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धार्मिक जिज्ञासुओं के लिए एक दुर्लभ प्रस्तुति!!!!!

मित्रो! आज हम आपको आध्यात्मिक प्रश्नोत्तरी की महत्वपूर्ण जानकारी देना चाहते है, जिसको हम सभी सनातनीयों को जानना बहुत जरूरी है, और यह हमारा धार्मिक दायित्व भी है, कई बार आध्यात्मिक व्यक्ति भी सनातनी जानकारी की कम जानकारी या अधूरी जानकारी के कारण वह अपने भक्ति मार्ग से भटक सकता है, कुछ उलझ सकता है, इसलिये?

आज हम प्रश्नोत्तरी के माध्यम से हम सनातनी जानकारी पढ़ने और अपने स्वभाव में उतार ने की कोशिश करेंगे, यह तरीका कुछ अलग है, लेकिन सिखने के लिये यह सबसे उत्तम तरीका है, कृपा करके पूरा पढ़ने की सफल कोशिश करें।

ईश्वर क्या है? ईश्वर अखिल ब्रह्माण्डनायक सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा एवं सर्व शक्तिमान् है ।

वेद किसे कहते हैं? अनादि अनन्त अपौरुषेय नियतानुपर्वी वह शब्दराशि जिससे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पुरुषार्थ चतुष्टय जाने जाते हैं, उसे वेद कहते हैं, इनकी परम्परा सृष्टि के आरम्भ काल से बराबर चली आ रही है, गुरुओं के मुख से सुने जाने के कारण इसे श्रुति भी कहते हैँ, वेद चार हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

शाखा किसे कहते हैं? वेद के अंश को ही शाखा कहते हैं, एवं संहिताओं के भेद को भी शाखा कहते हैं, सभी वेदों की एक हजार एक सौ एक्कतीस शाखा है, ऋग्वेद की इक्कीस शाखाएँ है।

आश्वालायनी, शांखायनी, शाकला, वाष्कला, माण्डुकेया प्रभृति हैं, इस समय भारतवर्ष में उत्तरी भारत में शाकला शाखा एवं दक्षिण भारत में वाष्कला शाखा की संहितायें मिलती है शेष लुप्त हैं।

यजुर्वेद की कितनी शाखायें हैं? यजुर्वेद की एक सौ एक शाखाएँ हैं, उनमें छः शाखाएँ मिलती हैं, जिनके नाम हैं- तैत्तिरीय, मैत्रायणि, कठ, कापिष्ठल, श्वेताश्वतर, ये कृष्ण यजुर्वेद की शाखाएँ हैं, जो उपलब्ध हैं, शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेय, काण्व शाखाएँ उपलब्ध हैं, शेष शाखाएँ लुप्त है।

सामवेद की कितनी शाखाएँ है? सामवेद की एक हजार शाखाएँ हैं, जिनमें केवल तीन शाखाएँ प्राप्त हैं, शेष शाखाएँ लुप्त हैं।

अथर्ववेद की कितनी शाखाएँ है? अथर्ववेद की नव शाखाएँ हैं, जिनमें पैप्पलाद और शौनकीया प्राप्त हैं।

ऋग्वेद की शाकल शाखा का विवरण बतायें? ऋग्वेद की शाकल शाखा दस भागों में विभक्त है जिन्हें मण्डल कहते हैं, प्रत्येक मण्डल में कई सूक्त में कई ऋचाएँ हैं, कुल एक हजार अठ्ठाईस सूक्त हैं, जिसमें दस हजार पाँच सौ ऋचाएँ है।

यजुर्वेद का विवरण बतायें? यजुर्वेद दो भागों में विभक्त हैं, शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद, शुक्ल यजुर्वेद वाजसनेयमाध्यदिन संहिता में कुल चालीस अध्याय हैं, जिनमें यज्ञ संबन्धी ज्ञान का विस्तृत विवरण है।

कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीयशाखा में कितने मन्त्र हैं? कृष्ण यजुर्वेद में सात अष्टक, चौवालीस प्रपाठक , छः सौ एक्यावन अनुवाक और दो हजार एक सौ अठ्ठावन मन्त्र समुह है ।

शुक्ल यजुर्वेद माध्यदिन शाखा में कितने मन्त्रादि हैं? शुक्ल यजुर्वेद माध्यदिन शाखा में चालीस अध्याय, एक हजार नव सौ पचहत्तर मन्त्र तथा नब्बे हजार पाँच सौ पैतीस अक्षर, तथा एक हजार दो सौ तीस सभी प्रकार के { – } धूं चिह्न हैं।

सामवेद का विवरण बतायें? सामवेद की एक हजार शाखाओं में से कौथुमी शाखा में उनतीस अध्याय हैं, छः आर्चिक अठ्ठासी साम, एक हजार आठ सौ चौबीस मन्त्र हैं, राणायणी शाखा में एक हजार पाँच सौ उननचास मंत्र हैं।

अथर्ववेद के विवरण बतायेँ? अथर्ववेद की नव शाखाएँ है, जिसमें से शौनक शाखा में बीस काण्ड, चौतीस प्रपाठक, एक सौ ग्यारह अनुवाक, सात सौ तैतीस वर्ग, सात सौ उननचास सुक्त, पाँच हजार नौ सौ सतहत्तर मन्त्र हैं, कुछ शाखाएँ ऐसी है जिनके आरण्यक, ब्राह्मण उपनिषद ही मिलते हैं, मन्त्र भाग नहीं मिलते।

आरण्यक किसे कहते हैं? आरण्यक में कहे गये और सुने जाने के कारण इसे आरण्यक कहते हैं, यह भी ब्राह्मण भाग की तरह वेद ही हैं, वानप्रस्थाश्रम के नियत तथा ज्ञान कथा की जिसमें बाहुल्यता है, तथा ब्राह्मण भाग होने के कारण वेद ही है।

आरण्यक ग्रन्थों के नाम बतायें? ऐतरेयारण्यक, कौशितकी आरण्यक, तैत्तिरीय आरण्यक आदि।

उपनिषद् किसे कहते हैं? ब्रह्म की विवेचना जिसमें हो उसे उपनिषद् कहते है, उपनिषद् प्रायः संहिताओं और ब्राह्मण के अंश मात्र हैं।

उपनिषदों के नाम बतायें? उपनिषद् अनेकों है, यथा वृहदारण्यकोपनिषद्, माण्डुक्योपनिषद्, प्रश्नोपनिषद्, कठोपनिषद् प्रभृति, ये भी सभी वेदों की शाखाओं के पृथक-पृथक हैं।

कल्प सूत्र किसे कहते है? जिस ग्रन्थ में वैदिक यज्ञादि एवं संस्कारों की विधि तथा प्रयोगों का वर्णन हो उसे ही कल्प सूत्र कहते हैं, जिन वेदों की शाखाएँ नहीं मिलती उनके आरण्यक ब्राह्मण भी नहीं मिलते।

कल्प सूत्र के कितने भेद हैं? कल्प सूत्र के चार भेद है- श्रौत सूत्र, गृह्य सूत्र, धर्म सूत्र, शुल्व सूत्र।

श्रौत सूत्र किसे कहते हैं? जिसमें श्रौत यागो का तथा श्रतियों के पठन-पाठन का वर्णन हो उसे श्रौतसूत्र कहते हैं, ये प्रत्येक वेद की शाखाओं के भिन्न-भिन्न हैं, तथा आश्वालायन,श्रौतसूत्रकात्यायन श्रौतसूत्रादि।

