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#सेंधा_नमक
भारत से कैसे गायब कर दिया गया, शरीर के लिए Best Alkalizer है :-
आप सोच रहे होंगे की ये सेंधा नमक बनता कैसे है ?? आइये आज हम आपको बताते हैं कि नमक मुख्य कितने प्रकार होते हैं। एक होता है समुद्री नमक दूसरा होता है सेंधा नमक (rock salt) । सेंधा नमक बनता नहीं है पहले से ही बना बनाया है। पूरे उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में खनिज पत्थर के नमक को ‘सेंधा नमक’ या ‘सैन्धव नमक’, लाहोरी नमक आदि आदि नाम से जाना जाता है । जिसका मतलब है ‘सिंध या सिन्धु के इलाक़े से आया हुआ’। वहाँ नमक के बड़े बड़े पहाड़ है सुरंगे है । वहाँ से ये नमक आता है। मोटे मोटे टुकड़ो मे होता है आजकल पीसा हुआ भी आने लगा है यह ह्रदय के लिये उत्तम, दीपन और पाचन मे मदद रूप, त्रिदोष शामक, शीतवीर्य अर्थात ठंडी तासीर वाला, पचने मे हल्का है । इससे पाचक रस बढ़्ते हैं। तों अंत आप ये समुद्री नमक के चक्कर से बाहर निकले। काला नमक ,सेंधा नमक प्रयोग करे, क्यूंकि ये प्रकर्ति का बनाया है ईश्वर का बनाया हुआ है। और सदैव याद रखे इंसान जरूर शैतान हो सकता है लेकिन भगवान कभी शैतान नहीं होता।

भारत मे 1930 से पहले कोई भी समुद्री नमक नहीं खाता था विदेशी कंपनीया भारत मे नमक के व्यापार मे आज़ादी के पहले से उतरी हुई है , उनके कहने पर ही भारत के अँग्रेजी प्रशासन द्वारा भारत की भोली भली जनता को आयोडिन मिलाकर समुद्री नमक खिलाया जा रहा है,
हुआ ये कि जब ग्लोबलाईसेशन के बाद बहुत सी विदेशी कंपनियो (अनपूर्णा,कैपटन कुक ) ने नमक बेचना शुरू किया तब ये सारा खेल शुरू हुआ ! अब समझिए खेल क्या था ?? खेल ये था कि विदेशी कंपनियो को नमक बेचना है और बहुत मोटा लाभ कमाना है और लूट मचानी है तो पूरे भारत मे एक नई बात फैलाई गई कि आओडीन युक्त नामक खाओ , आओडीन युक्त नमक खाओ ! आप सबको आओडीन की कमी हो गई है। ये सेहत के लिए बहुत अच्छा है आदि आदि बातें पूरे देश मे प्रायोजित ढंग से फैलाई गई । और जो नमक किसी जमाने मे 2 से 3 रूपये किलो मे बिकता था । उसकी जगह आओडीन नमक के नाम पर सीधा भाव पहुँच गया 8 रूपये प्रति किलो और आज तो 20 रूपये को भी पार कर गया है।

दुनिया के 56 देशों ने अतिरिक्त आओडीन युक्त नमक 40 साल पहले ban कर दिया अमेरिका मे नहीं है जर्मनी मे नहीं है फ्रांस मे नहीं ,डेन्मार्क मे नहीं , डेन्मार्क की सरकार ने 1956 मे आओडीन युक्त नमक बैन कर दिया क्यों ?? उनकी सरकार ने कहा हमने मे आओडीन युक्त नमक खिलाया !(1940 से 1956 तक ) अधिकांश लोग नपुंसक हो गए ! जनसंख्या इतनी कम हो गई कि देश के खत्म होने का खतरा हो गया ! उनके वैज्ञानिको ने कहा कि आओडीन युक्त नमक बंद करवाओ तो उन्होने बैन लगाया। और शुरू के दिनो मे जब हमारे देश मे ये आओडीन का खेल शुरू हुआ इस देश के बेशर्म नेताओ ने कानून बना दिया कि बिना आओडीन युक्त नमक भारत मे बिक नहीं सकता । वो कुछ समय पूर्व किसी ने कोर्ट मे मुकदमा दाखिल किया और ये बैन हटाया गया।

