Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

” भक्ति के सिद्धान

भक्ति – मार्ग में सर्व भगवान का स्वरुप है । इसलिए , जब असली भक्ति का उदय होता है , जब सर्वज्ञानमयी भक्ति उदय होती है , तब भक्त को सर्वरूप में अपने इष्टदेव का ही , अपने प्रभु का ही दर्शन होता है ।
नारायण ! देखें , जितना बाहर आपको दिखायी पड़ता है , वह आपके इष्टदेव का ही स्वरूप है और आपके भीतर जितने भाव उठते हैं , वे सब भी परमात्मा के स्वरूप हैं , यह सर्वभाव से भजन है । इस प्रकार बाहर – भीतर एकरस – भक्ति है ।
नारायण ! कई लोगों का ऐसा ख्याल होता है कि जितनी भक्ति हमारे भीतर आ गयी है , बस उतनी ही भक्ति है । तो जब वे ऊँची भक्ति की बात सुनने लगते हैं तो उनकी समझ में नहीं आती है ।
नामजप करना – यह भगवान् की भक्ति है । उनकी पूजा करना भक्ति है । सत्संग करना भक्ति है । ध्यान करना भक्ति है । भगवान् की प्राप्तिके लिए व्याकुल होना – यह भी भक्ति है । और , उनके भरोसे पर छोड़देना कि जब तुमको मौज हो तब मिलना – यह भी भक्ति है । व्याकुलता भी भक्ति है और शरणागति भी भक्ति है । एक रूप में भगवान् को देखना भी भक्ति है और सबके अन्दर उसी रूप को देखना भी भक्ति है । और , सबको परमात्मा का स्वरूप समझना भी भक्ति है ।
तो इस प्रकार से यह मत समझ लेंगे – मेरे नारायण ! कि हम जितना कर रहे हैं , बस उतनी ही भक्ति है । भक्ति को छोटी मत बनाईये । अभी आप जो नहीं करते हैं , सो भी भक्ति है । जितना आप जानते हो उतना ही भगवान् नहीं है । जितना नहीं जानते हो सो भी भगवान् है । अतः भगवान् और भक्ति का अपनी मति अर्थात् बुद्धि के घेरे में लाकर उसको ” मत ” बनाना ।
नारायण ! सबकी मति में जितनी भक्ति और भगवान् है , वे भी ठीक है ; इसलिए कहीं राग – द्वेष न करके अपने साधनों के रूप में जो वस्तु प्राप्त है , अपनी निष्ठा में दृढ़ रहकर चलते जाना चाहिए । उससे आगे की बात से इन्कार नहीं करना चाहिए कि इसके आगे कुछ है ही नहीं ।
यही भक्ति का सिद्धान्त है कि भक्ति प्रतिक्षण वर्द्धमान है । यह मत कभी कहें कि इतना ही है । और भगवान् ? इससे भी परे है । बाँधो मत – बाबा ! बाँधो मत !! जितना – जितना आपके हृदय का विकास होता जाय , जितनी – जितनी आँख खुलती जाय , जितनी – जितनी समझ आती जाय , उतना – उतना स्वीकार करते चलो । तब आप देखेंगे कि हम आगे बढ़ते जा रहे हैं ।

                                              नारायण स्मृतिः

मानसिक तनाव
(नकारात्मक विचारों की अधिकता )

👉तनाव एक ऐसी बीमारी है जिससे इंसान के मन मस्तिष्क और शरीर तीनों को हानि पहुंचती है कई बार इस की अति होने पर इंसान अपने आपको या दूसरों को भी क्षति पहुंचा देता है डर व नफरत भरे विचारों के लगातार मस्तिष्क में चलने से इन विचारों की संख्या बढ़ती चली जाती है मस्तिष्क पर लगातार दबाव पड़ने से मस्तिष्क की सेल क्षतिग्रस्त होने लगती है

संपूर्ण शरीर के नाड़ी तंत्रिका तंत्र का कंट्रोल स्टेशन मस्तिष्क में होने से यह केंद्र अव्यस्थित होने लगते है जिससे इंसान तनाव की अवस्था को प्राप्त करता है यह बीमारी न होकर बीमारी के लक्षण है यदि बीमारी को दूर करना है ताे उसे अपने विचारों को कम करना होगा जो इंसान के लिए काफी कठिन काम है बहुत सी बार इंसान इन विचारों पर काबू पा लेता है लेकिन कई बार ऐसा करना उसके लिए असंभव सा हो जाता है ध्यान से विचारों को कम किया जा सकता है एक हिप्नोथेरेपिस्ट ही इसे पूर्ण रूप से ठीक कर सकता है

👉केस स्टडी :- एक लड़की जिसकी शादी को अभी 10 महीने हुए थे पारवारिक परिस्थितियों के कारण वह इतनी डिप्रेशन में चली गई कि उसकी यादाश्त तक समाप्त हो गई वह अपनी मां के अतिरिक्त किसी को नहीं पहचान रही थी जब उसे मेरे पास लाया गया तो तीन चार लोग उसे पकड़ कर लेकर आए वह सही से ना हीं तो किसी बात को समझ रही थी और ना ही उनका जवाब दे रही थी लगभग वह मौन हो गई थी जैसे उसकी मानसिक क्रियाएं रुक गई हो वैसे तो वह मानसिकता की एक अवस्था आगे चली गई थी जिसमें रिकवरी करना कठिन होता है लेकिन फिर भी मेरे अथक प्रयास से वह पूर्ण रुप से स्वस्थ हो गई उसका परिवार बहुत खुश था जैसे हर सदस्य मुझे कोटि-कोटि धन्यवाद कर रहा हो
उन्हें खुश देखकर मुझे भी बहुत खुशी हुई इस तरह के 25 से 30 केस मैं ठीक कर चुका हूं

👉नाेट :- जब भी कभी ऐसे नकारात्मक विचार आए अपना पूरा ध्यान अपनी आती-जाती स्वास पर ले आए इससे कुछ ही देर में आपके सभी नकारात्मक शांत हो जाएंगे और आप तनाव मुक्त हो जाएंगे जब भी नकारात्मक विचार आए मन ही मन इस विचार को रिपीट करें

“मैं पूर्ण स्वस्थ खुश और आनंदमय हूं मैं अपने पूर्ण स्वस्थ खुशी और आनंदमय होने का उत्साह खुशी और खुली बांहों से स्वागत करता हूं”
इससे आपके नकारात्मक विचारों का आना रुक जाएगा और बार-बार रिपीट करने से इन पॉजिटिव विचारों का परिणाम आपको प्राप्त होने लगेगा
💐💐💐💐🙏 अनिंद्रा ( Sleep Disorder)

अनिंद्रा आज के समय में आम बीमारी होती जा रही है जीवन का सुख और चैन समाप्त होगा तो अनिंद्रा की बीमारी धर दबाेचेगी और आवश्यकता से अधिक पाने की इच्छा, जीवन के प्रति असंतोष तथा भौतिक सुख सुविधाओं के प्रति अंधी आस्था ने मनुष्य के जीवन में इतनी अधिक गतिशीलता उत्पन्न कर दी है कि किसी साधारण व्यक्ति को भी जीने के लिए नाना प्रकार के पापड़ प्रतिदिन बेलने पड़ते हैं
जब हमारा चेतन मन सो जाता है तो मस्तिष्क और शरीर दोनों निंद्रा अवस्था में चले जाते है अनिंद्रा कोई रोग नहीं है यह रोग का लक्षण है जब चेतन मस्तिष्क में कोई विचार सक्रिय रहता है तो नींद नहीं आती ।नींद के लिए मस्तिक में मौजूद निंद्रा केंद्र की सक्रियता आवश्यक है किंतु चेतन मन के सक्रिय रहने से निंद्रा केंद्र निस्प्रभावी हो जाते है लगातार अनिंद्रा की स्थिति बने रहने से मस्तिष्क व शरीर को आराम नहीं मिल पाता जिससे मन मस्तिष्क स्नायु मंडल व शरीर थक जाता है परिणाम स्वरूप संपूर्ण सरीर व मस्तिष्क क्रियाओं पर बुरा प्रभाव पड़ता है अनिंद्रा शरीर व मन की अनेक बीमारियों को जन्म देती है निंद्रा का प्रधान कारण मन मस्तिष्क मे विचारों की सक्रियता का बने रहना है इसके अतिरिक्त दोषपूर्ण आहार विहार, शारीरिक परिश्रम न करना, अप्राकृतिक रहन-सहन, असंतोष, आशंका, व्याकुलता, डर, किसी का इंतजार शारीरिक उद्यीपन व तनावपूर्ण जीवन आदि भी अनिंद्रा के प्रमुख कारण है अनिद्रा के कारण नशे की आदत धूम्रपान, कॉफी,चाय, शोर शराबा, शारीरिक कष्ट, क्रोध चिढ़चिढ़ापन तथा उच्च रक्तचाप की बीमारियां भी हो जाती है

नाेट:- शारीरिक एवम मानसिक कार्य अवश्य करें रात को सोने से पहले बोर करने वाले कार्य करें या किताबें पढ़ें हो सके तो “विचार ध्यान” करें इसके लिए मन में जो विचार चल रहे है उन में बहते चले जाइए अपनी तरह का कोई विचार ना चलाये जैसा विचार आ रहा है उसको ही देखते चले जाएं देखते चले जाए और देखते चले जाए ।

यदि ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है तो मन ही मन इस विचार को रिपीट करें

“मैं शांत सहज पूर्ण आनंदमय हूं”

यह प्रयोगिक विधि है 100% आपको लाभ प्राप्त होगा इस विचार को महसूस करते हुए जब तक नींद ना आए रिपीट करते रहे. 💐💐💐💐💐🙏
👏एक हिन्दू को इन👇 बातों की जानकारी , जबानी रखनी चाहिए :
“श्री मद्-भगवत गीता”के बारे में-

ॐ . किसको किसने सुनाई?
उ.- श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाई।

ॐ . कब सुनाई?
उ.- आज से लगभग 7 हज़ार साल पहले सुनाई।

ॐ. भगवान ने किस दिन गीता सुनाई?
उ.- रविवार के दिन।

ॐ. कोनसी तिथि को?
उ.- एकादशी

ॐ. कहा सुनाई?
उ.- कुरुक्षेत्र की रणभूमि में।

ॐ. कितनी देर में सुनाई?
उ.- लगभग 45 मिनट में

ॐ. क्यू सुनाई?
उ.- कर्त्तव्य से भटके हुए अर्जुन को कर्त्तव्य सिखाने के लिए और आने वाली पीढियों को धर्म-ज्ञान सिखाने के लिए।

ॐ. कितने अध्याय है?
उ.- कुल 18 अध्याय

ॐ. कितने श्लोक है?
उ.- 700 श्लोक

ॐ. गीता में क्या-क्या बताया गया है?
उ.- ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गो की विस्तृत व्याख्या की गयी है, इन मार्गो पर चलने से व्यक्ति निश्चित ही परमपद का अधिकारी बन जाता है।

ॐ. गीता को अर्जुन के अलावा
और किन किन लोगो ने सुना?
उ.- धृतराष्ट्र एवं संजय ने

ॐ. अर्जुन से पहले गीता का पावन ज्ञान किन्हें मिला था?
उ.- भगवान सूर्यदेव को

ॐ. गीता की गिनती किन धर्म-ग्रंथो में आती है?
उ.- उपनिषदों में

ॐ. गीता किस महाग्रंथ का भाग है….?
उ.- गीता महाभारत के एक अध्याय शांति-पर्व का एक हिस्सा है।

ॐ. गीता का दूसरा नाम क्या है?
उ.- गीतोपनिषद

ॐ. गीता का सार क्या है?
उ.- प्रभु श्रीकृष्ण की शरण लेना

ॐ. गीता में किसने कितने श्लोक कहे है?
उ.- श्रीकृष्ण जी ने- 574
अर्जुन ने- 85
धृतराष्ट्र ने- 1
संजय ने- 40.

अपनी युवा-पीढ़ी को गीता जी के बारे में जानकारी पहुचाने हेतु इसे ज्यादा से ज्यादा शेअर करे। धन्यवाद

अधूरा ज्ञान खतरनाक होता है।

33 करोड नहीँ 33 कोटी देवी देवता हैँ हिँदू
धर्म मेँ।

कोटि = प्रकार।
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है,

कोटि का मतलब प्रकार होता है और एक अर्थ करोड़ भी होता।

हिन्दू धर्म का दुष्प्रचार करने के लिए ये बात उडाई गयी की हिन्दुओ के 33 करोड़ देवी देवता हैं और अब तो मुर्ख हिन्दू खुद ही गाते फिरते हैं की हमारे 33 करोड़ देवी देवता हैं…

कुल 33 प्रकार के देवी देवता हैँ हिँदू धर्म मे :-

12 प्रकार हैँ
आदित्य , धाता, मित, आर्यमा,
शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवास्वान, पूष,
सविता, तवास्था, और विष्णु…!

8 प्रकार हे :-
वासु:, धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।

11 प्रकार है :-
रुद्र: ,हर,बहुरुप, त्रयँबक,
अपराजिता, बृषाकापि, शँभू, कपार्दी,
रेवात, मृगव्याध, शर्वा, और कपाली।

एवँ
दो प्रकार हैँ अश्विनी और कुमार।

कुल :- 12+8+11+2=33 कोटी

अगर कभी भगवान् के आगे हाथ जोड़ा है
तो इस जानकारी को अधिक से अधिक
लोगो तक पहुचाएं। ।

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
१ हिन्दु हाेने के नाते जानना ज़रूरी है

जय श्रीकृष्ण …🙏
अब आपकी बारी है कि इस जानकारी को आगे बढ़ाएँ तो आपको भी आनंद होगा…..⛳

आप से अनुरोध है कि कम से कम 5 लोगों को भेजने का कस्ट
करे
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
भगवान कृष्ण ने कहा था- ऐसा होगा कलियुग!!!!!!

सतयुग में शिव, त्रेता में राम, द्वापर में श्रीकृष्ण और कलिकाल में भगवान का नाम कीर्तन हिन्दू धर्म के केंद्र में हैं, लेकिन श्रीकृष्ण के धर्म को भूत, वर्तमान और भविष्य का धर्म बताया गया है। श्रीकृष्ण का जीवन ही हर तरह से शिक्षा देने वाला है। महाभारत और गीता विश्‍व की अनुपम कृति है।

महाभारत हिन्दुओं का ही नहीं, समस्त मानव जाति का ग्रंथ है। इससे प्रत्येक मानव को एक अच्छी शिक्षा और मार्ग मिल सकता है। प्रत्येक मनुष्‍य को इसे पढ़ना चाहिए। महाभारत में जीवन से जुड़ा ऐसा कोई सा भी विषय नहीं है जिसका वर्णन न किया गया हो और जिसमें जीवन का कोई समाधान न होगा। महाभारत में देश, धर्म, न्याय, राजनीति, समाज, योग, युद्ध, परिवार, ज्ञान, विज्ञान, अध्यात्म, तकनीकी आदि समस्य विषयों का वर्णन मिलेगा।

वर्तमान युग में महाभारत के एक प्रसंग से आज का मानव कुछ सीख ले सकता है। यह प्रसंग उस वक्त का है जबकि पांचों पांडवों को वनवास हो गया था। वनवास जाने से पूर्व पांडवों ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा- ‘हे श्रीकृष्ण! अभी यह द्वाप‍र का अंतकाल चल रहा है। आप हमें बताइए कि आने वाले कलियुग में कलिकाल की चाल या गति क्या होगी कैसी होगी?’ श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘तुम पांचों भाई वन में जाओ और जो कुछ भी दिखे वह आकर मुझे बताओ। मैं तुम्हें उसका प्रभाव बताऊंगा।’

पांचों भाई वन में चले गए। वन में उन्होंने जो देखा उसको देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए। आखिर उन्होंने वन में क्या देखा? और श्रीकृष्ण ने क्या जवाब दिया? जानिए अगले पन्नों पर एक रोचक प्रसंग…

युधिष्ठिर ने क्या देखा?

पांचों भाई जब वन में रहने लगे तो एक बार चारों भाई अलग-अलग दिशाओं में वन भ्रमण को निकले। युधिष्ठिर भ्रमण पर थे तो उन्होंने एक जगह पर देखा कि किसी हाथी की दो सूंड है। यह देखकर युधिष्ठिर के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।

अर्जुन ने क्या देखा?
अर्जुन दूसरी दिशा में भ्रमण पर थे। कुछ दूर जंगल में जाने पर उन्होंने जो देखा उसे देखकर वे आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने देखा कि कोई पक्षी है, उसके पंखों पर वेद की ऋचाएं लिखी हुई हैं, पर वह पक्षी मुर्दे का मांस खा रहा है।

भीम ने क्या देखा? :
दोनों भाइयों की तरह भीम भी भ्रमण पर थे। भीम ने जो देखा वह भी आश्चर्यजनक था। उन्होंने देखा कि गाय ने बछड़े को जन्म दिया है। जन्म के बाद वह बछड़े को इतना चाट रही है कि बछड़ा लहुलुहान हो गया।

सहदेव ने क्या देखा? : सहदेव जब भ्रमण पर थे तो उन्होंने चौथा आश्चर्य देखा कि 6-7 कुएं हैं और आसपास के कुओं में पानी है किंतु बीच का कुआं खाली है। बीच का कुआं गहरा है फिर भी पानी नहीं है। उन्हें यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि ऐसा कैसे हो सकता है?

नकुल ने क्या देखा? : नकुल भी भ्रमण पर थे और उन्होंने भी एक आश्चर्यजनक घटना देखी। नकुल ने देखा कि एक पहाड़ के ऊपर से एक बड़ी-सी शिला लुढ़कती हुई आती है और कितने ही वृक्षों से टकराकर उनको नीचे गिराते हुए आगे बढ़ जाती है। विशालकाय वृक्षों भी उसे रोक न सके। इसके अलावा वह शिला कितनी ही अन्य शिलाओं के साथ टकराई पर फिर भी वह रुकी नहीं। अंत में एक अत्यंत छोटे पौधे का स्पर्श होते ही वह स्थिर हो गई।

पांचों भाइयों ने अपने देखे गए दृश्य की चर्चा की और शाम को श्रीकृष्ण को अपने अनुभव सुनाए। सबसे पहले युधिष्ठिर ने कहा कि मैंने तो पहली बार दो सूंड वाला हाथी देखा। यह मेरे लिए बहुत ही आश्चर्यजनक था।

तब श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘हे धर्मराज! अब तुम कलिकाल की सुनो। कलियुग में ऐसे लोगों का राज्य होगा, जो दोनों ओर से शोषण करेंगे। बोलेंगे कुछ और करेंगे कुछ। मन में कुछ और कर्म में कुछ। ऐसे ही लोगों का राज्य होगा। इससे तुम पहले राज्य कर लो।’

युधिष्ठिर के बाद अर्जुन ने कहा कि मैंने जो देखा वह तो इससे भी कहीं ज्यादा आश्चर्यजनक था। मैंने देखा कि एक पक्षी के पंखों पर वेद की ऋचाएं लिखी हुई हैं और वह पक्षी मुर्दे का मांस खा रहा है।

तब श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘इसी प्रकार कलियुग में ऐसे लोग रहेंगे, जो बड़े ज्ञानी और ध्यानी कहलाएंगे। वे ज्ञान की चर्चा तो करेंगे, लेकिन उनके आचरण राक्षसी होंगे। बड़े पंडित और विद्वान कहलाएंगे किंतु वे यही देखते रहेंगे कि कौन-सा मनुष्य मरे और हमारे नाम से संपत्ति कर जाए।’

‘हे अर्जुन! ‘संस्था’ के व्यक्ति विचारेंगे कि कौन-सा मनुष्य मरे और संस्था हमारे नाम से हो जाए। हर जाति धर्म के प्रमुख पद पर बैठे विचार करेंगे कि कब किसका श्राद्ध हो। कौन, कब, किस पद से हटे और हम उस पर चढ़े। चाहे कितने भी बड़े लोग होंगे किंतु उनकी दृष्टि तो धन और पद के ऊपर (मांस के ऊपर) ही रहेगी। ऐसे लोगों की बहुतायत होगी, कोई कोई विरला ही संत पुरुष होगा।’

अर्जुन के सवाल के जवाब के बाद भीम ने अपना अनुभव सुनाया। भीम ने कहा कि मैंने देखा कि गाय अपने बछड़े को इतना चाटती है कि बछड़ा लहुलुहान हो जाता है।

तब श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘कलियुग का मनुष्य शिशुपाल हो जाएगा। कलियुग में बालकों के लिए ममता के कारण इतना करेगा कि उन्हें अपने विकास का अवसर ही नहीं मिलेगा। मोह-माया में ही घर बर्बाद हो जाएगा।

किसी का बेटा घर छोड़कर साधु बनेगा तो हजारों व्यक्ति दर्शन करेंगे, किंतु यदि अपना बेटा साधु बनता होगा तो रोएंगे कि मेरे बेटे का क्या होगा? इतनी सारी ममता होगी कि उसे मोह-माया और परिवार में ही बांधकर रखेंगे और उसका जीवन वहीं खत्म हो जाएगा। अंत में बेचारा अनाथ होकर मरेगा।

वास्तव में लड़के तुम्हारे नहीं हैं, वे तो बहुओं की अमानत हैं, लड़कियां जमाइयों की अमानत हैं और तुम्हारा यह शरीर मृत्यु की अमानत है। तुम्हारी आत्मा, परमात्मा की अमानत है। तुम अपने शाश्वत संबंध को जान लो बस।’

भीम के बाद सहदेव ने पूछा- ‘हे श्रीकृष्ण! मैंने जो देखा उसका क्या मतलब है? मैंने यह देखा कि 5-7 भरे कुओं के बीच का कुआं एकदम खाली है, जबकि ऐसा कैसे संभव हो सकता है?

तब श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘कलियुग में धनाढ्‍य लोग लड़के-लड़की के विवाह में, मकान के उत्सव में, छोटे-बड़े उत्सवों में तो लाखों रुपए खर्च कर देंगे, परंतु पड़ोस में ही यदि कोई भूखा-प्यासा होगा तो यह नहीं देखेंगे कि उसका पेट भरा है या नहीं। उनका अपना ही सगा भूख से मर जाएगा और वे देखते रहेंगे। दूसरी और मौज, मदिरा, मांस-भक्षण, सुंदरता और व्यसन में पैसे उड़ा देंगे किंतु किसी के दो आंसू पोंछने में उनकी रुचि न होगी।

कहने का तात्पर्य यह कि कलियुग में अन्न के भंडार होंगे लेकिन लोग भूख से मरेंगे। सामने महलों, बंगलों में एशोआराम चल रहे होंगे लेकिन पास की झोपड़ी में आदमी भूख से मर जाएगा। एक ही जगह पर असमानता अपने चरम पर होगी।’

सहदेव के बाद नकुल ने श्रीकृष्ण को बताया कि मैंने भी एक आश्चर्य देखा। वह यह कि एक बड़ी सी चट्टान पहाड़ पर से लुढ़की, वृक्षों के तने और चट्टानें उसे रोक न पाए किंतु एक छोटे से पौधे से टकराते ही वह चट्टान रुक गई।

तब श्रीकृष्ण ने कहा- ‘कलियुग में मानव का मन नीचे गिरेगा, उसका जीवन पतित होगा। यह पतित जीवन धन की शिलाओं से नहीं रुकेगा, न ही सत्ता के वृक्षों से रुकेगा। किंतु हरि नाम के एक छोटे से पौधे से, हरि कीर्तन के एक छोटे से पौधे से मनुष्य जीवन का पतन होना रुक जाएगा। श्रीमन नारायण, नारायण हरि हरि।
[मनुष्य के कर्मों का साक्षी…

मृत्युलोक में प्राणी अकेला ही पैदा होता है, अकेले ही मरता है। प्राणी का धन-वैभव घर में ही छूट जाता है। मित्र और स्वजन श्मशान में छूट जाते हैं। शरीर को अग्नि ले लेती है। पाप-पुण्य ही उस जीव के साथ जाते हैं। अकेले ही वह पाप-पुण्य का भोग करता है परन्तु धर्म ही उसका अनुसरण करता है।

‘शरीर और गुण (पुण्यकर्म) इन दोनों में बहुत अंतर है, क्योंकि शरीर तो थोड़े ही दिनों तक रहता है किन्तु गुण प्रलयकाल तक बने रहते हैं। जिसके गुण और धर्म जीवित हैं, वह वास्तव में जी रहा है।’

पाप और पुण्य

वेदों में जिन कर्मों का विधान है, वे धर्म (पुण्य) हैं और उनके विपरीत कर्म अधर्म (पाप) कहलाते हैं। मनुष्य एक दिन या एक क्षण में ऐसे पुण्य या पाप कर सकता है कि उसका भोग सहस्त्रों वर्षों में भी पूर्ण न हो।

मनुष्य के कर्म के चौदह साक्षी

सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियां, चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशाएं, जल, पृथ्वी, काल और धर्म–ये सब मनुष्य के कर्मों के साक्षी हैं।

सूर्य रात्रि में नहीं रहता और चन्द्रमा दिन में नहीं रहता, जलती हुई अग्नि भी हरसमय नहीं रहती; किन्तु रात-दिन और संध्या में से कोई एक तो हर समय रहता ही है। दिशाएं, आकाश, वायु, पृथ्वी, जल सदैव रहते हैं, मनुष्य इन्हें छोड़कर कहीं भाग नहीं सकता, इनसे छुप नहीं सकता। मनुष्य की इन्द्रियां, काल और धर्म भी सदैव उसके साथ रहते हैं। कोई भी कर्म किसी-न किसी इन्द्रिय द्वारा किसी-न-किसी समय (काल) होगा ही। उस कर्म का प्रभाव मनुष्य के ग्रह-नक्षत्रों व पंचमहाभूतों पर पड़ता है। जब मनुष्य कोई गलत कार्य करता है तो धर्मदेव उस गलत कर्म की सूचना देते हैं और उसका दण्ड मनुष्य को अवश्य मिलता है।

कर्म से ही देह मिलता है

पृथ्वी पर जो मनुष्य-देह है उसमें एक सीमा तक ही सुख या दु:ख भोगने की क्षमता है। जो पुण्य या पाप पृथ्वी पर किसी मनुष्य-देह के द्वारा भोगने संभव नही, उनका फल जीव स्वर्ग या नरक में भोगता है। पाप या पुण्य जब इतने रह जाते हैं कि उनका भोग पृथ्वी पर संभव हो, तब वह जीव पृथ्वी पर किसी देह में जन्म लेता है।

कर्मों के अवशेष भाग को भोगने के लिए मनुष्य मृत्युलोक में स्थावर-जंगम अर्थात् वृक्ष, गुल्म (झाड़ी), लता, बेल, पर्वत और तृण–आदि योनि प्राप्त करता है। ये सब दु:खों के भोग की योनियां हैं। वृक्षयोनि में दीर्घकाल तक सर्दी-गर्मी सहना, काटे जाने व अग्नि में जलाये जाने सम्बधी दु:ख भोगना पड़ता है। यदि जीव कीटयोनि प्राप्त करता है तो अपने से बलवान प्राणियों द्वारा दी गयी पीड़ा सहता है, शीत-वायु और भूख के क्लेश सहते हुए मल-मूत्र में विचरण करना आदि दारुण दु:ख उठाता है। इसी तरह से पशुयोनि में आने पर अपने से बलवान पशु द्वारा दी गयी पीड़ा का कष्ट पाता रहता है। पक्षी की योनि में आने पर कभी वायु पीकर रहना तो कभी अपवित्र वस्तुओं को खाने का कष्ट उठाना पड़ता है। यदि भार ढोने वाले पशुओं की योनि में जीव आता है तो रस्सी से बांधे जाने, डण्डों से पीटे जाने व हल जोतने का दारुण दु:ख जीव को सहना पड़ता है।

विभिन्न पापयोनियां

इस संसार-चक्र में मनुष्य घड़ी के पेण्डुलम की भांति विभिन्न पापयोनियों में जन्म लेता और मरता है–

–माता-पिता को कष्ट पहुंचाने वाले को कछुवे की योनि में जाना पड़ता है।

–मित्र का अपमान करने वाला गधे की योनि में जन्म लेता है।

–छल-कपट कर जीवनयापन करने वाला बंदर की योनि में जाता है।

–अपने पास रखी किसी की धरोहर को हड़पने वाला मनुष्य कीड़े की योनि में जन्म लेता है।

–विश्वासघात करने से मनुष्य को मछली की योनि मिलती है।

–विवाह, यज्ञ आदि शुभ कार्यों में विघ्न डालने वाले को कृमियोनि मिलती है।

–देवता, पितर व ब्राह्मणों को भोजन न कराकर स्वयं खा लेता है वह काकयोनि (कौए) में जाता है।

दुर्लभ है मनुष्ययोनि

इस प्रकार बहुत-सी योनियों में भ्रमण करके जीव किसी महान पुण्य के कारण मनुष्ययोनि प्राप्त करता है। मनुष्ययोनि प्राप्त करके भी यदि दरिद्र, रोगी, काना या अपाहिज जीवन मिले तो बहुत अपमान व कष्ट भोगना पड़ता है।

इसलिए दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर संसार-बंधन से मुक्त होने के लिए प्राणी को भगवान विष्णु की सेवा-आराधना करनी चाहिए क्योंकि वे ही कर्मफल के दाता व संसार-बंधन से छुड़ाने वाले मोक्षदाता हैं। भगवान विष्णु के जो-जो स्वरूप हैं, उनकी भक्ति करने से मनुष्य संसार-सागर आसानी से पार कर परमधाम को प्राप्त करता है।

भगवान विष्णु ने बताया संसार-सागर से पार होने का उपाय

भगवान विष्णु ने संसार-सागर से पार होने का उपाय भगवान रुद्र को बताते हुए कहा कि ‘विष्णुसहस्त्रनाम’ स्तोत्र से मेरी नित्य स्तुति करने से मनुष्य भवसागर को सहज ही पार कर लेता है।

‘जिनका मन भगवान विष्णु की भक्ति में अनुरक्त है, उनका अहोभाग्य है, अहोभाग्य है; क्योंकि योगियों के लिए भी दुर्लभ मुक्ति उन भक्तों के हाथ में ही रहती है।’ (नारदपुराण)

भक्तों की गति

भक्त अपने आराध्य के लोक में जाते हैं। भगवान के लोक में कुछ भी बनकर रहना सालोक्य-मुक्ति है। भगवान के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना सार्ष्टि-मुक्ति है। भगवान के समान रूप पाकर वहां रहना सारुप्य-मुक्ति है। भगवान के आभूषणादि बनकर रहना सामीप्य-मुक्ति कहलाती है। भगवान के श्रीविग्रह में मिल जाना सायुज्य-मुक्ति है।

जिस जीव को भगवान का धाम प्राप्त हो जाता है, वह भगवान की इच्छा से उनके साथ या अलग से संसार में दिव्य जन्म ले सकता है। वह कर्मबन्धन में नहीं बंधा होता है। संसार में भगवत्कार्य समाप्त करके वह पुन: भगवद्धाम चला जाता है।

मुक्त पुरुष

मनुष्य बिना कर्म किए रह नहीं सकता। कर्म करेगा तो पाप-पुण्य दोनों होंगे। लेकिन जो मनुष्य सबमें भगवत्दृष्टि रखकर भगवान की सेवा के लिए, उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए और भगवान की प्रसन्नता के लिए कर्म करता है तो उसके कर्म भी अकर्म बन जाते हैं और कर्म-बंधन में नहीं बांधते हैं। वह संसार में रहते हुए भी नित्यमुक्त है।

तत्त्वज्ञानी पुरुष संसार के आवागमन से मुक्त हो जाते हैं। उनके प्राण निकलकर कहीं जाते नहीं बल्कि परमात्मा में लीन हो जाते हैं। सती स्त्रियां, युद्ध में मारे गए वीर और उत्तरायण के शुक्ल-मार्ग से जाने वाले योगी मुक्त हो जाते हैं।

गीता में शुक्ल तथा कृष्ण मार्ग कहकर दो गतियों का वर्णन है–

जिनमें वासना शेष है, वे धुएं, रात्रि, कृष्णपक्ष, दक्षिणायन के देवताओं द्वारा ले जाए जाते हैं। ऊर्ध्वलोक में अपने पुण्य भोगकर वे फिर पृथ्वी पर जन्म लेते हैं।
जिनमें कोई वासना शेष नहीं है, वे अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के देवताओं द्वारा ले जाये जाते हैं। वे फिर पृथ्वी पर जन्म लेकर नहीं लौटते हैं।
पितृलोक

यह एक प्रकार का प्रतीक्षालोक है। एक जीव को पृथ्वी पर जिस माता-पिता से जन्म लेना है, जिस भाई-बहिन व पत्नी को पाना है, जिन लोगों के द्वारा उसे सुख-दु:ख मिलना है; वे सब लोग अलग-अलग कर्म करके स्वर्ग या नरक में हैं। जब तक वे सब भी इस जीव के अनुकूल योनि में जन्म लेने की स्थिति में न आ जाएं, इस जीव को प्रतीक्षा करनी पड़ती है। पितृलोक इसलिए एक प्रकार का प्रतीक्षालोक है।

प्रेतलोक

यह नियम है कि मनुष्य की अंतिम इच्छा या भावना के अनुसार ही उसे गति प्राप्त होती है। जब मनुष्य किसी प्रबल राग-द्वेष, लोभ या मोह के आकर्षण में फंसकर देह त्यागता है तो वह उस राग-द्वेष के बंधन में बंधा आस-पास ही भटकता रहता है। वह मृत पुरुष वायवीय देह पाकर बड़ी यातना भरी योनि प्राप्त करता है। इसीलिए कहा जाता है–‘अंत मति सो गति।’
🌸 श्रद्धा-विश्वास दोनों ही ज्ञान, सत्य,धर्म , निष्कामता का आधार हैं इस अद्भुत्-सत्य पर चिंतन करें!!! 🌸🙏🏻

श्रद्धा और विश्वास,इन दोनों शब्दों का प्रयोग बहुधा हम बड़ी उदारता से किया करते हैं और बड़ी ही सरलता से किसी को श्रद्धालु और विश्वासी होने का प्रमाण-पत्र दे देते हैं । इन तत्त्वों के वास्तविक अर्थ को समझ लेने के बाद सृष्टि में विरले ही ऐसे होंगे जिन्हें हम श्रद्धालु या विश्वासी कह सकें । आज वर्तमान समय में अधिकांश व्यक्ति श्रद्धा और विश्वास को एक लाभदायक ब्यापार समझ बैठे हैं।
श्रद्धा और विश्वास की सराहना करते हुए बहुधा लोगों के मुँह से निकलता है कि

“यदि सच्ची श्रद्धा और वास्तविक विश्वास तो कोई ऐसी कामना या सिद्धि नहीं है जो पूर्ण न हो सके।यह एक भ्रामक धारणा है, इसलिए ऐसी मान्यता वाले लोगों को अश्रद्धालु और अविश्वासी होते देर नहीं लगती। श्रद्धा का फल बताते हुए शास्त्रों में जिन वस्तुओं की प्राप्ति का उल्लेख किया गया है, उनके नाम हैं धर्म, सत्य और ज्ञान ।

( 1 ) श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई।
( 2 ) श्रद्धा सत्यमवाप्यते।
( 3 ) श्रद्धावांल्लभते ज्ञानम्।

जिस श्रद्धा का परिणाम सत्य, धर्म, और ज्ञान की उपलब्धि हो, उसको हम लोगों ने लौकिक कामनाओं की पूर्ति से जोड़कर उपहासास्पद बना डाला है।

वास्तविकता तो यही है कि सच्चे श्रद्धालु को यही ज्ञात होता है कि कामनाएँ ज्ञान, सत्य और धर्म
की प्राप्ति में बाधक हैं ।

इसी प्रकार जब हम यह कहते हैं कि विश्वास से कामनायें पूर्ण होती हैं, तब यह प्रश्न किया जा सकता है कि किस पर विश्वास करने से यह परिणाम प्राप्त होता है ?

वस्तुतः विश्वास का आधार भी ज्ञान ही होता है । पहले हम किसी वस्तु को जानते हैं और तब उस पर विश्वास करते हैं ।

“जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई।।

बिना जाने, या उसको मान लेना, विश्वास नहीं मूर्खता है । बहुत लोग विश्वास और मूर्खता को
पर्यायवाची मान लेते हैं ।

मानस में विश्वास के वास्तविक और अवास्तविक दोनों पक्षों के रूप प्रस्तुत किए गये हैं ।

प्रतापभानु और माया सीता इसके प्रत्यक्ष दृष्टांत हैं । दोनों में ही विश्वास का भयंकर परिणाम हुआ ।

प्रतापभानु-प्रसंग में उद्देश्य और व्यक्ति, दोनों के चुनाव में भूल हुई । उद्देश्य का तात्पर्य यह कि हम विश्वास के द्वारा क्या पाना चाहते हैं ?

मानस में तो विश्वास का फल भगवद्भक्ति ही बताया गया है ।

“बिनु विस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न राम।रामकृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह विश्राम।।”

इस मंत्रपंक्ति ( दोहा ) को समझना होगा । सड़कों पर मार्ग हेतु मील के पत्थर बने रहते हैं और उनमें मुख्य स्थानों का नाम होता है और दूसरे दो नगरों के नाम लिखे होते हैं । यात्रा करते हुए माप-सूचक अंक क्रमशः कम होते रहते हैं और जब व्यक्ति मध्य में किसी मुख्य स्थान पर पहुँचता है तो उसे अत्यधिक प्रसन्नता होती है ।

जीवन-पथ पर चलने वाले यात्री का मुख्य लक्ष्य होता है-राम कृपा नगर और उस मार्ग में चलते हुए जो दो मुख्य नगर और भी मिलते हैं उनका नाम है भक्ति और विश्वास । पहले आता है विश्वास नगर और फिर भक्ति-नगर, अन्त में कृपा-नगर । जैसे जब व्यक्ति अपने नगर-स्थित घर में पहुँच जाता है तब वह आनंद से विश्राम करता है, ठीक इसी तथ्य को उपरोक्त्त दोहे में बताया गया है ।

कामना-नगर में तो ब्यक्ति बैठा ही हुआ है, वहाँ से आगे बढ़ने पर ही ब्यक्ति विश्वास नगर की ओर बढ़ता है और यदि किसी को विश्वास के बाद कामना दिखाई दे, तो उसे यह समझना चाहिए कि या तो वह जहाँ का तहाँ है या चल रहा है तो उसकी यात्रा उल्टी दिशा में चल रही है।

प्रतापभानु समझता था कि मैं विश्वस्त गुरु के आश्रम में हूँ और जब प्रातःकाल नींद खुली तो उसने देखा कि मैं अपने महल में ही हूँ और इसने उसे बड़ा चमत्कार ही समझ लिया । यदि वह बुद्धिमान होता तो समझ लेता कि जहाँ वह पहले था, यदि
विश्वास करने के बाद लौटकर वहीं आ गया, तो यह यात्रा है या मूर्खता ?

पर लोभ-ग्रस्त बुद्धि के कारण विश्वास का जो लक्ष्य उसने निर्धारित किया था, वह सर्वथा उलटा था । अतः यदि वह कृपा-नगर में जाकर विश्राम करने के स्थान पर अशान्ति-नगर में पहुँच गया तो यह उसके अविवेक का ही परिणाम था।

माया सीता के प्रसंग में ( यद्यपि यह लोक शिक्षण के लिए जान-बूझकर किया गया था ) भी अनुपयुक्त व्यक्ति पर विश्वास किया गया था । साधु-वेष-धारी रावण को वे पहले से नहीं जानती थीं, पर उसकी वाणी पर विश्वास करते हुए उन्होंने लक्ष्मण की खींची गयी रेखा को लाँघने में भी संकोच नहीं किया।

रेखा खींचने वाले लक्ष्मण सच्चे साधु हैं । श्री सीता को कम से कम चौदह वर्ष तक उनके चरित्र को, उनकी भावना को समझने का अवसर प्राप्त हो चुका है । एक जाने-परखे संत को छोड़कर
एक अनजाने अपरिचित पर केवल एक साधु-वेष देखकर विश्वास कर लेना, किसी भी प्रकार युक्ति-संगत नहीं था, फिर भी यह किया गया और उसका दुष्परिणाम भी भोगना पड़ा । अतः विश्वास में ज्ञान की अपेक्षा नहीं है, यह समझना विश्वास का सही अर्थ न जानने का ही परिणाम है।

एक सज्जन ने कहा कि तब उसे विश्वास न कहकर यदि ज्ञान कहें तो इसमें क्या अनौचित्य होगा।इसका उत्तर यही होगा कि दोनों अत्यंत निकट होते हुए भी सर्वथा एक नहीं हैं ।

यदि हमें एक स्वर्ण का हार खरीदना हो तो सबसे पहले हम विश्वस्त ब्यापारी का पता लगायेंगे और उसके यहाँ जाकर परख पूर्वक हार लेकर उसे उपयोग में लायेंगे । अब इसके बाद उसको नित्य कसौटी पर कसकर देखने की आवश्यकता नहीं है । परखने की स्थिति को हम ज्ञान कह सकते हैं और धारण करने की स्थिति को विश्वास।

इसलिये एक बार ठगे जाने के पश्चात् श्रीसीताजी ने सही पद्धति से विश्वास का वरण किया।

श्री हनुमान जी अशोक वृक्ष पर बैठे हुए रामकथा का गुणगान करते हैं और उसके बाद माँ की आज्ञा पाकर उनके सम्मुख खड़े हो जाते हैं, अब श्री हनुमान जी अपना परिचय कैसे देते हैं ।

रामदूत मैं मातु जानकी ।

यहाँ पर माता जानकी जी ने गहन चिंतन कैसे किया उन्होंने हनुमान जी द्वारा सम्बोधित शब्द रामदूत और मातु ( माता ) शब्द पर तनिक भी विश्वास नही किया । तब पुनः हनुमान जी ने अपना प्रभु राम जी के प्रति दृढ़ विश्वास दिखाया तब कैसे अपना परिचय दिया ।

सत्य शपथ करुनानिधान की ।।

अब भी हनुमान जी के द्वारा शपथ लेने पर भी माता जानकी जी का विश्वास टस से मस नहिँ हुआ लेकिन करुनानिधान शब्द का जैसे ही माता जानकी जी ने श्रवण किया तो माँ ने तत्काल विश्वास नहीं कर लिया अपितु पहले जिज्ञासा प्रकट की ।

“नर बानरहिं संग कहु कैसें।
कही कथा भइ संगति जैसें।।

और उसके बाद अंतःकरण की प्रीति को परखकर, तब उन्होंने हनुमान जी पर विश्वास किया ।

“कपि के वचन सप्रेम सुनि उपजा मन विश्वास।
जाना मन क्रम वचन यह कृपासिंधु कर दास।।”

वस्तुतः विश्वास का आधार ज्ञान ही होता है । कई बार लोग कहते हैं कि पत्थर को भगवान मानकर विश्वास कर लो तो वह भी फलदायक हो जायेगा । सत्य तो यह है कि विश्वास के कारण पत्थर में भगवान नहीं आ सकते।वस्तुतः वे पत्थर में हैं, जो इसे जानता है, वह विश्वास के द्वारा उनको प्रकट कर लेता है ।

भक्त प्रह्लाद ने यदि पत्थर से भगवान को प्रकट कर दिया तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि उनकी भावना से पत्थर में भगवान आ गये । प्रह्लाद को यह ज्ञात था कि इस पत्थर में ही नहीं, समस्त ब्रह्मांड के कण-कण में भगवान हैं और यही ज्ञान उसके विश्वास का आधार है ।

इसीलिये उनका विश्वास सिद्ध हुआ और पत्थर से नृसिंह भगवान प्रकट हो गये ।

पूर्ण ईश्वर का विवेक भी पूर्ण है।कामना के औचित्य और अनौचित्य और उसके पूरा करने या न करने का निर्णय भी उसी पर छोड़ना होगा । अतः यह कहना कैसे सम्भव हो सकता है कि विश्वास करने से कामना पूर्ण होती है।
🌹ओ३म् 🌹
प्रत्येक व्यक्ति सुबह से लेकर रात तक कर्म करता है। कुछ अच्छे कर्म करता है , कुछ बुरे कर्म भी करता है । सब लोग एक जैसे नहीं होते। सबका स्तर अलग-अलग होता है । कोई अच्छे कर्म अधिक करता है , कोई बुरे कर्म अधिक करता है ।
क्यों करता है? क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति चेतन है। कर्म करना उसका स्वभाव है । वह खाली नहीं बैठ सकता ।
तो कोई अच्छे कर्म क्यों करता है ? और कोई बुरे कर्म क्यों करता है? इसका पहला कारण उसके पूर्व जन्मों के संस्कार हैं। दूसरा कारण उसकी शिक्षा, अर्थात माता पिता गुरुजन पड़ोसी मित्र प्रैस मीडिया आदि से उसको जो कुछ सीखने को मिलता है , उसके आधार पर वह अपने कर्म करता है । और तीसरा कारण उसकी अपनी बुद्धिमत्ता और वर्तमान का पुरुषार्थ भी है । इन कारणों से कोई व्यक्ति अच्छे या बुरे कर्म करता है ।
यदि ये सब कारण अच्छे होंगे , तो वह अच्छे कर्म करेगा । यदि ये सब कारण बुरे होंगे तो बुरे कर्म करेगा । परंतु व्यक्ति गहराई से सोचता नहीं , कि जो कर्म मैं कर रहा हूं , मुझे इसका फल भी भोगना पड़ेगा।
यदि व्यक्ति अच्छे कर्म अधिक करे, तो ठीक है। अच्छा फल मिलेगा । मनुष्य जन्म मिलेगा। सुख अधिक मिलेगा।
और यदि बुरे कर्म अधिक करेगा , तो उसे अन्य योनियों में जाना होगा । सांप बिच्छू हाथी बंदर घोड़ा कुत्ता गधा मक्खी मच्छर कॉकरोच मछली वृक्ष वनस्पति इत्यादि योनियों में अपने पाप कर्मों का दंड भोगना पड़ेगा। इस दंड को व्यक्ति समझ नहीं रहा, इसलिए भी वह पाप करता है ।
तो ईश्वर ने आपको बुद्धि दी है, उसका उपयोग करें । गंभीरता से विचार करें । किसी भी कर्म का फल माफ नहीं होगा. अच्छे कर्म का अच्छा फल मिलेगा, और बुरे कर्म का बुरा फल भी अवश्य ही मिलेगा। इसलिए फल को सदा ध्यान में रखें , फिर काम करें । आप बुराई से बचेंगे, अच्छे काम करेंगे और सदा सुखी रहेंगे –
🌸 कर्म का फल, कर्म का परिणाम तथा कर्म का प्रभाव क्या है? 🌸🙏🏻

  • सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईसु देइ फलु हृदयँ बिचारी॥
    करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई॥

भावार्थ:-शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर हृदय में विचारकर फल देता है, जो कर्म करता है, वही फल पाता है। ऐसी वेद की नीति है, यह सब कोई कहते हैं॥

प्राय: सामान्य व्यक्ति सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण कर्म का फल ही मान लेते हैं, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि मनुष्य को कर्म के फल के रूप में तो सुख-दु:ख आदि मिलते ही हैं।

किन्तु कर्म के परिणाम व प्रभाव के रूप में भी सुख-दु:ख की प्राप्ति होती है, अपने कर्म के परिणाम व प्रभाव से भी दूसरे द्वारा किये जाने वाले कर्म के परिणाम व प्रभाव से भी सुख-दु:ख की प्राप्ति होती है, इन तीनों की परिभाषा क्या है? पहला कर्म का फल- कर्म पूरा हो जाने पर, कर्म के अनुरूप, अच्छे या बुरे कर्म के कर्त्ता को।

जो न्यायपूर्वक, न कम न अधिक, र्इश्वर, राजा, गुरू, माता-पिता, स्वामी आदि के द्वारा सुख-दु:ख, या सुख-दु:ख को प्राप्त करने के साधन प्रदान करना कर्म का फल कहलाता है, उदाहरण समझें, किसी घी विक्रेता ने वनस्पति घी में पशु की चर्बी मिलाकर विक्रय किया, पकड़े जाने पर कानून के तहत 10 वर्ष की कठोर सजा दी गर्इ, तथा 10 लाख रूपयों का दण्ड किया गया, यह कर्म का फल है, यह हो गया पहला परिणाम

दूसरा कर्म का परिणाम- क्रिया करने के तत्काल पश्चात की जो प्रतिक्रिया है, उसे ‘कर्म का परिणाम कहते हैं, जिस व्यक्ति या वस्तु से सम्बन्धित क्रिया की होती है, कर्म का परिणाम उसी व्यक्ति या वस्तु पर होता है, उदाहरण के लिये– चर्बी मिश्रित नकली घी के विकृत हो जाने पर खाने वाले सैकड़ों-हजारों व्यक्ति रोगी हो गये, अन्धे हो गये यह है घी के विक्रेता के मिलावट का परिणाम।

जिन्होंने घी खाया वे तो रोगी हुये, अन्य जिन्होंने नहीं खाया वे स्वस्थ ही रहे, इसी तरह एक और उदाहरण से समझते हैं, जैसे चालक द्वारा शराब पीकर बस चलाने से दुर्घटना हुर्इ, इसके होने पर पाँच व्यक्ति मारे गये, दस घायल हो गये, बीस को चोटें आर्इ।
यह सब कर्म का परिणाम है।

उन सबको दु:ख की अनुभूति हुयीं उनके अनेक कार्य और योजनाएँ असफल हुयीं, चिकित्सा आदि में बहुत समय और धन लगा, यह सब कर्मों का परिणाम है, चालक को शराब पीकर बस चलाने और उसे दुर्घटनाग्रस्त कर देने रूप कर्म का फल तो शासक या र्इश्वर बाद में देगा।

तिसरा कर्म का प्रभाव हैं- किसी क्रिया, उसके परिणाम या फल को जानकर अपने पर या दूसरों पर जो मानसिक सुख-दु:ख, भय, चिन्ता, शोक आदि असर होता है, उसे कर्म का प्रभाव कहते हैं, जब तक सम्बंधित व्यक्ति को क्रियादि का ज्ञान नहीं होगा तब तक उस पर कोर्इ प्रभाव नहीं होगा, उदाहरण के लिये वही वनस्पति घी में पशु की चर्बी मिलाकर गाय का घी बनाकर बेचने वाला व्यापारी जब पकड़ा जाता है तो उसके घर वाले सगे संबंधी मित्रादि दु:खी होते हैं, तथा उसके शत्रु, धार्मिक सज्जन सुखी होते हैं।

बाजार में मिलने वाले गाय के घी पर आम जनता का संशय अविश्वास हो जाता है, यह भी प्रभाव है, कर्म के परिणाम, प्रभाव और फल को एक ही दृष्टांत में निम्न प्रकार से समझ सकते हैं, उदाहरण के तोर पर एक बालक को बार-बार मना करने पर भी चाकू से खेल रहा था, और खेलते-खेलते चाकू से बालक से अंगुली कट गयी, अंगुली कटने पर खून निकला, खून को देखकर पास में बैठा बालक रोने लगा।

रोना सुनकर थोड़ी दूर खड़ी बालक की माता आयी और चाकू से खेल रहे बालक की अंगुली कटी देखी, यह देख कर माता ने बालक को दो थप्पड़ लगाये, यहाँ दृष्टांत में बालक की अंगुली का कटना कर्म का परिणाम है, क्योंकि यह क्रिया के तत्काल बाद हुर्इ प्रतिक्रिया है, पास में बैंठे छोटे बालक का रोना कर्म का प्रभाव है, क्योंकि, यह अंगुली कटने व अंगुली से खून का निकलने का असर है।

माता द्वारा बालक को थप्पड़ लगाना कर्म का फल है, क्योंकि, क्रिया के अनुरूप आज्ञा भंग करने का कर्त्ता यानी बालक को थप्पड़ लगाना दण्ड दिया जाना कर्म का परिणाम है, कर्म का परिणाम प्राय: तुरन्त होता है, पर प्रभाव व फल में समय लगता है, कर्इ बार अधिक और कर्इ बार बहुत अधिक समय भी लगता है।

जय महादेव!
ओऊम् नमः शिवाय्
🌸 भारत के दस आध्यात्मिक रहस्य!!!!! 🌸🙏🏻

ऋषि-मुनियों और अवतारों की भूमि ‘भारत’ एक रहस्यमय देश है। यदि धर्म कहीं है तो सिर्फ यहीं है। यदि संत कहीं हैं तो सिर्फ यहीं हैं। माना कि आजकल धर्म, अधर्म की राह पर चल पड़ा है। माना कि अब नकली संतों की भरमार है फिर भी यहां की भूमि ही धर्म और संत है।

.हम आपको बताएंगे भारत या भारतीय धर्म से जुड़े ऐसे 10 आध्यात्मिक रहस्यों के बारे में जिन्हें जानकर आप रह जाएंगे हैरान। हालांकि इन्हें आस्था या अंधविश्वास से जुड़ा मामला भी माना जाता है।

पहला आध्यात्मिक रहस्य सूक्ष्म आत्माओं का स्थान हिमालय : – मुण्डकोपनिषद् के अनुसार सूक्ष्म-शरीरधारी आत्माओं का एक संघ है। इनका केंद्र हिमालय की वादियों में उत्तराखंड में स्थित है। इसे देवात्मा हिमालय कहा जाता है। इन दुर्गम क्षेत्रों में स्थूल-शरीरधारी व्यक्ति सामान्यतया नहीं पहुंच पाते हैं। अपने श्रेष्ठ कर्मों के अनुसार सूक्ष्म-शरीरधारी आत्माएं यहां प्रवेश कर जाती हैं। जब भी पृथ्वी पर संकट आता है, नेक और श्रेष्ठ व्यक्तियों की सहायता करने के लिए वे पृथ्वी पर भी आती हैं।

भौगोलिक दृष्टि से उसे उत्तराखंड से लेकर कैलाश पर्वत तक बिखरा हुआ माना जा सकता है। इसका प्रमाण यह है कि देवताओं, यक्षों, गंधर्वों, सिद्ध पुरुषों का निवास इसी क्षेत्र में पाया जाता रहा है। इतिहास, पुराणों के अवलोकन से प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र को देवभूमि कहा और स्वर्गवत माना जाता रहा है। आध्यात्मिक शोधों के लिए, साधनाओं, सूक्ष्म शरीरों को विशिष्ट स्थिति में बनाए रखने के लिए वह विशेष रूप से उपयुक्त है।

दूसरा आध्यात्मिक रहस्य शरीर में किसी दिव्य आत्मा का आना : – इसे भारत में हाजिरी आना या पारगमन की आत्मा का आना कहते हैं। ग्रामिण क्षेत्रों में डील में आना। किसी व्यक्ति विशेष के शरीर में नाग महाराज, भेरू महाराज या काली माता के आने के किस्से सुनते रहते हैं। भारत में ऐसे कई स्थान या चौकी हैं, जहां आह्वान द्वारा किसी व्यक्ति विशेष के शरीर में दिव्य आत्मा का अवतरण होता है और फिर वह अपने स्थान विशेष या गद्दी पर बैठकर हिलते हुए लोगों को उनका भूत और भविष्य बताता है और कुछ हिदायत भी देता है।

हालांकि इन लोगों में अधिकतर तो नकली ही सिद्ध होते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं, जो किसी भी व्यक्ति का भूत और भविष्य बताकर उसकी समस्या का समाधान करने की क्षमता रखते हैं। ऐसे लोग किसी भी व्यक्ति का जीवन बदलने की क्षमता रखते हैं। ऐसे कुछ लोगों के स्थान पर मेला भी लगता है। जहां वे किसी मंदिर में बैठकर किसी चमत्कार की तरह लोगों के दुख-दर्द दूर करते हैं।

प्रेत बाधा : हालांकि यह भी देखा गया है कि कुछ बुरी आत्माएं भी लोगों को परेशान करने के लिए उनके शरीर पर कब्जा कर लेती हैं। विदेशों (अमेरिका या योरप में) में अधिकतर लोगों को बुरी आत्माएं परेशान करती हैं जिससे छुटकारा पाने के लिए वे चर्च के चक्कर लगाते रहते हैं जबकि भारत में किसी दरगाह, समाधि मंदिर, किसी जानकार, तांत्रिक, बाबा या संत के पास जाते हैं। कुछ लोग ऐसे लोगों के पास जाते हैं जिनके शरीर में पहले से ही किसी समय विशेष में कोई दिव्य आत्मा आई हुई होती है।

हालांकि आजकल आत्मा को बुलाने के कई तरीके विकसित हो चले हैं, जैसे हिप्नोटिज्म, प्लेनचिट और ओइजा बोर्ड, जेलंगकुंग आदि ऐसे कई तरीके विकसित हो चले हैं जिसके माध्यम से किसी दिव्य आत्मा के संपर्क से सवालों के जवाब और समाधान पाए जाते हैं। हालांकि यह भी कहना होगा कि उक्त सभी तरह का बातों का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं होता इसलिए इसे मानना एक अंधविश्‍वास ही कहा जाता रहा है।

तीसरा आध्यात्मिक रहस्य ,चमत्कारिक संत और उनकी समाधि : – शंकराचार्य, गुरु मत्स्येंद्र नाथ, गुरु गोरखनाथ, गोगादेव जाहर वीर, झूलेलाल, वीर तेजाजी महाराज, संत नामदेव, संत ज्ञानेश्‍वर, संत कबीर, रामसा पीर, गुरुनानक, रविदास, संत धन्ना, संत तुकाराम, एकनाथ, समर्थ रामदास और चरणदास।

इसके अलावा दादा धूनी वाले, शेगांव वाले बाबा, नीम करौली बाबा, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, परमहंस योगानंद, देवहारा बाबा, लाहिरी महाराज, स्वामी विवेकानंद, स्वामी शिवानंद, ओशो रजनीश, मेहर बाबा, महर्षि अरविंद, जे. कृष्णमूर्ति, पं. श्रीराम शर्मा ‘आचार्य’ आदि हजारों ऐसे संत और महापुरुष हुए हैं जिनके कारण भारत की विश्व में एक आध्यात्मिक पहचान बनी।

माना जाता है कि उक्त संतों या दिव्य पुरुषों की समाधि पर जाकर उनके दर्शन करने से जीवन के सभी तरह के संकटों का हल नजर जाने लगता है। उपरोक्त जो नाम दिए गए हैं, उन्होंने बगैर किसी भेदभाव के मनुष्य मात्र के लिए कार्य किया।

चौथा आध्यात्मिक रहस्य योग, तप और ध्यान : – योग का जन्म भारत में ही हुआ। वेदों में योग और ध्यान के महत्व और रहस्य का उल्लेख मिलता है। भगवान बुद्ध और पतंजलि ने योग और ध्यान को एक व्यवस्थित रूप दिया। इसे आप आष्टांगिक मार्ग कहें या आष्टांग योग।

सिद्धियां प्राप्त करने या मोक्ष प्राप्ति करने की ये 8 सीढ़ियां हैं जिन पर चढ़कर चेतना के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा जा सकता है। आष्टांग योग के बाहर धर्म और अध्यात्म की कल्पना नहीं की जा सकती। योग से जहां शरीर सेहतमंद बना रहता है वहीं मन-मस्तिष्क भी तरोताजा और शांतिमय बना रहता है।

पांचवां आध्यात्मिक रहस्य,अध्यात्म के लिए उचित वातावरण और स्थान : – भारत में ध्यान, योग और अध्यात्म विद्या सीखने के लिए अन्य देशों की अपेक्षा उचित वातावरण है। यहां एक ओर जहां हिमालय है, तो वहीं दूसरे छोर पर समुद्र। एक ओर जहां रेगिस्तान है, तो दूसरे छोर पर घने जंगल और ऊंचे-ऊंचे पहाड़।

इसके अलावा कई प्राचीन आश्रम, गुफाएं और पहाड़ हैं, जहां जाकर तपस्या की जा सकती है या ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। अध्यात्म की इसी तलाश के लिए हजारों विदेशी यहां आकर भारत के वातावरण से मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।

भारत में बहुत सारी प्राचीन गुफाएं हैं, जैसे बाघ की गुफाएं, अजंता-एलोरा की गुफाएं, एलीफेंटा की गुफाएं और भीमबेटका की गुफाएं। अखंड भारत की बात करें तो अफगानिस्तान के बामियान की गुफाओं को भी इसमें शामिल किया जा सकता है। भीमबेटका में 750 गुफाएं हैं जिनमें 500 गुफाओं में शैलचित्र बने हैं। यहां की सबसे प्राचीन चित्रकारी को कुछ इतिहासकार 35,000 वर्ष पुरानी मानते हैं, तो कुछ 12,000 साल पुरानी।

मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में स्थित पुरा-पाषाणिक भीमबेटका की गुफाएं भोपाल से 46 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। ये विंध्य पर्वतमालाओं से घिरी हुई हैं। भीमबेटका मध्यभारत के पठार के दक्षिणी किनारे पर स्थित विंध्याचल की पहाड़ियों के निचले हिस्से पर स्थित है। पूर्व पाषाणकाल से मध्य पाषाणकाल तक यह स्थान मानव गतिविधियों का केंद्र रहा।

छठा आध्यात्मिक रहस्य,सूर्य विद्या से भूख और प्यास पर कंट्रोल : – आज भी भारत की धरती पर ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने कई वर्षों से भोजन नहीं किया, लेकिन वे सूर्य योग के बल पर आज भी स्वस्थ और जिंदा हैं। भूख और प्यास से मुक्त सिर्फ सूर्य के प्रकाश के बल पर वे जिंदा हैं।

प्राचीनकाल में ऐसे कई सूर्य साधक थे, जो सूर्य उपासना के बल पर भूख-प्यास से मुक्त ही नहीं रहते थे बल्कि सूर्य की शक्ति से इतनी ऊर्जा हासिल कर लेते थे कि वे किसी भी प्रकार का चमत्कार कर सकते थे। उनमें से ही एक सुग्रीव के भाई बालि का नाम भी लिया जाता है। बालि में ऐसी शक्ति थी कि वह जिससे भी लड़ता था तो उसकी आधी शक्ति छीन लेता था।

वर्तमान युग में प्रहलाद जानी इस बात का पुख्ता उदाहरण हैं कि बगैर खाए-पीए व्यक्ति जिंदगी गुजार सकता है। गुजरात में मेहसाणा जिले के प्रहलाद जानी एक ऐसा चमत्कार बन गए हैं जिसने विज्ञान को चौतरफा चक्कर में डाल दिया है। वैज्ञानिक समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर ऐसा कैसे संभव हो रहा है?

सातवां आध्यात्मिक रहस्य रहस्यमय पुस्तकें : – दुनिया की प्रथम पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है ऋग्वेद को। भारत में अध्यात्म और रहस्यमयी ज्ञान की खोज ऋग्वेद काल से ही हो रही है जिसके चलते यहां ऐसे संत, दार्शनिक और लेखक हुए हैं जिनके लिखे हुए का तोड़ दुनिया में और कहीं नहीं मिलेगा। उन्होंने जो लिख दिया वह अमर हो गया। उनकी ही लिखी हुई बातों को 2री और 12वीं शताब्दी के बीच अरब, यूनान, रोम और चीन ले जाया गया, रूपांतरण किया गया और फिर उसे दुनिया के सामने नए सिरे से प्रस्तुत कर दिया गया।

वेद, उपनिषद, महाभारत, रामायण, मनु स्मृति और पुराणों के अलावा उपनिषद की कथाएं, पंचतंत्र, बेताल या वेताल पच्चीसी, जातक कथाएं, सिंहासन बत्तीसी, हितोपदेश, कथासरित्सागर, तेनालीराम की कहानियां, शुकसप्तति, कामसूत्र, कामशास्त्र, रावण संहिता, भृगु संहिता, लाल किताब, संस्कृत सुभाषित, सामुद्रिक विज्ञान, पंच पक्षी विज्ञान, अंगूठा विज्ञान, हस्तरेखा ज्योतिष, प्रश्न कुंडली विज्ञान, नंदी नड़ी ज्योतिष विज्ञान, सम्मोहन विज्ञान, विमान शास्त्र, योग सूत्र, परमाणु शास्त्र, शुल्ब सूत्र, श्रौतसूत्र, अगस्त्य संहिता, सिद्धांतशिरोमणि, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, च्यवन संहिता, शरीर शास्त्र, गर्भशास्त्र, रक्ताभिसरण शास्त्र, औषधि शास्त्र, रस रत्नाकर, रसेन्द्र मंगल, कक्षपुटतंत्र, आरोग्य मंजरी, योग सार, योगाष्टक, अष्टाध्यायी, त्रिपिटक, जिन सूत्र, समयसार, लीलावती, करण कुतूहल आदि लाखों ऐसी किताबें हैं जिनके दम पर आज विज्ञान, तकनीक आदि सभी क्षेत्रों में प्रगति हो रही है।

आठवां आध्यात्मिक रहस्य,रहस्यमयी पत्थर : – एक बार ओशो ने जानकारी दी थी कि 1937 में तिब्‍बत और चीन के बीच बोकाना पर्वत की एक गुफा में 716 पत्‍थर के रिकॉर्डर मिले हैं। जी हां, पत्‍थर के! आकार में वे रिकॉर्ड हैं। महावीर से 10,000 साल पुराने यानी आज से कोई 13,500 हजार साल पुराने।

ये रिकॉर्डर बड़े आश्‍चर्य के हैं, क्‍योंकि ये रिकॉर्डर ठीक वैसे ही हैं, जैसे ग्रामोफोन का रिकॉर्ड होता है। ठीक उसके बीच में एक छेद है और पत्‍थर पर ग्रूव्‍ज है, जैसे कि ग्रामोफोन के रिकॉर्ड पर होते हैं। अब तक यह राज नहीं खोला जा सका है कि वे किस यंत्र पर बजाए जाते रहे होंगे या बजाए जा सकेंगे।

लेकिन एक बात तो हो गई है- रूस के एक बड़े वैज्ञानिक डॉ. सर्जीएव ने वर्षों तक मेहनत करके यह प्रमाणित कर दिया है कि वे हैं तो रिकॉर्ड ही, पर किस यंत्र पर और किस सुई के माध्‍यम से वे पुनर्जीवित हो सकेंगे, यह अभी तय नहीं हो सका। अगर एकाध पत्‍थर का टुकड़ा होता तो सांयोगिक भी हो सकता है। 716 हैं।

सब एक जैसे, जिनमें बीच में छेद हैं। सब पर ग्रूव्‍ज है और उनकी पूरी तरह सफाई धूल-ध्वांस जब अलग कर दी गई और जब विद्युत यंत्रों से उनकी परीक्षा की गई, तब बड़ी हैरानी हुई। उनसे प्रति पल विद्युत की किरणें विकिरणित हो रही हैं। लेकिन क्‍या आदमी के पास आज से 12,000 साल पहले ऐसी कोई व्‍यवस्‍था थी कि वह पत्‍थरों में कुछ रिकॉर्ड कर सके? तब तो हमें सारा इतिहास और ढंग से लिखना होगा।

नौवां आध्यात्मिक रहस्य,प्राचीन विद्याएं : – प्राचीन काल से ही भारत में ऐसी कई विद्याएं प्रचलन में रही जिसे आधुनिक युग में अंध विश्वास या काला जादू मानकर खारिज कर दिया गया लेकिन अब उन्हीं विद्याओं पर जब पश्‍चिमी वैज्ञानिकों ने शोध किया तो उनको नया नाम मिला। जैसे प्राचीन त्राटक या सम्मोहन विद्या को आधुनिक युग में हिप्नोटिज्म और मेस्मेरिज्म कहा जाता है।

दूर संवेदन या परस्पर भाव बोध को आजकल टैलिपैथी कहा जाता है। कलारिपट्टू को मार्शल आर्ट कहा जाता है। प्राण विद्या के हम आज कई चमत्का‍र देखते हैं जैसे किसी ने अपने शरीर पर ट्रक चला लिया। किसी ने अपनी भुजाओं के बल पर प्लेन को उड़ने से रोक दिया। कोई जल के अंदर बगैर सांस लिए घंटों बंद रहा। किसी ने खुद को एक सप्ताह तक भूमि के दबाकर रखा। इसी प्राण विद्या के बल पर किसी को सात ताले में बंद कर दिया गया, लेकिन वह कुछ सेकंड में ही उनसे मुक्त होकर बाहर निकल आया। कोई किसी का भूत, भविष्य आदि बताने में सक्षम है तो कोई किसी की नजर बांध कर जेब से नोट गायब कर देता है।

इसके अलावा ऐसे हैरतअंगेज कारमाने जो सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता उसे करके लोगों का मनोरंजन करना यह सभी भारतीय प्राचीन विद्या को साधने से ही संभव हो पाता है। आज भी वास्तु और ज्योतिष का ज्ञान रखने वाले ऐसे लोग मौजूद है जो आपको हैरत में डाल सकते हैं।