गृह्य सूत्र किसे कहते हैं? गृह्यसूत्र जिसमें षोडस संस्कार { जन्म से लेकर मरण अन्त्येष्टि } का वर्णन हो उसे गृह्यसूत्र कहते हैं, ये सब धर में होते है इसलिये इसे गृह्यसूत्र कहते हैं, यथा पारस्कर गृह्यसूत्र ?, आश्वालयन गृह्यसूत्र, यथा ऋग्वेद की आश्वालयन शाखा का आश्वालयन गृह्यसूत्र, शांखायन गृह्यसूत्र प्रभृति।

धर्मसूत्र किसे कहते हैं? जिसमें मानव धर्म के प्रातः काल से सायंकाल पर्यन्त और जन्म से मृत्यु पर्यन्त कृत्यों की विधियों का वर्णन हो उसको धर्मसूत्र कहते हैं, यथा गौतम धर्मसूत्र।

वेदाङ्ग किसको कहते हैं? शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष तथा छन्द ये छः वेद के अङ्ग हैं।

वेद के अङ्गों के स्थान बतायें? शिक्षा नासिका है, कल्पसूत्र हाथ है, व्याकरण मुख है, निरुक्त कान है, ज्योतिष नेत्र है, छन्द पाँव है।

शिक्षा किसे कहते हैं? वेद मन्त्रों के उच्चारण के लिये प्रयुक्त होने वाले उदात्त, अनुदात्त, स्वरित स्वरों के नियमों का वर्णन जिसमें हो उसे शिक्षा कहते हैं।

कल्प किसे कहते हैं? जिसमें वैदिक मंत्रों के ऋषि देवता छन्दों के साथ साथ यज्ञादिक एवं संस्कारों की विधि तथा प्रयोगों का निर्देशन हो उसे कल्प कहते हैं।

व्याकरण किसे कहते हैं? साध्य, साधन, कर्त्ता, कर्म, क्रिया, समासादि का निरुपण, एवं शब्द के व्युत्पादन तथा भाषा के नियमों का वर्णन जिसमें हो उसे व्याकरण कहते हैं।

निरुक्त किसे कहते हैं? पद निर्वाचन अर्थात् शब्दों के अर्थ करने को प्रणाली का वर्णन जिसमें हो उसे निरुक्त कहते हैं।

ज्योतिष क्या है? जिसमें ग्रह, नक्षत्र, उनकी गति एवं काल गणना का वर्णन है वह ज्योतिष है।

छन्द किसे कहते हैं? लौकिक वैदिक पदों के यति विराम आदि को व्यवस्थित करने का वर्णन जिसमें हो उसे छन्द कहते हैं, छन्द दो प्रकार के होते हैं, लौकिक तथा वैदिक, मात्रा छन्द व वर्ण छन्द।

उपवेद कितने हैं? चारों वेदों के चार उपवेद हैं, ऋग्वेदका उपवेद आयुर्वेध, यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद, सामवेद का उपवेद गान्धर्ववेद, अथर्ववेद का उपवेद स्थापत्य कला व अर्थशास्त्र है।

चारो वेदों के गोत्रादि क्या हैं? ऋग्वेद का आत्रेय गोत्र, ब्रह्म देवता, गायत्री छन्द है, यजुर्वेद का भारद्वाज गोत्र, रुद्र देवता, त्रिष्टुप छन्द है, सामवेद का काश्यप गोत्र, विष्णु देवता, जगति छन्द है, अथर्थवेद का वैजान गोत्र, इन्द्र देवता, अनुष्टुप छन्द है।

वेदान्त किसे कहते हैं? वेद के अन्तिम भाग अर्थात् आखिरी ब्रह्मविद्या विषय वेदान्त उपनिषद कहते हैं, जिसमें ब्रह्मविद्या का निरुपण हो।

श्रुति किसे कहते हैं? गुरु मुख से जिसका श्रवण किया हो, जिसका कोई कर्त्ता न हो उसे श्रुति कहते हैं, “श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो”

