य सेवा, पुलिस, फौज, शस्त्र, युद्ध, बिजली, राज दरबार, मिट्टी से बनी वस्तुएं, डैंटिस्ट, अनुशासन, स्पोर्ट्स, तांबा, रक्त चंदन, मसूर, गुड़, ज्वलनशील पदार्थ।

*बुध विद्या, गणित ज्ञान, लेखन वृत्ति, काव्यगम, ज्योतिष, हरी वस्तुएं, शिल्प, दलाली, कमीशन, वाक शक्ति, त्वचा, चिकित्सा, वकालत, अध्यापन, संपादन, प्रकाशन, अभिनय, हास परिहास, व्याकरण, रत्न पारखी, कांसा, डाक्टर, गला, नाचना, पुरोहित।

*गुरु शिक्षक, तर्क, मंदिर, मठ, देवालय, धर्म, नीतिज्ञ, राजा, सेना, तप, दान, परोपकार, पीला रंग, वेद-पुराण आदि से उपदेश, धन, न्याय, वाहन, परमार्थ, स्वास्थ्य, घी, चने, गेहूं, हल्दी, जौ, प्याज, लहसून, मोम, ऊन, पुखराज।

*शुक्र रूप सौंदर्य, भोग विलास एवं सांसारिक सुख, सुगंधित एवं श्रंगारिक प्रसाधन, श्वेत एवं रेशमी वस्त्र, चांदी, आभूषण, गीत-संगीत, नृत्य, गायन, वाद्य, सिनेमा, अभिनेता, उत्तम वस्त्रों का व्यवसाय, मंत्री पद, सलाहकार, जलीय स्थान, दक्षिण पूर्व दिशा।

*शनि मजदूर एवं दास वर्ग, शारीरिक परिश्रम, कारखाने, वनस्पति, नौकरी, निंदित कार्यो से धनोपार्जन, हाथी, घोड़ा, चमड़ा, लोहा, मिथ्या भाषण, कृषि, शस्त्रागार, सीसा, तेल, लकड़ी, विष, पशु, ठेकेदारी।

*राहु गुप्त धन, लॉटरी, शेयर, विष, तिल, तेल, लोहा, वायुयान संबंधी ज्ञान, मशीनरी, चित्रकारी, फोटोग्राफी, वैद्यक, जासूसी अनुसंधान, कंबल, गोमेद।

*केतु गुप्त विद्या, वैराग्य, तीर्थाटन, भिक्षावृत्ति, चर्म रोग, काले वस्त्र, कंबल, विष, शस्त्र, फोड़ा, फुंसी, गर्भपात, चेचक, अत्यंत कठिन कार्य, मंत्रसिद्धि, तत्वज्ञान, दु:ख, शोक, संघर्ष।

कारकत्व शब्दों तक ही सीमित नहीं इनकी परिधि अत्यंत विस्तृत है – जैसे ‘राज्य’ शब्द सूर्य का कारकत्व है। इस छोटे से शब्द में राजा, मंत्री, गवर्नर, राष्ट्रपति, छोटे-मोटे तमाम सरकारी कर्मचारी व अधिकारी, राजनेता, विधायक, सांसद आदि सभी वर्ग जिनका परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप में सरकार से किसी न किसी प्रकार से कोई संबंध है, शामिल हैं। जन्म कुंडली का एकादश भाव ‘आय भाव’ तथा द्वितीय भाव ‘धन भाव’ कहलाता है। इनके स्वामियों के बलाबल और आपस में संबंध के आधार पर व्यवसाय संबंधी आय व धन का विचार किया जाता है।

दशम स्थान स्थित राशि की दिशा में अथवा दशमेश जिस नवांश में होगा, उस नवांश संबंधी राशि की दिशा में व्यवसाय संबंधी लाभ होगा। मेष, सिंह व धनु राशियां ‘पूर्व’ दिशा की स्वामी है। मिथुन, तुला व कुंभ राशियां ‘पश्चिम’ दिशा की स्वामी है। कर्क, वृश्चिक व मीन राशियां ‘उत्तर’ दिशा की स्वामी है तथा वृष, कन्या तथा मकर राशियां ‘दक्षिण’ दिशा की स्वामी है। उपरोक्त विचार ‘लग्न कुंडली’ के साथ ‘चंद्र कुंडली’ व ‘सूर्य कुंडली’ से भी करने पर सूक्ष्म निष्कर्ष पर पहुंचने में काफी सहायता मिलेगी।

कुछ रोचक बाते :