वैदिक गणित, भारतीय संगीत, ज्योतिष, वास्तु, सामुद्रिक शास्त्र, हस्तरेखा, सम्मोहन, टैलीपैथी, काला जादू, तंत्र, सिद्ध मंत्र और टोटके, पानी बताना, गंभीर रोग ठीक कर देने जैसे चमत्कारिक प्रयोग आदि ऐसी हजारों विद्याएं आज भी प्रचलित है जिन्हें वैज्ञानिक रूप में समझने का प्रयास किया जा रहा है।

योग की सिद्धियां : कहते हैं कि नियमित यम‍-नियम और योग के अनुशासन से जहां उड़ने की शक्ति प्राप्त ‍की जा सकती है वहीं दूसरों के मन की बातें भी जानी जा सकती है। परा और अपरा सिद्धियों के बल पर आज भी ऐसे कई लोग हैं जिनको देखकर हम अचरज करते हैं।

सिद्धि का अर्थ : सिद्धि शब्द का सामान्य अर्थ है सफलता। सिद्धि अर्थात किसी कार्य विशेष में पारंगत होना। समान्यतया सिद्धि शब्द का अर्थ चमत्कार या रहस्य समझा जाता है, लेकिन योगानुसार सिद्धि का अर्थ इंद्रियों की पुष्टता और व्यापकता होती है। अर्थात, देखने, सुनने और समझने की क्षमता का विकास।

परा और अपरा सिद्धियां : सिद्धियां दो प्रकार की होती हैं, एक परा और दूसरी अपरा। विषय संबंधी सब प्रकार की उत्तम, मध्यम और अधम सिद्धियां ‘अपरा सिद्धि’ कहलाती है। यह मुमुक्षुओं के लिए है। इसके अलावा जो स्व-स्वरूप के अनुभव की उपयोगी सिद्धियां हैं वे योगिराज के लिए उपादेय ‘परा सिद्धियां’ हैं।

दसवां आध्यात्मिक रहस्य,पुनर्जन्म : – पुनर्जन्म या पूर्वजन्म के बारे में विस्तार से जानकारी भारतीय धर्म में ही मिलती है। आध्यात्मिक रहस्य का यह सबसे बड़ा पहलू है। यहूदी, ईसाईयत, इस्लाम जो पुनर्जन्‍म के सिद्धांत को नहीं मानते। उक्त तीनों धर्मों के समानांतर- हिंदू, जैन और बौद्ध यह तीनों धर्म मानते हैं कि पुनर्जन्म एक सच्चाई है।

हिंदू धर्म पुनर्जन्म में विश्वास रखता है। इसका अर्थ है कि आत्मा जन्म एवं मृत्यु के निरंतर पुनरावर्तन की शिक्षात्मक प्रक्रिया से गुजरती हुई अपने पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है। उसकी यह भी मान्यता है कि प्रत्येक आत्मा मोक्ष प्राप्त करती है, जैसा गीता में कहा गया है।

आधुनिक युग में पुनर्जन्म पर अमेरिका की वर्जीनिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक डॉ. इयान स्टीवेंसन ने 40 साल तक इस विषय पर शोध करने के बाद एक किताब ‘रिइंकार्नेशन एंड बायोलॉजी’ लीखी थी जिसे सबसे महत्वपूर्ण शोध पुस्तक माना गया है।
[: उधार धर्म; नगद धर्म

‘सदबुद्धि को जगाओ और मन को तृष्णा-शून्य करो; तथा उसी से संतुष्ट और प्रसन्न रहो जो अपने श्रम से मिलता है।’

यह सभी धनों के संबंध में सच है। बाहर के धन में भी, जो अपने श्रम से मिल जाए, जो उससे तृप्त हो गया, उसके जीवन में नैतिकता होगी; और भीतर के जगत में भी, भीतर का जो धन अपने श्रम से मिले, उसके चित्त में धार्मिकता होगी। तुम शास्त्र को जब कंठस्थ कर लेते हो तो तुम चोरी कर रहे हो। वह जो शास्त्र में छिपा ज्ञान है, वह तुमने श्रम से नहीं पाया है; वह तुम सिर्फ चुरा रहे हो। वह उधार है, बासा है। तुम किसी दूसरे की बात पकड़ लिए हो। उस पर अपने भवन को मत बनाना, वह रेत पर खड़ा किया हुआ भवन है। हवा का एक छोटा सा झोंका उसे गिरा देगा।

अभी कुछ दिन पहले, मैं एक झेन कहानी कह रहा था। एक झेन आश्रम के द्वार पर एक संध्या एक भिक्षु ने दस्तक दी। जापान में झेन आश्रमों का यह नियम है कि अगर कोई भिक्षु, यात्री-भिक्षु, विश्राम करना चाहे, तो उसे कम से कम एक प्रश्न का उत्तर देना चाहिए। जब तक वह एक प्रश्न का ठीक उत्तर न दे दे, तब तक वह अर्जित नहीं करता विश्राम के लिए। वह आश्रम में रुक नहीं सकता, उसे आगे जाना पड़ेगा। आश्रम का प्रमुख द्वार पर आया, द्वार खोला और उसने झेन फकीरों की एक बहुत पुरानी पहेली इस अतिथि के सामने रखी। पहेली है कि तुम्हारा असली चेहरा क्या है? मूल चेहरा कौन सा है? वैसा मूल चेहरा, जो तुम्हारे मां और बाप के पैदा होने के पहले भी तुम्हारा ही था।

यह आत्मा के संबंध में एक प्रश्न है; क्योंकि मां और बाप से जो मिला, वह शरीर है; शरीर का चेहरा भी उनसे मिला। तुम्हारी ओरिजिनल, मौलिक मुखाकृति क्या है? तुम्हारा स्वभाव क्या है? और झेन फकीर कहते हैं, इसका उत्तर शब्दों से नहीं दिया जा सकता; इसका उत्तर तो जीवंत अभिव्यक्ति होनी चाहिए।

जैसे ही यह सवाल पूछा गया, उस अतिथि फकीर ने अपने पैर से जूता निकाला और पूछने वाले के चेहरे पर जूता मारा। पूछने वाला पीछे हट गया, झुक कर उसने सलाम की, नमस्कार किया, और कहा: स्वागत है; भीतर आओ।

दोनों ने भोजन किया, फिर जलती हुई अंगीठी के पास बैठ कर दोनों रात बात करने लगे। मेजबान ने मेहमान से कहा, तुम्हारा उत्तर अदभुत था।

मेहमान ने पूछा, तुम्हें स्वयं इस उत्तर का अनुभव है?

मेजबान ने कहा, नहीं, मुझे तो अनुभव नहीं है, लेकिन बहुत मैंने शास्त्र पढ़े हैं। और शास्त्रों से यह पाया है कि ठीक उत्तर देने वाला डगमगाता नहीं, झिझकता नहीं। तुम बिना झिझके उत्तर दिए। और तुम्हारे उत्तर में बात छिपी थी। शास्त्रों के आधार से मैं जानता हूं, मैं पहचान गया कि तुम्हें उत्तर मिल गया है। क्योंकि तुमने जो उत्तर दिया, वह उत्तर यह था कि नासमझ, शब्द में प्रश्न पूछता है, निःशब्द में उत्तर चाहता है! नासमझ, मूल चेहरे की बात पूछता है, और मूल चेहरा तो तेरे पास भी है! इसलिए मैं जूते मार कर तेरे चेहरे को उत्तर दे रहा हूं कि यह चेहरा मूल नहीं है, जूता मारने योग्य है।

मेजबान ने कहा कि मैं समझ गया तेरा उत्तर, शास्त्र मैंने पढ़े हैं और उसमें ऐसे उत्तर लिखे हैं।

मेहमान कुछ बोला न, चुपचाप चाय की चुस्की लेता रहा। तब जरा मेजबान को शक हुआ, उसने गौर से इसके चेहरे को देखा, इसके चेहरे में उसे कुछ प्रतीत हुआ जो बड़ा असंतोषदायी था। उसने फिर से पूछा कि मित्र, मैं एक बार फिर पूछता हूं, तुझे भी वस्तुतः उत्तर मिल चुका है या नहीं?

मेहमान ने कहा, मैंने भी बहुत शास्त्र पढ़े हैं। और जहां से तुमने मुझे पहचाना कि उत्तर मिल गया, वहीं से मैंने यह उत्तर पढ़ा है; उत्तर तो मुझे भी नहीं मिला है।

शास्त्र भयंकर धोखा हो सकता है, क्योंकि शास्त्र में उत्तर लिखे हैं। लेकिन शास्त्र के उत्तर को दोहराना वैसे ही है, जैसे गणित की किताब के पीछे उत्तर दिए होते हैं। तुम गणित पढ़ो, उलटा कर किताब के पीछे उत्तर देख लो। तो उत्तर तो तुम सही दे दोगे, लेकिन उस प्रश्न से उत्तर तक पहुंचने का जो मार्ग है, जो विधि है, वह तुम्हारे पास न होगी। उत्तर कितना ही सही हो, तुम गलत ही रहोगे; क्योंकि तुम तो विधि से गुजरते, तभी निखरते।

उत्तर दूसरे का काम नहीं आ सकता; उत्तर अपना ही चाहिए। और परमात्मा तुम्हारी शास्त्रीय परीक्षा न लेगा–अस्तित्वगत परीक्षा है। क्या तुमने सुना, क्या तुमने पढ़ा, यह न पूछेगा–क्या तुमने जीया? अगर तुम्हारे जीवन में ही तुम्हें उत्तर मिला हो, तो तुम्हारे श्रम से मिला है।

तो चाहे धन बाहर का हो; अगर बाहर के धन को तुम श्रम से कमाओ, तो तुम्हारे जीवन में नैतिकता होगी; और अगर भीतर के धन को तुम श्रम से कमाओ, तो तुम्हारे जीवन में धार्मिकता होगी–प्रामाणिक धर्म होगा। इसी को स्वामी राम ने नगद धर्म कहा है। उधार धर्म; नगद धर्म।

उधार धर्म ऐसा है: उत्तर तो सब सही, लेकिन नपुंसक, कोरे, खाली; चली हुई कारतूस जैसे। उसको बंदूक में रख कर चलाने की कोशिश मत करना, हंसी होगी जगत में। वह चली हुई कारतूस है।

लेकिन अधिकतर लोग यही कर रहे हैं–दूसरों के उत्तर दोहरा रहे हैं। यंत्रवत दोहराए चले जा रहे हैं। अपना प्रश्न भी उन्होंने अब तक नहीं खोजा है, अपना उत्तर तो बहुत दूर। अभी उन्हें यह भी पता नहीं है कि हमारे अस्तित्व का प्रश्न क्या है जिसकी हम खोज कर रहे हैं। हम क्या जानना चाहते हैं, इसका भी अभी ठीक-ठीक पता नहीं है।

‘हे मूढ़, धन बटोरने की तृष्णा छोड़, सदबुद्धि को जगा। उसी से संतुष्ट और प्रसन्न रह जो श्रम से मिलता है। हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो।’

!! भज गोविंदम मूढ़मते !!
[: ध्यान जीवन का सबसे बड़ा आनंद

ध्यान चेतना की विशुद्ध अवस्था है- जहां कोई विचार नहीं होते, कोई विषय नहीं होता। साधारणतया हमारी चेतना विचारों से, विषयों से, कामनाओं से आच्छादित रहती है। जैसे कि कोई दर्पण धूल से ढका हो। हमारा मन एक सतत प्रवाह है- विचार चल रहे हैं, कामनाएं चल रही हैं, पुरानी स्मृतियां सरक रही हैं- रात-दिन एक अनवरत सिलसिला है। नींद में भी हमारा मन चलता रहता है, स्वप्न चलते रहते हैं। यह अ-ध्यान की अवस्था है। ठीक इससे उल्टी अवस्था ध्यान की है। जब कोई विचार नहीं चलते और कोई कामनाएं सिर नहीं उठातीं- वह परिपूर्ण मौन ध्यान है। उसी परिपूर्ण मौन में सत्य का साक्षात्कार होता है। जब मन नहीं होता, तब जो होता है, वह ध्यान है।

इसलिए मन के माध्यम से कभी ध्यान तक नहीं पहुंचा जा सकता। ध्यान इस बात का बोध है कि मैं मन नहीं हूं। जैसे-जैसे हमारा बोध गहरा होता है, कुछ झलकें मिलनी शुरू होती हैं – मौन की, शांति की- जब सब थम जाता है और मन में कुछ भी चलता नहीं। उन मौन, शांत क्षणों में ही हमें स्वयं की सत्ता की अनुभूति होती है। धीरे-धीरे एक दिन आता है, एक बड़े सौभाग्य का दिन आता है, जब ध्यान हमारी सहज अवस्था हो जाती है।

मन असहज अवस्था है। यह हमारी सहज-स्वाभाविक अवस्था कभी नहीं बन सकता। ध्यान हमारी सहज अवस्था है, लेकिन हमने उसे खो दिया है। हम उस स्वर्ग से बाहर आ गये हैं। लेकिन यह स्वर्ग पुन: पाया जा सकता है। किसी बच्चे की आंख में झांके और वहां आपको अद्भुत मौन दिखेगा, अद्भुत निर्दोषता दिखेगी। हर बच्चा ध्यान के लिए ही पैदा होता है- लेकिन उसे समाज के रंग-ढंग सीखने ही होंगे। उसे विचार करना, तर्क करना, हिसाब-किताब, सब सीखना होगा। उसे शब्द, भाषा, व्याकरण सीखना होगा। और धीरे-धीरे वह अपनी निर्दोषिता, सरलता से दूर हटता जाएगा। उसकी कोरी स्लेट समाज की लिखावट से गंदी होती जाएगी। वह समाज के ढांचे में एक कुशल यंत्र हो जाएगा- एक जीवंत, सहज मनुष्य नहीं।

बस उस निर्दोष सहजता को पुन: उपलब्ध करने की जरूरत है। उसे हमने पहले जाना है, इसलिए जब हमें ध्यान की पहली झलक मिलती है, तो एक बड़ा आश्चर्य होता है कि इसे तो हम जानते हैं! और यह प्रत्यभिज्ञा बिलकुल सही है- हमने इसे पहले जाना है। लेकिन हम भूल गये हैं। हीरा कूड़े-कचरे में दब गया है। लेकिन हम जरा खोदें तो हीरा पुन: हाथ आ सकता है- वह हमारा स्वभाव है। उसे हम खो नहीं सकते, उसे हम केवल भूल सकते हैं।

हम ध्यान में ही पैदा होते हैं। फिर हम मन के रंग-ढंग सीख लेते हैं। लेकिन हमारा वास्तविक स्वभाव अंतर्धारा की तरह भीतर गहरे में बना ही रहता है। किसी भी दिन, थोड़ी सी खुदाई और हम पाएंगे कि वह धारा अभी भी बह रही है, जीवन-स्रोत के झरने ताजा जल अभी भी ला रहें हैं। और उसे पा लेना जीवन का सबसे बड़ा आनंद है।
[जैसा हम संघर्ष करते हैं, वैसे ही हो जाते हैं…

पहली बात, जिन्दगी पर ध्यान चाहिए। मेडीटेशन आन लाइफ, मौत पर नहीं। तो आदमी जवान से जवान होता चला जाता है। बुढ़ापे के अंतिम क्षण तक मौत द्वार पर भी खड़ी हो तो वैसा आदमी जवान होता है।

दूसरी बात, जो आदमी जीवन में सुंदर को देखता है, जो आदमी जवान है; वह आदमी असुंदर को मिटाने के लिए लड़ता भी है। जवानी फिर देखती नहीं, जवानी लड़ती भी है।

जवानी स्पेक्टेटर नहीं, जवानी तमाशबीन है कि तमाशा देख रहे हैं खड़े होकर।

जवानी का मतलब है जीना, तमाशगीरी नहीं।

जवानी का मतलब है सृजन।

जवानी का मतलब है सम्मिलित होना, पार्टिसिपेशन।

जिस आदमी को सौंन्दर्य से प्रेम है, जिस आदमी को जीवन का आल्हाद है, वह जीवन को बनाने के लिए श्रम करता है, सुन्दर बनाने के लिए श्रम करता है। वह जीवन की कुरूपता से लड़ता है, वह जीवन को कुरूप करने वालों के खिलाफ विद्रोह करता है। कितनी कुरूपता है समाज में और जिन्दगी में?

सौंदर्य से प्रेम का मतलब है? सौंदर्य को पैदा करो, क्रियेट, करो; जिन्दगी को सुंदर बनाओ। आनंद की उपलब्धि और आनंद की आकांक्षा और अनुभूति को बिखराओ। फूलों को चाहते हो तो फूलों को पैदा करने की चेष्टा में संलग्र हो जाओ। जैसा तुम चाहते हो जिन्दगी को वैसी बनाओ। जवानी मांग करती है कि तुम कुछ करो, खड़े होकर देखते मत रहो।

हिन्दुस्तान की जवानी तमाशबीन है। हम ऐसे रहते हैं खड़े होकर जीवन में, जैसे कोई जुलूस जा रहा है। वैसे रुके हैं, देख रहे हैं; कुछ भी हो रहा है! शोषण हो रहा है, जवान खड़ा हुआ देख रहा है! बेवकूफियां हो रही हैं, जवान खड़ा देख रहा है! बुद्धिहीन लोग देश को नेतृत्व दे रहे हैं, जवान खड़ा देख रहा है। जड़ता धर्मगुरु बनकर बैठी है, जवान खड़ा हुआ देख रहा है! सारे मुल्क के हितों को नष्ट किये जा रहे हैं, जवान खड़ा हुआ देख रहा है! यह कैसी जवानी है?

कुरूपता से लड़ना पड़ेगा, असौंदर्य से लड़ना पड़ेगा, शोषण से लड़ना पड़ेगा, जिन्दगी को विकृत करने वाले तत्वों से लड़ना पड़ेगा। जो आदमी जवान होता है, वह सागर की लहरों और तूफानों में जीता है, फिर आकाश में उसकी उड़ान होनी शुरू होती है। लेकिन लड़ोगे तुम? व्यक्तिगत लड़ाई ही नहीं हैं यह, सामूहिक लड़ाई की बात है। कोई फाइट नहीं! और बिना फाइट के, बिना लड़ाई के, जवानी निखरती नहीं। जवानी सदा लड़ाई के बिना निखरती नहीं। जवानी सदा लड़ती है और निखरती है, जितनी लड़ती है, उतनी निखरती है। सुंदर के लिए, सत्य के लिए जवानी जितनी लड़ती है, उतनी निखरती है। लेकिन क्या लड़ोगे?

तुम्हारे पिता आ जायेंगे, तुम्हारी गर्दन में रस्सी डालकर कहेंगे, इस लड़की से विवाह करो और तुम घोड़े पर बैठ जाओगे! तुम जवान हो? और तुम्हारे बाप जाकर कहेंगे कि दस हजार रुपये लेंगे इस लड़की के पिता से और तुम मजे से मन में गिनती करोगे कि दस हजार में स्कूटर खरीदें कि क्या करें? तुम जवान हो? ऐसी जवानी दो कौड़ी की जवानी है।

जिस लड़की को तुमने कभी चाहा नहीं, जिस लड़की को तुमने कभी प्रेम नहीं किया, जिस लड़की को तुमने कभी छुआ नहीं, उस लड़की से विवाह करने के लिए तुम पैसे के लिए राजी हो रहे हो? समाज की व्यवस्था के लिए राजी हो रहे हो? तो तुम जवान नहीं हो। तुम्हारी जिन्दगी में कभी भी वे फूल नहीं खिलेंगे, जो युवा मस्तिष्क छूता है। तुम हो ही नहीं; तुम एक मिट्टी के लौदें हो, जिसको कहीं भी सरकाया जा रहा हो, कहीं पर भी लिया जा रहा हो। कुछ भी नहीं तुम्हारे मन में, न संदेह है,न जिज्ञासा है, न संघर्ष है, न पूछ है, न इन्‍क्वायरी है कि यह क्या हो रहा है! कुछ भी हो रहा है, हम देख रहे हैं खड़े होकर! नहीं, ऐसे जवानी नहीं पैदा होती है।

इसलिए दूसरा सूत्र तुमसे कहता हूं और वह यह कि जवानी संघर्ष से पैदा होती है। संघर्ष गलत के लिए भी हो सकता है और तब जवानी कुरूप हो जाती है। संघर्ष बुरे के लिए भी हो सकता है, तब जवानी विकृत हो जाती है। संघर्ष अधूरे की लिए भी हो सकता है, तब जवानी आत्मघात कर लेती है।
लेकिन संघर्ष जब सत्य के लिए, सुन्दर के लिए, श्रेष्ठ के लिए होता है, संघर्ष जब परमात्मा के लिए होता है, संघर्ष जब जीवन के लिए होता है; तब जवानी सुन्दर, स्वस्थ, सत्य होती चली जाती है। हम जिसके लिए लड़ते हैं, अंततः वही हम हो जाते हैं।

लड़ो सुन्दर के लिए और तुम सुन्दर हो जाओगे। लड़ो सत्य के लिए और तुम सत्य हो जाओगे। लड़ो श्रेष्ठ के लिए तुम श्रेष्ठ हो जाओगे। और मरो—सड़ो तुम—खड़े—खड़े सडोगे और मर जाओगे और कुछ भी नहीं होओगे।
जिंदगी संघर्ष है और संघर्ष से ही पैदा होती है। जैसा हम संघर्ष करते हैं, वैसे ही हो जाते हैं।

हिन्दुस्तान में कोई लड़ाई नहीं है, कोई फाइट नहीं है! सब कुछ हो रहा है, अजीब हो रहा है। हम सब हैं, देखते हैं, सब हो रहा है और होने दे रहे हैं! अगर हिन्दुस्तान की जवानी खड़ी हो जाय, तो हिन्दुस्तान में फिर ये सब नासमझियां नहीं हो सकती हैं, जो हो रही हैं। एक आवाज में टूट जायेंगी। क्योंकि जवान नहीं है, ‘ कुछ भी हो रहा है। मैं यह दूसरी बात कहता हूं। लड़ाई के मौके खोजना सत्य के लिए, ईमानदारी के लिए……..🙏

ओशो

🍁 संभोग से समाधि कि ओर – (ग्‍याहरवां प्रवचन), युवक कौन 🍁
: हमारे वेदों के अनुसार स्वस्थ रहने के १५ नियम

१- खाना खाने के १.३० घंटे बाद पानी पीना है 

२- पानी घूँट घूँट करके पीना है जिस से अपनी मुँह की लार पानी के साथ मिलकर पेट में जा सके , पेट में acid बनता है और मुँह में छार ,दोनो पेट में बराबर मिल जाए तो कोई रोग पास नहीं आएगा 

३- पानी कभी भी ठंडा ( फ़्रीज़ का  )नहीं पीना  है। 

४- सुबह उठते ही बिना क़ुल्ला किए २ ग्लास पानी पीना है ,रात भर जो अपने मुँह में लार है वो अमूल्य है उसको पेट में ही जाना ही  चाहिए । 

५- खाना ,जितने आपके मुँह में दाँत है उतनी बार ही चबाना  है । 

६ -खाना ज़मीन में पलोथी मुद्रा या उखड़ूँ बैठकर ही भोजन करे । 

७ -खाने के मेन्यू में एक दूसरे के विरोधी भोजन एक साथ ना करे जैसे दूध के साथ दही , प्याज़ के साथ दूध , दही के साथ उड़द दल 

