सभी मन्त्रों का मूल प्रणव है।इसी का विस्तार गायत्री है।यह गायत्री साधकों के लिए कल्पवृक्ष एवं कामधेनु है।इसकी कृपा से सभी कुछ अनायास हो जाता है ।बस इसकी साधना मे निरंतरता बनी रहे ।निश्चित संख्या, निश्चित समय एवं निश्चित स्थान ,इन तीन अनुशासनों को मानकर जो त्रिपदा गायत्री मंत्र का जप करता है उसकी साधना के विघ्न स्वतः नष्ट होते रहते हैं ।गायत्री जप करने वाले साधक को अपने मन की उधेड़बुन या मानसिक उथल-पुथल पर ध्यान नही देना चाहिए यहाँ तक कि मन की ओर देखना ही छोड़ देना चाहिए ।बस जप ,जप और जप ,मन की सुने बगैर जप की अविरामता बनी रहे तो शेष सब कुछ देवी की कृपा से अनायास ही हो जाता है ।महर्षि पतंजलि ने साधक की साधना मे आने वाले विघ्नों की चर्चा समाधि पाद सूत्र 30 मे की है और ये सभी विघ्न मंत्र जप से स्वतः समाप्त हो जाते हैं ।साधक को केवल भक्तिपूर्वक जप करना पड़ता है बाकी उसके जीवन के सभी कार्य जप स्वयं कर देता है।इससे जीवन के आन्तरिक एवं बाह्य विघ्न स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं ।साधक की सभी उचित कामनाये स्वयं ही पूरी होती रहती है ।
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