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जन्म वार व जन्म तारिख से जाने जातक के लक्षण।

रविवार: यह सूर्य का वार है। सर्वप्रथम इसका नंबर एक है। जिसका जन्म 1, 10, 19 और 28 तारीख में हो तो उस जातक पर सूर्य का प्रभाव रहेगा। सूर्य ग्रहों का राजा है और आत्मा का कारक है। इस वार को जन्मे जातक का सिर गोल, चैकोर, नाटे और मोटे शरीर वाला, शहद के समान मटमैली आंखें, पूर्व दिशा का स्वामी होने के कारण, इसे पूर्व में शुभ लाभ मिलते हैं। सूर्य के इन जातकों का 22-24वें वर्ष में भाग्योदय होता है। सूर्य मेष राशि में उच्च का और तुला राशि में नीच का होता है। इन जातकों की प्रकृति पितृ प्रधान है। दिल का दौरा, फेफड़ों में सूजन, पेट संबंधी बीमारियां हो सकती हैं। चेहरे में गाल के ऊपर दोनों हड्डियां उभरी हुई होती हैं। जब सूर्य 00 से 10 अंश तक हो तो अपना प्रभाव देता है क्योंकि यह ग्रहों का राजा है इसलिए इन जातकों में राजा के समान गुण होने के कारण पल में प्रसन्न और पल में रुष्ट होने की आदत होती है, ये जातक शक्की स्वभाव के होते हैं। गंभीर वाणी, निर्मल दृष्टि और रक्त श्याम वर्ण इनका स्वरूप होता है। गांठ के पक्के और प्रतिशोध लेने की भावना तीव्र होती है।

सोमवार: यह चंद्रमा का वार है,इसका अंक दो अर्थात् जिन जातकों का जन्म सोमवार 2, 11, 20, 29 तारीखों में हो तो चंद्रमा का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा गया है ‘स्वज्ञं प्राज्ञौः गौरश्चपलः, कफ वातिको रुधिसार, मृदुवाणी प्रिय सरवस्तनु, वृतश्चचंद्रमाः हाशुः।। अर्थात् सुंदर नेत्र वाला, बुद्धिमान, गौर वर्ण, चंचल स्वभाव, चंचल प्रकृति, कफ, वात प्रकृति प्रधान, मधुरभाषी, मित्रों का प्रिय, होता है। ऐसा जातक हर समय अपने आप को सजाने में रहता है चंद्रमा मन का कारक है। 24 से 25 वर्ष में यह अपना प्रभाव पाता है। रक्त और मुख के आस-पास इसका अधिकार रहता है। ऐसे जातक के केश घने, काले, चिकने और घुंघराले होते हैं। सोच समझकर बात करते हैं। परिस्थतियों को मापने की इनमें क्षमता होती है। ये भावुक भी होते हैं। बात-चीत करने में कुशल और विरोधी को अपने पक्ष में करने की इनमें क्षमता होती है। इस दिन जन्मी स्त्रियां प्यार में धोखा खाती हैं। ये जातक कल्पना में अधिक रहते हैं। ये प्रेमी, लेखक, शौकीन, पतली वाणी वाले होते हैं। वात् और कफ प्रकृति के कारण जीवन के अंतिम दिनों में फेफड़ों की परेशानी, हार्ट की बीमारियां संभव हैं। चर्म और रक्त संबंधी बीमारियां अक्सर होती रहती हैं।

मंगलवार: यह हनुमान जी का वार है इसका नंबर नौ है। 9, 19, 27 तरीख को जन्मे जातक का स्वामी मंगल ग्रह है इस दिन जन्मे जातक का सांवला रंग, घुंघराले बाल, लंबी गर्दन, वीर, साहसी, खिलाड़ी, भू-माफिया पुलिस के अधिकारी, सेनाध्यक्ष स्वार्थी होते हैं। इनकी आंखों में हल्का-हल्का पीलापन और आंखों के चारों ओर हल्की सी कालिमा या छाई रहती है। इनका चेहरा तांबे के समान चमकीला होता है। प्रत्येक कार्य करने से पहले हित-अहित का विचार कर लेते हैं। यदि मंगल उच्च का अर्थात मकर राशि का हो तो जातक डाक्टर, ठेकेदार, खेती का व्यापार करने वाला होता है। यदि मंगल अकारक हो तो जातक चोर, डाकू भी हो सकते हैं। मंगल दक्षिण दिशा का स्वामी होता है। ऐसा जातक किसी पर विश्वास नहीं करता। शर्क प्रधान प्रकृति है यहां तक मां-बाप, पति-पत्नी और संतान पर भी शक करता है। कठिन से कठिन परिस्थितियों में यह जातक विचलित नहीं होता। राजनीतिक क्षेत्र में अच्छे से अच्छा और बुरे से बुरा कार्य कर सकता है। एक बार जो काम हाथ में ले ले उसे पूरा करके छोड़ता है। बहुत साहसी, खतरों की जिंदगी में इन्हें आनंद मिलता है। शत्रुओं से लड़ना इनका स्वभाव होता है। मज्जा और मुख के आस-पास इसका अधिकार क्षेत्र है। 28 से 32वें वर्ष में यह फल देता है। महिलायें चिड़चिड़ी और कटुभाषी होती हैं। रक्त एवं चर्म रोग से ग्रस्त रहते हैं।

बुधवार: गणेश जी इसके स्वामी हैं। इसका अंक पांच है जो जातक 5, 14, 23 तारीखों में जन्मा हो वह जातक ठिगना, सामान्य रंग, फुर्तीला, बहुत बोलने वाला, दुर्बल शरीर, छोटी आंखें, क्रूर दृष्टि, पि प्रकृति, चंचल स्वभाव द्विअर्थक बात करने वाला, हास्य प्रिय, शरीर के मध्य भाग में संदा दुर्बल, उर दिशा का स्वामी, माता-पिता से प्रेम करने वाला, चित्रकार, 8वें और 22वें वर्ष में अरिष्ट 32वें वर्ष में भाग्योदय, त्वचा और नाभि के निकट स्थल पर अधिकार, वाणी, वात-पि का कारक होता है। यह जातक अधिकतर बैंकर्स, दलाल, संपादक, इस जातक को देश, काल और पात्र की पहचान होती है। वातावरण के अनुकूल बातचीत करने में होशियार होते हैं। बुध ग्रह जिस जातक का कारकत्व होता है उसका रंग गोरा, आंखें सुंदर और त्वचा सुंदर और मजबूत होती है, ये अच्छे गुप्तचर या राजदूत बन सकते हैं। यह जातक स्पष्ट वक्ता होता है और मुंह पर खरी-खरी कहता है और इस प्रकार से बात करता है कि दूसरे को बुरा न लगे। सफाई प्रिय होता है कफ-पि-वात प्रकृति प्रधान होने से बाल्यावस्था में जीर्ण ज्वर से पीड़ित रहता है। वृद्धावस्था में अनेक रोगों से पीड़ित रहता है। यौवनावस्था में प्रसन्नचि रहता है। सफल व्यापारी के इसमें गुण होते हैं। अनेक रंगों का शौकीन होता है। हरा रंग इसे प्रिय होता है और वह शुभ भी होता है। ज्योतिष या ग्रह नक्षत्रों का ज्ञान, गणितज्ञ, पुरोहित का कार्य करना, लेखाधिकारी। इस वार में जन्मी महिलाएं शीघ्र रूठने वाली, चुगली, निंदा करने वाली और पति से इनकी अनबन रहती है।

गुरुवार: यह समस्त देवताओं का गुरु है। इसका अंक तीन है अर्थात् 3, 12, 21, 30 तारीखों में जन्मे जातक स्वस्थ शरीर, लंबा कद, घुंघराले बाल, तीखी नाक, बड़ा शरीर, ऊंची आवाज, शहद के समान नेत्र वाले ऐसे जातक सच्चे मित्रों के प्रेमी, कानून जानने वाले अधिकारी, जज, खाद्य सामग्री के व्यापारी, नेता अभिनेता भी होते हैं। ऐसे जातक बोलते समय शब्दों का चयन सावधानी पूर्वक करते हैं। आंखों से झांकने की ऐसी प्रवृ होती है कि मानो समस्त संसार की शांति और करुणा इसमें आकर भर गई हो, जीव हिंसा और पाप कर्म से बचते हैं। महिलाएं चरित्रवान, पति की सेविका, पति को वश में रखने वाली सद्गुणी, कुशल अध्यापिकाएं होती हैं। पुजारी, आश्रम चलाना, सरकारी, नौकरी, पुराण, शास्त्र वेदादि, नीतिशास्त्र, धर्मोपदेश से ब्याज पर धन देने से जीविका होती है। ऐसे जातक शत्रु से भी बातचीत करने में नम्रता रखते हैं। चर्बी-नाक के मध्य अधिकर क्षेत्र है। 16-22 या 40वें वर्ष में सफलता मिलती है। उर-पूर्व (ईशान) इस ग्रह का स्वामी है कर्क राशि में यह ग्रह उच्च का होता है। पीला रंग इनके लिए शुभ होता है। यह एक राशि में एक वर्ष रहता है। यह 11 अंश से 20 अंश में अपने फल देता है, 7, 12, 13, 16 और 30 वर्ष की आयु में कष्ट पाता है। दीर्घ आयु कारक है। यह गुल्म और सूजन वाले रोग भी देता है। चर्बी और कफ की वृद्धि करता है। नेतृत्व की शक्ति इसमें स्वाभाविक रूप से होती है।

शुक्रवार: यह लक्ष्मी का वार है। इसका अंक छः है अर्थात् 6, 15, 24 तारीखों में जन्म लेने वाले जातक पर शुक्र ग्रह का प्रभाव होता है। इस दिन जन्मे जातकों का सिर बड़ा, बाल घुंघराले, शरीर पतला, दुबला, नेत्र बड़े, रंग गोरा, लंबी भुजाएं, शौकीन, विनोदी, चित्रकलाएं, चतुर, मिठाई फिल्ममेकर, आभूषण विक्रेता होते हैं। शुक्र तीक्ष्ण बुद्धि, उभरा हुआ वक्षस्थल और कांतिमान चेहरा होता है। वीर्य प्रधान ऐसा व्यक्ति स्त्रियों में बहुत प्रिय होता है। यह जातक मुस्कुराहट बिखेरने वाला सर्वदा प्रसन्नचित रहने वाला होता है। शुक्र ग्रह स्त्री कारक होता है और नवग्रहों में सबसे अधिक प्रिय होता है। ऐसे जातक कामुक और शंगार प्रिय होते हैं, इस दिन जन्मा जातक विपरीत लिंग को आकर्षित करता है। ऐसे व्यक्ति सफल होते हैं, विपक्षी को किस प्रकार से सम्मोहित करना चाहिए आदि गुण इनमें जन्मजात होते हैं। मित्रों की संख्या बहुत होती है और मित्रों में लोकप्रिय होते हैं। वात-कफ प्रधान इनकी प्रकृति है और वृद्धावस्था में जोड़ों में दर्द और हड्डियां में पीड़ा होती है। प्रेम के बदले प्रेम चाहते हैं। नृत्य संगीत में रुचि रखते हैं। आग्नेय दिशा का स्वामी है।

शनिवार: शनि को काल पुरुष का दास कहा गया है। इसका अंक आठ है। दिनांक 8, 17, 26 को जन्मे जातकों का स्वामी शनि है। यह अपने पिता सूर्य का शत्रु है। तुला में शनि उच्च का होता है तथा 21 अंश से 30 अंश तक अपना फल शुभ-अशुभ देता है, इस दिन जन्मा जातक सांवला रंग नसें उभरी हुई, चुगलखोर, लंबी गर्दन, लंबी नाक, जिद्दी, कर्कश आवाज, घोर मेहनती, मोटे नाखून, छोटे बाल, आलसी, अधिक सोने (नींद) वाला, गंदी राजनीति वाला होता है छोटी आयु में कष्ट पाने वाला, दूसरों की भलाई से प्रसन्न न होने वाला, परिवार का शत्रु, 20-25-45वें वर्ष में कष्ट भोगने वाला, स्नायु (नसंे) पेट पर अधिकार 36-42वें वर्ष में शुभ या अशुभ प्रभाव, निर्दयी, दूसरों को विप में डालने वाला और इन्हें परेशान करने में आनंद आता है, शिक्षण काल में काफी रुकावटें, अपशब्द कहने में प्रसन्नता मिलती है। महिलाएं कटुभाषी, पति से नित्य तकरार करने वाली, दाम्पत्य जीवन सुखमय नहीं होता, शुद्धता का ध्यान कम होता है। स्वभाव, क्रोधी, आर्थिक मामलों में यह सामान्य होता है। लोहा आदि या काले रंग के उद्योगों में सफलता मिलती है, वायु प्रधान, मूर्ख, तमोगुणी, आयु से अधिक दिखने वाला, कबाड़ी का काम, कुर्सी बुनना, मजदूरी करना, पति-पत्नी के विचारों में मतभेद। यह तुला राशि में उच्च और मेष राशि में नीच का होता है। 21 अंश से 30 अंश में इस जातक के जीवन पर प्रभाव डालता है। दांत का दर्द, नाक संबंधी तकलीफें, लकवा, नामर्दी, कुष्ठ रोग, कैंसर, दमा, गंजापन रोग संभव हो सकते हैं। इन जातकों को पश्चिम दिशा में लाभ मिल सकता है।

आत्म-सूर्य का ध्यान करें ……
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बंद आँखों के अंधकार के पीछे भ्रूमध्य में एक परम ज्योति का आभास होता है जिसका उल्लेख गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने किया है| अभ्यास करते करते वहाँ एक सूर्यमंडल का आभास होने लगता है, जिसका हम ध्यान करें| यह सूर्य-मण्डल ही कूटस्थ है| कूटस्थ शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कई बार किया है| यह ज्योति भ्रूमध्य से आज्ञा-चक्र में, फिर सहस्त्रार में, फिर सम्पूर्ण अस्तित्व में व्याप्त हो जाती है| उस का ध्यान करते करते हम स्वयं ज्योतिर्मय बनें| यह सूर्यमण्डल ही गायत्री मंत्र के सविता देव हैं जिनकी भर्ग: ज्योति का हम ध्यान करते हैं| ये ही ज्योतिर्मय ब्रह्म हैं|
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साथ साथ जब नाद-श्रवण होने लगे तब उसमें भी चित्त को विलीन कर दें| अपनी चेतना को पूरी सृष्टि में और उससे भी परे विस्तृत कर दें| परमात्मा की अनंतता ही हमारी वास्तविक देह है| सर्वत्र व्याप्त भगवान वासुदेव हर निष्ठावान की निरंतर रक्षा करते हैं, यह उनका आश्वासन है|
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भगवान श्रीराम ने वचन दिया है …..
“सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते| अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम||”
(वाल्मीकि रामायण ६/१८/३३).
अर्थात जो एक बार भी शरणमें आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मेरे से रक्षा की याचना करता है, उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय कर देता हूँ ….यह मेरा व्रत है|
जब भगवान ने स्वयं इतना बड़ा आश्वासन दिया है तब भय किस का? हम स्वयं राममय बनें|
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हे अनंत के स्वामी, हे सृष्टिकर्ता, जीवन और मृत्यु से परे मैं सदा तुम्हारे साथ एक हूँ और सदा एक ही रहूँगा| मैं यह भौतिक देह नहीं, बल्कि तुम्हारी अनंतता और परम प्रेम हूँ| इस अनंतता और परमप्रेम का ही हम ध्यान करें|
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रात्री को सोने से पूर्व भगवान का गहनतम ध्यान कर के ही सोयें, वह भी इस तरह जैसे जगन्माता की गोद में निश्चिन्त होकर सो रहे हैं| प्रातः उठते ही एक गहरा प्राणायाम कर के कुछ समय के लिए भगवान का ध्यान करें| दिवस का प्रारम्भ सदा भगवान के ध्यान से होना चाहिए| दिन में जब भी समय मिले भगवान का फिर ध्यान करें| उनकी स्मृति निरंतर बनी रहे| यह शरीर चाहे टूट कर नष्ट हो जाए, पर परमात्मा की स्मृति कभी न छूटे|
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आप सब परमात्मा के साकार रूप हैं, आप सब ही मेरे प्राण हैं| आप सब को नमन!
[द्वारकावने नागेश्वरम्.. अष्टम #ज्योतिर्लिंगम्..

