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मित्रों चूकिं हम आध्यात्मिक व्यक्ति हैं, इसलिए पर्यावरण को अध्यात्म की दृष्टि से समझने की कोशिश करेंगे, पर्यावरण, वातावरण या प्रकृति, ये शब्द अर्थ की दृष्टि से काफी कुछ मिलते-जुलते हैं, हमारे ऋषियों ने पंच महाभूत तथा अष्टप्रकृति के नाम से जिन मुख्य तत्वों को माना है।

उन्हें हम आज भी आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, सूर्य और चंद्रमा के रूप में देख सकते हैं, पर्यावरण शुध्दि और संतुलन की दृष्टि से यज्ञ का महत्व आज वैज्ञानिकों ने भी मान लिया है, अत: उपर्युक्त तत्वों में यज्र्ञकत्ता को भी आठवें क्रम पर स्वीकार किया गया था, ऋषियों ने आध्यात्मिक पर्यावरण को भी भूगोलीय व खगोलीय पर्यावरण के अभिन्न हिस्से के रूप में माना।

वैदिक शान्ति पाठ में भी हम इन्हीं प्राकृतिक शक्तियों की शान्ति और समन्वय की प्रार्थना अथवा कामना अनादिकाल से करते आये हैं, यह स्वाभाविक ही है, कि इसी वैदिक पृष्ठभूमि पर भारतीय संस्कृति के अमर गायक के रूप में अवतरित होने के कारण महाकवि कालिदासजी ने भी बड़े रोचक, प्रभावी तथा व्यावहारिक ढंग से पर्यावरण के प्रति संवेदना तथा सजगता की बातें बतायीं।

भारतवर्ष एक कृषि प्रधान देश माना जाता है, ठीक इसी प्रकार यह ऋषि प्रधान देश भी है, कृषि और ऋषि के बिना इस राष्ट्र की कल्पना असंभव है, वर्षा के बिना कृषि तथा ज्ञान वर्षा के बिना ऋषि का कोई महत्व नहीं है, दोनों हो तो एक स्वस्थ राष्ट्रीय पर्यावरण निर्मित हो जाता है, वर्षा एक पर्व के रूप में हिन्दुस्तान में देखी जाती रही है, वर्षा मेघ के बिना कैसे संभव होगी?

मेघों को हम स्थायी कृषिमंत्री, पर्यावरण दूत या प्राणदाता के रूप में जानते तथा मानते आयें हैं, वह अनादिकाल से समृध्दि शान्ति तथा सुसंतुलित पर्यावरण का आधार रहा है, भारतीय जनमानस हमेशा ही यह प्रार्थना करता रहा है कि समय पर वर्षा हो, पृथ्वी हरी-भरी रहे, अकाल न पड़े और सर्वजन निर्भय रहें।

काले वर्षतु पर्जन्य: पृथिवी शस्यशालिनी।
देशोऽयं क्षोभरहित: प्रजा सन्तु च निर्भया:।।

महाकवि कालिदासजी की अमरकृति “मेघदूत” भी इन्हीं भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाला एक सुन्दर विश्वगीत है, छत्तीसगढ़ के ‘रामगिरि’ (रामगढ़) की घनी छाया वाले उन शुध्द तथा पवित्र जलाशयों वाली वादियों से मेघ उठते हैं, जो कभी भगवती सीताजी के स्नान से पवित्रतर हुये थे।

अर्थर्ववेद के अनुसार जो धरती माता, नाना धर्मावलम्बियों, विविध भाषा-भाषियों की गोद है, तथा कामधेनु के समान उन सबकी इच्छायें भी पूरी करती है, कालिदासजी के मेघ ग्रीष्म ऋतु से सन्तप्त इसी धरती की प्यास बुझाने के पश्चात उसे हरी-भरी फसल और वनस्पति के पर्यावरण से तो शृंगारित करते ही हैं, धनधान्य से सम्पन्न भी करते हैं।

कृषक स्त्रियां इस मेघ देवता को बड़ी हसरत भरी निगाहों से इसीलिये देखती हैं, क्योंकि सफल खेती का पूरा दारोमदार इसी पर तो टिका है, वही पालक और वही पोषक भी है, यह सुखद आश्चर्य है, कि कवि कालिदासजी के साहित्य में सीताजी, शकुन्तलाजी, पार्वतीजी तथा लक्ष्मीजी जो पर्यावरण के चार मुख्य घटक- पृथिवी, वन, पर्वत तथा समुद्र की पुत्रियां हैं।

सामाजिक दायित्व की चर्चा को हम आधुनिक, वैज्ञानिक अथवा पश्चिम की खोजपूर्ण मौलिक देन मानकर वस्तुत: गलतफहमी या खुशफहमी के शिकार हैं, भाई-बहनों हम आपको प्रकृति प्रेमी पुराणे नाटकों के कुछ झलक दिखलाते है, जो ध्यानपूर्वक पढ़ना, विश्वप्रसिध्द शकुन्तला नाटक की नायिका शकुन्तला तो शकुन्त अर्थात् पक्षियों से लालित-पालित होने के कारण ही तो शकुन्तला कहलायीं।

