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कुंडली मे कमजोर बुध से उत्पन्न परेशानियां एवं निवारण
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बुध आपकी जुबान, बर्ताव, आपके दिमाग और आपकी खूबसूरती का कारक ग्रह है. कुंडली में बुध की स्थति तय करती है कि आप कैसा बोलते हैं, कैसा व्यवहार करते हैं, आपका व्यक्तित्व और बुद्धि कैसी है.

बुध का महत्व और विशेषताएं
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बुध को ग्रहों में सबसे सुकुमार और सुन्दर ग्रह माना जाता है। ज्योतिष में बुध को युवराज ग्रह भी कहते हैं। कन्या और मिथुन राशी का स्वामी बुध है और इसका तत्व पृथ्वी है। बुद्धि, एकाग्रता, वाणी, त्वचा, सौंदर्य और सुगंध का कारक होता बुध है। कान, नाक, गले और संचार से भी बुध का संबंध है। बुध बुद्धि तेज करता है। गणितीय और आर्थिक मामलों में कामयाबी दिलाता है।

बुध से बुद्धि, वाणी और एकाग्रता की समस्या
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आपको लगता है कि आपकी सोचने और समझने की शक्ति कमजोर है. कोई भी फैसला लेने में आपको वक्त लगता है और आपका ध्यान भी बार-बार भटकता है तो हो सकता है कि आपका बुध कमजोर हो।

बुध कमजोर हो तो इंसान अपनी बुद्धि का सही प्रयोग नहीं कर पाता।

ऐसे इंसान को कोई भी चीज देर से समझ आती है और वह अक्सर दुविधा में ही रहता है।

बुध कमजोर हो तो इंसान ठीक से बोल नहीं पाता, कभी कभी हकलाहट भी होती है।

बुध से बुद्धि, वाणी और एकाग्रता की समस्याओं के उपाय
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रोज सुबह तुलसी के पत्तों का सेवन करें। इसके बाद 108 बार ‘ॐ ऐं सरस्वतयै नमः’ का जाप करें।
हर बुधवार को गणेश जी को दूर्वा चढ़ाएं और इस दूर्वा को अपने पास रखें।

बुध के कारण त्वचा की समस्या
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कमजोर बुध कभी-कभी त्वचा से जुड़ी समस्याएं भी देता है.
कमजोर बुद्ध से एलर्जी, दाने और खुजली की समस्या होती है। सूर्य का प्रभाव हो तो त्वचा पर दाग-धब्बे पड़ जाते हैं। मंगल का भी प्रभाव हो तो त्वचा झुलस सी जाती है। राहु का योग हो तो विचित्र तरह की त्वचा की समस्या होती है।

बुध के कारण त्वचा की समस्या के उपाय
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रोज सुबह सूर्य को जल चढ़ाएं. ज्यादा से ज्यादा हरी सब्जियों और सलाद का सेवन करें।

प्रभावित जगह पर नारियल का तेल लगाएं।

अगर त्वचा की समस्या ज्यादा हो तो एक ओनेक्स पहनें।

बुध से कान, नाक और गले की समस्या
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बुध बहुत कमजोर हो तो सुनने और बोलने में दिक्कत होती है। कभी-कभी गला खराब हो जाता है और लगातार खराब ही रहता है।

सर्दी-जुकाम की समस्या हो सकती है, किसी खास तरह की गंध से एलर्जी होती है।

बुध से कान, नाक और गले की समस्या के उपाय
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रोज सुबह गायत्री मंत्र का जाप करें या मन में दोहराएं।
चांदी के चौकोर टुकड़े पर “ऐं” लिखवाकर गले में पहनें।
ज्यादा से ज्यादा हरे कपड़े पहनें।
रोज सुबह स्नान के बाद पीला चन्दन माथे, कंठ और सीने पर लगाएं।

कमजोर बुध से गणित से जुड़े विषयों की समस्या
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कई बार पढ़ाई-लिखाई में कड़ी मेहनत करने के बावजूद कुछ लोग गणित और इससे जुड़े विषयों में कमजोर ही रह जाते हैं. ज्योतिष के जानकारों की मानें तो इसका कारण कमजोर बुध हो सकता है।

बुध कमजोर हो तो गणित या गणित से जुड़े विषयों में समस्या होती है। गणित से मिलते जुलते विषय जैसे – अकाउंट्स, इकोनॉमिक्स या सांख्यिकी में भी दिक्कत होती है।
इंसान को बार-बार इन विषयों में नाकामी का सामना करना पड़ता है।

कमजोर बुध के चलते गणित से जुड़ी समस्याओं के उपाय
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अपनी इच्छा से ही गणित से जुड़े विषय चुनें, जबरदस्ती नहीं।
रोज सुबह और शाम “ॐ बुं बुधाय नमः” मंत्र का जाप करें। अपने पढ़ने की जगह पर कोई हरे रंग की देव प्रतिमा लगाएं। एवं खाने में थोड़ी सी हरी मिर्च का प्रयोग जरूर

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मंगल को भूमि का और चतुर्थ भाव का कारक माना जाता है, इसलिए अपना मकान बनाने के लिए मंगल की स्थिति कुंडली में शुभ तथा बली होनी चाहिए.
स्वयं की भूमि अथवा मकान बनाने के लिए चतुर्थ भाव का बली होना आवश्यक होता है, तभी व्यक्ति घर बना पाता है.
मंगल का संबंध जब जन्म कुंडली में चतुर्थ भाव से बनता है तब व्यक्ति अपने जीवन में कभी ना कभी खुद की प्रॉपर्टी अवश्य बनाता है.
मंगल यदि अकेला चतुर्थ भाव में स्थित हो तब अपनी प्रॉपर्टी होते हुए भी व्यक्ति को उससे कलह ही प्राप्त होते हैं अथवा प्रॉपर्टी को लेकर कोई ना कोई विवाद बना रहता है.
मंगल को भूमि तो शनि को निर्माण माना गया है. इसलिए जब भी दशा/अन्तर्दशा में मंगल व शनि का संबंध चतुर्थ/चतुर्थेश से बनता है और कुंडली में मकान बनने के योग मौजूद होते हैं तब व्यक्ति अपना घर बनाता है.

चतुर्थ भाव/चतुर्थेश पर शुभ ग्रहों का प्रभाव घर का सुख देता है.

चतुर्थ भाव/चतुर्थेश पर पाप व अशुभ ग्रहो का प्रभाव घर के सुख में कमी देता है और व्यक्ति अपना घर नही बना पाता है.

चतुर्थ भाव का संबंध एकादश से बनने पर व्यक्ति के एक से अधिक मकान हो सकते हैं. एकादशेश यदि चतुर्थ में स्थित हो तो इस भाव की वृद्धि करता है और एक से अधिक मकान होते हैं.

यदि चतुर्थेश, एकादश भाव में स्थित हो तब व्यक्ति की आजीविका का संबंध भूमि से बनता है.

कुंडली में यदि चतुर्थ का संबंध अष्टम से बन रहा हो तब संपत्ति मिलने में अड़चने हो सकती हैं.

जन्म कुंडली में यदि बृहस्पति का संबंध अष्टम भाव से बन रहा हो तब पैतृक संपत्ति मिलने के योग बनते हैं.