  • लग्न का स्वामी और दशम भाव का स्वामी यदि एक साथ हों तो ऐसा जातक नौकरी में विशेष उन्नति पाता है।
  • दशमेश के साथ शुक्र हो और द्वादश भाव में बुध हो तो वह जातक महात्मा, पुण्यात्मा होता है, लेकिन दशमेश व शुक्र केंद्र में होना चाहिए।
  • दशम भाव का स्वामी केंद्र या त्रिकोण (पंचम, नवम भाव को कहते है) में हो तो वह जातक राजपत्रित अधिकारी होता है।
  • दशम भाव में स्वराशिस्थ सूर्य पिता से धन लाभ दिलाता है।
  • दशम भाव में मीन या धनु राशि हो और उसका स्वामी गुरु यदि त्रिकोण में हो तो वह सभी सुखों को पाने वाला होता है।
  • दशम भाव का स्वामी उच्च का होकर कहीं भी हो तो वह अपने बल-पराक्रम से सभी कार्यों में सफलता पाता है।
  • पंचम भाव में गुरु व दशम भाव में चंद्रमा शुभ स्थिति में हो तो वह जातक विवेकशील, बुद्धिमान व तपस्वी होता है।
  • एकादश भाव का स्वामी दशम में व दशम भाव का स्वामी एकादश भाव में हो या नवम भाव का स्वामी दशम में और दशम भाव का स्वामी नवम भाव में हो तो ऐसा जातक लोकप्रिय, शासक यानी मंत्री या कलेक्टर भी हो सकता है।
  • लग्न का स्वामी व दशम भाव का स्वामी बलवान यानी अपनी राशि में हो या उच्च राशि में हो तो वह जातक प्रतिष्ठित, विश्वविख्यात तथा यशस्वी होता है।
  • दशम भाव में शुक्र-चंद्र की युति जातक को चिकित्सक बना देती है।
  • कन्या या मीन लग्न हो और उसका स्वामी उच्च या अपनी राशि में हो तो वह जातक अपने द्वारा अर्जित धन से उत्तम कार्य करता हुआ संपूर्ण सुखों को भोगने वाला होता है।
  • दशम भाव में उच्च का मंगल या स्वराशि का मंगल सप्तम भाव में मंत्री या पुलिस विभाग में उच्च पद दिलाता है।
  • दशम भाव में उच्च का सूर्य कर्क लग्न में होगा तो उस जातक को धन, कुटुंब से परिपूर्ण बनाएगा व उच्च पदाधिकारी भी बनाएगा।
    [ श्री भैरव बाबा के ये मुख्य 8 स्वरूप
    ✡🌼✡🌼✡🌼✡🌼✡🌼✡
  1. क्रोध भैरव👇
    क्रोध भैरव गहरे नीले रंग के शरीर वाले हैं। उनकी तीन आंखें हैं भगवान भैरव के इस रूप का वाहन गरुड़ हैं, और ये दक्षिण-पश्चिम दिशा के स्वामी माने जाते हैं। क्रोध भैरव की पूजा-अर्चना करने से सभी परेशानियों और बुरे वक्त से लड़ने की क्षमता बढ़ती है।
  2. कपाल भैरव👇
    इस रूप में भगवान का शरीर चमकीला है और इस रूप में भगवान की सवारी हाथी है। भगवान भैरव के इस रूप की पूजा-अर्चना करने से कानूनी कारवाइयां बंद हो जाती हैं। अटके हुए काम पूरे होते हैं और सभी कामों में सफलता मिलती है। कपाल भैरव अपने एक हाथ में त्रिशूल, दूसरे में तलवार, तीसरे में शस्त्र और चौथे में एक पात्र पकड़े हुए हैं।
  3. असितांग भैरव👇
    असितांग भैरव का रूप काला है। उन्होने गले में सफेद कपालो की माला पहन रखी है और हाथ में भी एक कपाल धारण किए हुए हैं। तीन आंखों वाले असितांग भैरव की सवारी हंस है। भगवान भैरव के इस रूप की पूजा-अर्चना करने से मनुष्य में कलात्मक क्षमताएं बढ़ती हैं।
  4. चंदा भैरव👇
    इस रूप में भगवान का रंग सफेद है और वे मोर की सवारी किए हुए हैं। भगवान की तीन आंखें हैं और एक हाथ में तलवार और दूसरे में एक पात्र, तीसरे हाथ में तीर और चौथे हाथ में धनुष लिए हुए हैं। चंद भैरव की पूजा करने से दुश्मनों पर विजय मिलती है और हर बुरी परिस्थिति से लड़ने की क्षमता आती है।
  5. गुरु भैरव👇
    गुरु भैरव हाथ में कपाल, कुल्हाडी, एक पात्र और तलवार पकड़े हुए हैं। यह भगवान का नग्न रूप है और इस रूप में भगवान की सवारी बैल है। गुरु भैरव के शरीर पर सांप लिपटा हुआ है। उनके तीन हाथों में शस्त्र और एक हाथ में पात्र पकड़े हुए हैं। गुरु भैरव की पूजा करने से अच्छी विद्या और ज्ञान की प्राप्ति होती है।
  6. संहार भैरव👇
    संहार भैरव का रूप बहुत ही अनोखा है। संहार भैरव नग्न रूप में हैं, उनका शरीर लाल रंग का है और उनके सिर पर कपाल स्थापित है, वह भी लाल रंग का है। इनकी 3 आंखें हैं और उनका वाहन कुत्ता है। संहार भैरव की आठ भुजाएं हैं और उनके शरीर पर सांप लिपटा हुआ है। इसकी पूजा करने से मनुष्य के सभी पाप खत्म हो जाते हैं।
  7. उन्मत्त भैरव👇
    उन्मत्त भैरव भगवान के शांत स्वभाव का प्रतीक है। उन्मत्त भैरव की पूजा-अर्चना करने से मनुष्य के मन की सारी नकारात्मकता और सारी बुराइयां खत्म हो जाती है। भैरव के इस रूप का स्वरूप भी शांत और सुखद है। उन्मत्त भैरव के शरीर का रंग हल्का पीला है और उनका वाहन घोड़ा है।
  8. भीषण भैरव👇
    भीषण भैरव की पूजा-करने से बुरी आत्माओं और भूतों से छुटकारा मिलता है। भीषण भैरव अपने एक हाथ में कमल, दूसरे में त्रिशूल, तीसरे में तलवार और चौंथे में एक पात्र पकड़े हुए हैं। भीषण भैरव का वाहन
    शेर है ।
    ✡🌼✡🌼✡🌼✡🌼✡🌼✡🌼✡🌼✡🌼✡🌼✡

प्रामाण्यबुद्धिर्वेदेषु साधनानामनेकता ।
उपास्यानामनियमो हिन्दुधर्मस्य लक्षणम्।।

“The religion of the Hindus has the Vedas as the book of testimony which are practised by different sets of spiritual search and religious services.”

“वेदों में प्रामाण्यबुद्धि, साधना के स्वरुप में विविधता, और उपास्यरुप संबंध में नियमन नहीं – ये हि धर्म के लक्षण हैं।”

आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् ।
सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ।।

“Just as every drop of rain that falls from the sky flows into the Ocean, in the same way all prayers offered to any Deity goes to The Supreme Lord.”

“जिस प्रकार आकाश से गिरा हुआ जल विविध मार्गों से होता हुआ सागर में जाकर मिल जाता है, उसी प्रकार सभी देवताओं को दिया हुआ सम्मान अंततः एक ही परमेश्वर को प्राप्त हो जाता है।।”

and above all The Vedas tell us :

एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति …. ।। ऋग्वेद, प्रथम मण्डल के 164वें सूक्त की 46वीं ऋचा

“Truth is one, but the Wise say it in many ways.”

“परम सत्य एक ही है, उसी को विप्र (विद्वान) बहुत प्रकार से (अनेक रूपों में) कहते हैं।”

Thus the pervasiveness of the Hindu religion encompasses the entire, vast universe thereby becoming Sanatana Dharma.

