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: कौन सा दिन किस कार्य के शुभ ?


वैसे तो हर दिन शुभ होता है। लेकिन ज्योतिष के अनुसार कुछ दिनों में कुछ कार्यों का किया जाना शुभ और किन्हीं कार्यों का किया जाना निषिद्ध होता है। ऐसे में गलत वार के दिन कार्य करने पर परिणाम शुभ नहीं मिलता है। ऐसा कहा जाता है कि अगर मन में शुभ विचार हो, हमारे कर्म शुद्ध हो और नियत अच्छी हो तो कोई भी काम या समय अशुभ नहीं होता।
पाश्चात्य पंचांग में, 7 वार या दिन होते हैं, जैसे: Sunday, Monday, Tuesday, Wednesday, Thursday, Friday, Saturday.

हिंदू वैदिक पंचांग में सप्ताह में सात वार क्रमशः इस प्रकार हैं – रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार, शनिवार। रविवार के दिन सभी कार्यालयों में लगभग अवकाश रहता है। इस लिए इस दिन अधिक धार्मिक क्रियाकलाप किए जाते हैं।

वार के अनुसार कार्य

जैसै कि हम बता चुके हैं कि हफ्ते में सात वार होते हैं। इन वारों की विशेषताओं के आधार पर किस दिन क्या कार्य जातक को करना चाहिए एस बारे में यहां जानकारी दी जी रही है।

रविवार
यह दिन हिंदू पंचांग में सप्ताह का पहला वार है। इस दिन पर भगवान सूर्य आधिपत्य होता है। माना जाता है कि रविवार के दिन न्यायिक व चिकित्सीय सलाह लेना अत्यंत शुभ होता है। इस वार को पशु व सोने के बने आभूषण खरीदाना मंगलकारी है। इस दिन पूजा, यज्ञ, मंत्रोपदेश करवाना श्रेष्ट है।

सोमवार
सोमवार को पंचांग का दूसरा वार कहा जाता है। यह दिन भगवान महादेव का है। इस दिन यदि जातक एक किसान है तो उसे कृषि यंत्र की खरीदी व खेतों में बीज बोना चाहिए। यह वार यात्रा के लिए भी शुभ माना गया है। लेकिन दिशा के अनुसार इसके फल परिवर्तित होते रहते हैं। नये वस्त्र तथा रत्न धारण करने के लिए उत्तम दिन है। जातक कोई नया कार्य शुरू करने जा रहा है तो यह वार शुभ है। परंतु एक बार ज्योतिषीय सलाह अवश्य लें।

मंगलवार
सप्ताह का तीसरा वार मंगलवार, हनुमान जी व मंगलदेव का दिन माना जाता है। जासूसी का काम करने तथा दूसरों का भेद जानने के लिए यह अच्छा दिन है। इस दिन आप किसी को ऋण दे सकते हैं। इसके अलावा नीति-रीति, वाद-विवाद में निर्णय लेना शुभ साबित होता है लेकिन ऋण लेना अशुभ है। इस वार को व्रत करने पर जीवन से कष्ट दूर होते हैं।

बुधवार
सप्ताह के इस वार को ऋण देना अहितकर हो सकता है तथा शिक्षा-दीक्षा के लिए यह दिन शुभ है। बुधवार का दिन राजनीतिक विचार के लिए शुभ है। क्योंकि इस वार के स्वामी देव श्री गणेश हैं। जिन्हें कूटनीति का ज्ञाता माना जाता है। वैदिक पंचांग में यह वार चौथे दिन आता है।

गुरुवार
यह वार भगवान विष्णु और बृहस्पतिदेव का माना जाता है। इस दिन व्रत, पूजा, कथा, दान करने पर विशेष फल प्राप्त होता है। जीवन में सुख समृद्धि आती है। गरूवार को शिक्षा आरंभ करना, नया पद ग्रहण करना, यात्रा करना तथा नवनिर्माण का कार्य शुरू करना बेहद शुभ होता है।

शुक्रवार
वैदिक हिंदू पंचांग में यह वार छठवे दिन आता है। इस दिन देवी आदिशक्ति की आराधना करने से हर तरह के कष्टों से जातक मुक्ति पाता है। शुक्रवार के दिन समाज से जुड़े कार्य करने पर ख्याती मिलती है। नये मित्र बनाने और किसी संवेदनशील विषय पर बुलाए गए बैठक में अच्छा परिणाम निकल कर सामने आता है।

शनिवार
यह सप्ताह का अंतिम वार है। इस दिन के देव शनि महाराज हैं। लेकिन कहा जाता है कि इस वार को हनुमान जी की आराधना करने से विशेष फल मिलता है। साथ ही शनिदेव भी जातक पर अपनी कृपा दृष्टि बनाते हैं। शनिवार के दिन नये घर में गृहप्रवेश करना बहुत ही शुभ माना जाता है। इसके अलावा लोहे की मशीन या वाहन खरीदना भी शुभ है। लेकिन फसल के लिए बुआई करना या करवाना अशुभ है।

ध्यान दें, जातक की कुंडली के आधार पर परिणाम अलग मिल सकते हैं। कार्य का शुभ परिणाम पाने के लिए ज्योतिषीय परामर्ष लेना न भूलें।
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वेद नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण, गरिमामय, उच्च स्थान प्रदान करते हैं| वेदों में स्त्रियों की शिक्षा- दीक्षा, शील, गुण, कर्तव्य, अधिकार और सामाजिक भूमिका का जो सुन्दर वर्णन पाया जाता है, वैसा संसार के अन्य किसी धर्मग्रंथ में नहीं है| वेद उन्हें घर की सम्राज्ञी कहते हैं और देश की शासक, पृथ्वी की सम्राज्ञी तक बनने का अधिकार देते हैं|

वेदों में स्त्री यज्ञीय है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय| वेदों में नारी को ज्ञान देने वाली, सुख – समृद्धि लाने वाली, विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती, इन्द्राणी, उषा- जो सबको जगाती है इत्यादि अनेक आदर सूचक नाम दिए गए हैं|

वेदों में स्त्रियों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है – उसे सदा विजयिनी कहा गया है और उन के हर काम में सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है| वैदिक काल में नारी अध्यन- अध्यापन से लेकर रणक्षेत्र में भी जाती थी| जैसे कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गई थी| कन्या को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार देकर वेद पुरुष से एक कदम आगे ही रखते हैं|

अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा हैं – अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति- दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि |

तथापि, जिन्होनें वेदों के दर्शन भी नहीं किए, ऐसे कुछ रीढ़ की हड्डी विहीन बुद्धिवादियों ने इस देश की सभ्यता, संस्कृति को नष्ट – भ्रष्ट करने का जो अभियान चला रखा है – उसके तहत वेदों में नारी की अवमानना का ढ़ोल पीटते रहते हैं |

आइए, वेदों में नारी के स्वरुप की झलक इन मंत्रों में देखें –

अथर्ववेद ११.५.१८

ब्रह्मचर्य सूक्त के इस मंत्र में कन्याओं के लिए भी ब्रह्मचर्य और विद्या ग्रहण करने के बाद ही विवाह करने के लिए कहा गया है |  यह सूक्त लड़कों के समान ही कन्याओं की शिक्षा को भी विशेष महत्त्व देता है |