८ -समुद्री नमक की जगह सेंध्या नमक या काला नमक खाना चाहिए

 ९-रीफ़ाइन तेल , डालडा ज़हर है इसकी जगह अपने इलाक़े के अनुसार सरसों , तिल , मूँगफली , नारियल का तेल उपयोग में लाए । सोयाबीन के कोई भी प्रोडक्ट खाने में ना ले इसके प्रोडक्ट को केवल सुअर पचा सकते है , आदमी में इसके पचाने के एंज़िम नहीं बनते है ।

१०- दोपहर के भोजन के बाद कम से कम ३० मिनट आराम करना चाहिए और शाम के भोजन बाद ५०० क़दम पैदल चलना चाहिए 

११- घर में चीनी (शुगर )का उपयोग नहीं होना चाहिए क्योंकि चीनी को सफ़ेद करने में १७ तरह के ज़हर ( केमिकल )मिलाने पड़ते है इसकी जगह गुड़ का उपयोग करना चाहिए और आजकल गुड बनाने में कॉस्टिक सोडा ( ज़हर ) मिलाकर गुड को सफ़ेद किया जाता है इसलिए सफ़ेद गुड ना खाए । प्राकृतिक गुड ही खाये । और प्राकृतिक गुड चोकलेट कलर का होता है। ।

१२ - सोते समय आपका सिर पूर्व या दक्षिण की तरफ़ होना चाहिए  ।    

१३- घर में कोई भी अलूमिनियम के बर्तन , कुकर नहीं होना चाहिए । हमारे बर्तन मिट्टी , पीतल लोहा , काँसा के होने चाहिए 