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।। मंत्र-शक्ति की वैज्ञानिकता ।।

                      मंत्र क्या हैं ?
                     """"""""""""""

मनन करने से जो त्राण करता हैं , रक्षा करता हैं उसे ही मंत्र कहते हैं।
मंत्र शब्दात्मक होते हैं – मंत्र सात्त्विक, शुद्ध और आलौकिक होते हैं ।
अंत-आवरण हटाकर बुद्धि और मन को निर्मल करतें हैं , मन्त्रों द्वारा शक्ति का संचार होता हैं और उर्जा उत्पन्न होती हैं।
आधुनिक विज्ञान भी मंत्रों की शक्ति को अनेक प्रयोगों से सिद्ध कर चुका हैं ।
मन्त्रों की प्रकृति:मंत्र का सीधा सम्बन्ध ध्वनि से है इसलिए इसे ध्वनि -विज्ञान भी कहतें हैं ।
ध्वनि प्रकाश, ताप, अणु-शक्ति, विधुत -शक्ति की भांति एक प्रत्यक्ष शक्ति हैं ।
विज्ञान का अर्थ हैं सिद्धांतों का गणितीय होना , मन्त्रों में अमुक अक्षरों का एक विशिष्ट क्रमबद्ध , लयबद्ध और वृत्तात्मक क्रम होता हैं ,,,, इसकी निश्चित नियमबद्धता और निश्चित अपेक्षित परिणाम ही इसे वैज्ञानिक बनातें हैं।
मंत्र में प्रयुक्त प्रत्येक शब्द का एक निश्चित भार, रूप, आकर, प्रारूप, शक्ति,गुणवत्ता और रंग होता हैं ।
मंत्र एक प्रकार की शक्ति हैं जिसकी तुलना हम गुरुत्वाकर्षण, चुम्बकीय-शक्ति और विद्युत -शक्ति से कर सकते हैं , प्रत्येक मंत्र की एक निश्चित उर्जा, फ्रिक्वेन्सि और वेवलेंथ होती हैं।

अधिष्ठाता देव – देवी या शक्ति : “””””””””””””””””””””””””””””””””
प्रत्येक मंत्र का कोई न कोई अधिष्ठाता – देव या शक्ति होती हैं,
मंत्र में शक्ति उसी अधि- शक्ति से आती हैं ।
मंत्र सिद्धि होने पर साधक को उसी देवता या अधि-शक्ति का अनुदान मिलता हैं ।
किसी भी मंत्र का जब उच्चारण किया जाता हैं तो वो वह एक विशेष गति से आकाश – तत्व के परमाणुओं के बीच कम्पन पैदा करते हुए उसी मूल -शक्ति – देवता तक पहुंचतें हैं, जिससे वह मंत्र सम्बंधित होता हैं ,
उस दिव्य शक्ति से टकरा कर आने वाली परावर्तित तरंगें अपने साथ उस अधि -शक्ति के दिव्य- गुणों की तरंगों को अपने साथ लेकर लौटती हैं और साधक के शरीर ,मन और आत्मा में प्रविष्ट कर उसे लाभान्वित करतीं हैं।

मंत्रों की गति करने का माध्यम
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ध्वनि एक प्रकार का कम्पन हैं , प्रत्येक शब्द आकाश के सूक्ष्म परमाणुओं में कंपन पैदा करता हैं … ध्वनि तरंगें एक प्रकार की mechanical -waves होती हैं ।
इन तरंगों को यात्रा करने के लिए एक माध्यम की आवश्कता पड़ती हैं जो ठोस ,तरल या वायु रूप में हो सकती हैं।
हमारे द्वारा बोले गये साधारण शब्द वायु माध्यम में गति करतें हैं और वायु के परमाणुओं के प्रतिरोध उत्पन्न करने के कारण इन ध्वनि तरंगों की गति और उर्जा बाधित होती हैं।
मन्त्रों की स्थूल ध्वनि -तरंगें वायु में व्याप्त अत्यंत सूक्ष्म और अति संवेदनशील ईश्वर -तत्व में गति करती हैं।

  ।। मन्त्रों की गती ।।

प्रत्येक मंत्र , साधक और उस मंत्र के अधिष्ठाता – देव के मध्य एक अदृश्य सेतु का कार्य करता हैं।
साधारण बोले गए शब्दों की ध्वनि – तरंगें वातावरण में प्रत्येक दिशा में फ़ैल कर सीधे चलतीं हैं , किन्तु मन्त्रों में प्रयुक्त शब्दों को क्रमबद्ध , लयबद्ध ,वृताकार क्रम से उच्चारित करनें से एक विशेष प्रकार का गति – चक्र बन जाता हैं जो सीधा चलनें की अपेक्षा स्प्रिंग की भांति वृत्ताकार गति के अनुसार चलता हैं और अपने गंतव्य देव तक पहुँच जाता हैं।
पुनः उन ध्वनियों की प्रतिध्वनियाँ उस देव की अलोकिकता , दिव्यता , तेज और प्रकाश -अणु लेकर साधक के पास लौट जाती हैं।
अतः हम कह सकतें हैं की मन्त्रों की गति spiral -cirulatory -path का अनुगमन करती हैं. इसका उदहारण हम या प्रत्यावर्ती बाण के पथ से कर सकते हैं , जिसकी वृत्तात्मक यात्रा पुनः अपने स्त्रोत पर आ कर ही ख़त्म होती हैं … अतः मन्त्रों के रूप में जो भी तरंगें अपने मस्तिष्क से हम ब्रह्माण्ड में प्रक्षेपित करतें वे लौट कर हमारे पास ही आतीं हैं ,
[: योगो के प्रकार महत्त्व एवं इनके द्वारा जीवन विकास
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योग का वर्णन वेदों में, फिर उपनिषदों में और फिर गीता में मिलता है, लेकिन पतंजलि और गुरु गोरखनाथ ने योग के बिखरे हुए ज्ञान को व्यवस्थित रूप से लिपिबद्ध किया। योग हिन्दू धर्म के छह दर्शनों में से एक है। ये छह दर्शन हैं- 1.न्याय 2.वैशेषिक 3.मीमांसा 4.सांख्य 5.वेदांत और 6.योग। आओ जानते हैं योग के बारे में वह सब कुछ जो आप जानना चाहते हैं।

योग के मुख्य अंग:👉 यम, नियम, अंग संचालन, आसन, क्रिया, बंध, मुद्रा, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इसके अलावा योग के प्रकार, योगाभ्यास की बाधाएं, योग का इतिहास, योग के प्रमुख ग्रंथ।

योग के प्रकार:👉 1.राजयोग, 2.हठयोग, 3.लययोग, 4. ज्ञानयोग, 5.कर्मयोग और 6. भक्तियोग। इसके अलावा बहिरंग योग, नाद योग, मंत्र योग, तंत्र योग, कुंडलिनी योग, साधना योग, क्रिया योग, सहज योग, मुद्रायोग, और स्वरयोग आदि योग के अनेक आयामों की चर्चा की जाती है। लेकिन सभी उक्त छह में समाहित हैं।