कन्याएं ब्रह्मचर्य के सेवन से पूर्ण विदुषी और युवती होकर ही विवाह करें |

अथर्ववेद १४.१.६

माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धीमत्ता और विद्याबल का उपहार दें | वे उसे ज्ञान का दहेज़ दें |

जब कन्याएं बाहरी उपकरणों को छोड़ कर, भीतरी विद्या बल से चैतन्य स्वभाव और पदार्थों को दिव्य दृष्टि से देखने वाली और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने – कराने वाली हो तब सुयोग्य पति से विवाह करे |

अथर्ववेद १४.१.२०

हे पत्नी !  हमें ज्ञान का उपदेश कर |

वधू अपनी विद्वत्ता और शुभ गुणों से पति के घर में सब को प्रसन्न कर दे |

अथर्ववेद ७.४६.३

पति को संपत्ति कमाने के तरीके बता |

संतानों को पालने वाली, निश्चित ज्ञान वाली, सह्त्रों स्तुति वाली और चारों ओर प्रभाव डालने वाली स्त्री, तुम ऐश्वर्य पाती हो | हे सुयोग्य पति की पत्नी, अपने पति को संपत्ति के लिए आगे बढ़ाओ |

अथर्ववेद ७.४७.१

हे स्त्री ! तुम सभी कर्मों को जानती हो |

हे स्त्री !  तुम हमें ऐश्वर्य और समृद्धि दो |

अथर्ववेद ७.४७.२

तुम सब कुछ जानने वाली हमें धन – धान्य से समर्थ कर दो |

हे स्त्री ! तुम हमारे धन और समृद्धि को बढ़ाओ |

अथर्ववेद ७.४८.२

तुम हमें बुद्धि से धन दो |

विदुषी, सम्माननीय, विचारशील, प्रसन्नचित्त पत्नी संपत्ति की रक्षा और वृद्धि करती है और घर में सुख़ लाती है |

अथर्ववेद १४.१.६४

हे स्त्री ! तुम हमारे घर की प्रत्येक दिशा में ब्रह्म अर्थात् वैदिक ज्ञान का प्रयोग करो |

हे वधू ! विद्वानों के घर में पहुंच कर कल्याणकारिणी और सुखदायिनी होकर तुम विराजमान हो |

अथर्ववेद २.३६.५

हे वधू ! तुम ऐश्वर्य की नौका पर चढ़ो और अपने पति को जो कि तुमने स्वयं पसंद किया है, संसार – सागर के पार पहुंचा दो |

हे वधू ! ऐश्वर्य कि अटूट नाव पर चढ़ और अपने पति को सफ़लता के तट पर ले चल |

अथर्ववेद १.१४.३

हे वर ! यह वधू तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है |

हे वर !  यह कन्या तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है | यह बहुत काल तक तुम्हारे घर में निवास करे और बुद्धिमत्ता के बीज बोये |

अथर्ववेद २.३६.३

यह वधू पति के घर जा कर रानी बने और वहां प्रकाशित हो |

अथर्ववेद ११.१.१७

ये स्त्रियां शुद्ध, पवित्र और यज्ञीय ( यज्ञ समान पूजनीय ) हैं, ये प्रजा, पशु और अन्न देतीं हैं |

यह स्त्रियां शुद्ध स्वभाव वाली, पवित्र आचरण वाली, पूजनीय, सेवा योग्य, शुभ चरित्र वाली और विद्वत्तापूर्ण हैं | यह समाज को प्रजा, पशु और सुख़ पहुँचाती हैं |

अथर्ववेद १२.१.२५

हे मातृभूमि ! कन्याओं में जो तेज होता है, वह हमें दो |

स्त्रियों में जो सेवनीय ऐश्वर्य और कांति है, हे भूमि ! उस के साथ हमें भी मिला |

अथर्ववेद  १२.२.३१

स्त्रियां कभी दुख से रोयें नहीं, इन्हें निरोग रखा जाए और रत्न, आभूषण इत्यादि पहनने को दिए जाएं |

अथर्ववेद १४.१.२०

हे वधू ! तुम पति के घर में जा कर गृहपत्नी और सब को वश में रखने वाली बनों |

अथर्ववेद १४.१.५०

हे पत्नी ! अपने सौभाग्य के लिए मैं तेरा हाथ पकड़ता हूं |

अथर्ववेद १४.२ .२६

हे वधू ! तुम कल्याण करने वाली हो और घरों को उद्देश्य तक पहुंचाने वाली हो |

अथर्ववेद  १४.२.७१

हे पत्नी ! मैं ज्ञानवान हूं तू भी ज्ञानवती है, मैं सामवेद हूं तो तू ऋग्वेद है |

अथर्ववेद १४.२.७४

यह वधू विराट अर्थात् चमकने वाली है, इस ने सब को जीत लिया है |

यह वधू बड़े ऐश्वर्य वाली और पुरुषार्थिनी हो |

अथर्ववेद  ७.३८.४ और १२.३.५२

सभा और समिति में जा कर स्त्रियां भाग लें और अपने विचार प्रकट करें |

ऋग्वेद १०.८५.७

माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धिमत्ता और विद्याबल उपहार में दें | माता- पिता को चाहिए कि वे अपनी कन्या को दहेज़ भी दें तो वह ज्ञान का दहेज़ हो |

ऋग्वेद ३.३१.१

पुत्रों की ही भांति पुत्री भी अपने पिता की संपत्ति में समान रूप से उत्तराधिकारी है |

ऋग्वेद   १० .१ .५९

एक गृहपत्नी प्रात :  काल उठते ही अपने उद् गार  कहती है –

” यह सूर्य उदय हुआ है, इस के साथ ही मेरा सौभाग्य भी ऊँचा चढ़ निकला है |  मैं अपने घर और समाज की ध्वजा हूं , उस की मस्तक हूं  | मैं भारी व्यख्यात्री हूं | मेरे पुत्र  शत्रु -विजयी हैं | मेरी पुत्री संसार में चमकती है | मैं स्वयं दुश्मनों को जीतने वाली हूं | मेरे पति का असीम यश है |  मैंने  वह  त्याग किया है जिससे इन्द्र (सम्राट ) विजय पता है |  मुझेभी विजय मिली है | मैंने अपने शत्रु  नि:शेष कर दिए हैं | ”

वह सूर्य ऊपर आ गया है और मेरा सौभाग्य भी ऊँचा हो गया है  | मैं जानती हूं , अपने प्रतिस्पर्धियों को जीतकर  मैंने पति के प्रेम को फ़िर से पा लिया है |

मैं प्रतीक हूं , मैं शिर हूं , मैं सबसे प्रमुख  हूं और अब मैं कहती हूं कि  मेरी इच्छा के अनुसार ही मेरा पति आचरण करे |   प्रतिस्पर्धी मेरा कोई नहीं है |

मेरे पुत्र मेरे शत्रुओं को नष्ट करने वाले हैं , मेरी पुत्री रानी है , मैं विजयशील हूं  | मेरे और मेरे पति के प्रेम की व्यापक प्रसिद्धि है |

ओ प्रबुद्ध  ! मैंने उस अर्ध्य को अर्पण किया है , जो सबसे अधिक उदाहरणीय है और इस तरह मैं सबसे अधिक प्रसिद्ध और सामर्थ्यवान हो गई हूं  | मैंने स्वयं को  अपने प्रतिस्पर्धियों से मुक्त कर लिया है |