आज से कुछ वर्ष पहले कोई भी समुद्री नमक नहीं खाता था सब सेंधा नमक ही खाते थे ।

सेंधा नमक के फ़ायदे:-

सेंधा नमक के उपयोग से रक्तचाप और बहुत ही गंभीर बीमारियों पर नियन्त्रण रहता है । क्योंकि ये अम्लीय नहीं ये क्षारीय है (alkaline) क्षारीय चीज जब अमल मे मिलती है तो वो न्यूटल हो जाता है और रक्त अमलता खत्म होते ही शरीर के 48 रोग ठीक हो जाते हैं ।

ये नमक शरीर मे पूरी तरह से घुलनशील है । और सेंधा नमक की शुद्धता के कारण आप एक और बात से पहचान सकते हैं कि उपवास ,व्रत मे सब सेंधा नमक ही खाते है। तो आप सोचिए जो समुंदरी नमक आपके उपवास को अपवित्र कर सकता है वो आपके शरीर के लिए कैसे लाभकारी हो सकता है ??

सेंधा नमक शरीर मे 97 पोषक तत्वो की कमी को पूरा करता है ! इन पोषक तत्वो की कमी ना पूरी होने के कारण ही लकवे (paralysis) का अटैक आने का सबसे बढ़ा जोखिम होता है सेंधा नमक के बारे में आयुर्वेद में बोला गया है कि यह आपको इसलिये खाना चाहिए क्योंकि सेंधा नमक वात, पित्त और कफ को दूर करता है।

यह पाचन में सहायक होता है और साथ ही इसमें पोटैशियम और मैग्नीशियम पाया जाता है जो हृदय के लिए लाभकारी होता है। यही नहीं आयुर्वेदिक औषधियों में जैसे लवण भाष्कर, पाचन चूर्ण आदि में भी प्रयोग किया जाता है।

समुद्री नमक के भयंकर नुकसान :-

ये जो समुद्री नमक है आयुर्वेद के अनुसार ये तो अपने आप मे ही बहुत खतरनाक है ! क्योंकि कंपनियाँ इसमे अतिरिक्त आओडीन डाल रही है। अब आओडीन भी दो तरह का होता है एक तो भगवान का बनाया हुआ जो पहले से नमक मे होता है । दूसरा होता है “industrial iodine” ये बहुत ही खतरनाक है। तो समुद्री नमक जो पहले से ही खतरनाक है उसमे कंपनिया अतिरिक्त industrial iodine डाल को पूरे देश को बेच रही है। जिससे बहुत सी गंभीर बीमरिया हम लोगो को आ रही है । ये नमक मानव द्वारा फ़ैक्टरियों मे निर्मित है।

आम तौर से उपयोग मे लाये जाने वाले समुद्री नमक से उच्च रक्तचाप (high BP ) ,डाइबिटीज़, आदि गंभीर बीमारियो का भी कारण बनता है । इसका एक कारण ये है कि ये नमक अम्लीय (acidic) होता है । जिससे रक्त अम्लता बढ़ती है और रक्त अमलता बढ्ने से ये सब 48 रोग आते है । ये नमक पानी कभी पूरी तरह नहीं घुलता हीरे (diamond ) की तरह चमकता रहता है इसी प्रकार शरीर के अंदर जाकर भी नहीं घुलता और अंत इसी प्रकार किडनी से भी नहीं निकल पाता और पथरी का भी कारण बनता है ।

ये नमक नपुंसकता और लकवा (paralysis ) का बहुत बड़ा कारण है समुद्री नमक से सिर्फ शरीर को 4 पोषक तत्व मिलते है ! और बीमारिया जरूर साथ मे मिल जाती है !

रिफाइण्ड नमक में 98% सोडियम क्लोराइड ही है शरीर इसे विजातीय पदार्थ के रुप में रखता है। यह शरीर में घुलता नही है। इस नमक में आयोडीन को बनाये रखने के लिए Tricalcium Phosphate, Magnesium Carbonate, Sodium Alumino Silicate जैसे रसायन मिलाये जाते हैं जो सीमेंट बनाने में भी इस्तेमाल होते है। विज्ञान के अनुसार यह रसायन शरीर में रक्त वाहिनियों को कड़ा बनाते हैं, जिससे ब्लाक्स बनने की संभावना और आक्सीजन जाने मे परेशानी होती है। जोड़ो का दर्द और गढिया, प्रोस्टेट आदि होती है। आयोडीन नमक से पानी की जरुरत ज्यादा होती है। 1 ग्राम नमक अपने से 23 गुना अधिक पानी खींचता है। यह पानी कोशिकाओ के पानी को कम करता है। इसी कारण हमें प्यास ज्यादा लगती है।

