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#दुःखसेकैसे_बचे???

जीवन में दुःख (कष्ट) हमेशा सबके साथ सटता और हटता रहता है। दुःखों की भी अनन्तता है। साथ ही दुःख के दिन कटते नहीं हैं। दुःख की रात तो हमेशा #कालरात्रि सी प्रतीत होती है। इस दुःख से बाहर कैसे निकला जाए? यही मनुष्य की चिंता है। वह स्वयं तथा दूसरों को भी दुःख भूलने को कहता है।
#महाकवि, #पुराणकर्त्ता, #वैदिकऋषि, #वैद्यराज से ले कर #आगम (#तन्त्र) के ज्ञाता अपने-अपने अनुभवों और तर्कों से मनुष्य को मानसिक दृढ़ता देने का प्रयत्न करते हैं।
दुःख #शारीरिक, #मानसिक और #दैविक होते हैं। कुछ दुःख अटल होते हैं, कुछ चल होते हैं और कुछ देवप्रदत्त या शाप प्रदत्त होते हैं। शारीरिक दुःख भी तीन तरह के होते हैं~
१- #शीघ्रमुक्तिप्रद
२- #दीर्घमुक्तिप्रद
और
३- #जीवनपर्यन्त चलने वाले।
इन दुखों से मुक्ति औषध, तप और भोग से होती है। भोग में विवशता होती है। जीवात्मा कष्ट से तड़पता रहता है। उसकी #मृत्युकामना भी विफल होती है। कोई बाह्य यत्न इस दिशा में काम नहीं करता। भोक्ता को इच्छा मृत्यु भी नहीं दी जा सकती क्योंकि उसके जीवन की संभावना को मनुष्य अपने निमित्त कारण से नष्ट करने का अधिकार नहीं रखता है। मानसिक दुःख के भी अनेक कारण होते हैं। इनमें वाणी से प्रताड़ना, उपेक्षा और भविष्य का भय प्रमुखकारण होते हैं। मानसिक दुःखों के निवारण में #प्रवचन, #मन्त्र, #आश्वासन और महत्त्व प्रदान करना, आश्रय देना, स्नेहसिक्त करना उपचार होता है । मानसिक दुःख दिखते नहीं पर इनका परिणाम दिखता है। दैविक दुःख मनुष्य के ऐसे कर्म से उत्पन्न होते हैं जब वह किसी निषेध की उपेक्षा जाने या अनजाने में करता है। इस दुःख की भी अनंतता होती है क्योंकि मनुष्य निज अहं और अज्ञानता से निषेधों, वर्जनाओं को तोड़ता है। वह शास्त्र, गुरु, माता – पिता, श्रेष्ठ जनों की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए अपनी धृष्टता को ऊंचाई देते चला जाता है। ऐसे में पूर्वजीवन का राजयोग जब तक कार्य रत रहता है तब तक वह सुख में रहता है बाद में वह दुःख की गहराई में समाता है। #कैसेनिकलेंदुःखसे_बाहर???