मैं प्रतिस्पर्धियों से मुक्त हो कर, अब प्रतिस्पर्धियों की विध्वंसक हूं और विजेता हूं  | मैंने दूसरों का वैभव ऐसे हर लिया है जैसे की वह न टिक पाने वाले कमजोर बांध हों | मैंने मेरे प्रतिस्पर्धियों पर विजय प्राप्त कर ली है | जिससे मैं इस नायक और उस की प्रजा पर यथेष्ट शासन चला सकती हूं  |

इस मंत्र की ऋषिका और देवता दोनों हो शची हैं  | शची  इन्द्राणी है, शची  स्वयं में राज्य की सम्राज्ञी है ( जैसे कि कोई महिला प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष हो ) | उस के पुत्र – पुत्री भी राज्य के लिए समर्पित हैं |

ऋग्वेद  १.१६४.४१

ऐसे निर्मल मन वाली स्त्री जिसका मन एक पारदर्शी स्फटिक जैसे परिशुद्ध जल की तरह हो वह एक वेद,  दो वेद या चार वेद , आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद , अर्थवेद इत्यादि के साथ ही छ : वेदांगों – शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छंद : को प्राप्त करे और इस वैविध्यपूर्ण  ज्ञान को अन्यों को भी दे |

हे स्त्री पुरुषों ! जो एक वेद का अभ्यास करने वाली वा दो वेद जिसने अभ्यास किए वा चार वेदों  की पढ़ने वाली वा चार वेद  और चार उपवेदों की शिक्षा से युक्त वा चार वेद, चार उपवेद और व्याकरण आदि  शिक्षा युक्त, अतिशय कर के  विद्याओं  में प्रसिद्ध होती और असंख्यात अक्षरों वाली होती हुई सब से उत्तम, आकाश के समान व्याप्त निश्चल परमात्मा के निमित्त प्रयत्न करती है और गौ स्वर्ण  युक्त विदुषी स्त्रियों को शब्द कराती अर्थात् जल के समान निर्मल वचनों को छांटती अर्थात् अविद्यादी दोषों को अलग करती हुई वह संसार के लिए अत्यंत सुख करने वाली होती है |

ऋग्वेद     १०.८५.४६

स्त्री को परिवार और पत्नी की महत्वपूर्ण भूमिका में चित्रित किया गया है | इसी तरह, वेद स्त्री की सामाजिक, प्रशासकीय और राष्ट्र की सम्राज्ञी के रूप का वर्णन भी करते हैं |

ऋग्वेद  के कई सूक्त उषा का देवता के रूप में वर्णन करते हैं और इस उषा को एक आदर्श स्त्री के रूप में माना गया है | कृपया पं श्रीपाद दामोदर सातवलेकर द्वारा लिखित  ” उषा देवता “,  ऋग्वेद का सुबोध भाष्य  देखें |

सारांश   (पृ १२१ – १४७ ) –

१. स्त्रियां  वीर हों | (  पृ १२२, १२८)

२. स्त्रियां सुविज्ञ हों | ( पृ १२२)

३. स्त्रियां यशस्वी हों | (पृ   १२३)

४. स्त्रियां रथ पर सवारी करें |  ( पृ  १२३)

५. स्त्रियां विदुषी हों | (  पृ १२३)

६. स्त्रियां संपदा शाली  और धनाढ्य हों | ( पृ  १२५)

७.स्त्रियां बुद्धिमती और ज्ञानवती हों |  ( पृ  १२६)

८. स्त्रियां परिवार ,समाज की रक्षक हों और सेना में जाएं | (पृ   १३४, १३६ )

९. स्त्रियां तेजोमयी हों |  ( पृ  १३७)

१०.स्त्रियां धन-धान्य और वैभव देने वाली हों |  ( पृ   १४१-१४६

यजुर्वेद २०.९

स्त्री  और पुरुष दोनों को शासक चुने जाने का समान अधिकार है |

यजुर्वेद १७.४५

स्त्रियों की भी सेना हो | स्त्रियों को युद्ध में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करें |

यजुर्वेद १०.२६

शासकों की स्त्रियां अन्यों को राजनीति की शिक्षा दें | जैसे राजा, लोगों का न्याय करते हैं  वैसे ही रानी भी  न्याय करने वाली हों |
: इलायची खाने का स्वाद ही नहीं बढ़ाती, सेहत और सुंदरता भी बढ़ा सकती हैं, जानिए कैसे..

भारतीय पकवानों में डलने वाला एक महत्वपूर्ण मसाला है इलायची। अगर अभी तक आपको लगता था कि इलायची खाने में इस्तेमाल करने से केवल खाने की महक और स्वाद ही बढ़ता है, तो आप गलत सोच रहे हैं। इलायची का इस्तेमाल आपके भोजन का स्वाद बढ़ाने के साथ ही आपकी सेहत और सुंदरता को भी बढ़ा सकता है। आइए जानते हैं कि कैसे –

  1. यदि आपको कील-मुंहासे की समस्या रहती है तो आप नियमित रात को सोने से पहले गर्म पानी के साथ एक इलायची का सेवन करें। इससे आपकी त्वचा संबंधी समस्या दूर होगी।
  2. यदि आपको पेट से संबंधित समस्या है, आपका पेट ठीक नहीं रहता या आपके बाल बहुत ज्यादा झड़ते है तो इन सभी समस्याओं से बचने के लिए आप इलायची का सेवन करें। इसके लिए आप सुबह खाली पेट 1 इलायची गुनगुने पानी के साथ खाएं।
  3. दिनभर की बहुत ज्यादा थकान के बाद भी अगर आपको नींद आने में परेशानी होती है तो इसका उपाय भी इलायची है। नींद नहीं आने की समस्या से निजात पाने के लिए आप रोजाना रात को सोने से पहले इलायची को गर्म पानी के साथ खाएं। ऐसा करने से नींद भी आएगी और खर्राटे भी नहीं आएंगे।


https://youtu.be/6tM2oMiPM4Q

: ज़मीन पर बैठकर खाना खाने के लाभ
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हमारे हिन्दू धर्म में प्राचीनकाल से चली आ रही ज़मीन में खाने की परंपरा को आज लोग नकारने लगे हैं या यूं कहें कि ज़मीन पर बैठकर भोजन करने में वे अब शर्मिंदगी महसूस करने लगे हैं। कुर्सी टेबल पर बैठकर खाना खाना सभ्य और ज़मीन पर बैठकर खाना खाने की परंपरा को असभ्य मानकर अस्वीकार करने लगे हैं।
जमीन पर बैठ कर खाने से वज़न कम होता है, पाचन क्रिया ठीक रहती है, दिल स्वस्थ रहता और दिमाग़ तनाव रहित रहता है। ज़मीन पर पर बैठकर खाना खाते समय हम लोग सुखासन की स्थिति में होते हैं, यह पद्मासन का ही एक प्रकार है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत फ़ायदेमंद है।