चतुर्थ, अष्टम व एकादश का संबंध बनने पर व्यक्ति जीवन में अपनी संपत्ति अवश्य बनाता है और हो सकता है कि वह अपने मित्रों के सहयोग से मकान बनाएं.

चतुर्थ का संबंध बारहवें से बन रहा हो तब व्यक्ति घर से दूर जाकर अपना मकान बना सकता है या विदेश में अपना घर बना सकता है.

जो योग जन्म कुंडली में दिखते हैं वही योग बली अवस्था में नवांश में भी मौजूद होने चाहिए.

भूमि से संबंधित सभी योग चतुर्थांश कुंडली में भी मिलने आवश्यक हैं.

चतुर्थांश कुंडली का लग्न/लग्नेश, चतुर्थ भाव/चतुर्थेश व मंगल की स्थिति का आंकलन करना चाहिए. यदि यह सब बली हैं तब व्यक्ति मकान बनाने में सफल रहता है.

मकान अथवा भूमि से संबंधित सभी योगो का आंकलन जन्म कुंडली, नवांश कुंडली व चतुर्थांश कुंडली में भी देखा जाता है. यदि तीनों में ही बली योग हैं तब बिना किसी के रुकावटों के घर बन जाता है. जितने बली योग होगें उतना अच्छा घर और योग जितने कमजोर होते जाएंगे, घर बनाने में उतनी ही अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है.

जन्म कुंडली में यदि चतुर्थ भाव पर अशुभ शनि का प्रभाव आ रहा हो तब व्यक्ति घर के सुख से वंचित रह सकता है. उसका अपना घर होते भी उसमें नही रह पाएगा अथवा जीवन में एक स्थान पर टिक कर नही रह पाएगा. बहुत ज्यादा घर बदल सकता है.

चतुर्थ भाव का संबंध छठे भाव से बन रहा हो तब व्यक्ति को जमीन से संबंधित कोर्ट-केस आदि का सामना भी करना पड़ सकता है.
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उच्च ग्रह, नीच ग्रह , अस्त ग्रह।

भारतीय ज्योतिष में 9 ग्रह बताए गए हैं। इसमें 2 छाया ग्रह हैं। सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि ग्रह हैं जो आकाशीय मंडल में दृष्टमान हैं। राहु-केतु छाया ग्रह हैं, जो ग्रह नहीं हैं क्योंकि ये आकाशीय मंडल में दिखाई नहीं देते हैं। सूर्य ग्रहों के राजा हैं तो मंगल सेनापति , शनि न्यायाधीश हैं. शुक्र दानवों और बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं। ये सभी ग्रह कभी उच्च-नीच नही होते , केवल ग्रहों की युतियों के कारण शुभ -अशुभ फल प्रदान करते हैं। हर ग्रह अपनी उच्‍च राशि में तीव्रता से परिणाम देता है और नीच राशि में मंदता के साथ। अगर वह ग्रह आपकी कुण्‍डली में अकारक है तो कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह उच्‍च का है या नीच का।

उच्च ग्रह

नवग्रहों में से प्रत्येक ग्रह को किसी एक राशि विशेष में स्थित होने से अतिरिक्त बल प्राप्त होता है जिसे इस ग्रह की उच्च की राशि कहा जाता है।

नीच ग्रह

इसी तरह अपनी उच्च की राशि से ठीक सातवीं राशि में स्थित होने पर प्रत्येक ग्रह के बल में कमी आ जाती है तथा इस राशि को इस ग्रह की नीच की राशि कहा जाता है। ग्रह कोई भी हो नीच नही होता बस उनका फल शुभ -अशुभ होता है। नीच ग्रह से मतलब शब्द के अर्थ में नहीं होता अपितु उस ग्रह में ताकत कम होती है और वो ग्रह कमजोर होता है। उच्च और नीच ग्रह दो ग्रहों की युतियां होने पर भिन्न भिन्न तत्व की प्रधानता होने से उनके फल शुभ अथवा अशुभ हो जाते हैं। जब दो ग्रहों की युति हो जाती है और दोनों ग्रहो में विपरीत तत्वों की प्रधानता हो तो उसे नीच कहा जाता है।

इस सम्पूर्ण चराचर जगत में दो तत्वों की प्रधानता है -पहला अग्नि और दूसरा वायु। यदि इन दोनों तत्वों के ग्रह एक ही घर या भाव में उपस्थित हो जाते हैं तो वे नीच ग्रह के और जब समान तत्व वाले ग्रह एक ही घर या भाव में आ जाये तो वे उच्च ग्रह के कहलाते हैं। जो ग्रह जिस राशि में उच्च का होगा , उससे सातवीं राशि मे जाकर वह नीच का हो जायेगा।

सूर्य मेष में उच्च, तुला में नीच का होता है। चंद्रमा वृषभ में उच्च, वृश्चिक में नीच, मंगल मकर में उच्च, कर्क में नीच, बुध कन्या में उच्च, मीन में नीच का होता है। गुरु कर्क में उच्च, मकर में नीच, शनि तुला में उच्च, मेष में नीच का होता है। राहु मिथुन मतांतर से, वृषभ में उच्च का धनु मतांतर से वृश्चिक में नीच का होता है। केतु धनु मतांतर से वृश्चिक में उच्च का, मिथुन मतांतर से वृषभ में नीच का होता है।

उच्च राशि में स्थित ग्रह द्वारा सदा शुभ फल देने और अपनी नीच राशि में स्थित ग्रह सदा नीच फल देने की बात प्रचलित है। किंतु यह बात सत्य न होकर एक झूठ से अधिक कुछ नहीं है। ये बात वास्तविकता से बहुत परे है। उच्च या नीच की राशि में ग्रह के होने का संबंध उसके स्वाभाव से ना होकर उसके बल से होता है अर्थार्त वो बलवान है या बलहीन। उसके शुभ या अशुभ होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

कभी-कभी उच्च और नीच ग्रह अपने शाब्दिक अर्थ या स्वभाव से परे प्रभाव देने लगते हैं। बहुत सी कुंडलियों में उच्च राशि में स्थित ग्रह बहुत अशुभ फल दे रहा होता है और अशुभ होने की स्थिति में अधिक बलवान होने के कारण सामान्य से बहुत अधिक हानि करता है। बहुत सी कुंडलियों में नीच राशि में स्थित ग्रह स्वभाव से शुभ फल दे रहा होता है और बलहीन होने के कारण शुभ फलों में कुछ न कुछ कमी रह जाती है। कुंडली में नीच ग्रह के प्रभाव को कम करने के लिए राशि में स्थित शुभ फलदायी ग्रहों के रत्न धारण करने से बहुत लाभ होता है। राशि में शामिल ग्रहों के रत्न धारण करने से अतिरिक्त बल से अधिक बलवान होकर ग्रह अपने शुभ फलों में वृद्धि करने में सक्षम हो जाते हैं।