निवेदन :पांच हजार साल पुरानी आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में भी भोजन में सेंधा नमक के ही इस्तेमाल की सलाह दी गई है। भोजन में नमक व मसाले का प्रयोग भारत, नेपाल, चीन, बंगलादेश और पाकिस्तान में अधिक होता है। आजकल बाजार में ज्यादातर समुद्री जल से तैयार नमक ही मिलता है। जबकि 1960 के दशक में देश में लाहौरी नमक मिलता था। यहां तक कि राशन की दुकानों पर भी इसी नमक का वितरण किया जाता था। स्वाद के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी होता था। समुद्री नमक के बजाय सेंधा नमक का प्रयोग होना चाहिए।

आप इस अतिरिक्त आओडीन युक्त समुद्री नमक खाना छोड़िए और उसकी जगह सेंधा नमक खाइये !! सिर्फ आयोडीन के चक्कर में समुद्री नमक खाना समझदारी नहीं है, क्योंकि जैसा हमने ऊपर बताया आओडीन हर नमक मे होता है सेंधा नमक मे भी आओडीन होता है बस फर्क इतना है इस सेंधा नमक मे प्राकृतिक के द्वारा भगवान द्वारा बनाया आओडीन होता है इसके इलावा आओडीन हमें आलू, अरवी के साथ-साथ हरी सब्जियों से भी मिल जाता है।आयोडीन लद्दाख को छोड़ कर भारत के सभी स्थानों के जल में प्राकृतिक रूप से पाया जाता |

क्या प्राचीन ऋषियों को समानांतर ब्रह्माण्डों का ज्ञान था ?
Parallel Universe अर्थात् एक ही जैसा अनेक ब्रह्माण्ड और वहा के लोग।

einstein_1921आज के आधुनिक ब्रह्माण्ड विज्ञान की नींव डाली महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन (Albert Einstein) ने और उनका भरपूर साथ दिया मैक्स प्लांक (Max Plank), श्रोडिन्गर (Schrodinger), पॉल डिराक (Paul Dirac) आदि वैज्ञानिकों ने | आइंस्टीन के सापेक्षिकता के सिद्धांत (Theory Of Relativity) ने आधुनिक विज्ञान को आध्यात्म से जोड़ने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | जिस समय आइंस्टीन ने दुनिया को सापेक्षिकता के सिद्धांत के बारे में बताया, तत्कालीन वैज्ञानिकों को ये स्वीकार करने में कठिनाई महसूस हुई कि ये दुनिया, ब्रह्माण्ड सिर्फ न्यूटन के बताये सिद्धांतो पर नहीं चलती |

आइंस्टीन ने अपने सापेक्षिकता के सिद्धांत में बताया कि समय और स्थान (Time and Space) एक दूसरे से अलग नहीं है | जैसे-जैसे समय बीतता गया, आइंस्टीन के सिद्धांतो की प्रयोगों द्वारा पुष्टि होती गयी | वर्तमान समय में जेनेवा में, लार्ज हेड्रान कोलाईडर (Large Hadron Collider) मशीन पर होने वाले नित नए प्रयोगों के परिणाम विस्मयकारी आंकड़े प्रस्तुत कर रहे हैं |

large-hadron-colliderलेकिन वैज्ञानिको के लिए जो सबसे ज्यादे चकित करने वाली बात है वो ये है की ये आंकड़े, वैज्ञानिकों को जिन निष्कर्षों पर पहुंचा रहे हैं वो आज से हज़ारों वर्ष पहले लिखे गये हिन्दू धर्म ग्रंथों में बहुत विस्तार से समझाया गया है | इस लेख में हम आपको ऐसी ही एक घटना के बारे में बताने जा रहे हैं जिसमे ब्रह्माण्ड के समय और स्थान के परस्पर संबंधों की व्याख्या की गयी है |

योगवशिष्ठ में एक बहुत महत्वपूर्ण वर्णन आता है। यह घटना जीवन के उद्देश्य, रहस्यों और मृत्यु के बाद की जीवन श्रंखला पर भी प्रकाश डालता है इसलिये विद्वान इसे योगवशिष्ठ की सर्वाधिक उपयोगी आख्यायिकाओं में से एक मानते हैं। वर्णन इस प्रकार है-