आइए ज़मीन पर बैठकर भोजन करने के फ़ायदों के बारे में जानें।

  1. पाचन क्रिया ठीक रहती है
    ज़मीन पर बैठकर खाना खाते समय हम लोग सुखासन की मुद्रा में बैठते हैं। इस योग मुद्रा में बैठकर खाना खाने से खाना सही तरह से पच जाता है। ज़मीन पर बैठकर भोजन करते समय निवाला उठाते वक़्त आगे की ओर झुकते हैं और फिर निवाला निगलने के बाद पहले वाली पोजिशन में आना जाते हैं। ऐसा बार-बार करने से पेट की मांशपेशियां एक्टिव हो जाती हैं और खाना तेज़ी से पचने लगता है।
    इस मुद्रा में बैठने से पेट से जुड़ी कई समस्याएं भी कम हो जाती हैं।
  2. वज़न कंट्रोल करें
    ज़मीन पर बैठकर खाना खाते समय आप सुखासन की अवस्था में बैठते हैं, जिससे दिमाग़ अपने आप शांत हो जाता है। ज़मीन पर बैठकर खाने से पेट और दिमाग़ को सही समय पर एहसास हो जाता है कि आपने भरपूर खा लिया है और आप ओवरईटिंग से बच जाते हैं। जिससे आपका वज़न कंट्रोल रहता है।
  3. रिश्तों में मिठास को बढ़ाएं
    जब पूरा परिवार एक साथ ज़मीन पर बैठ कर भोजन करता है। तो इससे रिश्तों में मधुरता आती है और आपसी प्यार बढ़ता है।
  4. शरीर को लचीला बनाएं
    ज़मीन पर बैठकर खाते समय जब आप पद्मासन की मुद्रा में बैठते हैं, तो आपकी पीठ और पेट के आसपास की मांसपेशियों में खिंचाव होता है। जिससे शरीर में लचीलापन बना रहता है।
    भारतीय भोजन शैली एवं पद्धति
  5. गठिया रोग से बचाए(ये बचपन से जो नीचे बैठते है उनके लिए ज्यादा असरकारी है)

ज़मीन पर बैठकर खाना खाते समय
पद्मासन और सुखासन की मुद्रा में होते हैं। यह एक ऐसी मुद्रा है जो न केवल हमारे पाचन तंत्र को ठीक रखती है, बल्कि जोड़ों को कोमल और लचीला बनाती है। इस लचीलेपन से जोड़ों की चिकनाई बनी रहती है, जिससे आगे चलकर उठने-बैठने में दिक्कत नहीं होती है और हड्डियों के रोग, जैसे ओस्टियोपोरोसिस और आर्थराइटिस की समस्या से भी बचे रहते हैं।

  1. मन को शांत करें
    जब हम लोग ज़मीन पर बैठकर सुखासन की मुद्रा में खाना खाते हैं। तो दिमाग़ तनाव रहित और शांत अवस्था में रहता है।
  2. हार्ट को हेल्दी बनाएं
    ज़मीन पर बैठकर खाना खाने से हमारे शरीर में रक्त का संचार अच्छे से होता है और हृदय बड़ी सहजता से सभी पाचन अंगों तक ख़ून पहुंचाता है, क्योकि निवाला लेने के लिए जो झुकने की क्रिया होती है उससे डायाफ्राम पर एक प्रेशर पड़ता है और इससे दिल की प्रक्रिया पर भी एक पॉजिटिव प्रेशर बनता है। इसलिए ज़मीन पर बैठकर भोजन करें और हार्ट को हेल्दी बनाएं।

आज से ही ज़मीन पर बैठकर भोजन करें और इसका लाभ उठायें।
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: -आन्तरिक बल -284

-विशुद्ध चक्र -4 – आकाश

-सभी मनुष्य जाने अनजाने कभी न कभी आकाश की ओर उंगली करते है और कहते है यह उसकी मेहरबानी है । वास्तव में हमारा अस्तित्व ही आकाश के कारण है ।

-आकाश से हमें धूप मिलती है । धूप से हमें विटामिन और ऊर्जा मिलती है । अगर सूरज न निकले तो सारा संसार बर्फ बन जायेगा ।

-आकाश से हमें हवा मिलती है । हवा से ऑक्सिजन मिलती है । जिस के बगैर हम जिंदा नहीं रह सकते ।

-आकाश से हमें बरसात के रुप में पानी मिलता है । हमारे शरीर में 70% पानी है । अतः हम पानी के बिना भी नहीं रह सकते ।

-आकाश से हमें फसलें और पेड़ पौधे मिलते है । पौधों और पेड़ों से हमें भोजन मिलता है । भोजन जीवन की पहली जरूरत है । इसलिये हम फसलें आदि उगाते है । इनके लिये पानी हवा और धूप तीनो ज़रूरी है । जो कि हमें आकाश से मिलते है ।

-हमें आकाश से जीवनी विद्युत प्राप्त होती है जिसे प्राण कहते है । यह तत्व आक्सीजन के अन्दर होता है जो कि आकाश वा भगवान से हमें प्राप्त होता है ।

-आकाश में ईथर नाम का तत्व है जो ध्वनि का सुचालक है, जिस कारण हम अपना संदेश विश्व के किसी भी कोने में भेज सकते है ।

-आकाश में ही एक स्थान है जहां रोकेट आदि बिना किसी बाहरी ऊर्जा के घूमते रहते है । इस स्थान को स्पेस कहते है । इसी स्पेस के कारण आज का विज्ञान बहुत उन्नति कर पाया है ।

-बहुत सारी गैसीज जो मानवता के लिये ज़रूरी है वह आकाश से ही प्राप्त होती है ।

-जब बच्चे पूर्वजों के बारे पूछते है तो हम आकाश में सितारे दिखाते है कि वह वहां है ।

-जब कभी हमारे नज़दीकी की मृत्यु होती है तो हम कहते है कि वह आकाश पर भगवान के पास चला गया है ।

-सार में कहे तो सारा संसार ही आकाश के कारण है । इसी कारण सभी लोग ऊपर की ओर इशारा करते रहते है ।

-इसके इलावा गहरा कारण यह है कि जो वस्तु जिस चीज़ से बनी होती है वह उसी की ओर खींचती चली जाती है ।

-अग्नि ऊपर की ओर उठती है क्योंकि सूर्य ऊपर है और अग्नि सूर्य का ही रुप है । पानी नीचे की ओर बहता है क्योंकि वह समुन्द्र में मिलना चाहता है । ऐसे ही आत्मा परमात्मा की संतान होने के कारण आकाश की ओर देखती है क्योंकि भगवान परमधाम निवासी है ।

-जिनका योग नहीं लगता वह अगर मन से नीला आकाश देखते रहे तो योग लगने लगेगा । क्योंकि ऐसे देखने से मन कीं एनर्जी ऊपर उठ जाती है जैसे हम योग में करते है और सहज ही अनुभव होने लगता है ।

-जो लोग भगवान को याद नहीं करते वह दिन में हर घंटे बाद या जब जब कोई भी रुकावट आयें वह ऊपर मुंह कर के आकाश की तरफ़ देखे और कहे आप की प्रेरणा क्या है । देखना आप हर समस्या पर विजयी होंगे ।
🙏 आजका सदचिंतन 🙏
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व्यक्ति संपर्क से विचार संक्रमण
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विचारों का प्रभाव छूत के रोगों के समान होता है, वे रोग जिन्हें हम संक्रामक कहते हैं। इसीलिए विचारों को भी संक्रामक कहा गया है। जो व्यक्ति आपके संपर्क में आते हैं, उन पर आपके विचारों का संक्रमण होता है।
यदि आपका मन शांत, संतुलित, स्वस्थ, सशक्त और प्रसन्न है, तो आप जहाँ भी जाएंगे, वहाँ प्रसन्नता फैलेगी, शान्ति का संचार होगा।
इसके विपरीत यदि आपमें निराशा है, उत्साहहीनता है, आपके हौंसले पस्त हैं, तो आप जहाँ भी जाएंगे, वहां निराशा ही फैलेगी तथा उत्साहहीनता का ही संचार होगा और इसका असर आपके मन पर भी पडेगा।