1.पांच यम:👉 1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय, 4.ब्रह्मचर्य और 5.अपरिग्रह।

2.पांच नियम:👉 1.शौच, 2.संतोष, 3.तप, 4.स्वाध्याय और 5.ईश्वर प्राणिधान।

3.अंग संचालन:👉 1.शवासन, 2.मकरासन, 3.दंडासन और 4. नमस्कार मुद्रा में अंग संचालन किया जाता है जिसे सूक्ष्म व्यायाम कहते हैं। इसके अंतर्गत आंखें, कोहनी, घुटने, कमर, अंगुलियां, पंजे, मुंह आदि अंगों की एक्सरसाइज की जाती है।

4.प्रमुख बंध:👉 1.महाबंध, 2.मूलबंध, 3.जालन्धरबंध और 4.उड्डियान।

5.प्रमुख आसन:👉 किसी भी आसन की शुरुआत लेटकर अर्थात शवासन (चित्त लेटकर) और मकरासन (औंधा लेटकर) में और बैठकर अर्थात दंडासन और वज्रासन में, खड़े होकर अर्थात सावधान मुद्रा या नमस्कार मुद्रा से होती है। यहां सभी तरह के आसन के नाम दिए गए हैं।

1.सूर्यनमस्कार, 2.आकर्णधनुष्टंकारासन, 3.उत्कटासन, 4.उत्तान कुक्कुटासन, 5.उत्तानपादासन, 6.उपधानासन, 7.ऊर्ध्वताड़ासन, 8.एकपाद ग्रीवासन, 9.कटि उत्तानासन, 10.कन्धरासन, 11.कर्ण पीड़ासन, 12.कुक्कुटासन, 13.कुर्मासन, 14.कोणासन, 15.गरुड़ासन 16.गर्भासन, 17.गोमुखासन, 18.गोरक्षासन, 19.चक्रासन, 20.जानुशिरासन, 21.तोलांगुलासन 22.त्रिकोणासन, 23.दीर्घ नौकासन, 24.द्विचक्रिकासन, 25.द्विपादग्रीवासन, 26.ध्रुवासन 27.नटराजासन, 28.पक्ष्यासन, 29.पर्वतासन, 31.पशुविश्रामासन, 32.पादवृत्तासन 33.पादांगुष्टासन, 33.पादांगुष्ठनासास्पर्शासन, 35.पूर्ण मत्स्येन्द्रासन, 36.पॄष्ठतानासन 37.प्रसृतहस्त वृश्चिकासन, 38.बकासन, 39.बध्दपद्मासन, 40.बालासन, 41.ब्रह्मचर्यासन 42.भूनमनासन, 43.मंडूकासन, 44.मर्कटासन, 45.मार्जारासन, 46.योगनिद्रा, 47.योगमुद्रासन, 48.वातायनासन, 49.वृक्षासन, 50.वृश्चिकासन, 51.शंखासन, 52.शशकासन, 53.सिंहासन, 55.सिद्धासन, 56.सुप्त गर्भासन, 57.सेतुबंधासन, 58.स्कंधपादासन, 59.हस्तपादांगुष्ठासन, 60.भद्रासन, 61.शीर्षासन, 62.सूर्य नमस्कार, 63.कटिचक्रासन, 64.पादहस्तासन, 65.अर्धचन्द्रासन, 66.ताड़ासन, 67.पूर्णधनुरासन, 68.अर्धधनुरासन, 69.विपरीत नौकासन, 70.शलभासन, 71.भुजंगासन, 72.मकरासन, 73.पवन मुक्तासन, 74.नौकासन, 75.हलासन, 76.सर्वांगासन, 77.विपरीतकर्णी आसन, 78.शवासन, 79.मयूरासन, 80.ब्रह्म मुद्रा, 81.पश्चिमोत्तनासन, 82.उष्ट्रासन, 83.वक्रासन, 84.अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, 85.मत्स्यासन, 86.सुप्त-वज्रासन, 87.वज्रासन, 88.पद्मासन आदि।

6.जानिए प्राणायाम क्या है:-
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प्राणायाम के पंचक:👉 1.व्यान, 2.समान, 3.अपान, 4.उदान और 5.प्राण।

प्राणायाम के प्रकार:👉 1.पूरक, 2.कुम्भक और 3.रेचक। इसे ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्भक कहते हैं।

प्रमुख प्राणायाम:👉 1.नाड़ीशोधन, 2.भ्रस्त्रिका, 3.उज्जाई, 4.भ्रामरी, 5.कपालभाती, 6.केवली, 7.कुंभक, 8.दीर्घ, 9.शीतकारी, 10.शीतली, 11.मूर्छा, 12.सूर्यभेदन, 13.चंद्रभेदन, 14.प्रणव, 15.अग्निसार, 16.उद्गीथ, 17.नासाग्र, 18.प्लावनी, 19.शितायु आदि।

अन्य प्राणायाम:👉 1.अनुलोम-विलोम प्राणायाम, 2.अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम, 3.अग्नि प्रसारण प्राणायाम, 4.एकांड स्तम्भ प्राणायाम, 5.सीत्कारी प्राणायाम, 6.सर्वद्वारबद्व प्राणायाम, 7.सर्वांग स्तम्भ प्राणायाम, 8.सम्त व्याहृति प्राणायाम, 9.चतुर्मुखी प्राणायाम, 10.प्रच्छर्दन प्राणायाम, 11.चन्द्रभेदन प्राणायाम, 12.यन्त्रगमन प्राणायाम, 13.वामरेचन प्राणायाम, 14.दक्षिण रेचन प्राणायाम, 15.शक्ति प्रयोग प्राणायाम, 16.त्रिबन्धरेचक प्राणायाम, 17.कपाल भाति प्राणायाम, 18.हृदय स्तम्भ प्राणायाम, 19.मध्य रेचन प्राणायाम, 20.त्रिबन्ध कुम्भक प्राणायाम, 21.ऊर्ध्वमुख भस्त्रिका प्राणायाम, 22.मुखपूरक कुम्भक प्राणायाम, 23.वायुवीय कुम्भक प्राणायाम,
24.वक्षस्थल रेचन प्राणायाम, 25.दीर्घ श्वास-प्रश्वास प्राणायाम, 26.प्राह्याभ्न्वर कुम्भक प्राणायाम, 27.षन्मुखी रेचन प्राणायाम 28.कण्ठ वातउदा पूरक प्राणायाम, 29.सुख प्रसारण पूरक कुम्भक प्राणायाम, 30.नाड़ी शोधन प्राणायाम व नाड़ी अवरोध प्राणायाम आदि।

