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प्रत्येक व्यक्ति सुखी रहना चाहता है। प्रतिदिन सुखी रहना चाहता है । प्रत्येक घंटा , प्रत्येक मिनट , प्रत्येक क्षण वह सुखी रहना चाहता है। परंतु जानता नहीं कि मैं कैसे सुखी रह सकता हूं ।
वेदो का यह सिद्धांत है कि जो व्यक्ति ईश्वर की आज्ञा का पालन करता है , वह सदा सुखी रहता है । और जो ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध आचरण करता है , वह प्रतिक्षण दुखी रहता है । उसके मन में तनाव चिंता भय असुरक्षा आदि की स्थिति होती है।
तो क्या करना चाहिए? हर समय अपने मन का निरीक्षण परीक्षण करते रहें। देखते रहें, कि मेरे मन में जो विचार मैं चला रहा हूं, यह ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल है, अथवा विरुद्ध। जैसे सत्य बोलना , न्याय से व्यवहार करना, दूसरों की सहायता करना , कमजोर की रक्षा करना , संयम से रहना, ब्रह्मचर्य का पालन करना , मन इंद्रियों पर नियंत्रण रखना, ईश्वर को हर समय याद रखना, साफ सफाई से रहना, जितना फल मिले उतने में संतोष का पालन करना , वेदो का स्वाध्याय करना, ईश्वर की उपासना करना इत्यादि , ये सब ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल कर्म हैं। ये सब कर्म पूरे दिन करने चाहिएँ।
और जो कर्म ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध हैं , वे नहीं करने चाहिएँ। जैसे झूठ बोलना , दूसरों पर अन्याय करना , उनका अधिकार छीनना, उन का शोषण करना , उनको व्यर्थ परेशान करना , उनकी खिल्ली उड़ाना, चोरी करना, रिश्वत लेना देना, मन इंद्रियों पर संयम न रखना, व्यभिचार आदि पाप कर्म करना, गंदे रहना, गंदी बातें करना , गंदी फिल्में देखना, छोटी-छोटी बातों में दुखी हो जाना , प्रतिकूलताओं को सहन नहीं करना , झगड़े करना, गंदी पुस्तकें पढ़ना , भोगी विलासी बनना इत्यादि । तो ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल कर्म करें और सारा दिन प्रसन्न रहें –

आज का वैदिक चिंतन
ओ३म् आनंद:
परमात्मा की कृपा आनंद को प्रतिक्षण कैसे अनुभव करें
जो कभी देखा नहीं, जो पूरा जानने में आये नही, उसको कैसे अनुभव करें
१-जितना हो सके उसके वेदज्ञान को पढ़ें सुनें वैसा जीवन बनावें,
२-उसके चित्र विचित्र कार्य को देखो- जरूर उसकी प्रतीति कराते हैं जब हम कहीं उसके भिन्न भिन्न रमणीक स्थानों पर जाते हैं
तब निहारो उसी अरूप का का ही उकेरा सौंदर्य रूप है वह,
फिर घर आकर भूल जाएं तो फिर उस महाशक्ति को चिंतन में इस तरह उतारो प्रभु तेरी कृपा से तो हम गमन आगमन करते हैं तू अगर शरीर में शक्ति नहीं देता तो हम न चल फिर पाते न कुछ और भी कर पाते यदि फिर भी भूल पड़ जाए तो प्रत्येक कार्य जैसे कपड़े पहन रहे हो तो सोचो तेरी ही दी बुद्धि से बना ओढ़ना ओढ़ रहा हूँ, भोजन आदि करते हो तो भी इसी तरह सोचो तेरी कृपा से ही भोजन आदि सब काम कर पा रहा हूँ अर्थात् तेरी दी हुई शक्ति बुद्धि बल सामर्थ्य से ही सब कर पा रहा हूँ स्मृति में प्रत्येक क्षण यही भाव बनाये रखना है अच्छा हो साथ में उसके नाम को बोल वा जप आनंद की अनुभूति मन ही मन करते रहो यथा-ओ३म् आनंद:
इसके बाद भी एक घण्टे का ध्यान सुबह और एक घण्टे का ध्यान शाम का नहीं छोड़ना है संकल्प लें भोजन छोड़ दूंगा भजन नहीं छोड़ सकता।
क्योंकि एक समय का भोजन छोड़ने से कोई हानि नहीं है राष्ट्र के किसी व्यक्ति का निवाला बनेगा परन्तु भजन छोड़ने से अवश्य हानि होगी, किसी का भला नहीं न तुम्हारा न किसी और का।

🙏🙏🙏🙏🙏🙏
🙏🌹ओ३म🌹🙏 प्रश्नोत्तरी ( कर्मफल सिद्धान्त )

(१) प्रश्न :- कर्म  किसे  कहते हैं ?
उत्तर :- दुख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति के लिए जीवत्मा जो मन, वचन और शरीर से जो चेष्टा करता है , उसे कर्म कहते हैं । क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं :–
(क) इच्छापूर्वक क्रियाएँ :- बोलना, चलना, फिरना, बैठना, नहाना, देखना, विचारना आदि ।
(ख) अनिच्छापूर्वक क्रियाएँ :- रक्त का संचार, मल मूत्र करना, जम्हाई लेना, हृदय का धड़कना आदि ।
{ इच्छापूर्वक क्रियाएँ ही कर्म की कोटी में आती हैं }

(२) प्रश्न :- कर्म कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर :- कर्म मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं :-
(क) सकाम कर्म :- जो कर्म लौकिक पदार्थों ( धन, प्रतिष्ठा, पुत्र पुत्री, आदि ) को लक्ष्य रखकर किए जाएँ ।
सकाम कर्म तीन प्रकार के होते हैं :-
(१) अच्छे :- सेवा, दान, परोपकार आदि ।
(२) बुरे :- झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि ।
(३) मिश्रित :- जिसमें अच्छा बुरा दोनों हों , जैसे चोरी करके दान दे देना ।
(ख) निष्काम कर्म :- जो कर्म मोक्ष की प्राप्ति की इच्छा से किए जाएँ ।

(३) प्रश्न :- कर्मफल किसे कहते हैं ?
उत्तर :- वह भोग जो हमें कर्मों के आधार पर सुख-दुख के रूप में मिलता है उसे कर्मफल कहते हैं ।
फल के तीन भाग हैं :-
(क) जाति :- मनुष्य, पशु, पक्षी आदि शरीरों को जाती कहा जाता है ।
(ख) आयु :- जन्म से लेकर मृत्यु तक का समय ।
(ग) भोग :- शरीर को मिलने वाले संसाधन, जिनसे सुख दुख होता है, उसे भोग कहा जाता है ।
शास्त्रीय प्रमाण :–
(क) प्रवृत्तिदोषजनितोऽर्थः फलम् । ( न्याय १/१/२० )
राग द्वेषयुक्त कर्म से उत्पन्न अर्थ का नाम फल है ।
(ख) आत्मेन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षात् सुखदुःखे । ( वैशेषिक ५/२/१५ )
जीवात्मा का मन, इन्द्रिय तथा विषय के साथ सम्बन्ध होने पर सुख दुःख रूप फल उत्पन्न होते हैं ।

(४) प्रश्न :- क्या कर्म बिना फल दिए भी नष्ट हो जाते हैं ?
उत्तर :- कर्मों का फल अवश्य मिलता है, बिना फल दिए वे कर्म कभी नष्ट नहीं होते क्योंकि :-
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । ( महाभारत )
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि । ( अत्री स्मृति )
यथा धेनुसहस्त्रेषु वत्सो गच्छति मातरम् । तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति । ( चाणक्य नीति १३/१४ )
हजारों गायों के बीच में से भी बछड़ा जैसे केवल अपनी माँ के पास ही आता है, वैसे ही किया हुआ कर्म हजारों मनुष्यों में से कर्ता के ही पीछे आता है ।

(५) प्रश्न :- फल की दृष्टि से कर्म कितने प्रकार के हैं ?
उत्तर :- फल की दृष्टि से कर्म दो प्रकार के हैं :-
(क) दृष्टजन्मवेदनीय :- जिन कर्मों का फल इस जन्म में न मिलकर किसी दूसरे जन्म में मिले ।
(ख) अदृष्टजन्मवेदनीय :- जिन कर्मों का फल इसी जन्म में मिलना हो ।

(६) प्रश्न :- कर्मों के फल मिलने की क्या गतियाँ हैं ?
उत्तर :- कर्मों की तीन गतियाँ हैं :-
(क) कर्मों का नष्ट हो जाना :- कर्म कभी नष्ट नहीं होते परंतु लम्बे समय के लिए लुप्त हो जाते हैं । इसी को कर्मों का नष्ट होना कहा जाता है । चाहे व्यक्ति को मोक्ष ही क्यों न मिल जाए, लोकिन मोक्ष की अवधि जब समाप्त होगी तब वह अपने किए पूर्व कर्मों के अनुसार शरीर में अवश्य आएगा, क्योंकि कर्म भी अनादि होते हैं । मोक्ष काल में वे कर्म ईश्वर के ज्ञान में बने रहते हैं ।

(ख) साथ मिलकर फल देना :- अच्छे या बुरे कर्मों का फल साथा साथ मिलता है , जैसे किसी ने अच्छे कर्म किए जिसके लिए उसे मानव शरीर मिला परंतु उसके बुरे कर्मों के लिए उसे कुछ कष्ट जैसे कि दरिद्रता आदि दे दिए । दूसरी उदाहरण में जैसे किसी ने बुरे कर्म करके कुछ अच्छे कर्म किए परिणाम स्वरूप उसे, कुत्ते, गधे, गाँय का शरीर मिलेगा लेकिन कुछ अच्छे कर्मों के फल स्वरूप उसे घर, सेवा आदि अच्छे स्तर के मिले ।

(ग) कर्मों का दबे रहना :- मनुष्य कोई न कोई कर्म करता रहे उसे सारे कर्मों का फल एक ही योनी में मिले ऐसा संभव नहीं है , वे सारे कर्म संस्कार के रूप में संचित होते रहते हैं, जिस कर्म की जब प्रधानता होती वैसा ही शरीर तब मिल जाता है और बाकी के कर्म दबे रहते हैं, प्रतीक्षा करते हैं कि कब उनकी प्रधानता हो । जैसे मान लो किसी व्यक्ति ने कुछ कर्म सूअर की योनी दिलाने वाले कर दिए, और कुछ कर्म कुत्ते की योनी दिलाने वाले किए, तो होगा ये कि पहले यदि कुत्ते की योनी दिलाने वाले कर्मों की प्रधानता हो तो मानव पहले कुत्ता बन जाएगा और सूअर की योनी दिलाने वाले कर्म तब तक दबे रहेंगे जब तक कुत्ते की योनी को भोग नहीं लिया जाता, और जब सूअर की योनी दिलाने वाले कर्मों की प्रधानता होगी तो आत्मा सूअर का शरीर प्राप्त करेगी । और यही चक्र ऐसे चलता रहता है ।

(७) प्रश्न :- कर्म करने के क्या क्या साधन हैं ?
उत्तर :- ऋषियों ने मुख्य रूप से कर्म करने के तीन साधन बताए हैं :- मन, वाणी और शरीर ।

(८) कर्मों के क्या क्या भेद हैं ?
उत्तर :- कर्म तो अनन्त होते हैं परन्तु ऋषियों ने तीन कोटियों में कर्मों का वर्गीकरण किया है :-
(क) शरीर से किए गए कर्म :-
शुभ कर्म :- ( रक्षा, दान, सेवा )
अशुभ कर्म :- ( हिंसा, चोरी, व्यभिचार )

(ख) वाणी से किए गए कर्म :-
शुभ कर्म :- ( सत्य, मधुर, हितकर, स्वध्याय करना )
अशुभ कर्म :- ( असत्य, कठोर, अहितकर, व्यर्थ बोलना )

(ग) मन से किए गए कर्म :-
शुभ कर्म :- ( दया, अस्पृहा, आस्तिकता )
अशुभ कर्म :- ( द्रोह, स्पृहा, नास्तिकता )

(९) प्रश्न :- शास्त्रों के अनुसार कर्मों के क्या क्या भेद हैं ?
उत्तर :-कर्मों के भेद शास्त्रों में इस प्रकार है :-

(क) मनुस्मृति के अनुसार मान्सिक बुरे कर्म :-
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम् । वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधंकर्म मानसम् ।। ( मनुस्मृति १२/५ )
मन के पाप कर्म :- परद्रव्यहरण ( चोरी का विचार करना ) , लोगों का बुरा चिंतन करना, मन में द्वेष करना, ईर्ष्या करना तथा मिथ्या निश्चय करना ।
(ख) मनुस्मृति के अनुसार वाणी के बुरे कर्म :-
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः । असंबद्धप्रलापश्च वाङमयंस्याच्चतुर्विधम् ।। ( मनुस्मृति १२/६ )
वाणी के पाप कर्म :- कठोर भाषा, अनृत भाषण अर्थात झूठ, असूया ( चुगली ) करना, जानबूझकर बात को उड़ाना ( लांछन लगाना ) ।
(ग) मनुस्मृति के अनुसार शारीरिक बुरे कर्म :-
अदत्तानामुपदानं हिंसा चैवाविधानतः । परदारोपसेवा च शरीरं त्रिविधं स्मृतम् ।। ( मनुस्मृति १२/७ )
शारीरिक अधर्म तीन हैं :- चोरी, हिंसा, अर्थात् सब प्रकार के क्रूर कर्म तथा व्यभिचार कर्म करना ।

योगदर्शन के अनुसार पाप पुण्य के आधार पर चार भेद बताए :-
(क) शुक्लकर्म :- सुख प्राप्त कराने वाले पुण्य कर्म जैसे दान, सेवा आदि ।
(ख) कृष्णकर्म :- दुख प्राप्त कराने वाले पाप कर्म जैसे चोरी, हिंसा आदि ।
(ग) शुक्लकृष्णकर्म :- सुख दुख प्राप्त कराने वाले मिश्रित कर्म जैसे खेती करना, चोरी करके दान करना आदि ।
(घ) अशुक्लअकृष्णकर्म :- निष्काम कर्म जो मोक्ष प्राप्त कराने की इच्छा से किए जाएँ ।

फल के आधार पर तीन भेद हैं :-
(क) संचित :- पिछले जन्मों से लेकर अब तक किए हुए कर्म जिनका फल मिलना अभी बाकी है ।
(ख) प्रारब्ध :- जिनका फल मिलना प्रारम्भ हो गया है या जिनका फल मिल रहा है ।
(ग) क्रियमाण :- जो वर्तमान में किए जा रहे हैं ।

गीता में कर्म के तीन भेद :-
(क) कर्म :- अच्छे कर्म
(ख) विकर्म :- बुरे कर्म
(ग) अकर्म :- निष्काम कर्म

(१०) प्रश्न :- कर्मों का कर्ता कौन है ?
उत्तर :- कर्मों का कर्ता जीवात्मा है , वह शरीर और इन्द्रियों के द्वारा कर्म करता है । ( कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं स्वतन्त्रः यः स कर्ता ) जो कर्म करने में स्वतन्त्र है वही कर्ता है ।। 🙏🌹वैदिक🌹🙏
आज्ञा चक्र यानि तीसरी आँख कि शक्ति
बहुत सारे लोगो कि जिज्ञासा थी आचार्य जी थोड़ा तीसरी आँख “थर्ड आई”के बारे मे कभी विस्तार से बताने कि कृपा करे दोस्तो इस रहस्य को मे खोलना नहीं चाहता था मगर आपके प्यार और विश्वास को मे खोना भी नही चाहता, इसलिऐ ज्यादा नही थोड़ा बहुत बताने का आपको प्रयास करता हूँ
सबसे पहले मे आपको बताना चाहता हूँ तीसरी आँख वो चमत्कारी आँख हैं जिसकी ऊर्जा के माध्यम से आप पूरे विश्व ब्रह्मांड किसी भी घटना को आप बहुत आसानी से देख सकते हैं दूसरी बात इसकी ऊर्जा को आप कही भी किसी भी रूप मे उपयोग कर सकते हैं चाहे वह कितनी भी जटिल क्यो ना इस ऊर्जा को प्राप्त करने के बाद सैकंड के लाख वे हिस्से मे आप किसी भी प्राणी के मन की बात आसानी से समझ सकते हो
सबसे पहली बात तो ये हैं की तीसरी आंख की ऊर्जा ही हमारी दोनो आंखों को सामान्य रूप चलाती है। और संसार के दृश्य परिदृश्यों को देखने का काम करती हैं जब बाहर की आँखो को कोई चीज पसंद आती हैं तो चोरी से उसे ये ग्रहण कर लेती हैं चाहे वह चीज अच्छी हो या बुरी हो इससे इसका मतलब कोई नही होता हैं समय आते ही उसे ये प्रगट कर देती हैं

जब हम सामान्य आँखो से देखना बंद कर देते हैं तो ये ऊर्जा सामान्य आंखों में बहना बंद कर देते हैं तो ये तीसरी आंख में बहने लगती है। और जब ऊर्जा तीसरी आंख में ये ऊर्जा बहने लगती है तो हमारी सामान्य आंखें देखना बंद कर देती हैं। तब उनके रहते हुए भी तुम उनके द्वारा कुछ नहीं देखते हो। जो ऊर्जा उनमें बहती थी वह वहां से हटकर एक नए केंद्र पर गतिमान हो जाती है। यह केंद्र दो आंखों के बीच में स्थित है। तीसरी आंख बिलकुल तैयार है; वह किसी भी क्षण सक्रिय हो सकती है। इसके लिए सामान्य ऊर्जा को तीसरी आँख पर लाना होता हैं

दूसरी बात, जब तुम सामान्य आंखों से देखते हो तब तुम सचमुच स्थूल शरीर से देखते हो। तीसरी आंख स्थूल शरीर का हिस्सा नहीं है; यह दूसरे शरीर का हिस्सा है, जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं। स्थूल शरीर के भीतर उसके जैसा ही सूक्ष्म शरीर भी है;लेकिन यह स्थूल शरीर का हिस्सा नहीं है। यही वजह है

कि शरीर—शास्त्र यह मानने को राजी नहीं है कि तीसरी आंख या उसकी जैसी कोई चीज है। तुम्हारी खोपड़ी की खोज—बीना की जा सकती है, एक्सरे के द्वारा उसे देखा—परखा जा सकता है। लेकिन उसमें कहीं भी वह चीज नहीं मिलेगी जिसे तीसरी आंख कहा जा सके। तीसरी आंख सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है।

जब तुम मरते हो तो तुम्हारा स्थूल शरीर ही मरता है; तुम्हारा सूक्ष्म शरीर तुम्हारे साथ जाता है और वह दूसरा जन्म लेता है। जब तक तुम्हारा सूक्ष्म शरीर नहीं मरेगा तब तुम जन्म—मरण के, आवागमन के चक्कर से मुक्त नहीं हो सकते और तब तक संसार चलता रहेगा।’’

तीसरी आंख सूक्ष्म शरीर का अंग है। जब ऊर्जा स्थूल शरीर में गतिमान रहती है तो तुम अपनी स्थूल आंखों से देख पाते हो। यही कारण है कि स्थूल आंखों से तुम स्थूल को ही देख सकते हो, पदार्थ को ही देख सकते हो; अन्‍य किसी चीज को नहीं देख सकते। सामान्य आंखें भौतिक हैं। इन आंखों से तुम उसे नहीं देख सकते जो अशरीरी है। तीसरी आंख के सक्रिय होते ही तुम एक नए आयाम में प्रवेश करते हो। अब तुम वे चीजें देख सकते हो जो स्थूल आंखों के लिए दृश्य नहीं हैं। लेकिन वे सूक्ष्म आंखों के लिए दृश्य हो जाती हैं।

तीसरी आंख के सक्रिय होने पर अगर तुम किसी आदमी पर निगाह डालोगे तो तुम उसकी आत्मा में झांक लोगे। यह वैसे ही है जैसे स्थूल आंखों से स्थूल शरीर तो दिखाई देगा, लेकिन आत्मा दिखाई नहीं देगी। तीसरी आंख से देखने पर तुम्हें जो दिखाई देगा वह शरीर नहीं होगा; वह वह होगा जो शरीर के भीतर रहता है।

इन दो बातों को स्मरण रखो। पहली, एक ही ऊर्जा दोनों जगह गति करती है, उसे सामान्य स्थूल आंखों से हटाकर ही तीसरी आंख में गतिमान किया जा सकता है। दूसरी बात कि तीसरी आंख स्थूल शरीर का हिस्सा नहीं है। वह सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है, जिसे हम दूसरा शरीर भी कहते हैं। क्योंकि तीसरी आंख सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है, इसलिए जिस क्षण तुम इसके द्वारा देखते हो तुम्हें सूक्ष्म जगत दिखाई पड़ने लगता है।