१४ -दोपहर का भोजन ११ बजे तक अवम शाम का भोजन सूर्यास्त तक हो जाना चाहिए   

१५ सुबह भोर के समय तक आपको देशी गाय के दूध से बनी छाछ (सेंध्या नमक और ज़ीरा बिना भुना हुआ मिलाकर  ) पीना चाहिए ।     यदि आपने ये नियम अपने जीवन में लागू कर लिए तो आपको डॉक्टर के पास जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी और देश के ८ लाख करोड़ की बचत होगी । यदि आप बीमार है तो ये नियमों का पालन करने से आपके शरीर के सभी रोग ( BP , शुगर ) अगले ३ माह से लेकर १२ माह में ख़त्म हो जाएँगे।📚🖊🙏🙌

~~~~~~
यज्ञ यागादि में हिंसा की कल्पना करने वाले और कुछ भी हों विद्वान नहीं
——————————

इतिहास साक्षी है कि जब-जब राष्ट्र परायण लोकहित में समर्पित शूरवीरों, भावनाशीलों के मन में राष्ट्र को संगठित समर्थ बनाने की ललक जगी- अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किए जाते रहे।
पृथु, अम्बरीष, नहुष, दिलीप, रघु आदि शासकों वशिष्ठ-याज्ञवल्क्य, देवल आदि श्रोत्रियों द्वारा अश्वमेध सम्पन्न करने के विवरण इतिहास पुराणों में मिलते हैं।
रावण के आतंक को समाप्त करने वाले भगवान राम द्वारा अश्वमेध रचाने के वर्णन से वाल्मीकीय रामायण के उत्तर काण्ड के 91 और 92 सर्ग में हैं।
युधिष्ठिर-जनमेजय आदि के अश्वमेध पराक्रम का विवरण महाभारत में देखा जा सकता है। इन सभी प्रयासों में ‘राष्ट्रं वा अश्वमेधः। वीर्यवा अश्वः (शतपथ ब्राह्मण 13/1/6 अर्थात्-पराक्रम ही अश्व है, राष्ट्र को संगठित-समर्थ बनाना ही अश्वमेध है। उक्ति चरितार्थ होती दिखती है।

महाभारत काल के बाद अश्वमेध की प्रक्रिया उतनी सघन और व्यापक नहीं रही। परिणाम में राष्ट्र भी बिखरता टूटता-बँटता चला गया। राष्ट्र की इस दुर्दशा ने भाष्यकार पतंजलि को व्याकुल किया। उनके निर्देश से पुष्यमित्र का शौर्य जगा। संगठित राष्ट्र ने अश्वमेध का यजन किया पुष्यमित्र शुँग के बाद गुप्त वंश के द्वितीय सम्राट समुद्र गुप्त द्वारा अश्वमेध सम्पन्न करने का उल्लेख इतिहास में मिलता है। अश्वमेध यज्ञ का पूर्णाहुति के अवसर पर यशस्वी सम्राट ने ऋग्वेद के मंत्र
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाँ चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ताँ माँ देवा व्यदधुः पुरुत्राभूरिस्थानाँ भूर्यावेशयम्न्तीम (ऋग्वेद 10/10/125)

“मैं राष्ट्र की अधीश्वरी (भारत माता) समृद्धियों का संगम परब्रह्म से अभिन्न तथा सभी देवताओं में प्रधान हूँ। पूरे परिवेश में मैं ही स्थित हूँ। नाना स्थानों में रहने वाले देवता-जो भी करते हैं मुझे जानकार करते हैं” को राष्ट्र मंत्र घोषित किया।

हिन्दू धर्म कोश के लेखक डा. राजवली पाण्डेय ने अपने ग्रन्थ के अश्वमेध प्रकरण में इसके स्वरूप और महत्व पर प्रकाश डालने वाले ढेरों शास्त्र प्रमाणों को उद्धृत किया है। आपस्तम्ब स्मृति के अनुसार साँस्कृतिक दिग्विजय के लिए लगभग चार सौ वीरों का वाहिनी निकलती थी। इसकी पूर्णाहुति के रूप में तीन दिन चलने वाला अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न होता था। यज्ञ में सम्मिलित होने वाले याजक सविता देव को अपनी भावांज्जलि समर्पित करने वाले सूर्योपासक होते थे। ऐतरेय ब्राह्मण 8-20 में भी इस यज्ञ को सम्पन्न करने वाले महापुरुषों का विवरण मिलता है।

मध्ययुगीन अन्धकार और परतंत्रता की त्रासदी के दिनों में न केवल वैदिक प्रक्रियाएँ विलुप्त हुई वरन् उनके अर्थ के अनर्थ निकाले गए। इन्हीं में से एक मेध का अर्थ हत्या या हिंसा किया जा सकता है। जबकि वेद के मर्मज्ञ विद्वान पं. दामोदर सातवलेकर ने मेध को मेधृ धातु से निष्पक्ष ‘मेध’ शब्द के लोगों में मेधा, एकता और प्रेम बढ़ाने के अर्थों में प्रयुक्त किया है। भाष्यकार महीधर ने यजुर्वेद 23-40 का भाष्य करते हुए कहा है-तेष्वारण्याः सर्वे उत्स्रष्टव्या न तु हिंसया “अर्थात्-याज्ञिक क्रियाओं को सम्पादित कर पशुओं को जंगल छोड़ दिया जाता था उनकी हिंसा नहीं की जाती। यज्ञ का एक नाम है ‘अध्वर’ जिसका अर्थ होता है हिंसा रहित कृत्य। उसमें अग्नि का उपयोग तो होता है पर साथ ही पुरोहितों और याजकों में से प्रत्येक को यह भी ध्यान रखना पड़ता है कहीं समिधाओं या शाकल्य में कृमि-कीटक तो नहीं है और उस गर्मी से चींटी आदि प्राणियों की जीवन हानि तो नहीं हो रही। जहाँ इतनी सतर्कता के निर्देश हों वहाँ प्राणिवध की तो कल्पना सम्भव नहीं।
वेद भगवान का तो स्पष्ट आदेश है-”पशून पाहि गाँ मा हिंसी, अजा मा हिंसी। अपिमा हिंसी, इमं मा हिंसी द्विपाद पशुँ॥ मा हिंसी रेकशंक पशुँ मा हिंस्यात सर्वभूतानि। अर्थात् पशुओं की रक्षा करो, गाय को मत मारो, बकरी को मत मारो, भेड़ को मत मारो, दो पैर वाले (मनुष्य , पक्षी) को मत मारो। एक खुर वाले पशुओं (घोड़ा, गधा) को मत मारो, किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। पशुओं की हिंसा करना अच्छे मनुष्य का लक्षण नहीं है। इसी तथ्य को पंचतंत्रकार ने स्वीकार किया है-

एतेऽपि ये याज्ञिका यज्ञकर्मणि पशून व्ययापादयन्ति ते मूर्खाः परमार्थं श्रुतेर्न जानन्ति। तत्र किलैतयुक्तम् अजैर्यज्ञेषु यष्टव्यमिति अजास्तावद् ब्रीह्यः साप्तवार्षिकाः कथ्यनते न पुनः पशु विशेषाः। उक्तंच ‘वृक्षान् क्षित्वा पशूनहत्वा कृत्वारुधिर कर्दमम्। यद्येवं गम्यते स्वर्ग, नरकं केन् गम्यते॥”

अर्थात्-जो याज्ञिक यज्ञ में पशुओं की हत्या करते हैं, वे मूर्ख हैं। वे वस्तुतः श्रुति (वेद) के तात्पर्य को नहीं जानते। वहाँ जो यज्ञ करना चाहिए, उसमें अज से तात्पर्य व्रीह या पुराने अनाज विशेष से हैं न कि बकरों से।’ आप्तकथन भी है यदि पशुओं की हिंसा करके उनकी रुधिर की धारा बहा कर स्वर्ग में जाया जा सकता है तो नरक में जाने का मार्ग कौन सा है?

अश्वमेध के हिंसा रहित होने का प्रमाण महाभारत शान्तिपर्व के अध्याय-3-336 में देखा जा सकता है। इसमें वसु महाराज द्वारा अश्वमेध करने का रोचक वृत्तांत इसमें आचार्य बृहस्पति के अतिरिक्त कपिल, कठ, कण्व, तैत्तिरीय आदि ऋत्विक् थे। महाभारतकार के अनुसार यहाँ “न तत्र पशुघातोऽभूत” पशुओं की किसी तरह की हत्या नहीं की गई। यों तो यज्ञ में किसी तरह की हिंसा वर्जित है, फिर अश्वमेध के अश्व को तो-स्तुत्य ठहराया गया है। आचार्य महीधर के शब्दों में हे अश्व यस्त्वमभिधा असि। अभिधीयते स्त्यत् इत्याभिधाः । अर्थात्-हे अश्वमेध के अश्व आप स्तुत्य है (महीधरयजुर्वेद 22-3)

वैदिक यज्ञों में अश्वमेध का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे महाक्रतु कहा गया है। इसकी ऐतिहासिक सर्वथा असंदिग्ध है। राष्ट्रहित के लिए-दैवी शक्तियों के आह्वान और मानवीय सामर्थ्य को नियोजन करने वाली इस प्रक्रिया में किसी भ्रान्ति की रत्तीभर गुँजाइश नहीं। ऋग्वेद में इससे सम्बन्धित दो मंत्र हैं। यजुर्वेद में 22 से 25 अध्याय में इसका विधि-विधान दिया गया है।शतपथ ब्राह्मण (13 काण्ड) में इसका विशद वर्णन है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (3-8-9) कात्यानीय श्रौतसूत्र (20) आपस्तम्ब (20) आश्वलायन (10,6) शखाँयन (16) आदि में इसके स्वरूप और महात्म्य के विस्तृत विवरण मिलते हैं ।
-क्या ही सुखद हो यदि विश्व के सभी राष्ट्र, राष्ट्र उपासना की इस पद्धति को अपना कर अपनी संगठन सामर्थ्य और चरित्रबल की वृद्धि करें। अश्वमेध आयोजनों की वर्तमान शृंखला पर विचार करके यही कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय और मानवीय भावनाओं को विकसित करने वाली यह योजना न केवल भारत वरन् समूचे विश्व को नया रंग, वातावरण , एक उच्चतर भावना, एक बड़ा उद्देश्य प्रदान करेगी। इसके परिणाम में यदि’राष्ट्र’ शब्द विश्व राष्ट्र का व्यापक बोध कराने लगे तो किसी को आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए।

अमावस्या के दिन ये करेंगे तो आर्थिक, पारिवारिक व मानसिक सभी परेशानियाँ जरूर दूर होगी।

हिन्दू पांचांग के अनुसार माह के 30वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि होती है उस दिन आकाश में चंद्रमा दिखाई नहीं देता गहन अंधकार होता हैं इस दिन का तंत्र और ज्योतिष में खास महत्व होता है हिन्दू धर्म में पूर्णिमा, अमावस्या और ग्रहण के रहस्य को उजागर किया गया है। इसके अलावा वर्ष में ऐसे कई महत्वपूर्ण दिन और रात हैं जिनका धरती और मानव मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उनमें से ही माह में पड़ने वाले 2 दिन सबसे महत्वपूर्ण हैं- पूर्णिमा, अमावस्या तंत्र शास्त्र के अनुसार अमावस्या के दिन किये गए उपाय बहुत ही प्रभावशाली होते है और इसका फल भी अति शीघ्र प्राप्त होता है। पितृ दोष हो या किसी भी ग्रह की अशुभता को दूर करना हो, अमावस्या के दिन सभी के लिए उपाय बताये गए है । आपकी आर्थिक, पारिवारिक और मानसिक सभी तरह की परेशानियाँ इस दिन थोड़े से प्रयास से ही दूर हो सकती है।

1 हर अमावस्या को घर के कोने कोने को अच्छी तरह से साफ करें, सभी प्रकार का कबाड़ निकाल कर बेच दें। इस दिन सुबह शाम घर के मंदिर और तुलसी पर दिया अवश्य ही जलाएं इससे घर से कलह और दरिद्रता दूर रहती है।

2 अमावस्या पर तुलसी के पत्ते या बिल्व पत्र बिलकुल भी नहीं तोडऩा चाहिए। अमावस्या पर देवी-देवताओं को तुलसी के पत्ते और शिवलिंग पर बिल्व पत्र चढ़ाने के लिए उन्हें एक दिन पहले ही तोड़कर रख लें।

3 धन लाभ के लिए अमावस्या के दिन पीली त्रिकोण आकृति की पताका विष्णु मन्दिर में ऊँचाई वाले स्थान पर इस प्रकार लगाएँ कि वह लगातार लहराती रहे, तो आपका भाग्य शीघ्र ही चमक उठेगा। लगातार स्थाई लाभ हेतु यह ध्यान रहे की झंडा वहाँ लगा रहना चाहिए। उसे आप समय समय पर स्वयं बदल भी सकते है।

4 हर अमावस्या को गहरे गड्ढे या कुएं में एक चम्मच दूध डालें इससे कार्यों में बाधाओं का निवारण होता है । इसके अतिरिक्त अमावस्या को आजीवन जौ दूध में धोकर बहाएं, आपका भाग्य सदैव आपका साथ देगा ।

5 अमावस्या के दिन शनि देव पर कड़वा तेल, काले उड़द, काले तिल, लोहा, काला कपड़ा और नीला पुष्प चढ़ाकर शनि का पौराणिक मंत्र “ऊँ नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम। छायामार्तण्डसंभुतं नमामि शनैश्चरम।” की एक माला का जाप करने से शनि का प्रकोप शांत होता है , एवं अन्य ग्रहों के अशुभ प्रभावों से भी छुटकारा मिलता है । हर अमावस्या को पीपल के पेड़ के नीचे कड़वे तेल का दिया जलाने से भी पितृ और देवता प्रसन्न होते हैं।

6 प्रत्येक अमावस्या को गाय को पांच फल भी नियमपूर्वक खिलाने चाहिए, इससे भी घर में शुभता एवं हर्ष का वातावरण बना रहता है ।

7 अमावस्या के दिन किसी सरोवर पर गेहूं के आटे की गोलियां ले जाकर मछलियों को डालें। इस उपाय से पितरों के साथ ही देवी-देवताओं की कृपा भी प्राप्त होती है, धन सम्बन्धी सभी समस्याओं का निराकरण होता है।

8 अमावस्या के दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नित्यकर्मों से निवृत्त होकर पवित्र होकर जो व्यक्ति रोगी है उसके कपड़े से धागा निकालकर रूई के साथ मिलाकर उसकी बत्ती बनाएं। फिर एक मिट्टी का दीपक लेंकर उसमें घी भरकर, रूई और धागे की बत्ती लगाकर यह दीपक हनुमानजी के मंदिर में जलाएं और हनुमान चालीसा का पाठ करें। इस उपाय से रोगी की तबियत जल्दी ही सुधरने लगती । यह उपाय उसके बाद कम से कम 7 मंगलवार और शनिवार को भी नियमित रूप से करना चाहिए।

9 अमावस्या के दिन एक कागजी नींबू लेंकर शाम के समय उसके चार टुकड़े करके किसी भी चौराहे पर चुपचाप चारों दिशाओं में फेंक दें। इस उपाय से जल्दी ही बेरोजगारी की समस्या दूर हो जाती है।

10 अमावस्या की रात्रि में 8 बादाम और 8 काजल की डिबिया काले कपडे में बांध कर सिंदूर में रखे, इससे शीघ्र ही आर्थिक समस्याओं का समाधान होता है ।

11 अमावस्या के दिन क्रोध, हिंसा, अनैतिक कार्य, माँस, मदिरा का सेवन एवं स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध, मैथुन कार्य आदि का निषेध बताया गया है, जीवन में स्थाई सफलता हेतु इस दिन इन सभी कार्यों से दूर रहना चाहिए ।

12 अमावस्या पर पितरों की तृप्ति के लिए विशेष पूजन करना चाहिए। यदि आपके पितृ देवता प्रसन्न होंगे तभी आपको अन्य देवी-देवताओं की कृपा भी प्राप्त हो सकती है। पितरों की कृपा के बिना कठिन परिश्रम के बाद भी जीवन में अस्थिरता रहती है, मेहनत के उचित फल प्राप्त नहीं होती है ।

13 हर अमावस के दिन एक ब्राह्मण को भोजन अवश्य ही कराएं। इससे आपके पितर सदैव प्रसन्न रहेंगे, आपके कार्यों में अड़चने नहीं आएँगी, घर में धन की कोई भी कमी नहीं रहेंगी और आपका घर – परिवार को टोने-टोटको के अशुभ प्रभाव से भी बचा रहेगा।

14 पितृ दोष निवारण के लिये यदि कोई व्यक्ति अमावस्या के दिन पीपल के पेड़ पर जल में दूध , गंगाजल, काले तिल, चीनी, चावल मिलाकर सींचते हुए पुष्प, जनेऊ अर्पित करते हुये “ऊँ नमो भगवते वासुदेवाएं नमः” मंत्र का जाप करते हुये 7 बार परिक्रमा करे तत्पश्चात् ॐ पितृभ्यः नमः मंत्र का जप करते हुए अपने अपराधों एवं त्रुटियों के लिये क्षमा मांगे तो पितृ दोष से उत्पन्न समस्त समस्याओं का निवारण हो जाता है। और अगर सोमवती अमावस्या हो तो पीपल की 108 बार परिक्रमा करने से विशेष लाभ मिलता है ।

15 हर अमावस्या पर पितरों का तर्पण अवश्य ही करना चाहिए । तर्पण करते समय एक पीतल के बर्तन में जल में गंगाजल , कच्चा दूध, तिल, जौ, तुलसी के पत्ते, दूब, शहद और सफेद फूल आदि डाल कर पितरों का तर्पण करना चाहिए। तर्पण, में तिल और कुशा सहित जल हाथ में लेकर दक्षिण दिशा की तरफ मुँह करके तीन बार तपरान्तयामि, तपरान्तयामि, तपरान्तयामि कहकर पितृ तीर्थ यानी अंगूठे की ओर जलांजलि देते हुए जल को धरती में किसी बर्तन में छोड़ने से पितरों को तृप्ति मिलती है। ध्यान रहे तर्पण का जल तर्पण के बाद किसी वृक्ष की जड़ में चड़ा देना चाहिए वह जल इधर उधर बहाना नहीं चाहिए।

16 शास्त्रो के अनुसार प्रत्येक अमावस्या को पित्तर अपने घर पर आते है अतः इस दिन हर व्यक्ति को यथाशक्ति उनके नाम से दान करना चाहिए। इस दिन बबूल के पेड़ पर संध्या के समय पितरों के निमित्त भोजन रखने से भी पित्तर प्रसन्न होते है।

17 पितरों को खीर बहुत पसंद होती है इसलिए प्रत्येक माह की अमावस्या को खीर बनाकर ब्राह्मण को भोजन के साथ खिलाने पर महान पुण्य की प्राप्ति होती है, जीवन से अस्थिरताएँ दूर होती है। इस दिन संध्या के समय पितरों के निमित थोड़ी खीर पीपल के नीचे भी रखनी चाहिए ।

18 अमावस्या के दिन काले कुत्ते को कड़वा तेल लगाकर रोटी खिलाएं। इससे ना केवल दुश्मन शांत होते है वरन आकस्मिक विपदाओं से भी रक्षा होती है ।

19 अमावस्या के दिन अपने घर के दरवाजे के ऊपर काले घोड़े की नाल को स्थापित करें। ध्यान रहे कि उसका मुंह ऊपर की ओर खुला रखें। लेकिन दुकान या अपने आफिस के द्वार पर लगाना हो तो उसका खुला मुंह नीचे की ओर रखें। इससे नज़र नहीं लगती है और घर में स्थाई सुख समृद्धि का निवास होता है ।

20 अमावस्या की तिथि को कोई भी नया कार्य, यात्रा, क्रय-विक्रय तथा समस्त शुभ कर्मों को निषेध कहा गया है, इसलिए इस दिन इन कार्यों को नहीं करना चाहिए ।

21 दीपावली की रात्रि में 12 बजे अपने दाहिने हाथ में काली राई लेकर अपने घर की छत पर तीन चक्कर उलटे काटे, फिर दसो दिशाओं में हाथ की राई के दाने “ऊँ हीं ऋणमोचने स्वाहा”॥ मन्त्र का जप करते हुए फेंकते जाय, इस उपाय से धन हानि बंद होती है ,ऋण के उतरने के योग प्रबल होते है। यह बहुत ही अमोघ प्रयोग है इसे किसी भी अमावस्या को किया जा सकता है लेकिन दीवाली की रात में इसे करने से शीघ्र ही फल मिलता है।

22 वैसे तो सभी अमावस्या का महत्व है लेकिन सोमवार एवं शनिवार को पड़ने वाली अमावास्या विशेष रूप से पवित्र मानी जाती है। इसके अतिरिक्त मौनी अमावस्या और सर्वपितृ दोष अमावस्या अति महत्वपूर्ण मानी गयी है।
🌷🌷🌷🕉श्री🌷🌷🌷

🌹शुचिता- अन्तः और बाह्य🌹
〰️〰️〰️〰️〰️〰️🏵️〰️〰️〰️〰️
💐वेद से वेदान्त, श्रुति से स्मृति, शास्त्र से महाकाव्य तक भारतीय संस्कृति में शुचिता को धर्म का आधार ही नहीं, धर्म ही माना गया है। सांख्य आदि दर्शनों में “दुखत्रयभिधाता” या तीन प्रकार के दुखों में आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक तीनों का समावेश है।
👉 शुचिता केवल भौतिक जीवन के लिए ही नहीं आध्यात्मिक और मानसिक जीवन के लिए भी अपरिहार्य है। इसलिए मनु ने अपने धर्म के 10 लक्षणों में शौच को स्थान दिया है। उस प्रकार सब-स्मृति पुराणों को धर्म माना है। इसी प्रकार दर्शन के क्षेत्र में महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में अष्टांगिक योग के निरूपण में दूसरे चरण यानि नियम में शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान में शौच को महत्वपूर्ण स्थान इसलिए दिया है कि शुचिता एक समग्र-साधना है जिसे हम “अन्तःशुद्धि” और “बहिर्शुद्धि” दोनों को समेट लेती है। शरीर एवं मन का परस्पर संयोग आवश्यक है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का आवास होता है। उसी प्रकार आध्यात्मिक साधना के लिए हमें शारीरिक, मानसिक क्रियाओं की संगति बैठानी होगी। सनातन धर्म ही नहीं प्रायः सभी धर्मों में ध्यान साधना के पूर्व यम-नियम या नैतिक और बाह्य (भौतिक) क्रियाओं जैसे प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान की साधना प्राप्त करनी होती है तभी समृद्धि या आध्यात्मिक साधना का अवसर आता है।
👉 शुचिता के लिए केवल बाहरी शुचिता यानी स्नान, स्वच्छ घर, स्वच्छ वायु, स्वच्छ जल, स्वच्छ धूप, स्वच्छ आकाश ही नहीं बल्कि स्वच्छ मन भी आवाश्यक है। जहाँ रोग नहीं है। वहाँ मन भी एकाग्र करना कठिन हो जाता है।
👉 मनुष्य शरीर की रचना पंच-तत्व से हुई है। साथ-साथ इसका परिपालन भी होता है। अतः इन पर ध्यान रखना आवश्यक है जो व्यक्ति प्रकृतिक वातावरण में ज्यादा रहेगा, उसे प्रकृति का आशीर्वाद या प्राण तत्व भी अधिक प्राप्त होगा। जब शरीर सम्पोषित एवं स्वस्थ रहेगा, उसकी मानसिक साधना भी अच्छी रहेगी। जिस तरह मानसिक स्वास्थ्य के लिए शारीरिक स्वास्थ्य आवश्यक है, उसी प्रकार मन की एकाग्रता आदि के लिए सुन्दर स्वास्थ्य भी जरूरी है। जो व्यक्ति मन में रोग, द्वेष, क्रोध, अहंकार आदि को पालेगा तो वह मानसिक रूप से अस्थिर रहेगा। अतः शारीरिक स्वास्थ्य के साथ अन्तःकरण की शुद्धि आवश्यक है। आज विश्व में हैजे, मलेरिया आदि संक्रामक रोगों पर विजय भले ही पा ली गयी है। किन्तु मानसिक स्नावयिक बीमारियाँ जैसे कैंसर, मानसिक दुर्बलता आदि अनेकानेक बीमारियाँ बढ़ रही हैं। हम शारीरिक शुचिता और मानसिक शुचिता को अलग नहीं कर सकते।
👉 प्रकृति अपनी सीमाओं में मानव जाति का पोषण करती है इसलिए उसका असीमित भोग या शमन नहीं कर सकते। आसमान की ओजोन छतरियों में छेद, पृथ्वी समुद्र के ताप में वृद्धि, जलवायु परिवर्तन आदि ढेरों समस्याएँ खड़ी हो गयी है इसके लिए जब तक आम आदमी के जीवन में सादगी नहीं आएगी पर्यावरण की रक्षा नहीं हो पाएगी।
👉 युद्ध की सम्भावनाओं की समाप्ति के साथ-साथ विश्व स्तर पर हमें अपनी आवश्यकताओं को कम करना होगा।आवश्यकताएँ यदि बढ़ेंगी तो हम प्रकृति का असीमित दोहन करेंगे और तब पर्यावरण का संकट निश्चित रूप में सम्भाव्य है।
👉 समाधान, विश्व शान्ति की राजनीति और शान्ति का अर्थशास्त्र तथा शान्ति की रक्षा को अपनाकर होगा। इसके लिए अन्दर की शुचिता आवश्यक है। अन्तःकरण की शुचिता के बिना बाहरी शुचिता प्रभावकारी नहीं हो सकती। सफाई के सम्बन्ध में विचार में समग्रता की दृष्टि से इसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य की अवधारणा से जुड़ना जरूरी है। आज देश का शहरीकरण हो रहा है। नगरपालिका और महानगरपालिकाओं की संख्या बढ़ रही है। जहाँ व्यक्तिगत सफाई से कहीं अधिक सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाता है ।
👉 गाँव की स्थिति तो शुचिता के मामले में इसलिए ज्यादा खराब है कि वहाँ घर के साथ शौचालय का प्रबन्ध नहीं के बराबर है। पुरुष एवं स्त्री दोनों बाहर झाड़ी-झुरमुट या खेत की आड़ या सड़क के किनारे शौच करते हैं और कोई व्यक्ति उधर से आता है तो उन्हें उठना पड़ता है। अतः राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान का ज्यादा जोर गाँवों पर होना चाहिए। वहाँ यदि जन-शिक्षण और स्कूलों के द्वारा गन्दगी मुक्ति का अभियान चलाया जाए तो गाँव के लोग इस दिशा में काफी बढ़ सकते हैं।💐
🌹स्वस्थ शरीर,स्वस्थ मस्तिष्क🌹

🌷आपका सर्वत्र मंगल हो,यही कामना करता हूँ 🌷
[: मंत्र की प्रचण्ड शक्ति और उसके प्रयोग का रहस्य
👇👇👇

मन्त्र विद्या में शब्द शक्ति —मानसिक एकाग्रता—चारित्रिक श्रेष्ठता एवं अभीष्ट लक्ष्य में अटूट श्रद्धा के चार तथ्य का समावेश होता है। मन्त्र शक्ति से कितने ही प्रकार के चमत्कार एवं वरदान उपलब्ध हो सकते हैं यह सत्य है, पर उसके साथ ही यह तथ्य भी जुड़ा हुआ है कि वह मन्त्र उपरोक्त चार परीक्षाओं की अग्नि में उत्तीर्ण हुआ होना चाहिए। प्रयोग करने से पूर्व उसे सिद्ध करना पड़ता है। सिद्धि के लिए साधना आवश्यक है। इस साधना के चार चरण हैं इन्हीं का ऊपर उल्लेख किया गया है।
मन्त्र साधक को यम−नियमों का अनुशासन पालन करते हुए चारित्रिक श्रेष्ठता का अभिवर्धन करना चाहिए। क्रूरकर्मी, दुष्ट−दुराचारी व्यक्ति किसी भी मन्त्र को सिद्ध नहीं कर सकते। तान्त्रिक शक्तियाँ भी ब्रह्मचर्य आदि की अपेक्षा करती हैं। फिर देव शक्तियों का अवतरण जिस भूमि पर होना है उसे विचारणा, भावना और क्रिया की दृष्टि से सतोगुणी पवित्रता से युक्त होना ही चाहिए।

इन्द्रियों का चटोरापन मन की चंचलता का प्रधान कारण है। तृष्णाओं में—वासनाओं में और अहंकार तृप्ति की महत्वाकाँक्षाओं में भटकने वाला मन मृग−तृष्णा एवं कस्तूरी गन्ध में यहाँ−वहाँ असंगत दौड़ लगाते रहने वाले हिरन की तरह है। मन की एकाग्रता अध्यात्म क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है उसके संपादन के लिए अमुक साधनों का विधान तो है, पर उनकी सफलता मन को चंचल बनाने वाली दुष्प्रवृत्तियों का अवरोध करने के साथ जुड़ी हुई है। जिसने मन को संयत समाहित करने की आवश्यकता पूर्ण कर सकने योग्य अन्तःस्थिति का परिष्कृत दृष्टिकोण के आधार पर निर्माण किया होगा वही सच्ची और गहरी एकाग्रता का लाभ उठा सकेगा। ध्यान उसी का ठीक तरह जमेगा और तन्मयता के आधार पर उत्पन्न होने वाली दिव्य क्षमताओं से लाभान्वित होने का अवसर उसी को मिलेगा।

अभीष्ट लक्ष्य में श्रद्धा जितनी गहरी होगी उतना ही मन्त्र बल प्रचण्ड होता चला जायगा। श्रद्धा अपने आप में एक प्रचण्ड चेतन शक्ति है। विश्वासों के आधार पर ही आकाँक्षाएँ उत्पन्न होती हैं और मनःसंस्थान का स्वरूप विनिर्मित होता है। बहुत कुछ काम तो मस्तिष्क को ही करना पड़ता है। शरीर का संचालन भी मस्तिष्क ही करता है। इस मस्तिष्क को दिशा देने का काम अन्तःकरण के मर्मस्थल में जमे हुए श्रद्धा, विश्वास को है। वस्तुतः व्यक्तित्व का असली प्रेरणा केन्द्र इसी निष्ठा की धुरी पर घूमता है।
