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कुंडलिनी ………… एक मुल साधना
कुंडलिनी साधना आज चर्चा का विषय बना हूवा है । ये साधना एक यैसी साधना है की जो मोक्ष के मार्ग खोल देती है । सरल साधना प्रविधि होने तथा कम समय मै सिद्धी हासिल हो जाती है । इसलिए आज सभी योगियों, तांत्रिकों, मुनीषियों, ऋषियों और साधकों पहली पसन्द साधना बन रही है । सभी इसे मुल साधना और अहम साधना मान रहे है । यह साधना शुरू में योग पे आधारित साधना थी । समय के कालचक्र कुछ इस तरह गुमी की सामान्य जनमानस के लिए यह साधना करना बहूत कठिन हो गई थी । तब हमारे पूर्वजों ने इस साधना की तकनीकियों में समय सार्प्रेक्ष कुछ परिवर्तन कर इसे गृहस्थों के अनुकूल बनाया दिया था । परिवर्तन के वाद ये कुंडलिनी साधना दो प्रकार की बन गई । एक प्राणायाम और योग मुद्राओं वाली — जिसमे शक्ति चालिनी मुद्रा ,उद्दयान बांध तथा कुम्भक प्राणायाम का वीर्य के ओज परिवर्तन में विशेष महत्त्व प्रतिपादित किया गया । जटिल साधना को एक यैसी साधना में परिवर्तित कर दि गइ की अविवाहित, विधुर अथवा सन्यासियों के लिए भी ये आसान हो गया । सब के लिये विशेष महत्वपूर्ण साधना बन गयी उस परिवर्तन के वाद । यह निवृत्त्मार्गी साधना उनके लिए उपयुक्त नहीं रही जो गृहस्थास्रम में रहकर परिवारीजनों के कर्तव्यकर्म पूर्ण करते हुए साधना रत रहना चाहते थे । गृहस्थ बिना स्त्री के नहीं चलता और संन्यास स्त्री के रहते नहीं चल सकता । परन्तु जहाँ तक साधना के विकास का प्रश्न है अथवा आत्मोत्थान का प्रश्न है, क्या गृहस्थ और क्या सन्यासी, क्या स्त्री क्या पुरुष, सभी सामान अधिकार रखते हैं और आवश्यकता अनुभव करते हैं । ऐसे प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थों के लिए स्त्री के साथ ही साधनारत होने का मार्ग भी ऋषियों ने खोज निकाला । निवृत्त मार्ग में जो कार्य शक्तिचालिनी मुद्रा ने किया वह कार्य वह कार्य प्रवृत्ति मार्ग में सम्भोग मुद्रा से किया गया । शेष बांध और कुम्भक अपने अपने स्थानों और कार्यों में यथावत रहे । रमण मुद्रा को अधिक टिकाऊ बनाने के लिए ऋषियों ने विभिन्न प्रकार की काम मुद्राएँ , बाजीकरण विधियाँ तथा तांत्रिक औषधियां खोज कर इस साधना को और भी शक्तिशाली बना दिया । इस प्रकार वीर्य को उर्ध्वागति देने के लिए जहाँ साधक ने भस्रिका का प्रयोग करते थे वहां प्रवृत्ति वाममार्गी तांत्रिक दीर्घ सम्भोग का उपयोग करने लगे । इस प्रकार कुंडलिनी साधना का दूसरा स्वरूप रमण मुद्राओं वाला बन गया । सम्भोग के कारण इस साधना में पुरुष और स्त्री का बराबर का योगदान रहा है । रमण एक तकनिकी क्रिया है, जिसमे जनन तंत्र का उपयोग होता है, इस कारण रमण साधना तांत्रिक कहलाई ।
जनन तंत्र के विषय में हमारी संस्कृति प्रारम्भ से ही गुप्त बनाई गई थी । क्योकि असभ्य संस्कृतियों वाले आदिवासी कुछ भी गुप्त नहीं रखते थे । अतः सभ्य संस्कृति वालों ने जनन तंत्र सम्बन्धी विषय को गुप्त घोषित कर दिया । इस प्रकार रमण साधना हमारे घरों में गुप्त साधना हो गई । उसे यहाँ तक गुप्त बनाने का प्रयत्न किया गया की सामान्य हवन यज्ञ में ”ॐ प्रजापतये स्वाहा” को भी मौन आहुति देने का विधान बना दिया गया । व्हूंकी प्रजापति ( प्रजा वर्धन वाला ब्रह्मा की शक्ति ) का कार्य सम्भोग से संपन्न होता है वह सभ्य संस्कृति वाले सबके सम्मुख कैसे व्याख्या करे । वास्तव में यज्ञ में सारी आहुतियाँ सारे मंत्र जोर जोर से बोलते बोलते प्रजापति स्वाहा बोलते समय मौन हो जाना तांत्रिक साधना की पुष्टि करता है । जहाँ हवंन यज्ञ सांसारिक सुख -आनंद, वैभव और परिवार के विकास के लिए किया जाता है वहां प्रजापति आहुति पूरे जोर शोर से दि जाती है । वहां मौन आहुति का विधान नहीं है । चूंकि परिवार की वृद्धि के लिए तो वीर्य की अधोगति में ही रमण यज्ञ की पूर्णता होती है । किन्तु जहाँ आध्यात्मिक उन्नति के लिए यज्ञ हो तो प्रजापति आहुति मौन हो जाती है । यज्ञ का एक अर्थ सम्भोग भी है । जब व्यक्ति सम्भोग यज्ञ द्वारा कुंडलिनी साधना में रत होता है तो उस वीर्य को उर्ध्व गति करनी होती है । परन्तु प्रजा वर्धन का कार्य वीर्य की अधोगति करने पर ही संपन्न होता है । अतः सम्पूर्ण यज्ञ क्रिया, सम्पूर्ण रमण क्रिया पूरे जोर शोर के साथ उस बिंदु तक चलती रहेगी जब तक की स्खलन बिंदु न आ जाए । जैसे ही वह बिंदु आये ,सम्भोग यज्ञ में कुम्भक प्राणायाम करके मूल बंध सहित वज्रोली मुद्रा की जाए तो वीर्य की उर्ध्वागति हो जाती है । अतः एक क्षण के लिए वह सम्भोग यज्ञ प्रजापति के बिंदु पर मौन हो जाएगा । जैसे ही वह स्थिति समाप्त हो जाए । यज्ञ कार्य फीर आगे बढाया जा सकता है ।
रमण साधना को गुप्त घोषित किये जाने के कारण कुंडलिनी तंत्र परम गुप्त साधना बन गयी । क्योकि प्रजावर्धन से कहीं अधिक सूक्ष्म क्रियाये ओज वर्धन की हैं । प्रजावर्धन के लिए स्खलन में ही सम्भोग की पूर्णता है । जबकि ओज वर्धन के लिए स्खलित हो जाना भ्रष्ट संभोग है । वीर्य से तेज निर्मित होने तक की सम्पूर्ण प्रक्रिया सम्भोग के अंतर्गत आती है और सम्भोग रत दम्पति के ऊपर प्रकाश वलय चमकाना ही ऐसे रमण की पूर्णता है । इस पूर्णता में भी स्खलन नहीं है ।
तंत्र की शुरुआत भारतीय ऋषियों योगियों द्वारा ही की गई और इसके आदि गुरु, जन्मदाता और प्रवर्तक देवो के देव महादेव द्वारा कीया गया हैं । जब की यह खुद गृहस्थी थे । अतः इन्होने मोक्ष का मार्ग कुंडलिनी साधना, गृहस्थों के लिए अनुकूल बनाया और इसमें तकनिकी आदि का समावेश किया, इसे तन से, विस्तारित होने से, तकनिकी प्रयोग से तंत्र का नाम दिया गया । क्योकि इसकी क्रियाविधीन में अनेकानेक तकनीकियों का उपयोग हुआ । कुंडलिनी साधना सदैव से मूल साधना और मोक्ष का एकमात्र मार्ग रहा है । ये साधनाये पहले ऋषियों योगियों द्वारा ही किया जाता था । गृहस्थों के लिए इसका विशिष्ट रूप महेश्वर और अन्य योगियों द्वारा विकसित किया गया । यह योग साधना से बिलकुल विपरित चलता था । यद्यपि इसमें भी यौगिक क्रियाएं बंध ,मुद्रा आदि सम्मिलित थी । इसमें सृष्टि की ऊर्जा अर्थात काम का उपयोग किया गया और आधार मूलाधार को बनाया गया । इस कुंडलिनी साधना को जो काम आधारित था बाद में बौद्धों ,कापालिकों ,तत्पश्चात कॉलों आदि द्वारा अपनाया गया और अनेक सुधार भी हुए और अनेक विकृति भी उत्पन्न हुई ।
मूल कुंडलिनी तंत्र में वीर्य स्खलन की मनाही है । जिससे ओज और तेज निर्मित हो । किन्तु बाद के भ्रष्ट भोगियों और तथाकथित तांत्रिकों ने स्खलन को भी धार्मिक आधार दे दिया । जिस से की इनको खुले भोग की अनुमति मिल गयी । इन्होने अपने स्वार्थ के लिये ऐसे ऐसे शास्त्रों की रचना कर डाली जो मुल साधना से बहूत दूर है । एक स्वच्छ शक्तिशाली साधनको भष्ट और कलंकित कर डाला । तंत्र के जन्मदाता महेश्वर अथवा शिव का नाम लेकर इन्होने लिख दिया की वीर्य पात करके देवी देवता को चढ़ाया जाए । वीर्य के उर्ध्वा होने से ही ओज, तेज का निर्माण होता है और चक्र जागरण होता है । जबकि पात से तो शक्ति का नाश हो जाता है । ऐसे में पात से कैसे कुंडलिनी जागेगी । अथवा कैसे चक्र जागेगा और कैसे शक्ति या सिद्धि मिलेगी । यह तो अपने भोग का माध्यम बना लिया । आज समाज में ऐसे ही भ्रष्ट तांत्रिक मिलते हैं और इनका सहारा या प्रमाण वाही लिखे भ्रष्ट शास्त्र होते हैं । वास्तविक तंत्र साधना तो कुंडलिनी साधना ही है जो गृहस्थों के अनुकूल बनाई और गयी । जिसका आज के स्वार्थी और यौन के भुखे भेडियो ने अपहरण कर उसे विकृत कर दिया गया । हम प्राय इस साधना के बारे लिखकर साधकों को मूल विद्या के बारे में जानकारी कराते है । ताकी वह उचित साधना करे और यैसे भष्ट और स्वार्थी से बच सके ।

      

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