    *विचार क्रांति अभियान*

🙏 सबका जीवन मंगलमय हो 🙏 : एक बार राजा भोज के दरबार में एक सवाल उठा कि ‘ ऐसा कौन सा कुआं है जिसमें गिरने के बाद आदमी बाहर नहीं निकल पाता?’ इस प्रश्न का उत्तर कोई नहीं दे पाया।
आखिर में राजा भोज ने राज पंडित से कहा कि इस प्रश्न का उत्तर सात दिनों के अंदर लेकर आओ, वरना आपको अभी तक जो इनाम धन आदि दिया गया है,वापस ले लिए जायेंगे तथा इस नगरी को छोड़कर दूसरी जगह जाना होगा।
छः दिन बीत चुके थे।राज पंडित को जबाव नहीं मिला था।निराश होकर वह जंगल की तरफ गया। वहां उसकी भेंट एक गड़रिए से हुई। गड़रिए ने पूछा -” आप तो राजपंडित हैं, राजा के दुलारे हो फिर चेहरे पर इतनी उदासी क्यों?
यह गड़रिया मेरा क्या मार्गदर्शन करेगा?सोचकर पंडित ने कुछ नहीं कहा।इसपर गडरिए ने पुनः उदासी का कारण पूछते हुए कहा -” पंडित जी हम भी सत्संगी हैं,हो सकता है आपके प्रश्न का जवाब मेरे पास हो, अतः नि:संकोच कहिए।” राज पंडित ने प्रश्न बता दिया और कहा कि अगर कलतक प्रश्न का जवाब नहीं मिला तो राजा नगर से निकाल देगा।
गड़रिया बोला -” मेरे पास पारस है उससे खूब सोना बनाओ। एक भोज क्या लाखों भोज तेरे पीछे घूमेंगे।बस,पारस देने से पहले मेरी एक शर्त माननी होगी कि तुझे मेरा चेला बनना पड़ेगा।”
राज पंडित के अंदर पहले तो अहंकार जागा कि दो कौड़ी के गड़रिए का चेला बनूं? लेकिन स्वार्थ पूर्ति हेतु चेला बनने के लिए तैयार हो गया।
*गड़रिया बोला -” *पहले भेड़ का दूध पीओ फिर चेले बनो। राजपंडित ने कहा कि यदि ब्राह्मण भेड़ का दूध पीयेगा तो उसकी बुद्धि मारी जायेगी। मैं दूध नहीं पीऊंगा। तो जाओ, मैं पारस नहीं दूंगा – गड़रिया बोला।*
राज पंडित बोला -” ठीक है,दूध पीने को तैयार हूं,आगे क्या करना है?”
गड़रिया बोला-” अब तो पहले मैं दूध को झूठा करूंगा फिर तुम्हें पीना पड़ेगा।”
राजपंडित ने कहा -” तू तो हद करता है! ब्राह्मण को झूठा पिलायेगा?” तो जाओ, गड़रिया बोला।
राज पंडित बोला -” मैं तैयार हूं झूठा दूध पीने को ।”
गड़रिया बोला-” वह बात गयी।अब तो सामने जो मरे हुए इंसान की खोपड़ी का कंकाल पड़ा है, उसमें मैं दूध दोहूंगा,उसको झूठा करूंगा, कुत्ते को चटवाऊंगा फिर तुम्हें पिलाऊंगा।तब मिलेगा पारस। नहीं तो अपना रास्ता लीजिए।”
राजपंडित ने खूब विचार कर कहा-” है तो बड़ा कठिन लेकिन मैं तैयार हूं।
गड़रिया बोला-” मिल गया जवाब। यही तो कुआं है!लोभ का, तृष्णा का जिसमें आदमी गिरता जाता है और फिर कभी नहीं निकलता। जैसे कि तुम पारस को पाने के लिए इस लोभ रूपी कुएं में गिरते चले गए।
: गजेन्द्र मोक्ष
श्रीमननारायण नारायण हरि हरि

अति प्राचीन काल की बात है। द्रविड़ देश में एक पाण्ड्यवंशी
राजा राज्य करते थे। उनका नाम था इंद्रद्युम्न। वे भगवान की आराधना में ही अपना अधिक समय व्यतीत करते थे। यद्यपि उनके राज्य में सर्वत्र सुख-शांति थी। प्रजा प्रत्येक रीति से संतुष्ट थी तथापि राजा इंद्रद्युम्न अपना समय राजकार्य में कम ही दे पाते थे। वे कहते थे कि भगवान विष्णु ही मेरे राज्य की व्यवस्था करते है। अतः वे अपने इष्ट परम प्रभु की उपासना में ही दत्तचित्त रहते थे।

राजा इंद्रद्युम्न के मन में आराध्य-आराधना की लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। इस कारण वे राज्य को त्याग कर मलय-पर्वत पर रहने लगे। उनका वेश तपस्वियों जैसा था। सिर के बाल बढ़कर जटा के रूप में हो गए थे। वे निरंतर परमब्रह्म परमात्मा की आराधना में तल्लीन रहते। उनके मन और प्राण भी श्री हरि के चरण-कमलों में मधुकर बने रहते। इसके अतिरिक्त उन्हें जगत की कोई वस्तु नहीं सुहाती। उन्हें राज्य, कोष, प्रजा तथा पत्नी आदि किसी प्राणी या पदार्थ की स्मृति ही नहीं होती थी।

एक बार की बात है, राजा इन्द्रद्युम्न प्रतिदिन की भांति स्नानादि से निवृत होकर सर्वसमर्थ प्रभु की उपासना में तल्लीन थे। उन्हें बाह्य जगत का तनिक भी ध्यान नहीं था। संयोग वश उसी समय महर्षि अगस्त्य अपने समस्त शिष्यों के साथ वहां पहुँच गए। लेकिन न पाद्ध, न अघ्र्य और न स्वागत। मौनव्रती राजा इंद्रद्युम्न परम प्रभु के ध्यान में निमग्न थे। इससे महर्षि अगस्त्य कुपित हो गए। उन्होंने इंद्रद्युम्न को शाप दे दिया- “इस राजा ने गुरुजनो से शिक्षा नहीं ग्रहण की है और अभिमानवश परोपकार से निवृत होकर मनमानी कर रहा है। ऋषियों का अपमान करने वाला यह राजा हाथी के समान जड़बुद्धि है इसलिए इसे घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो।” महर्षि अगत्स्य भगवदभक्त इंद्रद्युम्न को यह शाप देकर चले गए। राजा इन्द्रद्युम्न ने इसे श्री भगवान का मंगलमय विधान समझकर प्रभु के चरणों में सिर रख दिया।

क्षीराब्धि में दस सहस्त्र योजन लम्बा, चौड़ा और ऊंचा त्रिकुट नामक पर्वत था। वह पर्वत अत्यंत सुन्दर एवं श्रेष्ठ था। उस पर्वतराज त्रिकुट की तराई में ऋतुमान नामक भगवान वरुण का क्रीड़ा-कानन था। उसके चारों ओर दिव्य वृक्ष सुशोभित थे। वे वृक्ष सदा पुष्पों और फूलों से लदे रहते थे। उसी क्रीड़ा-कानन ऋतुमान के समीप पर्वतश्रेष्ठ त्रिकुट के गहन वन में हथनियों के साथ अत्यंत शक्तिशाली और अमित पराक्रमी गजेन्द्र रहता था।