दुःख से उत्पन्न कष्ट को मनुष्य तब तक भोगता है जब तक उसकी बुद्धि पर पड़ा अज्ञान का पर्दा हट नहीं जाता।दुःखी व्यक्ति को कष्ट तब तक मिलता है जब तक वह किसी बाहरी प्रयत्न, किसी आन्तरिक प्रयत्न या संयोग से प्रभावित नहीं होता। अतः दुःख से बाहर निकलने के लिए अकारण सुहृद, सम्बन्धित उपचार कर्ता ( चिकित्सक, वकील, अधिकारी आदि ) तथा देवता की शरण में अवश्य जाना चाहिए।
#त्रि_उपाय- #मणि , #मन्त्र , #औषध से दुःख की निवृत्ति होती है।
फैसन के रूप में केवल अंग्रेजी दवाओं पर आश्रित रहने का जबसे प्रचलन बढ़ा है तब से दुःख का दायरा बढ़ा है। किसी भी पीड़ा से मुक्ति के लिए मणि, मन्त्र और भैषज्य का एक साथ प्रयोग करना चाहिए। मानसिक दुःखों से मुक्ति के लिए शराब पीकर लोटने से अच्छा है दैव शरण में जायें।
तुलसीदास जी कहते हैं – ग्रह खराब है, वायु विकार पूर्व से चला रहा है, बिच्छु ने डंक मार दिया और ऊपर से उस व्यक्ति को शराब पिला दिया गया तो उसका कष्ट तो बढ़ेगा ही और उद्धतता भी बढ़ जाएगी।
अशुभ और निकृष्ट मनोरंजन जीवन संकट को बढ़ाते हैं। अतः दुखों को घोट कर जो आराधना के चौखट पर मत्था टेकता हुआ दवा खाता है वह अपनी भीतरी शक्ति को जगा ले जाता है। दवा भी उसे ही लाभ करती है जो अपनी
आह्लादिनी शक्ति को जगाये रखता है।
दुःख की गहनता आयु, पुण्य, तेज, बुद्धि, बल, शौर्य और सम्मान का भोजन कर जाती है। अतः उसकी गहनता उत्पन्न होने से पहले ही उसे क्षीण करने का यत्न करना चाहिए। जो दुःख, संकट, विपत्ति में साथ देता है वही विपद् बन्धु होता है। परमात्मा सहज और नित्य विपद् बन्धु होता है।
अपने अनागत दुःख को पूर्व से पहचानिये तथा उससे बचने का पूर्ण प्रयत्न कीजिये। यदि वही दुःख मृत्यु का कारण हो तो भी उसे पहचान कर शास्त्र विधानोक्त तैयारी करनी चाहिए।
( दुःख , रोग , भय , बाधा , दुष्कृत )
दुःख शब्द व्यक्ति की उस स्थिति को बोधित करता है जिसमें वह अपने से बाहर निकलने की स्थिति में न हो। दुः निम्न या निकृष्ट का वाचक है। ख स्थान का वाचक है जहाँ से निकलने के लिए बाह्य पुण्य बल की आवश्यकता होती है। खम् आकाश को कहते हैं। सु शोभन स्थान को प्राप्त करना सुख है।

#वेद, #आयुर्वेद, #ज्योतिष, #धर्मशास्त्र, #पुराण, #रत्नशास्त्र, #संहिताग्रंथ सभी के सभी एक स्वर से कहते हैं–
रोग, दुःख, भय, बाधा, कष्ट सभी पाप(दुष्कृत) से उत्पन्न होते हैं। यदि व्यक्ति पाप न करे तो उसे दुःख और रोग हो ही नहीं। इसी अवधारणा से रोगों, दुःखों की चिकित्सा की जाती है।
यदि रोग न हों तो औषधि का महत्त्व ही समाप्त हो जाये। #आमयोनैवसृष्टश्चेद्औषधस्यवृथोदयः
(उपनिषद)
केवल रोग को औषध नष्ट कर देता है पर रोग और भय दोनों एक साथ मिले हों तो औषध और मन्त्र दोनों का प्रयोग करना चाहिए-
सदौषधै:यान्तिगदोविनाशंयथान्यथादुःखभयानि_मन्त्रै:।

स्मृतियों में वचन है कि औषध, दान, जप, होम, देव पूजा इन पांच प्रकारों से रोग और भय का नाश होता है~
#तत्छान्तिरौषधैर्दानैः_जपहोमसुरार्चनै:।

योगाभ्यास बल से भी दुःख और भय का विनाश होता है। मूल रूप से योग पाप को जलाता है। पाप नष्ट होने से रोग भय नष्ट हो जाते हैं ~

#योगाभ्यासबलेनैवनश्येयु:पातकानि तु।
तस्माद्योगपरो भूत्वा ध्यायेनित्यं क्रियापर:।।
हारीत१/३।

वैदिकीमान्यताकी_घोषणा —

अश्व के बिना रथ नहीं चलेगा, रथी के बिना अश्व मार्ग पर नहीं चलेगा इसी तरह विद्या और तप संयुक्त होकर भैषज्य प्रभावशाली बनता है—
यथा रथोश्व हीनस्तु यथाश्वो रथिहीनकः।
एवं तपश्च विद्या च संयुतं भैषजं भवेत्।।
हारीत ९।

आयुर्वेद आत्मा, मन, शरीर तीनों को स्वस्थ्य रहने पर ही व्यक्ति को पूर्ण स्वस्थ्य मानता है – #चरक १/४६ ।

अतः दुःख, भय, रोग, बाधा को ठीक करने हेतु व्यापक प्रयास करना चाहिए।

शारीरिक रोग-दुख –
१– शरीर में विद्यमान कालपुरुष को पीड़ित देख कर किस अंग में किस तरह का रोग कब उत्पन्न होगा इसका पूर्व अनुमान होता है। यह नब्बे प्रतिशत से भी अधिक फलीभूत होता है।

२– गर्भज रोग दुःख —
कभी कभी गर्भ में आते ही जीव को रोग हो जाता है। हृदय में छेद, किसी अंग का पूर्ण विकसित न होना। गर्भाशय का न होना या एक ही किडनी का होना, गर्भ में ही घाव होना आदि।

