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मौनव्रत की महिमा
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गीता में मानस तप के प्रकरण में ‘मौनमात्म विनिग्रहः, भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसः उच्यते।’ मन को शुद्ध करने के लिए मानसिक तप की आवश्यकता है। मानसिक तप का प्रधान अंग मौनव्रत है। नारद ने प. उप. में इसी ब्रह्मनिष्ठा के प्रकरण में कहा है ‘न कुर्यात् वदेत्किंचित्’ अर्थात् ब्रह्म-विकासी को मौन व्रत करना आवश्यक है। उपनिषदों में ‘अवाकी’ शब्द मौनव्रत को प्रकाश देता है? धर्मशास्त्र में कर्मांग में भी मौनव्रत बताया है। ‘उच्चारे जप काले च षट्सुमौनं समाचरेत’। जपकाल, भोजनकाल, स्नान, शौचकर्म में मौन रहना चाहिए। आचार प्रकरण में आता है ‘यावदुष्णं भवेदन्नं या वदश्नन्ति वाग्यतः पितरस्नाव दस्मिनियावन्नोक्ताः हविर्गुणाः।’ भोजन करते समय जब तक मौनपूर्वक भोजन करो, वह भोजन देवता पितरों को पहुँचता है। इसी पर सनक जुजात गीता में कहा है ‘वाचोवेगं मनसः क्रोध वेगं…. एतान् वेगान् योसहमे।’ वाणी के, मन के, इन्द्रियों के वेग को जो रोकता है वह ऋषि और ब्राह्मण है। चरक ऋषि ने विमानस्थान में आरोग्य की शिक्षा में कहा है ‘काले हितमितवादी’। जब कहने का अवसर हो तब संक्षिप्त शब्द और हितप्रद बात बोले।

‘चित्रं वटु तरोः मूले वृद्धा शिष्याः गुरुर्युवा गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्न संशयः’ कहते हैं कि आज एक वट वृक्ष के नीचे आश्चर्यप्रद बात देखी, जहाँ वृद्ध-वृद्ध पुरुष शिष्य थे और युवा गुरु था। गुरु ने मौनव्रत कर दिखाके सारे संशय दूर कर दिये। अर्थात् मौनव्रत से मनोबल होकर ब्राह्मी स्थिति हो जाती है। हाँ, जो गुलामी की जंजीर में जकड़े हुए हैं उनको तो ‘मौनान मूर्ख’ इस कहावत का भय रहता होगा। पर यह सत्य जानिये कि सब प्रकार के कलह शाँति के लिए मौनव्रत परमौषधि है- ‘मौनेन कलहोनास्ति।’ मौनव्रत वाले को कलह से भय नहीं रहता है। मौन न रखने से पहला दोष शास्त्र दृष्टि का यह है कि असत्य के आभास रूप संसार की सत्यवत् बात करना जो पाप है क्योंकि यह संसार परिणाम संधात, नहीं है, यह विवृत है। इसलिए ‘योन्यथा सन्नमात्मा न अन्यथा प्रणिपत्तये किं तेन नत्कर्श पापं चौरेणात्मपहारिणा।’ संसार को सभ्य व्यवहार करना ही आत्मा का अन्यथा ज्ञान है। देह, वृद्धि, दृश्य को सत्य कहना यही अन्यथावाद है। शास्त्र कहता है कि जिसने अपनी वाणी से संसार को सत्य कहा, आत्मा को उल्टा ज्ञान बताया वह चोर पापी है। इस पाप से बचने को भी मौनव्रत उपकारक है। चातुर्मास्य व्रतों में मौनव्रत की प्रतिष्ठा मानी गयी है। माधवाचार्य ने शंकर दिग्विजय लिखने के आरंभ में ही कह दिया। ‘वन्ध्यासूनु खरी विषाण सदृश क्षुद्र क्षितीन्द्र क्षमा ……………….. मद्वाणि मधिपा संयामि यस्मिन् त्रैलोक्य रंगस्थली’ अर्थात् मैंने राजाओं की झूठी प्रशंसा करने से जो अपनी जिह्वा पर पाप लगा दिया है उसकी शुद्धि करने के निमित्त आज भगवान शंकराचार्य के सच्चे वर्णन को कहता हूँ। इससे भी संसार की झूठी बातों से पाप बताया। उसका उपाय भी मौनव्रत है।