सभी ग्रहों की अपनी उच्च व नीच राशियां हैं और ग्रहों की अपनी मूलत्रिकोण राशि भी होती है। किसी भी ग्रह की सबसे उत्तम स्थिति उसका अपनी उच्च राशि में होना माना गया है। उसके बाद मूलत्रिकोण राशि में होना उच्च राशि से कुछ कम प्रभाव देता है। यदि ग्रह स्वराशि का है तब मूल त्रिकोण से कुछ कम प्रभावी होगा लेकिन ग्रह की स्थिति तब भी शुभ ही मानी जाती है।

अस्त ग्रह

जन्म कुंडली का अध्ययन बिना अस्त ग्रहों के अध्ययन के बिना अधूरा है और कुंडली धारक के विषय में की गई कई भविष्यवाणियां गलत हो सकती हैं। जन्म कुंडली में अस्त ग्रहों का अपना एक विशेष महत्व होता है। आकाश मंडल में कोई भी ग्रह जब सूर्य से एक निश्चित दूरी के अंदर आ जाता है तो सूर्य के तेज से वह ग्रह अपनी आभा तथा शक्ति खोने लगता है जिसके कारण वह आकाश मंडल में दिखाई देना बंद हो जाता है तथा इस ग्रह को अस्त ग्रह का नाम दिया जाता है। किसी भी ग्रह के अस्त हो जाने की स्थिति में उसके बल में कमी आ जाती है तथा वह किसी कुंडली में सुचारू रुप से कार्य करने में सक्षम नहीं रह जाता। किसी भी अस्त ग्रह की बलहीनता का सही अनुमान लगाने के लिए उस ग्रह का किसी कुंडली में स्थिति के कारण बल, सूर्य का उसी कुंडली विशेष में बल तथा अस्त ग्रह की सूर्य से दूरी देखना आवश्यक होता है।

जिस मापदंड से हर ग्रह की सूर्य से समीपता नापी जाती है वो डिग्रियों में मापी जाती है। इस मापदंड के अनुसार हर ग्रह सूर्य से निश्चित दूरी पर आते ही अस्त हो जाता है। आइये जाने सूर्य से कब-कब अस्त होते हैं ग्रह:

• चन्द्रमा सूर्य के दोनों ओर 12 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।
• मंगल सूर्य के दोनों ओर 17अंश या इससे अधिक निकट आने पर अस्त कहलाता है।
• बुध सूर्य के दोनों ओर 14 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं। किन्तु यदि बुध अपनी सामान्य गति की बनिस्पत वक्र गति से चल रहे हों तो वह सूर्य के दोनों ओर 12 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।
• गुरू सूर्य के दोनों ओर 11 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।
• शुक्र सूर्य के दोनों ओर 10 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं। किन्तु यदि शुक्र अपनी सामान्य गति की बनिस्पत वक्र गति से चल रहे हों तो वह सूर्य के दोनों ओर 8 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।
• शनि सूर्य के दोनों ओर 15 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।
• राहु-केतु छाया ग्रह होने के कारण कभी भी अस्त नहीं होते।

अस्त ग्रहो का फल।
चन्द्र ग्रह- जब चंद्रमा अस्त होता है, तो तो व्यक्ति के जीवन में अशांति बनी रहती है। मां से संबंध खराब हो जाते हैं, मां का स्वास्थ ठीक नहीं रहता। यहि अस्त चन्द्रा अष्टम भाव या अष्टमेश के साथ हो, तो व्यक्ति को काफी मानसिक त्रास होता है। एनीमिया, फेफड़ों के रोग, मानसिक तनाव, डिप्रेशन और अस्थमा जैसे रोग हो सकते हैं।
मंगल ग्रह- मंगल साहस और पराक्रम का कारक है। इसके अस्त होने पर साहस में कमी, क्रोध में वृद्धि, छोटे भाईयों से तनाव, भूमि विवाद, नसों में दर्द, दुर्घटना, कोर्ट कचेहरी के चक्कर, पत्नी को शारीरिक कष्ट जैसी परेशानियां होती हैं। यदि मंगल छठवें भाव में पापी ग्रहों से साथ हो या दृष्टि संबंध बना रहा हो तो दुर्घटना और बीमारियों की आशंका होती है। छठे भाव से मंगल का संबंध व्यक्ति को कर्ज में डाल देता है। 12वें भाव में अस्त मंगल व्यक्ति को नशे का लती बना देता है।
बुध ग्रह- व्यापार और वाणी का कारक बुध यदि अस्त हो, तो बुद्धि सही से काम नहीं करती। वाणी खराब हो जाती है। जातक में विश्वास की कमी, शरीर में ऐंठन, श्वास, चर्म रोग और गले आदि के रोग हो जाते है। 12वें भाव के स्वामी के साथ अस्त बुध संबंध बनाने पर नशे का लती बना देता है।
गुरु ग्रह- देवगुरु बृहस्पति वैसे तो शुभ ग्रह हैं। मगर, इनके अस्त हो जाने पर गुरु से मिलने वाले शुभ प्रभाव कम हो जाते हैं। गुरू के अस्त होने से सन्तान उत्पन्न में बाधा आती है, बुर्जुगों को कष्ट होगा, शिक्षा में रुकावटें आती हैं और व्यक्ति नास्तिक हो जाता है। बृहस्पति की अन्तर्दशा में अस्त गुरु लीवर का रोग, टाइफाइड ज्वर, मधुमेह, साइनस की समस्या, कोर्ट कचेहरी, शिक्षकों से मतभेद, पढ़ाई में अरुचि जैसी समस्या देता है।
शुक्र ग्रह- भोग-विलास और ऐश्वर्य का कारक शुक्र अस्त होने पर विवाह में समस्या, महिलाओं को गर्भाशय के रोग, नेत्र रोग, किडनी रोग, गुप्त रोग देता है। यह चरित्र को बुरी तरह प्रभावित करता है। राहु-केतु से संबंध होने पर मान-सम्मान कम कर देता है। अस्त शुक्र छठवें भाव के स्वामी के साथ संबंध बनाए, तो किडनी, मू़त्राशय व यौन अंगों के विकार देता है।
शनि ग्रह- न्याय के देवता माने जाने वाले शनि कर्म प्रधान ग्रह हैं। इनके अस्त होने पर नौकरी या व्यापार में परेशानी, वरिष्ठ अधिकारियों से अनबन, सामाजिक प्रतिष्ठा में कमी, नशीले पदार्थों की लत लग जाती है। कमर दर्द, पैरों में दर्द, स्नायु तंत्र के रोग हो जाते हैं। अस्त शनि अगर का छठवें भाव के स्वामी के साथ संबंध रीढ़ की हड्डी में दर्द देता है।

अस्त ग्रह का प्रभाव कैसे कम करे :

अस्त ग्रहों को सुचारू रूप से चलने के लिए अतिरिक्त बल की आवश्यकता होती है तथा कुंडली में किसी अस्त ग्रह का स्वभाव देखने के बाद ही यह निर्णय किया जाता है कि उस अस्त ग्रह को अतिरिक्त बल कैसे प्रदान किया जा सकता है।

• यदि किसी कुंडली में कोई ग्रह अस्त है और स्वभाव से उसका फल शुभ है तो उसे अतिरिक्त बल प्रदान करना चाहिए। अतिरिक्त बल देने का सबसे आसान तथा प्रभावशाली उपाय है रत्न धारण करना। कुंडली धारक को उस ग्रह विशेष का रत्न धारण करवा देने से ग्रह को अतिरिक्त बल मिल जाता है।