एक बार की बात है। गजेन्द्र अपने साथियो सहित तृषाधिक्य (प्यास की तीव्रता) से व्याकुल हो गया। वह कमल की गंध से सुगंधित वायु को सूंघकर एक चित्ताकर्षक विशाल सरोवर के तट पर जा पहुंचा। गजेन्द्र ने उस सरोवर के निर्मल,शीतल और मीठे जल में प्रवेश किया। पहले तो उसने जल पीकर अपनी तृषा बुझाई, फिर जल में स्नान कर अपना श्रम दूर किया। तत्पश्चात उसने जलक्रीड़ा आरम्भ कर दी। वह अपनी सूंड में जल भरकर उसकी फुहारों से हथिनियों को स्नान कराने लगा। तभी अचानक गजेन्द्र ने सूंड उठाकर चीत्कार की। पता नहीं किधर से एक मगर ने आकर उसका पैर पकड़ लिया था। गजेन्द्र ने अपना पैर छुड़ाने के लिए पूरी शक्ति लगाई परन्तु उसका वश नहीं चला, पैर नहीं छूटा। अपने स्वामी गजेन्द्र को ग्राहग्रस्त देखकर हथिनियां, कलभ और अन्य गज अत्यंत व्याकुल हो गए। वे सूंड उठाकर चिंघाड़ने और गजेन्द्र को बचाने के लिए सरोवर के भीतर-बाहर दौड़ने लगे। उन्होंने पूरी चेष्टा की लेकिन सफल नहीं हुए।

वस्तुतः महर्षि अगत्स्य के शाप से राजा इंद्रद्युम्न ही गजेन्द्र हो गए थे और गन्धर्वश्रेष्ठ हूहू महर्षि देवल के शाप से ग्राह हो गए थे। वे भी अत्यंत पराक्रमी थे। संघर्ष चलता रहा। गजेन्द्र स्वयं को बाहर खींचता और ग्राह गजेन्द्र को भीतर खींचता। सरोवर का निर्मल जल गंदला हो गया था। कमल-दल क्षत-विक्षत हो गए। जल-जंतु व्याकुल हो उठे। गजेन्द्र और ग्राह का संघर्ष एक सहस्त्र वर्ष तक चलता रहा। दोनों जीवित रहे। यह द्रश्य देखकर देवगण चकित हो गए।

अंततः गजेन्द्र का शरीर शिथिल हो गया। उसके शरीर में शक्ति और मन में उत्साह नहीं रहा। परन्तु जलचर होने के कारण ग्राह की शक्ति में कोई कमी नहीं आई। उसकी शक्ति बढ़ गई। वह नवीन उत्साह से अधिक शक्ति लगाकर गजेन्द्र को खींचने लगा। असमर्थ गजेन्द्र के प्राण संकट में पड़ गए। उसकी शक्ति और पराक्रम का अहंकार चूर-चूर हो गया। वह पूर्णतया निराश हो गया। किन्तु पूर्व जन्म की निरंतर भगवद आराधना के फलस्वरूप उसे भगवत्स्मृति हो आई। उसने निश्चय किया कि मैं कराल काल के भय से चराचर प्राणियों के शरण्य सर्वसमर्थ प्रभु की शरण ग्रहण करता हूं। इस निश्चय के साथ गजेन्द्र मन को एकाग्र कर पूर्वजन्म में सीखे श्रेष्ठ स्त्रोत द्वारा परम प्रभु की स्तुति करने लगा।

गजेन्द्र की स्तुति सुनकर सर्वात्मा सर्वदेव रूप भगवान विष्णु प्रकट हो गए। गजेन्द्र को पीड़ित देखकर भगवान विष्णु गरुड़ पर आरूढ़ होकर अत्यंत शीघ्रता से उक्त सरोवर के तट पर पहुंचे। जब जीवन से निराश तथा पीड़ा से छटपटाते गजेन्द्र ने हाथ में चक्र लिए गरुड़ारूढ़ भगवान विष्णु को तीव्रता से अपनी ओर आते देखा तो उसने कमल का एक सुन्दर पुष्प अपनी सूंड में लेकर ऊपर उठाया और बड़े कष्ट से कहा- “नारायण ! जगद्गुरो ! भगवान ! आपको नमस्कार है।”

गजेन्द्र को अत्यंत पीड़ित देखकर भगवान विष्णु गरुड़ की पीठ से कूद पड़े और गजेन्द्र के साथ ग्राह को भी सरोवर से बाहर खींच लाए और तुरंत अपने तीक्ष्ण चक्र से ग्राह का मुंह फाड़कर गजेन्द्र को मुक्त कर दिया।

ब्रह्मादि देवगण श्री हरि की प्रशंसा करते हुए उनके ऊपर स्वर्गिक सुमनों की वृष्टि करने लगे। सिद्ध और ऋषि-महर्षि परब्रह्म भगवान विष्णु का गुणगान करने लगे। ग्राह दिव्य शरीर-धारी हो गया। उसने विष्णु के चरणो में सिर रखकर प्रणाम किया और भगवान विष्णु के गुणों की प्रशंसा करने लगा।

भगवान विष्णु के मंगलमय वरद हस्त के स्पर्श से पाप मुक्त होकर अभिशप्त हूहू गन्धर्व ने प्रभु की परिक्रमा की और उनके त्रेलोक्य वन्दित चरण-कमलों में प्रणाम कर अपने लोक चला गया। भगवान विष्णु ने गजेन्द्र का उद्धार कर उसे अपना पार्षद बना लिया। गन्धर्व,सिद्ध और देवगण उनकी लीला का गान करने लगे। गजेन्द्र की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने सबके समक्ष कहा- “प्यारे गजेन्द्र ! जो लोग ब्रह्म मुहूर्त में उठकर तुम्हारी की हुई स्तुति से मेरा स्तवन करेंगे, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल बुद्धि का दान करूँगा।”

यह कहकर भगवान विष्णु ने पार्षद रूप में गजेन्द्र को साथ लिया और गरुडारुड़ होकर अपने दिव्य धाम को चले गए।
राध्धेय राध्धेय🍃👏🏼

सत्संग की सबसे बड़ी सीख है खुद को सुधारना। स्वयं सुधार, अपने आपकी कमियों को दूर करना। सत्संग की शिक्षा सीख यही है कि हम एक नेक इंसान बन जाएँ। कुछ भी बनो मुबारक है पर पहले इंसान बनो। सत्संग की सीख का असर तब मालुम पड़ता है जब हम व्यवहार में जीवन जीते हैं। हमारा कर्म हमारा चरित्र हमारा आचरण हमारा व्यवहार चाल चलन बोली भाषा बताती है कि सत्संग की कितनी सीख हमारे जीवन में आई है। सत्संग में दो घंटा बैठना और बाद में सत्संग की बातों को जीना ही असली सत्संग है। सत्संग की सीख हमारे संस्कार हैं। हमारे संस्कार बयान करते हैं हमने सत्संग से क्या सीखा है।