स्मृति किसे कहते हैं? जिसमें समाज के लिये आचार, विचार, व्यवहार की व्यवस्था, तथा समाज के शासन निमित्र निति और सदाचार सम्बन्धी नियम स्पष्टता पूर्वक हो उसे स्मृति कहते हैं, इसी को धर्मशास्त्र भी कहते हैं।

धर्म शास्त्र किसे कहते हैं? जिसमें धर्माधर्म का निर्णय मिले उसे धर्मशास्त्र कहते हैं, इसे स्मृति भी कहते हैँ।

धर्म शास्त्र के निर्माता कौन थे? धर्मशास्त्र के निर्माता महर्षि गण हैं, जिन्हें समाधि में वैदिक तत्त्वों का ज्ञान होता है, वे ही धर्मशास्त्र के निर्माता व प्रवर्तक कहे जाते हैं, जैसे- मनु, अत्रि, विष्णु, हारित, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सम्वर्त, कात्यायन, वृहस्पति, पराशर, व्यास, शंख, लिखित, दक्ष, गौतम, शातातप, वसिष्ठादि।

धर्म किसे कहते हैं? वैदिक विधि वाक्यों द्वारा जिनकी कर्तव्यता का ज्ञान हो उसे धर्म कहते हैं, जिसमें अभ्युदय तथा श्रेयस सिद्धि हो उसे धर्म कहते हैं ।

सनातन धर्म के क्या लक्षण है? सनातन परमात्मा ने सनातन जीवों के सनातन निःश्रेयस, एवं अभ्युदय के लिए जिन सनातन परम कल्याणकारी नियमों का निर्देश जिसमें किया हो, उसे सनातन धर्म कहते है।

यज्ञ कुण्ड मण्डप बनाने की चर्चा किन ग्रन्थो में है? शुल्बसूत्र, कुण्डाक्रकुण्डकल्पतरु, कुण्डरत्नावलि में यज्ञकुण्ड और मण्डपादि बनाने का विधान है।

आगम किसे कहते हैं? जिसमें सृष्टि, प्रळ, देवताओं की पूजा, सर्व कार्यों के साधन, पुरश्चरण, षट्कर्म साधन और चार प्रकार के ध्यान योग का वर्णन हो उसे आगम कहते हैं।

यामल किसे कहते है? सृष्टि तत्त्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, सूत्र, वर्णभेद और युग धर्म का वर्णन जिसमें हो उसे यामल कहते हैं।

तन्त्र किसे कहते है? सृष्टि, लय, मंत्र निर्णय, देवताओं के संस्थान, यंत्र निर्णय, तीर्थ, आश्रम धर्म, कल्प, ज्योतिष संस्थान, व्रत कथा, शौच, आशौच, स्त्री पुरुष लक्षण, राज धर्म, दान धर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक विषयों का जिसमें वर्णन हो उसे तन्त्र कहते हैं।

तैंतीस देवता के नाम क्या हैं? आठ वसु, ग्यारह रुद्र, आदित्य, एक प्रजापति और एक वषट्कार, इस प्रकार कुल तैंतीस देवता होते हैं।

दशमहाविध्या के नाम क्या हैं? काली, तारा, ललिता, भुवनेश्वरी, त्रिपुरभैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला ये दशमहाविद्या हैं ।

संध्या-वन्दन का फल क्या है? जो द्विज प्रतिदिन संध्या करता है वह पाप रहित होकर सनातन ब्रह्मलोक में जाता है, जितने भी इस पृथ्वी पर विकर्मस्थ द्विज हैं, उनके पवित्र करने के लिए स्वयंभू ब्रह्मदेव ने संध्या का निर्माण किया है, रात्रि में तथा दिन में जो भी अज्ञान अर्थात् पाप किया गया हो वह तीनों काल की संध्या-वन्दन से नष्ट हो जाता है।