किसी समय आर्यावर्त क्षेत्र में पद्म नाम का राजा राज्य करता था । लीला नाम की उसकी धर्मशील धर्मपत्नी उसे बहुत प्यार करती थी । जब कभी वह अपने पति की मृत्यु की बात सोचती तो वियोग की कल्पना से घबरा उठती । अंत में कोई उपाय न देखकर उसने भगवती सरस्वती की उपासना की और यह वरदान प्राप्त कर लिया कि यदि उसके पति की मृत्यु पहले हो जाती है, तो पति की अंतःचेतना राजमहल से बाहर न जाये । माँ सरस्वती ने यह भी आशीर्वाद दिया कि तुम जब चाहोगी अपने पति से भेट भी कर सकोगी । कुछ दिन बाद दुर्योग से पद्म का देहान्त हो गया । लीला ने पति का शव महल में ही सुरक्षित रखवा कर भगवती सरस्वती का ध्यान किया | सरस्वती ने उपस्थित होकर कहा-भद्रे ! दुःख न करो तुम्हारे पति इस समय यहीं है पर वे दूसरी सृष्टि (दूसरे लोक) में है | उनसे भेट करने के लिए तुम्हें उसी सृष्टि वाले शरीर (मानसिक ध्यान द्वारा) में प्रवेश करने की प्रयास करना होगा।

लीला ने अपने मन को एकाग्र किया, अपने पति की याद की, उनका ध्यान किया और उस लोक में प्रवेश किया जिसमें पद्म की अंतर्चेतना विद्यमान थी । लीला ने वहां जा कर, कुछ क्षणों तक जो कुछ दृश्य देखा उससे बड़ी आश्चर्यचकित हुई । उस समय सम्राट पद्म इस लोक (यानी इस सृष्टि) के 16 वर्ष के महाराज थे और एक विस्तृत क्षेत्र में शासन कर रहे थे । लीला को अपने ही कमरे में इतना बड़ा साम्राज्य और एक ही दिन के भीतर 16 वर्ष व्यतीत हो गये ये देखकर बड़ा विस्मय हुआ । उस समय भगवती सरस्वती उनके साथ थी उन्होंने समझाया पुत्री
सर्गे सर्गे पृथग्रुपं सर्गान्तराण्यपि । तेष्पन्सन्तः स्थसर्गोधाः कदलीदल पीठवत्। योगवशिष्ठ 4।18।16।77

आकाशे परमाण्वन्तर्द्र व्यादेरगुकेअपि च । जीवाणुर्यत्र तत्रेदं जगद्वेत्ति निजं वपुः ॥ योगवशिष्ठ 3।443435

अर्थात्- “हे लीला ! जिस प्रकार केले के तने के अन्दर एक के बाद एक परतें निकलती चली आती है उसी प्रकार प्रत्येक सृष्टि क्रम विद्यमान है इस प्रकार एक के अन्दर अनेक सृष्टियों का क्रम चलता है। संसार में व्याप्त चेतना के प्रत्येक परमाणु में जिस प्रकार स्वप्न लोक विद्यमान है उसी प्रकार जगत में अनंत द्रव्य के अनंत परमाणुओं के भीतर अनेक प्रकार के जीव और उनके जगत विद्यमान है”।

अपने कथन की पुष्टि करने के लिए, एक जगत (सृष्टि) दिखाने के बाद उन्होंने लीला से कहा – देवी तुम्हारे पति की मृत्यु 70 वर्ष की आयु में हुई है ऐसा तुम मानती हो (क्योकि इस जन्म और लोक में यह सत्य भी है), इससे पहले तुम्हारे पति एक ब्राह्मण थे और तुम उनकी पत्नी । ब्राह्मण की कुटिया में उसका मरा हुआ शव अभी भी विद्यमान है चलो तुम्हे दिखाती हूँ, यह कहकर भगवती सरस्वती लीला को और भी सूक्ष्म जगत में ले गई और लीला ने वहाँ अपने पति का मृत शरीर देखा -उनकी उस जीवन की स्मृतियाँ भी याद हो आई और उससे भी बड़ा आश्चर्य लीला को यह हुआ कि जिसे वह 70 वर्षों की आयु समझे हुये थी वह और इतने जीवन काल में घटित सारी घटना उस सृष्टि (जिसमे उनके पति ब्राह्मण थे और वो उनकी पत्नी) के कुल 7 दिनों के बराबर थी।