गीताकार ने इस तथ्य का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा है—’यो यच्छद्धः स एव स’ जो जैसी श्रद्धा रख रहा है वस्तुतः वह वही है। अर्थात् श्रद्धा ही व्यक्तित्व है। इस श्रद्धा को इष्ट लक्ष्य में—साधना की यथार्थता और उपलब्धि में जितनी अधिक गहराई के साथ—तन्मयता के साथ—नियोजित किया गया होगा, मन्त्र उतना ही सामर्थ्यवान बनेगा। माँत्रिक को चमत्कारी शक्ति उसी अनुपात से प्रचण्ड होगी। इन तीनों चेतनात्मक आधारों को महत्व देते हुए जिसने मन्त्रानुष्ठान किया होगा निश्चित रूप से वह अपने प्रयोजन में पूर्णतया सफल होकर रहेगा।

🚩🚩 जय श्री राम 🚩🚩
🔱जय माँ आशापुरा 🔱

सांख्यायन तंत्र’ । यह 30 पटलों में पूर्ण है। यह ईश्वर और क्रौंच भेदन का संबंद्ध रूप है। इस तंत्र को ‘ षट् विद्यागम’ कहा जाता है। ‘ बगलाक्रम कल्पवल्ली’ नाम से यह ग्रंथ मिलता है जिसमें देवी के उद्भव का वर्णन हुआ है। प्रसिद्धि है कि सत युग में चारचर जगत्‌ के विनाश के लिये जब वातीक्षीम हुआ था उस समय भगवान्‌ तपस्या करते हुए त्रिपुरा देवी की स्तुति करने लगे। देवी प्रसन्न होकर सौराष्ट्र देश में वीर रात्रि के दिन माघ मास में चतुर्दशी तिथि की प्रकट हुई थीं। इस वगलादेवी को ‘ त्रैलोक्य स्तंभिनी विद्या जाता है।
‘घूमवती’ के विषय में विशेष व्यापक साहित्य नहीं है। इनके भैरव का नाम कालभैरव है। किसी किसी मत में घूमवती के विधवा होने के कारण उनका कोई भैरव नहीं है। वे अक्ष्य तृतीया को प्रदीप काल में प्रकट हुई थीं। वे उत्तरान्वय की देवता हैं। अवतारों में वामन का धूमवती से तादात्म्य है। धूमवती के ध्यान से पता चलता है कि वे काकध्वज रथ में आरूढ़ हैं। हस्त में शुल्प (सूप) हैं। मुख सूत पिपासाकातर है। उच्चाटन के समय देवी का आवाहन किया जाता है। ‘ प्राणातोषिनी’ ग्रंथ में धूवती का आविर्भाव दर्णित हुआ है।
‘मातंगी’ का नामांतर सुमुखी है। मातंगी को उच्छिष्टचांडालिनी या महापिशाचिनी कहा जाता है। मातंगी के विभिन्न प्रकार के भेद हैं- उच्छिष्टमातंगी, राजमांतगी, सुमुखी, वैश्यमातंगी, कर्णमातंगी, आदि। ये दक्षिण तथा पश्चिम अन्वय की देवता हैं। ‘ ब्रह्मयामल’ के अनुसार मातंग मुनि ने दीर्घकालीन तपस्या द्वारा देवी को कन्यारूप में प्राप्त किया था। यह भी प्रसिद्धि है कि धने वन में मातंग ऋषि तपस्या करते थे। क्रूर विभूतियों के दमन के लिये उस स्थान में त्रिपुरसुंदरी के चक्षु से एक तेज निकल पड़ा। काली उसी तेज के द्वारा श्यामल रूप धारण करके राजमातंगी रूप में प्रकट हुईं। मातंगी के भैरव का नाम सदाशिव है। मातंगी के विषय में ‘ मातंगी सपर्या’ , रामभट्ट का ‘ मातंगीपद्धति’ शिवानंद का ‘ मंत्रपद्धति’ है। मंत्रपद्धति ‘ सिद्धांतसिधु’ का एक अध्याय है। काशीवासी शंकर नामक एक सिद्ध उपासक सुमुखी पूजापद्धति के रचयिता थे। शंकर सुंदरानंद नाथ के शिष्य (छठी पीढ़ी में) प्रसिद्ध विद्यारणय स्वामी की शिष्यपरंपरा में थे।

लग्नेश का अन्य भावों में फल
1 पहला घर -: इस घर के प्रभाव में जातक विवाहेत्‍त्‍र संबंध बनाता है। इन्‍हें आजादी पसंद होती हैं एवं यह अपने जीवन को सुखमय बनाने के निए प्रयास करते हैं। स्‍वामी लग्‍न के उचित स्‍थान पर होने के समय इन्‍हें प्रसिद्धि प्राप्‍त होती है।

2 दूसरा घर -: इस घर के प्रभाव में जातक अपने शत्रुओं के कारण तनाव में रहता है। यह दान-पुण्‍य को अधिक महत्‍व देते हैं। यह जातक अच्‍छा कमाते हैं और अपने परिवार के प्रति सारी जिम्‍मेदारियों का अच्‍छे से निर्वाह करते हैं।

3 तीसरा घर -: ये जातक गणितज्ञ एवं संगीतकार बन सकते हैं। यह बहुत चतुर होते हैं एवं इनकी दो पत्‍नियां होती हैं। यह साहसी होते हैं।

4 चौथा घर -: इन जातकों को अपनी माता के परिवार से जमीन-जायदाद मिलती है। इन्‍हें अपने माता-पिता से अत्‍यधिक प्रेम मिलता है एवं इनके अधिक भाई होते हैं। यह कई वाहनों के स्‍वामी होते हैं एवं यह स्‍वस्‍थ जीवन जीते हैं।

5 पांचवा घर -: यह जातक बेहद सफल व्‍यापारी बनते हैं एवं यह दूसरों की भी मदद करते हैं। इनके पहले बच्‍चे की मृत्‍यु संभव है। इस घर के स्‍वामी के उचित स्‍थान पर होने पर जातक को सरकारी कार्यों में लाभ होता है। पंचम स्‍वामी के उचित स्‍थान में होने की स्थिति में इन्‍हें सिद्धि की प्राप्‍ति होती है।

6 छठा घर -: छठे घर के स्‍वामी के उचित स्‍थान में होने की स्थिति में जातक सेना में किसी ऊंचे पद पर बैठते हैं एवं चिकित्‍सा संस्‍थान से जुड़े होते हैं। हो सकता है इन पर कोई कर्ज हो जो कि लग्‍न स्‍वामी की महादशा में खत्‍म होने की संभावना है।

7 सातवां घर -: सातवें घर के लग्‍न स्‍वामी का जब जातक पर सकारात्‍मक प्रभाव पड़ता है तो उसके विदेश यात्रा के योग बनते हैं। ये आत्‍मनिर्भर होते हैं। इनका एक से ज्‍यादा बार विवाह होता है। अन्‍यथा ये अपने ससुराल वालों की कठपुतली बनकर रह जाते हैं।

8 अष्‍टम् घर -: इन जातकों की सीखने और पढ़ने की क्षमता अद्भुत होती है। ये काला जादू और रहस्‍यमय विज्ञान जैसे कार्यों में लिप्‍त रहते हैं। लग्‍न स्‍वामी के अपने स्‍थान पर होने पर जातक की अकाल मृत्‍यु हो सकती है।

9 नवम् घर -: ये जातक अपने परिवार से अत्‍यंत प्रेम पाते हैं। यह उत्‍कृष्‍ट वक्‍ता, धार्मिक और भाग्‍यशाली होते हैं। इस घर के स्‍वामी के अपने स्‍थान पर होने पर जातक को पैतृक संपत्ति मिलने के योग बनते हैं।

10 दसवां घर -: यह जातक सफलता पाते हैं और अत्‍यंत प्रसिद्ध होते हैं। यदि यह अपना करियर क्षेत्र खुद चुनते हैं तो इन्‍हें उसमें सम्‍मान और सफलता प्राप्‍त होती है एवं यह एक अच्‍छे व्‍यापारी बनते हैं।

11 ग्‍यारहवां घर -: यह जो भी काम करते हैं इन्‍हे उसमें सफलता और प्रसिद्धि मिलती है।

12 बारहवां घर -: यह जातक दूसरों की सेवा करना पसंद करते हैं। इनका जीवन का लक्ष्‍य दूसरों के जीवन को बेहतर बनाना होता है। इन्‍हें आर्थिक हानि हो सकती है एवं ऐसी स्थिति में यह तीर्थयात्रा पर निकल सकते हैं।
राम

।। राम राम ।।

१- ज्ञान किसको कहते हैं ?
२- वैराग्य किसको कहते हैं ?
३- माया का स्वरूप बतलाइये ?
४- भक्ति के साधन बताइये कि भक्ति कैसे प्राप्त हो ?
५- जीव और ईश्वर में भेद बतलाइये ?

एक साधक के द्वारा एक सिद्ध को ये पाँच प्रश्न हुए हैं –
भगवान श्री राम लक्ष्मण जी की बात सुनकर कहते हैं –
थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई । सुनहु तात मति मन चित्त लाई ।।
अर्थात् थोड़े में ही सब समझा देता हूँ। यही विविधता है कि थोड़े में ही ज्यादा समझा देता हूँ –
पहले भगवान ने माया वाला सवाल उठाया है क्योंकि पहले माया को जान लेना चाहिए। भगवान कहते हैं कि माया वैसे तो अनिर्वचनीय है लेकिन फिर भी –
मैं अरु मोर तोर तैं माया ।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ।।
मैं, मेरा और तेरा – यही माया है, केवल छह शब्दों में बता दिया।
मैं अर्थात् जब ” मैं ” आता है तो ” मेरा ” आता है और जहां ” मेरा ” होता है वहां ” तेरा ” भी होता है – तो ये भेद माया के कारण होता है।
जैसे चाचा जी घर में सेब लाये तो अपने बेटे को दो सेब दे दिए और बड़े भाई का बेटा आया तो उसे एक सेब दे दिया। कारण कि ये मेरा बेटा है और वो बड़े भाई का बेटा है। बस मेरा और तेरा – और ज्यादा विस्तार में जाने की आवश्यकता ही नहीं है, यह भेद माया के कारण ही होता है।
उस माया के भी दो भेद बताये हैं – एक विद्या और दूसरी अविद्या
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा ।
जा बस जीव परा भवकूपा ।।
एक रचइ जग गुन बस जाकें ।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ।।
अविद्या रूपी माया जीव को जन्म-मरण के चक्कर में फंसाती है,जीव भटकता रहता है जीव जन्म अथवा मृत्यु के चक्कर में। और दूसरी विद्या रूपी माया मुक्त करवाती है।
दूसरा प्रश्न – ज्ञान किसको कहते हैं ?
हम ज्ञानी किसे कहेंगे ?
जो बहुत प्रकांड पंडित हो, शास्त्रों को जानता हो, बड़ा ही अच्छा प्रवचन कर सकता हो, दृष्टांत के साथ सिद्धांत को समझाये, संस्कृत तथा अन्य बहुत सी भाषाओं का जिसे ज्ञान हो – ज्ञानी !!!!
पंडित और ज्ञानी में अन्तर है, उसे पंडित कह सकते हैं लेकिन ज्ञानी नहीं।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने बड़ी अद्भुत व्याख्या की है ज्ञानी की –
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं ।
देख ब्रह्म समान सब माहीं ।।
ज्ञान उसको कहते हैं – जहाँ मान न हो अर्थात् जो मान-अपमान के द्वन्द्व से रहित हो और सबमें ही जो ब्रह्म को देखे । ज्ञान के द्वारा तो ईश्वर की सर्वव्यापकता का अनुभव हो जाता है तो सबमें भगवान को देखने लग जाता है।
तीसरा प्रश्न – वैरागी किसको कहेंगे ?
हमारी परिभाषा यह है कि भगवें कपड़े पहने हो या फिर संसार छोड़ कर भाग गया हो, सिर पर जटायें हो, माथे पर तिलक हो, हाथ में माला लिए हुए हो – वैरागी !!!!
भगवान श्री राम कहते हैं –
कहिअ तात सो परम बिरागी । तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ।।
परम वैरागी वह है, जिसने सिद्धियों को तृन अर्थात् तिनके के समान तुच्छ समझा। कहने का तात्पर्य है कि जो सिद्धियों के चक्कर में नहीं फंसता और तीनि गुन त्यागी अर्थात् तीन गुण प्रकृति का रूप यह शरीर है – उससे जो ऊपर उठा अर्थात् शरीर में भी जिसकी आसक्ति नहीं रही – वही परम वैरागी है।
चौथा प्रश्न – जीव और ईश्वर में भेद –
दोहा – माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव ।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव ।।
अर्थात् जो माया को, ईश्वर को और स्वयं को नहीं जानता – वह जीव और जीव को उसके कर्मानुसार बंधन तथा मोक्ष देने वाला – ईश्वर।

।। राम राम ।।
मंत्र दीक्षा के लाभ
〰️〰️🔸〰️〰️
1👉 भगवान के नाम रस मे प्रीति बढ़ेगी.. चिंता, दुःख मिटते , पाप नाश होते तो भगवान मे आनंद आने लगता है , सुमिरन ध्यान मे आनंद आने लगता है..प्रीति का रस प्रगट होता जायेगा।

2👉 मन की चंचलता मिटने लगेगी, मन्त्र जाप से अध्यात्मिक तरंगे उत्त्पन्न होती है..इससे चित्त में आनंद और शांती व्याप जाती है..चित्त की चंचलता मिटती , मनोराज मिटते, फालतू विचारो का शमन, चित्त को शांती मिलती, समाधान मिलता।

3👉 परमात्मा की प्रेरणा होने लगेगी, इष्ट देव सपने मे आकर दर्शन देंगे या और किसी प्रकार से आप को मार्गदर्शन मिलेगा.. …बुध्दी की प्रसादी मिलती, अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा समझने की सूझ बुझ मिलती..सही गलत का निर्णय करने में अंतर्यामी परमात्मा की प्रेरणा मिलती तो व्यावहारिक ज्ञान में सूझ बुझ आती… फिर तो राजे महाराजाओं के सुख को भी तुच्छ माने।

4👉 नाम का, धन का अहंकार और घमंड नहीं होगा…अहंकार गलने लगता…धन, पद , अ-सत का प्रभाव गलने लगता है।

5👉 मन और बुध्दी निर्मल होती है ..बुध्दी मे शुध्द प्रकाश और प्रेरणा होगी की क्या करना है, कब और कैसे करना है… मन बुध्दी की पुष्टि होती जाती.. …गुरू मन्त्र का जप करने से नीरसता दूर होगी और आस्था बढ़ेगी..बुध्दी में शुद्धि आती।

6👉 रोग बीमारी से क्षीण नहीं होंगे.. ‘रोग आया तो शरीर मे आया , मैं तो अमर आत्मा हूँ’ ये समझ विकसित होगी..मन्त्र के उच्चारण से हमारे शरीर पर — 5 ज्ञानेन्द्रियां और 5 कर्मेन्द्रियों पर , लीवर और ह्रदय पर ऐसा प्रभाव पड़ता है की रोग कण नाश होते है और रक्त का प्रवाह शुध्द होता है….. .. रोग प्रतिकार की शक्ति बढती..रोगों के कणों को भगाती है।

7👉 सुख मे बहोगे नहीं और दुःख से दबोगे नहीं, उनका साधन बनाकर उन्नति करने की बुध्दी विकसित होगी..जप करनेवाला वाला दुखी खिन्न नहीं होता. ..दुःख मिटेंगे, दुःख को उखाड़ फेकने वाले परमानंद की प्राप्ति होगी .. भगवान के नाम मे रस आयेगा तो दुखो की जड़ उखाड़ के फेकनेवाला आनंद आएगा..दुःख नाशिनी शक्ति बढती… भविष्य में दुःख देने वाली परिस्थितियां भी क्षीण होती.. .’सुख स्वपना दुःख बुलबुला , दोनों है मेहमान’ …सुख दुःख आने-जानेवाला है -उस को जाननेवाला ‘मैं’ नित्य हूँ..इस प्रकार सुख दुःख की थपेड़ो से बचकर हम परम आनंद के दाता ईश्वर के रास्ते पहुँचने में सफल हो जाते… ‘सुख दुःख मन को है , मैं उस को देखने वाला हूँ’ ये जान कर सुख दुःख का भी उपयोग कर के सुख दुःख को स्टेप बना लेते है..ईश्वर के रास्ते उन्नत होते जाती है।

8👉 गुरु मन्त्र के जप से सभी जन्मो के पाप नाश होंगे..(ज+प = ‘ज’ का मतलब जन्म मरण का नाश और ‘प’ का मतलब पाप का नाश : इसी का नाम जप है.) पाप मिटने से पुण्यमय भाव बनने लगता है…पाप क्षीण होने लगते…पाप मिटते, पुण्य बढ़ते. .. सुनिश्चय करनेवाली पापनाशिनी शक्ति जागृत होती…पाप वासना मिटती, बेवकूफी मिटती , आप को बेवकुफ बनानेवाला बेवकुफ बनता और आप सजाग हो जाते।

9👉 घटाकाश और व्यापक परमात्मा के एकत्व का दैवी ज्ञान प्रगट होता है …दिव्य प्रेरणा प्रगट होने लगती…

आत्मा ब्रह्म है , जैसे घड़े का आकाश महा आकाश से जुड़ा है ,एक ही है ,भिन्न नहीं है …ऐसे ही आप का आत्मा उस परमात्मा से जुड़ा हुआ है ..यह ज्ञान होगा..आत्मा ब्रम्ह है ..बुध्दी में चैत्यन्य चिन्मय वासुदेव का प्रसाद है…तो ‘सब में वासुदेव है’… इस प्रकार की दिव्यता का अनुभव होने लगता …भगवान की कथा समझ में आने लगती…

एक कौर चावल को देखा आप ने तो आप को चावल का डेगा देखने की जरुरत नहीं.. चुल्लू भर पानी से सरोवर के पानी की खबर मिलती… एक सूर्य की किरण से सूर्य की खबर मिलती … ऐसे एक हमारे आत्मा की खबर मिलती तो पुरे ब्रम्ह की खबर मिलती।

10👉 आप का आत्म विश्वास बढेगा, चिंता –निश्चिन्तता मे बदलती है..विवेक विकसित होता, अ-विवेकी निर्णय दूर होते.

नाम जपने वाले के निर्णय और निगुरे के निर्णय देखो तो फरक पता चल जायेगा।
〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️
चंपा के फूल
चमोली जिला मुख्यालय में लगाए चार चांद।
चमोली जिला मुख्यालय इन दिनों नये फूल के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है.
आज से सात साल पहले पर्यावरणविद् स्वर्गीय चक्रधर तिवारी ने जब जिला मुख्यालय की सड़कों पर रुद्राक्ष और चंपा की पौध लगाई थी, तो शायद कम ही लोगों को यकीन रहा होगा कि इससे कभी नगर की तस्वीर ही बदल जाएगी. अब भले ही चक्रधर तिवारी नहीं रहे मगर उनकी कोशिश रंग लाई है. वाकई चंपा के फूलों ने मुख्यालय की सुंदरता में चार चांद लगा दिए, जो भी इन्हें देखते हुए बस कह रहा है, वाह कितने सुंदर फूल खिले हैं.

१. मझोले कद का एक पेड । विशेष— इसमें हलके पीले रंग के फूल लगते हैं । इन फूलों में बडी तीव्र सुगंध होती है । चंपा दो प्रकार का होता है ।
एक साधारण चंपा, दूसरा कटहलिया । कटहलिया चंपा के फुल की महक पके कटहल से मिलती हुई होती है ।
ऐसा प्रसिद्ध है कि चंपा के फूल पर भौंरे नहीं बैठते । जंगलों में चंपे के जो पेड होते हैं, वे बहुत ऊँचे और बडे होते हैं । इसकी लकडी पीली, चमकीली और मुलायम, पर बहुत मजबूत होती है और नाव, टेबुल, कुरसी आदि बनाने और इमारत के काम में आती है । हिमालय की तराई, नैपाल, बंगाल, आसाम तथा दक्षिण भारत के जंगलों में यह अधिकता से पाया जाता है । चित्रकूट में इसकी लकडी की मालाएँ बनती हैं

अद्भुत फूल चम्पा

चम्पा का वृक्ष दक्षिण- पूर्व एशिया (चीन, मलेशिया, सुमात्रा, जावा और भारत में प्राकृतिक रूप से) पाया जाता है। चम्पा का मूल उत्पत्ति स्थान भारत में पूर्वी हिमालय तथा अन्य पड़ोसी देशों में इंडोनोशिया को माना जाता है।

चम्पा निकारगोवा और लाओस देशों का राष्ट्रीय फूल है। चम्पा के वृक्षों का उपयोग घर, पार्क, पार्किग स्थल और सजावटी पौधे के रूप में किया जाता है।

भारतीय संस्कृति में-
चम्पा के खूबसूरत, मन्द, सुगन्धित हल्के सफेद, पीले फूल अक्सर पूजा में उपयोग किये जाते हैं। चम्पा का वृक्ष मन्दिर परिसर और आश्रम के वातावरण को शुद्ध करने के लिए लगाया जाता है।
हिन्दू पौराणिक कथाओं में एक कहावत है कि

’’चम्पा तुझमें तीन गुण-रंग रूप और वास, अवगुण तुझमें एक ही भँवर न आयें पास’’।
रूप तेज तो राधिके,
अरु भँवर कृष्ण को दास,
इस मर्यादा के लिये
भँवर न आयें पास।।

चम्पा में पराग नहीं होता है। इसलिए इसके पुष्प पर मधुमक्खियाँ कभी भी नहीं बैठती हैं, लेकिन इसके बीज पक्षियों को बहुत आकर्षित करते हैं। कहा जाता है, कि चम्पा को राधिका और कृष्ण को भँवर और मधुमक्खियों को कृष्ण के दास-दासी के रूप में माना गया है।
राधिका कृष्ण की सखी होने के कारण मधुमक्खियाँ चम्पा के वृक्ष पर कभी नहीं बैठती हैं। चम्पा को कामदेव के पाँच फूलों में गिना जाता है। देवी माँ ललिता अम्बिका के चरणों में भी चम्पा के फूल को अन्य फूलों जैसे- अशोक, पुन्नाग के साथ सजाया जाता है।
पुन्नाग प्रजाति के फूल का सम्बन्ध भगवान विष्णु से माना जाता है। रविन्द्रनाथ टैगोर ने इसे अमर फूल कहा है। चम्पा का वृक्ष वास्तु की दृष्टि से सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। इसी कारण दक्षिणी एशिया के बौद्ध मंदिरों में ये बहुतायत से पाए जाते हैं।

विदेशी संस्कृति में-

बांग्लादेश में इसके पुष्प को मृत्यु से जोड़ा जाता है। अनेक स्थानीय लोक-मान्यताओं में चम्पा का भूत-प्रेत और राक्षसों को आश्रय प्रदान करने वाला वृक्ष माना जाता है। इसकी सुगन्ध को मलय लोक कथाओं में एक पिशाच से सम्बन्धित माना गया है। फिलीपीन्स में, जहाँ इसे कालाचूची कहते हैं इसे मृत आत्माओं से संबंधित माना गया है, इसकी कुछ प्रजातियों को कब्रिस्तानों में लगाया जाता है।
फीजी आदि द्वीप समूह के देशों में महिलाओं द्वारा इसके फूल को रिश्ते के संकेत के रूप में कानों में धारण किया जाता है। दाहिने कान में पहनने का मतलब रिश्ते की माँग और बाँये कान में पहनने का मतलब रिश्ता मिल गया है।

विभिन्न भाषाओं में चम्पा के नाम-

भारतीय भाषाओं में देखें तो
चंपा को मराठी में सोनचम्पा, तमिल में चम्बुगम या चम्बुगा, मणिपुरी में लिहाओ,
तेलगु में चम्पानजी,
कन्नड चम्पीजे,
बगाली में चंपा, शिंगली सपु, उड़िया में चोम्पो,
इण्डोनेशियाई में कम्पक,
कोंकणीं में पुड़चम्पो,
असमिया में तितान्सोपा तथा संस्कृत चम्पकम् कहते हैं।
विदेशी भाषाओं में
अंग्रेजी में इसे प्लूमेरिया अल्बा या फ्रेंजीपानी,
स्पैनिश में चम्पका,
बर्मी में मवाक-सम-लग,
चीनी में चाय-पा,
थाई में चम्पा या खोओ तथा
फ्रेंच इलांग- इंलग कहते हैं।

भारतीय चम्पा के चार प्रमुख प्रकार हैं-
१. सोन चम्पाः-
सोन चम्पा एक लम्बा सदाबहार वृक्ष है। इसकी मूल उत्पत्ति स्थान भारतीय हिमालय या दक्षिण पूर्व एशिया एवं चीन है। इसके फूल पीले या सफेद रंग के अत्यन्त खुशबू वाले होते है। इसका अधिकतम रूप से उपयोग लकड़ी या सजावटी पौधे के रूप में किया है।
इसकी प्रजातियाँ पीले से नारंगी रगों में पायी जाती है। इसके अन्य नाम देव चम्पा, गोल्डन चम्पा, ईश्वर चम्पा, आदि है। इस फूल को महिलाओं और लड़कियों द्वारा अपने बालों में सौन्दर्भ आभूषण एवं प्राकृतिक इत्र के लिए प्रयोग किया जाता है। कमरे को सुगन्धित करने के लिए इसके फूल को पानी से भरे पात्र में डालकर रखा जाता है। नयी दुल्हन के माला और विस्तर को सजाने के लिए इसके फूलों का प्रयोग किया जाता है। इस पौधो को ’जोय’ इत्र वृक्ष’’ के नाम से जाना जाता है।

इसका तेल चन्दन के तेल की तुलना में एक अलग तरह से बनाया जाता है। इसे एक शान्त और अँधेरे कमरे में चमड़े की बोतल में संग्रहीत किया जाता है। इसका तेल शरीर की गर्मी को दूर कर देता है। यह चन्दन के तेल की तुलना में ज्यादा असरदार और ठण्डा होता है।
सोन चम्पा के फूलों का औषधीय और कास्मेटिक दोनों रूपों में उपयोग किया जाता है। वस्त्रों को रँगने में पीले फूलों का उपयोग होता है। अपच और ज्वार में फूलों का अर्क लेते हैं। सिर,आँख,नाक, कान की बीमारी, सुजाक गुर्दे की बीमारी गढ़िया, चक्कर आना सिरदर्द, में तेल बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है गुलदस्ता सजाने में इसकी पत्तियों का प्रयोग किया जाता है। ताजा नरम पत्तियों को पानी में कुचल कर ऐन्टीसेप्टिक लोशन बनाया जाता है। पत्तियों का रस भी पेट दर्द में प्रयोग होता है।

फूल और पत्ती के अलावा इसकी छाल भी उपयोगी है। इसे उत्तेजक और ज्वर हटाने वाली औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। आन्तरिक ज्वार को दूर करने के लिए इसके छाल को काढ़े के रूप में प्रयोग करते हैं। छाल को दालचीनी के साथ प्रयोग करके मिलावट के रूप में प्रयोग किया जाता है। पैरों की दरारों में बीज और फल का प्रयोग होता है। पेट फूलना और पेट के कीड़ों में चम्पा के फूल उपयोगी हैं।

२. नाग चम्पा:-
नाग चम्पा के फूल पीले या गुलाबी रंग के होते हैं। नाग चम्पा का एक परंपरागत इतिहास है। भारत और नेपाल के हिन्दू और बौद्ध मठों में नाग चम्पा की खुशबू को बनाने की विधि को गुप्त रखा जाता था। तथा प्रत्येक मठ की एक अलग अपनी सुगन्ध बनाई जाती थी। अध्यात्मिक ज्ञान में पश्चिमी देशों की रुचि बढ़ने से नाग चम्पा के पुष्प के बारे में रुचि अन्य देशों में फैलने लगी। जिससे सुगंध के कारण चम्पा वर्षों बाद भी दूसरे देशों में भी सबसे लोकप्रिय जाना जाता है। अध्यात्मिक ध्यान प्रयोजनों में नाग चम्पा की खुशबू ध्यान की गहराई को और बढ़ा देती है।

नाग चम्पा भारत में सदाबहार पवित्र वृक्ष के रूप में मन्दिरों और आश्रमों में लगाया जाता है। यह हिन्दू देवता विष्णु का प्रतीक माना जाता है। यह फूल अति सुन्दर मादक खुशबू से भरे होते हैं। फूल की पखुड़ियाँ सॉप के फन के सामान होती हैं इसलिए इसे नाग चम्पा कहते हैं। नाग चम्पा की धूप संगीत प्रेमियों के संगीत का हिस्सा है। इसमें रासायनिक रूप से बेन्जीन, एसीटेट, लैक्टोन, लोवान,बेन्जीऐट मिथाइल आदि तत्व मौजूद होते हैं।
नाग चम्पा के विभिन्न धूप ब्राण्ड भी हैं। जैसे- धूनी नाग चम्पा, गोलोक नाग चम्पा, सत्यसाईं बाबा नाग चम्पा, शान्ति नाग चम्पा, तुलसी नाग चम्पा, हेम चम्पा आदि।

३. कनक चम्पाः-
कनक चम्पा के वृक्ष को खुशबू के साथ-साथ खाने की थाली के पेड़ के रूप में जाना जाता है। इसके पत्ते ४० से.मी. तक लम्बे होते हैं। तथा दुगनी चौड़ाई के होते हैं। यह वृक्ष ५० से ७० फिट की ऊँचाई तक बढ़ सकता है। भारत के कुछ भागों में इसके पत्ती का प्रयोग बर्तन की जगह किया जाता है। फूल कलियों के अन्दर बन्द होते हैं। कलियाँ पाँच खण्डों में बटी होती हैं। छिले केले की तरह दिखाई देती हैं।

प्रत्येक फूल केवल एक रात तक रहता है। मधुर और सुगन्धित होने के कारण चमगादड़ इन फूलों की तरफ आकर्षित होते हैं। पत्ते, छाल चेचक और खुजली की दवा बनाने में इस्तेमाल होते हैं। इसके वृक्ष की लकड़ी से तख्त बनाये जाते हैं। यह वृक्ष पश्चिमी घाट और भारत के पर्णपाती जगलों में पाया जाता है। समुद्री खारा पानी इसके लिए अत्यन्त उपयुक्त होता है।

४. सुल्तान चम्पाः-
सुल्तान चम्पा दक्षिणी भारत, पूर्वी अफ्रीका,मलेशिया और आस्टेªलिया में समुद्र तटीय क्षेत्रों में सालों साल से पाये जाते हैं। इनकी ऊँचाई ८ से २० मी. तक होती है। यह वृक्ष घना और चमकदार अण्डाकार पत्रों से युक्त होता है। इसके सफेद सुगन्धित पुष्प धीमी गति से बढ़ते हैं जो मई से जून तक आते हैं। इसके केन्द्र में पीले पुंकेसर की मोटी पर्त होती है। यह वृक्ष तराई जंगलों में अच्छी तरह बढ़ता है। इसकी अन्दरूनी क्षेत्रों में मध्यम ऊँचाई पर खेती की जाती
है।

5-कटहरी चंपा
‘कटहरी चम्पा को हरी चंपा भी कहते हैं। इसका पौधा चंपा की अन्य जातियों से भिन्न होता है लेकिन इसका फूल चंपा की कुछ प्रजातियों से मिलता जुलता है।