तुम यहां बैठे हो। अगर एक प्रेत भी यहां बैठा हो तो वह तुम्हें नहीं दिखाई देगा। लेकिन अगर तुम्हारी तीसरी आंख काम करने लगे तो तुम प्रेत को देख लोगे। क्योंकि सूक्ष्म अस्तित्व सूक्ष्म आंखों से ही देखा जा सकता है।

जब तुम सामान्य आँखो की ऊर्जा को यहाँ स्थापित करते हो तो उनके भीतर भी ऊर्जा का प्रवाह भी ठहर जाता है। इसी ऊर्जा के कारण आपकी आँखे गति करती हैं अगर ऊर्जा गति न करे तो तुम्हारी आंखें मुर्दों की आंखों जैसी हो जाएंगी—पथराई और मृत। किसी स्थान पर दृष्टि स्थिर करने से, इधर—उधर देखे बिना उस पर टकटकी बांधने से एक गतिहीनता पैदा होती है। जो ऊर्जा दोनों आंखों में गतिमान थी वह अचानक गति बंद कर देगी।

लेकिन गति करना ऊर्जा का स्वभाव है; ऊर्जा गतिहीन नहीं हो सकती। आंखें गतिहीन हो सकती हैं, लेकिन ऊर्जा नहीं। इसलिए जब ऊर्जा इन दो आंखों से वंचित कर दी जाती है, जब उसके लिए आंखों के द्वार अचानक बंद कर दिए जाते हैं, जब उनके द्वारा ऊर्जा की गति असंभव हो जाती है, तो वह ऊर्जा अपने स्वभाव के अनुसार नए मार्ग ढूंढने में लग जाती है। और तीसरा नेत्र निकट ही है, दो भृकुटियों के बीच, आधा इंच अंदर है। उस ऊर्जा के लिए वह निकटतम बिंदु है।

इसलिए जब ऊर्जा दोनों आंखों से मुक्त हो जाती है तो पहली बात यह होती है कि वह तीसरी आंख से बहने लगती है। यह ऐसा ही है जैसे कि पानी बहता हो और तुम उसके एक छेद को बंद कर दो, वह तुरंत निकटतम दूसरे छेद को ढूंढ लेगा। जो निकटतम छेद होगा और म् जो न्यूनतम प्रतिरोध पैदा करेगा, उसे पानी ढूंढ लेगा। वह छेद अपने आप ही मिल जाता है,

उसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता है। ज्यों ही इन दो आंखों से ऊर्जा का बहना बंद करोगे, त्यों ही ऊर्जा अपना मार्ग ढूंढ लेगी और वह तीसरी आंख से बहने लगेगी।

तब तुम ऐसी चीजें देखने लगते हो जिन्हें कभी न देखा था; ऐसी चीजें महसूस करने लगते हो जिन्हें कभी नहीं महसूस किया था। और तब तुम्हें ऐसी सुगंधों का अनुभव होगा जिन्हें जीवन में कभी नहीं जाना था। तब एक नया लोक, एक सूक्ष्म लोक सक्रिय हो जाता है। यह नया लोक अभी भी है। तीसरी आंख भी है, सूक्ष्म लोक भी है, दोनों हैं; लेकिन अप्रकट हैं। एक बार जब तुम उस आयाम में सक्रिय होकर प्रवेश करते हो तो तुम्हें ये बहुत सी चीजें दिखाई देने लगेंगी।

उदाहरण के लिए, अगर कोई आदमी मरणासन्न है और तुम्हारी तीसरी आंख सक्रिय है तो तुम तुरंत जान लोगे कि यह आदमी अब जाने वाला है। कोई भी शारीरिक विश्लेषण, कोई भी चिकित्सा—निदान निश्चयपूर्वक नहीं बता सकता है कि यह आदमी मरेगा। वे ज्यादा से ज्यादा संभावना की बात कह सकते हैं; कह सकते हैं कि शायद यह आदमी मरेगा। यह वक्तव्य भी सशर्त होगा कि यदि ऐसी—ऐसी हालतें रहीं तो यह आदमी मरेगा, या यदि कुछ किया जाए तो यह नहीं मरेगा।

चिकित्सा—विज्ञान अभी भी मृत्यु के संबंध में अनिश्चित है। क्यों? इतने विकास के बावजूद यह मृत्यु के संबंध में इतना अनिश्चित क्यों है? असल में चिकित्सा—विज्ञान शारीरिक लक्षणों के द्वारा मृत्यु के संबंध में अपनी निष्पत्ति निकालता है। लेकिन मृत्यु शारीरिक नहीं, सूक्ष्म घटना है। यह किसी भिन्न आयाम की एक अदृश्य घटना है।

लेकिन यदि तीसरी आंख सक्रिय हो जाए और कोई आदमी मरने वाला हो तो तुम यह जान लोगे। यह कैसे जाना जाता है?

मृत्यु का अपना प्रभाव होता है। अगर कोई मरने वाला होता है तो समझो कि मृत्यु ने पहले ही उस पर अपनी छाया डाल दी होती है। और तीसरी आंख से इस छाया को महसूस किया जा सकता है, देखा जा सकता है।

जब एक बच्चा जन्म लेता है तो जिन्हें तीसरी आंख के प्रयोग का गहरा अभ्यास है वे उसी क्षण उसकी मृत्यु का समय भी जान ले सकते हैं। लेकिन उस समय मृत्यु की छाया अत्यंत सूक्ष्म होती है। लेकिन .किसी की मृत्यु के छह महीने पहले वह व्यक्ति भी कह सकता है कि यह आदमी मरने वाला है जिसकी तीसरी आंख थोड़ी भी सक्रिय हो गई है। असल में उस समय तुम्हारे चारों तरफ एक काली छाया सघन हो जाती है और उसे देखा जा सकता है। लेकिन सामान्य आंखों से उसे नहीं देखा जा सकता है।

तीसरी आंख के खुलते ही तुम्हें लोगों का प्रभामंडल दिखाई देने लगता है। अब कोई आदमी आकर तुम्हें धोखा नहीं दे सकता है; क्योंकि अगर उसकी कथनी उसके प्रभामंडल से मेल नहीं खाती है तो वह कथनी दो कौड़ी की है। वह कह सकता है कि मुझे कभी क्रोध नहीं आता है,

लेकिन उसका लाल प्रभामंडल बता देगा कि वह क्रोध से भरा है। वह तुम्हें धोखा नहीं दे सकता है। जहां तक उसके प्रभामंडल का सवाल है, उसे इसका कुछ पता नहीं है। लेकिन तुम उसका प्रभामंडल देखकर कह सकते हो कि उसका वक्तव्य सही है या गलत। तीसरी आंख के खुलते ही सूक्ष्म प्रभामंडल दिखाई देने लगते हैं।

पुराने जमाने में शिष्य की दीक्षा में प्रभामंडल यानी शक्तिपात का उपयोग किया जाता था। जब तक तुम्हारा प्रभामंड़ल सम्यक नही होता तब तक गुरु उसकी प्रतीक्षा करता हैं । यह तुम्‍हारे चाहने की बात। तुम कह सकते हो कि मैं दीक्षा लेना चाहता हूं लेकिन उतना काफी नहीं है।

तुम्हारा प्रभामंडल देखकर जाना जा सकता है कि तुम तैयार हो या नहीं। इसलिए शिष्य को कितने वर्षों तक उस दीक्षा का इंतजार करना पड़ता था । शिष्यत्व तुम्हारे चाहने पर नहीं तुम्हारे प्रभामंडल पर निर्भर है। चाह यहां पर व्यर्थ है। कभी—कभी तो इसके लिऐ शिष्य को कई जन्मों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।

उदाहरण के लिए, बुद्ध ने ना जाने कितने वर्षों तक स्त्रियों को दीक्षित करने से अपने को रोके रखा। यद्यपि उन पर बहुत दबाव डाला गया;लेकिन वे राजी नहीं हुए। और अंत में जब वे राजी भी हुए तो उन्होंने कहा कि अब मेरा धर्म पांच सौ वर्षों के बाद जीवंत नहीं रहेगा; क्योंकि मैंने समझौता किया है। बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा कि मैं तुम्हारे आग्रह के दबाव के कारण स्त्रियों को दीक्षित करूंगा।

क्या कारण था कि बुद्ध स्त्रियों को दीक्षित नहीं करना चाहते थे?

एक बुनियादी कारण था जिसका संबंध प्रभामंडल से है। पुरुष की काम—ऊर्जा को बहुत आसानी से संयमित किया जा सकता है; पुरुष सरलता से ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकता है। लेकिन यह बात स्त्री के लिए कठिन है। स्त्री का मासिक— धर्म नियमित घटता है—अचेतन, अनियंत्रित और अनैच्छिक। वीर्यपात को तो नियंत्रित किया जा सकता है; लेकिन मासिक—स्राव को नियंत्रित नहीं किया जा स
और स्त्री जब अपने मासिक काल में होती है, उसका प्रभामंडल बिलकुल बदल जाता है। वह कामुक, आक्रमक और उदास हो जाती है। जो भी नकारात्मक भाव हैं वे हर महीने स्त्री को एक बार घेरते हैं। इसी कारण बुद्ध स्त्रियों को दीक्षा देने के पक्ष में नहीं थे। बुद्ध ने कहा कि स्त्री की दीक्षा कठिन है; क्योंकि हर महीने मासिक—धर्म वर्तुल में आता रहता है और उसके साथ ऐच्छिक रूप से कुछ भी नहीं किया जा सकता। अब कुछ किया जा सकता है; लेकिन वह बुद्ध के समय में कठिन था। अब वह किया जा सकता है।

महावीर ने तो स्त्री—पर्याय के लिए मोक्ष की संभावना को बिलकुल ही अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा कि स्त्री को पहले पुरुष—पर्याय में जन्म लेना होगा और तब उसे मोक्ष मिल सकता है। इसलिए पहले तो पूरी चेष्टा यह होनी चाहिए कि वह पुरुष—पर्याय में नया जन्म ले।

क्यों यह भी प्रभामंडल की समस्या थी। अगर तुम किसी स्त्री को दीक्षित करते हो तो हर महीने वह गिरेगी और सारा प्रयत्न व्यर्थ चला जाएगा। इसमें कोई भेदभाव का प्रश्न नहीं था; कोई समानता का सवाल नहीं था कि स्त्री और पुरुष समान हैं या नहीं; यह समता का प्रश्न नहीं था। महावीर के लिए प्रश्न यह था कि स्त्री की सहायता कैसे की जाए।

तो उन्होंने एक सरल रास्ता निकाला कि स्त्री पुरुष के पर्याय में जन्म ले, इसमें उसे सहयोग दिया जाए। यह ज्यादा सरल लगा। इसका मतलब था कि स्त्री को दूसरे जीवन के लिए ठहरना पड़ेगा और इस बीच उसे पुरुषपर्याय में नया जन्म दिलाने के सभी प्रयत्न किए जाएं। महावीर को यह बात सरल मालूम हुई। स्त्रियों को दीक्षित करना कठिन था; क्योंकि वे हर महीने लुढ़ककर अपनी बुनियादी स्थिति में लौट जाती हैं और उन पर किया गया सब श्रम व्यर्थ चला जाता है।

लेकिन पिछले दो हजार वर्षों में इस दिशा में बहुत काम हुए हैं; विशेषकर तंत्र ने बहुत काम किया है। तंत्र ने भिन्न—भिन्न द्वार खोज निकाले हैं। और तंत्र संसार में अकेली व्यवस्था है जो पुरूष और स्‍त्री में भेद नहीं करती। बल्‍कि इसके विपरीत तंत्र का मानना हे कि स्‍त्री अधिक आसानी से मुक्त हो सकती है। और कारण वही है; सिर्फ भिन्न दृष्टिकोण से देखा गया है।

क्योंकि स्त्री का शरीर समय समय पर संयमित होता रहता है, इसलिए पुरुष की अपेक्षा स्त्री अपने को शरीर से ज्यादा सरलता से अलग कर सकती है। क्योंकि मनुष्य का चित्त शरीर में ज्यादा आसक्त है, इसलिए वह शरीर को संयमित कर सकता है और इसीलिए वह अपनी कामवासना को भी संयमित कर सकता है।

लेकिन स्त्री अपने शरीर से उतनी नहीं बंधी है। उसका शरीर स्वचालित यंत्र की तरह चलता है—एक अगल तल पर, और स्त्री इस दिशा में कुछ नहीं कर सकती। स्त्री का शरीर स्वचालित यंत्र की तरह काम करता है। तंत्र कहता है कि इसीलिए स्त्री अपने को अपने शरीर से अधिक आसानी से पृथक कर सकती है। और अगर यह संभव हो—यह अनासक्ति, यह अंतराल—तों कोई समस्या नहीं रह जाती है, कोई भी समस्या नहीं रह जाती है।

तो यह बहुत विरोधाभासी है; लेकिन ऐसा है। यदि कोई स्त्री ब्रह्मचर्य धारण करना चाहे और अपने शरीर से पृथक रहना चाहे तो वह यह पुरुष की अपेक्षा अधिक आसानी से कर सकती है। वह अपनी पवित्रता अधिक आसानी से साध सकती है। एक बार शरीर से अनासक्ति सध जाए तो वह अपने शरीर को पूरी तरह भूल सकती है।

पुरुष बहुत सरलता से नियंत्रण कर सकता है; लेकिन उसका चित्त उसके शरीर से ज्यादा बंधा हुआ है। इसी कारण से नियंत्रण उसके लिए संभव है, लेकिन यह नियंत्रण उसे रोजरोज करना होगा, सतत करना होगा।

और चूंकि स्त्री की कामवासना अनाक्रमक
है, इसलिए वह इस दिशा में अधिक विश्रामपूर्ण हो सकती है, अधिक अनासक्त हो सकती है। पुरुष की कामवासना सक्रिय है। उसके लिए नियंत्रण तो आसान है; लेकिन अनासक्ति कठिन है।

तो तंत्र ने अनेक—अनेक उपाय खोजे हैं। और तंत्र अकेली व्यवस्था है जो स्त्री—पुरुष में भेद नहीं करता और कहता है कि स्त्री पर्याय का उपयोग भी किया जा सकता है। तंत्र अकेला मार्ग है जो स्त्री को समान हैसियत प्रदान करता है।

शेष सभी धर्म, कहते कुछ भी हों, अपने अंतस में यही समझते हैं कि स्त्री हीन पर्याय है। चाहे ईसाइयत हो, इस्लाम हो,जैन हो या बौद्ध हो, सब गहरे में यही मानते हैं कि स्त्री हीन पर्याय है। और इस मान्यता का कारण वही है—तीसरी आंख द्वारा किया गया निदान। हर महीने मासिक— धर्म के समय स्त्रियों का प्रभामंडल बदल जाता है।

तीसरी आंख के जरिए तुम उन चीजों को देखने में समर्थ हो जाते हो जो हैं, जिन्हें सामान्य आंखों से कभी नहीं देखा जा सकता। देखने की जितनी विधियां हैं वे सभी तीसरी आंख को प्रभावित करती हैं। कारण यह है कि देखने में जो ऊर्जा बाहर की ओर, संसार की ओर प्रवाहित होती है, वह अचानक रोक दिए जाने के कारण बहने के नए मार्ग ढूंढती है और निकट पड़ने के कारण तीसरी आंख पर पहुंच जाती है।

शक्तिपात कि परम्परा ये हमारे ऋषि मुनियों कि प्राचीन परम्परा हैं इसे थर्ड आई के जाग्रत होने पर ही किया जाता हैं थर्ड आई जाग्रत होने पर आपके साथ बहुत सारे चमत्कार होते हौ बहुत सी शक्तियाँ आपको प्राप्त हो जाती हैं

इच्छा मात्र से सभी वस्तुएँ आपकी और आकर्षित होने लगती हैं भविष्य या विश्व मे कही पर भी किसी भी अच्छी बुरी घटना को आप घर बैठे देख सकते हो और उसे अपने संकल्प मात्र से रोक भी सकते हो थर्ड आई जाग्रत होने के बाद आपके शरीर के प्रत्येक अंक ऊर्जा बहने लगती हैं जो सभी को अपनी और आकर्षित करने लगती हैं इसी शक्ति को प्राप्त करने के बाद हमारे ऋषि मुनि श्राप अथवा वरदान दिया करते हैं इसी शक्ति शक्ति के अन्दर संजीवनी शक्ति का प्रयोग किया जाता हैं जिसके द्वारा मृत व्यक्ति के शरीर मे प्राण ऊर्जा का संचार किया जाता हैं

दोस्तो तीसरी आँख के जाग्रत होने कितने लाभ होते इसे मे शब्दो मे आपसे नही बता सकता मगर इतना अवश्य कह सकता हूँ असंभव को संभव करना ही तीसरी आँख का काम होता हैं

कैसे अपनी थर्ड आई को जाग्रत करे इसके बारे मे फिर कभी चर्चा करेगे ये विषय बहुत गंभीर और सावधानी का होता हैं इसे वगैर किसी गुरु कि अनुमति के बिना ना करे किसी सुयोग्य तत्व ज्ञानी गुरु के सानिध्य मे रहकर ही इसे जाग्रत करे

जब ये जाग्रत हो जाऐ तो किसी अपने बारे मे बताने का प्रयास ना करे और ना ही प्रकृति के किसी क्रिया कलापों मे कोई दखल अंदाजी करे याद रखे ये धन कमाने का या चमत्कार दिखाने का साधन नही हैं

ये केवल प्रकृति के रहस्यों को जानने का एक साधन हैं इसके द्वारा आप प्रकृति के किसी रहस्य को आसानी से जान सकते हैं
रोग निवारक 10 रामबाण नुस्खे…
1 . अमरूद और पपीता ये दोनो फ़ल कब्ज से परेशान
रोगी के लिये रामबाण औषधि है। इन फ़लों में पर्याप्त
रेशा होता है तथा ये आंतों को शक्ति प्रदान करते हैं। मल
आसानी से विसर्जित होता है.
2 . प्रतिदिन एक लहसुन की कली
चबाकर खाने से दांत- दर्द से छुटकारा मिलता है.
3 . नीबू हृदय रोगों में गुणकारी फ़ल
है। यह रक्तवाही नलिकाओं में कोलेस्टरोल जमने
नहीं देता है। एक गिलास सामान्य गर्म
पानी में एक नीबू निचोडें ,इसमें 2 चम्मच
शहद मिलाएं और पी जाएं। यह प्रयोग सुबह
करना चाहिये.
4 . पीसी हुई अलसी को ठंडे
पानी में मिलाकर उसका लेप बनाकर सर के ऊपर लगाने से सिर दर्द
से राहत मिलती है .

  1. खांसी में तुलसी की पत्तियों व
    अदरक को पीसकर शहद के साथ मिलाकर चाटने से
    लाभ मिलता है.
    6 . सर्दी – जुकाम होने पर तुलसी
    की पत्तियों को चाय में उबालकर पीने से
    राहत मिलती है। तुलसी का अर्क तेज
    बुखार को कम करने में भी कारगर साबित होता है.
    7 . पुदीने के २ चम्मच रस में काला नमक डालकर
    पीने से उदर विकार,गैस तथा पेट के कीडे नष्ट हो जाते
    हैं.
    8 . नीम की छाल पानी में घिस कर फोडे-
    फुंसियों पर लगाने से ठीक हो जाते हैं.
    9 . रात में सोते समय पैरों के तलवों में सरसों का तेल लगाने से अनिद्रा से
    छुटकारा मिलता है.
    10 . रात में सोने से पहले सरसों के तेल को नाभि पर लगाने
    से होंठ नहीं फटते हैं .
    🙏🌹🙏🌹🙏🌹🙏
    जानिए शिवलिंग के अद्भुत रहस्य और प्रकार!!!!!!