• यदि किसी कुंडली में कोई ग्रह अस्त है और स्वभाव से उसका फल अशुभ है तो उसे अतिरिक्त बल प्रदान करना चाहिए। बल देने के लिए रत्न का प्रयोग सर्वथा वर्जित है भले ही वह ग्रह कितना भी बलहीन हो। अतिरिक्त बल देने का सबसे आसान तथा प्रभावशाली उपाय है उस ग्रह का मंत्र जपना-बीज मंत्र अथवा वेद मंत्र । उस ग्रह के मंत्र का निरंतर जाप करने से या उस ग्रह के मंत्र से पूजा करवाने से ग्रह को अतिरिक्त बल तो मिलता है और साथ ही साथ उसके स्वभाव में भी परिवर्तन आता है। उसका स्वभाव अशुभ से शुभ फल हो जाता है।

वक्री ग्रह

वक्री ग्रहों को लेकर कई धारणायें है लेकिन लगभग हर दूसरे व्यक्ति की जन्म कुंडली में एक या इससे अधिक वक्री ग्रह पाये जाते हैं। समस्त ग्रह घड़ी की सुई की विपरीत दशा में सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं, किन्तु कभी-कभी देखने पर इनकी गति विपरीत दिशा में अर्थात पश्चिम से पूर्व प्रतीत होती है जिसे ग्रह की वक्री अवस्था कहते हैं | कोई भी ग्रह विशेष जब अपनी सामान्य दिशा की बजाए उल्टी दिशा यानि विपरीत दिशा में चलना शुरू कर देता है तो ऐसे ग्रह की इस गति को वक्र गति कहा जाता है तथा वक्र गति से चलने वाले ऐसे ग्रह विशेष को वक्री ग्रह कहा जाता है। इस वक्री अवस्था के कारण ही ग्रहों का परिभ्रमण पथ (कक्षा) पूर्णरुपेण वृत्ताकार न होकर अंडाकार होता है जिसके कारण इनकी पृथ्वी से दूरी परिवर्तित होती रहती है |

उदाहरण के लिए शनि यदि अपनी सामान्य गति से कन्या राशि में भ्रमण कर रहे हैं तो इसका अर्थ यह होता है कि शनि कन्या से तुला राशि की तरफ जा रहे हैं, किन्तु वक्री होने की स्थिति में शनि उल्टी दिशा में चलना शुरू कर देते हैं अर्थात शनि कन्या से तुला राशि की ओर न चलते हुए कन्या राशि से सिंह राशि की ओर चलना शुरू कर देते हैं और जैसे ही शनि का वक्र दिशा में चलने का यह समय काल समाप्त हो जाता है, वे पुन: अपनी सामान्य गति और दिशा में कन्या राशि से तुला राशि की तरफ चलना शुरू कर देते हैं। वक्र दिशा में चलने वाले अर्थात वक्री होने वाले बाकी के सभी ग्रह भी इसी तरह का व्यवहार करते हैं।

वक्री ग्रहों के प्रभाव

वक्री ग्रहों के प्रभाव बिल्कुल सामान्य गति से चलने वाले ग्रहों की तरह ही होते हैं तथा उनमें कुछ भी अंतर नहीं आता। नवग्रहों में सूर्य तथा चन्द्र सदा सामान्य दिशा में ही चलते हैं तथा यह दोनों ग्रह कभी भी वक्री नहीं होते। इनके अतिरिक्त राहु-केतु सदा उल्टी दिशा में ही चलते हैं अर्थात हमेशा ही वक्री रहते हैं। इसलिए सूर्य-चन्द्र तथा राहु-केतु के फल तथा व्यवहार सदा सामान्य ही रहते हैं तथा इनमें कोई अंतर नहीं आता।

हर ग्रह सामान्य से उल्टी दिशा में भ्रमण करने में सक्षम नहीं होता इसलिए केवल सामान्य दिशा में ही भ्रमण करता है। अधिकतर मामलों में किसी ग्रह के वक्री होने से कुंडली में उसके शुभ या अशुभ होने की स्थिति में कोई फर्क नही पड़ता अर्थात सामान्य स्थिति में किसी कुंडली में शुभ फल प्रदान करने वाला ग्रह वक्री होने की स्थिति में भी शुभ फल ही प्रदान करेगा तथा सामान्य स्थिति में किसी कुंडली में अशुभ फल प्रदान करने वाला ग्रह वक्री होने की स्थिति में भी अशुभ फल ही प्रदान करेगा। अधिकतर मामलों में ग्रह के वक्री होने की स्थिति में उसके स्वभाव में कोई फर्क नहीं आता किन्तु उसके व्यवहार में कुछ बदलाव अवश्य आ जाते हैं।

वक्री ग्रह को लेकर विभिन्न धारणाएं

• वक्री ग्रह उल्टी दिशा में चलने के कारण किसी भी कुंडली में सदा अशुभ फल ही प्रदान करते हैं।
• वक्री ग्रह किसी कुंडली विशेष में स्वभाव से विपरीत आचरण करते हैं। किसी कुंडली में सामान्य रूप से शुभ फल देने वाला ग्रह वक्री होने की स्थिति में अशुभ फल देना शुरू कर देता है या फिर अगर किसी कुंडली में सामान्य रूप से अशुभ फल देने वाला वक्री होने की स्थिति में शुभ फल देना शुरू कर देता है। वक्री ग्रह उल्टी दिशा में चलने के कारन कुंडली में शुभ या अशुभ का प्रभाव भी उल्टा कर देता है।
• अगर कोई ग्रह अपनी उच्च की राशि में स्थित होने पर वक्री हो जाता है तो उसके फल अशुभ हो जाते हैं तथा यदि कोई ग्रह अपनी नीच की राशि में वक्री हो जाता है तो उसके फल शुभ हो जाते हैं।
• प्रत्येक ग्रह केवल सामान्य दिशा में ही भ्रमण करता है तथा कोई भी ग्रह सामान्य से उल्टी दिशा में भ्रमण करने में सक्षम नहीं होता इसलिए वक्री ग्रहों के प्रभाव बिल्कुल सामान्य गति से चलने वाले ग्रहों की तरह ही होते हैं तथा उनमें कुछ भी अंतर नहीं आता।
उच्च सफलता के योग-