३– संसर्गज रोग दुःख —
शरीर का किसी बाहरी चीज से स्पर्शित होकर रोग ग्रस्त होना संसर्गज रोग में आता है।

४– आभ्यन्तरिक रोग —
शरीर के भीतर अपने आप रोग का उत्पन्न होना और बढ़ कर मृत्यु मुख में ले जाना।कैंसर, हेपटाइटिस, ट्यूमर आदि इसी श्रेणी में आते हैं।

५– बाह्याघात रोग-कष्ट —
शरीर पर बाहर से सांघातिक चोट पहुँचना और मर्म का भेदित हो जाना।

६– शापज रोग —
किसी व्यक्ति द्वारा गहन शब्द प्रहार जो शाप से रोग बनकर शरीर को गला दे।

७– आभिचारिक रोग —
मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र के लगातार प्रयोग से शरीर के भीतर अंगों का निष्क्रिय होना शुरू हो जाता है। इसमें दुःस्वप्न अवश्य आता है। किसी के अदृश्य रूप से पास में होने का आभास होने लगता है।

शारीरिक रोग लज्जित, भ्रमित और व्यथित करते हैं। कुष्ठरोग मन को ग्लानि से भर देता है। गुप्त इन्द्रिय का रोग लज्जित करता है। अशक्तता व्यथित करती है।

प्रमेह रोग अनेक रोगों का जनक होता है। यह व्यभिचार और हत्या आदि पातकों से उत्पन्न होता है। महापाप से महारोग, पाप से मध्यम रोग और उपपातक से साधारण रोगों की उत्पत्ति होती है। #ब्रह्महत्या से कुष्ठ रोग होता है जो सूर्यदेव की आराधना और गायत्री जप होम से औषध बल से ठीक होता है।

अचानक दृष्टि चली जाए तो स्वर्ण की नौका पर विष्णु की स्वर्ण प्रतिमा रख कर पूजन कर दान देने से भैषज्य काम करता है।
मूक-बधिर दोष को दूर करने के लिए चान्द्रायण व्रत कर या करा के स्वर्ण के फल और पुस्तक को दान में दिया जाता है।
मांस के रोग में वृषभ दान किया जाता है। यह चांदी का भी बनवा कर किया जा सकता है।
जिह्वा रोग होने पर मधुर दान किया जाता है।

💐 एक अति विशिष्ट औषधि —
जब सभी उपाय व्यर्थ हो जायें तो सवा लाख #महामृत्युंजय मन्त्र का पुरश्चरण कराना चाहिए। यदि इससे तनिक भी लाभ मिलना आरम्भ हो तो पुनः द्वितीय पुरश्चरण करना चाहिए। इस प्रकार से जीवन रक्षा के लिए चार पुरश्चरण किये जाते हैं।

💐 डिंडिम घोष —–
यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन ग्यारह आहुति से दूर्वा द्वारा महामृत्युंजय मंत्र से गो घृत द्वारा हवन करता है तो वह निरोग होकर शतायु को प्राप्त करता है। मृत्यु उसके निकट जाने से डरती है।
जो मृत्यु को भय ग्रस्त कर दे वह मन्त्र महामृत्युंजय है।

अपनी कुंडली से कालपुरुष की स्थापना को देख कर रोग और उसकी अवधि का सटीक अनुमान लगा कर जो ग्रह, विनायक और महामृत्युंजय का अनुष्ठान करता-कराता है वह रोग मुक्त रह कर सफल जीवन जीता है। आराधना न केवल रोग और भय को दूर करती है बल्कि जीवन में समृद्धि और धर्म को लाती है।

शरीर को व्याधि मन्दिर कहा गया है। अतः इसे केवल व्यायाम, आसन और टहल कर ठीक रखने से काम नहीं चलेगा बल्कि चोट और विषाणु( वायरस )से बचाने के लिए मन्त्र बल से बचाना पड़ता है।

शरीर के रहने से ही वर्तमान जीवन की चेतना उन्नति को प्राप्त करती है। मृत्यु होते ही यह चेतना लुप्त हो जाती है और अगला जीवन नई समस्या लेकर आता है। अतः जीवन के सातत्य को बनाये रखने के लिए स्वस्थ्य शरीर को बनाये रखना पड़ता है। पुष्ट शरीर से तप की कठोरता को बर्दाश्त करने की क्षमता मिलती है। इसी से नया विधान बनता है जो अगले जीवन को परिष्कृत करता है।

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