भगवान शिव की पूजा या आराधना एक गोलाकार पत्थर के रूप में की जाती है जिसे पूजा स्थल के गर्भगृह में रखा जाता है। सिर्फ भारत और श्रीलंका में ही नहीं, भारत के बाहर विश्व के अनेक देशों में शिव की पूजा की जाती रही है।

दुनियाभर में शिव की पूजा का प्रचलन था, इस बात के हजारों सबूत बिखरे पड़े हैं। हाल ही में इस्लामिक स्टेट द्वारा नेस्तनाबूद कर दिए गए प्राचीन शहर पलमायरा, नीमरूद आदि नगरों में भी शिव की पूजा के प्रचलन के अवशेष मिलते हैं।

रोम में शिवलिंग : योरपीय देशों में भी शिवलिंग की पूजा शुरू की गई थी। इटली के शहर रोम की गणना दुनिया के प्राचीन शहरों में की जाती है। रोमनों द्वारा शिवलिंग की पूजा ‘प्रयापस’ के रूप में की जाती थी।

रोम के वेटिकन शहर में खुदाई के दौरान भी एक शिवलिंग प्राप्त हुआ था जिसे ग्रिगोरीअन एट्रुस्कैन म्यूजियम में रखा गया है।

इटली के रोम में स्थित वेटिकन सिटी का आकार भगवान शिव के आदि-अनादि स्वरूप शिवलिंग की तरह ही है, जो कि एक आश्चर्य ही है।

प्राचीन सभ्यता में शिवलिंग : पुरातात्विक निष्कर्षों के अनुसार प्राचीन शहर मेसोपोटेमिया और बेबीलोन में भी शिवलिंग की पूजा किए जाने के सबूत मिले हैं। इसके अलावा मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की विकसित संस्कृति में भी शिवलिंग की पूजा किए जाने के पुरातात्विक अवशेष मिले हैं।

विश्व की प्राचीन सभ्यताएं और हिन्दू धर्म, जानिए रहस्य…

सभ्यता के आरंभ में लोगों का जीवन पशुओं और प्रकृति पर निर्भर था इसलिए वह पशुओं के संरक्षक देवता के रूप में पशुपति की पूजा करते थे। सैंधव सभ्यता से प्राप्त एक सील पर तीन मुंह वाले एक पुरुष को दिखाया गया है जिसके आस-पास कई पशु हैं। इसे भगवान शिव का पशुपति रूप माना जाता है।

ईसा से 2300-2150 वर्ष पूर्व सुमेरिया, 2000-400 वर्ष पूर्व बेबीलोनिया, 2000-250 ईसापूर्व ईरान, 2000-150 ईसा पूर्व मिस्र (इजिप्ट), 1450-500 ईसा पूर्व असीरिया, 1450-150 ईसा पूर्व ग्रीस (यूनान), 800-500 ईसा पूर्व रोम की सभ्यताएं विद्यमान थीं। उक्त सभी से पूर्व महाभारत का युद्ध लड़ा गया था। इसका मतलब कि 3500 ईसापूर्व भारत में एक पूर्ण विकसित सभ्यता थी।

आयरलैंड में प्राचीन शिवलिंग : आयरलैंड के तारा हिल में स्थित एक लंबा अंडाकार रहस्यमय पत्थर रखा हुआ है, जो शिवलिंग की तरह ही है। इसे भाग्यशाली (lia fail stone of destiny) पत्थर कहा जाता है। फ्रांसीसी भिक्षुओं द्वारा 1632-1636 ईस्वी के बीच लिखित एक प्राचीन दस्तावेज के अनुसार इस पत्थर को 4 अलौकिक लोगों द्वारा स्थापित किया गया था।

काबा में शिव: ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार विक्रम संवत के कुछ सहस्राब्दी पूर्व संपूर्ण धरती पर उल्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदिमानव को यह रुद्र (शिव) का आविर्भाव दिखा। जहां-जहां ये पिंड गिरे, वहां-वहां इन पवित्र पिंडों की सुरक्षा के लिए मंदिर बना दिए गए।
इस तरह धरती पर हजारों शिव मंदिरों का निर्माण हो गया। उनमें से प्रमुख थे 108 ज्योतिर्लिंग। शिवपुराण के अनुसार उस समय आकाश से ज्योति पिंड पृथ्वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेक उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। कहते हैं कि मक्का का संग-ए-असवद भी आकाश से गिरा था।

अफ्रीका में शिवलिंग: साउथ अफ्रीका की सुद्वारा नामक एक गुफा में पुरातत्वविदों को महादेव की 6,000 वर्ष पुरानी शिवलिंग की मूर्ति मिली जिसे कठोर ग्रेनाइट पत्थर से बनाया गया है। इस शिवलिंग को खोजने वाले पुरातत्ववेत्ता हैरान हैं कि यह शिवलिंग यहां अभी तक सुरक्षित कैसे रहा?

शिवलिंग के तीन भागों का रहस्य…

शिवलिंग का विन्यास :

शिवलिंग के 3 हिस्से होते हैं।

पहला हिस्सा जो नीचे चारों ओर भूमिगत रहता है।

मध्य भाग में आठों ओर एक समान बैठक बनी होती है।

अंत में इसका शीर्ष भाग, जो कि अंडाकार होता है जिसकी पूजा की जाती है।

इस शिवलिंग की ऊंचाई संपूर्ण मंडल या परिधि की एक तिहाई होती है।

ये 3 भाग ब्रह्मा (नीचे), विष्णु (मध्य) और शिव (शीर्ष) का प्रतीक हैं। शीर्ष पर जल डाला जाता है, जो नीचे बैठक से बहते हुए बनाए गए एक मार्ग से निकल जाता है। शिव के माथे पर 3 रेखाएं (त्रिपुंड) और 1 बिन्दु होती हैं, ये रेखाएं शिवलिंग पर भी समान रूप से अंकित होती हैं।

सभी शिव मंदिरों के गर्भगृह में गोलाकार आधार के बीच रखा गया एक घुमावदार और अंडाकार शिवलिंग के रूप में नजर आता है। प्राचीन ऋषि और मुनियों द्वारा ब्रह्मांड के वैज्ञानिक रहस्य को समझकर इस सत्य को प्रकट करने के लिए विविध रूप में इसका स्पष्टीकरण दिया गया है।

शिव का अर्थ ‘परम कल्याणकारी शुभ’ और ‘लिंग’ का अर्थ है- ‘सृजन ज्योति’।

वेदों और वेदांत में ‘लिंग’ शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आता है। यह सूक्ष्म शरीर 17 तत्वों से बना होता है।

  1. मन, 2. बुद्धि, 3. पांच ज्ञानेन्द्रियां, 4. पांच कर्मेन्द्रियां और पांच वायु। भृकुटी के बीच स्थित हमारी आत्मा या कहें कि हम स्वयं भी इसी तरह हैं। बिंदु रूप।

शिवलिंग का अर्थ : शिवलिंग भगवान शिव की रचनात्मक और विनाशकारी दोनों ही तरह की पवित्र शक्तियों को प्रदर्शित करता है। हालांकि कुछ लोग दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से इसका गलत अर्थ निकालते हैं। उनके अनुसार यह स्त्री और पुरुष के गुप्तांगों का प्रतीक है, जबकि शिवपुराण के अनुसार यह ज्योति का प्रतीक है।

‘लिंग’ का अर्थ ज्योति और शिव का अर्थ शुभ। ‘शिवलिंग’ का अर्थ है- भगवान शिव का आदि-अनादि स्वरूप। शून्य, आकाश, अनंत, ब्रह्मांड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे ‘लिंग’ कहा गया है।

शिवलिंग को शिश्न के रूप में भगवान शिव का प्रतिनिधित्व मानना या प्रचलित करना हास्यापद है। स्वामी विवेकानंद ने भी इसे अनंत ब्रह्म रूप में जाना। शिवलिंग का आकार-प्रकार ब्रह्मांड में घूम रही हमारी आकाशगंगा की तरह है। यह शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड में घूम रहे पिंडों का प्रतीक है।

वेदानुसार ज्योतिर्लिंग यानी ‘व्यापक ब्रह्मात्मलिंग’ जिसका अर्थ है ‘व्यापक प्रकाश’। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।
स्कंदपुराण में कहा गया है कि आकाश स्वयं लिंग है। धरती उसका पीठ या आधार है और सबके अनंत शून्य से पैदा होकर उसी में लय होने के कारण इसे ‘लिंग’ कहा गया है। वातावरण सहित घूमती धरती या सारे अनंत ब्रह्मांड (ब्रह्मांड गतिमान है) का अक्स/धुरी ही लिंग है।
शिवलिंग को नाद और बिंदु का प्रतीक माना जाता है। पुराणों में इसे ज्योतिर्बिंदु कहा गया है। पुराणों में शिवलिंग को कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है, जैसे प्रकाश स्तंभ लिंग, अग्नि स्तंभ लिंग, ऊर्जा स्तंभ लिंग, ब्रह्मांडीय स्तंभ लिंग आदि। लेकिन बौद्धकाल में धर्म और धर्मग्रंथों के बिगाड़ के चलते लिंग को गलत अर्थों में लिया जाने लगा, जो कि आज तक प्रचलन में है।

शिवलिंग का प्रकार : शिवलिंग ब्रह्मांड और ब्रह्मांड की समग्रता का प्रतिनिधित्व करता है। ब्रह्मांड अंडाकार ही है, जो एक अंडाकार शिवलिंग की तरह नजर आता है। शिवलिंग ‘ब्रह्मांड’ या ब्रह्मांडीय अंडे के आकार का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रमुख रूप से शिवलिंग 2 प्रकार के होते हैं-पहला आकाशीय या उल्का शिवलिंग और दूसरा पारद शिवलिंग।

पहला उल्कापिंड की तरह काला अंडाकार लिए हुए। इस तरह का एक शिवलिंग मक्का के काबा में स्थापित है, जो आसमान से गिरा था। ऐसे शिवलिंग को ही भारत में ज्योतिर्लिंग कहते हैं। दूसरा मानव द्वारा निर्मित पारे से बना शिवलिंग होता है। इसे ‘पारद शिवलिंग’ कहा जाता है। पारद विज्ञान प्राचीन वैदिक विज्ञान है।

इसके अलावा पुराणों के अनुसार शिवलिंग के प्रमुख 6 प्रकार होते हैं।

1. देव लिंग : जिस शिवलिंग को देवताओं या अन्य प्राणियों द्वारा स्थापित किया गया हो, उसे देवलिंग कहते हैं। वर्तमान समय में धरती पर मूल पारंपरिक रूप से यह देवताओं के लिए पूजित है।

2. असुर लिंग : असुरों द्वारा जिसकी पूजा की जाए, वह असुर लिंग। रावण ने एक शिवलिंग स्थापित किया था, जो असुर लिंग था। देवताओं से द्वेष रखने वाले रावण की तरह शिव के असुर या दैत्य परम भक्त रहे हैं।

3. अर्श लिंग : प्राचीनकाल में अगस्त्य मुनि जैसे संतों द्वारा स्थापित इस तरह के लिंग की पूजा की जाती थी।

4. पुराण लिंग : पौराणिक काल के व्यक्तियों द्वारा स्थापित शिवलिंग को पुराण शिवलिंग कहा गया है। इस लिंग की पूजा पुराणिकों द्वारा की जाती है।

5. मनुष्य लिंग: प्राचीनकाल या मध्यकाल में ऐतिहासिक महापुरुषों, अमीरों, राजा-महाराजाओं द्वारा स्थापित किए गए लिंग को मनुष्य शिवलिंग कहा गया है।

6. स्वयंभू लिंग : भगवान शिव किसी कारणवश स्वयं शिवलिंग के रूप में प्रकट होते हैं। इस तरह के शिवलिंग को स्वयंभू शिवलिंग कहते हैं। भारत में स्वयंभू शिवलिंग कई जगहों पर हैं। वरदानस्वरूप जहां शिव स्वयं प्रकट हुए थे।

शिवलिंग पूजा के नियम :

  • शिवलिंग को पंचामृत से स्नानादि कराकर उन पर भस्म से 3 आड़ी लकीरों वाला तिलक लगाएं।
  • शिवलिंग पर हल्दी नहीं चढ़ाना चाहिए, लेकिन जलाधारी पर हल्दी चढ़ाई जा सकती है।
  • शिवलिंग पर दूध, जल, काले तिल चढ़ाने के बाद बेलपत्र चढ़ाएं।
  • केवड़ा तथा चम्पा के फूल न चढ़ाएं। गुलाब और गेंदा किसी पुजारी से पूछकर ही चढ़ाएं।
  • कनेर, धतूरे, आक, चमेली, जूही के फूल चढ़ा सकते हैं।
  • शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ प्रसाद ग्रहण नहीं किया जाता, सामने रखा गया प्रसाद अवश्य ले सकते हैं।
  • शिवलिंग नहीं, शिव मंदिर की आधी परिक्रमा ही की जाती है।
  • शिवलिंग के पूजन से पहले पार्वतीजी का पूजन करना जरूरी है।
    ~~~~~
    राजा राम मोहन राय,और अंग्रेजों की कृपा से सती प्रथा से मुक्ति मिली ?

—– सती शब्द को कलङ्कित करने का भयंकर षड्यंत्र है।
भारत में सती जैसी कोई प्रथा थी ही नहीं,यदि होती भगवान श्री राम जी की माताएं स्वयं शास्त्र मर्यादा का पालन करतीं ।

सती का तात्पर्य है–पतिव्रता,पतिपरायणा ।

नारी यदि पतिपरायणा हो तो वह “सती”कहलाती है,
शास्त्रों में सती शब्द का प्रयोग पतिसेवा शुश्रूषारता स्त्री के लिये ही प्रयोग किया है—>

“अरुन्धती सतीनान्तु रामासु च तिलोत्तमा ।
भार्यातस्य प्रमुग्धा च सरोजवदना सती ।।”

पर पुरुष को स्वप्न में भी न देखने वाली–सत् को धारण करने वाली,स्वधर्म निष्ठा स्त्री ही “”सती””है!

स्वेच्छा से पति की चिता पर अग्नि का वरण करने वाली सतीयों के बारे में हमने पढ़ा है, पर हमने कभी शास्त्रों में कहीं नहीं पढ़ा कि बलात् किसी स्त्री को अग्नि में जलाया गया हो।

हाँ, जब विदेशी म्लेच्छों का आक्रमण होता था,और वे भारत की इस पावन प्रथा को दूषित करना चाहते थे,तब अवश्य ही पतिपरायणा स्त्रियाँ अपना शरीर पावक को अर्पित कर देती थीं ।

जन्म कुंडली मे कुछ खास योग।

दुःख योग

चौथे स्थान का स्वामी पापग्रह से युक्त हो |

चौथे घर मे नीच का सूर्य व मंगल हो |

आठवें घर का स्वामी ११वें भाव मे हो |

लग्न मे पापग्रह के बीच मे हो |

लग्न मे शनि, आठवें स्थान पर राहु तथा छठे स्थान पर मंगल हो |

चन्द्रमा पापग्रहों के बीच मे हो |

लग्न का स्वामी १२वें स्थान पर, दसवे स्थान पर पापग्रह और किसी भी घर मे चन्द्रमा तथा सूर्य साथ मे

मकान बनाने के योग

एक अच्छा घर बनाने की इच्छा हर व्यक्ति के जीवन की चाह होती है. व्यक्ति किसी ना किसी तरह से जोड़-तोड़ कर के घर बनाने के लिए प्रयास करता ही है. कुछ ऎसे व्यक्ति भी होते हैं जो जीवन भर प्रयास करते हैं लेकिन किन्हीं कारणो से अपना घर फिर भी नहीं बना पाते हैं. कुछ ऎसे भी होते हैं जिन्हें संपत्ति विरासत में मिलती है और वह स्वयं कुछ भी नहीं करते हैं. बहुत से अपनी मेहनत से एक से अधिक संपत्ति बनाने में कामयाब हो जाते हैं. जन्म कुंडली के ऎसे कौन से योग हैं जो मकान अथवा भूमि अर्जित करने में सहायक होते हैं, उनके बारे में आज इस लेख के माध्यम से जानने का प्रयास करेगें.

स्वयं की भूमि अथवा मकान बनाने के लिए चतुर्थ भाव का बली होना आवश्यक होता है, तभी व्यक्ति घर बना पाता है.

मंगल को भूमि का और चतुर्थ भाव का कारक माना जाता है, इसलिए अपना मकान बनाने के लिए मंगल की स्थिति कुंडली में शुभ तथा बली होनी चाहिए.

मंगल का संबंध जब जन्म कुंडली में चतुर्थ भाव से बनता है तब व्यक्ति अपने जीवन में कभी ना कभी खुद की प्रॉपर्टी अवश्य बनाता है.

मंगल यदि अकेला चतुर्थ भाव में स्थित हो तब अपनी प्रॉपर्टी होते हुए भी व्यक्ति को उससे कलह ही प्राप्त होते हैं अथवा प्रॉपर्टी को लेकर कोई ना कोई विवाद बना रहता है.

मंगल को भूमि तो शनि को निर्माण माना गया है. इसलिए जब भी दशा/अन्तर्दशा में मंगल व शनि का संबंध चतुर्थ/चतुर्थेश से बनता है और कुंडली में मकान बनने के योग मौजूद होते हैं तब व्यक्ति अपना घर बनाता है.

चतुर्थ भाव/चतुर्थेश पर शुभ ग्रहों का प्रभाव घर का सुख देता है.

चतुर्थ भाव/चतुर्थेश पर पाप व अशुभ ग्रहो का प्रभाव घर के सुख में कमी देता है और व्यक्ति अपना घर नही बना पाता है.

चतुर्थ भाव का संबंध एकादश से बनने पर व्यक्ति के एक से अधिक मकान हो सकते हैं. एकादशेश यदि चतुर्थ में स्थित हो तो इस भाव की वृद्धि करता है और एक से अधिक मकान होते हैं.

यदि चतुर्थेश, एकादश भाव में स्थित हो तब व्यक्ति की आजीविका का संबंध भूमि से बनता है.

कुंडली में यदि चतुर्थ का संबंध अष्टम से बन रहा हो तब संपत्ति मिलने में अड़चने हो सकती हैं.

जन्म कुंडली में यदि बृहस्पति का संबंध अष्टम भाव से बन रहा हो तब पैतृक संपत्ति मिलने के योग बनते हैं.

चतुर्थ, अष्टम व एकादश का संबंध बनने पर व्यक्ति जीवन में अपनी संपत्ति अवश्य बनाता है और हो सकता है कि वह अपने मित्रों के सहयोग से मकान बनाएं.

चतुर्थ का संबंध बारहवें से बन रहा हो तब व्यक्ति घर से दूर जाकर अपना मकान बना सकता है या विदेश में अपना घर बना सकता है.

जो योग जन्म कुंडली में दिखते हैं वही योग बली अवस्था में नवांश में भी मौजूद होने चाहिए.

भूमि से संबंधित सभी योग चतुर्थांश कुंडली में भी मिलने आवश्यक हैं.

चतुर्थांश कुंडली का लग्न/लग्नेश, चतुर्थ भाव/चतुर्थेश व मंगल की स्थिति का आंकलन करना चाहिए. यदि यह सब बली हैं तब व्यक्ति मकान बनाने में सफल रहता है.

मकान अथवा भूमि से संबंधित सभी योगो का आंकलन जन्म कुंडली, नवांश कुंडली व चतुर्थांश कुंडली में भी देखा जाता है. यदि तीनों में ही बली योग हैं तब बिना किसी के रुकावटों के घर बन जाता है. जितने बली योग होगें उतना अच्छा घर और योग जितने कमजोर होते जाएंगे, घर बनाने में उतनी ही अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है.

जन्म कुंडली में यदि चतुर्थ भाव पर अशुभ शनि का प्रभाव आ रहा हो तब व्यक्ति घर के सुख से वंचित रह सकता है. उसका अपना घर होते भी उसमें नही रह पाएगा अथवा जीवन में एक स्थान पर टिक कर नही रह पाएगा. बहुत ज्यादा घर बदल सकता है.

चतुर्थ भाव का संबंध छठे भाव से बन रहा हो तब व्यक्ति को जमीन से संबंधित कोर्ट-केस आदि का सामना भी करना पड़ सकता है.

वर्तमान समय में चतुर्थ भाव का संबंध छठे भाव से बनने पर व्यक्ति बैंक से लोन लेकर या किसी अन्य स्थान से लोन लेकर घर बनाता है.

चतुर्थ भाव का संबंध यदि दूसरे भाव से बन रहा हो तब व्यक्ति को अपनी माता की ओर से भूमि लाभ होता है.

चतुर्थ का संबंध नवम से बन रहा हो तब व्यक्ति को अपने पिता से भूमि लाभ हो सकता है.

सिंहासन योग

दशमेश के केन्द्र, त्रिकोण, अथवा धन भाव में स्थित होने से निर्मित होता है सिंहासन योग. जन्म कुण्डली में दशम भावाधीश केन्द्र, त्रिकोण अथवा द्वितीय इनमें से किसी एक स्थान पर भी स्थित हो तो ऎसा जातक उच्च स्थान पाता है. वह राज सिंहासन पर सुशोभित होने वाला राजा समान होता है, उसकी कीर्ति सभी ओर फैलती है तथा उसकी सेना हाथी इत्यादि सदैव परिपूर्ण रहती है.

दशमभवननाथे केन्द्रकोणे धनस्थे ।
वनिपतिबलयाने शस्तसिंहासनेषु ।।

स भवति नरनाथो विश्वविख्यात कीर्ति।
मर्दगलितकपोलै: सद् गजै: सेव्यमान:

दशमेश यदि केन्द्र, त्रिकोण या धन भाव में से किसी में भी स्थित होने पर जातक समृद्धशाली, यशस्वी और कीर्तिवान बन सकता है. व्यक्ति को जीवन में उच्च पद की प्राप्ति होती है तथा सौभाग्य में वृद्धि पाता है. दशमेश की शुभ स्थिति होने पर कर्म स्थान बल पाता है.