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। :उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
:सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
:हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।
:सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥

नागेश्वर मन्दिर एक प्रसिद्द मन्दिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। यह #द्वारका, गुजरात के बाहरी क्षेत्र में स्थित है। यह शिव जी के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। हिन्दू धर्म के अनुसार नागेश्वर अर्थात नागों का ईश्वर होता है। यह विष आदि से बचाव का सांकेतिक भी है। रुद्र संहिता में इन भगवान को दारुकावने नागेशं कहा गया है। भगवान्‌ शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रांत में द्वारका पुरी से लगभग 17 मील की दूरी पर स्थित है। इस पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन की शास्त्रों में बड़ी महिमा बताई गई है। कहा गया है कि जो श्रद्धापूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्म्य की कथा सुनेगा वह सारे पापों से छुटकारा पाकर समस्त सुखों का भोग करता हुआ अंत में भगवान्‌ शिव के परम पवित्र दिव्य धाम को प्राप्त होगा।

एतद् यः श्रृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादरात्‌। सर्वान्‌ कामानियाद् धीमान्‌ महापातकनाशनम्‌॥

इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में पुराणों यह कथा वर्णित है- सुप्रिय नामक एक बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी वैश्य था। वह भगवान्‌ शिव का अनन्य भक्त था। वह निरन्तर उनकी आराधना, पूजन और ध्यान में तल्लीन रहता था। अपने सारे कार्य वह भगवान्‌ शिव को अर्पित करके करता था। मन, वचन, कर्म से वह पूर्णतः शिवार्चन में ही तल्लीन रहता था। उसकी इस शिव भक्ति से दारुक नामक एक राक्षस बहुत क्रुद्व रहता था। उसे भगवान्‌ शिव की यह पूजा किसी प्रकार भी अच्छी नहीं लगती थी। वह निरन्तर इस बात का प्रयत्न किया करता था कि उस सुप्रिय की पूजा-अर्चना में विघ्न पहुँचे। एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था। उस दुष्ट राक्षस दारुक ने यह उपयुक्त अवसर देखकर नौका पर आक्रमण कर दिया। उसने नौका में सवार सभी यात्रियों को पकड़कर अपनी राजधानी में ले जाकर कैद कर लिया। सुप्रिय कारागार में भी अपने नित्यनियम के अनुसार भगवान्‌ शिव की पूजा-आराधना करने लगा।

अन्य बंदी यात्रियों को भी वह शिव भक्ति की प्रेरणा देने लगा। दारुक ने जब अपने सेवकों से सुप्रिय के विषय में यह समाचार सुना तब वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर उस कारागर में आ पहुँचा। सुप्रिय उस समय भगवान्‌ शिव के चरणों में ध्यान लगाए हुए दोनों आँखें बंद किए बैठा था। उस राक्षस ने उसकी यह मुद्रा देखकर अत्यन्त भीषण स्वर में उसे डाँटते हुए कहा- ‘अरे दुष्ट वैश्य! तू आँखें बंद कर इस समय यहाँ कौन- से उपद्रव और षड्यन्त्र करने की बातें सोच रहा है?’ उसके यह कहने पर भी धर्मात्मा शिवभक्त सुप्रिय की समाधि भंग नहीं हुई। अब तो वह दारुक राक्षस क्रोध से एकदम पागल हो उठा। उसने तत्काल अपने अनुचरों को सुप्रिय तथा अन्य सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दे दिया। सुप्रिय उसके इस आदेश से जरा भी विचलित और भयभीत नहीं हुआ। वह एकाग्र मन से अपनी और अन्य बंदियों की मुक्ति के लिए भगवान्‌ शिव से प्रार्थना करने लगा। उसे यह पूर्ण विश्वास था कि मेरे आराध्य भगवान्‌ शिवजी इस विपत्ति से मुझे अवश्य ही छुटकारा दिलाएँगे। उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ शंकरजी तत्क्षण उस कारागार में एक ऊँचे स्थान में एक चमकते हुए सिंहासन पर स्थित होकर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गए।
उन्होंने इस प्रकार सुप्रिय को दर्शन देकर उसे अपना पाशुपत-अस्त्र भी प्रदान किया। इस अस्त्र से राक्षस दारुक तथा उसके सहायक का वध करके सुप्रिय शिवधाम को चला गया। भगवान्‌ शिव के आदेशानुसार ही इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर पड़ा।

कावड यात्रा आधारित जीवन-संदेश

कावड़ यात्रा एक प्रतीक क्रिया है जो कर्मकाण्ड के अन्तर्गत आती है. कावड़ यात्रा के अन्तर्गत हमारे द्वारा “सदानीरा नदी“ के शुद्ध जल से [ अर्थात जो नदी सदैव प्रवाहित बनी रहने वाली है या जिस नदी का प्रवाह कभी थमता नहीं है उस सतत प्रवाह वाली नदी के बहते हुए शुद्ध जल से ] दो छोटे पात्र में जल भरकर तथा दोनों ही पात्र को भाररहित अवस्था में अपने कंधो पर धारणकर शिवमन्दिर की ओर प्रस्थान किया जाता है तथा शिवमन्दिर पहुँचकर, साथ में लाये गये दोनों ही पात्र के जल द्वारा – शिवविग्रह का – जलाभिषेक किया जाता है.।

कावड यात्रा में हमारा एक ही गन्तव्य होता है – शिवविग्रह को प्राप्त कर, उसका जलाभिषेक करना. इस लक्ष्य प्राप्ति के पूर्व न तो हमारे द्वारा गन्तव्य में परिवर्तन किया जाता है और न यात्रा को विराम ही दिया जाता है. इस प्रकार कावड़ यात्रा को पूर्ण करता हुआ कावड़ यात्री [कावड़िया] स्वयं को कृतार्थ मानता है. वह इस प्रकार शिवपूजन करता हुआ स्वयं को कृतकृत्य जानता है।

अनवरत रूप से चलने वाले इस सृष्टिचक्र में कावड़ यात्रा की यह क्रिया प्रतीकात्मक होकर आत्म-साधना के अति गुप्त रहस्य से सम्बन्धित एवं प्राणोंपासना पर आधारित होना जानी गयी है. इस कावड़ यात्रा का रहस्यबोध प्राप्त करने हेतु विचारणीय है कि – धर्मग्रंथ इस मानव देह में स्थित अविनाशी, अजर, अमर, आत्मा को शिवस्वरूप होना कथन करते हैं।

पूज्यपाद आचार्य आदिशंकर द्वारा – शिवोहम, शिवोहम – का जयघोष किया जाकर, स्वयं को ही शिवस्वरूप होना कथन किया है, इस देहस्थ जीवात्मा को ही शिवस्वरूप होने का उद्घोष किया है. आत्मसाधना में योगी पुरुष इस देहस्थ आत्मा को ही आदिदेव शिव का विग्रहरूप होना तथा इसे अनादि एवं देहरूपी मन्दिर में निवास करने वाला जानते हैं।

कठोपनिषद में श्रुति इस शिवस्वरूप – परम पुरुष परमात्मा – को ज्योतिर्मय होना एवं अपनी पूर्णता को धारण करते हुए सब मनुष्यों [ स्त्री – पुरुषों ] के हृदय में निवास करने वाला कथन करती है. इसे धूम रहित स्थिर ज्योति के समान होना वर्णन करती है. [कठ.उप. २.१.१२-१३ एवं २.३.१७]

योग – साधना के मार्ग में, सिद्धावस्था को प्राप्त – आत्मज्ञ, वेदविद, मनीषी पुरुष – नासिका के उभय स्वर में सतत प्रवाहित, प्राणवायु के प्रवाह को ही सदानीरा नदी रूप में गंगा और यमुना नदी होना कथन करते हैं. योगी – सिद्धपुरुषों द्वारा नासिका स्वर की इन दोनों ही नाड़ियों को इड़ा और पिंगला तथा सूर्य एवं चन्द्र नाडी भी कहा गया है।

इन दोनों ही नाड़ियों द्वारा ग्रहण किया जाने वाला प्राणवायु ग्रहण करते समय शीतलता का बोध प्रदान करता है. चूँकि श्रीमद्भगवदगीता में इस मानवदेह को वस्त्र या अविनाशी आत्मा द्वारा धारण किया गया बाह्य कलेवर कहा गया है. [गीता २.२२ एवं ८.५ व ६ ] अतः स्थूल नदी के जल स्नान करना या डूबकी लगाना तो सदैव ही देहरूपी वस्त्र या अजर – अमर आत्मा द्वारा धारण किये गये बाह्य कलेवर को ही धोना होता है।

यह तो मात्र शरीर को शुद्ध करना या देह के मैल या देह की गन्दगी को दूर करना होता है, जो इस जीवात्मा को विकारमुक्त करता नहीं है . अतः जीवात्मा का स्नान तो नासिका के उभय स्वर में सतत प्रवाहित होने वाले प्राणवायु के शीतल प्रवाह में अवगाहन से सम्बन्ध रखता है जिसे सूचित करने के लिए ही इन दोनों नासिका स्वर को गंगा और यमुना नदी कहा गया है. तथा इनके संयुक्त प्रवाह को सुषुम्ना कहा जाकर इसे ही तीर्थराज प्रयाग होना वर्णन किया गया है।

अतः शुद्ध जल और नियत गन्तव्य की भांति आचरण की निर्मलता तथा चित्त की एकाग्रता और धैर्य को अपनाकर नासिका के उभय स्वर में प्रवाहित होने `वाले प्राणवायु के इस शीतल प्रवाह में अवगाहन करना ही जीवात्मा का स्नान करना होता है. इस प्रकार किया गया स्नान ही इस जीवात्मा को कर्म विकार से मुक्त करने वाला होता है।

श्रीमद्भगवदगीता में आया ‘नासिकाग्रे दृष्टि और दिशाओं का अवलोकन नहीं करने’ का कथन इस अवस्था को ही सूचित करता है. [गीता ६.१३]
आत्मसाधनारत योगी पुरुषों द्वारा नासिका के दायें स्वर को गवंगा नदी एवं बाएं स्वर को यमुना नदी कहा गया है तथा इन दोनों नासिका स्वर में प्राणवायु के एकरूप सम प्रवाह को ही सुषुम्ना नाडी या प्रयागराज कहा गया है।

अतः अविनाशी अदृष्य जीवात्मा का स्नान करना तो प्राणवायु की शीतलता से सम्बन्ध रखता है. इस अवसर पर ज्ञातव्य है कि नासिका के उभय स्वर से ग्रहण करते समय प्राणवायु मरुभूमि में भी शीतलता का बोध प्रदान करने वाला होता है. अतः नासिका स्वर से प्रवाहित होने वाले प्राणवायु के शीतल प्रवाह में अवगाहन करना ही इस जीवात्मा का स्नान करना माना गया है।

नासिका के उभय स्वर में प्रवाहित होने वाले प्राणवायु के शीतल प्रवाह में अवगाहन करने हेतु चित्त कि एकाग्रता अपनाना आवश्यक होता है किन्तु सुषुम्ना नाडी में प्रवाहित होने वाला प्राणवायु स्वभावतः शीतलता का बोध प्रदान करता है. जिसे कुण्डलिनी जागरण कहा गया है।

इस प्रकार प्रवाहित प्राण ही देहस्थ जीवात्मा को आपादमस्तक शीतलता की अनुभूति प्रदान करता है. यह नासिका के दोनों ही स्वर में भाररहित अवस्था को अपनाकर अल्प मात्रा में प्रवाहित होता है. अतः कावड़ यात्रा की यह स्थूल क्रिया तो नासिका के उभय स्वर से सम्बन्ध रखने वाली है. यह उभय स्वर में प्रवाहित होने वाला प्राण ही देहस्थ अविनाशी आत्मा का बोध प्रदान करता है।

सर्वरूप से एकाकार अवस्था का बोध प्रदान करता है अतः इसे ही अमृत प्राप्ति के कुम्भ स्नान से जोड़ा जाकर भी लोकस्मृति में धारण किया गया है. हम देहस्थ शिवस्वरूप आत्मा का बोध प्राप्तकर, कुन्डलिनी की जाग्रत अवस्था को धारण करें, हम स्व – आत्मस्वरूप की शीतलता को प्राप्त करें इस उद्देश्य को प्रतिबोधात्मक रूपमें सूचित करना ही कावड़ यात्रा का एकमेव आधार है।

अतः कावड़ यात्रा की स्थूल क्रिया तो तमोगुण की प्रधानता वाले व्यक्ति के लिए ही लाभप्रद कही जा सकती है।

किन्तु जो साधक योगमार्ग के पथिक हैं उनके लिए तो प्राणायाम की प्रक्रिया पर आधारित इस अतिगुढ़ कावड़ यात्रा को अपनाकर, प्राणवायु की शीतलता से ही देहस्थ शिवस्वरूप आत्मा का जलाभिषेक करना ही आत्मकल्याण कारी है. इस प्रकार किया गया शीतलता का स्नान ही शिवस्वरुप अविनाशी आत्मा की आराधना करना है जो इस देहस्थ जीवात्मा को कर्म विकार से मुक्त करने वाला है।

यही मनुष्यरूप जीवात्मा को जन्म – जन्मान्तर के कर्म बंधन से मुक्त करने वाला युगों – युगों से प्रचलित साधना मार्ग है जिसे श्रावन मास की कावड़ यात्रा रूप में स्मृति में धारण किया गया है।

श्रेय आधारित जनसुविधा और आत्मकल्याण का यही धर्म-मार्ग है. अतः सड़क मार्ग को सुव्यवस्थित एवं गमनागमन योग्य बनाये रखने के लिए युग परिवर्तन के अवसर पर आगामी श्रावण मास में हमें प्राणायाम की प्रक्रिया पर आधारित इस मूल कावड़ यात्रा का ही अनुपालन करना चाहिए । ॥ॐ हरि: ॥

लोग संसार में अच्छे काम भी करते हैं और बुरे काम भी करते हैं । जब उनका काम पूरा हो जाता है , तो बड़े खुश होते हैं । चाहे वह अच्छा काम हो चाहे बुरा हो, बस काम पूरा हो जाना चाहिए । यदि काम पूरा हो गया तो यह समझते हैं कि हमारा कार्य सफल हो गया।
परंतु अनेक बार ऐसा भी होता है कि काम तो पूरा हो गया , पर वह सफल नहीं हुआ, उसे सफलता नहीं मानना चाहिए ।
क्या कारण ? कारण यह है कि अच्छे कर्म का अच्छा फल मिलता है , बुरे कर्म का बुरा फल मिलता है । अब आप अच्छा फल तो भोगना चाहते हैं , बुरा फल भोगना चाहते नहीं । जो फल आप चाहते हैं , यदि वही फल मिले, तब ही अपने कार्य को सफल मानना चाहिए । जिस फल को आप चाहते नहीं और वह न चाहते हुए भी भोगना पड़े, तो सफलता कहां हुई ?
यह फल तो अनिच्छित है । इसलिए बुरे कर्म के संपन्न होने पर सफलता नहीं माननी चाहिए ।
तो सार यह हुआ कि यदि आप का कार्य संपन्न होने पर , आपको आनंद उत्साह निर्भयता शांति आदि की अनुभूतियां होती हैं, तब तो आपका कार्य सफल है , अर्थात सुखदायक है।
यदि काम पूरा होने के बाद भी मन में भय शंका लज्जा ग्लानि इत्यादि की अनुभूति होती है , तो समझना चाहिए कि यह कार्य सफल नहीं हुआ। इससे हमें सुख फल या इच्छित फल नहीं मिलेगा । जब इच्छित फल ना मिले , तो वह सफलता नहीं है –

एक व्यक्ति से मैंने पूछा, रिश्तेदार किसे कहते हैं?
उसने कहा , कि जिन से हमारा खून का रिश्ता हो, वो रिश्तेदार कहलाते हैं। जैसे माता-पिता भाई-बहन चाचा चाची मामा-मामी बुआ मौसी इत्यादि.
मैंने पूछा, इनको आप रिश्तेदार क्यों मानते हैं?
उस ने उत्तर दिया , क्योंकि ये हमें सुख देते हैं, इसलिए हम उनको रिश्तेदार मानते हैं। मैंने पूछा, कि क्या ये आपको कभी कभी दुख भी देते हैं?*
वह बोला, हाँ, ये दुख भी देते हैं।
मैंने पूछा , आप को खून के रिश्ते दार ज्यादा दुख देते हैं या दूसरे अपरिचित लोग? उसने थोड़ा विचार किया, सोच कर बोला, कि अब तक का अनुभव तो यही है, कि जितना दुख मेरे रिश्ते दारों ने मुझे दिया है, उतना अपरिचित लोगों ने नहीं दिया।
तो सार क्या हुआ कि जो खून के रिश्ते दार हैं, वे सुख कम और दुख अधिक देते हैं।
तो मैंने कहा कि आप का प्रयोजन खून की रिश्तेदारी है यह सुख प्राप्ति?
वह बोला, सुख प्राप्ति।
मैंने कहा, यदि कोई व्यक्ति आपका खून का रिश्तेदार ना हो, मित्र आदि हो, और आपको सुख देता हो, तो क्या वह आपका रिश्तेदार कहलाएगा या नहीं?
वह बोला, हां, वह भी कहलाएगा।
तो मैंने कहा कि असली रिश्तेदार वही है जो आपको सुख देता है, चाहे वह खून का रिश्तेदार हो या न हो। क्योंकि आपका प्रयोजन सुख प्राप्ति है। इसलिए सुख देने वाला व्यक्ति ही आपका वास्तविक रिश्तेदार है
[: अभी तो भीड़ का प्रभाव है आपके ऊपर, इसलिए भीड़ से आप अनुकरण करते हैं। भीड़ की नकल करते हैं। और पड़ोसी जैसा है, वैसा ही बनने की कोशिश करते हैं। क्योंकि इस भीड़ के बीच जिसे जीना हो, अगर वह बिलकुल अनूठा हो, तो भीड़ उसे मिटा देगी। भीड़ उनको ही पसंद करती है, जो उन जैसे हैं। वस्त्रों में, आचरण में, व्यवहार में भीड़ चाहती है आप विशिष्ट न हों, आप पृथक न हों, अनूठे न हों। भीड़ व्यक्ति को मिटाती है; एक तल पर सभी को ले आती है।

इसलिए बहुत कुछ आप में दूसरे जैसा भी मिल जाएगा। लेकिन जैसे—जैसे आपका स्वभाव निखरेगा, वैसे—वैसे आप भीड़ से मुक्त होंगे, वैसे—वैसे अनुकरण की वृत्ति गिरेगी, वैसे—वैसे वह घड़ी आपके जीवन में आएगी जब आप जैसा इस जगत में कुछ भी न रह जाएगा।