उपनिषद्- ‘यद्वाचा नाभ्युदिते।’ ब्रह्म वह है जो वाणी से नहीं कहा जाता। तब अब्रह्म शब्दों को रोकने के लिए मौनव्रत है। ‘मुनिमौन परो भवेत्’ मौनव्रत में ही मुनि की प्रतिष्ठा है। वाणी तेज का विषय है, तेज ही रवि अर्थात् प्राण है। इसके क्षरण न करने से तेजोमात्रा संचित होकर तेजस्वी दीर्घायु होता है। आपको स्मरण रहे जिन इन्द्रियों से तेजोमात्रा का क्षरण होता है। उनके निग्रह से एक महान शक्ति का संचय हो जाता है। गाँधारी के नेत्रों के द्वारा जो तेजीमात्रा क्षरित होती थी उसका संयमन करके उसने अपने पुत्र दुर्योधन का शरीर अच्छेद्य, अभेद, वज्रमय बना दिया था, इसी तरह वाणी का संयमन जो मौनव्रत है, उसके प्रभाव से वाणी में शक्ति आ जाती थी। द्रोणाचार्य ने अपने पूर्व वाणीव्रत से ‘उभयोरपि सामर्थ्य शापादपि शरादपि’ इसको चरितार्थ किया।

जिसने मौनव्रत धारण कर वाणी के वेग का संयमन कर लिया वह वाणी से कदाचित शाप या अनुग्रह करना चाहे तो कर सकता है। उसकी वाणी इतनी बलवती और सफला हो जाती है वह जो कहता है, चाहे शाप या अनुग्रह दोनों ही, कर सकता है। आपने सत्यवाचा का प्रसंग सुना होगा। उस सत्यवाचा के मुख से जो शब्द निकलते थे वह सत्य होते थे। इसलिए मौनव्रत परमाराध्य है। कुछ लोग खाने-सोने तथा क्लब सोसाइटियों में गप्प लड़ाने के अभ्यस्त हो गये हैं। उनका विश्वास यह रहता है कि गप्प-शप्प करने से मनोविनोद हो जाता है, किन्तु यह बात सर्वथा असत्य है। व्यर्थ गप्प से अपनी वाणी की कुशलता का भ्रामक ज्ञान लोगों को होता है। गप्प करने से वाणी का तेज नष्ट हो जाता है। बकवादी का वेदमयी वाणी पर भी कम विश्वास होता है। गप्प से मन प्रसन्न रहेगा यह भ्रममात्र है। गप्प का परिणाम मन को खेदजनक बनाना है। यह शाँतिकारक वाणी का दोष है। इसलिए परम शाँति चाहने वालों को मौनव्रत पर ध्यान देना चाहिए।

मनोबल और व्रत की प्रारम्भिक भूमिका का ऐसा अभ्यास डालिये कि पहले मितवादी बनने की कोशिश कीजिए, गप्पबाजी से अपना पीछा छुड़ाइए। कम से कम प्रातःकाल में जब तक शौचाचार, भजन होता है तब तक अर्थात् ८-९ बजे तक मौनपूर्वक अपने आपको रखना सीखिए। भोजनादि तथा ऊपर वर्णित कार्यकाल में मौनव्रत रखिए। महीने में किसी एक या दो पुण्य दिन निश्चित कर लीजिए, जैसे- एकादशी या पूर्णिमा या रविवार। इन सब या इनमें से किसी दिन भी मौनव्रत रखिए। इस प्रकार मौनव्रत का अभ्यास पड़ जाने से आप में स्वतः विद्या का प्रकाश और आत्मानुसंधान होने लगेगा और आप मौनव्रत के महात्म्य को स्वयं अनुभव कर लेंगे।

मौनव्रत महान पुण्यदायी पापहारि है। इससे मनोबल का संचार होने लगे जायेगा। पर गूँगा रहना मौनव्रत नहीं है। मौनव्रत रखने से लाभ होता है, केवल चुप्पी साधने से नहीं। मौनव्रती को मिताहारी, प्रणवजापी होना चाहिए। ऐसा जप करें कि अर्द्धमात्रा का अनुभव हो जाए, जिससे निर्वाण कला की जागृति हो।