द्वितीय प्रकार का सिंहासन योग

सातों ग्रहों के द्वितीय भाव तथा त्रिक भावों में स्थित होने से यह बनता है. द्वितीय, अष्टम, षष्ठ और व्यय में सब ग्रह हों तो व्यक्ति की कुण्डली में सिंहासन योग का निर्माण होता है.

आकाशवासै: सकलैर्निधाननिमीलनाराह्यवसानयातै:।
वदन्ति सिंहासन नामयोगं सिंहासनं तत्र विशेन्नृपस्य।।

ज्योतिष में सिंहासन योग का निर्माण हो तो शुभ प्रभाव जातक को अच्छी क्षमता, वाक कुशलता, संचार कुशलता, नेतृत्व करने की क्षमता, मान, सम्मान, प्रतिष्ठा देने वाला होता है. अधिकतर जातक इस योग से मिलने वाले शुभ फलों को प्राप्त करते हैं यह जातक के जीवन को प्रभावशाली स्वरुप प्रदान करने में सहायक है. इस योग के द्वारा प्रदान होने वाली विशेषताएं कुछ विशेष जातकों में ही देखने को मिलती हैं. कुंडली में इस योग का निर्माण निश्चित करने के लिए कुछ अन्य तथ्यों के विषय में विचार कर लेना भी आवश्यक है. किसी कुंडली में किसी भी शुभ योग के बनने के लिए यह आवश्यक है कि उस योग का निर्माण करने वाले सभी ग्रह कुंडली में शुभ रूप से काम कर रहे हों क्योंकि अशुभ ग्रह शुभ योगों का निर्माण नहीं करते अपितु अशुभ योगों अथवा दोषों का निर्माण करते हैं.

अरिष्ट भंग योग

वर्षलग्नेश पंचवर्गी में सबसे अधिक बलवान होकर एक, चार, पांच, सात, नौवें या दसवें भाव में हों, तो अरिष्टनाशक योग होता है |

ब्रहस्पति केंद्र (१, ४, ७, १०) या त्रिकोण (५, ९) में शुभग्रहों से द्रष्ट हो व उस पर पापग्रहों की दृष्टि न हो, तो अरिष्टनिवारक योग होता है |

चतुर्थ भाव अपने स्वामी के साथ या शुभग्रह के साथ अथवा उससे दृष्ट हो, तो भी अनिष्टनाशक योग होकर धन, दुःख और सम्मान कि वृद्धि करता है |

सप्तमेश लग्न में ब्रहस्पति के साथ हो और क्रूरग्रह उसे न देखते हों, तो ऐसा योग अरिष्टनिवारक योग कहलाता है |

नवम घर का स्वामी तथा दुसरे घर का स्वामी बलवान होकर लग्न में हों तथा उन पर पापग्रहों की दृष्टि न हो, तो जातक राज्य में सम्मान प्राप्त करता है |

तीसरे, छठें, तथा ग्यारहवें स्थानों में पापग्रह एवं केन्द्र तथा त्रिकोण में शुभग्रह होते हैं, तो अरिष्टनिवारक योग बनता है |

लग्नेश पूर्णबली होकर केन्द्र, त्रिकोण या ११, १२वें स्थान में हो, तो जातक की सभी इच्छाएं पूरी होती हैं |

उच्च राशि का स्वामी बलवान होकर वर्षेश हो तथा वह तीसरे व ग्यारहवें भाग में स्थित हो, तो अरिष्टनिवारक योग होता है |

सूर्य, ब्रहस्पति, तथा शुक्र परस्पर इत्थशाल योग करते हों, तो उस वर्ष जातक को नौकरी में प्रमोशन मिलता है |

शुक्र, बुध और चन्द्रमा अपनी मुधा में हों, तो जातक व्यापर से लाभ उठता है |

मंगल वर्षेश होकर मित्र की र्शी में हो और घर में पड़े ग्रह से मुत्थशिल योग करता है, तो उस वर्ष जातक को उच्च वाहन मिलता है |

: अमावस्या योग

जब सूर्य और चन्द्रमा दोनों कुण्डली के एक ही घर में विराजित हो जावे तब इस दोष का निर्माण होता है। जैसे की आप सब जानते है की अमावस्या को चन्द्रमा किसी को दिखाई नही देता उसका प्रभाव क्षीण हो जाता है। ठीक उसी प्रकार किसी जातक की कुंडली में यह दोष बन रहा हो तो उसका चन्द्रमा प्रभावशाली नही रहता। और चन्द्रमा को ज्योतिष में कुण्डली का प्राण माना जाता है और जब चन्द्रमा ही प्रभाव हीन हो जाए तो यह किसी भी जातक के लिए कष्टकारी हो जाता है क्योंकि यही हमारे मन और मस्तिष्क का कारक ग्रह है। इसलिए अमावस्या दोष को महर्षि पराशर जी ने बहुत बुरे योगो में से एक माना है, जिसकी व्याख्या उन्होंने अपने ग्रन्थ बृहत पराशर होराशास्त्र में बड़े विस्तार से की है तथा उसके उपाय बताये है। । ज्योतिष में ऐसा माना जाता है कि सूर्य और चन्द्र दो भिन्न तत्व के ग्रह है सूर्य अग्नि तत्व और चन्द्र जल तत्त्व, इस प्रकार जब दोनों मिल जाते है तो वाष्प बन जाती है कुछ भी शेष नही रह जात

महाभाग्य योग

वैदिक ज्योतिष में वर्णित अधिकतर योगों का निर्माण पुरुष तथा स्त्री जातकों की कुंडलियों में एक समान नियमों से ही होता है जबकि महाभाग्य योग के लिए ये नियम पुरुष तथा स्त्री जातकों के लिए विपरीत हैं। इसका कारण यह है कि सूर्य दिन में प्रबल रहने वाला पुरुष ग्रह है तथा चन्द्रमा रात्रि में प्रबल रहने वाला एक स्त्री ग्रह है और किसी पुरुष की कुंडली में दिन के समय का जन्म होने से, लग्न, सूर्य तथा चन्द्रमा सबके विषम राशियों में अर्थात पुरुष राशियों में स्थित हो जाने से कुंडली में पुरुषत्व की प्रधानता बहुत बढ़ जाती है तथा ऐसी कुंडली में सूर्य भी बहुत प्रबल हो जाते हैं जिसके कारण पुरुष जातक को लाभ मिलता है। वहीं पर किसी स्त्री जातक का जन्म रात में होने से, कुंडली में लग्न, सूर्य तथा चन्द्रमा तीनों के विषम राशियों अर्थात स्त्री राशियों में होने से कुंडली में चन्द्रमा तथा स्त्री तत्व का प्रभाव बहुत बढ़ जाता है जिसके कारण ऐसे स्त्री जातकों को लाभ प्राप्त होता है।

किन्तु महाभाग्य योग का फल केवल उपर दिये गए नियमों से ही निश्चित कर लेना उचित नहीं है तथा किसी कुंडली में इस योग के निर्माण तथा फलादेश से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण विषयों के बारे में विचार कर लेना भी अति आवश्यक है। किसी भी कुंडली में महाभाग्य योग बनाने के लिए कुंडली में सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों का शुभ होना अति आवश्यक है क्योंकि इन दोनों में से किसी एक ग्रह के अशुभ होने की स्थिति में महाभाग्य योग या तो कुंडली में बनेगा ही नहीं अन्यथा ऐसे महाभाग्य योग का बल बहुत क्षीण होगा जिससे जातक को अधिक लाभ प्राप्त नहीं हो पायेगा जबकि इन दोनों ही ग्रहों के किसी कुंडली में अशुभ होने की स्थिति में ऐसी कुंडली में महाभाग्य योग बिल्कुल भी नहीं बनेगा बल्कि ऐसी स्थिति में कुंडली में कोई अशुभ योग भी बन सकता है जिसके चलते जातक को अपने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि कई बार किसी कुंडली में ऐसे अशुभ सूर्य तथा चन्द्रमा का संयोग होने पर भी जातक बहुत धन कमा सकता है अथवा किसी सरकारी संस्था में कोई शक्तिशाली पद भी प्राप्त कर सकता है किन्तु ऐसा जातक सामान्यतया अवैध कार्यों के माध्यम से धन कमाता है तथा अपने पद और शक्ति का धन कमाने के लिए दुरुपयोग करता है जिसके कारण ऐसे जातक का पद तथा धन स्थायी नहीं रह पाता तथा उसे अपने पद तथा धन से हाथ धोना पड़ सकता है तथा अपयश अथवा बदनामी का सामना भी करना पड़ सकता है। इसलिए कुंडली में महाभाग्य योग बनाने के लिए कुंडली में सूर्य तथा चन्द्रमा का शुभ होना अति आवश्यक है।

दरिद्र योग

वैदिक ज्योतिष में प्रचलित परिभाषा के अनुसार यदि किसी कुंडली में 11वें घर का स्वामी ग्रह कुंडली के 6, 8 अथवा 12वें घर में स्थित हो जाए तो ऐसी कुंडली में दरिद्र योग बन जाता है जो जातक के व्यवसाय तथा आर्थिक स्थिति पर बहुत अशुभ प्रभाव डाल सकता है। कुछ वैदिक ज्योतिषी यह मानते हैं कि दरिद्र योग के प्रबल प्रभाव में आने वाले जातकों की आर्थिक स्थिति जीवन भर खराब ही रहती है तथा ऐसे जातकों को अपने जीवन में अनेक बार आर्थिक संकट का सामाना करना पड़ता है। वहीं पर कुछ अन्य वैदिक ज्योतिषी यह मानते हैं कि दरिद्र योग के प्रबल प्रभाव में आने वाले जातक अनैतिक तथा अवैध कार्यों के माध्यम से धन कमाते हैं जिसके कारण इन जातकों का समाज में कोई सम्मान नहीं होता तथा ऐसे जातक अपने लाभ के लिए दूसरों को चोट पहुंचाने में बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाते।

दरिद्र योग की प्रचलित परिभाषा के अनुसार यह योग प्रत्येक चौथी कुंडली में बनता है क्योंकि कुंडली के 11वें घर के स्वामी ग्रह की किसी कुंडली के बारह में से किन्हीं तीन विशेष घरों में स्थित होने की संभावना प्रत्येक चौथी कुंडली में रहती है। इस प्रकार संसार के प्रत्येक चौथे व्यक्ति की कुंडली में दरिद्र योग बनता है तथा संसार का हर चौथा व्यक्ति दरिद्र योग के अशुभ प्रभाव के कारण अति निर्धन अथवा अपराधी होता है। यह तथ्य वास्तविकता से पर है तथा इसीलिए दरिद्र योग की प्रचलित परिभाषा के अनुसार इस योग का निर्माण नहीं होना चाहिए। मैने अपने अनुभव में यह पाया है कि यदि किसी कुंडली में 11वें घर का स्वामी ग्रह अशुभ होकर कुंडली के 6, 8 अथवा 12वें घर में बैठ जाए तो ऐसी कुंडली में दरिद्र योग का निर्माण हो सकता है तथा 11वें घर के स्वामी ग्रह के कुंडली में शुभ होकर 6, 8 अथवा 12वें घर में से किसी घर में बैठ जाने पर कुंडली में दरिद्र योग का निर्माण नहीं होता बल्कि ऐसा शुभ ग्रह कुंडली के इन घरों में स्थित होकर कोई शुभ योग भी बना सकता है। कुंडली में 11वें घर के स्वामी ग्रह पर अन्य अशुभ ग्रहों का प्रभाव होने पर कुंडली में बनने वाला दरिद्र योग और भी अधिक अशुभ फलदायी हो जाता है।

उदाहरण के लिए अशुभ बृहस्पति यदि किसी कुंडली में 11वें घर के स्वामी होकर 8वें घर में स्थित हो जाते हैं तो ऐसी स्थिति में कुंडली में दरिद्र योग का निर्माण हो सकता है जिसके चलते इस योग के प्रबल प्रभाव में आने वाले जातक निर्धन, अति निर्धन, चोर, ठग, जेबकतरे तथा धन कमाने के लिए किसी न किसी प्रकार का धोखा करने वाले हो सकते हैं। किन्तु उपरोक्त उदाहरण में कुंडली के इसी 8वें घर में बैठा बृहस्पति यदि शुभ हो तो कुंडली में दरिद्र योग नहीं बनेगा तथा ऐसा जातक ज्योतिषी, आध्यात्मिक गुरु, आध्यात्मिक प्रवक्ता, योगाचार्य, हस्त रेखा विशषज्ञ, जादूगर, बैंक अधिकारी अथवा वित्तिय सलाहकार आदि बन सकता है। कुंडली के आठवें घर में स्थित इस प्रकार का शुभ बृहस्पति जातक को लाटरी, उत्तराधिकार, वसीयत अथवा अन्य कई प्रकार के अचानक हो जाने वाले धन लाभ भी प्रदान कर सकता है। इसलिए किसी कुंडली में दरिद्र योग के बनने या न बनने का निर्णय लेने के लिए कुंडली के 11वें घर के स्वामी ग्रह का स्वभाव तथा कुंडली के अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों के बारे में जान लेना अति आवश्यक है।
: अगर पति-पत्नी में होते हों कभी ना खत्म होने वाले झगड़े, तो करें ये एक उपाय

पति-पत्नी में झगड़े होना कोई बड़ी बात नहीं है…. एक कहावत है कि ‘जिस घर में बर्तन हों, उनके आपस में टकराने की आवाज तो आती ही है’। इसी तरह से पति-पत्नी की भी नोक-झोंक होना लाजमी है। यह दोनों के गहरे रिश्ते को भी दर्शाता है।

लेकिन कई बार ये झगड़े भयंकर रुख भी ले लेते हैं। कभी-कभी अगर ऐसा बड़ा झगड़ा हो तो रिश्ते पर इसका अधिक बुरा प्रभाव नहीं पड़ता, लेकिन जब ये सब रोजाना का ही दृश्य बन जाए तो समझ जाएं कि रिश्ते का अंत नजदीक है।

ऐसे में रिश्ते में घुल चुके इस मनमुटाव को खत्म करने के लिए शास्त्रीय उपायों की मदद ली जा सकती है। आज हम आपको ऐसा ही एक सरल शास्त्रीय उपाय बताने जा रहे हैं, जो यकीनन पति-पत्नी के रिश्ते में मिठास भर देगा।

इसके लिए पति या पत्नी को ही पहल करके अपने बेडरूम में एक छोटा सा बदलाव लाना होगा। कुछ कठिन नहीं करना, केवल राधा-कृष्ण जी की सुंदर तस्वीर बेडरूम में लाकर दीवार पर लगा दें।

राधा-कृष्ण को अटूट प्रेम का प्रतीक माना गया है। शास्त्रों के अनुसार सुबह-शाम पति-पत्नी यदि इस तस्वीर के दर्शन करेंगे, तो उनका मानसिक तनाव कम होगा। दिल में प्रेम का आभास होगा और आपसी झगड़ों में कमी आएगी।

कुछ दिनों के बाद ये परेशानियां पूर्ण रूप से खत्म होती दिखाई देंगी। रिश्ते में पहले जैसी मिठास भर जाएगी।
: मेडिकल साइंस के अनुसार जानिए हमें गर्म पानी क्यो पीना चाहिए:

नित्य सुबह खाली पेट गर्म पानी पीने से कब्ज और गैस जैसी पेट की तमाम समस्याएँ दूर रहती हैं। जब आप सुबह उठते हैं तो आपके मुंह में लार बनी हुई होती है और कहा जाता है कि खाली पेट पानी पीने से यह लार हमारे पेट में जाने के बाद कई प्रकार के रोगों से बचाती है क्योंकि यह एंटीसेप्टिक की तरह हमारे शरीर के लिए कार्य करती है आपको जानकर हैरानी होगी कि मानो लाड 98% पानी से ही बनी हुई होती है और 2% भाग एंजाइम बलगम इलेक्ट्रिक और जीवाणुरोधी यौगिक जैसे तत्व मौजूद होते हैं किंतु जब हमारे मुंह में पानी आता है तो उस पदार्थ को हम लार कहते हैं यह हमारे शरीर को बहुत तंदुरुस्त रखने में फायदेमंद साबित होती है उन्हीं फायदों के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं।

तो आइये जानते है गर्म या हल्का गुनगुना पानी पीने के अनेक चमत्कारी फायदे:-

सुबह जल्दी उठकर गर्म पानी पीने से हमारे शरीर की पाचन क्रिया तेज होती है और खाने का डीकंपोजीशन बढ़ता है नित्य गर्म पानी का सेवन करने से शरीर में ब्लड सर्कुलेशन तेज होता है, ह्रदय भी स्वस्थ रहता है। अगर कोई व्यक्ति पथरी की समस्या से परेशान हैं तो वह सुबह शाम दोनों समय भोजन करने के पश्चात एक गिलास गर्म पानी का सेवन अवश्य ही करें।

उम्र से पहले बुढ़ापा आना यह एक बड़ी समस्या है। खास तौर पर यह महिलाओं में देखी जाती है। सुबह उठकर गुनगुना पानी पीने से प्रीमेच्योर एंजिंग समस्या से बचा जा सकता है। बुखार में गर्म पानी पीना अधिक लाभदायक होता है। जुकाम में गर्म पानी पीने से बहुत आराम मिलता है, इससे कफ और सर्दी शीघ्र दूर होते हैं।
सुबह गुनगुना पानी पीने से हमारा वेट कम होता है, इससे हमको बहुत ज्यादा फायदा मिलता है। गुनगुना पानी हमारे शरीर का तापमान को तेजी से बढ़ाता है। नियमित रूप से सुबह खाली पेट और रात में खाने के बाद गरम पानी के सेवन से कब्ज़ से राहत मिलती है। गर्म पानी वजन घटाने में भी बहुत मददगार होता है,रोज़ सुबह खाली पेट गर्म पानी में 1/2 नींबू व एक चम्मच शहद मिलाकर पीने से शरीर स्लिम होता है।

नित्य एक गिलास गर्म पानी में एक नींबू का रस, काली मिर्च व काला नमक डालकर पीने से पेट का भारीपन दूर होता है भूख भी खुलकर लगती है। उठकर गुनगुना पानी पीने से शरीर के विषाक्त पदार्थ तथा टॉक्सिन को शरीर से बाहर निकालता है, इससे हमारे शरीर का सरकुलेशन ठीक होता है।

पानी को उबालते हुए जब उसका चौथाई हिस्सा जल जाये अर्थात तीन हिस्सा पानी ही बचे तो ऐसा पानी पीना श्रेष्ठ है। ऐसा गर्म पानी का सेवन हमारे शरीर के वात, कफ और पित्त्त तीनो ही दोषों को समाप्त करता है। नित्य सुबह खाली पेट व रात्रि को खाने के बाद गर्म पानी पीने से पेट की सभी समस्याएँ खत्म होती है और गैस जैसी समस्याएं निकट भी नहीं आती हैं।

गर्म पानी त्वचा के लिए रामबाण है। अगर आपको त्वचा सम्बन्धी परेशानियाँ रहती है , त्वचा में कील मुहाँसे भी निकलते है तो नित्य सुबह शाम एक गिलास गर्म पानी चाय की तरह चुस्कियाँ लेते हुए पीना शुरू कर दें। इससे आपकी त्वचा सम्बन्धी परेशानियाँ दूर हो जाएगी, कील मुहाँसे नहीं होंगे, त्वचा चमकने लगेगी।
नित्य गर्म पानी का सेवन करने से शरीर में ब्लड सर्कुलेशन तेज होता है, ह्रदय भी स्वस्थ रहता है। अगर कोई व्यक्ति पथरी की समस्या से परेशान हैं तो वह सुबह शाम दोनों समय भोजन करने के पश्चात एक गिलास गर्म पानी का सेवन अवश्य ही करें। गले में टांसिल्स होने पर या गला खराब होने पर गर्म पानी में 1 चुटकी नमक डालकर गरारे करने से गले की परेशानी में शीघ्र आराम मिलता है।
[🌹मिर्गी रोग के सरल उपचार

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🌻रोजाना तुलसी के 20 पत्ते चबाकर खाने से रोग की गंभीरता में गिरावट देखी जाती है।तुलसी के पत्तों को पीसकर शरीर पर मलने से मिरगी के रोगी को लाभ होता है।तुलसी के पत्तों के रस में जरा सा सेंधा नमक मिलाकर 1 -1 बूंद नाक में टपकाने से मिरगी के रोगी को लाभ होता है।तुलसी की पत्तियों के साथ कपूर सुंघाने से मिर्गी के रोगी को होश आ जाता है।

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🕉🕉🕉🕉🕉🕉. हेल्दी रहने के साधारण उपाय

1– 90 प्रतिशत रोग केवल पेट से होते हैं। पेट में कब्ज नहीं रहना चाहिए। अन्यथा रोगों की कभी कमी नहीं रहेगी।
2– कुल 13 अधारणीय वेग हैं !
3–160 रोग केवल मांसाहार से होते है !