  1. जन्म-कुंडली में दशम स्थान
    जन्म-कुंडली में दशम स्थानको (दसवां स्थान) को तथा छठे भाव को जॉब आदि के लिए जाना जाता है। सरकारी नौकरी के योग को देखने के लिए इसी घर का आकलन किया जाता है। दशम स्थान में अगर सूर्य, मंगल या ब्रहस्पति की दृष्टि पड़ रही होती है साथ ही उनका सम्बन्ध छठे भाव से हो तो सरकारी नौकरी का प्रबल योग बन जाता है। कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि जातक की कुंडली में दशम में तो यह ग्रह होते हैं लेकिन फिर भी जातक को संघर्ष करना पड़ रहा होता है तो ऐसे में अगर सूर्य, मंगल या ब्रहस्पति पर किसी पाप ग्रह (अशुभ ग्रह) की दृष्टि पड़ रही होती है तब जातक को सरकारी नौकरी प्राप्ति में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। अतः यह जरूरी है कि आपके यह ग्रह पाप ग्रहों से बचे हुए रहें।
  2. जन्म कुंडली में जातक का लग्न
    जन्म कुंडली में यदि जातक का लग्न मेष, मिथुन, सिंह, वृश्चिक, वृष या तुला है तो ऐसे में शनि ग्रह और गुरु (वृहस्पति) का एक-दूसरे से केंद्र या त्रिकोण में होना, सरकारी नौकरी के लिए अच्छा योग उत्पन्न करते हैं।
  3. जन्म कुंडली में यदि केंद्र में अगर चन्द्रमा, ब्रहस्पति एक साथ होते हैं तो उस स्थिति में भी सरकारी नौकरी के लिए अच्छे योग बन जाते हैं। साथ ही साथ इसी तरह चन्द्रमा और मंगल भी अगर केन्द्रस्थ हैं तो सरकारी नौकरी की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
  4. कुंडली में दसवें घर के बलवान होने से तथा इस घर पर एक या एक से अधिक शुभ ग्रहों का प्रभाव होने से जातक को अपने करियर क्षेत्र में बड़ी सफलताएं मिलतीं हैं तथा इस घर पर एक या एक से अधिक बुरे ग्रहों का प्रभाव होने से कुंडली धारक को आम तौर पर अपने करियर क्षेत्र में अधिक सफलता नहीं मिल पाती है।
  5. ज्योतिष शास्त्र में सूर्य तथा चंद्र को राजा या प्रशासन से सम्बंध रखने वाले ग्रह के रूप में जाना जाता है। सूर्य या चंद्र का लग्न, धन, चतुर्थ तथा कर्म से सम्बंध या इनके मालिक के साथ सम्बंध सरकारी नौकरी की स्थिति दर्शाता है। सूर्य का प्रभाव चंद्र की अपेक्षा अधिक होता है।
  6. लग्न पर बैठे किसी ग्रह का प्रभाव व्यक्ति के जीवन में सबसे अधिक प्रभाव रखने वाला माना जाता है। लग्न पर यदि सूर्य या चंद्र स्थित हो तो व्यक्ति शाषण से जुडता है और अत्यधिक नाम कमाने वाला होता है।
  7. चंद्र का दशम भाव पर दृष्टी या दशमेश के साथ युति सरकारी क्षेत्र में सफलता दर्शाता है। यधपि चंद्र चंचल तथा अस्थिर ग्रह है जिस कारण जातक को नौकरी मिलने में थोडी परेशानी आती है। ऐसे जातक नौकरी मिलने के बाद स्थान परिवर्तन या बदलाव के दौर से बार बार गुजरते है।
  8. सूर्य धन स्थान पर स्थित हो तथा दशमेश को देखे तो व्यक्ति को सरकारी क्षेत्र में नौकरी मिलने के योग बनते है। ऐसे जातक खुफिया ऐजेंसी या गुप चुप तरीके से कार्य करने वाले होते है।
  9. सूर्य तथा चंद्र की स्थिति दशमांश कुंडली के लग्न या दशम स्थान पर होने से व्यक्ति राज कार्यो में व्यस्त रहता है ऐसे जातको को बडा औहदा प्राप्त होता है।
  10. यदि ग्रह अत्यधिक बली हो तब भी वें अपने क्षेत्र से सम्बन्धित सरकारी नौकरी दे सकते है। मंगल सैनिक, या उच्च अधिकारी, बुध बैंक या इंश्योरेंस, गुरु- शिक्षा सम्बंधी, शुक्र फाइनेंश सम्बंधी तो शनि अनेक विभागो में जोडने वाला प्रभाव रखता है।
  11. सूर्य चंद्र का चतुर्थ प्रभाव जातक को सरकारी क्षेत्र में नौकरी प्रदान करता है। इस स्थान पर बैठे ग्रह सप्तम दृष्टि से कर्म स्थान को देखते है।
  12. सूर्य यदि दशम भाव में स्थित हो तो व्यक्ति को सरकारी कार्यो से अवश्य लाभ मिलता है। दशम स्थान कार्य का स्थान हैं। इस स्थान पर सूर्य का स्थित होना व्यक्ति को सरकारी क्षेत्रो में अवश्य लेकर जाता है। सूर्य दशम स्थान का कारक होता है जिस कारण इस भाव के फल मिलने के प्रबल संकेत मिलते है।
  13. यदि किसी जातक की कुंडली में दशम भाव में मकर राशि में मंगल हो या मंगल अपनी राशि में बलवान होकर प्रथम, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम या दशम में स्थित हो तो सरकारी नौकरी का योग बनता है ।
  14. यदि मंगल स्वराशि का हो या मित्र राशि का हो तथा दशम में स्थित हो या मंगल और दशमेश की युति हो तो सरकारी नौकरी का योग बनता है ।
  15. चंद्र केंद्र या त्रिकोण में बली हो तो सरकारी नौकरी का योग बनाता है ।
  16. यदि सूर्य बलवान होकर दशम में स्थित हो या सूर्य की दृष्टि दशम पर हो तो जातक सरकारी नौकरी में जाता है ।
  17. यदि किसी जातक की कुंडली में लग्न में गुरु या चौथे भाव में गुरु हो या दशमेश ग्यारहवे भाव में स्थित हो तो सरकारी नौकरी का योग बनता है ।
  18. यदि जातक की कुंडली में दशम भाव पर सूर्य, मंगल या गुरु की दृष्टि पड़े तो यह सरकारी नौकरी का योग बनता है ।
  19. यदि १० भाव में मंगल हो, या १० भाव पर मंगल की दृष्टी हो,
  20. यदि मंगल ८ वे भाव के अतिरिक्त कही पर भी उच्च राशी मकर (१०) का होतो।
  21. मंगल केंद्र १, ४, ७, १०, या त्रिकोण ५, ९ में हो तो.
  22. यदि लग्न से १० वे भाव में सूर्य (मेष) , या गुरू (४) उच्च राशी का हो तो। अथवा स्व राशी या मित्र राशी के हो।
  23. लग्नेश (१) भाव के स्वामी की लग्न पर दृष्टी हो।
  24. लग्नेश (१) +दशमेश (१०) की युति हो।
  25. दशमेश (१०) केंद्र १, ४, ७, १० या त्रिकोण ५, ९ वे भाव में हो तो। उपरोक्त योग होने पर जातक को सरकारी नौकरी मिलती है। जितने ज्यादा योग होगे , उतना बड़ा पद प्राप्त होगा।
  26. भाव:कुंडली के पहले, दसवें तथा ग्यारहवें भाव और उनके स्वामी से सरकारी नौकरी के बारे मैं जान सकते हैं।
    27.सूर्य. चंद्रमा व बृहस्पति सरकारी नौकरी मै उच्च पदाधिकारी बनाता है।
  27. भाव :द्वितीय, षष्ठ एवं दशम्‌ भाव को अर्थ-त्रिकोण सूर्य की प्रधानता होने पर सरकारी नौकरी प्राप्त करता है।
  28. नौकरी के कारक ग्रहों का संबंध सूर्य व चन्द्र से हो तो जातक सरकारी नौकरी पाता है।
  29. दसवें भावमें शुभ ग्रह होना चाहिए।
  30. दसवें भाव में सूर्य तथा मंगल एक साथ होना चाहिए।
  31. पहले, नवें तथा दसवें घर में शुभ ग्रहों को होना चाहिए।
  32. पंच महापुरूष योग: जीवन में सफलता एवं उसके कार्य क्षेत्र के निर्धारण में महत्वपूर्ण समझे जाते हैं।पंचमहापुरूष योग कुंडली में मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र एवं शनि अपनी स्वराशि अथवा उच्च राशि का होकर केंद्र में स्थित होने पर महापुरुष योग बनता
  33. पाराशरी सिद्धांत के अनुसार, दसवें भाव के स्वामी की नवें भाव के स्वामी के साथ दृष्टि अथवा क्षेत्र और राशि स्थानांतर संबंध उसके लिए विशिष्ट राजयोग का निर्माण करते हैं।
    कुंडली से जाने नौकरी प्राप्ति का समय नियम:
  34. लग्न के स्वामी की दशा और अंतर्दशा में
  35. नवमेश की दशा या अंतर्दशा में
  36. षष्ठेश की दशा या, अंतर्दशा में
  37. प्रथम,दूसरा , षष्ठम, नवम और दशम भावों में स्थित ग्रहों की दशा या अंतर्दशा में
  38. दशमेश की दशा या अंतर्दशा में
  39. द्वितीयेश और एकादशेश की दशा या अंतर्दशा में
  40. नौकरी मिलने के समय जिस ग्रह की दशा और अंतर्दशा चल रही है उसका संबंध किसी तरह दशम भाव या दशमेश से ।
  41. द्वितीयेश और एकादशेश की दशा या अंतर्दशा में भी नौकरी मिल सकती है।
  42. छठा भाव :छठा भाव नौकरी का एवं सेवा का है। छठे भाव का कारक भाव शनि है।
  43. दशम भाव या दशमेश का संबंध छठे भाव से हो तो जातक नौकरी करता है।
  44. राहु और केतु की दशा, या अंतर्दशा में :
    जीवन की कोई भी शुभ या अशुभ घटना राहु और केतु की दशा या अंतर्दशा में हो सकती है।
  45. गोचर: गुरु गोचर में दशम या दशमेश से केंद्र या त्रिकोण में ।
  46. गोचर : नौकरी मिलने के समय शनि और गुरु एक-दूसरे से केंद्र, या त्रिकोण में हों तो नौकरी मिल सकती है
  47. गोचर : नौकरी मिलने के समय शनि या गुरु का या दोनों का दशम भाव और दशमेश दोनों से या किसी एक से संबंध होता है।
  48. कुंडली का पहला, दूसरा, चौथा, सातवा, नौवा, दसवा, ग्यारहवा घर तथा इन घरों के स्वामी अपनी दशा और अंतर्दशा में जातक को कामयाबी प्रदान करते है।
    महिमा राहू देव की राहु छाया ग्रह है,