इसका पेड़ झाड़ी जैसा, तीन से लेकर पाँच मीटर तक ऊँचा होता है। पत्तियाँ सरल तथा चमकीली हरी होती हैं। फूल अर्धवृत्ताकार डंठल पर लगते हैं। ये डंठल अन्य वृक्षों की डालियों के ऊपर चढ़ने में उपयोगी होते हैं। शुरू में फूल हरे होते हैं, परंतु बाद में इनका रंग हलका पीला हो जाता है। इन फूलों से पर्याप्त सुगंध निकलती है, जो पके कटहल के गंध जैसी होती है। इससे इनका पता पेड़ पर आसानी से लग जाता है।

धनेश का अन्य भावों में फल
1 पहला घर -: जातक का स्‍वभाव क्रूर होता है एवं वह केवल अपने लिए नाम कमाता है। सूर्य और नवमेश का सहयोग मिलने पर जातक को पैतृक संपत्ति का लाभ होता है।

2 दूसरा घर -: जातक को अपने बच्‍चों से दूर रहना पड़ सकता है एवं वह अत्‍यंत अहंकारी हो सकता है।

3 तीसरा घर -: जातक को संगीत, नृत्‍य और कला से लाभ मिल सकता है। वह साहसी होता है। जातक अपने सपनों को साकार करने में सक्षम होता है एवं उसे अपनी बहन से सहयोग प्राप्‍त होता है।

4 चौथा घर -: जातक एक सफल किसान बन सकता है एवं उसे अपनी माता के परिवार से लाभ मिलना संभव है। कंजूस प्रवृत्ति के यह लोग केवल स्‍वयं पर ही पैसा खर्च करना पसंद करते हैं। यह कमिशन के कार्यों से धन कमाते हैं।

5 पांचवा घर -: यह जातक अच्‍छे कर्म नहीं करते परंतु फिर भी सरकार में अपने प्रभाव के कारण समृद्ध होते हैं। इन्‍हें अपने परिवार से प्रेम नहीं होता एवं यह सेक्‍स संबंध बनाने में ज्‍यादा दिलचस्‍पी रखते हैं।

6 छठा घर -: यह दूसरों पर भरोसा नहीं करते एवं यह डरपोक प्रवृत्ति के होते हैं। इनका अपने शत्रुओं से भी पैसों का लेनदेन रहता है एवं यह धोखाधड़ी से पैसे कमाते हैं। इनका जेल जाना भी संभव हैं। इन्‍हें शरीर के निचले भाग में कोई रोग हो सकता है।

7 सातवां घर -: इन जातकों में नैतिकता की कमी होती है। यह देह व्‍यापार में लिप्‍त हो सकते हैं। दूसरे घर के स्‍वामी की सप्‍तमेश के साथ इस घर में उपस्थिति विदेश यात्रा के योग बनाती है। द्वीतीय भाव में स्त्री राशि है तो यह जातक स्त्रियों के बीच काफी लोकप्रिय रहते हैं।

8 अष्‍टम् घर -: इनके वैवाहिक जीवन में हमेशा मतभेद रहते हैं। यह अपनी पैतृक संपत्ति को स्‍व्‍यं ही नष्‍ट कर देते हैं।

9 नवम् घर -: जीवन के शुरूआती कुछ सालों में यह थोड़े मनचले स्‍वाभाव के होते हैं जो उम्र बढ़ने के साथ-साथ सुधर जाता है। नवमेश के लग्‍न भाव में होने की स्थिति में जातक को अत्‍यधिक धन कमाने के अवसर प्राप्‍त होते हैं।

10 दसवां घर -: यह कई क्षेत्रों में व्‍यापार करने की कोशिश करते हैं लेकिन ग्रह के बुरी तरह से पीडित होने की स्थिति में इन्‍हें हर क्षेत्र में असफलता हाथ लगती है।

11 ग्‍यारहवां घर -: यह जातक अपनी बाल्‍यावस्‍था में अस्‍वस्‍थ रहते हैं। यह चरित्रहीन बनते हैं। उधार दिए गए पैसों पर ब्‍याज से इनकी आय होती है।

12 बारहवां घर -: यह सरकारी कर्मचारी होते हैं एवं खूब पैसा कमाते हैं। इन्‍हें अपने बड़े भाई से स्‍नेह नहीं मिलता।
[ महामृत्युंजय मंत्र पौराणिक महात्म्य एवं विधि
〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰
महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना कई तरीके से होती है। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। मंत्र में दिए अक्षरों की संख्या से इनमें विविधता आती है।

मंत्र निम्न प्रकार से है
〰〰〰〰〰〰
एकाक्षरी👉 मंत्र- ‘हौं’ ।
त्र्यक्षरी👉 मंत्र- ‘ॐ जूं सः’।
चतुराक्षरी👉 मंत्र- ‘ॐ वं जूं सः’।
नवाक्षरी👉 मंत्र- ‘ॐ जूं सः पालय पालय’।
दशाक्षरी👉 मंत्र- ‘ॐ जूं सः मां पालय पालय’।

(स्वयं के लिए इस मंत्र का जप इसी तरह होगा जबकि किसी अन्य व्यक्ति के लिए यह जप किया जा रहा हो तो ‘मां’ के स्थान पर उस व्यक्ति का नाम लेना होगा)

वेदोक्त मंत्र👉
महामृत्युंजय का वेदोक्त मंत्र निम्नलिखित है-

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌ ॥

इस मंत्र में 32 शब्दों का प्रयोग हुआ है और इसी मंत्र में ॐ’ लगा देने से 33 शब्द हो जाते हैं। इसे ‘त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। श्री वशिष्ठजी ने इन 33 शब्दों के 33 देवता अर्थात्‌ शक्तियाँ निश्चित की हैं जो कि निम्नलिखित हैं।

इस मंत्र में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 वषट को माना है।

मंत्र विचार
〰〰〰
इस मंत्र में आए प्रत्येक शब्द को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि शब्द ही मंत्र है और मंत्र ही शक्ति है। इस मंत्र में आया प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण अर्थ लिए हुए होता है और देवादि का बोध कराता है।

शब्द बोधक
〰〰〰〰
‘त्र’ ध्रुव वसु ‘यम’ अध्वर वसु
‘ब’ सोम वसु ‘कम्‌’ वरुण
‘य’ वायु ‘ज’ अग्नि
‘म’ शक्ति ‘हे’ प्रभास
‘सु’ वीरभद्र ‘ग’ शम्भु
‘न्धिम’ गिरीश ‘पु’ अजैक
‘ष्टि’ अहिर्बुध्न्य ‘व’ पिनाक
‘र्ध’ भवानी पति ‘नम्‌’ कापाली
‘उ’ दिकपति ‘र्वा’ स्थाणु
‘रु’ भर्ग ‘क’ धाता
‘मि’ अर्यमा ‘व’ मित्रादित्य
‘ब’ वरुणादित्य ‘न्ध’ अंशु
‘नात’ भगादित्य ‘मृ’ विवस्वान
‘त्यो’ इंद्रादित्य ‘मु’ पूषादिव्य
‘क्षी’ पर्जन्यादिव्य ‘य’ त्वष्टा
‘मा’ विष्णुऽदिव्य ‘मृ’ प्रजापति
‘तात’ वषट
इसमें जो अनेक बोधक बताए गए हैं। ये बोधक देवताओं के नाम हैं।

शब्द वही हैं और उनकी शक्ति निम्न प्रकार से है-

शब्द शक्ति 👉 ‘त्र’ त्र्यम्बक, त्रि-शक्ति तथा त्रिनेत्र ‘य’ यम तथा यज्ञ
‘म’ मंगल ‘ब’ बालार्क तेज
‘कं’ काली का कल्याणकारी बीज ‘य’ यम तथा यज्ञ
‘जा’ जालंधरेश ‘म’ महाशक्ति
‘हे’ हाकिनो ‘सु’ सुगन्धि तथा सुर
‘गं’ गणपति का बीज ‘ध’ धूमावती का बीज
‘म’ महेश ‘पु’ पुण्डरीकाक्ष
‘ष्टि’ देह में स्थित षटकोण ‘व’ वाकिनी
‘र्ध’ धर्म ‘नं’ नंदी
‘उ’ उमा ‘र्वा’ शिव की बाईं शक्ति
‘रु’ रूप तथा आँसू ‘क’ कल्याणी
‘व’ वरुण ‘बं’ बंदी देवी
‘ध’ धंदा देवी ‘मृ’ मृत्युंजय
‘त्यो’ नित्येश ‘क्षी’ क्षेमंकरी
‘य’ यम तथा यज्ञ ‘मा’ माँग तथा मन्त्रेश
‘मृ’ मृत्युंजय ‘तात’ चरणों में स्पर्श

यह पूर्ण विवरण ‘देवो भूत्वा देवं यजेत’ के अनुसार पूर्णतः सत्य प्रमाणित हुआ है।

महामृत्युंजय के अलग-अलग मंत्र हैं। आप अपनी सुविधा के अनुसार जो भी मंत्र चाहें चुन लें और नित्य पाठ में या आवश्यकता के समय प्रयोग में लाएँ।

मंत्र निम्नलिखित हैं
〰〰〰〰〰〰

तांत्रिक बीजोक्त मंत्र
〰〰〰〰〰〰
ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ ॥

संजीवनी मंत्र अर्थात्‌ संजीवनी विद्या
〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰
ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूर्भवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनांन्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ।

महामृत्युंजय का प्रभावशाली मंत्र
〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰
ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥

महामृत्युंजय मंत्र जाप में सावधानियाँ
〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰
महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। लेकिन इस मंत्र के जप में कुछ सावधानियाँ रखना चाहिए जिससे कि इसका संपूर्ण लाभ प्राप्त हो सके और किसी भी प्रकार के अनिष्ट की संभावना न रहे।
अतः जप से पूर्व निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए।

  1. जो भी मंत्र जपना हो उसका जप उच्चारण की शुद्धता से करें।
  2. एक निश्चित संख्या में जप करें। पूर्व दिवस में जपे गए मंत्रों से, आगामी दिनों में कम मंत्रों का जप न करें। यदि चाहें तो अधिक जप सकते हैं।
  3. मंत्र का उच्चारण होठों से बाहर नहीं आना चाहिए। यदि अभ्यास न हो तो धीमे स्वर में जप करें।
  4. जप काल में धूप-दीप जलते रहना चाहिए।
  5. रुद्राक्ष की माला पर ही जप करें।
  6. माला को गोमुखी में रखें। जब तक जप की संख्या पूर्ण न हो, माला को गोमुखी से बाहर न निकालें।
  7. जप काल में शिवजी की प्रतिमा, तस्वीर, शिवलिंग या महामृत्युंजय यंत्र पास में रखना अनिवार्य है।
  8. महामृत्युंजय के सभी जप कुशा के आसन के ऊपर बैठकर करें।
  9. जप काल में दुग्ध मिले जल से शिवजी का अभिषेक करते रहें या शिवलिंग पर चढ़ाते रहें।
  10. महामृत्युंजय मंत्र के सभी प्रयोग पूर्व दिशा की तरफ मुख करके ही करें।
  11. जिस स्थान पर जपादि का शुभारंभ हो, वहीं पर आगामी दिनों में भी जप करना चाहिए।
  12. जपकाल में ध्यान पूरी तरह मंत्र में ही रहना चाहिए, मन को इधर-उधरन भटकाएँ।
  13. जपकाल में आलस्य व उबासी को न आने दें।
  14. मिथ्या बातें न करें।
  15. जपकाल में स्त्री सेवन न करें।
  16. जपकाल में मांसाहार त्याग दें।

कब करें महामृत्युंजय मंत्र जाप?
〰〰〰〰〰〰〰〰〰
महामृत्युंजय मंत्र जपने से अकाल मृत्यु तो टलती ही है, आरोग्यता की भी प्राप्ति होती है। स्नान करते समय शरीर पर लोटे से पानी डालते वक्त इस मंत्र का जप करने से स्वास्थ्य-लाभ होता है।
दूध में निहारते हुए इस मंत्र का जप किया जाए और फिर वह दूध पी लिया जाए तो यौवन की सुरक्षा में भी सहायता मिलती है। साथ ही इस मंत्र का जप करने से बहुत सी बाधाएँ दूर होती हैं, अतः इस मंत्र का यथासंभव जप करना चाहिए।

निम्नलिखित स्थितियों में इस मंत्र का जाप कराया जाता है।
〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰
(1) ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म, मास, गोचर और दशा, अंतर्दशा, स्थूलदशा आदि में ग्रहपीड़ा होने का योग है।
(2) किसी महारोग से कोई पीड़ित होने पर।
(3) जमीन-जायदाद के बँटबारे की संभावना हो।
(4) हैजा-प्लेग आदि महामारी से लोग मर रहे हों।
(5) राज्य या संपदा के जाने का अंदेशा हो।
(6) धन-हानि हो रही हो।
(7) मेलापक में नाड़ीदोष, षडाष्टक आदि आता हो।
(8) राजभय हो।
(9) मन धार्मिक कार्यों से विमुख हो गया हो।
(10) राष्ट्र का विभाजन हो गया हो।
(11) मनुष्यों में परस्पर घोर क्लेश हो रहा हो।
(12) त्रिदोषवश रोग हो रहे हों।

महामृत्युंजय मंत्र जप विधि
〰〰〰〰〰〰〰〰
महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। यहाँ हमने आपकी सुविधा के लिए संस्कृत में जप विधि, विभिन्न यंत्र-मंत्र, जप में सावधानियाँ, स्तोत्र आदि उपलब्ध कराए हैं। इस प्रकार आप यहाँ इस अद्‍भुत जप के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

महामृत्युंजय जपविधि – (मूल संस्कृत में)

कृतनित्यक्रियो जपकर्ता स्वासने पांगमुख उदहमुखो वा उपविश्य धृतरुद्राक्षभस्मत्रिपुण्ड्रः । आचम्य । प्राणानायाम्य। देशकालौ संकीर्त्य मम वा यज्ञमानस्य अमुक कामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजय मंत्रस्य अमुक संख्यापरिमितं जपमहंकरिष्ये वा कारयिष्ये।
॥ इति प्रात्यहिकसंकल्पः॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॐ गुरवे नमः।
ॐ गणपतये नमः। ॐ इष्टदेवतायै नमः।
इति नत्वा यथोक्तविधिना भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कुर्यात्‌।

भूतशुद्धिः विनियोगः
〰〰〰〰〰〰
ॐ तत्सदद्येत्यादि मम अमुक प्रयोगसिद्धयर्थ भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च करिष्ये। ॐ आधारशक्ति कमलासनायनमः। इत्यासनं सम्पूज्य। पृथ्वीति मंत्रस्य। मेरुपृष्ठ ऋषि;, सुतलं छंदः कूर्मो देवता, आसने विनियोगः।

आसनः
〰〰〰
ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय माँ देवि पवित्रं कुरु चासनम्‌।
गन्धपुष्पादिना पृथ्वीं सम्पूज्य कमलासने भूतशुद्धिं कुर्यात्‌।
अन्यत्र कामनाभेदेन। अन्यासनेऽपि कुर्यात्‌।
पादादिजानुपर्यंतं पृथ्वीस्थानं तच्चतुरस्त्रं पीतवर्ण ब्रह्मदैवतं वमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। जान्वादिना भिपर्यन्तमसत्स्थानं तच्चार्द्धचंद्राकारं शुक्लवर्ण पद्मलांछितं विष्णुदैवतं लमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌।
नाभ्यादिकंठपर्यन्तमग्निस्थानं त्रिकोणाकारं रक्तवर्ण स्वस्तिकलान्छितं रुद्रदैवतं रमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। कण्ठादि भूपर्यन्तं वायुस्थानं षट्कोणाकारं षड्बिंदुलान्छितं कृष्णवर्णमीश्वर दैवतं यमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। भूमध्यादिब्रह्मरन्ध्रपर्यन्त माकाशस्थानं वृत्ताकारं ध्वजलांछितं सदाशिवदैवतं हमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। एवं स्वशरीरे पंचमहाभूतानि ध्यात्वा प्रविलापनं कुर्यात्‌। यद्यथा-पृथ्वीमप्सु। अपोऽग्नौअग्निवायौ वायुमाकाशे। आकाशं तन्मात्राऽहंकारमहदात्मिकायाँ मातृकासंज्ञक शब्द ब्रह्मस्वरूपायो हृल्लेखार्द्धभूतायाँ प्रकृत्ति मायायाँ प्रविलापयामि, तथा त्रिवियाँ मायाँ च नित्यशुद्ध बुद्धमुक्तस्वभावे स्वात्मप्रकाश रूपसत्यज्ञानाँनन्तानन्दलक्षणे परकारणे परमार्थभूते परब्रह्मणि प्रविलापयामि।तच्च नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सच्चिदानन्दस्वरूपं परिपूर्ण ब्रह्मैवाहमस्मीति भावयेत्‌। एवं ध्यात्वा यथोक्तस्वरूपात्‌ ॐ कारात्मककात्‌ परब्रह्मणः सकाशात्‌ हृल्लेखार्द्धभूता सर्वमंत्रमयी मातृकासंज्ञिका शब्द ब्रह्मात्मिका महद्हंकारादिप-न्चतन्मात्रादिसमस्त प्रपंचकारणभूता प्रकृतिरूपा माया रज्जुसर्पवत्‌ विवर्त्तरूपेण प्रादुर्भूता इति ध्यात्वा। तस्या मायायाः सकाशात्‌ आकाशमुत्पन्नम्‌, आकाशाद्वासु;, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अदभ्यः पृथ्वी समजायत इति ध्यात्वा। तेभ्यः पंचमहाभूतेभ्यः सकाशात्‌ स्वशरीरं तेजः पुंजात्मकं पुरुषार्थसाधनदेवयोग्यमुत्पन्नमिति ध्यात्वा। तस्मिन्‌ देहे सर्वात्मकं सर्वज्ञं सर्वशक्तिसंयुक्त समस्तदेवतामयं सच्चिदानंदस्वरूपं ब्रह्मात्मरूपेणानुप्रविष्टमिति भावयेत्‌ ॥
॥ इति भूतशुद्धिः ॥

अथ प्राण-प्रतिष्ठा
〰〰〰〰〰
विनियोगःअस्य श्रीप्राणप्रतिष्ठामंत्रस्य ब्रह्माविष्णुरुद्रा ऋषयः ऋग्यजुः सामानि छन्दांसि, परा प्राणशक्तिर्देवता, ॐ बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, क्रौं कीलकं प्राण-प्रतिष्ठापने विनियोगः।

डं. कं खं गं घं नमो वाय्वग्निजलभूम्यात्मने हृदयाय नमः।
ञं चं छं जं झं शब्द स्पर्श रूपरसगन्धात्मने शिरसे स्वाहा।
णं टं ठं डं ढं श्रीत्रत्वड़ नयनजिह्वाघ्राणात्मने शिखायै वषट्।
नं तं थं धं दं वाक्पाणिपादपायूपस्थात्मने कवचाय हुम्‌।
मं पं फं भं बं वक्तव्यादानगमनविसर्गानन्दात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्।
शं यं रं लं हं षं क्षं सं बुद्धिमानाऽहंकार-चित्तात्मने अस्राय फट्।
एवं करन्यासं कृत्वा ततो नाभितः पादपर्यन्तम्‌ आँ नमः।
हृदयतो नाभिपर्यन्तं ह्रीं नमः।
मूर्द्धा द्विहृदयपर्यन्तं क्रौं नमः।
ततो हृदयकमले न्यसेत्‌।
यं त्वगात्मने नमः वायुकोणे।
रं रक्तात्मने नमः अग्निकोणे।
लं मांसात्मने नमः पूर्वे ।
वं मेदसात्मने नमः पश्चिमे ।
शं अस्थ्यात्मने नमः नैऋत्ये।
ओंषं शुक्रात्मने नमः उत्तरे।
सं प्राणात्मने नमः दक्षिणे।
हे जीवात्मने नमः मध्ये एवं हदयकमले।
अथ ध्यानम्‌रक्ताम्भास्थिपोतोल्लसदरुणसरोजाङ घ्रिरूढा कराब्जैः
पाशं कोदण्डमिक्षूदभवमथगुणमप्यड़ कुशं पंचबाणान्‌।
विभ्राणसृक्कपालं त्रिनयनलसिता पीनवक्षोरुहाढया
देवी बालार्कवणां भवतुशु भकरो प्राणशक्तिः परा नः ॥

॥ इति प्राण-प्रतिष्ठा ॥

संकल्प
〰〰〰
तत्र संध्योपासनादिनित्यकर्मानन्तरं भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कृत्वा प्रतिज्ञासंकल्प कुर्यात ॐ तत्सदद्येत्यादि सर्वमुच्चार्य मासोत्तमे मासे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रो अमुकशर्मा/वर्मा/गुप्ता मम शरीरे ज्वरादि-रोगनिवृत्तिपूर्वकमायुरारोग्यलाभार्थं वा धनपुत्रयश सौख्यादिकिकामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजयदेव प्रीमिकामनया यथासंख्यापरिमितं महामृत्युंजयजपमहं करिष्ये।

विनियोग
〰〰〰
अस्य श्री महामृत्युंजयमंत्रस्य वशिष्ठ ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः श्री त्र्यम्बकरुद्रो देवता, श्री बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, मम अनीष्ठसहूयिर्थे जपे विनियोगः।

अथ यष्यादिन्यासः
〰〰〰〰〰〰
ॐ वसिष्ठऋषये नमः शिरसि।
अनुष्ठुछन्दसे नमो मुखे।
श्री त्र्यम्बकरुद्र देवतायै नमो हृदि।
श्री बीजाय नमोगुह्ये।
ह्रीं शक्तये नमोः पादयोः।

॥ इति यष्यादिन्यासः ॥

अथ करन्यासः
〰〰〰〰
ॐ ह्रीं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्रायं शूलपाणये स्वाहा अंगुष्ठाभ्यं नमः।
ॐ ह्रीं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय तर्जनीभ्याँ नमः।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ओं नमो भगवते रुद्राय चन्द्रशिरसे जटिने स्वाहा मध्यामाभ्याँ वषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरान्तकाय हां ह्रीं अनामिकाभ्याँ हुम्‌।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्योर्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजुः साममन्त्राय कनिष्ठिकाभ्याँ वौषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृताम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्निवयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघारास्त्राय करतलकरपृष्ठाभ्याँ फट् ।

॥ इति करन्यासः ॥

अथांगन्यासः
〰〰〰〰
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमः।
ॐ ह्रौं ओं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय शिरसे स्वाहा।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय चंद्रशिरसे जटिने स्वाहा शिखायै वषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरांतकाय ह्रां ह्रां कवचाय हुम्‌।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्यार्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजु साममंत्रयाय नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृतात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्नित्रयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघोरास्त्राय फट्।
॥ इत्यंगन्यासः ॥

अथाक्षरन्यासः
〰〰〰〰
त्र्यं नमः दक्षिणचरणाग्रे।
बं नमः,
कं नमः,
यं नमः,
जां नमः दक्षिणचरणसन्धिचतुष्केषु ।
मं नमः वामचरणाग्रे ।
हें नमः,
सुं नमः,
गं नमः,
धिं नम, वामचरणसन्धिचतुष्केषु ।
पुं नमः, गुह्ये।
ष्टिं नमः, आधारे।
वं नमः, जठरे।
र्द्धं नमः, हृदये।
नं नमः, कण्ठे।
उं नमः, दक्षिणकराग्रे।
वां नमः,
रुं नमः,
कं नमः,
मिं नमः, दक्षिणकरसन्धिचतुष्केषु।
वं नमः, बामकराग्रे।
बं नमः,
धं नमः,
नां नमः,
मृं नमः वामकरसन्धिचतुष्केषु।
त्यों नमः, वदने।
मुं नमः, ओष्ठयोः।
क्षीं नमः, घ्राणयोः।
यं नमः, दृशोः।
माँ नमः श्रवणयोः ।
मृं नमः भ्रवोः ।
तां नमः, शिरसि।
॥ इत्यक्षरन्यास ॥

अथ पदन्यासः
〰〰〰〰
त्र्यम्बकं शरसि।
यजामहे भ्रुवोः।
सुगन्धिं दृशोः ।
पुष्टिवर्धनं मुखे।
उर्वारुकं कण्ठे।
मिव हृदये।
बन्धनात्‌ उदरे।
मृत्योः गुह्ये ।
मुक्षय उर्वों: ।
माँ जान्वोः ।
अमृतात्‌ पादयोः।
॥ इति पदन्यास ॥

मृत्युञ्जयध्यानम्‌
〰〰〰〰〰
हस्ताभ्याँ कलशद्वयामृतसैराप्लावयन्तं शिरो,
द्वाभ्याँ तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्याँ वहन्तं परम्‌ ।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकांतं शिवं,
स्वच्छाम्भोगतं नवेन्दुमुकुटाभातं त्रिनेत्रभजे ॥
मृत्युंजय महादेव त्राहि माँ शरणागतम्‌,
जन्ममृत्युजरारोगैः पीड़ित कर्मबन्धनैः ॥
तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्वच्चित्तोऽहं सदा मृड,
इति विज्ञाप्य देवेशं जपेन्मृत्युंजय मनुम्‌ ॥

अथ बृहन्मन्त्रः
〰〰〰〰
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूः भुवः स्वः। त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्‌। उर्व्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्‌। स्वः भुवः भू ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥

समर्पण
〰〰〰
एतद यथासंख्यं जपित्वा पुनर्न्यासं कृत्वा जपं भगन्महामृत्युंजयदेवताय समर्पयेत।
गुह्यातिगुह्यगोपता त्व गृहाणास्मत्कृतं जपम्‌।
सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादान्महेश्वर ॥

॥ इति महामृत्युंजय जप विधि ।।
〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰
[महाभारत में श्रीकृष्ण ने बताया कि भगवान उसी का साथ देते हैं जो जप-तप के अलावा ये तीन काम भी करते हैं!!!!!!!

महाभारत के अश्वमेधिक पर्व में युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से धर्म और कर्म को लेकर कुछ बातें पूछी हैं। इस पर श्रीकृष्ण ने जवाब भी दिए हैं। भगवान कृष्ण ने एक श्लोक के अनुसार बताया है। जो मनुष्य ये 4 आसान काम करता है, भगवान हमेश ऐसे इंसान का साथ देते हैं। श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो मनुष्य अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है और हमेशा धर्म के रास्ते पर चलता है, ऐसे लोगों से भगवान भी खुश रहते हैं। श्रीकृष्ण ने ऐसे 4 काम बताए हैं जिनसे भगवान भी खुश होते हैं।

इन चार कामों में एक है तपस्या। तप के अलावा 3 काम और हैं जो हर इंसान को करने चाहिए। ऐसे मनुष्य के जाने-अनजाने में किए गए पाप माफ हो जाते हैं। इसलिए, हर किसी को इन 4 कामों को जरूर करना चाहिए।

महाभारत का श्लोक!!!!
दानेन तपसा चैव सत्येन च दमेन च।
ये धर्ममनुवर्तन्ते ते नराः स्वर्गामिनः।।

  1. दान : – दान करना हिंदू धर्म में बहुत ही पुण्य का काम माना जाता है। कई ग्रथों में दान करने के महत्व के बारे में बताया गया है। श्रीमद्भागवत के अनुसार, जो मनुष्य जरूरतमदों को नियमित रूप से दान करता है, उसे पुण्य की प्राप्ति होती है। मनुष्य को कभी भी अपने दान का हिसाब-किताब नहीं करना चाहिए। दान गुप्त तरीके से करना चाहिए, उसका दिखावा नहीं करना चाहिए। जो भी दान से संबंधी इन बातों का ध्यान रखता है, उसके सभी पाप कर्म मिट जाते है और उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
  2. तपस्या या जप : – तप और भगवान का ध्यान करना हर किसी के लिए जरूरी माना जाता है। कई लोग अपने व्यस्त जीवन के चलते भगवान का ध्यान नहीं करते। ऐसे मनुष्य पर देवी-देवता हमेशा रूठे रहते हैं। रोज दिन में थोड़ा समय भगवान के तप और ध्यान आदि को देने से मनुष्य की सारी परेशानियां अपनेआप खत्म होने लगती हैं और उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
  3. मन को वश में रखना : – मनुष्य का मन बहुत ही चंचल होता है। वह हर समय इधर-उधर भटकता रहता है। जिस मनुष्य का मन वश में नहीं रहता, वह बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षाओं वाला होता हैं। ऐसा मनुष्य अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए कोई भी गलत काम कर सकता है और उसे अपने पाप कर्मों की वजह से नर्क जाना पड़ता है। इसलिए, स्वर्ग की इच्छा रखने वालों को अपने मन को वश में रखना बहुत ही जरूरी है।
  4. हमेशा सच बोलना : – सच बोलना मनुष्य के सबसे खास गुणों में से एक माना जाता है। जिस मनुष्य में सच बोलने का गुण होता है, उसे जीवन में हर जगह सफलता मिलती है। झूठ बोलने वाले या झूठ का साथ देने वाले मनुष्य पाप का भागी माना जाता है और उसे नर्क में यातनाएं झेलनी पड़ती हैं। इसलिए, हर किसी को सच बोलने और हर परिस्थिति में सच का ही साथ देने का गुण अपनाना चाहिए।

Recommended Articles

Leave A Comment