कृष्ण, लाओत्से, बुद्ध, उस परम शिखर पर पहुंचे हुए व्यक्ति हैं। किसी की दूसरे से तुलना करने की भूल में मत पड़ना। उस तुलना में अन्याय होगा। अन्याय की संभावना निरंतर है। वह अन्याय यह है कि अगर आपको कृष्ण पसंद हैं, तो आप महावीर के साथ अन्याय कर जाएंगे। वह पसंदगी आपकी है। वह पसंदगी आपकी निजी बात है।

और अगर आपको महावीर पसंद हैं, तो कृष्ण आपको कभी भी पसंद नहीं पड़ेंगे। यह आपका व्यक्तिगत रुझान है। इस रुझान को आप महापुरुषों पर मत थोपें। आपके रुझान में कोई गलती नहीं है। कृष्ण आपको प्यारे हैं, आप कृष्ण को प्रेम करें। और इतना प्रेम करें कि वही प्रेम आपके लिए रूपांतरण का कारण हो जाए, अग्नि बन जाए, और आप उसमें से निखर आएं।

अगर महावीर से प्रेम है, तो महावीर को प्रेम करें। और महावीर के व्यक्तित्व को एक मौका दें कि वह आपको उठा ले, सम्हाल ले, आप डूबने से बच जाएं। महावीर का व्यक्तित्व आपके लिए नाव बन जाए। लेकिन दूसरे महापुरुष से तुलना मत करें। तुलना में गलती हो जाएगी। तुलना केवल उनके बीच हो सकती है, जो समान हैं। उनके बीच कोई समानता का आधार नहीं है। और उन सबके व्यक्तित्व का ढंग बिलकुल पृथक—पृथक है।

जैसे मीरा है। मीरा नाच रही है। हम सोच भी नहीं सकते कि बुद्ध, और नाचे! कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं। महावीर के होंठों पर बांसुरी रखनी बड़ी बेहूदी मालूम पड़ेगी; एब्सर्ड है। उसकी कोई संगति नहीं बैठती। महावीर का जीवन, व्यक्तित्व, ढंग, उससे बांसुरी का कोई संबंध नहीं बैठ सकता।

कृष्ण के ऊपर मोर—मुकुट शोभा देता है। वह उनके व्यक्तित्व की सूचना है। वैसा मोर—मुकुट आप जीसस को बांध देंगे, तो बहुत बेहूदा लगेगा। जीसस को तो काटो का ताज और सूली ही जमती है। सूली पर लटककर जब काटो का ताज उनके सिर पर है, तब जीसस अपने शिखर पर होते हैं। और कृष्ण जब बांसुरी बजा रहे हैं मोर—मुकुट रखकर, तब अपने शिखर पर होते हैं।

एक—एक व्यक्ति अनूठा है यह खयाल में आ जाए तो महापुरुष बिलकुल अनूठे हैं। जब ज्ञान की घटना घटती है, तो ज्ञान की घटना तो एक ही है। ऐसा समझें, यहां हम इतने लोग बैठे हैं। यहां प्रकाश है। तो प्रकाश की घटना तो एक ही जैसी है, लेकिन सभी आंखों में एक जैसा प्रकाश दिखाई नहीं पड़ रहा है। क्योंकि आंखों का यंत्र, देखने वाला यंत्र, प्रकाश को प्रभावित कर रहा है।

किसी की आंखें कमजोर हैं, उसे धीमा प्रकाश दिखाई पड़ रहा होगा। किसी की आंखें बहुत तेज हैं, तो उसे बहुत प्रकाश दिखाई पड़ रहा होगा। और किसी की आंखों पर चश्मा है, और रंगीन है, तो प्रकाश का रंग बदल जाएगा। और किसी की आंख बिलकुल ठीक .है लेकिन वह आंख बंद किए बैठा हो, तो प्रकाश दिखाई ही नहीं पड़ेगा, अंधकार हो जाएगा।

जब जीवन की परम अनुभूति घटती है, तो अनुभव तो बिलकुल एक है, लेकिन व्यक्तित्व अलग— अलग हैं। जब कृष्ण को वह परम अनुभव होगा, तो वे नाचने लगेंगे। यह उनके व्यक्तित्व से आ रहा है नाच, उस अनुभव से नहीं आ रहा है। जब बुद्ध को वही परम अनुभव होगा, तो वे बिलकुल मौन होकर बैठ जाएंगे, उनके हाथ—पैर भी नहीं हिलेंगे; आंख भी नहीं झपकेगी। उनके भीतर जो घटना घटी है, वह उनके मौन से प्रकट होगी, उनकी शून्यता से प्रकट होगी, उनकी थिरता से प्रकट होगी। उनका आनंद मुखर नहीं होगा, मौन होगा।

बुद्ध चुप होकर प्रकट कर रहे हैं कि क्या घटा है। कृष्ण नाचकर प्रकट कर रहे हैं कि क्या घटा है। यह कृष्ण के व्यक्तित्व पर और बुद्ध के व्‍यक्‍तित्‍व पर निर्भर है। घटनाए कही घटी है।

इसे ऐसा समझ लें कि एक चित्रकार सुबह सूरज को उगते हुए देखे। और एक संगीतकार सुबह सूरज को उगता देखे। और एक नृत्यकार सूरज को उगता देखे। और एक मूर्तिकार और एक कवि सूरज को उगता देखे। ये सारे लोगों ने एक ही सूरज को उगते देखा है। और इन सबके चित्त पर एक ही सौंदर्य की घटना घटी है। ये सब आनंद से भर गए हैं। वह सुबह का उगता सूरज इनके भीतर भी कुछ उगने की घटना को जन्म दे गया है। इनके भीतर भी चेतना आंदोलित हुई है।

लेकिन चित्रकार उसका चित्र बनाएगा। अगर आप उससे पूछेंगे कि क्या देखा, तो चित्र बनाएगा। कवि एक गीत में बांधेगा, अगर आप उससे पूछेंगे, क्या देखा। नर्तक नाच उठेगा, नाचकर कहेगा कि क्या देखा।

गीता दर्शन
(भाग–7),
अध्‍याय—14
OSHO

सोया ग्रह :

यदि कोई ग्रह अकेला है और उस पर किसी ग्रह की कोई दृष्टि नहीं है तो उस ग्रह को सोया ग्रह कहते हैं |
सोया ग्रह उच्च राशि में हो या नीच राशि में, उसका कोई फल जातक को नहीं मिल पाता | सोया ग्रह राजयोग को निगल लेने में सक्षम होता है |

सोया भाव:

जिस भाव में कोई ग्रह न हो या भाव पर किसी ग्रह की दृष्टि न हो तो वह भाव सोया हुआ कहलायेगा। ऐसी स्थिति में भाव से संबंधित कारक वस्तुओं एवं संबंधियों से जातक को कोई लाभ न मिलेगा।

सुप्त ग्रह के भावगत स्थिति अनुसार फल।

सुप्त ग्रह लग्न में हो तो व्यक्ति अपने शरीर से बहुत परेशान रहता है | या तो बहुत मोटा या बहुत पतला या फिर काय ऐसी हो जाती है कि व्यक्ति सुन्दर लोगों को देखते ही हीन भावना से घिर जाता है |

दुसरे घर में सोया ग्रह हो तो पैसा कितना भी आ जाए उस पैसे का उपयोग व्यक्ति स्वयं नहीं कर पाता | उस पैसे का भोग दूसरे व्यक्ति करते हैं |

तीसरे घर में सोया ग्रह हो तो व्यक्ति हर काम में बुरी तरह असफल रहता है | कोई भी काम बिना रुकावट के नहीं हो पाता | मित्रों से बार बार धोखा मिलता है |

चौथे घर में कोई सोया ग्रह हो तो माता पिता का सुख व्यक्ति को न के बराबर मिलता है | कोई जमीन मकान या प्रापर्टी बरसों तक ऐसे ही पड़ी रहती है उसका कोई उपयोग नहीं हो पाता | न बिकती है न उस पर कोई construction होती है |

पांचवें घर में कोई सोया ग्रह हो तो प्रेम में बार बार धोखा मिलता है | सच्चे प्रेम को तवज्जो नहीं मिलती | पढ़ाई लिखाई भी किसी काम नहीं आती | व्यर्थ में व्यक्ति अपनी मेहनत की कमाई को लुटा देता है | नालायक संतान होती है और संतान के भविष्य की चिंता सदैव बनी रहती है |

छठे घर में सोया ग्रह हो तो व्यक्ति लम्बे समय तक बीमार रहता है या बीमार की सेवा करता है | घर में से दवैया ख़त्म होने का नाम नहीं लेती और बीमारी, इलाज, अस्पताल का मुह रोज देखने को मिलता है | अस्पताल में नौकरी या दवाई की फेक्ट्री में ऐसे ही व्यक्ति काम करते देखे गए हैं |

सुप्त ग्रह या सोया ग्रह यदि सातवें घर में है तो शादी के लिए जीवन का एक हिस्सा गुजर जाता है और शादी की तमन्ना भी ख़त्म हो जाती है |

आठवें घर में कोई ग्रह सोया हो तो विदेश में बरसों भटकने के बावजूद व्यक्ति को कुछ प्राप्त नहीं होता | व्यक्ति का मृत्यु से बार बार साक्षात्कार होता है परन्तु उम्र लम्बी होती है |

नौवें घर में सोया ग्रह हो तो बहुत धर्म कर्म करने के बावजूद व्यक्ति को उसका फल नहीं मिलता | पूरी उम्र व्यक्ति धार्मिक रहता है परन्तु पूजा पाठ का पूरा फल कभी नहीं मिलता | भाग्य की जहाँ जरूरत होती है वहां कुछ न कुछ उल्टा हो जाता है | व्यक्ति सफलता से एक कदम हमेशा पीछे रहता है |

दसवें घर का सोया ग्रह व्यक्ति को आलसी बना देता है | या तो नौकरी ऐसी होगी जहाँ समय न कटे या फिर ऐसी जगह व्यक्ति काम करता है जहाँ से भागने को मन करे | व्यक्ति लम्बे समय तक बोरियत महसूस करता है |

ग्यारहवें घर में सोया ग्रह हो तो व्यक्ति का जीवन अशुभ समाचार से भर जाता है | आय इतनी होती है जिससे केवल गुजारा चल सके |

बारहवें घर में सोया ग्रह व्यक्ति की नींद उड़ा देता है | नींद में कमी या दिन में भी नींद जैसी स्थिति होती है | व्यक्ति रोज बुरे स्वप्न देखता है | पैर में बार बार चोट लगती है बल्कि एक ही जगह पर कई बार जख्म होता है | कोई दोस्त या रिश्तेदार षड्यंत्र रचता है जिसमे व्यक्ति फंस जाता है या फिर किसी अपने से बहुत बाधा धोखा होता है | व्यक्ति को अपने साथ होने वाली घटनाओं का अंदेशा नहीं होता |

कौन सा ग्रह कब अपने आप जागेगा:-

बृहस्पति: अगर बृहस्पति सोया हुआ हो तो 16 से 21 वर्ष की आयु के मध्य जब जातक अपना व्यापार या नौकरी करनी शुरु कर दे तो बृहस्पति स्वयं जाग जायेगा।
चन्द्र: 24वें वर्ष के उपरान्त अगर जातक दुबारा पढ़ाई शुरु करता है तो चन्द्रमा स्वयं जाग जायेगा।
शुक्र: विवाह के बाद जागेगा अगर विवाह 25वें वर्ष के पश्चात् हो।
मंगल: 28वें वर्ष के पश्चात् विवाह या किसी भी प्रकार से किसी औरत से संबंध हो जाये।
बुध: 34वें वर्ष के पश्चात्, जब व्यक्ति अपना व्यापार प्रारम्भ करे या बहन अथवा बेटी की शादी करे।
शनि: 36वें वर्ष के पश्चात् जब व्यक्ति अपना मकान बनाए।
राहु: 42वें वर्ष के पश्चात्, ससुराल से गहरे संबंध होने पर।
केतु: संतान के जन्म के पश्चात्, विशेषकर 48वें वर्ष के पश्चात्।
उपरोक्त स्थिति होने पर ग्रह अपने आप जाग जायेगा अर्थात उस ग्रह से संबंधित शुभ या अशुभ फलों का अनुभव होने लगेगा।

ग्रह गोचर फलम्

सूर्य फलम्

1.जब सूर्य जन्मराशि में गोचर में भर्मण करता है तब वैभव की हानि ,यात्रा,रोग,पीड़ा आदि फल होता है।
2.गोचर में जन्मराशि से द्वितीय सूर्य वित्त की हानि,धोखा होने से हानि,जल सम्बन्धी रोग आदि होते हैं।
3.गोचर में जन्मराशि से तीसरा सूर्य स्थानलाभ(भूमि भवन पद आदि की प्राप्ति),शत्रुनाश,अर्थलाभ एवं स्वास्थ्य अच्छा रहता है।
4.गोचर में जन्म राशि से चतुर्थ सूर्य से नारिभोग में बाधा तथा रोगपीड़ा होती है।
5.गोचर में पंचमस्थ सूर्य हो तो जातक को शत्रुओं तथा रोग से पीड़ा होती है।
6.गोचर में षष्ठस्थ सूर्य रोग रिपुओं की वृद्धि तथा व्यर्थ चिंता देता है।
7.सप्तमस्थ सूर्य दीनता,दूर की यात्रा एवम् उदर रोग उतपन्न करता है।
8.अष्टमस्थ सूर्य से स्त्रियों में वैमनस्य राजभय एवम् रोग होता है।
9.नवमस्थ गोचर सूर्य महान बिमारी दीनता भयानक आपत्ति तथा कारोबार की हानि होती है।
10.दशम में सूर्य हो तो सर्वत्र जय एवम् कार्यों में सफलता मिलती है।
11.एकादश सूर्य से पदप्राप्ति वैभवलाभ तथा निरोगिता रहती है।
12.द्वादश सूर्य व्यापार में शुभ फल देता है ।

चन्द्र फलम्

1.जन्म राशिगत चन्द्र गोचर में संचार होने पर मिष्ठान्न शय्या भोजन वस्त्रादि की प्राप्ति होती है।
2.द्वितीय होंने पर सभी कार्यों में बाधा आती है मान तथा अर्थ का नाश होता है।
3.तृतीय होने पर नारी-वस्त्र सुख एवम् धन का लाभ मिलता है तथा विजय होती है।
4.चतुर्थ होने पे भी उतपन्न होता है।
5.पंचमस्थ होने से बहुत माया(छल कपट) से शोक प्राप्त होता है विघ्न उतपन्न होते हैं।
6.षष्ठस्थ चन्द्र से सुख तथा धन प्राप्त होता है शत्रु रोग आदि का नाश होता है।

  1. सप्तमस्थ होने पर अच्छा भोजन सम्मान शयनसुख आदि मिलता है एवम् आज्ञा का पालन होता है।
    8.अष्टमस्थ चन्द्र से भय प्राप्त होता है।
    9.नवम होने पर भाग्य वृद्धि होती है
    10.दशम होने पर कर्म क्षेत्र में लाभ पिता से नजदीकी बढ़ती है।
    11.एकादश में होने पर व्यापार में लाभ होता है।
    12.द्वादश में होने पर मान हानि अकारण व्यय होता है ।।

मंगल फलम्

1.जन्म राशि में मंगल गोचर में भृमण करता है तो सभी कार्यों में अवरोध उतपन्न होता है तथा चोट लगती है।
2.द्वितीयगत मंगल गोचर में राज्य शासन,चोर अग्नि तथा शत्रुओं से पीड़ा होती है। रोगों के कारण शरीर में दौर्बल्य तथा चिंता उतपन्न होती है।
3.तृतीयस्थ भौम धन की प्राप्ति होती है तथा स्वामी कार्तिकेय की कृपा प्राप्त होती है।
4.चतुर्थ के मंगल से दुष्ट लोगों के संग,उदररोग,ज्वर तथा शरीर से रक्तस्त्राव होता है।
5.पंचम स्थान के मंगल से शत्रुभय व्याधिभय तथा पुत्र द्वारा शोक होता है।
6.षष्ठस्थ मंगल से बहुमूल्य धातुओं का संग्रह होता है कलह भय आदि होता है तथा प्रियजनो का वियोग होता है।
7.सप्तमस्थ मंगल होने पर पेट रोग नेत्र रोग तथा पत्नी से कलह होती है।
8.अष्टमस्थ मंगल से शरीर से रक्तस्त्राव रक्तचाप अंगभंग मन में निराशा उतपन्न होती है और सम्मान को ठेस पहुंचती है।
9.नवमस्थ मंगल से धनवान पराजय तथा व्याधि होती है।
10.यदि दशम में मंगल हो तो सभी प्रकार से लाभ है
11.एकादश का मंगल जनपद का अधिकार जैसे विधायकादि को प्राप्त होता है
12.यदि मंगल व्ययस्थान में हो तो अनेक अनर्थों की उत्पत्ति तथा अनेक प्रकार की फिजूलखर्ची होती है।पित्त रोग तथा नेत्रविकार होता है।

बुध फलम्

1.जन्म राशि का बुध गोचर में अपने बन्धु बांधवों से कलह कराता है दुर्वचन कहने की प्रवृत्ति होती है।
2.द्वितीयस्थ बुध धन सम्पदा देता है
3.तृतीयस्थ बुध राजा तथा शत्रु से भय देता है
4.चतुर्थ होने से धनागम मित्र एवम् कुटुंब की वृद्धि होती है
5.पंचमस्थ बुध के कारण स्त्री तथा सन्तान से कलह
6.छठे बुध उन्नति विजय एवम् सौभाग्य
7.सप्तमस्थ बुध विग्रह कारक होता है
8.अस्टम्स्थ बुध विजयी पुत्र धन वस्त्र एवम् कुशलता की प्राप्ति
9.गोचर में नवम का बुध रपग पीड़ा कारक
10.दशमस्थ बुध शत्रुनष्ट,धनलाभ,स्त्रिभोग,मधुरवाणी शुभ तथा उन्नति होति है।
11.एकादश भाव का बुध पत्नी पुत्र एवम् मित्रों का मिलन होता है तथा तुष्टि प्राप्त होती है।
12.बारहवे भाव का बुध शत्रुओं से पराजय तथा रोगों से पीड़ा देता है।