मौन व्रत भारतीय संस्कृति में सत्य व्रत, सदाचार व्रत, संयम व्रत, अस्तेय व्रत, एकादशी व्रत व प्रदोष व्रत आदि बहुत से व्रत हैं, परंतु मौनव्रत अपने आप में एक अनूठा व्रत है। इस व्रत का प्रभाव दीर्घगामी होता है। इस व्रत का पालन समयानुसार किसी भी दिन, तिथि व क्षण से किया जा सकता है। अपनी इच्छाओं व समय की मर्यादाओं के अंदर व उनसे बंधकर किया जा सकता है। यह कष्टसाध्य अवश्य है, क्योंकि आज के इस युग में मनुष्य इतना वाचाल हो गया है कि बिना बोले रह ही नहीं सकता। उल्टा-सीधा, सत्य-असत्य वाचन करता ही रहता है। यदि कष्ट सहकर मौनव्रत का पालन किया जाए तो क्या नहीं प्राप्त कर सकता? अर्थात् सब कुछ पा सकता है। कहा भी गया है- ‘कष्ट से सब कुछ मिले, बिन कष्ट कुछ मिलता नहीं। समुद्र में कूदे बिना, मोती कभी मिलता नही।।’ जैसे- जप से तन की, विचार से मन की, दान से धन की तथा तप से इंद्रियों की शुद्धि होती है। सत्य से वाणी की शुद्धि होनी-शास्त्रों तथा ऋषियों द्वारा प्रतिपादित है, परंतु मौन व्रत से तन, मन, इंद्रियों तथा वाणी-सभी की शुद्धि बहुत शीघ्र होती है। यह एक विलक्षण रहस्य है। व्रत से तात्पर्य है- कुछ करने या कुछ न करने का दृढ़ संकल्प। लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति दृढ़ संकल्प से ही होती है। यह संसार भी सत्य स्वरूप भगवान के संकल्प से ही प्रकट हुआ है। मौन-व्रत से मनुष्य मस्तिष्क या मन में जो संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं, उन पर नियंत्रण होता है। यदि संकल्प-विकल्प भगवन्निष्ठ हों तो सार्थक होता है, परंतु सदैव ऐसा नहीं होता। भगवान की माया शक्ति का प्रत्यक्ष प्रभाव है- यह जगत्। मनुष्य इस संसार की महानतम भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए ही नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प करता रहता है। फलतः मन की चंचलता निरंतर बनी रहती है। जितने क्षण मन कामना (संकल्प-विकल्प)- शून्य हो जाता है उतने क्षण ही योग की अवस्था रहती है। मौन-व्रत द्वारा निश्चित रूप से मन को स्थिर किया जा सकता है। ऋणात्मक ऊर्जा को धनात्मक ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। मौन-व्रत रखने से भौतिक कामनाओं से मुक्ति के साथ-साथ परस्पर अनावश्यक वाद-विवाद से भी बचा जा सकता है। राग और द्वेष पर तो विजय मिल ही जाती है। जितने समय तक साधक मौन-व्रत रखता है, उतने काल तक असत्य बोलने से मुक्त रहता है। साथ ही मन तथा इंद्रियों पर संयम रहने से साधन-भजन में सफलता मिलती है। भजन में एकाग्रता एवं भाव का अधिक महत्व है। भाव सिद्ध होने पर क्रिया गौण तथा भाव प्रधान हो जाता है। मौन-व्रत से आत्मबल में बहुत अधिक वृद्धि होती है। संसार में अनेक प्रकार के बल हैं यथा-शारीरिक, आर्थिक, सौंदर्य, विद्या तथा पद (सत्ता) का बल। लौकिक दृष्टि से उपर्युक्त सभी प्रकार के बल अपना महत्व रखते हैं, परंतु आत्म बल इन सभी बलों में सर्वोपरि है। अभौतिक और जागतिक सभी प्रकार की उन्नति के लिए आत्म बल की परम आवश्यकता होती है। मौन-व्रत से आत्म बल में निरंतर वृद्धि होती है। मनुष्य सत्य वस्तु की ओर बढ़ता हैं भगवान् सत्यस्वरूप हैं और उनका विधान भी सत्य है। शरीर, धन, रूप, विद्या तथा सत्ता का बल मनुष्य को मदांध कर देता है। इनमें से एक भी बल हो तो मनुष्य दूसरे लोगों के साथ अनीतिमय व्यवहार करने लगता है। जरा सोचें, जिनके पास ये पांचों बल हों उसकी गति क्या होगी! मौन-व्रत ही ऐसा साधन है जिससे व्यक्ति स्वस्थ हो सकता है। मौन व्रत के पालन से वाणी की कर्कशता दूर होती है, मृदु भाषा का उद्गम बनता है। अंतरात्मा में सुख की वृद्धि होती है फिर विषय का त्याग करता हुआ जीवन के अद्वितीय रस भगवद् रस को प्राप्त करने लगता है। साधक को मौन-व्रत के पालन में अंदर तथा बाहर से चुप होकर निष्ठापूर्वक एकांत में रहकर भगवान नाम-जप करना चाहिए। ऐसा करने से ही आत्म बल में वृद्धि तथा नाम-जप में कई गुना सिद्धि प्राप्त होती है। प्रत्येक साधक को दिन में एक घंटे, सप्ताह में एक दिन एकांत वास कर मौन-व्रत धारण कर भगवद्भजन करना चाहिए। यह बड़ा ही श्रेयष्कर साधन है। यूं भी साधक को नियमित जीवन में उतना ही बोलना चाहिए जितना आवश्यक हो। अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए। निरंतर निष्ठा पूर्वक भगवन्नाम जप से वाकसिद्धि हो जाती है। मौन-व्रत का पालन बहुत सावधानी पूर्वक करना चाहिए। प्राचीन समय में हमारे ऋषि-मुनि मौन-व्रत तथा सत्य भाषण के कारण ही वाक्सिद्ध थे। यदि हमारी इंद्रियां तथा मन चलायमान रहें तो मौन-व्रत पालन करना छलावा मात्र ही रहेगा। मूल रूप से वाणी संयम तो आवश्यक है ही, किंतु उससे भी अधिक आवश्यक है चित्तवृत्तियों का संयम। चित्तवृत्तियों का संयम ही वास्तव में मुख्य मौन-व्रत है। यह साधनावस्था की उच्चभूमि है जहां पहुंचकर ब्रह्मानंद, परमानंद, आत्मानंद की स्वतः अनुभूति होने लगती है। अतः धीरे-धीरे वाक् संयम का अभ्यास करते हुए मौन व्रत की मर्यादा में प्रतिष्ठित होने का प्रयत्न करना चाहिए।

