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कुंडलिनी_महाशक्ति

       

नारायण

स्थूल रूप से शरीर के स्नायुमंडल को ही पाश्चात्य वैज्ञानिक देख पाए हैं,वे अभी तक नाड़ियों के भीतर बहने और गतिविधियों को मूल रूप से प्रभावित करने वाले प्राण – प्रवाह को नहीं जान सके। स्थूल नेत्रों से उसे देखा जाना भी संभव नहीं है। उसे भारतीय योनियों ने चेतना के अति सूक्ष्म स्तर का वेधन करके देखा। योग शिखोपनिषद् में १०१ नाड़ियों का वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने सुषुम्ना शीर्षक को पर नाड़ी बताया है। यह कोई नाड़ी नहीं है, वरन इड़ा और पिंगला के समान विद्युत – प्रवाह से उत्पन्न हुई एक तीसरी धारा है। जिसका स्थूल रूप से अस्तित्व नहीं भी है। और सूक्ष्म रूप से इतना व्यापक एवं विशाल है कि जीव की चेतना जब उसमें से होकर भ्रमण करती है तो ऐसा लगता है कि वह किसी आकाशगंगा में प्रवाहित हो रहा हो। वहां से विशाल ब्रह्माण्ड की झांकी होती है। अंतरिक्ष में अवस्थित अगणित सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह – नक्षत्र की स्थिति समझने और विश्वव्यापी हलचलों को नाद रूप में सुनने – समझने का अलभ्य अवसर, जो किसी चन्द्रयान या राकेट के द्वारा भी संभव नहीं है, इसी शरीर में मिलता है। उस स्थित का वर्णन किया जाए तो प्रतीत होगा कि कुछ स्थूल और सूक्ष्म इस संसार में विद्यमान है,उस सबके साथ संबंध मिला लेने और उनका लाभ उपलब्ध करने की क्षमता उस महान आत्मतेज में विद्यमान है, जो कुंडलिनी के भीतर बीज रूप में मौजूद है।
सुषुम्ना नाड़ी (स्पाइनल कार्ड) मेरुदण्ड में प्रवाहित होती है और ऊपर मस्तिष्क के चौथे खोखले भाग ( फोर्थवेंट्रिकल ) में जाकर सहस्त्रारचक्र में उसी तरह प्रविष्ट हो जाती है, जिस तरह की तालब के पानी में से निकलती हुई कमल नाल से शत – दल कमल विकसित जो उठता है। सहस्रारचक्र ब्रह्माण्ड लोक का प्रतिनिधि है, वहां ब्रह्मा की संपूर्ण विभूति बीज रूप से विद्यमान है और कुंडलिनी की ज्वाला वहीं जाकर अंतिम रूप से जा ठहरती है,उस स्थित नें मधुपान का सा, संभोग की तरह का सुख (जिसका कभी अंत नहीं होता ) अनुभव होता है। उसी कारण से कुंडलिनी शक्ति से ब्रह्मप्राप्ति होना बताया जाता है।
पृथ्वी का आधार जिस प्रकार शेष भगवान को मानते हैं, उसी प्रकार कुंडलिनी का शक्ति का शक्ति पर ही प्राणिमात्र का जीवन अस्तित्व टिका हुआ है। सर्प के आकार की वह महाशक्ति ऊपर जिस प्रकार मस्तिष्क में अवस्थित शुन्य चक्र से मिलती है, इसी प्रकार नीचे वह यौन स्थान में विद्यमान कुंडलिनी के ऊपर टिकी रहती है प्राण और अपान वायु के धौंकनें से वह धीरे धीरे ,मोटी, सीधी सशक्त और परिपुष्ट होने लगती है। साधना की प्रारम्भिक अवस्था में यह क्रिया धीरे – धीरे होती है, किंतु साक्षात्कार या सिद्धि कि अवस्था में वह सीधी ही जाती है और सुषुम्ना का द्वारा खुल जाने से शक्ति का स्फुरण वेग से फुटकर सारे शरीर में, विशेषकर मुखाकृति में फूट पड़ता है। कुंडलिनी जागरण दिव्य ज्ञान ,दिव्य अनुभूति और अलौकिक मुख का सरोवर इसी शरीर मे मिल जाता है। सुषुम्ना नाड़ी का रुका हुआ छिद्र जब खुल जाता है, तो साधक को एक प्रकार का अत्यंत मधुर नाद सुनाई देने लगता है। नाभि से ४ अंगुल ऊपर यह आवाज सुनाई देती है, उसे सुनकर चित्त उसी प्रकार मोहित होता है, जिस प्रकार वेणुनाद सुनकर सर्प सब कुछ भूल जाता है। अनाहद नाद से साधक के मन पर चढ़े हुए जन्म जन्मांतरों के कुसंस्कार छूट जाते हैं।
