Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

कर्म योग

     कर्म के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति को ही कर्म योग कहा गया है, "योगा कर्मो किशलयाम्" अर्थात कर्म में लीन होना, शास्त्रों में इसे "योग: कर्मसु कौशलम्" भी कहां है, श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, और इस पर विस्तार से व्याख्या की गयी है, गृहस्थ और कर्मठ व्यक्ति के लिए यह योग अधिक उपयुक्त है। 

हममें से प्रत्येक किसी न किसी कार्य में लगा हुआ है, पर हममें से अधिकांश अपनी शक्तियों का अधिकतर भाग व्यर्थ खो देते हैं, क्योंकि हम कर्म के रहस्य को नहीं जानते, जीवन की रक्षा के लियें, समाज की रक्षा के लिये, देश की रक्षा के लिये, मानवता की रक्षा के लिये कर्म करना आवश्यक है, किन्तु यह भी एक सत्य है कि दु:ख की उत्पत्ति कर्म से ही होती है।

सारे दु:ख और कष्ट आसक्ति से उत्पन्न हुआ करते हैं, कोई व्यक्ति कर्म करना चाहता है, वह किसी मनुष्य की भलाई करना चाहता है, इस बात की भी प्रबल सम्भावना है कि उपकृत मनुष्य कृतघ्न निकलेगा और भलाई करने वाले के विरुद्ध कार्य करेगा, इस प्रकार सुकृत्य भी दु:ख देता है, फल यह होता है कि इस प्रकार की घटना मनुष्य को कर्म से दूर भगाती है।

यह दु:ख या कष्ट का भय कर्म और शक्ति का बड़ा भाग नष्ट कर देता है, कर्मयोग सिखाता है कि कर्म के लिए कर्म करो, आसक्तिरहित होकर कर्म करो, कर्मयोगी इसिलिये कर्म करता है कि कर्म करना उसे अच्छा लगता है, इसके परे उसका कोई हेतु नहीं है, कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता वह केवल कर्मफल का त्याग करता है, और कर्मजनित दु:खों से मुक्त हो जाता है।

उसकी स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है और वह कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करता, वह जानता है कि वह दे रहा है और बदले में कुछ माँगता नहीं, इसीलिये वह दु:ख के चंगुल में नहीं पड़ता, वह जानता है कि दु:ख का बन्धन आसक्ति की प्रतिक्रिया का ही फल हुआ करता है, गीता में कहा गया है कि मन का समत्व भाव ही योग है जिसमें मनुष्य सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय, संयोग-वियोग को समान भाव से चित्त में ग्रहण करता है।

कर्म-फल का त्याग कर धर्मनिरपेक्ष कार्य का सम्पादन भी पूजा के समान हो जाता है, संसार का कोई कार्य ब्रह्म से अलग नहीं है, इसलिये कार्य की प्रकृति कोई भी हो निष्काम कर्म सदा ईश्वर को ही समर्पित हो जाता है, पुनर्जन्म का कारण वासनाओं या अतृप्त कामनाओं का संचय है, कर्मयोगी कर्मफल के चक्कर में ही नहीं पड़ता, अत: वासनाओं का संचय भी नहीं होता, इस प्रकार कर्मयोगी पुनर्जन्म के बन्धन से भी मुक्त हो जाता है।

अध्यात्म दर्शन में कर्म, बंधन का कारण माना गया है, किंतु कर्मयोग में कर्म के उस स्वरूप का निरूपण किया गया है जो बंधन का कारण नहीं होता, योग का अर्थ है समत्व की प्राप्ति “समत्वं योग उच्यते” सिद्धि और असिद्धि, सफलता और विफलता में सम भाव रखना समत्व कहलाता है, योग का एक अन्य अर्थ भी है- वह है कर्मों का कुशलता से संपादन करना “योग: कर्मसु कौशलम्” इसका अर्थ है, इस प्रकार कर्म करना कि वह बंधन न उत्पन्न कर सके।

अब प्रश्न यह है कि कौन से कर्म बंधन उत्पन्न करते हैं और कौन से नहीं? गीता के अनुसार जो कर्म निष्काम भाव से ईश्वर के लिए जाते हैं वे बंधन नहीं उत्पन्न करते, वे मोक्षरूप परमपद की प्राप्ति में सहायक होते हैं, इस प्रकार कर्मफल तथा आसक्ति से रहित होकर ईश्वर के लिये कर्म करना वास्तविक रूप से कर्मयोग है, और इसका अनुसरण करने से मनुष्य को अभ्युदय तथा नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है।

भगवद्गीता के अनुसार कर्मों से संन्यास लेने अथवा उनका परित्याग करने की अपेक्षा कर्मयोग अधिक श्रेयस्कर है, कर्मों का केवल परित्याग कर देने से मनुष्य सिद्धि अथवा परमपद नहीं प्राप्त करता, मनुष्य एक क्षण भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता, सभी अज्ञानी जीव प्रकृति से उत्पन्न सत्व, रज और तम, इन तीन गुणों से नियंत्रित होकर, परवश हुये कर्मों में प्रवृत्त किये जाते हैं।

मनुष्य यदि बाह्य दृष्टि से कर्म न भी करे और विषयों में लिप्त न हो तो भी वह उनका मन से चिंतन करता है, इस प्रकार का मनुष्य मूढ़ और मिथ्या आचरण करनेवाला कहा गया है, कर्म करना मनुष्य के लिए अनिवार्य है, उसके बिना शरीर का निर्वाह भी संभव नहीं है, भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि तीनों लोकों में उनका कोई भी कर्तव्य नहीं है, उन्हें कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त करनी नहीं रहती, फिर भी वे कर्म में संलग्न रहते हैं।

यदि वे कर्म न करें तो मनुष्य भी उनके चलायें हुए मार्ग का अनुसरण करने से निष्क्रिय हो जायेंगे, इससे लोकस्थिति के लिये किये जानेवाले कर्मों का अभाव हो जाएगा, जिसके फलस्वरूप सारी व्यवस्थायें नष्ट हो जाएगी, इसिलिये आत्मज्ञानी मनुष्य को भी, जो प्रकृति के बंधन से मुक्त हो चुका है, उसे भी सदा कर्म करते रहना चाहियें।

अज्ञानी मनुष्य जिस प्रकार फलप्राप्ति की आकांक्षा से कर्म करता है, उसी प्रकार आत्मज्ञानी को लोकसंग्रह के लिये आसक्तिरहित होकर कर्म करना चाहियें, इस प्रकार आत्मज्ञान से संपन्न व्यक्ति ही गीता के अनुसार वास्तविक रूप से कर्मयोगी हो सकता है।

         

Recommended Articles

Leave A Comment