जय श्री कृष्ण🙏🙏
: भगवान हमारे हैं और हम भगवान के हैं–यह सच्ची बात है। इसलिये भजन-ध्यान करते हुए इस बात को विशेषता से याद रखें कि भगवान अभी हैं, यहाँ हैं, मेरे में हैं और मेरे हैं। अब निराशा की जगह ही कहाँ है ? जैसे बालक मानता है कि माँ मेरी है, तो वह मां पर अपना हक लगाता है, पूरा अधिकार जमाता है। माँ इधर उधर देखती है तो उसकी ठोड़ी पकड़कर कहता है कि तू मेरी तरफ ही देख, बस। अतः माँ को उसकी तरफ देखना पड़ता है। ऐसे ही हम भगवान से कह दें कि हम तुम्हारे हैं, तुम हमारे हो, इसलिये मेरी तरफ ही देखो। सन्तों ने कहा है– ‘न मैं देखूँ और को, न तोहि देखन देउँ।’ मैं और को देखूँगा नहीं और तेरे को भी दूसरी तरफ देखने दूँगा नहीं। ऐसा होनेपर भगवान वश में हो जायेंगे। हम जो दूसरी तरफ देखते हैं, यही बाधा है।
Զเधॆ Զเधॆ🙏🙏

      *महापुरुषों का केवल पूजन नहीं अपितु उनसे प्रेरणा भी ली जानी चाहिए। क्योंकि वास्तविकता में महापुरुषों का जीवन वंदना के लिए नहीं कुछ बनने के लिए प्रेरणा होता है।*

       *जबसे समाज ने महापुरुषों से पवित्र, मर्यादित, अनुशासित और शुचितापूर्ण जीवन की प्रेरणा लेने की बजाय उन्हें पूजना प्रारंभ कर दिया तबसे पुजारी तो कई बन गये पर कोई पूज्य ना बन सका। जिसके संग से हमारा मोह भंग हो जाए और कृष्ण प्रेम का रंग चढ़ जाए, वही तो संत है।*

      *महापुरुषों के चरण नहीं उनका आचरण पकड़ो ताकि हमारा आचरण उच्च बन सके। देहालय शिवालय बन सके। मनुष्यता के गुण हममें आ सकें। वक्तव्य पकड़ना चाहिए वक्ता नहीं, नहीं तो व्यक्ति पूजा शुरू हो जाएगी। आसक्ति गुणों को ग्रहण करने में हो ना कि गुणवान व्यक्ति में ही आसक्ति हो जाए।*

जय श्री कृष्ण🙏🙏
: शिवलिंग को गुप्तांग की संज्ञा कैसे दी और अब हम हिन्दू खुद शिवलिंग को शिव् भगवान का गुप्तांग समझने लगे हे और दूसरे हिन्दुओ को भी ये गलत जानकारी देने लगे हे।

प्रकृति से शिवलिंग का क्या संबंध है ..?
जाने शिवलिंग का वास्तविक अर्थ क्या है और कैसे इसका गलत अर्थ निकालकर हिन्दुओं को भ्रमित किया…??

कुछ लोग शिवलिंग की पूजा
की आलोचना करते हैं..।
छोटे छोटे बच्चों को बताते हैं कि हिन्दू लोग लिंग और योनी की पूजा करते हैं । मूर्खों को संस्कृत का ज्ञान नहीं होता है..और अपने छोटे’छोटे बच्चों को हिन्दुओं के प्रति नफ़रत पैदा करके उनको आतंकी बना देते हैं।संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है । इसे देववाणी भी कहा जाता है।

लिंग
लिंग का अर्थ संस्कृत में चिन्ह, प्रतीक होता है…
जबकी जनर्नेद्रीय को संस्कृत मे शिशिन कहा जाता है।

शिवलिंग

शिवलिंग का अर्थ हुआ शिव का प्रतीक….
पुरुषलिंग का अर्थ हुआ पुरुष का प्रतीक इसी प्रकार स्त्रीलिंग का अर्थ हुआ स्त्री का प्रतीक और नपुंसकलिंग का अर्थ हुआ नपुंसक का प्रतीक। अब यदि जो लोग पुरुष लिंग को मनुष्य की जनेन्द्रिय समझ कर आलोचना करते है..तो वे बताये ”स्त्री लिंग ”’के अर्थ के अनुसार स्त्री का लिंग होना चाहिए ।

शिवलिंग”’क्या है ?
शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है । स्कन्दपुराण में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है।शिवलिंग वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारे अनन्त ब्रह्माण्ड ( क्योंकि, ब्रह्माण्ड गतिमान है ) का अक्स/धुरी (axis) ही लिंग है।
शिव लिंग का अर्थ अनन्त भी होता है अर्थात जिसका कोई अन्त नहीं है और ना ही शुरुआत।

शिवलिंग का अर्थ लिंग या योनी नहीं होता ।
..दरअसल यह गलतफहमी भाषा के रूपांतरण और मलेच्छों यवनों के द्वारा हमारे पुरातन धर्म ग्रंथों को नष्ट कर दिए जाने पर तथा बाद में षडयंत्रकारी अंग्रेजों के द्वारा इसकी व्याख्या से उत्पन्न हुआ है ।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि एक ही शब्द के विभिन्न भाषाओँ में अलग-अलग अर्थ निकलते हैं ।
उदाहरण के लिए
यदि हम हिंदी के एक शब्द “सूत्र” को ही ले लें तो
सूत्र का मतलब डोरी/धागा गणितीय सूत्र कोई भाष्य अथवा लेखन भी हो सकता है। जैसे कि नासदीय सूत्र ब्रह्म सूत्र इत्यादि ।
उसी प्रकार “अर्थ” शब्द का भावार्थ : सम्पति भी हो सकता है और मतलब (मीनिंग) भी ।
ठीक बिल्कुल उसी प्रकार शिवलिंग के सन्दर्भ में लिंग शब्द से अभिप्राय चिह्न, निशानी, गुण, व्यवहार या प्रतीक है । धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनन्त शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है।तथा कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है। जैसे : प्रकाश स्तंभ/लिंग, अग्नि स्तंभ/लिंग, उर्जा स्तंभ/लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ/लिंग (cosmic pillar/lingam)

ब्रह्माण्ड में दो ही चीजे हैं: ऊर्जा और प्रदार्थ। हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है और आत्मा ऊर्जा है।
इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर शिवलिंग कहलाते हैं।
ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा ऊर्जा शिवलिंग में निहित है। वास्तव में शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड की आकृति है.