जो वृक्षों की सिंचाई के पूर्व पानी पीना अनावश्यक मानती थी और सजने के लिए फूल-पत्तियों तक नहीं तोड़ती थी, पहली बार फूल खिलने पर वे उत्सव मनाती थी, मृगवधू बिना परेशानी के प्रथम संतान को जन्म देकर सकुशल रहे, ये भार ससुराल जाते समय अपने धर्मपिता कण्व पर डालती है, मृग का वह शिशु, जिसको शकुन्तला ने पाला-पोसा, बिदाई के समय उसका पल्लू पकड़ कर मानो जाने से रोकता है।

उधर कुमारसंभवम् नाटक की पार्वती के हाथों से हिरण निश्चिन्त होकर दाना खाते हैं, ‘मेघदूतम्’ नाटक की यक्षपत्नी हथेलियों के ताल दे कर मोरों को सानन्द नाचने के लिए प्रेरित करती है, इसलिये वे सफल तथा प्रसन्न रहती है, रघुवंश में महाराजा दिलीप छाया की तरह नंदिनी गौ का अनुगमन करते हुए सेवा करते रहें, नंदिनी के चलने पर चलते, बैठने पर बैठते, पानी पीने पर पानी पीते तथा सोने पर सो जाते।

यही कारण है कि रास्ते के आस-पास वृक्षों पर बैठे पक्षीगण राजा का जय-जयकार करते हैं, महाराजा दिलीप जंगल में प्रवेश करते ही ‘जंगल में मंगल’ का दृश्य दिखाई देने लगा, महाराजा दिलीप के समय में शक्तिशाली प्राणियों ने कमजोरों को दबाना बंद कर दिया, बिना वर्षा के जंगल में लगी दावाग्नि शांत हो गई तथा वृक्षों में फूलों और फलों में आशातीत वृध्दि हो गयीं, लगभग यही दृश्य हिमालय पर्वत पर देवी पार्वतीजी के तपस्या करते समय स्थापित हो गया।

भाई-बहनों, कुछ अज्ञानी किन्तु प्रभावशाली लोग अच्छे खासे मंगल को जंगल में बदलने पर उतारू हैं, पृथ्वी बचाओं सम्मेलनो में घड़ियाली आंसू बहाते है, उन्हें कवि कालिदास साहित्य के इस जंगल में मंगल’ संबंधी न केवल सराहनीय अपितु अनुकरणीय संदेश को ग्रहण करना चाहियें, हिमालय हमारी राष्ट्रीय अस्मिता का उच्चतम प्रतीक होने के साथ-साथ भूगोल, खगोल और पर्यावरण का भी सर्वोच्च नियामक है।

यदि इसे देवताओं का भी आत्मस्वरूप मानकर, पूर्व से पश्चिम तक पृथिवी को नापने वाले ‘मानदण्ड’ (मीटर) के रूप में तथा अनन्त रत्नों के अखण्ड भण्डार के रूप में इसकी अर्चना और वंदना करने वाला कोई प्रथम राष्ट्रकवि हुयें तो वे कालिदासजी हैं, उनके पर्यावरण के प्रति सजग उनके समान कोई कवि नहीं हुयें।

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:।।
पूर्वापरौ तोयनिधीवगाह्य स्थित: पृथिव्या इव मानदण्ड:।।

उत्तरांचल की यात्रा के अध्ययन के दौरान वृक्षमित्र तथा चिपको आंदोलन के प्रणेता वनर्षि सुन्दरलालजी बहुगुणा के विषय में इन पंक्तियों के लेखक ने जो जाना, बड़ा पूज्य भाव उनके प्रति पैदा हुआ, लगता है- कुमारसंभव, अभिज्ञान शाकुन्तल, मेघदूत तथा रघुवंश आदि के नाटको में हिमालयी पर्यावरण का मनोमुग्धकारी किन्तु व्यावहारिक वर्णन करके कालिदासजी ने नाटककारों का मार्गदर्शन कर दिया हो।

देवाधिदेव महादेवजी ने प्रदूषित विष को पीने के कारण ही महामृत्युंजय कहलायें, अब समुद्रमन्थन को कोरा मिथक मानने की मान्यता को वैज्ञानिक भी ध्वस्त कर चुके हैं, आकाश तथा वायु सहित आठ प्रकृति उनके प्रत्यक्ष रूप है, ये पौराणिक बातें नास्तिकों के मुंह पर करारा तमाचा है, वे समस्त वन्य पशुओं के स्वामी होने के कारण ही भगवान् भोलेनाथ पशुपति कहे जाते हैं।

भगवान् शिवजी समस्त प्राणिमात्र के प्राणनाथ है, इसलिये भूतनाथ और विश्वनाथ माने गयें हैं, ये नाम बड़े सार्थक हैं, प्रकृति प्रेमियों को पर्यावरण की दृष्टि से चिन्तन और मनन करना चाहियें, भगवान् भोलेनाथ कवि कालिदासजी के आराध्य भी हैं, प्राय: हर ग्रन्थ के शुभारंभ के मंगल श्लोकों में कवि ने उन्हें एक व्यापक पर्यावरणीय देव के रूप में स्मरण किया हैं।