संध्या न करने का दोष क्या है? जिसने संध्या को नहीँ जाना तथा उपासना भी नहीं की वह जिवित शुद्र है, और संध्या न करने पर कुत्ते की योनी में जन्मता है, संध्या न करने वाला सदा अपवित्र है, सभी कार्यों के अयोग्य है, दूसरा भी यदि कोई काम करता है तो उसका फल नहीं मिलता।

संध्या की व्याखा क्या है? सूर्य नक्षत्र से वजित अहोरात्र की जो संधि है, तत्त्वदर्शी हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने उसी को संध्या कहा है।

संध्या-वन्दन का काल अर्थात् समय कब होना चाहिये? संध्या का समय सूर्योदय से पूर्व ब्राह्मण के लिए दो मुहूर्त है, क्षत्रिय के लिए इससे आधा और उससे आधा वैश्य के लिए, ताराओं से युक्त समय अति उत्तम समय है, ताराओं के लुप्त हो जाने पर मध्यम, सूर्य सहित अधम, इस प्रकार प्रातः संध्या तीन प्रकार की है।

तीनों काल की संध्या का नाम क्या है? प्रभात काल की संध्या का नाम- गायत्री, मध्याह्न काल की संध्या का नाम- सावित्री और सायं काल की संध्या का नाम- सरस्वति है, ऐसा तत्त्वज्ञ ऋषियों का वचन है।

त्रैकालिक संध्या के वर्ण कौन-कौन से हैं? प्रभात काल की संध्या- गायत्री का, वर्ण- लाल है, मध्याह्न काल की संध्या- सावित्री का, वर्ण- शुक्लवर्ण और सायं काल की संध्या का वण- कृष्णवर्ण है, उपासनार्थियों की उपासना के लिए है

त्रैकालिक संध्या का रूप क्या है? प्रातःकाल की संध्या- गायत्री और ब्रह्मरूपा, मध्याह्न संध्या- सावित्री और रुद्ररूपा तथा सायं काल की संध्या- सरस्वती और विष्णुरूपा है।

त्रैकालिक संध्या का गोत्र क्या-क्या है?

प्रातः काल की संध्या- गायत्री का गोत्र हैं सांङ्ख्यायन, मध्याह्न काल की संध्या- सावित्री का गोत्र हैं कात्यायन एवं सायं काल की संध्या- सावित्री का गोत्र बाहुल्य है।

त्रैकालिक संध्या में कौन-कौन धातु पात्र का प्रयोग करना चाहिये? भग्न तथा टूटे पात्र से संध्या करना निन्दिन है, उसी प्रकार धारा से टूटे हुए जल संध्या करना मना है, नदी में, तीर्थ में, ह्रद में, मिट्टी के पात्र से, उदुम्बर के पात्र से, सुवर्ण-रजत या ताम्र एवं लकडी के पात्र से संध्या करनी चाहिये।

त्रैकालिक संध्या-वन्दन में कौन-कौन से पात्र अपवित्र है? काँसा, लौह, शीशा, पीतल के पात्रों से आचमन करने वाला कभी शुद्ध नही हो सकता, अतः इन धातुओं के बने पात्र अपवित्र हैं, इन्हें संध्या-वन्दन मेँ प्रयोग नहीं लेना चाहिये।

किन-किन स्थानों पर संध्या-वन्दन करना विशेष फलप्रद है?