गुरु फलम्

1.यदि गोचरस्थ गुरु किसी को जन्म राशि का हो तो स्थानभ्रंश अर्थात या तो महत्वपूर्ण पद छिन जाता है निलम्बन हो जाता है या स्थानांतर हो जाता है। धन की हानि कलह बुद्धि की जड़ता आदि फल होते हैं
2.द्वितीयस्थ गुरु से धन का लाभ शत्रुओं का नाश रमणीय पदार्थों का भोग प्राप्त होता है।
3.तीसरे गुरु पदभ्रंश(व्यवसाय परिवर्तन) तथा कार्यबाधा होती है।
4.चतुर्थ गुरु के कारण मित्र एवम् बांधवों रिश्तेदारों से क्लेश प्राप्त होता है।
5.पंचमस्थ गुरु अश्व वाहन धन सन्तति स्वर्ण महंगी धातुएँ स्त्रीसुख तथा आवास की प्राप्ति होती है।
6.छठे गुरु से सुखप्राप्ति के साधन से भू सुख की प्राप्ति नही होती अर्थात अतृप्ति तथा असन्तुष्टि रहती है।
7.सप्तमभावस्थ गुरु गोचर में हो तो बुद्धि एवम् वाणी का प्रयोग चातुर्यपूर्वक होता है आर्थिक उन्नति होती है
कारोबार में सफलता मिलती है और स्त्री सुख मिलता है।
8.गोचरभृमण में स्वराशि से अष्टम राशि का गुरु तीव्र दुःख रोग पराधीनता तथा निरन्तर भटकना पड़ता है।
9.नवमस्थ गुरु से स्त्री पुत्र धन आदि का सुख प्राप्त होता है बुद्धि की प्रखरता रहती है कही हुई बातों का पालन होता है एवम् आज्ञा का उलंघन नही होता है।
10.जब गोचर में गुरु दशम में हो तो स्थाननाश तथा धननाश होता है।
11.गुरु ग्यारहवें होने पर इच्छाएं पूरी होती हैं धनलाभ होता है सभी कार्यों में सफलता मिलती है तथा नया स्थानादि प्राप्त होता है।
12.बारहवें होने पर दूर स्थानों की यात्रा बहुत दिनों तक करनी पड़ती है तथा उग्र दुःख प्राप्त होते हैं

शुक्र फलम्

1.जन्म राशि पर शुक्र का गोचर भर्मण हो तब मिष्ठान्न भोजन प्रेयसि की संगति कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थों की प्राप्ति शयनसुख सामग्री सुंदर वस्त्रादि का भोग मिलता है और आनन्दाभूति होती है।
2.द्वितीयस्थ शुक्र धन-धान्य आभूषण वस्त्र भूषा गन्धमाल्य तथा सम्मान देता है परिवार में आज्ञा का पालन होता है,शासन पक्ष से सहयोग मिलता है परिवार के लोग प्रसन्न रहते है तथा पर्याप्त सुख मिलता है।
3.तृतीय स्थान पर शुक्र होने पर आदेश की अवज्ञा होती है धन सम्मान भौतिक सामग्री वस्त्रादि का नाश होता है एवम् शत्रु नष्ट होते हैं।
4.जन्मराशि से चतुर्थ होने पर बंधुजनों का सुख स्त्री सुख तथा इंद्र के समान वैभव प्राप्त होता है।
5.पंचम राशिगत गोचर का शुक्र धन मित्र तथा गुरुजनो द्वारा तुष्टि प्रदान करता है।
6.जन्मराशि से 6ठे शुक्र मुकदमे तथा विवाद में पराजित कराता है दबे दबे में कमी होती है।
7.सप्तम में शुक्र स्त्री से भय या स्त्री के कारण कष्ट होता है।
8.अष्टम का शुक्र गृहस्थी का सुख देता है घरेलू उपकरणों का संग्रह होता है घर में साजसज्जा आदि का सामान एकत्रित होता है और स्त्री तथा रत्नादि भोग प्राप्त होते हैं।
9.जन्मराशि से नवम राशि में गोचर का शुक्र धन की प्राप्ति तथा व्यय धर्मकार्य(दान परोपकार आदि)में होता है पत्नी का सुख एवं सहयोग मिलता है।
10.दशवें शुक्र जातक की जन्मराशि से हो तो लड़ाई झगड़ा मुकदमेबाजी आदि में उलझना पड़ता है एवम् अपमान झेलना पड़ता है।
11.यदि गोचर भर्मण करता हुआ शुक्र जन्मराशि से लाभस्थान में हो तो सुगन्धित एवम् मनोहारी पदार्थ मिलते हैं तथा बन्धुओं का सुख मिलता है।
12.जन्मराशि से बारहवें स्थान पर शुक्र का गोचर धन वाहन वस्त्र आदि से सुखी करता है।

शनि फलम्

1.गोचर में जन्मराशि का शनि विष तथा अग्नि विजली आदि से भय होता है बन्धुजनों की हानि होती है तथा स्थान छोड़ना पड़ता है पुत्र एवम् परिवारजनो जो दूर जाना पड़ता है।
2.दुसरे शनि धन सौख्य शरीर की कांति तथा सम्भोग शक्ति कमजोर होती है इन तत्वों की हानि होती है।
3.तीसरे शनि होने पर शुभ फल होता है भैंस आदि तथा भारी वाहनों का सुख ट्रैक्टर ट्रक हाथी मिलता है और धन आरोग्य की प्राप्ति एवम् मनोकामना की पूर्ति होती है
4.चौथे शनि मन में कुटिलता रहती है पत्नी तथा प्रियजनों का वियोग होता है यह शनि की ढैया कहलाती है।
5.पंचमस्थ शनि से सभी से लड़ाई झगड़ा तथा पुत्र से वियोग होता है।
6.छठे शनि के गोचर में होने पर शत्रु शांत हो जाते हैं तथा रोग भी शांत होते हैं
7.सातवें शनि दूर की यात्रा कराता है तथा स्त्रीजनो से निकटता बढ़ाता है।
8.आठवें स्थान पर गोचर का शनि हो तो अपने लोगों से मनमुटाव होता है और दीनता आती है।
9.नवम भाव के शनि लोगों से अकारण वैर हो जाता है बन्धन होता है अर्थात कारावास या अन्य प्रकार से पराधीनता होती तथा अपना नियम धर्म आदि छूट जाता है।
10.दशम भाव में स्वराशि से गोचर शनि के भर्मण करने पर विद्या कीर्ति धन की हानि होती है एवम् नवीन कारोबार प्रारम्भ होता है।
11.एकादश भाव के शनि से परस्त्री का सान्निध्य प्राप्त होता है वाहन का सुख मिलता है प्रताप रौब दाब दबदबा बढ़ता है तथा अधिकार प्राप्त होता है।
12.द्वादश भाव के शनि से निरन्तर एक के बाद एक दुःख प्राप्त होता रहता है तथा जलराशि में डूबने या विपत्तियों के सागर में मग्न होने का भय रहता है।।

विशेष-जन्मराशि से चौथा तथा आठवाँ शनि लोकभाषा में ढैय्या शनि कहलाता है इसी प्रकार द्वादश भाव जन्मराशि तथा द्वितीय राशि का शनि साढ़े साती कहलाता है क्योंकि ढ़ाई वर्ष तथा जन्म राशि से बारहवें फिर ढाई वर्ष तक जन्मराशि पर फिर ढाई वर्ष तक द्वितीय राशि पर रहने से साढ़े सात वर्ष होते हैं।।

इस प्रकार सूर्यादि ग्रह जन्मराशि से बारहवीं राशि तक गोचर भ्रमण करते हैं उपरोक्त फल देते हैं।।
[ *कष्ट निवारण के लिए –
हमारे घर में ही कई ऐसी भाग्यवर्धक चीजें होती है, जिनका प्रयोग करने पर हम स्वयं अपने घर-ऑफिस आदि के नकारात्मक ऊर्जा को दूर करके सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि कर सकते हैं। ऐसे आसान उपाय जिससे हम सकारात्मक ऊर्जा का विकास कर अपने भाग्य को बदल सकते हैं, अपना भाग्य जागृत कर सकते हैं।

वास्तुशास्त्र के अनुसार पौधों को किस दिशा में लगाया जाए

घर की इंटीरियर डैकोरेशन में पेड़-पौधों का बहुत महत्व है। हरे भरे पेड़-पौधे घर को ऊर्जावान बनाते हैं। घर में फूलों से सजावट सबसे सस्ती, सरल व आकर्षक होती है। बहुत कम खर्च में आप सुंदर पौधे रख कर भी अपने घर को सजा सकती हैं। वास्तुशास्त्र के अनुसार छोटे-छोटे पौधों को घर की किस दिशा में लगाया जाए ताकि उन पौधों के गुणों को हम पा सकें, इसकी विवेचना यहां की जा रही है।

1 तुलसी के पौधों को यदि घर की उत्तर-पूर्व दिशा में रखा जाए तो उस स्थान पर अचल लक्ष्मी का वास होता है अर्थात उस घर में आने वाली लक्ष्मी टिकती है।

2 पान का पौधा, चंदन, हल्दी, नींबू आदि के पौधों को भी घर में लगाया जा सकता है। इन पौधों को पश्चिम-उत्तर के कोण में रखने से घर के सदस्यों में आपसी प्रेम बढ़ता है।

3 घर के चारों कोनों को ऊर्जावान बनाने के लिए गमलों में भारी प्लांट को लगाकर भी रखा जा सकता है। दक्षिण -पश्चिम कोने में अगर कोई भारी प्लांट है तो उस घर के मुखिया को व्यर्थ की चताओं से मुक्ति मिलती है।

4 कैक्टस ग्रुप के पौधे जिनमें नुकीले कांटे होते हैं उन्हें घर के अंदर लगाना वास्तुशास्त्र के अनुसार उचित नहीं।

5 पलाश, नागकेशकर, अरिष्ट, शमी आदि का पौधा घर के बगीचे में लगाना शुभ होता है। शमी का पौधा ऐसे स्थान पर लगाना चाहिए जो घर से निकलते समय दाहिनी ओर पड़ता हो।

6 घर के बगीचे में पीपल, बबूल, कटहल आदि का पौधा लगाना वास्तुशास्त्र के अनुसार ठीक नहीं। इन पौधों से युक्त घर के अंदर हमेशा अशांति का अम्बार लगा ही रहता है ।

7 फूल के पौधों में सभी फूलों, गुलाब, रात की रानी, चम्पा, जास्मीन आदि को घर के अंदर लगाया जा सकता है किन्तु लाल गेंदा और काले गुलाब को लगाने से चिंता एवं शोक की वृद्धि होती है।

8 शयनकक्ष के अंदर पौधे लगाना अच्छा नहीं माना जाता। बेल (लतरने) वाले पौधों को अगर शयनकक्ष के अंदर दीवार के सहारे चढ़ाकर लगाया जाता है तो इससे दाम्पत्य संबंधों में मधुरता एवं आपसी विश्वास बढ़ता है।

9 अध्ययन कक्ष के अंदर सफेद फूलों के पौधे लगाने से स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है। अध्ययन कक्ष के पूर्व एवं दक्षिण के कोने में गमले को रखा जाना चाहिए।

10 रसोई घर के अंदर गमलों में पुदीना, धनिया, पालक, हरी मिर्च आदि के छोटे-छोटे पौधों को लगाया जा सकता है। वास्तुशास्त्र एवं आहार विज्ञान के अनुसार जिन रसोईघरों में ऐसे पौधे होते हैं वहां मक्खियां एवं चींटियां अधिक तंग नहीं करतीं तथा वहां पकने वाली सामग्री सदस्यों को स्वस्थ रखती है।

11 घर के अंदर कंटीले एवं वैसे पौधे जिनसे दूध निकलता हो, नहीं लगाने चाहिएं। ऐसे पौधों के लगाने से घर के अंदर वैमनस्य का भाव बढ़ता है एवं वहां हमेशा अशांति का वातावरण बना रहता है।

12 बोनसाई पौधों को घर के अंदर लगाना वास्तुशास्त्र के अनुसार उचित नहीं क्योंकि बोनसाई को प्रकृति के विरुद्ध छोटा कद प्रदान किया जाता है। जिस प्रकार बोनसाई का विस्तार संभव नहीं होता, उसी प्रकार उस घर की वृद्धि भी बौनी ही रह जाती है।

13 घर की पूर्वी दिशा में फूलों के पौधे, हरी घास, मौसमी पौधे आदि लगाने से उस घर में भयंकर बीमारियों का प्रकोप नहीं होता।
असली रुद्राक्ष/रत्न अभिमंत्रित करा कर, प्राप्त कर सकते हैं!!
क्रमश:….
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नवग्रह के पौधे और उनका फल

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों को अपने अनुकूल बनाने के लिए वनस्पति की भूमिका अग्रणी है। उसके अनुसार पेड़ व पौधों लगाने और इनके पूजन से कई समस्याएं दूर होती हैं।

आइए जानते हैं नवग्रह, उनके पेड़-पौधे और उनका फल….

सूर्य- आंकड़ा : बौद्धिक प्रगति, स्मृति शक्ति विकास।

चंद्र- पलाश : मानसिक रोगों से मुक्ति।

मंगल- खैर : इसके पूजन से रक्त विकार तथा चर्म रोग ठीक होते हैं। प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है।

बुध- आंधी झाड़ा : इसके स्नान से वायव्य बाधा का शमन व मानसिक संतुलन बना रहता है।

गुरु- पारस पीपल : इसके पूजन से ज्ञान वृद्घि तथा भगवान विष्णु की कृपा बनी रहती है।

शुक्र- गूलर : पूजन से पूर्व जन्म के दोषों का नाश होता है।

शनि- शमी : पूजन से धन, बुद्घि, कार्य में प्रगति, मनोवांछित फल की प्राप्ति तथा बाधाएं दूर होती हैं।

राहु- चंदन : पूजन से राहु पीड़ा से मुक्ति तथा सर्प दंश भय समाप्त होता है।

केतु- अश्वगंधा : मानसिक विकलता दूर होती है।
[भगवान शिव ने मातापार्वती को बताए थे जीवन के ये पांच रहस्य, आप भी जानिए!!!!!

भगवान शिव ने देवी पार्वती को समय-समय पर कई ज्ञान की बातें बताई हैं। जिनमें मनुष्य के सामाजिक जीवन से लेकर पारिवारिक और वैवाहिक जीवन की बातें शामिल हैं। भगवान शिव ने देवी पार्वती को 5 ऐसी बातें बताई थीं जो हर मनुष्य के लिए उपयोगी हैं, जिन्हें जानकर उनका पालन हर किसी को करना ही चाहिए-

  1. क्या है सबसे बड़ा धर्म और सबसे बड़ा पाप
    देवी पार्वती के पूछने पर भगवान शिव ने उन्हें मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा धर्म और अधर्म मानी जाने वाली बात के बारे में बताया है। भगवान शंकर कहते है-

श्लोक- नास्ति सत्यात् परो नानृतात् पातकं परम्।।

अर्थात- मनुष्य के लिए सबसे बड़ा धर्म है सत्य बोलना या सत्य का साथ देना और सबसे बड़ा अधर्म है असत्य बोलना या उसका साथ देना।

इसलिए हर किसी को अपने मन, अपनी बातें और अपने कामों से हमेशा उन्हीं को शामिल करना चाहिए, जिनमें सच्चाई हो, क्योंकि इससे बड़ा कोई धर्म है ही नहीं। असत्य कहना या किसी भी तरह से झूठ का साथ देना मनुष्य की बर्बादी का कारण बन सकता है।

  1. काम करने के साथ इस एक और बात का रखें ध्यान,,,,,
    श्लोक- आत्मसाक्षी भवेन्नित्यमात्मनुस्तु शुभाशुभे।

अर्थात- मनुष्य को अपने हर काम का साक्षी यानी गवाह खुद ही बनना चाहिए, चाहे फिर वह अच्छा काम करे या बुरा। उसे कभी भी ये नहीं सोचना चाहिए कि उसके कर्मों को कोई नहीं देख रहा है।

कई लोगों के मन में गलत काम करते समय यही भाव मन में होता है कि उन्हें कोई नहीं देख रहा और इसी वजह से वे बिना किसी भी डर के पाप कर्म करते जाते हैं, लेकिन सच्चाई कुछ और ही होती है। मनुष्य अपने सभी कर्मों का साक्षी खुद ही होता है। अगर मनुष्य हमेशा यह एक भाव मन में रखेगा तो वह कोई भी पाप कर्म करने से खुद ही खुद को रोक लेगा।

  1. कभी न करें ये तीन काम करने की इच्छा,,,,,

श्लोक-मनसा कर्मणा वाचा न च काड्क्षेत पातकम्।

अर्थात- आगे भगवान शिव कहते है कि- किसी भी मनुष्य को मन, वाणी और कर्मों से पाप करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि मनुष्य जैसा काम करता है, उसे वैसा फल भोगना ही पड़ता है।