7.योग क्रियाएं जानिएं:-
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प्रमुख 13 क्रियाएं:👉 1.नेती- सूत्र नेति, घॄत नेति, 2.धौति- वमन धौति, वस्त्र धौति, दण्ड धौति, 3.गजकरणी, 4.बस्ती- जल बस्ति, 5.कुंजर, 6.न्यौली, 7.त्राटक, 8.कपालभाति, 9.धौंकनी, 10.गणेश क्रिया, 11.बाधी, 12.लघु शंख प्रक्षालन और 13.शंख प्रक्षालयन।

8.मुद्राएं कई हैं:-
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6 आसन मुद्राएं:👉 1.व्रक्त मुद्रा, 2.अश्विनी मुद्रा, 3.महामुद्रा, 4.योग मुद्रा, 5.विपरीत करणी मुद्रा, 6.शोभवनी मुद्रा।

पंच राजयोग मुद्राएं👉 1.चाचरी, 2.खेचरी, 3.भोचरी, 4.अगोचरी, 5.उन्न्युनी मुद्रा।

10 हस्त मुद्राएं:👉 उक्त के अलावा हस्त मुद्राओं में प्रमुख दस मुद्राओं का महत्व है जो निम्न है: -1.ज्ञान मुद्रा, 2.पृथवि मुद्रा, 3.वरुण मुद्रा, 4.वायु मुद्रा, 5.शून्य मुद्रा, 6.सूर्य मुद्रा, 7.प्राण मुद्रा, 8.लिंग मुद्रा, 9.अपान मुद्रा, 10.अपान वायु मुद्रा।

अन्य मुद्राएं :👉 1.सुरभी मुद्रा, 2.ब्रह्ममुद्रा, 3.अभयमुद्रा, 4.भूमि मुद्रा, 5.भूमि स्पर्शमुद्रा, 6.धर्मचक्रमुद्रा, 7.वज्रमुद्रा, 8.वितर्कमुद्रा, 8.जनाना मुद्रा, 10.कर्णमुद्रा, 11.शरणागतमुद्रा, 12.ध्यान मुद्रा, 13.सुची मुद्रा, 14.ओम मुद्रा, 15.जनाना और चीन मुद्रा, 16.अंगुलियां मुद्रा 17.महात्रिक मुद्रा, 18.कुबेर मुद्रा, 19.चीन मुद्रा, 20.वरद मुद्रा, 21.मकर मुद्रा, 22.शंख मुद्रा, 23.रुद्र मुद्रा, 24.पुष्पपूत मुद्रा, 25.वज्र मुद्रा, 26श्वांस मुद्रा, 27.हास्य बुद्धा मुद्रा, 28.योग मुद्रा, 29.गणेश मुद्रा 30.डॉयनेमिक मुद्रा, 31.मातंगी मुद्रा, 32.गरुड़ मुद्रा, 33.कुंडलिनी मुद्रा, 34.शिव लिंग मुद्रा, 35.ब्रह्मा मुद्रा, 36.मुकुल मुद्रा, 37.महर्षि मुद्रा, 38.योनी मुद्रा, 39.पुशन मुद्रा, 40.कालेश्वर मुद्रा, 41.गूढ़ मुद्रा, 42.मेरुदंड मुद्रा, 43.हाकिनी मुद्रा, 45.कमल मुद्रा, 46.पाचन मुद्रा, 47.विषहरण मुद्रा या निर्विषिकरण मुद्रा, 48.आकाश मुद्रा, 49.हृदय मुद्रा, 50.जाल मुद्रा आदि।

9.प्रत्याहार:👉 इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियां मनुष्य को बाहरी विषयों में उलझाए रखती है।। प्रत्याहार के अभ्यास से साधक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है। जैसे एक कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार प्रत्याहरी मनुष्य की स्थिति होती है। यम नियम, आसान, प्राणायाम को साधने से प्रत्याहार की स्थिति घटित होने लगती है।

10.धारणा:👉 चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है। प्रत्याहार के सधने से धारणा स्वत: ही घटित होती है। धारणा धारण किया हुआ चित्त कैसी भी धारणा या कल्पना करता है, तो वैसे ही घटित होने लगता है। यदि ऐसे व्यक्ति किसी एक कागज को हाथ में लेकर यह सोचे की यह जल जाए तो ऐसा हो जाता है।

11.ध्यान :👉 जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

ध्यान के रूढ़ प्रकार:👉 स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान।

ध्यान विधियां:👉 श्वास ध्यान, साक्षी भाव, नासाग्र ध्यान, विपश्यना ध्यान आदि हजारों ध्यान विधियां हैं।

12.समाधि:👉 यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

समाधि की भी दो श्रेणियां हैं :👉 1.सम्प्रज्ञात और 2.असम्प्रज्ञात।

सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है। इसे बौद्ध धर्म में संबोधि, जैन धर्म में केवल्य और हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्त करना कहते हैं। इस सामान्य भाषा में मुक्ति कहते हैं।

पुराणों में मुक्ति के 6 प्रकार बताएं गए है जो इस प्रकार हैं-👉 1.साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), 2.सालोक्य (लोक की प्राप्ति), 3.सारूप (ब्रह्मस्वरूप), 4.सामीप्य, (ब्रह्म के पास), 5.साम्य (ब्रह्म जैसी समानता) 6.लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।

योगाभ्यास की बाधाएं:👉 आहार, प्रयास, प्रजल्प, नियमाग्रह, जनसंग और लौल्य। इसी को सामान्य भाषा में आहार अर्थात अतिभोजन, प्रयास अर्थात आसनों के साथ जोर-जबरदस्ती, प्रजल्प अर्थात अभ्यास का दिखावा, नियामाग्रह अर्थात योग करने के कड़े नियम बनाना, जनसंग अर्थात अधिक जनसंपर्क और अंत में लौल्य का मतलब शारीरिक और मानसिक चंचलता।

1.राजयोग:👉 यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह पतंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं। इन्हें अष्टांग योग भी कहा जाता है।

2.हठयोग:👉 षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि- ये हठयोग के सात अंग है, लेकिन हठयोगी का जोर आसन एवं कुंडलिनी जागृति के लिए आसन, बंध, मुद्रा और प्राणायम पर अधिक रहता है। यही क्रिया योग है।

3.लययोग:👉 यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उक्त आठ लययोग के अंग है।