अपने धर अर्थात् अपने निवास स्थान पर संध्या-वन्दन करना समान फल प्रदायक है, गायों के स्थान पर सौगुना, बगीचा तथा वन में हजार गुना, पर्वत्र पर दस हजार गुना, नदी के तट पर लाख गुना, देवालय में करोड़ गुना, भगवान् सदाशिव शङ्कर के सम्मुख बैठकर जप करना, संध्या करने से अनन्त गुना फल मिलता है।

धर के बाहर संध्या करने से झूठ बोलने से लगा पाप, मद्य सूँघने से लगा पाप, दिवा मैथुन करने से लगा पाप नष्ट होता है, अतः संध्या धर से वाहर पवित्र स्थान में करना सबसे लाभदायक है।

सन्ध्या-वन्दन करने का समय अगर निकल जाए तो क्या करना चाहिये? किसी कारण से संध्या का समय निकल जाये या विलम्ब हो जाये तो श्री सूर्यनारायण भगवान् को चौथा अर्घ देना चाहिये, इस अर्घ दान से कालातिक्रमणजन्य पाप नष्ट होता है।

संध्या-वन्दन करने के लिये कौन से आसन उपयुक्त है? कृष्णमृग चर्म पर बैठने से ज्ञान सिद्धि, व्याघ्रचर्म पर बैठने से मोक्ष प्राप्ति, दुःख नाश के कम्बल पर वैठना चाहिये, अभिचार कर्म करने के लिए नील वर्ण के आसन, वशीकरण के लिए रक्तवर्ण, शान्ति कर्म के लिए कम्बल का आसन, सभी प्रकार के सिद्धि के लिये कम्बल का आसन श्रेयस्कर है।

बांस पर बैठने दरिद्रता,पथ्थर पर बैठने से गुदा रोग, पृथ्वी पर बैठने से दुःख, बिधी हुई लकड़ी अर्थात् छेद किया हुआ {किल लगी हुई } पर बैठकर संध्यादि करने से दुर्भाग्य, घास पर बैठने से धन और यश की हानी, पत्तों पर बैठकर जप करने या संघ्या-वन्दन करने से चिन्ता तथा विभ्रम होता है।

काष्ठासन तथा वस्त्रासन का माप क्या होना चाहिए? काष्ठासन चौबीस अंगुल लम्बा तथा अट्ठारह अंगुल चोड़ा, चार या पांच अंगुल ऊँचा होना चाहिए, वस्त्रासन दो हाथ से ज्यादा लम्बा नहीं होना चाहिये तथा एक हाथ से ज्यादा चौड़ा न हो, तीन अंगुल से ज्यादा मोटा नहीं होना चाहिये।

लकड़ी की खड़ाऊँ कहाँ-कहाँ नहीं पहना चाहियें? आग्न्यागार में, गौशाला में, देवता तथा ब्राह्मण के सम्मुख, आहार के समय, जप के समय पादुका का त्याग कर देना चाहिये।

संध्या करते समय मुख किस दिशा में रखें? पवित्र होकर ब्राह्मण संध्योपासना करते समय पूर्व दिशा में मुख करके बैठे, तथा जप भी पूर्वाभिमुख करे, जहाँ कर्त्ता का अंग न उल्लेख हो वहाँ दक्षिण अंग समझना चाहिये, जप होमादि कर्मों में जहाँ का उल्लेख न हो वहाँ पूर्व ईशान ओर उत्तर दिशा समझें।

दैवकार्य रात्रि को सदा उत्तराभिमुख करना चाहिये, शिवार्चन भी उत्तराभिमुख करना चाहियें, जहाँ निरन्तर सूर्य उगता है वेदज्ञ उसी को प्राची पूर्व दिशा कहते हैँ, ईशानमुख या पूर्वाभिमुख होकर संध्या-वन्दन करें।

भस्म धारण कैसे करें? प्रातः जल मिलाकर, मध्याह्न चंदन मिलाकर तथा सायं केवल भस्म ही लगावें।

भस्म कौन सी लेनी चाहियें? श्रीगङ्गाजी के तीर पर उत्तम मिट्टी को जो ललाट पर लगाता है, वह तमोनाश हेतु भगवान् श्रीसूर्यदेव के तेज को लगाता है, गोमय को जलाकर की हुई भस्म ही त्रिपुण्ड्र के योग्य है, स्नानकर मिट्टी-भस्म तथा चंदन व जल से त्रिपुण्ड्र अवश्य करें, किन्तु जल में त्रिपुण्ड्र करें।