4– 103 रोग भोजन के बाद जल पीने से होते हैं। भोजन के 1 घंटे बाद ही जल पीना चाहिये।
5– 80 रोग चाय पीने से होते हैं।
6– 48 रोग ऐलुमिनियम के बर्तन या कुकर के खाने से होते हैं।
7– शराब, कोल्डड्रिंक और चाय के सेवन से हृदय रोग होता है।
8– अण्डा खाने से हृदयरोग, पथरी और गुर्दे खराब होते हैं।
9– ठंडे जल (फ्रिज) और आइसक्रीम से बड़ी आंत सिकुड़ जाती है।
10– मैगी, गुटका, शराब, सूअर का माँस, पिज्जा, बर्गर, बीड़ी, सिगरेट, पेप्सी, कोक से बड़ी आंत सड़ती है।
11– भोजन के पश्चात् स्नान करने से पाचनशक्ति मन्द हो जाती है और शरीर कमजोर हो जाता है।
12– बाल रंगने वाले द्रव्यों (हेयरकलर) से आँखों को हानि (अंधापन भी) होती है।
13– दूध (चाय) के साथ नमक (नमकीन पदार्थ) खाने से चर्म रोग हो जाता है।
14– शैम्पू, कंडीशनर और विभिन्न प्रकार के तेलों से बाल पकने, झड़ने और दोमुहें होने लगते हैं।
15– गर्म जल से स्नान से शरीर की प्रतिरोधक शक्ति कम हो जाती है और शरीर कमजोर हो जाता है। गर्म जल सिर पर डालने से आँखें कमजोर हो जाती हैं।


16– टाई बांधने से आँखों और मस्तिष्क को हानि पहुँचती है।
17– खड़े होकर जल पीने से घुटनों (जोड़ों) में पीड़ा होती है।
18– खड़े होकर मूत्र-त्याग करने से रीढ़ की हड्डी को हानि होती है।
19– भोजन पकाने के बाद उसमें नमक डालने से रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) बढ़ता है।
20– जोर लगाकर छींकने से कानों को क्षति पहुँचती है।
21– मुँह से साँस लेने पर आयु कम होती है।

22– पुस्तक पर अधिक झुकने से फेफड़े खराब हो जाते हैं और क्षय (टीबी) होने का भी डर रहता है।
23– चैत्र माह में नीम के पत्ते खाने से रक्त शुद्ध हो जाता है, मलेरिया नहीं होता है।
24– तुलसी के सेवन से मलेरिया नहीं होता है।
25– मूली प्रतिदिन खाने से व्यक्ति अनेक रोगों से मुक्त रहता है।
26– अनार आंव, संग्रहणी, पुरानी खांसी व हृदय रोगों के लिए सर्व श्रेष्ठ है।
27– हृदय-रोगी के लिए अर्जुन की छाल, लौकी का रस, तुलसी, पुदीना, मौसमी, सेंधा नमक, गुड़, चोकर-युक्त आटा, छिलके-युक्त अनाज औषधियां हैं।
28– भोजन के पश्चात् पान, गुड़ या सौंफ खाने से पाचन अच्छा होता है। अपच नहीं होता है।
29– अपक्व भोजन (जो आग पर न पकाया गया हो) से शरीर स्वस्थ रहता है और आयु दीर्घ होती है
30– मुलहठी चूसने से कफ बाहर आता है और आवाज मधुर होती है।
31– जल सदैव ताजा (चापाकल, कुएं आदि का) पीना चाहिये, बोतलबंद (फ्रिज) पानी बासी और अनेक रोगों के कारण होते हैं।
32– नीबू गंदे पानी के रोग (यकृत, टाइफाइड, दस्त, पेट के रोग) तथा हैजा से बचाता है।
33– चोकर खाने से शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है। इसलिए सदैव गेहूं मोटा ही पिसवाना चाहिए।
34– फल, मीठा और घी या तेल से बने पदार्थ खाकर तुरन्त जल नहीं पीना चाहिए।
35– भोजन पकने के 48 मिनट के अन्दर खा लेना चाहिए। उसके पश्चात् उसकी पोशकता कम होने लगती है। 12 घण्टे के बाद पशुओं के खाने लायक भी नहीं रहता है।
36– मिट्टी के बर्तन में भोजन पकाने से पोष्कता 100%, कांसे के बर्तन में 97%, पीतल के बर्तन में 93%, अल्युमिनियम के बर्तन और प्रेशर कुकर में 7-13% ही बचते हैं।
37– गेहूँ का आटा 15 दिनों पुराना और चना, ज्वार, बाजरा, मक्का का आटा 7 दिनों से अधिक पुराना नहीं प्रयोग करना चाहिए।
38– 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को मैदा (बिस्कुट, ब्रैड, समोसा आदि) कभी भी नहीं खिलाना चाहिए।
39– खाने के लिए सेंधा नमक सर्वश्रेष्ठ होता है उसके बाद काला नमक का स्थान आता है। सफेद नमक जहर के समान होता है।
40– जल जाने पर आलू का रस, हल्दी, शहद, घृतकुमारी में से कुछ भी लगाने पर जलन ठीक हो जाती है और फफोले नहीं पड़ते।
41– सरसों, तिल, मूंगफली या नारियल का तेल ही खाना चाहिए। देशी घी ही खाना चाहिए है। रिफाइंड तेल और वनस्पति घी (डालडा) जहर होता है।
42– पैर के अंगूठे के नाखूनों को सरसों तेल से भिगोने से आँखों की खुजली लाली और जलन ठीक हो जाती है।
43– पान खाने का चूना 70 रोगों को ठीक करता है।
44– चोट, सूजन, दर्द, घाव, फोड़ा होने पर उस पर 5-20 मिनट तक चुम्बक रखने से जल्दी ठीक होता है। हड्डी टूटने पर चुम्बक का प्रयोग करने से आधे से भी कम समय में ठीक होती है।
45– मीठे में मिश्री, गुड़, शहद, देशी (कच्ची) चीनी का प्रयोग करना चाहिए सफेद चीनी जहर होता है।
46– कुत्ता काटने पर हल्दी लगाना चाहिए।
47– बर्तन सदा मिटटी के ही प्रयोग करने चाहिए।
48– टूथपेस्ट और ब्रुश के स्थान पर दातुन और मंजन करना चाहिए दाँत मजबूत रहेंगे। (आँखों के रोग में दातुन नहीं करना)
49– यदि सम्भव हो तो सूर्यास्त के पश्चात् न तो पढ़े और लिखने का काम तो न ही करें तो अच्छा है।
50– निरोग रहने के लिए अच्छी नींद और अच्छा (ताजा) भोजन अत्यन्त आवश्यक है।
51– देर रात तक जागने से शरीर की प्रतिरोधक शक्ति कमजोर हो जाती है। भोजन का पाचन भी ठीक से नहीं हो पाता है आँखों के रोग भी होते हैं।
52– प्रातः का भोजन राजकुमार के समान, दोपहर का राजा और रात्रि का भिखारी के समान करना चाहिये ।


कुंडली में गण क्या होते हैं ? – कुण्डली में गण-मिलान – WHAT ARE ‘GANS’ IN A HOROSCOPE – WHAT IS ‘GAN-MILAN’ (GAN-MATCHING), FOR MARRIAGE ?

  1. कुंडली में गण क्या होते हैं ? :
    वैदिक ज्योतिष में 27 नक्षत्र है, जिनमे हर नक्षत्र के 4 पद हैं। कुल मिला के 108 पद हैं, जो हमारी 12 राशियों में विभाजित हैं. जो लोग ज्योतिष के बारे में ज़्यादा नहीं जानते, बस ऐसा समझ लीजिए कि हमारी 12 राशियां के 27 नक्षत्र, 3 बड़े हिस्सो में विभाजित हैं – देव गण, मनुष्य गण, राक्षस गण। (हर गण में 9 नक्षत्र आते हैं)
    गण देखने के लिए, सबसे पहले अपने चन्द्रमा की राशि और नक्षत्र देखें। फिर देखें आपका नक्षत्र किस विभाजित हिस्से में आता है। मान लीजिए, आप स्वाति नक्षत्र के है, तो आपका गण देव गण हुआ।
  2. अब जानते हैं गण की विशेषताएं :

i. देव गण :
जिन जातकों का जन्म अश्विनी, मृगशिरा, पुर्नवासु, पुष्‍य, हस्‍त, स्‍वाति, अनुराधा, श्रावण, रेवती नक्षत्र में होता है, वे देव गण के जातक होते हैं।
“सुंदरों दान शीलश्च मतिमान् सरल: सदा। अल्पभोगी महाप्राज्ञो तरो देवगणे भवेत्।।”
इसका अर्थ है – देव गण में जन्मे जातक सुंदर, दान में विश्वास करने वाले, विचारों में श्रेष्ठ, बुद्धिमान होते हैं। इनको सादगी बेहद प्रिय है, जिस काम को करने का प्रण लेते हैं उसको करके ही मानते हैं।

ii. मनुष्य गण :
जिन जातकों का जन्म भरणी, रोहिणी, आर्दा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तर फाल्गुनी, पूर्व षाढ़ा, उत्तर षाढा, पूर्व भाद्रपद, उत्तर भाद्रपद में होता है, वे मनुष्य गण के जातक होते हैं।
“मानी धनी विशालाक्षो लक्ष्यवेधी धनुर्धर:। गौर: पोरजन ग्राही जायते मानवे गणे।।”
इसका अर्थ है – ऐसे जातक स्वाभिमानी, धनी, विशाल नेत्र वाला, चतुर, अपने लक्ष्य को पाने वाला, धनुर्धर, अपने साथी लोगो को ग्रह करने वाला यानी उन पर अपनी छाप छोड़ने वाला होता है।

iii. राक्षस गण :
जिन जातकों का जन्म अश्लेषा, विशाखा, कृत्तिका, चित्रा, मघा, ज्येष्ठा, मूल, धनिष्ठा, शतभिषा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग राक्षण गण के अधीन माने जाते हैं।
“उन्मादी भीषणाकार: सर्वदा कलहप्रिय:। पुरुषो दुस्सहं बूते प्रमे ही राक्षसे गण।।”
राक्षस गण के जातक उन्माद से भरपूर, हमेशा कलह करने वाले, भीषण रूप वाले यानी हमेशा बिगड़े हुए दिखने वाले, दूसरों के अवगुण पहचानने वाले होते हैं। इनको गलत चीज़ें होने का पूर्वाभास भी हो जाता है।

  1. शादी के वक्त जो अष्टकूट मिलान किया जाता है, उनमें से गण दोष को भी देखा जाता है। आप बिना जाने उनके व्यक्तित्व के बारे में सिर्फ एक हिंट Hint जान सकते हैं। पूरी तरह उसपर निर्भर नहीं किया जा सकता, क्योंकि व्यक्तित्व बहुत चीज़ों से मिल कर बनता है।

i. गण मिलान :
देव गण, मनुष्‍य गण और राक्षस गण – इन तीन गणों के आधार पर विवाह से पूर्व लड़का और लड़की के गणों का मिलान किया जाता है. हिंदू धर्म में विवाह से पूर्व कुंडली मिलान का बहुत महत्‍व है. कुंडली मिलान के अंतर्गत ही गण मिलान भी आता है. इस मिलान के अंतर्गत अंक प्रदान किए जाते हैं.

ii. उत्तम मिलान :
यदि लड़का और लड़की दोनों के गण समान यानि अगर दोनों देव गण या मनुष्‍य गण के हैं तो ये मिलान उत्तम माना जाता है. इन्‍हें 6 में से 6 अंक प्राप्‍त होते हैं.

iii. सामान्‍य मिलान :
इसके अतिरिक्‍त अगर लड़के का गण देव और लड़की का गण मनुष्‍य हो तो भी 6 में से 6 अंक प्राप्‍त होते हैं. लड़का और लड़की का गण मनुष्‍य और देव हो तो ये गण मिलान सामान्‍य माना जाता है. ऐसे मिलान में 6 में से 5 अंक दिए जाते हैं.

iv. अशुभ मिलान :
यदि लड़का और लड़की दोनों देव-राक्षस और राक्षस-देव गण के हों तो यह गण मिलान अशुभ समझा जाता है. क्‍योंकि राक्षस और देव का कोई मैच नहीं होता. इन्‍हें 6 में से 1 अंक दिया जाता है.

v. अति अशुभ मिलान :
साथ ही अगर लड़का-लड़की दोनों ही मनुष्‍य-राक्षस या राक्षस-मनुष्‍य गण के हैं तो ये गण मिलान बहुत ज्‍यादा अशुभ समझा जाता है. इन्‍हें 6 में से 0 अंक प्रदान किए जाते हैं.

vi. गण दोष :
ज्‍योतिषशास्‍त्र के अनुसार गण मिलान में जहां किसी को 0 या 1 अंक प्राप्‍त हों, वहां गण दोष बनता है. इसके कारण अलगाव, तलाक या वैवाहिक जीवन में अनेक प्रकार की समस्‍याएं आती हैं.

तो अब बताइए आप किस गण के है ?
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आप का आज का दिन मंगलमयी हो – आप स्वस्थ रहे, सुखी रहे – इस कामना के साथ।


: क्यों ईमानदार लोगों को जीवन में मुश्किलें अधिक आती हैं ? सच बोलने वाले लोगों को को कम पसंद क्यों किया जाता है ? – सफलता का एक मन्त्र – WHY HONEST & TRUTHFUL PEOPLE FACE REJECTION & DIFFICULTIES, IN LIFE ? – A ‘MANTRA FOR SUCCESS, FOR THE HONEST :

सफलता का एक मन्त्र – अगर पूरी मेहनत और ईमानदारी से काम करते हैं, तो भी कुछ लोगों को सफलता क्यों नहीं मिलती – इस छोटे से लेख में आपको सही दिशा मिलेगी :

  1. वैसे तो भाग्य का अपना योगदान होता है, उसके लिए तो व्यक्ति के ग्रह ही बताएँगे, कि वह कौन से उपाय करे और रत्न पहने, जिस से उसकी मुश्किलें कम हो और सफलता मिले, पर यह लेख ज्योतिषीय दृष्टि से नहीं, एक और नज़रिये से लिखा है. यह मेरे व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित है.
  2. यह कहीं नहीं लिखा, कि अगर आप मेहनती और ईमानदार हैं, तो सभी को झूठे, मक्कार, या बेईमान समझें. अगर आप ईमानदार हैं, तो चिड़चिड़े और शुष्क मिज़ाज़ होने का क्या औचित्य है ? यह बात नौकरी पेशा लोगों पर भी उतनी ही लागू है, जितनी दुकानदारों पर. एक तो इस कलियुग में सोना कम चमकता है, और पीतल अधिक. जो लोग मीठी-2 बातें करते हैं, वोह आफिस में बॉस को अधिक प्रिय लगते हैं और ग्राहक को भी. चाहे वोह ऑफिस में काम कम करें, या ग्राहकों को नकली, या महँगा सामान क्यों न दे. उसके बाबजूद, आप इस ‘कमी’ को अपने मीठे व्यवहार और कोमल भाषा से पूरा करने की जगह, अगर कड़वे बोल और झगड़ालू व्यवहार से दूसरों के मुकाबले अपने को निर्बल स्थिति में ले आते हैं.
  3. आपकी ईमानदारी सोना है. अगर आप उसे अपने मीठे, ठन्डे और सब्र वाले व्यवहार से थोड़ा पॉलिश भी कर दें , तो कोई भी पीतल इसके आगे टिक नहीं पायेगा. आप आज़मा कर देखें. ईमानदारी, मेहनत के साथ नम्र व्यवहार सोने पर सुहागा है, और इसको कोई भी ओछा इन्सान काट नहीं पायेगा. यह कहाँ लिखा है, कि अगर ‘माल’ अच्छा है, तो उसे चमका कर और सुन्दर न बनायें ? अगर किसी को भगवान ने सुन्दर बनाया है, तो क्या उसे अपने बाल बिखरे-2 और शक्ल-सूरत को बिना सजाये रखना चाहिए ? क्या उसे सलीके के कपडे पहनकर अपने व्यक्तित्व को और निखारना नहीं चाहिए ?
    सच्चाई और ईमानदारी का भी एक घमण्ड होता है और यह घमण्ड अन्य कई घमण्डों से भी भारी और भयङ्कर होता है. मज़ेदार बात यह है, कि इसमें व्यक्ति को यह पता भी नहीं होता, कि उसके व्यवहार से घमण्ड झलकता है.
  4. अगर आप सच्चे और ईमानदार हैं, तो अच्छी बात है. इसे दूसरों के ऊपर एहसान न समझें ! बहुत से ऐसे व्यक्ति पहले से ही अपने सब्र की सीमा पर होते हैं और जरा सा किसी के सवाल पर बस उबल पड़ते हैं. हम ऐसे ईमानदार दुकानदारों को जानते हैं, जो ग्राहक के पूछने पर, कि क्या माल सही, या असली है, या फिर दाम कम करने को कहने पर, एकदम फट पड़ते हैं : बहिन जी, आप दूसरी दुकान से ही ले लो,… आपको तो ऐसे ठग ही चाहियें, … वगैरा-2 .
  5. एक आखिरी बात – ईमानदार और सच्चे होने का मतलब है, कि झूठ न बोलें. पर, यह आवश्यक भी नहीं, कि आप हर किसी को पूरी बात बताएं. बात उतनी ही बताएं, जो झूठ भी न हो, पर आपका काम भी चल जाये. झूठे होना और व्यवहार-कुशल, या व्यावहारिक होना, दोनों अलग हैं. सच्चे होने का मतलब यह भी नहीं, कि आप हर किसी को सारी बात स्पष्ट करें. कुछ नीति से, कुछ अनुभव से, बात को घुमाना भी पड़ता है. कभी-कभी इस दुनिया में झूठ का सहारा, आदत के तौर पर नहीं, पर अपवाद के तौर पर ले लेने में भी भलाई हो सकती है. आपको यह देखना होगा, कि अगर उस झूठ से सामने वाले का कोई अहित, या हानि नहीं हो रही, और कई बार उसमें उसका लाभ छुपा है, तो कभी-कभी आपात अवस्था में इसका सहारा लिया जा सकता है. मत भूलिए, कि यह कलयुग है !
  6. …और अपने दिल पर हाथ रखकर कभी सोचिये, कि आपके जीवन की मुश्किलें केवन सच्चाई और ईमानदारी के कारण हैं ? क्या कहीं इस चक्कर में आप स्वयं को धोखा तो नहीं दे रहे ? कहीं आप ईमानदारी के वेश में, उसकी आड़ में छुपे हुए बहुत बड़े धोखेबाज तो नहीं हैं ?
    🍃🌼🍃🌼🍃🌼🍃🌼🍃🌼🍃🌼
    आप का आज का दिन मंगलमयी हो – आप स्वस्थ रहे, सुखी रहे – इस कामना के साथ।


[राजा अश्वघोष को वैराग्य हो गया उन्होंने संसार से विरक्त होकर घर-परिवार त्याग दिया और ईश्वर दर्शन की अभिलाषा में इधर – उधर भटकने लगे। वह अनेक शहरों और गांवों में गए पर कहीं मन को शांति नहीं मिली – वह समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर प्रभु को पाने की उनकी चाह कैसे पूरी होगी ? एक बार भूख – प्यास से व्याकुल वह एक किसान के पास पहुंचे। किसान अपने खेत में प्रसन्नचित्त काम कर रहा था – अश्वघोष को आश्चर्य हुआ । वह सोच नहीं पा रहे थे कि किसान की खुशी का रहस्य क्या हो सकता है ?
अश्वघोष ने पूछ ही लिया – मित्र ! तुम्हारी प्रसन्नता का रहस्य क्या है ? उसने हंसते हुए उत्तर दिया – ईश्वर दर्शन ! यह सुनकर अश्वघोष चौंके – उनके भीतर उत्सुकता जागी कि आखिर इसने किस तरीके से भगवान का दर्शन पा लिया – मैं महीनो से भटक रहा हूँ मुझे ऐसा सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ अवश्य यह किसान मुझे लक्ष्य तक पहुंचा सकता है। उन्होंने किसान से कहा – मुझे भी उस परमात्मा का दर्शन कराओ। किसान ने कहा – अवश्य मान्यवर – फिर उसने थोड़े चावल निकाले, उन्हें पकाया और उसके दो भाग किए। एक अपने लिए और दूसरा अश्वघोष के लिए – दोनों ने चावल खाए। फिर किसान अपने काम में लग गया
कई दिन की थकावट के कारण अश्वघोष सो गए। जब वह सो कर उठे तो अद्भुत स्फूर्ति महसूस कर रहे थे – उनके चेहरे पर संतोष का भाव था। किसान ने उन्हें देखकर मुस्कराते हुए पूछा – अच्छी नींद आई न ? वह बोले – हां – बहुत दिनों के बाद इतना सुख मिला, मैं समझ गया मित्र। तुम्हारे पास आकर मैं धन्य हो गया। कर्म से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है – घर से भागकर भटकने से नहीं। तुम दिन – रात मेहनत करते हो – इसलिए सही अर्थों में तुम ही ईश्वर के निकट हो।अश्वघोष ने उस दिन से भटकना छोड़ दिया और अपने राजकाज में लग गए। अब वह अपने कार्य के साथ ही ईश्वरोपासना करते थे
अपने कर्मो का सदमार्ग से प्रतिपादन करना और उस समय भी ईश्वर को अपने चित्त में धारण करना ही सच्ची उपासना है

कर्म भोग-प्रारब्ध ……..