ग्रन्थों मे इसका पूरा वर्णन है,और श्रीमदभागवत महापुराण में तो शुकदेवजी ने स्पष्ट वर्णन किया कि यह सूर्य से 10 हजार योजन नीचे स्थित है,और श्याम वर्ण की किरणें निरन्तर पृथ्वी पर छोडता रहता है,यह मिथुन राहि में उच्च का होता है धनु राशि में नीच का हो जाता है,राहु और शनि रोग कारक ग्रह है,इसलिये यह ग्रह रोग जरूर देता है। काला जादू तंत्र टोना आदि यही ग्रह अपने प्रभाव से करवाता है

।अचानक घटनाओं के घटने के योग राहु के कारण ही होते है,और षष्टांश में क्रूर होने पर ग्रद्य रोग हो जाते है।राहु के बारे में हमे बहुत ध्यान से समझना चाहिये,बुध हमारी बुद्धि का कारक है,जो बुद्धि हमारी सामान्य बातों की समझ से सम्बन्धित है,जैसे एक ताला लगा हो और हमारे पास चाबियों का गुच्छा है,

जो बुध की समझ है तो वह कहेगा कि ताले के अनुसार इस आकार की चाबी इसमे लगेगी,दस में से एक या दो चाबियों का प्रयोग करने के बाद वह ताला खुल जायेगा,और यदि हमारी समझ कम है,तो हम बिना बिचारे एक बाद एक बडे आकार की चाबी का प्रयोग भी कर सकते है,जो ताले के सुराख से भी बडी हो,बुध की यह बौद्धिक शक्ति है क्षमता है,

वह हमारी अर्जित की हुई जानकारी या समझ पर आधारित है,जैसे कि यह आदमी बडा बुद्धिमान है,क्योंकि अपनी बातचीत में वह अन्य कई पुस्तकों के उदाहरण दे सकता है,तो यह सब बुध पर आधारित है,बुध की प्रखरता पर निर्भर है,और बुध का इष्ट है दुर्गा।

राहु का इष्ट है सरस्वती,सम्भवत: आपको यह अजीब सा लगे कि राहु का इष्ट देवता सरस्वती क्यों है,क्योंकि राहु हमारी उस बुद्धि का कारक है,जो ज्ञान हमारी बुद्धि के बावजूद पैदा होता है,जैसे आविष्कार की बात है,गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त न्यूटन ने पेड से सेब गिरने के आधार पर खोजा,यह सिद्धान्त पहले उसकी याददास्त में नही था,यहां जब दिमाग में एकदम विचार पैदा हुआ,उसका कारण राहु है,

बुध नही होगा,जैसे स्वप्न का कारक राहु है,एक दिन अचानक हमारा शरीर अकडने लगा,दिमाग में तनाव घिर गया,चारों तरफ़ अशांति समझ में आने लगी,घबराहट होने लगी,मन में आने लगा कि संसार बेकार है,और इस संसार से अपने को हटा लेना चाहिये,अब हमारे पास इसका कारण बताने को तो है नही,जो कि हम इस बात का विश्लेषण कर लेते,

लेकिन यह जो मानसिक विक्षिप्तता है,इसका कारण राहु है,इस प्रकार की बुद्धि का कारक राहु है,राहु के अन्दर दिमाग की खराब आलमतों को लिया गया है,बेकार के दुश्मन पैदा होना,यह मोटे तौर पर राहु के अशुभ होने की निशानी है,राहु हमारे ससुराल का कारक है,ससुराल से बिगाड कर नही चलना,इसे सुधारने के उपाय है,सिर पर चोटी रखना राहु का उपाय है,

आपके दिमाग में आ रहा होगा कि चोटी और राहु का क्या सम्बन्ध है,चोटी तो गुरु की कारक है,जो लोग पंडित होते है पूजा पाठ करते है,धर्म कर्म में विश्वास करते है,वही चोटी को धारण करते है,राहु को अपना कोई भाव नही दिया गया है,इस प्रकार का कथन वैदिक ज्योतिष में तो कहा गया है,पाश्चात्य ज्योतिष में भी राहु को नार्थ नोड की उपाधि दी गयी है,लेकिन कुन्डली का बारहवां भाव राहु का घर नही है तो क्या है,