4.ज्ञानयोग:👉 साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान योग है। यही ध्यानयोग है।

5.कर्मयोग:👉 कर्म करना ही कर्म योग है। इसका उद्येश्य है कर्मों में कुशलता लाना। यही सहज योग है।

6.भक्तियोग :👉 भक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप- इन नौ अंगों को नवधा भक्ति कहा जाता है। भक्ति योगानुसार व्यक्ति सालोक्य, सामीप्य, सारूप तथा सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त होता है, जिसे क्रमबद्ध मुक्ति कहा जाता है।

कुंडलिनी योग 👉 कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी में नाभि के निचले हिस्से में सोई हुई अवस्था में रहती है, जो ध्यान के गहराने के साथ ही सभी चक्रों से गुजरती हुई सहस्रार चक्र तक पहुंचती है। ये चक्र 7 होते हैं

मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार।

72 हजार नाड़ियों में से प्रमुख रूप से तीन है: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा और पिंगला नासिका के दोनों छिद्रों से जुड़ी है जबकि सुषुम्ना भ्रकुटी के बीच के स्थान से। स्वरयोग इड़ा और पिंगला के विषय में विस्तृत जानकारी देते हुए स्वरों को परिवर्तित करने, रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त करने के विषय में गहन मार्गदर्शन होता है। दोनों नासिका से सांस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है।

योग का संक्षिप्त इतिहास
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योग का उपदेश सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सनकादिकों को, पश्चात विवस्वान (सूर्य) को दिया। बाद में यह दो शखाओं में विभक्त हो गया। एक ब्रह्मयोग और दूसरा कर्मयोग। ब्रह्मयोग की परम्परा सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और पच्चंशिख नारद-शुकादिकों ने शुरू की थी। यह ब्रह्मयोग लोगों के बीच में ज्ञान, अध्यात्म और सांख्य योग नाम से प्रसिद्ध हुआ।

दूसरी कर्मयोग की परम्परा विवस्वान की है। विवस्वान ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को, इक्ष्वाकु ने राजर्षियों एवं प्रजाओं को योग का उपदेश दिया। उक्त सभी बातों का वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है। वेद को संसार की प्रथम पुस्तक माना जाता है जिसका उत्पत्ति काल लगभग 10000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। पुरातत्ववेत्ताओं अनुसार योग की उत्पत्ति 5000 ई.पू. में हुई। गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा।

भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 के शुरुआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने ‘सिंधु सरस्वती सभ्यता’ को खोजा था जिसमें प्राचीन हिंदू धर्म और योग की परंपरा होने के सबूत मिलते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता को 3300-1700 बी.सी.ई. पूराना माना जाता है।

योग ग्रंथ योग सूत्र
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वेद, उपनिषद्, भगवद गीता, हठ योग प्रदीपिका, योग दर्शन, शिव संहिता और विभिन्न तंत्र ग्रंथों में योग विद्या का उल्लेख मिलता है। सभी को आधार बनाकर पतंजलि ने योग सूत्र लिखा। योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यव्यवस्थित ग्रंथ है-

योगसूत्र👉 योगसूत्र को पांतजलि ने 200 ई.पूर्व लिखा था। इस ग्रंथ पर अब तक हजारों भाष्य लिखे गए हैं, लेकिन कुछ खास भाष्यों का यहां उल्लेख लिखते हैं।

व्यास भाष्य👉 व्यास भाष्य का रचना काल 200-400 ईसा पूर्व का माना जाता है। महर्षि पतंजलि का ग्रंथ योग सूत्र योग की सभी विद्याओं का ठीक-ठीक संग्रह माना जाता है। इसी रचना पर व्यासजी के ‘व्यास भाष्य’ को योग सूत्र पर लिखा प्रथम प्रामाणिक भाष्य माना जाता है। व्यास द्वारा महर्षि पतंजलि के योग सूत्र पर दी गई विस्तृत लेकिन सुव्यवस्थित व्याख्या।

तत्त्ववैशारदी 👉 पतंजलि योगसूत्र के व्यास भाष्य के प्रामाणिक व्याख्याकार के रूप में वाचस्पति मिश्र का ‘तत्त्ववैशारदी’ प्रमुख ग्रंथ माना जाता है। वाचस्पति मिश्र ने योगसूत्र एवं व्यास भाष्य दोनों पर ही अपनी व्याख्या दी है। तत्त्ववैशारदी का रचना काल 841 ईसा पश्चात माना जाता है।

योगवार्तिक👉 विज्ञानभिक्षु का समय विद्वानों के द्वारा 16वीं शताब्दी के मध्य में माना जाता है। योगसूत्र पर महत्वपूर्ण व्याख्या विज्ञानभिक्षु की प्राप्त होती है जिसका नाम ‘योगवार्तिक’ है।

भोजवृत्ति👉 भोज के राज्य का समय 1075-1110 विक्रम संवत माना जाता है। धरेश्वर भोज के नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति ने योग सूत्र पर जो ‘भोजवृत्ति नामक ग्रंथ लिखा है वह भोजवृत्ति योगविद्वजनों के बीच समादरणीय एवं प्रसिद्ध माना जाता है। कुछ इतिहासकार इसे 16वीं सदी का ग्रंथ मानते हैं।

अष्टांग योग👉 इसी योग का सर्वाधिक प्रचलन और महत्व है। इसी योग को हम अष्टांग योग योग के नाम से जानते हैं। अष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजल‍ि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में… श्रेणीबद्ध कर दिया है। लगभग 200 ईपू में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योग-सूत्र की रचना की। योग-सूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है।

यह आठ अंग हैं👉 (1)यम (2)नियम (3)आसन (4) प्राणायाम (5)प्रत्याहार (6)धारणा (7) ध्यान (8)समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।

योग सूत्र👉 200 ई.पू. रचित महर्षि पतंजलि का ‘योगसूत्र’ योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। योगदर्शन इन चार विस्तृत भाग, जिन्हें इस ग्रंथ में पाद कहा गया है, में विभाजित है👉 समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद।

प्रथम पाद का मुख्य विषय चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है। द्वितीय पाद में पाँच बहिरंग साधन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का विवेचन है।

तृतीय पाद में अंतरंग तीन धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ऋषि के अनुसार वे समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं।

चतुर्थ कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहाँ एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।