भस्म धारण के प्रकार क्या हैं? भस्म से त्रिपुण्ड्र, मिट्टी से ऊर्ध्व, अभ्यंगोत्सवादि रात्रि में चंदन से दोनों करें, गृहस्थ को सदा जल मिश्रित ही भस्म लगाना चाहिये, यति को केवल भस्म ही लगाना चाहिये, दाहिने हाथ की मध्य की तीन अंगुलियों से विद्वान लोग त्रिपुण्ड्र धारण करें जो सब पापों को नाश करने वाला है, जो त्रिपुण्ड्र धारण नहीं करता उसके लिए सत्य, शौच, जप, होम, तीर्थ, देव-पूजन सभी व्यर्थ हैं।

भस्म कहाँ-कहाँ धारण करें? ललाट, हृदय, नाभी, कण्ठ, बाहुसंधि, पृष्टदेश और शिर इन स्थानों में भस्म लगावें।

त्रिपुण्ड्र कितना लम्बा होना चाहिये? ब्राह्मण के लिए आठ अंगुल लम्बा, क्षत्रिय के लिए चार अंगुल लम्बा, वैश्य के लिए दो अंगुल लम्बा, शेष शुद्रादि के लिए एक अंगुल लम्बा त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिये।

त्रिपुण्ड्र किसे कहते हैं? भ्रुवों के मध्य से प्रारम्भ कर जब तक भ्रुवों का अन्त न हो, मध्यमानामिका अंगुलियों से मध्य में प्रतिलोम अंगुठे से जो रेखा की जाती है उसे त्रिपुण्ड्र कहते हैं।

करमाला किसे कहते हैं? मध्याङ्गुली के आदि के दो पर्वों को जप काल में छोड़ देना चाहिये, स्वयं श्रीब्रह्माजी का कथन है कि उसे मेरु मानना चाहिये।

मेरु लंघन ने क्या दोष लगता है? मेरुहीन तथा मेरु के लांघने वाली माला अशुद्ध होती है, तथा निष्फल भी है।

माला किस चीज़ की उत्तम होती है? अरिष्ट पत्र एवं बीज, शङ्ग पद, मणि, कुशग्रन्थी, रुद्राक्ष ये क्रमशः उत्तरोत्तर उत्तम है।

जप के लिए माला किसकी होनी चाहिये? प्रवाल, मुक्ता, स्फटिक, ये जप के लिए कोटी फलप्रद देने वाली भाला मानी गई है।

भस्म न धारण करने से क्या दोष लगता है? स्नान, दान, जप, होम, संध्या-वन्दन, स्वाध्यायादि कर्म ऊर्ध्व पुण्ड्र या त्रिपुण्ड्र विहिन के लिए निरर्थक है, अर्थात् इनका कोई भी फल नहीं मिलता, ललाट पर तिलक कर के ही संध्या-वन्दन करें, जो ऐसा नहीं करता उसका किया हुआ सब निरर्थक है, तुलसी की माला अक्षय फल दायक मानी गयी है।

माला का दाना किन-किन अंगुलियों से बदला जाये? अंगुठे और मध्यमा अंगुली से माला का दाना बदलना चाहिये, तर्जनी अर्थात् अंगुठे की बगल वाली अंगली से माला के मनके अर्थात् दाने का स्पर्श भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि मध्यमा अंगुली आकर्षण करने वाली तथा सब प्रकार की सिद्धि प्रदायक होती है ।

कर्म विशेष में दर्भ का क्या प्रमाण है? ब्रह्मयज्ञ में गोकर्णमात्र दो दर्भा, तर्पण में हस्तप्रमाण तीन दर्भा।

गोकर्ण किसे कहते हैं? तर्जनी और अंगुठे को फैलाकर जो प्रादेश प्रमाण होता है, उसे ही गोकर्ण कहते हैं।