यानि मनुष्य को अपने मन में ऐसी कोई बात नहीं आने देना चाहिए, जो धर्म-ग्रंथों के अनुसार पाप मानी जाए। न अपने मुंह से कोई ऐसी बात निकालनी चाहिए और न ही ऐसा कोई काम करना चाहिए, जिससे दूसरों को कोई परेशानी या दुख पहुंचे। पाप कर्म करने से मनुष्य को न सिर्फ जीवित होते हुए इसके परिणाम भोगना पड़ते हैं बल्कि मारने के बाद नरक में भी यातनाएं झेलना पड़ती हैं।

  1. सफल होने के लिए ध्यान रखें ये एक बात
    संसार में हर मनुष्य को किसी न किसी मनुष्य, वस्तु या परिस्थित से आसक्ति यानि लगाव होता ही है। लगाव और मोह का ऐसा जाल होता है, जिससे छूट पाना बहुत ही मुश्किल होता है। इससे छुटकारा पाए बिना मनुष्य की सफलता मुमकिन नहीं होती, इसलिए भगवान शिव ने इससे बचने का एक उपाय बताया है।

श्लोक-दोषदर्शी भवेत्तत्र यत्र स्नेहः प्रवर्तते। अनिष्टेनान्वितं पश्चेद् यथा क्षिप्रं विरज्यते।।

अर्थात- भगवान शिव कहते हैं कि- मनुष्य को जिस भी व्यक्ति या परिस्थित से लगाव हो रहा हो, जो कि उसकी सफलता में रुकावट बन रही हो, मनुष्य को उसमें दोष ढूंढ़ना शुरू कर देना चाहिए। सोचना चाहिए कि यह कुछ पल का लगाव हमारी सफलता का बाधक बन रहा है। ऐसा करने से धीरे-धीरे मनुष्य लगाव और मोह के जाल से छूट जाएगा और अपने सभी कामों में सफलता पाने लगेगा।

  1. यह एक बात समझ लेंगे तो नहीं करना पड़ेगा दुखों का सामना,,,,,
    श्लोक-नास्ति तृष्णासमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्।
    सर्वान् कामान् परित्यज्य ब्रह्मभूयाय कल्पते।।

अर्थात- आगे भगवान शिव मनुष्यो को एक चेतावनी देते हुए कहते हैं कि- मनुष्य की तृष्णा यानि इच्छाओं से बड़ा कोई दुःख नहीं होता और इन्हें छोड़ देने से बड़ा कोई सुख नहीं है।

मनुष्य का अपने मन पर वश नहीं होता। हर किसी के मन में कई अनावश्यक इच्छाएं होती हैं और यही इच्छाएं मनुष्य के दुःखों का कारण बनती हैं। जरुरी है कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं में अंतर समझे और फिर अनावश्यक इच्छाओं का त्याग करके शांत मन से जीवन बिताएं।

शिवोहम 🚩🙋🏻‍♂🙏
: श्री शैलम #मल्लिकार्जुनम्: भगवान #शिव की द्वितीय #ज्‍योतिर्लिंग..

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। :उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
:सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
:हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।
:सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग श्रीशैलम, आंध्र प्रदेश में स्थित है। यह बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है और भगवान शिव के अनुयायियों के लिए पूजा की एक बहुत प्राचीन जगह है। इस मंदिर का गर्भगृह आकार में छोटा होने के कारण इसमे एक समय में सीमित श्रद्धालु ही प्रवेश कर सकते हैं। यह सभी ज्‍योतिर्लिंगों में सबसे ज्‍यादा अद्वितीय इसलिए है क्‍योंकि यहां भगवान शिव और माता पार्वती, दोनों ही मौजूद हैं। इस कारण इसे दक्षिण के कैलाश की संज्ञा प्राप्त है। अनेक धर्मग्रन्थों में इस स्थान की महिमा बतायी गई है। महाभारत के अनुसार श्रीशैल पर्वत पर भगवान शिव का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। कुछ ग्रन्थों में तो यहाँ तक लिखा है कि श्रीशैल के शिखर के दर्शन मात्र करने से दर्शको के सभी प्रकार के कष्ट दूर भाग जाते हैं, उसे अनन्त सुखों की प्राप्ति होती है और आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है।

मल्लिकार्जुन दो शब्‍दों के मेल से बना है जिसमें मल्लिका का अर्थ माता पार्वती और अर्जुन का अर्थ भगवान शिव है। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का एक अन्य महत्व यह है कि यह 275 पादल पैत्र स्‍थलम में से एक है। पादल पैत्र स्‍थल वो स्‍थान होते हैं जो भगवान शिव को समर्पित होते हैं। शैव नयनसार में छंदों में इन मंदिरों का वर्णन किया गया है जिन्‍हें 6वीं और 7वीं शताब्‍दी के सबसे महत्‍वपूर्ण स्‍थानों के रूप में वर्णित किया गया है।

आदि शक्ति पीठ के रूप में भी मल्लिकार्जुन 52 शक्तिपीठों में से एक है। जब भगवान शिव ने अपनी पत्‍नी सती के जल जाने पर उसके शव को लेकर पूरे ब्रहमांड में तांडव किया था तब उनके शरीर के अंगों को भगवान विष्‍णु ने अपने सुदर्शन से काट दिया था जो 52 स्‍थानों पर जा गिरे थे। इन्‍हीं स्‍थानों को शक्ति पीठ के नाम से जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि सती के होंठ का ऊपरी हिस्‍सा, मल्लिकार्जुन में गिरा था। इसलिए यह स्‍थान हिंदुओं के लिए और ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है।

मल्लिकार्जुन ज्‍योतिर्लिंग को लेकर कई सारी कहानी और किवदंती हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं: शिव पुराण में कोटिरूद्र संहिता के 15वें अध्‍याय में यह कहानी उल्‍लेखित है। एक बार भगवान शिव और माता पार्वती ने तय किया कि वो अपने पुत्रों के लिए सही वधु का चयन करेगी। अब बहस हुई कि कौन पहले शादी करेगा। भगवान शिव ने सुझाव दिया कि जो भी पूरी दुनिया का सबसे पहले चक्‍कर लगा लेगा, वहीं पहले शादी करेगा।

फिर क्‍या… भगवान कार्तिकेय अपने मोर पर बैठ गए और चल दिए पूरे ब्रहमांड का चक्‍कर लगाने। इधर स्थूलकाय श्री गणेश जी और उनका वाहन भी चूहा, भला इतनी शीघ्रता से वे परिक्रमा कैसे कर सकते थे। गणेश जी के सामने भारी समस्या उपस्थित थी। श्रीगणेश जी शरीर से ज़रूर स्थूल हैं, किन्तु वे बुद्धि के सागर हैं। उन्होंने कुछ सोच-विचार किया और अपनी माता पार्वती तथा पिता देवाधिदेव महेश्वर से एक आसन पर बैठने का आग्रह किया। उन दोनों के आसन पर बैठ जाने के बाद श्रीगणेश ने उनकी सात परिक्रमा की, फिर विधिवत् पूजन किया-

पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रकान्तिं च करोति यः।

तस्य वै पृथिवीजन्यं फलं भवति निश्चितम्।।

इस प्रकार श्रीगणेश माता-पिता की परिक्रमा करके पृथ्वी की परिक्रमा से प्राप्त होने वाले फल की प्राप्ति के अधिकारी बन गये। उनकी चतुर बुद्धि को देख कर शिव और पार्वती दोनों बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीगणेश का विवाह भी करा दिया। कार्तिकेय को हार से भारी झटका पहुँचा और वो पर्वत क्रोंच चले गए। वहां जाकर उन्‍होंने अपना नाम कुमार्रह्मचारी रख लिया था। बाद में भगवान शिव और माता पार्वती उस पर्वत पर कार्तिकेय को ढूंढने गए। जब कार्तिकेय को पता चला तो वह किसी दूसरे स्‍थान पर चले गए। जहां माता पार्वती और भगवान शिव ने इंतजार किया था, उस जगह को श्रीशैलम के नाम से जाता है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान शिव ने अमावस्‍या और माता पर्वती ने पूर्णिमा के दिन कार्तिकेय से मिलने के लिए चुना था।

अगली कहानी ये है कि चंद्रवती नामक राजकुमारी थीं। ये वो कहानी है जो कि मल्लिकार्जुन की दीवारों पर लिखी हुई है।
चंद्रवती, राजकुमारी का जन्‍म लेकर पैदा हुई और शाही ठाठ से रहती थीं। लेकिन उन्‍होंने ये सब त्‍याग कर दिया और अपना जीवन तपस्‍या में बिताने लगी। वो कदाली जंग में ध्‍यान लगाएं हुए थी कि उन्‍हें कुछ महसूस हुआ। उन्‍होंने देखा कि एक कपिला गाय बेल वृक्ष के पास है और अपने दूध से वहां के एक स्‍थान को धुल रही है। ऐसा हर दिन होता था। एक दिन जाकर राजकुमारी ने उस स्‍थान को देखा और वहां खुदाई की। यहां उसे एक शिवलिंग प्राप्‍त हुई जो कि अग्नि लौ की तरह दिख रही थी।

इस प्रकार, इस शिवलिंग की स्‍थापना हुई।
कहा जाता है कि चंद्रवती भगवान शिव की बहुत बड़ी भक्‍त थीं और जब उनका अंत समय आ गया था तो वो हवा के साथ कैलाश उड़ गईं थी और उनहें मोक्ष मिल गया था।

अन्य कथानक

एक अन्य कथानक के अनुसार कौंच पर्वत के समीप में ही चन्द्रगुप्त नामक किसी राजा की राजधानी थी। उनकी राजकन्या किसी संकट में उलझ गई थी। उस विपत्ति से बचने के लिए वह अपने पिता के राजमहल से भागकर पर्वतराज की शरण में पहुँच गई। वह कन्या ग्वालों के साथ कन्दमूल खाती और दूध पीती थी। इस प्रकार उसका जीवन-निर्वाह उस पर्वत पर होने लगा। उस कन्या के पास एक श्यामा (काली) गौ थी, जिसकी सेवा वह स्वयं करती थी। उस गौ के साथ विचित्र घटना घटित होने लगी। कोई व्यक्ति छिपकर प्रतिदिन उस श्यामा का दूध निकाल लेता था। एक दिन उस कन्या ने किसी चोर को श्यामा का दूध दुहते हुए देख लिया, तब वह क्रोध में आगबबूला हो उसको मारने के लिए दौड़ पड़ी। जब वह गौ के समीप पहुँची, तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, क्योंकि वहाँ उसे एक शिवलिंग के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दिया। आगे चलकर उस राजकुमारी ने उस शिवलिंग के ऊपर एक सुन्दर सा मन्दिर बनवा दिया। वही प्राचीन शिवलिंग आज ‘मल्लिकार्जुन’ ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध है। इस मन्दिर का भलीभाँति सर्वेक्षण करने के बाद पुरातत्त्ववेत्ताओं ने ऐसा अनुमान किया है कि इसका निर्माणकार्य लगभग दो हज़ार वर्ष प्राचीन है। इस ऐतिहासिक मन्दिर के दर्शनार्थ बड़े-बड़े राजा-महाराजा समय-समय पर आते रहे हैं।

मल्लिकार्जुन का महत्‍व:
ऐसा माना जाता है कि यहां पूजा अर्चना करने से व्‍यक्ति को स्‍वास्‍थ्‍य और धन की प्राप्ति होती है। महाशिवरात्रि व सावन मास के दौरान यहां दुर देशों व राज्यों से श्रद्धालु बड़ी संख्या में यहाँ आते हैं।

अन्य तीर्थ एवं दर्शनीय स्थल

मुख्य मंदिर के बाहर पीपल पाकर का सम्मिलित वृक्ष है। उसके आस-पास चबूतरा है। दक्षिण भारत के दूसरे मंदिरों के समान यहाँ भी मूर्ति तक जाने का टिकट कार्यालय से लेना पड़ता है। पूजा का शुल्क टिकट भी पृथक् होता है। यहाँ लिंग मूर्ति का स्पर्श प्राप्त होता है। मल्लिकार्जुन मंदिर के पीछे पार्वती मंदिर है। इन्हें मल्लिका देवी कहते हैं। सभा मंडप में नन्दी की विशाल मूर्ति है।

पातालगंगा- मंदिर के पूर्वद्वार से लगभग दो मील पर पातालगंगा है। इसका मार्ग कठिन है। एक मील उतार और फिर 852 सीढ़ियाँ हैं। पर्वत के नीचे कृष्णा नदी है। यात्री स्नान करके वहाँ से चढ़ाने के लिए जल लाते हैं। वहाँ कृष्णा नदी में दो नाले मिलते हैं। वह स्थान त्रिवेणी कहा जाता है। उसके समीप पूर्व की ओर एक गुफा में भैरवादि मूर्तियाँ हैं। यह गुफा कई मील गहरी कही जाती है। अब यात्री मोटर बस से 4 मील आकर कृष्णा में स्नान करते हैं।

भ्रमराम्बादेवी- मल्लिकार्जुन मंदिर से पश्चिम में दो मील पर यह मंदिर है। यह 51 शक्तिपीठों में है। यहाँ सती की ग्रीवा गिरी थी।

शिखरेश्वर- मल्लिकार्जुन से 6 मील पर शिखरेश्वर तथा हाटकेश्वर मंदिर है। यह मार्ग कठिन है।

विल्वन- शिखरेश्वर से 6 मील पर एकम्मा देवी का मंदिर घोर वन में है। यहाँ मार्ग दर्शक एवं सुरक्षा के बिना यात्रा संभव नहीं। हिंसक पशु इधर बन में बहुत हैं।

श्रीशैल का यह पूरा क्षेत्र घोर वन में है। अतः मोटर मार्ग ही है। पैदल यहाँ की यात्रा केवल शिवरात्रि पर होती है

विजयनगर के महाराजा द्वारा निर्माण

आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व श्री विजयनगर के महाराजा कृष्णराय यहाँ पहुँचे थे। उन्होंने यहाँ एक सुन्दर मण्डप का भी निर्माण कराया था, जिसका शिखर सोने का बना हुआ था। उनके डेढ़ सौ वर्षों बाद महाराज शिवाजी भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन हेतु क्रौंच पर्वत पर पहुँचे थे। उन्होंने मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर यात्रियों के लिए एक उत्तम धर्मशाला बनवायी थी। इस पर्वत पर बहुत से शिवलिंग मिलते हैं।

यहाँ पर महाशिवरात्रि के दिन मेला लगता है। मन्दिर के पास जगदम्बा का भी एक स्थान है। यहाँ माँ पार्वती को ‘भ्रमराम्बा’ कहा जाता है। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की पहाड़ी से पाँच किलोमीटर नीचे पातालगंगा के नाम से प्रसिद्ध कृष्णा नदी हैं, जिसमें स्नान करने का महत्त्व शास्त्रों में वर्णित है।
[स्वप्न सरोवर एवं शुभशुभ संकेत सारिका
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अगर सपने में दिखाई दे ये चीज़ें तो समझ लीजिये आप शीघ्र बनने वाले है धनवान

हम सब जानते है की हिन्दू धर्म विश्व का सबसे पुराण धर्म है जिसमे अनेक धार्मिक ग्रन्थ शामिल है जैसे वेद , पुराण और उपनिषद . ये धार्मिक ग्रन्थ हमें सही मार्ग पर चलने का रास्ता दिखाते है तथा उस समय जो चीज़ें गठित हुई है उसका वर्णन करते है. जटिल भाषा होने के कारण वेदों और उपनिषदों को समझना थोड़ा कठिन होता है लेकिन पुराणों में उल्लिखित बातों को समझा जा सकता है। हमारे 18 पुराणों में से एक है अग्नि पुराण जो स्वयं अग्नि देव द्वारा बताया गया है.