इस अनन्त आकाश का दर्शन राहु के ही रूप में तो दिखाई दे रहा है,इस राहु के नीले प्रभाव के अन्दर ही तो सभी ग्रह विद्यमान है,और जितना दूर हम चले जायेंगे,यह नीला रंग तो कभी समाप्त नही होने वाला। राहु ही ब्रह्माण्ड का दृश्य रूप है।
कर्म और भाग्य और ज्योतिष
जीवन में पुरूषार्थ और भाग्य दोनों का ही अलग-अलग महत्व है। ये ठीक है कि पुरूषार्थ की भूमिका भाग्य से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है लेकिन इससे भाग्य का महत्व किसी भी तरह से कम नहीं हो जाता।कर्म के साथ भाग्य जोड़ दोगे तो उसका मान 10 गुना बढ़ता ही जाएगा। लेकिन केवल भाग्य भरोसे बैठकर कर्म भी क्षीण होने लगते हैं। मित्रों, जीवन में पुरूषार्थ और भाग्य.दोनों अपने-अपने स्थान पर श्रेष्ठ हैं ।
पांडवों की माता कुन्ती भगवान श्री कृष्ण से कहती है, कि मेरे सभी पुत्र महापराक्रमी एवं विद्वान है । किन्तु हम लोग फिर भी वनों में भटकते हुए जीवन गुजार रहे हैं, क्यों ? क्योंकि भाग्य ही सर्वत्र फल देता है भाग्यहीन व्यक्ति की विद्या और उसका पुरूषार्थ निरर्थक है
वैसे देखा जाए तो भाग्य एवं पुरूषार्थ दोनों का ही अपना-अपना महत्व है । लेकिन इतिहास पर दृष्टी डाली जाए तो सामने आएगा कि जीवन में पुरूषार्थ की भूमिका भाग्य से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है । भाग्य की कुंजी सदैव हमारे कर्म के हाथ में होती है, अर्थात कर्म करेंगे तो ही भाग्योदय होगा
जबकि पुरूषार्थ इस विषय में पूर्णत: स्वतंत्र है । माना कि पुरूषार्थ सर्वोपरी है, किन्तु इतना कहने मात्र से भाग्य की महता तो कम नहीं हो जाती । आप देख सकते हैं, कि दुनिया में ऎसे मनुष्यों की कोई कमी नहीं है जो कि दिन-रात मेहनत करते हैं, लेकिन फिर भी उनका सारा जीवन
अभावों में ही व्यतीत हो जाता है । अब इसे आप क्या कहेंगें ?
उन लोगों नें पुरूषार्थ करने में तो कोई कमी नहीं की फिर उन लोगों को वो सब सुख सुविधाएं क्यों नहीं मिल पाई ? जो कि आप और हम भोग रहे हैं । एक इन्सान इन्जीनियरिंग, डाक्टरी या मैनेजमेन्ट की पढाई करके भी नौकरी के लिए मारा मारा फिर रहा है, लेकिन उसे कोई चपरासी की नौकरी पर भी रखने को भी तैयार नहीं है
वहीं दूसरी ओर एक कम पढा लिखा इन्सान किसी काम धन्धे में लग कर बडे मजे से अपने परिवार का पेट पाल रहा है । अब इसे आप क्या कहेंगें ?
एक मजदूर जो दिन भर भरी दुपहर में पत्थर तोडने का काम करता है, क्या वो कम पुरूषार्थ कर रहा है ? अब कुछ लोग कहेंगें कि उसका वातावरण, उसके हालात, उसकी समझबूझ इसके लिए दोषी है, या फिर उसमें इस तरह की कोई प्रतिभा नहीं है, कि वो अपने जीवन स्तर को सुधार सके अथवा उसे जीवन में ऎसा कोई उचित अवसर नहीं मिल पाया कि वो जीवन में आगे बढ सके या फिर उसमें शिक्षा की कमी है आदि आदि…ऎसे सैकंडों प्रकार के तर्क हो सकते हैं
मैं मानता हूँ कि इस के पीछे जरूर उसके हालात, वातावरण, शिक्षा- दीक्षा, उसकी प्रतिभा इत्यादि कोई भी कारण हो सकता है । लेकिन ये सवाल फिर भी अनुत्तरित रह जाता है, कि क्या ये सब उसके अपने हाथ में था ?
यदि नहीं तो फिर कौन सा ऎसा कारण है, कि उसने किसी अम्बानी, टाटा-बिरला के घर जन्म न लेकर एक गरीब के घर में जन्म लिया । किसी तर्कवादी के पास इस बात का कोई उत्तर है ?
ये निर्भर करता है इन्सान के भाग्य पर जिसे चाहे तो आप luck कह लीजिए या मुक्कदर या किस्मत या फिर कुछ भी यह सत्य है, कि इन्सान द्वारा किए गए कर्मों से ही उसके भाग्य का निर्माण होता है । लेकिन कौन सा कर्म, कैसा कर्म और किस दिशा में कर्म करने से मनुष्य अपने
भाग्य का सही निर्माण कर सकता है ये जानने का जो माध्यम है, उसी का नाम ज्योतिष है ज्योतिष शास्त्र का महत्व वेदों से है. ज्योतिष शास्त्र एक ऐसा विज्ञान है जो आपके जीवन के हर रास्तो पर शुभता लाने में समर्थ है. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मनुष्य की कुंडली के नवम भाव को भाग्य भाव माना जाता है. अपने भाग्य की वृद्धि के लिए आपको कुंडली के नवम भाव, भाग्येश और भाग्य राशि पर अधिक विचार करना चाहियें और अपके भाग्य वृद्धि में अवरोध कर रहे ग्रहों को ज्योतिष के उपायों के अनुसार दूर करना चाहियें. आप ज्योतिष शास्त्र को ऐसे समझ सकते हो कि परमात्मा हमारा हाथ पकड़कर हमे भाग्य तक नही पहुंचता बल्कि हमे रास्ता दिखा देता है. उसी तरह ज्योतिष शास्त्र आपके भाग्य वृद्धि के लिए अनेक रास्ते बनता है और आपको अनेक उपाय देता है जिनकी मदद से आप अपने भाग्य में वृद्धि कर सको. ग्रह, नक्षत्र, राशियाँ एवं अन्य ब्रह्मांड स्थित पिंड को सतत प्रभावित करते रहते हैं और इसी कारण उसके कर्म को प्रभावित करते रहते हैं, कर्म के प्रभाव से ही भाग्य प्रभावित होता है और यही कारण है कि जिससे ज्योतिषीय ग्रह स्थितियाँ मनुष्य के भाग्यदर्शन में सहायक सिद्ध होती है। स्थूल रूप से कुंडली के 12 भावों को तीन भागों में विभक्त किया गया है, ये हैं केन्द्र (1/4/7/10 भाव), पणकर (2/5/8/11) तथा आपोक्लिम (3/6/9/12) जो ग्रह केंद में बैठा है वह पूर्वजन्मकृत कर्मों के फल का प्रदाता है तथा आपोक्लिम स्थान के ग्रहों से स्थान व दृष्टि संबंध बना रहा हो तो अपरिवर्तनशील कर्मफल को दर्शाता है।
पणकर स्थान के ग्रह इहजन्मोपार्जित कर्मों का इसी जन्म में भोग करने वाले होते हैं तथा यह सुनिश्चित भी किया जा सकता है कि इस कर्म को किन कर्मों एवं प्रयोगों से बदला जा सकता है। लग्न से द्वादश भावों कि राशियाँ अपने पीछे के कर्म एवं योनि का दिग्दर्शन करती है। द्वादशांश चक्र में लग्नेश एवं लग्न राशि से कर्म के फल फल एवं संचित कर्म तथा प्रारब्ध निर्माण कि बाधाओं का बोध होता है।
शुभ ग्रह हमेशा शुभ नहीं होते(पति पत्नी में अलगाव के ज्योतिषीय कारण )—
ज्योतिषीय नियम है कि कुंडली में अशुभ ग्रहों से अधिष्ठित भाव के बल का ह्वास और शुभ ग्रहों से अधिष्ठित भाव के बल की समृद्धि होती है। जैसे, मानसागरी में वर्णन है कि केन्द्र भावगत बृहस्पति हजारों दोषों का नाशक होता है। किन्तु, विडंबना यह है कि सप्तम भावगत बृहस्पति जैसा शुभ ग्रह जो स्त्रियों के सौभाग्य और विवाह का कारक है, वैवाहिक सुख के लिए दूषित सिद्ध हुआ हैं।
यद्यपि बृहस्पति बुद्धि, ज्ञान और अध्यात्म से परिपूर्ण एक अति शुभ और पवित्र ग्रह है, मगर कुंडली में सप्तम भावगत बृहस्पति वैवाहिक जीवन के सुखों का हंता है। सप्तम भावगत बृहस्पति की दृष्टि लग्न पर होने से जातक सुन्दर, स्वस्थ, विद्वान, स्वाभिमानी और कर्मठ तथा अनेक प्रगतिशील गुणों से युक्त होता है, किन्तु ‘स्थान हानि करे जीवा’ उक्ति के अनुसार यह यौन उदासीनता के रूप में सप्तम भाव से संबन्धित सुखों की हानि करता है। प्राय: शनि को विलंबकारी माना जाता है, मगर स्त्रियों की कुंडली के सप्तम भावगत बृहस्पति से विवाह में विलंब ही नहीं होता, बल्कि विवाह की संभावना ही न्यून होती है।
यदि विवाह हो जाये तो पति-पत्नी को मानसिक और दैहिक सुख का ऐसा अभाव होता है, जो उनके वैवाहिक जीवन में भूचाल आ जाता हैं। वैद्यनाथ ने जातक पारिजात, अध्याय 14, श्लोक 17 में लिखा है, ‘नीचे गुरौ मदनगे सति नष्ट दारौ’ अर्थात् सप्तम भावगत नीच राशिस्थ बृहस्पति से जातक की स्त्री मर जाती है। कर्क लग्न की कुंडलियों में सप्तम भाव गत बृहस्पति की नीच राशि मकर होती है। व्यवहारिक रूप से उपयरुक्त कथन केवल कर्क लग्न वालों के लिए ही नहीं है, बल्कि कुंडली के सप्तम भाव अधिष्ठित किसी भी राशि में बृहस्पति हो, उससे वैवाहिक सुख अल्प ही होते हैं।
एक नियम यह भी है कि किसी भाव के स्वामी की अपनी राशि से षष्ठ, अष्टम या द्वादश स्थान पर स्थिति से उस भाव के फलों का नाश होता है। सप्तम से षष्ठ स्थान पर द्वादश भाव- भोग का स्थान और सप्तम से अष्टम द्वितीय भाव- धन, विद्या और परिवार तथा उनसे प्राप्त सुखों का स्थान है। यद्यपि इन भावों में पाप ग्रह अवांछनीय हैं, किन्तु सप्तमेश के रूप में शुभ ग्रह भी चंद्रमा, बुध, बृहस्पति और शुक्र किसी भी राशि में हों, वैवाहिक सुख हेतु अवांछनीय हैं। चंद्रमा से न्यूनतम और शुक्र से अधिकतम वैवाहिक दुख होते हैं। दांपत्य जीवन कलह से दुखी पाया गया, जिन्हें तलाक के बाद द्वितीय विवाह से सुखी जीवन मिला।
पुरुषों की कुंडली में सप्तम भावगत बुध से नपुंसकता होती है। यदि इसके संग शनि और केतु की युति हो तो नपुंसकता का परिमाण बढ़ जाता है। ऐसे पुरुषों की स्त्रियां यौन सुखों से मानसिक एवं दैहिक रूप से अतृप्त रहती हैं, जिसके कारण उनका जीवन अलगाव या तलाक हेतु संवेदनशील होता है। सप्तम भावगत बुध के संग चंद्रमा, मंगल, शुक्र और राहु से अनैतिक यौन क्रियाओं की उत्पत्ति होती है, जो वैवाहिक सुख की नाशक है।