‌दूसरे ही सूत्र में योग की परिभाषा देते हुए पतंजलि कहते हैं- ‘योगाश्चित्त वृत्तिनिरोधः’। अर्थात योग चित्त की वृत्तियों का संयमन है। चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए महर्षि पतंजलि ने द्वितीय और तृतीय पाद में जिस अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया है, उसका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है:-

‌ 1👉 यम: कायिक, वाचिक तथा मानसिक इस संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय चोरी न करना, ब्रह्मचर्य जैसे अपरिग्रह आदि पाँच आचार विहित हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं।

‌2👉 नियम: मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों का विधान किया गया है। इनके अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान का समावेश है। शौच में बाह्य तथा आन्तर दोनों ही प्रकार के शुद्धि समाविष्ट है

3👉 आसन: पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे संबंधित ‘हठयोग प्रतीपिका’ ‘घरेण्ड संहिता’ तथा ‘योगाशिखोपनिषद्’ में विस्तार से वर्णन मिलता है।

4👉 प्राणायाम: योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।

5👉 प्रत्याहार: इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बाह्यभिमुख किया करती हैं। प्रत्याहार के इस अभ्यास से साधक योग के लिए परम आवश्यक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है।

6👉 धारणा: चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है।

7👉 ध्यान: जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

8👉 समाधि: यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं👉 सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।,

योग साधना द्वारा जीवन विकास
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योग का नाम सुनते ही कितने ही लोग चौंक उठते हैं उनकी निगाह में यह एक ऐसी चीज है जिसे लम्बी जटा वाला और मृग चर्मधारी साधु जंगलों या गुफाओं में किया करते हैं। इसलिये वे सोचते हैं कि ऐसी चीज से हमारा क्या सम्बन्ध? हम उसकी चर्चा ही क्यों करें?

पर ऐसे विचार इस विषय में उन्हीं लोगों के होते हैं जिन्होंने कभी इसे सोचने-विचारने का कष्ट नहीं किया। अन्यथा योग जीवन की एक सहज, स्वाभाविक अवस्था है जिसका उद्देश्य समस्त मानवीय इन्द्रियों और शक्तियों का उचित रूप से विकास करना और उनको एक नियम में चलाना है। इसीलिये योग शास्त्र में “चित्त वृत्तियों का निरोध” करना ही योग बतलाया गया है। गीता में ‘कर्म की कुशलता’ का नाम योग है तथा ‘सुख-दुख के विषय में समता की बुद्धि रखने’ को भी योग बतलाया गया है। इसलिये यह समझना कोरा भ्रम है कि समाधि चढ़ाकर, पृथ्वी में गड्ढा खोदकर बैठ जाना ही योग का लक्षण है। योग का उद्देश्य तो वही है जो योग शास्त्र में या गीता में बतलाया गया है। हाँ इस उद्देश्य को पूरा करने की विधियाँ अनेक हैं, उनमें से जिसको जो अपनी प्रकृति और रुचि के अनुकूल जान पड़े वह उसी को अपना सकता है। नीचे हम एक योग विद्या के ज्ञाता के लेख से कुछ ऐसा योगों का वर्णन करते हैं जिनका अभ्यास घर में रहते हुये और सब कामों को पूर्ववत् करते हुये अप्रत्यक्ष रीति से ही किया जा सकता है-

