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परनिंदा या आलोचना न करें, दूसरों के दोष निकालने की आवश्यकता नहीं है, ये आदतें उन्नति में बाधक सिद्घ होती हैं, ईर्ष्या मनुष्य को उसी तरह खाती है जैसे कीड़ा कपड़े को धीरे-धीरे कुतरता है, दूसरे के सुख में सुख का अनुभव करें, दुःख में सहानुभूति दें।

प्रेम जीवन की समस्त कठिनाइयों तथा समस्याओं को आत्मसात कर लेता है, सदैव स्वस्थ रहने के लिये तथा सही मायनों में खुश रहने के लिए, प्रेम करें, हमेशा आत्मविश्र्वासी रहें, आत्मविश्र्वास जीवन के हर क्षेत्र में सफलता के लिए आवश्यक है, हमेशा आत्मविश्र्वास ही काम आता है।

दूसरों के हित में अपना हित देखें, किसी के दुःख में काम आने के लिए अपने सुख का त्याग कर दें यही सच्ची सेवा है, दूसरों की सेवा करें, क्योंकि हर मनुष्य में ईश्र्वर निवास करता है, किसी की कठिनाई में सहायक होना ईश्र्वर की प्रार्थना के तुल्य है।

जय श्री कृष्ण🙏🙏

आज का दिन शुभ मंगलमय हो।
मानव शरीर में मन सबसे शक्तिशाली कारक है। पूरे शरीर को यदि कोई संचालित करने वाला है तो मन ही है। मन में अनेक प्रकार की शक्तियां निहित हैं। विद्युत की गति से भी तेज गति वाला व दसों इंद्रियों का राजा मन इतनी तीव्र गति से इधर-उधर दौड़ता है कि इसको एक स्थान पर रोकना अत्यंत दुष्कर कार्य है।

यह मन समस्त ज्ञानेंद्रियों के साथ अलग-अलग व एक साथ रहकर पूरे शरीर का संचालन करता रहता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन ने इस मन के संबंध में प्रश्न किया कि प्रभु यह मन तो बड़ा चंचल है, इसे वश में करना तो वायु को वश में करने के समान है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाते हुए कहा कि वास्तव में मन को वश में किया जाना तो अत्यंत दुष्कर कार्य है, परंतु अभ्यास व वैराग्य से इसे वश में किया जाना संभव है। महर्षि पतंजलि ने भी कहा है कि अभ्यास और वैराग्य से इस मन को वश में किया जा सकता है। मन ही जीव का बंधन कारक भी है और यही जीव का उद्धारक भी है। मन में अपार शक्तियां निहित हैं, परंतु अविद्या से उत्पन्न अज्ञान से आवृत्त हो जाने के कारण वह इस पार यानी जगत के प्रपंच में, इंद्रियों के आकर्षण और सांसारिक विषयों में पड़ जाता है। वह उस पार यानी जगत से परे परा जगत को नहीं जान पाता। ऐसा मन जगत में फंसाने वाला, जीव को बंधन में डालने वाला शत्रुवत हो जाता है। मन के अंदर पूर्ण क्षमता है कि वह जगत के उस पार यानी दिव्य जगत के रहस्यों को जानकर ज्ञान से परिपूर्ण हो जाए। तुच्छ विचारों को त्यागकर सद्विचारों को अंगीकार करता हुआ सभी इंद्रियों के विषयों से जब मन शांत हो जाता है, तब यही मन मित्रवत हो जाता है। मन को मित्रवत रखना ही श्रेयष्कर होगा। सत्य को जानने के लिए मन को सदैव सद्विचारों में लगाए रखना चाहिए। रहस्यों को जानने के लिए और ईश्वर की अनुभूति करने के लिए मन रूपी दर्पण के मैल को सदैव साफ करते रहना चाहिये।।

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