The universe is a sign of Shiva Lingam

शिवलिंग भगवान शिव और देवी शक्ति (पार्वती) का आदि-आनादी एकल रूप है तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतिक भी है। अर्थात इस संसार में न केवल पुरुष का और न केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व है अर्थात दोनों सामान हैं।

अब बात करते है योनि शब्द पर-
मनुष्ययोनि ”पशुयोनी”पेड़-पौधों की योनी’जीव-जंतु योनि
योनि का संस्कृत में प्रादुर्भाव ,प्रकटीकरण अर्थ होता है….जीव अपने कर्म के अनुसार विभिन्न योनियों में जन्म लेता है। किन्तु कुछ धर्मों में पुर्जन्म की मान्यता नहीं है नासमझ बेचारे। इसीलिए योनि शब्द के संस्कृत अर्थ को नहीं जानते हैं। जबकी हिंदू धर्म मे 84 लाख योनि बताई जाती है।यानी 84 लाख प्रकार के जन्म हैं। अब तो वैज्ञानिकों ने भी मान लिया है कि धरती में 84 लाख प्रकार के जीव (पेड़, कीट,जानवर,मनुष्य आदि) है।

मनुष्य योनि
पुरुष और स्त्री दोनों को मिलाकर मनुष्य योनि होता है।अकेले स्त्री या अकेले पुरुष के लिए मनुष्य योनि शब्द का प्रयोग संस्कृत में नहीं होता है। तो कुल मिलकर अर्थ यह है:-

लिंग का तात्पर्य प्रतीक से है शिवलिंग का मतलब है पवित्रता का प्रतीक ।
दीपक की प्रतिमा बनाये जाने से इस की शुरुआत हुई , बहुत से हठ योगी दीपशिखा पर ध्यान लगाते हैं । हवा में दीपक की ज्योति टिमटिमा जाती है और स्थिर ध्यान लगाने की प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करती है। इसलिए दीपक की प्रतिमा स्वरूप शिवलिंग का निर्माण किया गया। ताकि निर्विघ्न एकाग्र होकर ध्यान लग सके । लेकिन कुछ विकृत मुग़ल काल व गंदी मानसिकता बाले गोरे अंग्रेजों के गंदे दिमागों ने इस में गुप्तांगो की कल्पना कर ली और झूठी कुत्सित कहानियां बना ली और इसके पीछे के रहस्य की जानकारी न होने के कारण अनभिज्ञ भोले हिन्दुओं को भ्रमित किया गया ।
आज भी बहुतायत हिन्दू इस दिव्य ज्ञान से अनभिज्ञ है।
हिन्दू सनातन धर्म व उसके त्यौहार विज्ञान पर आधारित है।जोकि हमारे पूर्वजों ,संतों ,ऋषियों-मुनियों तपस्वीयों की देन है।आज विज्ञान भी हमारी हिन्दू संस्कृति की अदभुत हिन्दू संस्कृति व इसके रहस्यों को सराहनीय दृष्टि से देखता है व उसके ऊपर रिसर्च कर रहा है।

नोट÷ सभी शिव-भक्तों हिन्दू सनातन प्रेमीयों से प्रार्थना है, यह जानकारी सभी को भरपूर मात्रा में इस पोस्ट के द्वारा शेयर करें ताकि सभी को यह जानकारी मिल सके जिन्होंने षड्यंत्र के तहत फैला दी थी।

🙏🙏 ओम् नमः शिवाय🙏🙏 : “परदोष दर्शन”

भक्तिमार्ग में अनेक रुकावटें हैं जो समय समय पर हमारे उत्थान में बाधा बन जाती हैं। अनेक रुकावटों में एक सबसे बड़ी रुकावट या बाधा है परदोष चिंतन, दूसरे में दोष देखना। इस सम्बन्ध में सावधान करते हुए भक्तियोग रस के अवतार जगद्गुरु कृपालु महाप्रभु साधन-पथिकों से कहते हैं :_

(1) हर समय श्रीकृष्ण को अपने साथ मानने का अभ्यास करो और सब भूल जाओ संसार क्या है? अपने आप को तुम इस समय ऐसा महसूस करो कि संसार में मेरा कोई नहीं है, और ये फैक्ट भी है।_

(2) परदोष दर्शन से 2 हानि है – एक तो यह कि परदोष दर्शनकाल ही में स्वाभाविक रूप से स्वाभिमान वृद्धि होती है, जो कि साधक के लिए तत्क्षण ही पतन का कारण बन जाती है। दूसरे यह कि परदोष चिंतन करते करते हुये शनैः शनैः बुद्धि भी दोषमय हो जाती है। जिसके परिणामस्वरूप उन्हीं सदोष विषयों में ही प्रवृत्ति होने लगती है, अतएव सदोष कार्य होने लगता है। परदोष चिंतन करना ही स्वयं के सदोष होने का पक्का प्रमाण है।_

(3) हरि और गुरु का ध्यान सदा सर्वत्र बना रहे और कोई कभी गलती भी कर जाय साधक, तो गलती को मत देखो, ये देखो कि हमने गलती क्यों देखा? प्रायः ऐसा प्रतीत होता है कि आपस के छोटी-छोटी बात में, छोटे-छोटे व्यवहार में एक दूसरे के प्रति दुर्भावना कर लेते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए।_

(4) तुमको इससे क्या मतलब कि तुम्हारे पास वाला या और कोई सत्संगी (साधक) क्या कर रहा है? अरे देखो मैंने देखा था कि वहाँ खड़े-खड़े चोरी-चोरी बात कर रहा था। तुम मत देखो बात कर रहा है। तुम किसी की ओर किसी भी प्रकार से दोष भावना मत रखो।_

(5) यदि यह कहो कि क्या करें, दोष-दर्शन का स्वभाव सा बन गया है तो हमें कोई आपत्ति नहीं, तुम दोष देख सकते हो, किन्तु दूसरों के नहीं, अपने ही दोष क्या कम हैं? अपने दोषों को देखने में तुम्हारा स्वभाव भी नष्ट न होगा तथा साथ ही एक महान लाभ भी होगा। वह महान लाभ तुलसी के शब्दों में – ‘जाने ते छीजहिं कछु पापी’ अर्थात अपने दोष जान लेने पर कुछ न कुछ बचाव हो जाता है, क्योंकि जीव फिर उससे बचने का कुछ न कुछ अवश्य प्रयत्न करता है।

श्रीकृष्णः शरणं मम्

    *जीवन को दो ही तरीके से जिया जा सकता है, तपस्या बनाकर या तमाशा बनाकर। तपस्या का अर्थ जंगल में जाकर आँखे बंद करके बैठ जाना नहीं अपितु अपने दैनिक जीवन में आने वाली समस्याओं को मुस्कुराकर सहने को क्षमता को विकसित कर लेना है।*

     *हिमालय पर जाकर देह को ठंडा करना तपस्या नहीं अपितु हिमालय सी शीतलता दिमाग में रखना जरुर है। किसी के क्रोधपूर्ण वचनों को मुस्कुराकर सह लेना जिसे आ गया, सच समझ लेना उसका जीवन तपस्या ही बन जाता हैं।* 

     *छोटी-छोटी बातों पर जो क्रोध करता है निश्चित ही उसका जीवन एक तमाशा सा बनकर ही रह जाता है। हर समय दिमाग गरम रखकर रहना यह जीवन को तमाशा बनाना है और दिमाग ठंडा रखना ही जीवन को तपस्या सा बनाना है।*

जय श्री कृष्ण🙏🙏
: जो काम धीरे बोलकर, मुस्कुराकर और प्रेम से बोलकर कराया जा सकता है उसे तेज आवाज में बोलकर और चिल्लाकर करवाना मूर्खों का काम है। और जो काम केवल गुस्सा दिखाकर हो सकता है, उसके लिए वास्तव में गुस्सा करना यह महामूर्खों का काम हैं।।
अपनी बात मनवाने के लिए अपने अधिकार या बल का प्रयोग करना यह पूरी तरह पागलपन होता है। प्रेम ही ऐसा हथियार है जिससे सारी दुनिया को जीता जा सकता है । प्रेम की विजय ही सच्ची विजय है।।

Զเधॆ Զเधॆ🙏🙏

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