एक गाँव में एक किसान रहता था उसके परिवार
में उसकी पत्नी और एक लड़का था।कुछ सालों के बाद पत्नी मृत्यु हो गई उस समय लड़के की उम्र दस साल थी किसान ने दुसरी शादी कर ली
उस दुसरी पत्नी से भी किसान को एक पुत्र प्राप्त हुआ।किसान की दुसरी पत्नी की भी कुछ समय बाद मृत्यु हो गई
किसान का बड़ा बेटा जो पहली पत्नी से प्राप्त हुआ था जब शादी के योग्य हुआ तब किसान ने बड़े बेटे की शादी कर दी।फिर किसान की भी कुछ समय बाद मृत्यु हो गई
किसान का छोटा बेटा जो दुसरी पत्नी से प्राप्त हुआ था और पहली पत्नी से प्राप्त बड़ा बेटा दोनो साथ साथ रहते थे
कुछ टाईम बाद किसान के छोटे लड़के की तबीयत खराब रहने लगी
बड़े भाई ने कुछ आस पास के वैद्यों से ईलाज
करवाया पर कोई राहत ना मिली।छोटे भाई की दिन पर दिन तबीयत बिगड़ी जा रही थी और बहुत खर्च भी हो रहा था
एक दिन बड़े भाई ने अपनी पत्नी से सलाह की, यदि ये छोटा भाई मर जाऐ तो हमें इसके ईलाज के लिऐ पैसा खर्च ना करना पड़ेगा
तब उसकी पत्नी ने कहा: कि क्यों न किसी वैद्य से बात करके इसे जहर दे दिया जाऐ किसी को पता भी ना चलेगा कोई रिश्तेदारी में भी कोई शक ना करेगा कि बिमार था बिमारी से मृत्यु हो गई
बड़े भाई ने ऐसे ही किया एक वैद्य से बात की आप अपनी फीस बताओ और ऐसा करना
मेरे
छोटे भाई को जहर देना है!
वैद्य ने बात मान ली और लड़के को जहर दे दिया और लड़के की मृत्यु हो गई।उसके भाई
भाभी ने खुशी मनाई की रास्ते का काँटा निकल गया अब सारी सम्पति अपनी हो गई
उसका अतिँम संस्कार कर दिया।कुछ महीनो पश्चात उस किसान के बड़े लड़के की पत्नी को लड़का हुआ!
उन पति पत्नी ने खुब खुशी मनाई,बड़े ही लाड प्यार से लड़के की परवरिश की गिने दिनो में लड़का जवान हो गया।उन्होंने अपने लड़के की शादी कर दी!
शादी के कुछ समय बाद अचानक लड़का बीमार रहने लगा।माँ बाप ने उसके ईलाज के लिऐ बहुत वैद्यों से ईलाज करवाया
जिसने जितना पैसा माँगा दिया सब दिया कि लड़का ठीक हो जाऐ
अपने लड़के के ईलाज में अपनी आधी सम्पति तक बेच दी पर लड़का बिमारी के कारण मरने की कगार पर आ गया
शरीर इतना ज्यादा कमजोर हो गया कि अस्थि पिजंर शेष रह गया था
एक दिन लड़के को चारपाई पर लेटा रखा था और उसका पिता साथ में बैठा अपने पुत्र की ये दयनीय हालत देख कर दुःखी होकर उसकी और देख रहा था!
तभी लड़का अपने पिता से बोला, कि भाई! अपना सब हिसाब हो गया बस अब कफन और लकड़ी का हिसाब बाकी है उसकी तैयारी कर लो
ये सुनकर उसके पिता ने सोचा कि लड़के का
दिमाग भी काम ना कर रहा बीमारी के कारण और बोला बेटा मैं तेरा बाप हुँ, भाई नहीं
तब लड़का बोला मै आपका वही भाई हुँ जिसे
आप ने जहर खिलाकर मरवाया था जिस सम्पति के लिऐ आप ने मरवाया था मुझे
अब
वो मेरे ईलाज के लिऐ आधी बिक चुकी है आपकी की शेष है हमारा हिसाब हो गया!
तब उसका पिता फूट-फूट कर रोते हुवे बोला, कि मेरा तो कुल नाश हो गया जो किया मेरे आगे आ गया पर तेरी पत्नी का क्या दोष है जो इस बेचारी को जिन्दा जलाया जायेगा(उस समय सतीप्रथा थी, जिसमें पति के मरने के बाद पत्नी को पति की चिता के साथ जला दिया जाता था)
तब वो लड़का बोला:-
कि वो वैद्य कहाँ, जिसने मुझे जहर खिलाया था
तब उसके पिता ने कहा कि आपकी मृत्यु के तीन साल
बाद वो मर गया था
तब लड़के ने कहा -कि
ये वही दुष्ट वैद्य
आज
मेरी पत्नी रुप में है मेरे मरने पर इसे
जिन्दा जलाया जायेगा
परमेश्वर कहते हैं कि
तुमने उस दरगाह का,
महल ना देखा धर्मराज लेगा,
तिल तिल का लेखा।।N
एक लेवा एक देवा दुतम,
कोई किसी का पिता ना पुत्रम
ऋण सबंध जुड़ा है ठाडा,
अंत समय सब बारह बाटा ।।

एक बेहतरीन प्राप्त संदेश सभी के मनन् के लिये
अच्छा लगे तो ही आगे भेजना।
‘हमारे कर्मो का फल।’
[ आज्ञा चक्र यानि तीसरी आँख कि शक्ति
बहुत सारे लोगो कि जिज्ञासा थी आचार्य जी थोड़ा तीसरी आँख “थर्ड आई”के बारे मे कभी विस्तार से बताने कि कृपा करे दोस्तो इस रहस्य को मे खोलना नहीं चाहता था मगर आपके प्यार और विश्वास को मे खोना भी नही चाहता, इसलिऐ ज्यादा नही थोड़ा बहुत बताने का आपको प्रयास करता हूँ
सबसे पहले मे आपको बताना चाहता हूँ तीसरी आँख वो चमत्कारी आँख हैं जिसकी ऊर्जा के माध्यम से आप पूरे विश्व ब्रह्मांड किसी भी घटना को आप बहुत आसानी से देख सकते हैं दूसरी बात इसकी ऊर्जा को आप कही भी किसी भी रूप मे उपयोग कर सकते हैं चाहे वह कितनी भी जटिल क्यो ना इस ऊर्जा को प्राप्त करने के बाद सैकंड के लाख वे हिस्से मे आप किसी भी प्राणी के मन की बात आसानी से समझ सकते हो
सबसे पहली बात तो ये हैं की तीसरी आंख की ऊर्जा ही हमारी दोनो आंखों को सामान्य रूप चलाती है। और संसार के दृश्य परिदृश्यों को देखने का काम करती हैं जब बाहर की आँखो को कोई चीज पसंद आती हैं तो चोरी से उसे ये ग्रहण कर लेती हैं चाहे वह चीज अच्छी हो या बुरी हो इससे इसका मतलब कोई नही होता हैं समय आते ही उसे ये प्रगट कर देती हैं

जब हम सामान्य आँखो से देखना बंद कर देते हैं तो ये ऊर्जा सामान्य आंखों में बहना बंद कर देते हैं तो ये तीसरी आंख में बहने लगती है। और जब ऊर्जा तीसरी आंख में ये ऊर्जा बहने लगती है तो हमारी सामान्य आंखें देखना बंद कर देती हैं। तब उनके रहते हुए भी तुम उनके द्वारा कुछ नहीं देखते हो। जो ऊर्जा उनमें बहती थी वह वहां से हटकर एक नए केंद्र पर गतिमान हो जाती है। यह केंद्र दो आंखों के बीच में स्थित है। तीसरी आंख बिलकुल तैयार है; वह किसी भी क्षण सक्रिय हो सकती है। इसके लिए सामान्य ऊर्जा को तीसरी आँख पर लाना होता हैं

दूसरी बात, जब तुम सामान्य आंखों से देखते हो तब तुम सचमुच स्थूल शरीर से देखते हो। तीसरी आंख स्थूल शरीर का हिस्सा नहीं है; यह दूसरे शरीर का हिस्सा है, जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं। स्थूल शरीर के भीतर उसके जैसा ही सूक्ष्म शरीर भी है;लेकिन यह स्थूल शरीर का हिस्सा नहीं है। यही वजह है

कि शरीर—शास्त्र यह मानने को राजी नहीं है कि तीसरी आंख या उसकी जैसी कोई चीज है। तुम्हारी खोपड़ी की खोज—बीना की जा सकती है, एक्सरे के द्वारा उसे देखा—परखा जा सकता है। लेकिन उसमें कहीं भी वह चीज नहीं मिलेगी जिसे तीसरी आंख कहा जा सके। तीसरी आंख सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है।

जब तुम मरते हो तो तुम्हारा स्थूल शरीर ही मरता है; तुम्हारा सूक्ष्म शरीर तुम्हारे साथ जाता है और वह दूसरा जन्म लेता है। जब तक तुम्हारा सूक्ष्म शरीर नहीं मरेगा तब तुम जन्म—मरण के, आवागमन के चक्कर से मुक्त नहीं हो सकते और तब तक संसार चलता रहेगा।’’

तीसरी आंख सूक्ष्म शरीर का अंग है। जब ऊर्जा स्थूल शरीर में गतिमान रहती है तो तुम अपनी स्थूल आंखों से देख पाते हो। यही कारण है कि स्थूल आंखों से तुम स्थूल को ही देख सकते हो, पदार्थ को ही देख सकते हो; अन्‍य किसी चीज को नहीं देख सकते। सामान्य आंखें भौतिक हैं। इन आंखों से तुम उसे नहीं देख सकते जो अशरीरी है। तीसरी आंख के सक्रिय होते ही तुम एक नए आयाम में प्रवेश करते हो। अब तुम वे चीजें देख सकते हो जो स्थूल आंखों के लिए दृश्य नहीं हैं। लेकिन वे सूक्ष्म आंखों के लिए दृश्य हो जाती हैं।

तीसरी आंख के सक्रिय होने पर अगर तुम किसी आदमी पर निगाह डालोगे तो तुम उसकी आत्मा में झांक लोगे। यह वैसे ही है जैसे स्थूल आंखों से स्थूल शरीर तो दिखाई देगा, लेकिन आत्मा दिखाई नहीं देगी। तीसरी आंख से देखने पर तुम्हें जो दिखाई देगा वह शरीर नहीं होगा; वह वह होगा जो शरीर के भीतर रहता है।

इन दो बातों को स्मरण रखो। पहली, एक ही ऊर्जा दोनों जगह गति करती है, उसे सामान्य स्थूल आंखों से हटाकर ही तीसरी आंख में गतिमान किया जा सकता है। दूसरी बात कि तीसरी आंख स्थूल शरीर का हिस्सा नहीं है। वह सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है, जिसे हम दूसरा शरीर भी कहते हैं। क्योंकि तीसरी आंख सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है, इसलिए जिस क्षण तुम इसके द्वारा देखते हो तुम्हें सूक्ष्म जगत दिखाई पड़ने लगता है।

तुम यहां बैठे हो। अगर एक प्रेत भी यहां बैठा हो तो वह तुम्हें नहीं दिखाई देगा। लेकिन अगर तुम्हारी तीसरी आंख काम करने लगे तो तुम प्रेत को देख लोगे। क्योंकि सूक्ष्म अस्तित्व सूक्ष्म आंखों से ही देखा जा सकता है।

जब तुम सामान्य आँखो की ऊर्जा को यहाँ स्थापित करते हो तो उनके भीतर भी ऊर्जा का प्रवाह भी ठहर जाता है। इसी ऊर्जा के कारण आपकी आँखे गति करती हैं अगर ऊर्जा गति न करे तो तुम्हारी आंखें मुर्दों की आंखों जैसी हो जाएंगी—पथराई और मृत। किसी स्थान पर दृष्टि स्थिर करने से, इधर—उधर देखे बिना उस पर टकटकी बांधने से एक गतिहीनता पैदा होती है। जो ऊर्जा दोनों आंखों में गतिमान थी वह अचानक गति बंद कर देगी।

लेकिन गति करना ऊर्जा का स्वभाव है; ऊर्जा गतिहीन नहीं हो सकती। आंखें गतिहीन हो सकती हैं, लेकिन ऊर्जा नहीं। इसलिए जब ऊर्जा इन दो आंखों से वंचित कर दी जाती है, जब उसके लिए आंखों के द्वार अचानक बंद कर दिए जाते हैं, जब उनके द्वारा ऊर्जा की गति असंभव हो जाती है, तो वह ऊर्जा अपने स्वभाव के अनुसार नए मार्ग ढूंढने में लग जाती है। और तीसरा नेत्र निकट ही है, दो भृकुटियों के बीच, आधा इंच अंदर है। उस ऊर्जा के लिए वह निकटतम बिंदु है।

इसलिए जब ऊर्जा दोनों आंखों से मुक्त हो जाती है तो पहली बात यह होती है कि वह तीसरी आंख से बहने लगती है। यह ऐसा ही है जैसे कि पानी बहता हो और तुम उसके एक छेद को बंद कर दो, वह तुरंत निकटतम दूसरे छेद को ढूंढ लेगा। जो निकटतम छेद होगा और म् जो न्यूनतम प्रतिरोध पैदा करेगा, उसे पानी ढूंढ लेगा। वह छेद अपने आप ही मिल जाता है,

उसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता है। ज्यों ही इन दो आंखों से ऊर्जा का बहना बंद करोगे, त्यों ही ऊर्जा अपना मार्ग ढूंढ लेगी और वह तीसरी आंख से बहने लगेगी।

तब तुम ऐसी चीजें देखने लगते हो जिन्हें कभी न देखा था; ऐसी चीजें महसूस करने लगते हो जिन्हें कभी नहीं महसूस किया था। और तब तुम्हें ऐसी सुगंधों का अनुभव होगा जिन्हें जीवन में कभी नहीं जाना था। तब एक नया लोक, एक सूक्ष्म लोक सक्रिय हो जाता है। यह नया लोक अभी भी है। तीसरी आंख भी है, सूक्ष्म लोक भी है, दोनों हैं; लेकिन अप्रकट हैं। एक बार जब तुम उस आयाम में सक्रिय होकर प्रवेश करते हो तो तुम्हें ये बहुत सी चीजें दिखाई देने लगेंगी।

उदाहरण के लिए, अगर कोई आदमी मरणासन्न है और तुम्हारी तीसरी आंख सक्रिय है तो तुम तुरंत जान लोगे कि यह आदमी अब जाने वाला है। कोई भी शारीरिक विश्लेषण, कोई भी चिकित्सा—निदान निश्चयपूर्वक नहीं बता सकता है कि यह आदमी मरेगा। वे ज्यादा से ज्यादा संभावना की बात कह सकते हैं; कह सकते हैं कि शायद यह आदमी मरेगा। यह वक्तव्य भी सशर्त होगा कि यदि ऐसी—ऐसी हालतें रहीं तो यह आदमी मरेगा, या यदि कुछ किया जाए तो यह नहीं मरेगा।

चिकित्सा—विज्ञान अभी भी मृत्यु के संबंध में अनिश्चित है। क्यों? इतने विकास के बावजूद यह मृत्यु के संबंध में इतना अनिश्चित क्यों है? असल में चिकित्सा—विज्ञान शारीरिक लक्षणों के द्वारा मृत्यु के संबंध में अपनी निष्पत्ति निकालता है। लेकिन मृत्यु शारीरिक नहीं, सूक्ष्म घटना है। यह किसी भिन्न आयाम की एक अदृश्य घटना है।

लेकिन यदि तीसरी आंख सक्रिय हो जाए और कोई आदमी मरने वाला हो तो तुम यह जान लोगे। यह कैसे जाना जाता है?

मृत्यु का अपना प्रभाव होता है। अगर कोई मरने वाला होता है तो समझो कि मृत्यु ने पहले ही उस पर अपनी छाया डाल दी होती है। और तीसरी आंख से इस छाया को महसूस किया जा सकता है, देखा जा सकता है।

जब एक बच्चा जन्म लेता है तो जिन्हें तीसरी आंख के प्रयोग का गहरा अभ्यास है वे उसी क्षण उसकी मृत्यु का समय भी जान ले सकते हैं। लेकिन उस समय मृत्यु की छाया अत्यंत सूक्ष्म होती है। लेकिन .किसी की मृत्यु के छह महीने पहले वह व्यक्ति भी कह सकता है कि यह आदमी मरने वाला है जिसकी तीसरी आंख थोड़ी भी सक्रिय हो गई है। असल में उस समय तुम्हारे चारों तरफ एक काली छाया सघन हो जाती है और उसे देखा जा सकता है। लेकिन सामान्य आंखों से उसे नहीं देखा जा सकता है।

तीसरी आंख के खुलते ही तुम्हें लोगों का प्रभामंडल दिखाई देने लगता है। अब कोई आदमी आकर तुम्हें धोखा नहीं दे सकता है; क्योंकि अगर उसकी कथनी उसके प्रभामंडल से मेल नहीं खाती है तो वह कथनी दो कौड़ी की है। वह कह सकता है कि मुझे कभी क्रोध नहीं आता है,

लेकिन उसका लाल प्रभामंडल बता देगा कि वह क्रोध से भरा है। वह तुम्हें धोखा नहीं दे सकता है। जहां तक उसके प्रभामंडल का सवाल है, उसे इसका कुछ पता नहीं है। लेकिन तुम उसका प्रभामंडल देखकर कह सकते हो कि उसका वक्तव्य सही है या गलत। तीसरी आंख के खुलते ही सूक्ष्म प्रभामंडल दिखाई देने लगते हैं।

पुराने जमाने में शिष्य की दीक्षा में प्रभामंडल यानी शक्तिपात का उपयोग किया जाता था। जब तक तुम्हारा प्रभामंड़ल सम्यक नही होता तब तक गुरु उसकी प्रतीक्षा करता हैं । यह तुम्‍हारे चाहने की बात। तुम कह सकते हो कि मैं दीक्षा लेना चाहता हूं लेकिन उतना काफी नहीं है।

तुम्हारा प्रभामंडल देखकर जाना जा सकता है कि तुम तैयार हो या नहीं। इसलिए शिष्य को कितने वर्षों तक उस दीक्षा का इंतजार करना पड़ता था । शिष्यत्व तुम्हारे चाहने पर नहीं तुम्हारे प्रभामंडल पर निर्भर है। चाह यहां पर व्यर्थ है। कभी—कभी तो इसके लिऐ शिष्य को कई जन्मों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।

उदाहरण के लिए, बुद्ध ने ना जाने कितने वर्षों तक स्त्रियों को दीक्षित करने से अपने को रोके रखा। यद्यपि उन पर बहुत दबाव डाला गया;लेकिन वे राजी नहीं हुए। और अंत में जब वे राजी भी हुए तो उन्होंने कहा कि अब मेरा धर्म पांच सौ वर्षों के बाद जीवंत नहीं रहेगा; क्योंकि मैंने समझौता किया है। बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा कि मैं तुम्हारे आग्रह के दबाव के कारण स्त्रियों को दीक्षित करूंगा।

क्या कारण था कि बुद्ध स्त्रियों को दीक्षित नहीं करना चाहते थे?