  1. कैवल्य योग👉 कैवल्य स्थिति को योग शास्त्र में सबसे बड़ा माना गया है। दूसरों का आश्रय छोड़कर पूर्ण रूप से अपने ही आधार पर रहना और प्रत्येक विषय में अपनी शक्ति का अनुभव करना इसका ध्येय हैं। साधारण स्थिति में मनुष्य अपने सभी सुखों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। यह एक प्रकार की पराधीनता है और पराधीनता में दुख होना आवश्यक है। इसलिये योगी सब दृष्टियों से पूर्ण स्वतंत्र होने की चेष्टा करते हैं। जो इस आदर्श के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं वे ही कैवल्य की स्थिति में अथवा मुक्तात्मा समझे जा सकते हैं। पर कुछ अंशों में इसका अभ्यास सब कोई कर सकते हैं और उसके अनुसार स्वाधीनता का सुख भी भोग सकते हैं।
  2. सुषुप्ति योग👉 निद्रावस्था में भी मनुष्य एक प्रकार की समाधि का अनुभव कर सकता है। जिस समय निद्रा आने लगती है उस समय यदि पाठक अनुभव करने लगेंगे तो एक वर्ष के अभ्यास से उनको आत्मा के अस्तित्व को ज्ञान हो जायेगा। सोते समय जैसा विचार करके सोया जायगा उसका शरीर और मन पर प्रभाव अवश्य पड़ेगा। जिस व्यक्ति को कोई बीमारी रहती है वह यदि सोने के समय पूर्ण आरोग्य का विचार मन में लायेगा और “मैं बीमार नहीं हूँ।” ऐसे श्रेष्ठ संकल्प के साथ सोयेगा तो आगामी दिन से बीमारी दूर होने का अनुभव होने लगेगा। सुषुप्ति योग की एक विधि यह भी है कि निद्रा आने के समय जिसको जागृति और निद्रा संधि समय कहा जाता है, किसी उत्तम मंत्र का जप अर्थ का ध्यान रखते हुए करना और वैसे करते ही सो जाना। तो जब आप जगेंगे तो वह मंत्र आपको अपने मन में उसी प्रकार खड़ा मिलेगा। जब ऐसा होने लगे तब आप यह समझ लीजिये कि आप रात भर जप करते रहें। यह जप बिस्तरे पर सोते-सोते ही करना चाहिये और उस समय अन्य किसी बात को ध्यान मन में नहीं लाना चाहिये।
  3. स्वप्न योग👉 स्वप्न मनुष्य को सदा ही आया करते हैं, उनमें से कुछ अच्छे होते हैं और कुछ खराब। इसका कारण हमारे शुभ और अशुभ विचार ही होते हैं। इसलिये आप सदैव श्रेष्ठ विचार और कार्य करके तथा सोते समय वैसा ही ध्यान करके उत्तम स्वप्न देख सकते हैं। इसके लिये जैसा आपका उद्देश्य हो वैसा ही विचार भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिये यदि आपकी इच्छा ब्रह्मचर्य पालन की हो तो भीष्म पितामह का ध्यान कीजिये, दृढ़ व्रत और सत्य प्रेम होना हो तो श्रीराम चंद्र की कल्पना कीजिये, बलवान बनने का ध्येय हो तो भीमसेन का अथवा हनुमान जी का स्मरण कीजिये। आप सोते समय जिसकी कल्पना और ध्यान करेंगे स्वप्न में आपको उसी विषय का अनुभव होता रहेगा।
  4. बुद्धियोग👉 तर्क-वितर्क से परे और श्रद्धा-भक्ति से युक्त निश्चयात्मक ज्ञान धारक शक्ति का नाम ही बुद्धि है। ऐसी ही बुद्धि की साधना से योग की विलक्षण सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। यद्यपि अपने को आस्तिक मानने से आप परमेश्वर पर भरोसा रखते हैं, पर तर्क-युक्त बात ऐसे योग में काम नहीं देती। अपना अस्तित्व आप जिस प्रकार बिना किसी प्रमाण के मानते हैं, इसी प्रकार बिना किसी प्रमाण का ख्याल किये सर्व मंगलमय परमात्मा पर पूरा विश्वास रखने का प्रयत्न और अभ्यास करना चाहिए। जो लोग बुद्धि योग में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं उनको ऐसी ही तर्क रहित श्रद्धा उत्पन्न करनी चाहिए तभी आपको परमात्मा विषयक सच्चा आनन्द प्राप्त हो सकेगा।
  5. चित्त योग👉 चिन्तन करने वाली शक्ति को चित्त कहते हैं। योग-साधना में जो आपका अभीष्ट है उसकी चिन्ता सदैव करते रहिये। अथवा अभ्यास करने के लिए प्रतिमास कोई अच्छा विचार चुन लीजिये। जैसे “मैं आत्मा हूँ और मैं शरीर से भिन्न हूँ।” इसका सदा ध्यान अथवा चिन्तन करने से आपको धीरे-धीरे अपनी आत्मा और शरीर का भिन्नत्व स्पष्ट प्रतीत होने लगेगा। इस प्रकार अच्छे कल्याणकारी विचारों का चिन्तन करने से बुरे विचारों का आना सर्वथा बन्द हो जायगा और आपको अपना जीवन आनन्दपूर्ण जान पड़ने लगेगा।
  6. इच्छा योग👉 जिससे मनुष्य किसी बात की प्राप्ति अथवा निवृत्ति की इच्छा करता है उसको इच्छा शक्ति कहते हैं। मनो-विज्ञान की दृष्टि से इच्छा शक्ति का प्रभाव अपार है, जिसके द्वारा सब तरह का महान् कार्य सिद्ध किया जा सकता है। बुराई से बचने का मुख्य साधन इच्छा शक्ति है। आप अपनी प्रबल इच्छाशक्ति द्वारा रोगों के आक्रमण को रोक सकते हैं। मानसिक प्रेरणा देने से बड़ी-बड़ी बीमारियाँ दूर हो सकती हैं। चरित्र सम्बन्धी सब दोषों को भी इच्छा शक्ति द्वारा दूर किया जा सकता है ओर उत्तम आचरण ग्रहण किये जा सकते हैं। यह शक्ति प्रत्येक में होती है, प्रश्न केवल उसे बुराई की तरफ से भलाई की तरफ प्रेरित करने का है।
  7. मानस योग👉 मन का धर्म अच्छे और बुरे विचार करना है। मन को एकाग्र करने से उसकी शक्ति बहुत बढ़ सकती है और उसे उन्नति तथा कल्याण के कार्यों में लगाया जा सकता है। इसके लिये अभ्यास द्वारा मन को आज्ञाकारी बनाना चाहिये जिससे वह उन्हीं विचारों में लगे जिनको आप उत्तम समझते हैं।
  8. अहंकार-योग👉 अहंकार शब्द का अर्थ ‘घमंड” भी होता है पर यहाँ उस अर्थ से हमारा तात्पर्य नहीं है। यहाँ पर इसका भाव अपनी अन्तरात्मा से है। अहंकार योग का उद्देश्य यह है कि मनुष्य अपने को भौतिक शरीर से भिन्न समझे और आत्मा के अजर, अमर, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिशाली आदि गुणों का ध्यान करके उनको ग्रहण करने का प्रयत्न करे। जब मनुष्य के भीतर यह विचार जम जाता है तो वह जिस कार्य का या अनुष्ठान का निश्चय कर लेता है, उसे फिर पूरा करके ही रहता है, क्योंकि उसे यह दृढ़ विश्वास होता है कि मैं शक्तिशाली आत्मा का रूप हूँ जिसके लिए कोई कार्य असंभव नहीं।
  9. ज्ञानेन्द्रिय-योग👉 ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच मानी गई हैं-आँख, कान, नाक, जीभ, चर्म। इनका सम्बन्ध क्रमशः अग्नि, आकाश, पृथ्वी, जल और वायु के साथ होता है। इनमें योग साधन के लिये सबसे प्रमुख इन्द्री आँख को माना गया है। मन की एकाग्रता प्राप्त करने के लिये आँखों की दृष्टि को किसी एक स्थान या केन्द्र पर जमाना होता है। इससे मन की शक्ति बढ़ जाती है और उसका दूसरों पर विशेष रूप से प्रभाव पड़ने लगता है। इसके द्वारा फिर अन्य इन्द्रियों पर भी कल्याणकारी प्रभाव पड़ने लगता है।
  10. कर्मेन्द्रिय-योग👉 कर्मेन्द्रियाँ पाँच हैं👉 वाणी, हाथ, पाँव, गुदा और शिश्न। इनमें सबसे अधिक उपयोग वाणी का ही होता है और वह मानव-जीवन के विकास का सबसे बड़ा साधन है। वाणी द्वारा हम जो शब्द उच्चारण करते हैं उनमें बड़ी शक्ति होती है। योग साधन वाले को वाणी से सदैव उत्तम और हितकारी शब्द ही निकालने चाहिये। इस प्रकार का अभ्यास करने से अंत में आपको वाक्सिद्धि की शक्ति प्राप्त हो सकेगी।
    वास्तव में मनुष्य का समस्त जीवन ही एक प्रकार का योग है। मनुष्य के रूप में आकर जीवात्मा, परमात्मा को पहिचान सकता है और उसे प्राप्त कर सकता है। इसलिये हमको अपनी प्रत्येक शक्ति को एक विशेष उद्देश्य और नियम के साथ विकसित करनी चाहिये जिससे वह उन्नत होती चली जाय। अगर मनुष्य इस प्रयत्न में सच्चे मन से बराबर लगा रहेगा तो उसे सब प्रकार की दैवी शक्तियाँ प्राप्त हो जायेंगी और वह परमात्मा के निकट पहुँचता जायगा।

संकलित ✏️✏️✏️
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