दरअसल अग्निपुराण परंपराओं और संस्कारों का संगठन है जिनका पालन करना मानवता के विकास के लिए बहुत जरूरी है। इसमें भगवान शिव, श्रीकृष्ण और विष्णु जी द्वारा दी गई शिक्षाओं के साथ-साथ भगवान राम द्वारा बताए गए उन निर्देशों का भी जिक्र है जो अच्छे और बुरे सपनों के बीच अंतर करते हैं।

भगवान राम ने स्वयं अच्छे और बुरे सपनों के बीच क्या अंतर होता है, इसके साथ-साथ यह भी बताया गया है कि बुरे संकेतों को पहचानकर उनके प्रभाव से खुद को बचाया जा सकता है।ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान राम अपने भाई और पत्नी के साथ चौदह वर्ष के वनवास पर गए थे तब वहां माता सीता और लक्ष्मण को हर रात कुछ सपने परेशान करते थे। वह उन सपनों की वजह से सो नहीं पाते थे। तब वहां भगवान राम ने उन्हें बताया था सपनों का मतलब और उनका अर्थ।

सपनों का सामान्य अर्थ कुछ ऐसा लिया जाता है कि हम दिनभर में जो देखते हैं, जिन घटनाओं का सामना करते हैं और जो सोचते हैं वह हमारे मस्तिष्क के किसी कोने में जाकर बैठ जाता है और रात को वही सपनों के जरिए हमें नजर आने लगता है।

लेकिन भगवान राम ने कुछ ऐसे विशेष सपनों के बारे में बताया था जिनका संबंध हमारी दिनचर्या से नहीं होता, वह सिर्फ और सिर्फ हमारे लिए कोई संदेश लेकर ही आते हैं।

भगवान राम के अनुसार अगर सपने में कोई व्यक्ति खुद को फटे हुए पुराने कपड़ों में पाता है या उसे दिखता है कि उसके शरीर में से पेड़ उगने लगा है तो यह सपना उसके लिए बहुत बुरा है। इसके प्रभाव से निजात पाने के लिए व्यक्ति को तुरंत ही सूर्य देव की आराधना शुरू कर देनी चाहिए।

सपनों का मतलब

सपने में सांप को मारना या नुकसान पहुंचाना, विवाह में शामिल होना, मांसाहार लेना यह सभी बुरे सपने होते हैं, जिनका प्रभाव उसी व्यक्ति को ही भुगतना पड़ता है।

इस सपने के प्रभाव से मुक्ति पाने के लिए गंगा या फिर किसी अन्य पवित्र नदी के तट पर बैठकर ब्राह्मण द्वारा यज्ञ करवाना चाहिए और ईश्वर से अपने बुरे कर्मों के लिए क्षमा मांगनी चाहिए।

भगवान राम ने सपने आने के काल को भी तीन चौथाई में बांटा है, उनके अनुसार अगर कोई सपना पहली चौथाई में आ जाता है तो वो एक साल के अंदर-अंदर सच हो जाता है, वहीं दूसरी चौथाई में आता है तो अगले छ: महीने में हकीकत बन जाता है वहीं अगर वह सपना तीसरी चौथाई में आता है तो पंद्रह दिन के अंदर-अंदर वह हकीकत बन जाता है।

भगवान राम के अनुसार अगर कोई व्यक्ति पहली चौथाई में अच्छा सपना देखता है तो उसे दोबारा ना सोकर उसी क्षण बिस्तर से उठ जाना चाहिए। क्योंकि अगर सोने के बाद उन्हें कोई बुरा सपना आ जाए तो उसके पूरे होने की संभावना प्रबल हो जाती है। अच्छे सपने से पहले वो बुरा सपना सच हो सकता है।

श्रीराम के अनुसार अगर कोई बुरा सपना आपको बार-बार परेशान कर रहा है और लगातार आपको उसके सच होने की बात से भी डर लगता है तो आपको त्रिदेव की आराधना प्रारंभ कर देनी चाहिए।

चलिए बुरे सपनों के अलावा अब बात करते हैं उन सपनों की जिन्हें शुभ माना जाता है। अगर आप अपने सपनों में महल, किले या ऊंचे पहाड़ देखते हैं तो यह बहुत शुभ है। इसका अर्थ है कि जल्द ही आपके जीवन में खुशियां और समृद्धि आने वाली है।

खुद को गाय, शेरनी या हथिनी का दूध निकालते हुए देखना बहुत अच्छा माना गया है। इस सपने के जरिए आपको स्वयं ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त हुआ है।

सपने में किसी की मौत देखना बहुत शुभ है, खासकर जब वह आपकी अपनी मौत हो। आग में जलना या सिर का कट जाना भी आपकी उम्र को बढ़ाता है।

बुरे और अच्छे सपने हम नींद की अवस्था में देखते हैं। लेकिन कुछ संकेत ऐसे भी हैं जो हम जाग्रत अवस्था में हमें नजर आते हैं। ये संकेत भी हमारे लिए कुछ ना कुछ अवश्य लेकर आते हैं।

अगर घर से बाहर निकलते ही आपको गाय का गोबर, बाल, सूखी घास, राख, टूटा बर्तन, इंसान या जानवर का मृत शरीर नजर आ जाए तो यह एक बुरा संकेत है। आपको अपनी यात्रा स्थगित कर देनी चाहिए और भगवान विष्णु की शरण में चले जाना चाहिए।

अगर आप किसी धार्मिक यात्रा पर निकल रहे हैं और किसी संगीत वाद्य यंत्र की आवाज आपको सुनाई दे गई तो यह एक अशुभ संकेत है। इसके अलावा पीछे से अगर कोई आपका नाम पुकारता है तो भी आपको रुक जाना चाहिए।

किसी कानूनी लड़ाई को लड़ने जा रहे हैं और पीछे से कौए की रोने की आवाज आ जाए तो यह एक बुरा संकेत है। आप लड़ाई तो हारेंगे ही साथ ही जान भी जोखिम में पड़ सकती है, इसलिए आपको भगवान रुद्र की उपासना शुरू कर देनी चाहिए।

अगर कौआ आपको एक आंख से देख रहा है तो अल्पायु या अप्रत्याशित मृत्यु की ओर इशारा करता है।

घर से बाहर निकलते ही सफेद फूल, बकरी, गाय या सोना नजर आता है तो यह एक अच्छा संकेत है जिसका अर्थ है कि आपके साथ कुछ शुभ घटना घटित होने वाली है।

मोर के रोने की और गधे की चिल्लाने की आवाज सुनना या फिर अगर घर से बाहर निकलते ही भैंस आपका रास्ता पार कर जाए तो यह शुभ संकेत है।
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आलू के छिलके को न फेंकें कूड़ेदान में, उनके फायदे भी हैं निराले

  1. ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करता है :आलू में भरपूर मात्रा में पोटेशियम पाया जाता है, जो कि ब्लड प्रेशर को रेग्युलेट करने में मदद करता है।
  2. मेटाबॉलिज्म ठीक रखता है :आलू के छिलके मेटाबॉलिज्म को भी सही रखने में मददगार होते है। इन्हें खाने से नर्व्स को मजबूती मिलती है।
  3. एनीमिया से दूर रखता है :आलू के छिलके में आयरन भी भरपूर मात्रा में होता है जिससे एनीमिया होने का खतरा बहुत हद तक कम हो जाता है।
  4. ताकत :आलू के छिलके में भरपूर मात्रा में विटामिन बी3 पाया जाता है, जो कि शरीर को ताकत देने का काम करता है।
  5. फाइबर से भरपूर :हमारी डाइट में फाइबर की कुछ मात्रा जरूर शामिल होना चाहिए और आलू के छिलके में अच्छी मात्रा में फाइबर्स होते हैं। ये डाइजेस्ट‍िव सिस्टम को भी बूस्ट करने का काम करते है।

https://youtu.be/6tM2oMiPM4Q

□जानें कौन सी धातु के बर्तन में भोजन करने से क्या क्या लाभ और हानि होती है।□


०१-सोना-

-यह एक गर्म धातु है।
-सोने से बने पात्र में भोजन बनाने व करने से शरीर के आंतरिक और बाहरी दोनो हिस्से कठोर,बलवान,ताकतवर और मजबुत बनते हैं।
-सोना आंखों की रोशनी भी बढ़ाता है।

०२-चांदी-

-चांदी एक ठंडी धातु है।
-यह शरीर को आंतरिक ठंडक पहुंचाती है।
-शरीर को शांत रखती है।
-इसके पात्र में भोजन बनाने व करने से दिमाग तेज होता है।
-आंखे स्वस्थ रहती हैं।
-आंखों की रोशनी बढती है।
-इसके अलावा पित्तदोष,कफ और वायु दोष नियंत्रित रहता है।

०३-कांसा-

-कांसे के बर्तन में भोजन करने से बुद्धि तेज होती है।
-रक्त में शुद्धता आती है।
-रक्तपित शांत रहता है।
-भुख बढ़ाती है।
-कांसे के बर्तन में खट्टी चीजें नहीं परोसनी चाहिए।
-खट्टी चीजें इस धातु से क्रिया करके विषैली हो जाती हैं।जो नुकसान देती है।
-कांसे के बर्तन में भोजन बनाने से कुछ पोषक तत्व नष्ट होते हैं।पर प्रयोग करने में इतना तो समझौता करना ही पडेगा।

०४-तांबा-

-तांबे के बर्तन में रखा पानी पीने से व्यक्ति रोग मुक्त रहता है।
-रक्त शुद्ध होता है।
-स्मरणशक्ति अच्छी होती है।
-यकृत/लिव्हर संबंधी समस्या दूर होती है।
-तांबे का पानी विषैले तत्वों को नष्ट कर देता है।इसलिए तांबे के पात्र में रखा पानी स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है।
-तांबे के बर्तन में दुध नहीं पीना चाहिए।इससे शरीर को नुकसान होता है।

०५-पीतल-

  • पीतल के बर्तन में भोजन बनाने से और करने से कृमि रोग कफ और वायुदोष की बीमारी नहीं होती है।
    -पीतल के बर्तन में भोजन बनाने से केवल ०७ प्रतिशत पोषक तत्व नष्ट होते हैं।

०६-लोहा-

-लोहे के बर्तन में भोजन बनाने से शरीर की शक्ति बढ़ती है।
-लोह तत्व शरीर में जरूरी पोषक तत्वों को बढाता है।
-लोहा कई रोगों को खत्म करता है।
-पांडु रोग मिटाता है।
-शरीर में सूजन और पीलापन आने नहीं देता है
-कामला रोग को खत्म करता है।
-पीलिया रोग को दूर रखता है।
-लेकिन लोहे के बर्तन में खाना नहीं खाना चाहिए।क्योंकि इसमें खाना खाने से बुद्धि कमजोर होती है।और दिमाग का नाश होता है।
-लोहे के पात्र में दुध पीना अच्छा है।

०७-स्टील-

-स्टील के बर्तन नुकसान दायक नहीं होते हैं।क्योंकि ये ना ही गर्म से क्रिया करते हैं।और ना ही अम्ल से इसमें खाना इसलिए नुकसान नहीं होता है।
-बनाने और खाने से शरीर को कोई फायदा नहीं पहुंचाता तो नुकसान भी नहीं पहुंचाता है।

०८-एल्युमिनियम-

-एल्युमिनियम बाक्साइट का बना होता है।
-इसमें बने खाने से शरीर को सिर्फ नुकसान होता है।
-यह आयरन और कैल्शियम को सोखता है।
-इसलिए इससे बने पात्र का उपयोग नहीं करना चाहिए।
-इससे हड्डियां कमजोर होती है।
-मानसिक बीमारियां होती हैं।
-यकृत/लिवर को क्षति पहुंचती है।
-इसके साथ साथ किडनी/गुर्दे का फैल होना टीबी/राजयक्ष्मा,अस्थमा,दमा,वात रोग,प्रमेह/शुगर,जैसी गंभीर बीमारियाँ उत्पन्न होती है।
-एल्युमिनियम के प्रेशर कुकर में भोजन बनाने से ८७ प्रतिशत पोषक तत्व नष्ट होते हैं।

०९-मिट्टी के बर्तन-

-मिट्टी के बर्तन में भोजन बनाने से ऐसे पोषक तत्व मिलते हैं।जो हर बीमारी से शरीर को दुर रखते हैं।
-अमेरिका और ब्रिटेन के मनुष्य भी अब इस बात को मानने लगे हैं कि मिट्टी के बर्तन में भोजन बनाने से की तरह के रोग ठीक होते हैं।
-अगर भोजन को पौष्टिक और स्वादिष्ट बनाना है तो उसे धीरे धीरे धीरे ही पकाना चाहिए।
-भले ही मिट्टी के बर्तनों में भोजन बनाने से वक्त थोडा ज्यादा लगता है।लेकिन इससे स्वास्थ्य को लाभ ज्यादा पहुंचता है।
-दुध और दुध से बने उत्पाद के लिए मिट्टी के बर्तन सर्वोत्तम है।
-मिट्टी के बर्तन में भोजन बनाने से १०० प्रतिशत पोषक तत्व मिलते हैं।
-मिट्टी के बर्तन में भोजन करने से स्वाद भी आता है।
-पानी पीने के लिए तांबा अथवा कांच के पात्रों का उपयोग करना चाहिए।
-इनके अभाव में मिट्टी के बर्तन पवित्र और शीतल होते हैं।


🌹मल-मूत्र त्यागने संबंधी कुछ जरूरी बातें

🌻क्या करें

🌹१] प्रात: ५ से ७ बजे के बीच जीवनीशक्ति बड़ी आँतों में होती है अत: उस समय मल-त्याग हेतु जरुर जायें |

🌼२] शौच के समय टोपी या कपड़े से सिर व कान ढककर रखने चाहिए | उस समय दाँत भींचकर रखने से दाँत मजबूत बनते हैं |

🌻३] शौच व पेशाब के समय मुँह से श्वास लेने से श्वासनली में हानिकारक कीटाणु प्रवेश करते हैं अत: श्वास नाक से ही लें |

🌹४] शौच के बाद स्नान तथा पेशाब के बाद हाथ-पैर व मुँह धोकर, कुल्ला करके शुद्धि करनी चाहिए | शौच के समय पहने हुए कपड़े भी धो लेने चाहिए |

🌹क्या न करें

🏵१] मल-मूत्र का वेग आने पर उसे रोकना नहीं चाहिए | मल-आवेग रोकने से सिरदर्द, पिंडलियों में ऐंठन, सर्दी-जुकाम, अफरा आदि तथा मूत्र-आवेग रोकने से मूत्राशय, गुदा, नाभि-स्थान, अंडकोष, शिश्नेन्द्रिय व सिर में दर्द आदि समस्याएँ होती हैं |

🌼२] मल-मूत्र के वेग को रोककर या मल त्यागने के तुरंत बाद भोजन न लें |

🌻३] वेग न आने पर जोर लगाकर मल-त्याग करने से बवासीर की समस्या हो सकती है | अत: मल-त्याग के समय जोर न लगाये |

🌻४] पेशाब करने के तुरंत बाद पानी न पियें, न ही पानी पीने के तुरंत बाद पेशाब करें |
-ऋषिप्रसाद-

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ग्रह गोचर फलम्

सूर्य फलम्

1.जब सूर्य जन्मराशि में गोचर में भर्मण करता है तब वैभव की हानि ,यात्रा,रोग,पीड़ा आदि फल होता है।
2.गोचर में जन्मराशि से द्वितीय सूर्य वित्त की हानि,धोखा होने से हानि,जल सम्बन्धी रोग आदि होते हैं।
3.गोचर में जन्मराशि से तीसरा सूर्य स्थानलाभ(भूमि भवन पद आदि की प्राप्ति),शत्रुनाश,अर्थलाभ एवं स्वास्थ्य अच्छा रहता है।
4.गोचर में जन्म राशि से चतुर्थ सूर्य से नारिभोग में बाधा तथा रोगपीड़ा होती है।
5.गोचर में पंचमस्थ सूर्य हो तो जातक को शत्रुओं तथा रोग से पीड़ा होती है।
6.गोचर में षष्ठस्थ सूर्य रोग रिपुओं की वृद्धि तथा व्यर्थ चिंता देता है।
7.सप्तमस्थ सूर्य दीनता,दूर की यात्रा एवम् उदर रोग उतपन्न करता है।
8.अष्टमस्थ सूर्य से स्त्रियों में वैमनस्य राजभय एवम् रोग होता है।
9.नवमस्थ गोचर सूर्य महान बिमारी दीनता भयानक आपत्ति तथा कारोबार की हानि होती है।
10.दशम में सूर्य हो तो सर्वत्र जय एवम् कार्यों में सफलता मिलती है।
11.एकादश सूर्य से पदप्राप्ति वैभवलाभ तथा निरोगिता रहती है।
12.द्वादश सूर्य व्यापार में शुभ फल देता है ।

चन्द्र फलम्

1.जन्म राशिगत चन्द्र गोचर में संचार होने पर मिष्ठान्न शय्या भोजन वस्त्रादि की प्राप्ति होती है।
2.द्वितीय होंने पर सभी कार्यों में बाधा आती है मान तथा अर्थ का नाश होता है।
3.तृतीय होने पर नारी-वस्त्र सुख एवम् धन का लाभ मिलता है तथा विजय होती है।
4.चतुर्थ होने पे भी उतपन्न होता है।
5.पंचमस्थ होने से बहुत माया(छल कपट) से शोक प्राप्त होता है विघ्न उतपन्न होते हैं।
6.षष्ठस्थ चन्द्र से सुख तथा धन प्राप्त होता है शत्रु रोग आदि का नाश होता है।

  1. सप्तमस्थ होने पर अच्छा भोजन सम्मान शयनसुख आदि मिलता है एवम् आज्ञा का पालन होता है।
    8.अष्टमस्थ चन्द्र से भय प्राप्त होता है।
    9.नवम होने पर भाग्य वृद्धि होती है
    10.दशम होने पर कर्म क्षेत्र में लाभ पिता से नजदीकी बढ़ती है।
    11.एकादश में होने पर व्यापार में लाभ होता है।
    12.द्वादश में होने पर मान हानि अकारण व्यय होता है ।।

मंगल फलम्

1.जन्म राशि में मंगल गोचर में भृमण करता है तो सभी कार्यों में अवरोध उतपन्न होता है तथा चोट लगती है।
2.द्वितीयगत मंगल गोचर में राज्य शासन,चोर अग्नि तथा शत्रुओं से पीड़ा होती है। रोगों के कारण शरीर में दौर्बल्य तथा चिंता उतपन्न होती है।
3.तृतीयस्थ भौम धन की प्राप्ति होती है तथा स्वामी कार्तिकेय की कृपा प्राप्त होती है।
4.चतुर्थ के मंगल से दुष्ट लोगों के संग,उदररोग,ज्वर तथा शरीर से रक्तस्त्राव होता है।
5.पंचम स्थान के मंगल से शत्रुभय व्याधिभय तथा पुत्र द्वारा शोक होता है।
6.षष्ठस्थ मंगल से बहुमूल्य धातुओं का संग्रह होता है कलह भय आदि होता है तथा प्रियजनो का वियोग होता है।
7.सप्तमस्थ मंगल होने पर पेट रोग नेत्र रोग तथा पत्नी से कलह होती है।
8.अष्टमस्थ मंगल से शरीर से रक्तस्त्राव रक्तचाप अंगभंग मन में निराशा उतपन्न होती है और सम्मान को ठेस पहुंचती है।
9.नवमस्थ मंगल से धनवान पराजय तथा व्याधि होती है।
10.यदि दशम में मंगल हो तो सभी प्रकार से लाभ है
11.एकादश का मंगल जनपद का अधिकार जैसे विधायकादि को प्राप्त होता है
12.यदि मंगल व्ययस्थान में हो तो अनेक अनर्थों की उत्पत्ति तथा अनेक प्रकार की फिजूलखर्ची होती है।पित्त रोग तथा नेत्रविकार होता है।