कुंडलिनी महाशक्ति को तंत्र शास्त्रों में द्विमुखी सर्पिणी कहा गया है। उसका एक मुख मल – मूत्र इंद्रियों के मध्य मूलाधारचक्र में है। दुसरा मुख मस्तिष्क के मध्य ब्रह्मरंध्र में। कुंडलिनी शक्ति के ऊपर और नीचे के जननेंद्रिय और मस्तिष्क के अधः उर्ध्व केन्द्रों की शक्तियों का निरंतर आदान – प्रदान होता रहता है। यह संचार क्रिया मेरुदण्ड के माध्यम से होती है। रीढ़ की हड्डी इन दोनों केन्द्रों को परस्पर मिलाने का काम करती है। वस्तुतः स्थूल कुंडलिनी का महासर्पिणी स्वरुप मूलाधार से लेकर मेरुदण्ड समेत ब्रह्मरंध्र तक फैले हुए सर्पाकृति कलेवर में ही पूरी तरह देखी जा सकती है। ऊपर – नीचे मुडे हुए दो महान शक्तिशाली केन्द्र चक्र ही उसके आगे पीछे वाले दो मुख हैं।
मूलाधार में अवस्थित कुंडली महाशक्ति मलद्वार और जननेंद्रिय के बीच लगभग चार अंगुल खाली जगह में विद्यमान बताई। जाती है। योगशास्त्र के अनुसार इस स्थान पर वही गह्वर में एक त्रिकोण परमाणु पाया जाता है। यों सारे शरीर में स्थित कण गोल बताए जाते हैं। यही एक तिकोणा कण है। यहाँ एक प्रकार का शक्ति भंवर है। शरीर में प्रवाहित होने वाली तथा मशीनों से संचालित बिजली की गति का क्रम यह है। कि वह आगे बढ़ती है फिर तनिक पीछे हटती है और उसी क्रम से आगे बढ़ती और पीछे हटती हुई अपनी अभीष्ट दिशा में दौड़ती हुई चली जाती है। किंतु मूलाधार स्थित त्रिकोण कण के शक्ति भंवर में सन्निहित बिजली गोल घेरे में पेड़ से लिपटी हुई बेल की तरह घूमती हुई संचालित होती है। यह संयम क्रम प्रायः ३ लपेंटो का है। आगे चलकर यह विद्युत धारा इस विलक्षण गति को छोडकर सामान्य रीति से प्रवाहित होने लगती है।
यह प्रवाह निरंतर मस्तिष्क के उस मध्यबिंदु तक दौडता रहता है, जिसे ब्रह्मरंध्र या सहस्रार कमल कहते हैं। इसका मध्य अणु भी शरीर के अन्य अणुओं से भिन्न है। वह गोल ना होकर चपटा है। उसके किनारे चिकने ना होकर खुरदरे हैं। अलंकारिक दृष्टि से इसे एक ऐसे कमल – पुष्प की तरह चित्रित किया जाता है, जिसमें हजार पंखुड़ियाँ खिली हुई हों । इसलिए इस अणु का नाम ‘सहस्रार – कमल ‘ कहा गया है।
सहस्रार कमल का पौराणिक वर्णन बहुत ही मनोरम एवं सारगर्भित है कहा गया है कि क्षीरसागर में भगवान विष्णु सहस्र फन वाले शेषनाग पर शयन कर रहे हैं। उनके हाथ में शंख, चक्र,गदा,पद्म है। लक्ष्मी उनके पैर दबाती है। कुछ पार्षद उनके पास खड़े हैं। क्षीरसागर मस्तिष्क में भरा हुआ, भूरा – चिकना पदार्थ ग्रेमैटर है। हजार फन वाला सर्प यह चटपटा खुरदुरा ब्रह्मरंध्र स्थित विशेष परमाणु है। मनुष्य शरीर में अवस्थित ब्रह्मसता का केंद्र यही है। इसी से यहां विष्णु भगवान का निवास बताया गया है। यहाँ विष्णु सोते रहते हैं। अर्थात सर्वसाधारण में होता तो ईश्वर का अंश समान रुप से है, पर वह जाग्रत स्थिति में नहीं देखा जाता । आमतौर से लोग घृणित, हेय पशु – प्रवृतियों जैसा निम्न स्तर का जीवनयापन करते हैं। उसे देखते हुए लगता है कि इनके भीतर या तो ईश्वर है ही नहीं यदि है तो वह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा है। जिसका ईश्वर जाग्रत् होगा उसकी विचारणा, क्रियाशीलता, आकांक्षा एवं स्थिति उत्कृष्ट स्तर कि दिखाई देगी। वह प्रबुद्ध और प्रकाशवान जीवन जी रहा है,अपने प्रकाश से स्वयं ही प्रकाशवान न हो रहा होगा । वरन दुसरो को भी मार्गदर्शन करने में समर्थ हो रहा होगा । मानव तत्व की विभूतियाँ जिसमें परिलक्षित न हो रही हैं,जो शोक – संताप, दैन्य – दारिद्र और चिंता – निराशा का जीवन जी रहा हो, उसके बारे में यह कैसे कहा जाए कि उसमें भगवान विराजमान हैं ? फिर यह भी तो नहीं कहा जा सकता कि उसमें ईश्वर नहीं है। हर जीव ईश्वर का अंश है और उसके भीतर ब्रह्मसता का अस्तित्व विद्यमान है।
इस विसंगति की संगति मिलाने के लिए यही कहा जा सकता है। कि उसमें भगवान है तो, पर सोया पड़ा है। क्षीर जैसी उज्ज्वल विचारणाओं के सागर में भगवान निवास करते हैं। क्षीर सागर ही उनका लोक है। जिस मस्तिष्क में क्षीर जैसी धवल,स्वच्छ, उज्ज्वल प्रवृत्तियां, मनोवृत्तियां भरी पड़ी हों ,समझना चाहिए कि उसके अंतरंग क्षीर सागर है और उसे भगवान का लोक ही माना जाएगा ।
जय भगवती

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