अभिज्ञान शाकुन्तल का नंदीपाठ तो प्रकृति संवेदना का जीवन्त और शाश्वत शिलालेख ही है, सिर पर गंगाजल और तीसरी ऑंख में अग्नि, माथे पर चन्द्रमा में अमृत, तथा कण्ठ में महाकाल विष को एक साथ धारण कर संतुलन एवं समन्वय के अद्वितीय आदर्श हैं भगवान् शिवजी, अमृत-विष तथा आग-पानी जैसे सर्वथा विरोधी प्राकृतिक उपादनों में तालमेल रखना एक चमत्कार है।

सज्जनों, उनके पारिवारिक वाहन प्रतीकों में सामंजस्य भी दूसरा चमत्कार है, स्वयं का बैल, माता पार्वतीजी का सिंह, गणेश के चूहे और भोलेनाथ के नाग, कितना सन्तुलन, स्वयं शिवजी के हृदय पर हार के रूप में सर्प और कार्तिकेय के वाहन मोर हैं जो ये परस्पर नित्य बैरी हैं, किन्तु रहते कैसे समन्वय से हैं, वन्य प्राणी सुरक्षा सप्ताह या वन्य प्राणी सुरक्षा महीना मनाने वाले लोगों को शास्त्रों से प्राणियों में आजीवन समन्वय, सुरक्षा एवं सुखी जीवन की प्रेरणा लेनी चाहिये।

कालिदासजी रघुवंश में वर्णन करते हैं कि पार्वती के पालित पुत्र देवदारु के तने की छाल को किसी जंगली हाथी ने रगड़ दिया, अपने शरीर को उससे रगड़ कर सील दिया, कार्तिकेय से पहले जन्मे प्रिय देवदारु वृक्ष की इस पीड़ा को न सह सकने वाली देवी पार्वतीजी तब तक रोती रहीं और खाना नहीं खाया जब तक त्रिशूलपाणि शिवजी ने अपने कुम्भोदर नामक सेवक को शेर के रूप में उस वृक्ष पुत्र की रक्षा में नियुक्त न कर दिया।

कदाचित् तभी से ये जनश्रुति अस्तित्व में आई कि शेर जंगल का राजा है,’ प्राणवान और संवेदनशील वनस्पतियों की रक्षा का यह विशिष्ट तथा प्रतीकात्मक तरीका है, आज वन उजड़ रहे हैं, शेर समेत अन्य वनप्राणियों को मारा जा रहा है, भयंकर सूखे के दौर से हम गुजर रहे हैं, वनों के अभाव में वर्षा कैसे होगी? न रहेंगे शेर, न रहेंगे वन तो वर्षा कैसे होगी?

प्रकृति तथा पर्यावरण संरक्षण की दिशा में यदि कालिदासीय प्रबंधन को हम रेखांकित कर जीवन में उतारें तो देश व जगत का भी भला होगा, आज के दौर में केवल पर्यावरण दिवस मनाकर ही अपनी जिम्मेदारी से छुटकारा नहीं पा सकते, अवैधानिक सभी प्रकार के उत्खनन को रोकना होगा, वृक्षों को लगाना होगा, अन्न को उपजाने के लिये देशी खाद का इस्तेमाल करें।

प्लास्टिक थेलीयों का पूर्ण बहिष्कार करें, हम जहाँ पर रहें वहाँ स्वस्थता का पूर्ण ख्याल रखें, योग और प्राणायाम को जीवन में अपनायें, ताकि प्रदुषण से आपके शरीर को कोई नुकसान न हो, या कम हो, अंग्रेजी दवाओं से परहेज करें, और आयुर्वेद से मार्गदर्शन लें, स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग कर देश की तरक्की में अपना योगदान दे, जंगलों को न काटे, जंगलों में सभी तरह के वृक्ष लगायें।

भाई-बहनों आज विश्व पर्यावरण दिवस पर संकल्प लिजिये की हम पूरी शक्ति से पर्यावरण को शुद्ध रखने के लिये सभी तरह के नियमों का पालन करेंगे, कल हमने आपको बताया था कि विश्व को पर्यावरण का बहुत बड़ा संकट है, जिससे सुनामी आती है, ज्वालामुखी फूटते है, भूकम्प का आना, अनावृषटि और अतिवृष्टि का होना, कई तरह की बीमारीयों का जन्म, वायु में कार्बाइड का बढना और भी हजारों तरह की तकलीफ है, जो पर्यावरण के बिगड़ने से हो रही है।

आपके संकल्प से ही कुछ अच्छा हो सकता है, वरना आज के दिन श्मशानी वैराग्य की तरह आज हलचल करोगे, बड़े सुहावने भाषण दोगे और कल से फिर पर्यावरण के प्रति लापरवाह हो जाओगे, जो विगत वर्षों से यही हो रहा है, अतः जागो और सरकार के साथ अपनी-अपनी जिम्मेदारी सुनिश्चित करों।

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