बुध फलम्

1.जन्म राशि का बुध गोचर में अपने बन्धु बांधवों से कलह कराता है दुर्वचन कहने की प्रवृत्ति होती है।
2.द्वितीयस्थ बुध धन सम्पदा देता है
3.तृतीयस्थ बुध राजा तथा शत्रु से भय देता है
4.चतुर्थ होने से धनागम मित्र एवम् कुटुंब की वृद्धि होती है
5.पंचमस्थ बुध के कारण स्त्री तथा सन्तान से कलह
6.छठे बुध उन्नति विजय एवम् सौभाग्य
7.सप्तमस्थ बुध विग्रह कारक होता है
8.अस्टम्स्थ बुध विजयी पुत्र धन वस्त्र एवम् कुशलता की प्राप्ति
9.गोचर में नवम का बुध रपग पीड़ा कारक
10.दशमस्थ बुध शत्रुनष्ट,धनलाभ,स्त्रिभोग,मधुरवाणी शुभ तथा उन्नति होति है।
11.एकादश भाव का बुध पत्नी पुत्र एवम् मित्रों का मिलन होता है तथा तुष्टि प्राप्त होती है।
12.बारहवे भाव का बुध शत्रुओं से पराजय तथा रोगों से पीड़ा देता है।

गुरु फलम्

1.यदि गोचरस्थ गुरु किसी को जन्म राशि का हो तो स्थानभ्रंश अर्थात या तो महत्वपूर्ण पद छिन जाता है निलम्बन हो जाता है या स्थानांतर हो जाता है। धन की हानि कलह बुद्धि की जड़ता आदि फल होते हैं
2.द्वितीयस्थ गुरु से धन का लाभ शत्रुओं का नाश रमणीय पदार्थों का भोग प्राप्त होता है।
3.तीसरे गुरु पदभ्रंश(व्यवसाय परिवर्तन) तथा कार्यबाधा होती है।
4.चतुर्थ गुरु के कारण मित्र एवम् बांधवों रिश्तेदारों से क्लेश प्राप्त होता है।
5.पंचमस्थ गुरु अश्व वाहन धन सन्तति स्वर्ण महंगी धातुएँ स्त्रीसुख तथा आवास की प्राप्ति होती है।
6.छठे गुरु से सुखप्राप्ति के साधन से भू सुख की प्राप्ति नही होती अर्थात अतृप्ति तथा असन्तुष्टि रहती है।
7.सप्तमभावस्थ गुरु गोचर में हो तो बुद्धि एवम् वाणी का प्रयोग चातुर्यपूर्वक होता है आर्थिक उन्नति होती है
कारोबार में सफलता मिलती है और स्त्री सुख मिलता है।
8.गोचरभृमण में स्वराशि से अष्टम राशि का गुरु तीव्र दुःख रोग पराधीनता तथा निरन्तर भटकना पड़ता है।
9.नवमस्थ गुरु से स्त्री पुत्र धन आदि का सुख प्राप्त होता है बुद्धि की प्रखरता रहती है कही हुई बातों का पालन होता है एवम् आज्ञा का उलंघन नही होता है।
10.जब गोचर में गुरु दशम में हो तो स्थाननाश तथा धननाश होता है।
11.गुरु ग्यारहवें होने पर इच्छाएं पूरी होती हैं धनलाभ होता है सभी कार्यों में सफलता मिलती है तथा नया स्थानादि प्राप्त होता है।
12.बारहवें होने पर दूर स्थानों की यात्रा बहुत दिनों तक करनी पड़ती है तथा उग्र दुःख प्राप्त होते हैं

शुक्र फलम्

1.जन्म राशि पर शुक्र का गोचर भर्मण हो तब मिष्ठान्न भोजन प्रेयसि की संगति कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थों की प्राप्ति शयनसुख सामग्री सुंदर वस्त्रादि का भोग मिलता है और आनन्दाभूति होती है।
2.द्वितीयस्थ शुक्र धन-धान्य आभूषण वस्त्र भूषा गन्धमाल्य तथा सम्मान देता है परिवार में आज्ञा का पालन होता है,शासन पक्ष से सहयोग मिलता है परिवार के लोग प्रसन्न रहते है तथा पर्याप्त सुख मिलता है।
3.तृतीय स्थान पर शुक्र होने पर आदेश की अवज्ञा होती है धन सम्मान भौतिक सामग्री वस्त्रादि का नाश होता है एवम् शत्रु नष्ट होते हैं।
4.जन्मराशि से चतुर्थ होने पर बंधुजनों का सुख स्त्री सुख तथा इंद्र के समान वैभव प्राप्त होता है।
5.पंचम राशिगत गोचर का शुक्र धन मित्र तथा गुरुजनो द्वारा तुष्टि प्रदान करता है।
6.जन्मराशि से 6ठे शुक्र मुकदमे तथा विवाद में पराजित कराता है दबे दबे में कमी होती है।
7.सप्तम में शुक्र स्त्री से भय या स्त्री के कारण कष्ट होता है।
8.अष्टम का शुक्र गृहस्थी का सुख देता है घरेलू उपकरणों का संग्रह होता है घर में साजसज्जा आदि का सामान एकत्रित होता है और स्त्री तथा रत्नादि भोग प्राप्त होते हैं।
9.जन्मराशि से नवम राशि में गोचर का शुक्र धन की प्राप्ति तथा व्यय धर्मकार्य(दान परोपकार आदि)में होता है पत्नी का सुख एवं सहयोग मिलता है।
10.दशवें शुक्र जातक की जन्मराशि से हो तो लड़ाई झगड़ा मुकदमेबाजी आदि में उलझना पड़ता है एवम् अपमान झेलना पड़ता है।
11.यदि गोचर भर्मण करता हुआ शुक्र जन्मराशि से लाभस्थान में हो तो सुगन्धित एवम् मनोहारी पदार्थ मिलते हैं तथा बन्धुओं का सुख मिलता है।
12.जन्मराशि से बारहवें स्थान पर शुक्र का गोचर धन वाहन वस्त्र आदि से सुखी करता है।

शनि फलम्

1.गोचर में जन्मराशि का शनि विष तथा अग्नि विजली आदि से भय होता है बन्धुजनों की हानि होती है तथा स्थान छोड़ना पड़ता है पुत्र एवम् परिवारजनो जो दूर जाना पड़ता है।
2.दुसरे शनि धन सौख्य शरीर की कांति तथा सम्भोग शक्ति कमजोर होती है इन तत्वों की हानि होती है।
3.तीसरे शनि होने पर शुभ फल होता है भैंस आदि तथा भारी वाहनों का सुख ट्रैक्टर ट्रक हाथी मिलता है और धन आरोग्य की प्राप्ति एवम् मनोकामना की पूर्ति होती है
4.चौथे शनि मन में कुटिलता रहती है पत्नी तथा प्रियजनों का वियोग होता है यह शनि की ढैया कहलाती है।
5.पंचमस्थ शनि से सभी से लड़ाई झगड़ा तथा पुत्र से वियोग होता है।
6.छठे शनि के गोचर में होने पर शत्रु शांत हो जाते हैं तथा रोग भी शांत होते हैं
7.सातवें शनि दूर की यात्रा कराता है तथा स्त्रीजनो से निकटता बढ़ाता है।
8.आठवें स्थान पर गोचर का शनि हो तो अपने लोगों से मनमुटाव होता है और दीनता आती है।
9.नवम भाव के शनि लोगों से अकारण वैर हो जाता है बन्धन होता है अर्थात कारावास या अन्य प्रकार से पराधीनता होती तथा अपना नियम धर्म आदि छूट जाता है।
10.दशम भाव में स्वराशि से गोचर शनि के भर्मण करने पर विद्या कीर्ति धन की हानि होती है एवम् नवीन कारोबार प्रारम्भ होता है।
11.एकादश भाव के शनि से परस्त्री का सान्निध्य प्राप्त होता है वाहन का सुख मिलता है प्रताप रौब दाब दबदबा बढ़ता है तथा अधिकार प्राप्त होता है।
12.द्वादश भाव के शनि से निरन्तर एक के बाद एक दुःख प्राप्त होता रहता है तथा जलराशि में डूबने या विपत्तियों के सागर में मग्न होने का भय रहता है।।

विशेष-जन्मराशि से चौथा तथा आठवाँ शनि लोकभाषा में ढैय्या शनि कहलाता है इसी प्रकार द्वादश भाव जन्मराशि तथा द्वितीय राशि का शनि साढ़े साती कहलाता है क्योंकि ढ़ाई वर्ष तथा जन्म राशि से बारहवें फिर ढाई वर्ष तक जन्मराशि पर फिर ढाई वर्ष तक द्वितीय राशि पर रहने से साढ़े सात वर्ष होते हैं।।

इस प्रकार सूर्यादि ग्रह जन्मराशि से बारहवीं राशि तक गोचर भ्रमण करते हैं उपरोक्त फल देते हैं।।
: कौन कौन से ग्रह मारक होते हैं
मेष लग्न – शुक्र और बुध
वृष लग्न – बृहस्पति और चन्द्र
मिथुन लग्न – मंगल और चन्द्र
कर्क लग्न – बुध और शनि
सिंह लग्न – शनि और बुध
कन्या लग्न – मंगल और चन्द्र
तुला – बृहस्पति और मंगल
वृश्चिक – बुध और शुक्र
धनु लग्न – शुक्र और शनि
मकर लग्न – चन्द्र और सूर्य
कुम्भ लग्न – सूर्य और बृहस्पति
मीन लग्न – शुक्र और शनि
[पशुपतिनाथ मंदिर मे नंदी के दर्शन नही करना चाहिए,आइये जानते है क्यो?

भारत सहित पूरी दुनिया में भोलेनाथ के सैकड़ो मंदिर और तीर्थ स्थान मौजूद है। जो अपने चमत्कारों और धार्मिकता के कारण विश्व प्रसिद्ध है। वैसे तो भोलेनाथ के अनेको नाम है। उन्ही में से एक नाम है पशुपति मंदिर।

यह मंदिर शिव के 12 ज्योतिर्लिगों में एक माना जाता है। इस मंदिर के बारें में कहा जाता है कि आज भी यहां पर भगवान शिव विराजमान है।

पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल की राजधानी काठमांडू से 3 किमी उत्तर-पश्चिम देवपाटन गांव में बागमती नदी के तट पर स्थित है। यह मंदिर भगवान शिव के पशुपति स्वरूप को समर्पित है। यूनेस्को विश्व सांस्कृतिक विरासत स्थल की सूची में शामिल भगवान पशुपतिनाथ का मंदिर नेपाल में शिव का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है।

यह मंदिर हिन्दू धर्म के आठ सबसे पवित्र स्थलों में से एक माना जाता है। नेपाल में यह भगवान शिव का सबसे पवित्र मंदिर है। जानिए इस मंदिर से जुड़े कुछ रहस्यों के बारें में। जिन्हें जानकर आप आश्चर्य चकित हो जाएगे।

1- भगवान शिव के पशुपति स्वरूप को समर्पित इस मंदिर में दर्शन के लिए हर साल हजारों संख्या में भक्त यहां पर आते है। इस मंदिर में भारतीय पुजारियों की सबसे अधिक संख्या है। सदियों से यह परंपरा चलती चली आ रही है कि मंदिर में चार पुजारी और एक मुख्य पुजारी दक्षिण भारत के ब्राह्मणों में से रखे जाते हैं।

2 – पशुपति मंदिर को 12 ज्योतिर्लिगों में से एक केदारनाथ का आधा भाग माना जाता है। जिसके कारण इस मंदिर का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। साथ ही शक्ति और बढ़ जाती है।

3- इस मंदिर में स्थापित शिवलिंग के पांचो मुखों के गुण अलग-अलग हैं। जो मुख दक्षिण की और है उसे अघोर मुख कहा जाता है, पश्चिम की ओर मुख को सद्योजात, पूर्व और उत्तर की ओर मुख को तत्वपुरुष और अर्धनारीश्वर कहा जाता है। जो मुख ऊपर की ओर है उसे ईशान मुख कहा जाता है। यह निराकार मुख है। यही भगवान पशुपतिनाथ का श्रेष्ठतम मुख है।

4- यह शिवलिंग बहुत ही कीमती और चमत्कारी है। माना जाता है कि यह शिवलिंग पारस के पत्थर से बना है। पारस का पत्थर ऐसा होता है कि लोह को भी सोना बना देता है।

5 – पशुपति मंदिर में चारों दिशाओं में एक मुख और एक मुख ऊपर की और है। हर मुख के दाएं हाथ में रुद्राक्ष की माला और बाएं हाथ में कमंडल मौजूद है।

6 – इस मंदिर में बाबा का प्रकट होने के पीछे भी पौराणिक कथा है। इसके अनुसार जब महाभारत के युद्ध में पांडवों द्वारा अपने ही रिश्तेदारों का रक्त बहाया गया तब भगवान शिव उनसे बेहद क्रोधित हो गए थे। श्रीकृष्ण के कहने पर वे भगवान शिव से मांफी मांगने के लिए निकल पड़े। गुप्त काशी में पांडवों को देखकर भगवान शिव वहां से विलुप्त होकर एक अन्य स्थान पर चले गए। आज इस स्थान को केदारनाथ के नाम से जाना जाता है।

7 – शिव का पीछा करते हुए पांडव केदारनाथ भी पहुंच गए लेकिन भगवान शिव उनके आने से पहले ही भैंस का रूप लेकर वहां खड़े भैंसों के झुंड में शामिल हो गए। पांडवों ने महादेव को पहचान तो लिया लेकिन भगवान शिव भैंस के ही रूप में भूमि में समाने लगे। इस पर भीम ने अपनी ताकत के बल पर भैंस रूपी महादेव को गर्दन से पकड़कर धरती में समाने से रोक दिया। भगवान शिव को अपने असल रूप में आना पड़ा और फिर उन्होंने पांडवों को क्षमादान दे दिया। लेकिन भगवान शिव का मुख तो बाहर था लेकिन उनका देह केदारनाथ पहुंच गया था। जहां उनका देह पहुंचा वह स्थान केदारनाथ और उनके मुख वाले स्थान पशुपतिनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

8- इस मंदिर को लेकर मान्यता है कि अगर आपने पशुपति मंदिर के दर्शन किए तो पूरा पुण्यपाने के लिए आपको केदार मंदिर में भी भोले के दर्शन करने जाना पडेगा। क्योंकि पशुपतिनाथ में भैंस के सिर और केदारनाथ में भैंस की पीठ के रूप में शिवलिंग की पूजा होती है।

9- पशुपति मंदिर को लेकर मान्यता है कि अगर कोई व्यक्ति यहां पर दर्शन के लिए आता है तो उसे किसी जन्म में पशु की योनि नहीं मिलती है।

10- इस मंदिर को लेकर एक दूसरी मान्यता यह भी है कि अगर आपने पशुपति के दर्शन किएं तो आप नंदी के दर्शन न करें। नहीं तो आपको दूसरे जन्म में पशु का जन्म मिलेगा। केदारनाथ जी के दर्शन करने के बाद अगर आपको नंदी दर्शन होता है, तो दोष नही लगता।

11- इस मंदिर के बाहर एक घाट बना हुआ है जिसे आर्य घाट के नाम से जाना जाता है। इस घाट के बारें में कहा जाता है कि सिर्फ इस घाटका ही पानी मंदिर के अंदर जाता है। और किसी जगह के पानी को ले जाना वर्जित है।

       ।। पशुपतिनाथ की जय हो ।।

[29/07, 11:55] Daddy: तनाव प्रबंधन भगवान शंकर से सीखें

1- जटा में गंगा और त्रिनेत्र में अग्नि (जल और आग की दुश्मनी)

2- चन्द्रमा में अमृत और गले मे जहर (अमृत और जहर की दुश्मनी)

3- शरीर मे भभूत और भूत का संग ( भभूत और भूत की दुश्मनी)

4- गले मे सर्प और पुत्र गणेश का वाहन चूहा और पुत्र कार्तिकेय का वाहन मोर ( तीनो की आपस मे दुश्मनी )

5- नन्दी (बैल) और मां भवानी का वाहन सिंह ( दोनों में दुश्मनी)

6- एक तरफ तांडव और दूसरी तरफ गहन समाधि ( विरोधाभास)

7- देवाधिदेव लेकिन स्वर्ग न लेकर हिमालय में तपलीन।

8- भगवान विष्णु इन्हें प्रणाम करते है और ये भगवान विष्णु को प्रणाम करते है।

इत्यादि इतने विरुद्ध स्वभाव के वाहन और गणों के बाद भी, सबको साथ लेकर चिंता से मुक्त रहते है। तनाव रहित रहते हैं।

और हम लोग विपरीत स्वभाव वाले सास-बहू, दामाद-ससुर, बाप-बेटे , माँ-बेटी, भाई-बहन, ननद-भाभी इत्यादि की नोकझोंक में तनावग्रस्त हो जाते है। ऑफिस में विपरीत स्वभाव के लोगों के व्यवहार देखकर तनावग्रस्त हो जाते हैं।

भगवान शंकर बड़े बड़े राक्षसों से लड़ते है और फिर समाधि में ध्यानस्थ हो जाते है, हम छोटी छोटी समस्या में उलझे रहते है और नींद तक नहीं आती।

युगनिर्माण में आने वाली कठिनाई से डर जाते है, सँगठित विपरीत स्वभाव वाले एक उद्देश्य के लिए रह ही नहीं पाते है भगवान शंकर की पूजा तो करते है पर उनके गुणों को धारण नहीं करते.!!