एक बुनियादी कारण था जिसका संबंध प्रभामंडल से है। पुरुष की काम—ऊर्जा को बहुत आसानी से संयमित किया जा सकता है; पुरुष सरलता से ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकता है। लेकिन यह बात स्त्री के लिए कठिन है। स्त्री का मासिक— धर्म नियमित घटता है—अचेतन, अनियंत्रित और अनैच्छिक। वीर्यपात को तो नियंत्रित किया जा सकता है; लेकिन मासिक—स्राव को नियंत्रित नहीं किया जा स
और स्त्री जब अपने मासिक काल में होती है, उसका प्रभामंडल बिलकुल बदल जाता है। वह कामुक, आक्रमक और उदास हो जाती है। जो भी नकारात्मक भाव हैं वे हर महीने स्त्री को एक बार घेरते हैं। इसी कारण बुद्ध स्त्रियों को दीक्षा देने के पक्ष में नहीं थे। बुद्ध ने कहा कि स्त्री की दीक्षा कठिन है; क्योंकि हर महीने मासिक—धर्म वर्तुल में आता रहता है और उसके साथ ऐच्छिक रूप से कुछ भी नहीं किया जा सकता। अब कुछ किया जा सकता है; लेकिन वह बुद्ध के समय में कठिन था। अब वह किया जा सकता है।

महावीर ने तो स्त्री—पर्याय के लिए मोक्ष की संभावना को बिलकुल ही अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा कि स्त्री को पहले पुरुष—पर्याय में जन्म लेना होगा और तब उसे मोक्ष मिल सकता है। इसलिए पहले तो पूरी चेष्टा यह होनी चाहिए कि वह पुरुष—पर्याय में नया जन्म ले।

क्यों यह भी प्रभामंडल की समस्या थी। अगर तुम किसी स्त्री को दीक्षित करते हो तो हर महीने वह गिरेगी और सारा प्रयत्न व्यर्थ चला जाएगा। इसमें कोई भेदभाव का प्रश्न नहीं था; कोई समानता का सवाल नहीं था कि स्त्री और पुरुष समान हैं या नहीं; यह समता का प्रश्न नहीं था। महावीर के लिए प्रश्न यह था कि स्त्री की सहायता कैसे की जाए।

तो उन्होंने एक सरल रास्ता निकाला कि स्त्री पुरुष के पर्याय में जन्म ले, इसमें उसे सहयोग दिया जाए। यह ज्यादा सरल लगा। इसका मतलब था कि स्त्री को दूसरे जीवन के लिए ठहरना पड़ेगा और इस बीच उसे पुरुषपर्याय में नया जन्म दिलाने के सभी प्रयत्न किए जाएं। महावीर को यह बात सरल मालूम हुई। स्त्रियों को दीक्षित करना कठिन था; क्योंकि वे हर महीने लुढ़ककर अपनी बुनियादी स्थिति में लौट जाती हैं और उन पर किया गया सब श्रम व्यर्थ चला जाता है।

लेकिन पिछले दो हजार वर्षों में इस दिशा में बहुत काम हुए हैं; विशेषकर तंत्र ने बहुत काम किया है। तंत्र ने भिन्न—भिन्न द्वार खोज निकाले हैं। और तंत्र संसार में अकेली व्यवस्था है जो पुरूष और स्‍त्री में भेद नहीं करती। बल्‍कि इसके विपरीत तंत्र का मानना हे कि स्‍त्री अधिक आसानी से मुक्त हो सकती है। और कारण वही है; सिर्फ भिन्न दृष्टिकोण से देखा गया है।

क्योंकि स्त्री का शरीर समय समय पर संयमित होता रहता है, इसलिए पुरुष की अपेक्षा स्त्री अपने को शरीर से ज्यादा सरलता से अलग कर सकती है। क्योंकि मनुष्य का चित्त शरीर में ज्यादा आसक्त है, इसलिए वह शरीर को संयमित कर सकता है और इसीलिए वह अपनी कामवासना को भी संयमित कर सकता है।

लेकिन स्त्री अपने शरीर से उतनी नहीं बंधी है। उसका शरीर स्वचालित यंत्र की तरह चलता है—एक अगल तल पर, और स्त्री इस दिशा में कुछ नहीं कर सकती। स्त्री का शरीर स्वचालित यंत्र की तरह काम करता है। तंत्र कहता है कि इसीलिए स्त्री अपने को अपने शरीर से अधिक आसानी से पृथक कर सकती है। और अगर यह संभव हो—यह अनासक्ति, यह अंतराल—तों कोई समस्या नहीं रह जाती है, कोई भी समस्या नहीं रह जाती है।

तो यह बहुत विरोधाभासी है; लेकिन ऐसा है। यदि कोई स्त्री ब्रह्मचर्य धारण करना चाहे और अपने शरीर से पृथक रहना चाहे तो वह यह पुरुष की अपेक्षा अधिक आसानी से कर सकती है। वह अपनी पवित्रता अधिक आसानी से साध सकती है। एक बार शरीर से अनासक्ति सध जाए तो वह अपने शरीर को पूरी तरह भूल सकती है।

पुरुष बहुत सरलता से नियंत्रण कर सकता है; लेकिन उसका चित्त उसके शरीर से ज्यादा बंधा हुआ है। इसी कारण से नियंत्रण उसके लिए संभव है, लेकिन यह नियंत्रण उसे रोजरोज करना होगा, सतत करना होगा।

और चूंकि स्त्री की कामवासना अनाक्रमक
है, इसलिए वह इस दिशा में अधिक विश्रामपूर्ण हो सकती है, अधिक अनासक्त हो सकती है। पुरुष की कामवासना सक्रिय है। उसके लिए नियंत्रण तो आसान है; लेकिन अनासक्ति कठिन है।

तो तंत्र ने अनेक—अनेक उपाय खोजे हैं। और तंत्र अकेली व्यवस्था है जो स्त्री—पुरुष में भेद नहीं करता और कहता है कि स्त्री पर्याय का उपयोग भी किया जा सकता है। तंत्र अकेला मार्ग है जो स्त्री को समान हैसियत प्रदान करता है।

शेष सभी धर्म, कहते कुछ भी हों, अपने अंतस में यही समझते हैं कि स्त्री हीन पर्याय है। चाहे ईसाइयत हो, इस्लाम हो,जैन हो या बौद्ध हो, सब गहरे में यही मानते हैं कि स्त्री हीन पर्याय है। और इस मान्यता का कारण वही है—तीसरी आंख द्वारा किया गया निदान। हर महीने मासिक— धर्म के समय स्त्रियों का प्रभामंडल बदल जाता है।

तीसरी आंख के जरिए तुम उन चीजों को देखने में समर्थ हो जाते हो जो हैं, जिन्हें सामान्य आंखों से कभी नहीं देखा जा सकता। देखने की जितनी विधियां हैं वे सभी तीसरी आंख को प्रभावित करती हैं। कारण यह है कि देखने में जो ऊर्जा बाहर की ओर, संसार की ओर प्रवाहित होती है, वह अचानक रोक दिए जाने के कारण बहने के नए मार्ग ढूंढती है और निकट पड़ने के कारण तीसरी आंख पर पहुंच जाती है।

शक्तिपात कि परम्परा ये हमारे ऋषि मुनियों कि प्राचीन परम्परा हैं इसे थर्ड आई के जाग्रत होने पर ही किया जाता हैं थर्ड आई जाग्रत होने पर आपके साथ बहुत सारे चमत्कार होते हौ बहुत सी शक्तियाँ आपको प्राप्त हो जाती हैं

इच्छा मात्र से सभी वस्तुएँ आपकी और आकर्षित होने लगती हैं भविष्य या विश्व मे कही पर भी किसी भी अच्छी बुरी घटना को आप घर बैठे देख सकते हो और उसे अपने संकल्प मात्र से रोक भी सकते हो थर्ड आई जाग्रत होने के बाद आपके शरीर के प्रत्येक अंक ऊर्जा बहने लगती हैं जो सभी को अपनी और आकर्षित करने लगती हैं इसी शक्ति को प्राप्त करने के बाद हमारे ऋषि मुनि श्राप अथवा वरदान दिया करते हैं इसी शक्ति शक्ति के अन्दर संजीवनी शक्ति का प्रयोग किया जाता हैं जिसके द्वारा मृत व्यक्ति के शरीर मे प्राण ऊर्जा का संचार किया जाता हैं

दोस्तो तीसरी आँख के जाग्रत होने कितने लाभ होते इसे मे शब्दो मे आपसे नही बता सकता मगर इतना अवश्य कह सकता हूँ असंभव को संभव करना ही तीसरी आँख का काम होता हैं

कैसे अपनी थर्ड आई को जाग्रत करे इसके बारे मे फिर कभी चर्चा करेगे ये विषय बहुत गंभीर और सावधानी का होता हैं इसे वगैर किसी गुरु कि अनुमति के बिना ना करे किसी सुयोग्य तत्व ज्ञानी गुरु के सानिध्य मे रहकर ही इसे जाग्रत करे

जब ये जाग्रत हो जाऐ तो किसी अपने बारे मे बताने का प्रयास ना करे और ना ही प्रकृति के किसी क्रिया कलापों मे कोई दखल अंदाजी करे याद रखे ये धन कमाने का या चमत्कार दिखाने का साधन नही हैं

ये केवल प्रकृति के रहस्यों को जानने का एक साधन हैं इसके द्वारा आप प्रकृति के किसी रहस्य को आसानी से जान सकते हैं
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दान का पाप :

कबीर जी के जीवन का एक प्रसंग है। संत कबीर अपनी रोजी रोटी चलाने के लिए कपड़े बुना करते थे। एक बार दोपहर के समय जब कबीर दास जी कपड़े बुनने में लीन थे तभी उनके द्वार पर एक भिखारी आया। भिखारी बड़ा ही भूखा प्यासा मालूम होता था।

भिखारी को देखकर कबीर जी को बड़ी दया आयी और उन्होंने उसे ठंडा पानी पिलाया। भिखारी कई दिन से भूखा था इसलिए उसने कबीर जी से कुछ खाने को माँगा। उस समय कबीर दास जी के पास खाने की कोई सामग्री नहीं थी।

कुछ सोचकर कबीर जी ने कहा कि मित्र मेरे पास तुमको खिलाने को भोजन तो नहीं है, तुम मेरा ये ऊन का गोला ले जाओ और इसे बेचकर अपने लिए भोजन का इंतजाम कर लेना।

भिखारी ऊन का गोला लेकर चला गया। रास्ते में उसे एक तालाब दिखा, भिखारी ने ऊन का गोला निकाल कर उसका एक जाल बनाया और तालाब से मछली पकड़ने की कोशिश करने लगा। संयोग से उस तालाब काफी सारी मछलियां थीं अतः उसके जाल में कई मछलियां फंस गयी। अब तो वो भिखारी शाम तक मछली पकड़ता रहा।

काफी मछली इकट्ठी हो जाने पर उन्हें बाजार में बेच आया। अब वो भिखारी रोजाना तालाब में जाता और ऊन के जाल से खूब मछलियां पकड़ता। धीरे धीरे उसने मछली पकड़ने को ही अपना धंधा बना लिया। अब वो कई अच्छे किस्म के जाल भी खरीद लाया। ऐसा करते करते एक दिन वो काफी अमीर व्यक्ति बन गया। एक दिन उस भिखारी ने सोचा कि क्यों ना संत कबीर जी से मिलने जाया जाये और उनका धन्यवाद दिया जाये क्योंकि आज मैं उन्हीं की वजह से अमीर बन पाया हूँ।

जब वो भिखारी कबीर जी के पास गया तो अपने साथ सोने, चाँदी और रत्न लेकर आया। सभी सोना, चाँदी और रत्न उसने कबीर जी के चरणों में लाकर रख दिए लेकिन संत कबीर उस भिखारी को पहचान ना पाये। तब उस भिखारी ने सारी पुरानी बात याद दिलाई कि आपके ऊन के गोले की वजह से मैं आज इतना अमीर हो पाया।

उसकी पूरी बात सुनकर संत कबीर जी बड़े दुःखी हुए और बोले कि तुमने इतनी सारी मछलियों से उनका जीवन छीनकर पाप किया और क्योंकिये सब मेरे कारण हुआ है, इसलिये तुम्हारे आधे पाप का भागीदार मैं भी बन गया हूँ ।

संत कबीर जी ने भिखारी द्वारा दिया गया सोना चाँदी और रत्न को वापस लौटा दिया और भिखारी को मालिक की बन्दगी करते हुए अपने किये कर्मों का पश्चाताप करने का उपदेश दिया ।

कहने का भाव ये है कि असहाय लोगों की मदद जरूर करें लेकिन दान सोच समझ करें , अगर आपका दान किसी भले के लिए है और उस दान को सतकर्म में लगाया जा रहा है तो आपका दान सार्थक है ।

लेकिन अगर आपके दान का कोई दुरूपयोग करके उन्हें बुरे कर्मों में लगा कर पाप करते जा रहा है तो याद रखना उसके पाप के भागीदार आप भी होंगे जी ।
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[: गंगा जल खराब क्यों नहीं होता?
अमेरिका में एक लीटर गंगाजल 250 डालर में क्यों मिलता है।
प्रस्तुति: फरहाना ताज
सर्दी के मौसम में कई बार छोटी बेटी को खांसी की शिकायत हुई और कई प्रकार के सिरप से ठीक ही नहीं हुई। इसी दौरान एक दिन घर ज्येष्ठ जी का आना हुआ और वे गोमुख से गंगाजल की एक कैन भरकर लाए। थोड़े पोंगे पंडित टाइप हैं, तो बोले जब डाक्टर से खांसी ठीक नहीं होती तो तब गंगाजल पिलाना चाहिए।
मैंने बेटी से कहलवाया, ताउ जी को कहो कि गंगाजल तो मरते हुए व्यक्ति के मुंह में डाला जाता है, हमने तो ऐसा सुना है तो बोले, नहीं कई रोगों का भी इलाज है। बेटी को पता नहीं क्या पढाया वह जिद करने लगी कि गंगा जल ही पिउंगी, सो दिन में उसे तीन बार दो-दो चम्मच गंगाजल पिला दिया और तीन din में उसकी खांसी ठीक हो गई। यह हमारा अनुभव है, हम इसे गंगाजल का चमत्कार नहीं मानते, उसके औषधीय गुणों का प्रमाण मानते हैं।
कई इतिहासकार बताते हैं कि सम्राट अकबर स्वयं तो गंगा जल का सेवन करते ही थे, मेहमानों को भी गंगा जल पिलाते थे।
इतिहासकार लिखते हैं कि अंग्रेज जब कलकत्ता से वापस इंग्लैंड जाते थे, तो पीने के लिए जहाज में गंगा का पानी ले जाते थे, क्योंकि वह सड़ता नहीं था। इसके विपरीत अंग्रेज जो पानी अपने देश से लाते थे वह रास्ते में ही सड़ जाता था।
करीब सवा सौ साल पहले आगरा में तैनात ब्रिटिश डाक्टर एमई हॉकिन ने वैज्ञानिक परीक्षण से सिद्ध किया था कि हैजे का बैक्टीरिया गंगा के पानी में डालने पर कुछ ही देर में मर गया।
दिलचस्प ये है कि इस समय भी वैज्ञानिक पाते हैं कि गंगा में बैक्टीरिया को मारने की क्षमता है। लखनऊ के नेशनल बोटैनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट एनबीआरआई के निदेशक डॉक्टर चंद्र शेखर नौटियाल ने एक अनुसंधान में प्रमाणित किया है कि गंगा के पानी में बीमारी पैदा करने वाले ई कोलाई बैक्टीरिया को मारने की क्षमता बरकरार है। डॉ नौटियाल का इस विषय में कहना है कि गंगा जल में यह शक्ति गंगोत्री और हिमालय से आती है। गंगा जब हिमालय से आती है तो कई तरह की मिट्टी, कई तरह के खनिज, कई तरह की जड़ी बूटियों से मिलती मिलाती है। कुल मिलाकर कुछ ऐसा मिश्रण बनता जिसे हम अभी नहीं समझ पाए हैं।
डॉक्टर नौटियाल ने परीक्षण के लिए तीन तरह का गंगा जल लिया था। उन्होंने तीनों तरह के गंगा जल में ई-कोलाई बैक्टीरिया डाला। नौटियाल ने पाया कि ताजे गंगा पानी में बैक्टीरिया तीन दिन जीवित रहा, आठ दिन पुराने पानी में एक एक हफ्ते और सोलह साल पुराने पानी में 15 दिन। यानी तीनों तरह के गंगा जल में ई कोलाई बैक्टीरिया जीवित नहीं रह पाया।
वैज्ञानिक कहते हैं कि गंगा के पानी में बैक्टीरिया को खाने वाले बैक्टीरियोफाज वायरस होते हैं। ये वायरस बैक्टीरिया की तादाद बढ़ते ही सक्रिय होते हैं और बैक्टीरिया को मारने के बाद फिर छिप जाते हैं।
मगर सबसे महत्वपूर्ण सवाल इस बात की पहचान करना है कि गंगा के पानी में रोगाणुओं को मारने की यह अद्भुत क्षमता कहाँ से आती है?
दूसरी ओर एक लंबे अरसे से गंगा पर शोध करने वाले आईआईटी रुड़की में पर्यावरण विज्ञान के रिटायर्ड प्रोफेसर देवेंद्र स्वरुप भार्गव का कहना है कि गंगा को साफ रखने वाला यह तत्व गंगा की तलहटी में ही सब जगह मौजूद है। डाक्टर भार्गव कहते हैं कि गंगा के पानी में वातावरण से आक्सीजन सोखने की अद्भुत क्षमता है। भार्गव का कहना है कि दूसरी नदियों के मुकाबले गंगा में सड़ने वाली गंदगी को हजम करने की क्षमता 15 से 20 गुना ज्यादा है।
गंगा माता इसलिए है कि गंगाजल अमृत है ।🙏🕉🚩
[ एक राजा ने बहुत ही सुंदर ”महल” बनावाया और महल के मुख्य द्वार पर एक ”गणित का सूत्र” लिखवाया और एक घोषणा की कि इस सूत्र से यह ‘द्वार खुल जाएगा और जो भी इस ”सूत्र” को ”हल” कर के ”द्वार” खोलेगा में उसे अपना उत्तराधीकारी घोषित कर दूंगा।
राज्य के बड़े बड़े गणितज्ञ आये और सूत्र देखकर लोट गए, किसी को कुछ समझ नहीं आया। आख़री दिन आ चुका था उस दिन 3 लोग आये और कहने लगे हम इस सूत्र को हल कर देंगे। उसमे 2 तो दूसरे राज्य के बड़े गणितज्ञ अपने साथ बहुत से पुराने गणित के सूत्रो की पुस्तकों सहित आये। लेकिन एक व्यक्ति जो ”साधक” की तरह नजर आ रहा था सीधा साधा कुछ भी साथ नहीं लाया था। उसने कहा मै यहां बैठा हूँ पहले इन्हें मौक़ा दिया जाए। दोनों गहराई से सूत्र हल करने में लग गए लेकिन द्वार नहीं खोल पाये और अपनी हार मान ली। अंत में उस साधक को बुलाया गया और कहा कि आपका सूत्र हल करिये समय शुरू हो चुका है। साधक ने आँख खोली और सहज मुस्कान के साथ ‘द्वार’ की ओर गया। साधक ने धीरे से द्वार को धकेला और यह क्या? द्वार खुल गया, राजा ने साधक से पूछा – आप ने ऐसा क्या किया? साधक ने बताया जब में ‘ध्यान’ में बैठा तो सबसे पहले अंतर्मन से आवाज आई, कि पहले ये जाँच तो कर ले कि सूत्र है भी या नहीं। इसके बाद इसे हल ”करने की सोचना” और मैंने वही किया! कई बार जिंदगी में कोई ”समस्या” होती ही नहीं और हम ”विचारो” में उसे बड़ा बना लेते है।
सब्र है!तो रब है:रब है तो सब है🌹🙏🙏🙏🙏🙏🌹

ईश्वर मनुष्य के एक ऐसे अंतर्यामी मित्र है कि मन में ज्यों ही बुरे संस्कार और विचार उठते हैं, परमात्मा, उसी समय भय, शंका और लज्जा के भाव पैदा करके वह बुराई से बचने की प्रेरणा देते हैं। इसी प्रकार अच्छा काम करने का विचार आते ही उल्लास और हर्ष की तरंग मन में उठती है। किसी भी कार्य की सफलता और असफलता की भी चर्चा की जाए, तो भी स्नेह और सहानुभूति के बगैर सफलता भी असफलता में बदल जाएगी या फिर वह प्राप्त ही नहीं होगी। जो लोग क्रूर और असंवेदनशील हैं, उनके ये दोष ही मार्ग में कांटें बनकर बिखर जाएंगे।

!!Զเधे Զเधे!!🙏🙏
🌹♦🌹♦🌹♦🌹

मनुष्य पूरे जीवन किसकी तलाश कर रहा है?