मौन व्रत से महान् लाभ
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मनुष्य के शरीर में कुदरत की अजब कारीगरी समाई हुई है। योगशास्त्र कहता है कि जो मनुष्य शरीर रूपी पिंड को बराबर जानता है उस मनुष्य को समष्टी रूप ब्रह्माण्ड जानना कुछ मुश्किल नहीं।

शरीर में चार वाणी हैं। जैसे कि:- परावाणी नाभि (टुन्डी) में, पश्यन्तिवाणी छाती में, मध्यमावाणी कण्ठ (गले में), और वैखरी वाणी मुँह में है। शब्द की उत्पत्ति परावाणी में होती हैं परन्तु जब शब्द स्थूल रूप धारण करता है, तब मुँह में रही हुई वैखरी वाणी द्वारा बाहर निकलता है।

मौन दो प्रकार के हैं।
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वाणी से और मन से। वाणी को वश में रखना, कम बोलना, नहीं बोलना, जरूरत के अनुसार शब्दोच्चार करना आदि वाणी के मौन कहे जाते हैं। मन को स्थिर करना, मन में बुरे विचार नहीं लाना, अनात्म विचारों को हटा कर आत्म (अध्यात्म) विचार करना, बाह्य सुख की इच्छा से मुक्त होकर अंतर सुख में मस्त होना, और मन को आत्मा के वश रखना वगैरह मन का मौनव्रत कहलाता है।

मौन व्रतधारी व्यक्तियों को मुनि के नाम से सम्बोधन करते हैं। मौन व्रतधारियों में महान् शक्ति होती है, यह बात सत्य है। उदाहरण देखिये कि जब ज्यादा प्रमाण में बोलने में आता है, तब गले की आवाज बैठ जाती है, प्यास अधिक लगती है, कण्ठ सूखता है, छाती में दर्द होता है, और बेचैनी सी मालूम पड़ती है, अर्थात् सख्त मेहनत करने वाले मजदूर वर्ग से भी अधिक परिश्रम बोलने में पड़ता है। इसलिये जितने प्रमाण में बोला जाय उतने ही प्रमाण में शरीर की शक्ति व्यय होती है।

मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि मुँह बन्द कर लेना चाहिये, परन्तु हमेशा के व्यवहार में आवश्यकतानुसार ही वाणी का उपयोग किया जावे, तो भी बहुत सी शक्ति का अपव्यय बचेगा।

दुनिया में महान् व्यक्ति होने के लिये कुदरत के कुछ नियम पालने पड़ते हैं। उन नियमों में ‘वाणी स्वातंत्र्य’ भी एक नियम है किन्तु वर्तमान समय की संसार व्यापी अव्यवस्था के कारण साधारण जीवन बिताने के लिये भी बहुत बोलना पड़ता है। लोगों को इसमें कमी करने के लिये निम्न नियमों का पालन करना चाहिये।

पालने के नियम-
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★ कोई कोई स्त्री पुरुषों को ऐसी आदत होती है कि बिना कारण ही बोला करते हैं उन्हें बोलने का प्रमाण कम करना चाहिये।
★ बिना कारण (हँसी, दिल्लगी या दूसरे किसी के साथ) बोलने की इच्छा हो तब दोनों नासिका द्वारा श्वास खींच कर छाती के फेफड़ों में भर रखना और धीरे धीरे निकाल देना, भरते समय ईश्वर का ध्यान या अपने धर्म गुरु के बताये हुए मन्त्र का जाप करना।
★ पखवाड़े भर में एक दिन सुबह या शाम को पौन घण्टे मौन धारण करना। उस समय “मेरा मन पवित्र होता जाता है” “मेरी जिन्दगी सुधरती जाती है” “व्यवहार या परमार्थ के लिये जो भी शुभकार्य करता हूँ वे सब कर्म लाभकारक होते हैं” इस प्रकार के विचार करना।
• ज्यादा समय मिल सकता हो तो अठवारे में एक वक्त या ४ दिन में एक वक्त ३ से ६ घण्टे मौन रहना।
• मौन धारण करते समय दूध या फलों पर रहना। हो सके तो बगीचे आदि रम्य स्थान में घूमने जाना।
• वायु प्रधान शरीर वाले को अधिक बोलने की आदत होती है, वास्ते उनके पेट में से और सिर में से वायु दोष निवारण करने के लिये रोज सबेरे ताँबे के लोटे में रक्खा हुआ पानी १२ या १४ ओंस पी जाना, पानी पीकर आधे घण्टे बाद सण्डास (मल विसर्जन करने) जाना चाहिये।

मौन धारण करने से लाभ
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अन्तरशक्ति बढ़ती है, महान कार्यों को कैसे करना चाहिये, वह काम शुरू करने के बाद उसका क्या परिणाम होगा, यदि विघ्न आवे तो कैसे टालना चाहिये, अटल श्रद्धा से कार्य सिद्धि आदि सन्देश हृदय में रहे हुए परमात्मा द्वारा मिलेंगे।

मौनधारियों के वचन सत्य होते हैं, सुनने वाले को सम्पूर्ण विश्वास तथा सचोट असर होता है। बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, चाय और अफीम वगैरह शरीर को अत्यन्त नुकसान करने वाले व्यसन के ऊपर काबू रखने की शक्ति आती है और धीरे धीरे खराब व्यसन छूट जाते हैं। अन्तःकरण, मन, बुद्धि, चित्त अहंकार में रहे हुए छह रिपु (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) का नाश होता है, सुख और दुःख के समय सौम्य दृष्टि व संतोषवृत्ति उत्पन्न होती है, ज्ञानेन्द्रियों की स्थिरता जाती रहती है, नाभि में रही हुई परावाणी में से शब्द गुप्त रूप से प्रकट होते हैं। वे शब्द मनुष्य (अपने) कल्याण के पन्थ में ले जाने वाली आज्ञा है अपने शरीर में से उत्पन्न होने वाले शब्दों के आधार से भविष्य में जाने वाले सुख या दुःख के समाचार मिल सकते हैं। पूर्व जन्म में कौन थे वह ज्ञात होता है। अपने सगे सम्बन्धी इष्ट मित्र मरने के बाद कहाँ (किस योनी, स्वर्ग, मृत्यु, पाताल, नरक अथवा मोक्ष) गये हैं उसकी समझ पड़ती है।
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