यदि सप्तमेश बुध पाप ग्रहों से युक्त हो, नीचवर्ग में हो, पाप ग्रहों से दृष्ट होकर पाप स्थान में स्थित हो तो मनुष्य की स्त्री पति और कुल की नाशक होती है।’’सप्तम भाव के अतिरिक्त द्वादश भाव भी वैवाहिक सुख का स्थान हैं। चंद्रमा और शुक्र दो भोगप्रद ग्रह पुरुषों के विवाह के कारक है। चंद्रमा सौन्दर्य, यौवन और कल्पना के माध्यम से स्त्री-पुरुष के मध्य आकर्षण उत्पन्न करता है।
दो भोगप्रद तत्वों के मिलने से अतिरेक होता है। अत: सप्तम और द्वादश भावगत चंद्रमा अथवा शुक्र के स्त्री-पुरुषों के नेत्रों में विपरीत लिंग के प्रति कुछ ऐसा आकर्षण होता है, जो उनके अनैतिक यौन संबन्धों का कारक बनता है। यदि शुक्र -मिथुन या कन्या राशि में हो या इसके संग कोई अन्य भोगप्रद ग्रह जैसे चंद्रमा, मंगल, बुध और राहु हो, तो शुक्र प्रदान भोगवादी प्रवृति में वृद्धि अनैतिक यौन संबन्धों की उत्पत्ति करती है।
ऐसे व्यक्ति न्यायप्रिय, सिद्धांतप्रिय और दृढ़प्रतिज्ञ नहीं होते बल्कि चंचल, चरित्रहीन, अस्थिर बुद्धि, अविश्वासी, व्यवहारकुशल मगर शराब, शबाब, कबाब, और सौंदर्य प्रधान वस्तुओं पर अपव्यय करने वाले होते हैं। क्या ऐसे व्यक्तियों का गृहस्थ जीवन सुखी रह सकता है? कदापि नहीं। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि कुंडली में अशुभ ग्रहों की भांति शुभ ग्रहों की विशेष स्थिति से वैवाहिक सुख नष्ट होते हैं।

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