कौन सी जिज्ञासा,
कौन सी खोज उसे पकड़े हुए है ?
कहां दौड़ा चला जा रहा है ?
हजारोँ है दिशाएं,
हजारोँ हैँ लोग,
लेकिन
खोज एक ही है: खोज आनंद की है।
जीवन की हर वासना मे,
प्रत्येक इच्छा मे
मनुष्य आनंद को खोज रहा है।

मनुष्य दुख-निरोध और आनंद उपलब्ध करने के लिये दौड़ रहा है।

एक ही दौड़ है:आनंद की।

लेकिन:
आज तक बाहर दौड़ कर आनंद को कोई भी उपलब्ध नहीँ हुआ है।
जो बाहर नहीँ पाया जा सका,क्या इतना विवेक नहीँ जागता कि हो सकता है कि वह बाहर हो ही नहीँ।

एक बार भीतर तलाशने की प्यास जाग जाए।
भीतर झांकने की आकांक्षा पैदा हो जाए।
और जन्मो-2 जो बाहर खोजने से न मिल सका, एक क्षण मे भीतर की अंतर्दृष्टि उसे उपलब्ध करा देती है।

आनंद मनुष्य का स्वरुप है,
ज्ञान मनुष्य का स्वरुप है।
मनुष्य ने खोया नहीँ है।

केवल उसकी दृष्टि उस पर नहीँ है जिसकी वह खोज कर रहा है।
केवल दृष्टि कहीँ और उलझ गई है।
जो दृष्टि ‘पर’ को देख रही है,उसी दृष्टि को ‘स्व’ पर केन्द्रित करना साधना है।

धर्म:मनुष्य के भीतर जो छिपा है,उस रहस्य को खोज लेना धर्म है।

जो एक के भीतर बैठा है,वही सबके भीतर बैठा है।

भीतर कौन बैठा है ?

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: प्रेम की अनंत बूंदों का जोड़ परमात्मा है
परमात्मा- प्रेम की अनंत बूंदों का जोड़
जो पत्नी अपने पति को प्रेम की है, उसके लिए पति परमात्मा हो जाता है। शास्त्रों के समझाने से नहीं होती यह बात। जो पति अपनी पत्नी को प्रेम किया है, उसके लिए पत्नी भी परमात्मा हो जाती है। क्योंकि प्रेम किसी को भी परमात्मा बना देता है। जिसकी तरफ मेरी आंखें प्रेम से उठती हैं, वही परमात्मा हो जाता है। परमात्मा का कोई और अर्थ नहीं है।
प्रेम की आंख सारे जगत में धीरे-धीरे परमात्मा को देखने लगती है।
लेकिन जो एक में ही नहीं देख पाता वह सारे जगत में देखने की बातें करता हो, तो वे बातें झूठी हैं, उन बातों का कोई आधार और अर्थ नहीं है।
रामानुज एक गांव में गए थे। और उस गांव में एक युवक उनके पास आया और कहने लगा, मुझे परमात्मा को पाना है।
रामानुज ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और कहा, तूने कभी प्रेम किया है?
वह युवक कहने लगा, प्रेम! ऐसी सांसारिक बातों से मैं हमेशा दूर रहा हूं। मैंने कभी कोई प्रेम नहीं किया। मुझे तो परमात्मा को पाना है।
रामानुज ने कहा, थोड़ा सोच कर देख! कभी किसी को प्रेम किया हो। किसी को भी!
उसने कहा, आप क्यों प्रेम की बातें कर रहे हैं? मैंने कभी किसी को प्रेम नहीं किया। मुझे तो परमात्मा को पाने का रास्ता बताइए।
रामानुज की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने कहा, मेरे बेटे, तू किसी और के पास जा, मैं तुझे परमात्मा का रास्ता न बता सकूंगा। क्योंकि जिसने कभी एक को भी प्रेम नहीं किया, उसके जीवन में परमात्मा की कोई शुरुआत ही नहीं हो सकती। क्योंकि प्रेम के ही क्षण में पहली दफा कोई व्यक्ति परमात्मा हो जाता है; वह पहली झलक है प्रभु की। फिर उसी झलक को आदमी बढ़ाता है, बढ़ाता है, बढ़ाता है। एक दिन वह झलक पूरी हो जाती है, सारा जगत उसी रूप में रूपांतरित हो जाता है। लेकिन जिसने पानी की बूंद नहीं देखी, वह कहता है, मुझे सागर चाहिए! वह कहता है, पानी की बूंद से मुझको कोई मतलब नहीं। पानी की बूंद का मैं क्या करूंगा? मुझे तो सागर चाहिए! उससे हम कहेंगे कि तूने पानी की बूंद भी नहीं देखी, पानी की बूंद भी नहीं पा सका और सागर पाने चल पड़ा है, तो तू पागल है। क्योंकि सागर क्या है? पानी की अनंत बूंदों का जोड़ है। परमात्मा क्या है? प्रेम की अनंत बूंदों का जोड़ है। तो प्रेम की एक बूंद अगर निंदित है तो हो गया पूरा परमात्मा निंदित। फिर हमारे झूठे परमात्मा खड़े होंगे, मूर्तियां खड़ी होंगी, पूजा-पाठ होगा, सब बकवास होगी; लेकिन हमारे प्राणों का कोई अंतर्संबंध उससे नहीं हो सकता है।
और यह भी ध्यान में रख लेना जरूरी है कि जब कोई स्त्री अपने पति को प्रेम करती है, अपने प्रेमी को प्रेम करती है, और प्रेम के कारण उससे बंधती है, समाज के कारण नहीं; उनका विवाह, उनका सहवास प्रेम से निकलता है, तो ही वह मां बन पाती है ठीक अर्थों में।
बच्चे पैदा कर लेने से कोई मां नहीं बनता। मां बनने का अर्थ बच्चे पैदा करना नहीं है। बच्चे पैदा कर लेने से कोई मां नहीं बन जाता। मां तो कोई तभी बनती है स्त्री और पिता तभी कोई पुरुष बनता है, जब उन्होंने एक-दूसरे को प्रेम किया हो। जब पत्नी अपने पति को प्रेम करती है, अपने प्रेमी को, तो बच्चे उसे अपने पति का पुनर्जन्म मालूम पड़ते हैं। वे रि-बर्थ हैं उसके प्रेमी की, वे फिर वही शक्लें हैं, फिर वही रूप है, फिर वही निर्दोष आंखें हैं; जो उसके पति में छिपा था, वह फिर प्रकट हुआ है। उसने अगर अपने पति को प्रेम किया है तो ही वह अपने बच्चों को प्रेम करती है।
बच्चों को किया गया प्रेम, पति को किए गए प्रेम की प्रतिध्वनि है। नहीं तो कोई बच्चों को प्रेम नहीं कर सकता !!

मनुष्य के भाग्य में क्या है ??

     एक बार महर्षि नारद वैकुंठ की यात्रा पर जा रहे थे, नारद जी को रास्ते में एक औरत मिली और बोली। 

मुनिवर आप प्रायः भगवान नारायण से मिलने जाते है। मेरे घर में कोई औलाद नहीं है आप प्रभु से पूछना मेरे घर औलाद कब होगी?

नारद जी ने कहा ठीक है, पूछ लूंगा इतना कह कर नारदजी नारायण नारायण कहते हुए यात्रा पर चल पड़े ।

वैकुंठ पहुंच कर नारायण जी ने नारदजी से जब कुशलता पूछी तो नारदजी बोले जब मैं आ रहा था तो रास्ते में एक औरत जिसके घर कोई औलाद नहीं है। उसने मुझे आपसे पूछने को कहा कि उसके घर पर औलाद कब होगी?

नारायण बोले तुम उस औरत को जाकर बोल देना कि उसकी किस्मत में औलाद का सुख नहीं है।

नारदजी जब वापिस लौट रहे थे तो वह औरत बड़ी बेसब्री से नारद जी का इंतज़ार कर रही थी।

औरत ने नारद जी से पूछा कि प्रभु नारायण ने क्या जवाब दिया ?

इस पर नारदजी ने कहा प्रभु ने कहा है कि आपके घर कोई औलाद नहीं होगी।

यह सुन कर औरत ढाहे मार कर रोने लगी नारद जी चले गये ।

कुछ समय बीत गया। गाँव में एक योगी आया और उस साधू ने उसी औरत के घर के पास ही यह आवाज़ लगायी कि जो मुझे 1 रोटी देगा मैं उसको एक नेक औलाद दूंगा।

यह सुन कर वो बांझ औरत जल्दी से एक रोटी बना कर ले आई। और जैसा उस योगी ने कहा था वैसा ही हुआ।

उस औरत के घर एक बेटा पैदा हुआ। उस औरत ने बेटे की ख़ुशी में गरीबो में खाना बांटा और ढोल बजवाये।

कुछ वर्षों बाद जब नारदजी पुनः वहाँ से गुजरे तो वह औरत कहने लगी क्यूँ नारदजी आप तो हर समय नारायण , नारायण करते रहते हैं ।

आपने तो कहा था मेरे घर औलाद नहीं होगी। यह देखो मेरा राजकुमार बेटा।

फिर उस औरत ने उस योगी के बारे में भी बताया।

नारदजी को इस बात का जवाब चाहिए था कि यह कैसे हो गया?

वह जल्दी जल्दी नारायण धाम की ओर गए और प्रभु से ये बात कही कि आपने तो कहा था कि उस औरत के घर औलाद नहीं होगी।

क्या उस योगी में आपसे भी ज्यादा शक्ति है?

नारायण भगवान बोले आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं है ।

मैं आपकी बात का जवाब बाद में दूंगा पहले आप मेरे लिए औषधि का इंतजाम कीजिए,

नारदजी बोले आज्ञा दीजिए प्रभु, नारायण बोले नारदजी आप भूलोक जाइए और एक कटोरी रक्त लेकर आइये।

नारदजी कभी इधर, कभी उधर घूमते रहे पर प्याला भर रक्त नहीं मिला।

उल्टा लोग उपहास करते कि नारायण बीमार हैं ।

चलते चलते नारद जी किसी जंगल में पहुंचे , वहाँ पर वही साधु मिले , जिसने उस औरत को बेटे का आशीर्वाद दिया था।

वो साधु नारदजी को पहचानते थे, उन्होंने कहा अरे नारदजी आप इस जंगल में इस वक़्त क्या कर रहे है?

इस पर नारदजी ने जवाब दिया। मुझे प्रभु ने किसी इंसान का रक्त लाने को कहा है यह सुन कर साधु खड़े हो गये और बोले कि प्रभु ने किसी इंसान का रक्त माँगा है।

उसने कहा आपके पास कोई छुरी या चाक़ू है।

नारदजी ने कहा कि वह तो मैं हाथ में लेकर घूम रहा हूँ।
उस साधु ने अपने शरीर से एक प्याला रक्त दे दिया। नारदजी वह रक्त लेकर नारायण जी के पास पहुंचे और कहा आपके लिए मैं औषधि ले आया हूँ।

नारायण ने कहा यही आपके सवाल का जवाब भी है।

जिस साधू ने मेरे लिए एक प्याला रक्त मांगने पर अपने शरीर से इतना रक्त भेज दिया।

क्या उस साधु के दुआ करने पर मैं किसी को बेटा भी नहीं दे सकता।

उस बाँझ औरत के लिए दुआ आप भी तो कर सकते थे पर आपने ऐसा नहीं किया।
रक्त तो आपके शरीर में भी था पर आपने नहीं दिया।

मनुष्य का भाग्य केवल प्रारभ्ध से निर्मित नहीं होता, अपितु सदकर्म और आशीर्वाद से भी प्रभावित होता है ।

🙏🏻राम 🙏🏻राम 🙏🏻 राम राम 🙏🏻राम 🙏🏻

🔱 जय श्री हरि 🔱
कारात्मकता उस छाया अथवा गहन अंधकार की भांति है… जो सत्य के, सकारात्मकता के प्रकाश की वास्तविक अनुभूति से दूर ही रखती है..मनुष्य को यदि प्रकाश की किरण दिखाई भी देती है तो भी यह नकारात्मकता, अशुभ विचार, कुंठित मानसिकता को उत्पन्न कर उन्हें और बल देकर उस आशा की, उस दिव्य एवं शुभ-सत्य प्रकाश की उस झलक को, आशा तथा सकारत्मकता की इस किरण को अपने गहरे साये से ढकने का संपूर्ण प्रयास करती है..मनुष्य को हतोत्साहित कर, उसे किसी भी प्रकार से प्रसन्न होने, जीवन में उत्साह तथा उमंग का संचार करने में अत्यंत बाधा उत्पन्न करने का कार्य बहुत ही कुशलता पूर्ण तरीके से करती है.. क्रमशः..!! नकारात्मक विचारों से सजग रहना आवश्यक है…!! प्रसन्न रहें!!
हरे कृष्णहरे राम 🙏
आज का दिन शुभ मंगलमय हो।
समय भेद के अनुसार कर्म के 3 भाग👇🏿👇🏿🚩

1)-: क्रियमांण कर्म👉🏿मनुष्य समझ होने के बाद से मृतयुपरयंत तक मे कर्म करता हू–ईस प्रकार की बुद्धि रखकर जो कर्म करते हे उसे क्रियमांण कर्म कहते हे।अत:ईसका यह अर्थ हूया की वर्तमान मे होने वाले कर्म।

2)-: संचित कर्म👉🏿 क्रियमांण कर्म तो रोज हूया करते हे,उनमे कुछ तो भोग लिये जाते हे ओर शेष प्रतिदिन इकट्ठा होते रहते हे।इस प्रकार चित्त रुपी गोदाम मे एकत्रित हुये कर्मो को संचित कर्म कहते हे।उदाहरण से समझें👉🏿 यदि हम प्रतिदिन एक-एक रुपया एक पेटी मे छोडते जांये ओर सालभर के बाद पेटी खोलें,तो उसमे से जो रुपया निकलेगा वह सब एक वर्ष का संचित रुपया या संचित कर्म कहलाएगा।

3)-: प्रारब्ध कर्म👉🏿 चित्त मे अनेक जन्मों के संचित कर्म ढेर-के-ढेर पडे रहते हे यह कर्म इतने अपार होते हे की सृष्टि के आरंभ से प्रलय तक भोगने पर भी समाप्त नही होते,तो ईनको भोगने के लिए जीव को तदनुसार देह धारण करना पडता हे।प्रारब्ध का अर्थ हे-भूतकाल मे सोच विचार के कीया हूया कर्म।अतएव: प्रारब्ध कर्म वे हूये,जो गत जन्मों मे या इसी जन्म मे किये गये हे ओर जिनका शुभाशुभ फल हमें भोगना हे

भाग-1 सम्पूर्ण
भाग-2 👉🏿 इसमे हम जानंगे ये 3 👆🏿 कर्मों का स्वरुप,जिसमें इनके बलाबल का पता चल सकेगा

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[भाग-2 तिनों कर्मों का बलाबल का स्वरुप👇🏿👇🏿

1)-: क्रियमांण कर्म👉🏿 मनुष्य अपने जीवन काल मे कर्म करने मे स्वतंत्र हे तनिक भी पराधीन नही हे। फिर भी इतना अवश्य हे चित्त के उपर पडे हूये संस्कार उसको शुभाशुभ कर्म करने के लिए ललचाते हे।यानी चित्त मे जो अशुभ संस्कार होते हे वे अशुभ कर्म करने के लिए ललचाते हे,परंतु उस लालच मे पडें या ना पडें ईसके लिए मनुष्य पुण्यातया स्वतंत्र हे,जिसका निश्चय पक्का होता हे वह नही ललचाता,ओर मंदबुद्धि लोग ललचा जाते हे तथा पराधीन बन जाते हे।यहां समझने की बात इतनी हे की प्रलोभन के वश मे होने मे या ना होने मे जीव पुरणतया स्वतंत्र हे।शुभ पुरुषार्थ करके स्वर्ग प्राप्त करना हो तो यह उसके हाथ मे ही हे,ओर अशुभ कर्म करके नर्क मे जाना हो तो इसके लिए भी वह स्वतंत्र हे।तथा इश्वर का भजन करके मुक्ति पानी हो तो इसके लिए भी वह स्वतंत्र हे।
सार यह हे की वर्तमान जिवन मे स्थिर बुद्धि करके सदा अच्छे कर्म ओर भगवान् का भजन करा जाए तो मनुष्य का यह पुरुषार्थ परम बलवान होगा ओर प्रारब्ध या दुसरी सत्ता उसके मार्ग को नही रोक सकती।

2)-: संचित कर्म👉🏿 संचित कर्म का भंडार अक्षय हे वह भोग के द्वारा भी समाप्त होने वाला नहीं हे,तब तो जीव की मुक्ति का कोइ साधन ही नही रहा ऐसा विचार हमारे अंदर पनप सकता हे इसके लिए
श्री भगवान् कहते हे👉🏿 जीव को निराश होने की आवश्यकता नही हे इसका उपाय भी मेने सोच रखा हे
ज्ञानागनी:सर्वकर्माणि भस्मासात: तथात:
अर्थात जीस प्रकार अग्नि लकड़ी के ढेर को पल भर मे जलाकर भस्म कर देती हे उसी प्रकार अनेक जन्मों के शुभाशुभ कर्म
ज्ञानागनी की एक ही चिंगारी पडने पर जलकर भस्म हो जाते हे।अर्थात मनुष्य को ज्ञान होने पर मनुष्य को शरीर धारण नही करना पड़ता।
श्रतें:ज्ञानानन:मुक्ति अर्थात ज्ञान के बिना मुक्ति नही।

3)-: प्रारब्ध कर्म👉🏿 ईसको समझने का स्वरुप बहुत लम्बा हे ध्यान दे जिन-जिन कर्मों का फल भोगने के लिए जीव ने शरीर धारण कीया,उन कर्मों का फल उसे उस शरीर से भोगना ही पडता हे इससे बचने का कोई भी रास्ता नही हे, क्योकि भोग के सिवा दूसरी कीसी रीति से प्रारब्ध का नाश नही हो सकता।हां, अगर आपने सच्चे मन से भक्ति करी तो प्रारब्ध का नाश तो नही होगा अपितु प्रारब्ध के दुख आप के सर के उपर से जाते रहेंगे आपको महसुस नही होगा प्रारब्ध के दुखों का जो मनुष्य भक्ति के मार्ग मे थोडा सा भी पड गया भगवान् स्वयं आते हे उसके प्रारब्ध कटवानें यह भगवान् का वचन हे।
ईसे ओर समझने के लिए एक उदाहरण लिजिए👇🏿
एक बहुत ही छोटा राज्य था राजा को कीसी कारणवश इच्छा हो गई की इस साल बाजरे के सिवा कुछ ओर नही बोना हे,इसी प्रकार बाडी मे साग-सब्जी के सिवा कुछ नही बोना हे,राजा ने अपने राज्य मे यह आज्ञा की घोषणा करवा दी।इससे उस वर्ष वहां बाजरा ओर साग-सब्जी के सिवा ओर कुछ भी पैदा नही हूया अब प्रतिदिन बाजरे की रोटी खा-खा कर राजा ओर प्रजा उब गई त्राहि-त्राहि हो गई।पर अब उपाय क्या हे??अगले वर्ष तक हंसकर या रोकर इसी से काम चलाना हे,दुसरी कुछ खाने-पीने की वस्तु आकाश से उतरकर तो आ नही सकती,परंतु ईस दुख से राजा ओर प्रजा मे विवेक उत्पन्न हो गया ओर निश्चय कीया गया की अगले वर्ष फिर गतवर्ष जेसा मूर्खतापूर्ण कदम नही उठाया जाएगा।ओर ऐसा निश्चय कीया की ईस वर्ष सभी अनाज बोंये जाएंगे जिससे भांति-भांति की वस्तुएं खाने को मिलेगी ओर राजा ओर प्रजा सुख से रह सकेंगे।
ईसका आशय यह हे की जिन सुख-दुखादि भोगो का निर्माण हो चुका हे,उनको भोगने पर ही छुटकारा मिल सकता हे बचने का कोई उपाय हे ही नही सिवाये भक्ति के।परंतु दुख आ पडने पर मनुष्य मे विवेक उत्पन्न हो जाये तो भविष्य का निर्माण करने के लिए स्वतंत्र होने के कारण अच्छे कर्म करके सुखमय जीवन बिता सकता हे।
अब यह बात इतनी विस्तारपुर्वक क्यों समझाई गई हे,ध्यान दे👉🏿 मनुष्य को जब यह पक्का निश्चय हो जाता हे कि मुझे जिस दुख का भोग प्राप्त होता हे वह मेरे ही अपने विचार पुर्वक कीये हूये कर्मों का फल हे,तो फिर अपने ही कीये कर्मों का फल भोगने मे मुझे घबराना क्यों चाहिए??

जेसे सुखभोग मेरे ही कर्मों का फल हे,वेसे ही दुखभोग भी मेरे ही कीये कर्मों का फल हे तो फिर सुख ओर दुख मे समान भाव क्यों ना रखें?

ईस प्रकार विचार करते-करते सुख-दुख मे समता आ जाती हे जीव मे इस प्रकार की समता आ जाये तो समझ लीजिए मोक्ष का द्वार ही खुल गया

श्री भगवान् कहते हे👇🏿
इहैव तैरजित:सर्गो देषां: साम्ये स्थितं मन:

अर्थात जीस मनुष्य को सुख-दुख मे समता आ जाती हे उन्होंने इसी जन्म मे इस शरीर से ही संसार को जित लिया।अर्थात जन्म-मरणके बंधन से मुक्त हो गये।ईतना महान हे प्रारब्ध के रहस्य को जानने का फल
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जय श्री कृष्ण🙏🏼🙏🏼

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