।। ॐ नमः शिवाय।।
[ कालसर्प योग में राहत देता है
श्री सर्प सूक्त का पाठ 

जिस जातक की जन्मपत्रिका में कालसर्प योग होता है उसका जीवन अत्यंत कष्टदायी होता है। इस योग से पीड़‍ित जातक मन ही मन घुटता रहता है। उसका जीवन कुंठा से भर जाता है। जीवन में उसे अनेक प्रकार की परेशानियां उठानी पड़ती हैं। ऐसे जातक को श्री सर्प सूक्त का पाठ राहत देता है। 

ब्रह्मलोकेषु ये सर्पा शेषनाग परोगमा:।
 
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।1।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: वासु‍कि प्रमुखाद्य:।
 
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।2।।
 
कद्रवेयश्च ये सर्पा: मातृभक्ति परायणा।
 
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।3।।
 
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: तक्षका प्रमुखाद्य।
 
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।4।।
 
सत्यलोकेषु ये सर्पा: वासुकिना च रक्षिता।
 
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।5।।
 
मलये चैव ये सर्पा: कर्कोटक प्रमुखाद्य।
 
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।6।।
 
पृथिव्यां चैव ये सर्पा: ये साकेत वासिता।
 
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।7।।
 
सर्वग्रामेषु ये सर्पा: वसंतिषु संच्छिता।
 
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।8।।
 
ग्रामे वा यदि वारण्ये ये सर्पप्रचरन्ति।
 
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।9।।
 
समुद्रतीरे ये सर्पाये सर्पा जंलवासिन:।
 
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।10।।
 
रसातलेषु ये सर्पा: अनन्तादि महाबला:।
 
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।11।।
अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलं

शन्खपालं ध्रूतराष्ट्रं च तक्षकं कालियं तथा

एतानि नव नामानि नागानाम च महात्मनं

सायमकाले पठेन्नीत्यं प्रातक्काले विशेषतः

तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत

।।इति श्री नवनाग स्त्रोत्रं सम्पूर्णं।।
[दारिद्रयदहन स्तोत्र की रचना ऋषि वशिष्ठ द्वारा की गयी है।

दारिद्रयदहन का अर्थ है दरिद्रता का नाश। दरिद्रता केवल भौतिक ही नहीं, मानसिक भी होती है।

आज के कलिकाल में अधिकांश मनुष्य मानसिक दरिद्रता–जैसे नकारात्मक भावनाओं–काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद-अहंकार, स्वार्थ, ईर्ष्या-द्वेष, भय आदि से पीड़ित हैं।

भगवान शिव की उपासना मनुष्य को भौतिक सुख-समृद्धि के साथ ज्ञान प्रदानकर मन से भी अमीर बना देती है अर्थात् स्वस्थ मन प्रदान करती है क्योंकि भगवान शिव के मस्तक पर चन्द्रमा है और चन्द्रमा मन का कारक है। अत: मनुष्य को प्रतिदिन भगवान शिव की पूजा के बाद या जब भी समय मिले, दारिद्रदहन स्तोत्र का पाठ एक बार अवश्य करना चाहिए क्योंकि ‘स्वस्थ मन तो स्वस्थ तन।’ यही समस्त सुखों का आधार और दुखों के नाश का उपाय है।

ऋषि वशिष्ठ द्वारा रचित दारिद्रयदहन शिवस्तोत्र
विश्वेशराय नरकार्णवतारणाय
कर्णामृताय शशिशेखरधारणाय।
कर्पूरकान्ति धवलाय जटाधराय
दारिद्रय दु:ख दहनाय नमः शिवाय।।१।।

भावार्थ–समस्त चराचर विश्व के स्वामीरूप विश्वेश्वर, नरकरूपी संसारसागर से उद्धार करने वाले, कानों से श्रवण करने में अमृत के समान नाम वाले, अपने भाल पर चन्द्रमा को आभूषणरूप में धारण करने वाले, कर्पूर की कान्ति के समान धवल वर्ण वाले, जटाधारी और दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।१।।

गौरीप्रियाय रजनीशकलाधराय
कालान्तकाय भुजगाधिप कंकणाय।
गंगाधराय गजराज विमर्दनाय
द्रारिद्रय दु:ख दहनाय नमः शिवाय।।२।।

भावार्थ–माता गौरी के अत्यन्त प्रिय, रजनीश्वर (चन्द्रमा) की कला को धारण करने वाले, काल के भी अन्तक (यम) रूप, नागराज को कंकणरूप में धारण करने वाले, अपने मस्तक पर गंगा को धारण करने वाले, गजराज का विमर्दन करने वाले और दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।२।।
[भक्तिप्रियाय भवरोग भयापहाय
उग्राय दुर्गभवसागर तारणाय।
ज्योतिर्मयाय गुणनाम सुनृत्यकाय
दारिद्रय दु:ख दहनाय नमः शिवाय।।३।।

भावार्थ–भक्तिप्रिय, संसाररूपी रोग एवं भय के विनाशक, संहार के समय उग्ररूपधारी, दुर्गम भवसागर से पार कराने वाले, ज्योति:स्वरूप, अपने गुण और नाम के अनुसार सुन्दर नृत्य करने वाले तथा दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।३।।

चर्माम्बराय शवभस्म विलेपनाय
भालेक्षणाय मणिकुण्डल मण्डिताय।
मंजीर पादयुगलाय जटाधराय
दारिद्रय दु:ख दहनाय नमः शिवाय।।४।।

भावार्थ–व्याघ्रचर्मधारी, चिताभस्म को लगाने वाले, भालमें तीसरा नेत्र धारण करने वाले, मणियों के कुण्डल से सुशोभित, अपने चरणों में नूपुर धारण करने वाले जटाधारी और दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।४।।
पंचाननाय फणिराज विभूषणाय
हेमांशुकाय भुवनत्रय मण्डिताय।
आनन्दभूमि वरदाय तमोमयाय
दारिद्रय दु:ख दहनाय नमः शिवाय।।५।।

भावार्थ–पांच मुख वाले, नागराजरूपी आभूषणों से सुसज्जित, सुवर्ण के समान वस्त्र वाले अथवा सुवर्ण के समान किरणवाले, तीनों लोकों में पूजित, आनन्दभूमि (काशी) को वर प्रदान करने वाले, सृष्टि के संहार के लिए तमोगुणाविष्ट होने वाले तथा दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।५।।

भानुप्रियाय भवसागर तारणाय
कालान्तकाय कमलासन पूजिताय।
नेत्रत्रयाय शुभलक्षण लक्षिताय
दारिद्रय दु:ख दहनाय नमः शिवाय।।६।।
भावार्थ–सूर्य को अत्यन्त प्रिय अथवा सूर्य के प्रेमी, भवसागर से उद्धार करने वाले, काल के लिए भी महाकालस्वरूप, कमलासन (ब्रह्मा) से सुपूजित, तीन नेत्रों को धारण करने वाले, शुभ लक्षणों से युक्त तथा दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।६।।

रामप्रियाय रघुनाथ वरप्रदाय
नागप्रियाय नरकार्णवतारणाय।
पुण्येषु पुण्यभरिताय सुरार्चिताय
दारिद्रय दु:ख दहनाय नमः शिवाय।।७।।

भावार्थ–मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम को अत्यन्त प्रिय अथवा राम से प्रेम करने वाले, रघुनाथजी को वर देने वाले, सर्पों के अतिप्रिय, भवसागररूपी नरक से तारने वाले, पुण्यवानों में अत्यन्त पुण्य वाले, समस्त देवताओं से सुपूजित तथा दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।७।। मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय
गीतप्रियाय वृषभेश्वर वाहनाय।
मातंगचर्म वसनाय महेश्वराय
दारिद्रय दु:ख दहनाय नमः शिवाय।।८।।

भावार्थ–मुक्तजनों के स्वामीरूप, चारों पुरुषार्थों के फल को देने वाले, प्रमथादिगणों के स्वामी, स्तुतिप्रिय, नन्दीवाहन, गजचर्म को वस्त्ररूप में धारण करने वाले, महेश्वर तथा दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।८।।
स्तोत्र पाठ का फल
वसिष्ठेन कृतं स्तोत्रं सर्वरोग निवारणम्
सर्व सम्पत्करं शीघ्रं पुत्रपौत्रादि वर्धनम्।
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं स हि स्वर्गमवाप्नुयात्।
दारिद्रय दु:ख दहनाय नमः शिवाय।।९।।

भावार्थ–ऋषि वशिष्ठ द्वारा रचित यह स्तोत्र समस्त रोगों को दूर करने वाला, शीघ्र ही समस्त सम्पत्तियों को प्रदान करने वाला और पुत्र-पौत्रादि वंश-परम्परा को बढ़ाने वाला है। इस स्तोत्र का जो मनुष्य नित्य तीनों कालों में पाठ करता है, उसे निश्चय ही स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। दरिद्रतारूपी दु:ख के विनाशक भगवान शिव को मेरा नमस्कार है।।९।।
वन्दे साम्ब सदा शिवम्🌹
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💐एक अति महत्वपूर्ण चिन्तन……..दो शब्दों में…….💐
🌷मानव जीवन का उद्देश्य🌷
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💐यह एक अद्भुत विषयवस्तु है कि लोगों के सोच और उनके कर्म में कितना अंतर होता है। वहीँ यह बात भी सर्वमान्य है की कर्म सोच का ही परिमार्जित रूप होता है। फिर इस दोहरे मानदंड का अर्थ क्या है? ऐसी कौन सी अवस्थाएं हैं जो लोगों को उनके उद्देश्य से भटका देतीं हैं, अंतरात्मा की आवाज़ को दबा देतीं हैं? इस बात को स्पष्ट करने के लिए मानव जीवन का एक सुक्ष्म विश्लेषण आवश्यक है।
अब तक यह बात सर्वमान्य रही है की एक शक्ति है जो सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड को नियंत्रित एवम् संचालित करती है। उसे चाहे ईश्वर नाम दें या प्रकृति। यही बात पृथ्वी और इसपर उपस्थित सभी जीवधारियों पर भी लागू होती है। यद्यपि कि हमारे अन्वेषण का केंद्र बिंदु मानव जीवन और उसकी प्रवृत्ति है तथापि एक नियम या प्रवृत्ति समस्त जीवधारियों में सामान है और वह है अपने अस्तित्व को बनाए रखने की प्रवृत्ति। जाने अनजाने सभी जीवधारी अपने तथा अपने समुदाय का अस्तित्व बनाये रखने का हर संभव प्रयास करते हैं और यह बात प्रमाणित हो चुकी है की पृथ्वी पर उन्ही जीवधारियों का अस्तित्व शेष बचा है जिन्होंने वातावरण के अनुकूल स्वयं को ढालने के लिए संघर्ष किया और अपने समुदाय को भी इसके लिए प्रेरित किया। अर्थात जीवन का संघर्ष ही एक ऐसी प्रवृत्ति है जो सभी जीवधारियों में एक समान है।
मनुष्य पृथ्वी पर उपस्थित सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है और इस श्रेष्ठता का मूल है प्रकृति प्रदत्त मानव मस्तिष्क की शक्ति, उसकी कल्पनाशीलता दूरदर्शिता, विचारशीलता, आकलन संवेदना आदि। इन्ही गुणों के बल पर मानव ने अन्य जीवों पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध किया है। लेकिन अगर प्रकृति ने मनुष्य को इन विशेष गुणों से परिपूर्ण बनाया है तो इसके पीछे अवश्य ही कोई निश्चित उद्द्येश्य होगा।
मानव जीवन जिसे मनुष्य को विधाता का दिया हुआ सर्वोत्तम उपहार कहा जाय तो अतिश्योक्ति नही होगी। क्योंकि कोई व्यक्ति तभी महान बनता है जब वह अपनी महानता के चरम पर पहुचने तक जीवित रहे। वह एक घंटे या एक दिन में महान नही बन सकता। ऐसा भी देखने मे आता है की साधारण मनुष्य भी अनायास ही कभी कोई बड़ा कार्य कर जाता है तो क्या वह महान हो गया? नही, क्योंकि महानता तो वह कसौटी है जिसपर महान व्यक्ति हर सम-विषम परिस्थितियों में स्वयं को खरा उतारता है। अर्थात जीवन ही मनुष्य को महान बनने का अवसर प्रदान करता है।
लेकिन जीवन का लाभ वही उठा पाते हैं जो इसके उद्देश्य को पहचानते हैं। बिना उद्देश्य के हम किस मार्ग पर चलेंगे कहना कठिन है। परिस्थितियां मनुष्य को तब तक महान नहीं बना सकती जब तक वह स्वयं उन परिस्थितियों का लाभ उठाना न चाहे।
जीवन की आदर्श स्थिति क्या हो सकती है? क्या किसी का तिरस्कार करके, विश्वासघात करके, चोरी करके हमें स्थाई सुख मिल सकता है? नहीं मिल सकता। यह छडिक उमंग की स्थितियां हैं जो भावनाओं के रूप में मस्तिष्क में आती हैं। उदाहरणार्थ अगर कोई आपका अहित करे या करने की सोचे तो आपके मन में भी यह बात आना स्वाभाविक है की आप भी उसका अहित करें। अगर वह अपने प्रयोजन में सफल हो जाए तो आपके मन मे ईर्ष्या और क्रोध की भावना और प्रबल होगी जो आपको सुख की बजाए दुःख की ओर ले जाएगी और यह स्थिति दोनों के लिए अहितकर और निराशाजनक होगी क्योंकि दोनों पक्ष एक दूसरे को दुःखी करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन हमारे अन्वेषण का केंद्र बिंदु वह संतुष्टी है जो मानव जीवन को प्रगतिशील ऊर्जावान तथा महान बनाती है।
मानव जीवन में लक्ष्य का स्पष्टीकरण आवश्यक है। वर्तमान समय मे मनुष्य के सामने कुछ विशेष समस्याएँ हैं और उन समस्याओं का समाधान भी उपलब्ध है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है की अमुक समस्या का समाधान ही हमारे जीवन का उद्देश्य भी है। बेरोजगार के लिए रोजगार पाना उनका लक्ष्य है, भूखे का लक्ष्य भोजन है। लेकिन जैसे ही लक्ष्य प्राप्त हो जाता है उसका महत्त्व हमारे लिए कम हो जाता है और हम नए लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने लगते हैं। अर्थात हमारे जीवन मे लक्ष्य निरंतर बदलते रहते हैं और उन्हें प्राप्त करने का साधन भी।
लेकिन हम मनुष्य हैं और हमारे जीवन का उद्देश्य व्यापक है। रोजगार तो जीविकोपार्जन का साधन मात्र है। और अगर हम इसे ही अपने जीवन का उद्देश्य मान लेंगे तो मनुष्य और बाकी जीवधारियों में अंतर नहीं रह जायेगा क्योकि सारे जीव किसी न किसी तरह संघर्ष करके ही पृथ्वी पर अपना अस्तित्व बनाए रखने में सफल हुए हैं।
ज्ञान को न सिर्फ प्राप्त किया जाए बल्कि इसका उपयोग कुछ इस तरीके से किया जाए जिससे इसका लाभ अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचे। ऐसा करके आप सफलता के नए आयाम स्थापित करें तो आश्चर्य नहीं।
अतः अब आवश्यकता है तो एक संकल्प की, एक विचारधारा विकसित करने की, अपने आपको शिक्षित करने की और विभिन्न संसाधनों की सहायता से संचित ज्ञान के प्रसार की। ऐसा करके आप न सिर्फ अपने जीवन की सार्थकता सिद्ध करेंगे बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन जाएंगे। और एक सत्य ये भी है कि अभिव्यक्ति आत्म संतुष्टी का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है जिसे प्राप्त करने के लिए हम अपनी दिनचर्या मे अनेक निरर्थक प्रयास करते हैं।💐

🌹जय मानव,जय मानवता🌹
🌷🌷🌷स्वस्ति🌷🌷🌷
।।।। माँ बगलामुखी भक्त मंदार विद्या ।।।।

इस साधना को करने से साधक ऎश्वर्य और श्री से सम्पन हो जाता है एवं प्राप्त करने में सक्षम होता है।।

यह मन्त्र “मंत्र रत्न” एवं “वांछाकल्पलता” आदि नमो से भी प्रचलित है। इस साधना के द्वारा लक्ष्मी स्वरूपा माँ बगलामुखी की कृपा प्राप्त होती है।।।

जिन लोगो का व्यापार पूरी तरह से खत्म होने की कगार पे है। या धन डुब गया है वापसी की उम्मीद ना हो अथवा कर्ज चढ़ता जा रहा हो।।।

उन लोगो को ये साधना अवश्य करनी चाईए।।। माँ बगलामुखी का आशीर्वाद जरूर प्राप्त करना चाईए।।

मंत्र = ॐ श्रीम ह्रीं ऐं भगवती बगले में श्रियं देहि देहि स्वाहा।।।

सब पीला होगा वस्त्र आसान धूप दिया कि बत्ती भी पीली और भोग भी पीला ।।
जप संख्या सवा लाख और माला हल्दी की या स्फटिक या कमलगट्टे की।।

माँ की कृपा को वही जान पाया है जो उनकी शरण मे गया है। इसलिए सब्दो को यही विराम देते हुए माँ भगवती से प्राथना करता हु आप सभी को भगवती शरण प्रदान करे।।।

अलख आदेश
जय माँ बगलामुखी
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