वितरित किसे कहते हैं? कनिष्टिका तथा अंगुठे के फैलाने पर वितरति होता है, जिसे विलांत या द्वादशाङ्गुल कहते हैं।

पवित्र कैसी दर्भा का होता है? अनन्त गर्भवति अग्रभाग सहित दो दलवाली प्रादेशमात्र कुश का पवित्र होता है, मार्कण्डेय पुराण के मत से ब्राह्मण को चार शाखा वाली दर्भा से, क्षत्रिय को तीन शाखा वाली दर्भा और वैश्य को दो शाखावाली दर्भा से पवित्र बनाना चाहिये।

सपवित्र हस्त से आचमन करना या नहीं करना चाहिये? सपवित्र हस्त से आचमन करने से वह पवित्र उचिष्ट नहीं होता है।

कौन-कौन से कर्म दोनों हाथों में दर्भा लेकर करना चाहिये?

स्नान, दान, होम, जप, स्वाध्याय, पितृकर्म तथा संध्या-वन्दन दोनों हाथ में दर्भा लेकर करें।

पवित्र किसे कहते हैँ? दो अंगुल जिसका मूल भाग हो, एक आंगुल की ग्रन्थी हो और चार अंगुल जिसका अग्रभाग हो उसे पवित्र कहते हैं।

ब्रह्मग्रन्थी और वर्तुल ग्रन्थी कहाँ-कहाँ लगाना चाहिये? ब्रह्मयज्ञ में, जप में, पहने जाने वाले पवित्र में ब्रह्मग्रन्थी लगावें।

ब्रह्मग्रन्थी तथा वर्तुल ग्रन्थी में क्या भेद हैं? ब्रह्मग्रन्थी तथा वर्तुल ग्रन्थी परस्पर विपरीत क्रम से हैं।

कुशा तथा दूर्वा की पवित्री में अधिक उत्तम कौन हैं? कुशा तथा दूर्वा की पवित्री से भी उत्तम सुवर्ण की पवित्री है।

कुशा के अभाव में क्या-क्या लेना चाहिये?

कुशा के अभाव में काश, क्योंकि कुश काश के समान हैं, काश के अभाव में अन्यदर्भा भी उचित है, दर्भा के अभाव में स्वर्ण, रोप्य, ताभ्र भी ग्रहण किया जाता है।

दश दर्भायें कौन-कौन से होते हैं? कुश, काश, शर, दुर्वा, यव, गोयुम, बलबज, सुवर्ण, रजत और ताम्र ये दश दर्भा कहलाती हैं।

यदि दोनों हाथो के लिए पवित्री न हो तो क्या करें? यदि दोनों हाथो के लिए पवित्री न हो तो दाहिने हाथ के लिए तो पवित्री अत्यावस्यक है।

सुवर्ण पवित्री कितने वजन की हो? सुवर्ण पवित्री सोलह माशे के ऊपर वजन की बनानी चाहिये, इससे कम वजन की नहीं हो।

शिखा बंधन मंत्र से करें या वैसे ही? अमन्त्रक शिखा बंधन करने से जप होमादि सभी कर्म वृथा हो जाते हैं।

सदा यज्ञोपवीत और शिखा बाँधे क्यों रखना चाहिये? बिना यज्ञोपवीत तथा बिना शिखा बाँधे रहने वाले व्यक्ति का किया हुआ सभी कर्म निरर्थक हो जाता है, उसका कोई फल नही प्राप्त होता।

शिखा बंधन सहित कौन-कौन कार्य करें?

दान, जप, होम, संध्या, देवपूजादि कार्य शिखा बाँध कर ही करना चाहिये।

शिखा कहाँ-कहाँ खुली रखें?

शौच, शयन, स्त्रीसंग, भोजन तथा दन्तधावन करते समय शिखा खुली रखनी चाहिये।

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