लीला ने यह भी देखा कि उस समय उनका नाम अरुन्धती था- एक दिन एक राजा की सवारी निकली उसे देखते ही उनको राजसी भोग भोगने की इच्छा हुई। उसी सांसारिक इच्छा के फलस्वरूप ही उसने लीला का शरीर प्राप्त किया और राजा पद्म को प्राप्त हुई । इसी समय भगवती सरस्वती की प्रेरणा से राजा पद्म जो कि दूसरी सृष्टि में थे उन्हें अंत समय (वहां की सृष्टि के अनुसार) में फिर से पद्म के रूप में राज्य-भोग की इच्छा जाग उठी, लीला को उसी समय फिर पूर्ववर्ती भोग की इच्छा ने प्रेरित किया और फलस्वरूप वह भी अपने व्यक्त शरीर में आ गई और राजा पद्म भी अपने शव में प्रविष्ट होकर जी उठे फिर कुछ दिन तक उन्होंने राज्य-भोग भोगे और अन्त में पुनः मृत्यु को प्राप्त हुए।

इस कथानक में महर्षि वशिष्ठ ने मन की अनंत इच्छाओं के अनुसार जीवन की अनवरत यात्रा, मनुष्येत्तर योनियों में भ्रमण, समय तथा स्थान से निर्मित ब्रह्माण्ड (टाइम एण्ड स्पेश) में चेतना के अभ्युदय और अस्तित्व तथा प्राण विद्या के गूढ रहस्यों पर बड़ा ही रोचक और बोधगम्य प्रकाश डाला है । पढ़ने सुनने में यह कथानक परियों की सी कथा या जादुई चिराग जैसी लग सकती है लेकिन ये वो विज्ञान है जिसकी सहायता से पूरे ब्रह्माण्ड की व्याख्या की जा सकती है |

parallel-universeआज के आधुनिक वैज्ञानिकों के सामने दोहरी समस्या है, पहली ये की वो ये स्वीकार करने में कठिनाई महसूस करते है की हिन्दू धर्म के प्राचीन ऋषि-महर्षि, समय-स्थान,

ब्रह्माण्ड (Universe), समानांतर ब्रह्माण्ड (Parallel Universe) आदि की गुत्थी सुलझा चुके थे (क्योकि ये स्वीकार करने में इतिहास और दर्शन की सभी प्राचीन मान्यताये छिन्न-भिन्न होने का खतरा है), और दूसरी समस्या ये है कि अगर वो ये मान भी लें की ऐसा था तो उन प्राचीन ऋषि-महर्षि के ज्ञान को, उनके आधुनिक विज्ञान की भाषा में उनको समझाएगा कौन ?

यहाँ यक्ष प्रश्न यह भी है कि हमारे ही पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान और हम ही इसका महत्व नहीं समझते |

मानवेतर सत्ता का विस्तार असीम है | उसकी तुलना में बहुत ही सीमित क्षेत्र (Dimension) की दुनिया में हम अपने दैनिक जीवन के क्रिया-कलाप को अंजाम दे रहे हैं | इसके परे जो दुनिया है उसे समझने के लिए हमें अपने, स्वयं का विस्तार करना पड़ेगा तभी हम उसे समझ पायेंगे |
16 विद्याएॅ

  1. वाक् सिद्धि : जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं!
  2. दिव्य दृष्टि: दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं!
  3. प्रज्ञा सिद्धि : प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता हें वह प्रज्ञावान कहलाता हें! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता हें!
  4. दूरश्रवण : इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता!
  5. जलगमन : यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो!
  6. वायुगमन : इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं!
  7. अदृश्यकरण : अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता हैं!
  8. विषोका : इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं, दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं!
  9. देवक्रियानुदर्शन : इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं!
  10. कायाकल्प : कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव तोग्मुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं!
  11. सम्मोहन : सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता हैं!
  12. गुरुत्व : गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता हैं! और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया हैं!
  13. पूर्ण पुरुषत्व : इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! जिस के कारन से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! तदनंतर कंस का संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की!
  14. सर्वगुण संपन्न : जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे – दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं!
  15. इच्छा मृत्यु : इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता हैं!
  16. अनुर्मि : अनुर्मि का अर्थ हैं-जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो!

यह समस्त संसार द्वंद्व धर्मों से आपूरित हैं, जितने भी यहाँ प्राणी हैं, वे सभी इन द्वंद्व धर्मों के वशीभूत हैं, किन्तु इस कला से पूर्ण व्यक्ति प्रकृति के इन बंधनों से ऊपर उठा हुआ होता हैं!

कब देते है ग्रह अपने अशुभ फल।

प्रत्येक जातक की कुंडली में अशुभ ग्रहों की स्थिति अलग-अलग रहती है, परंतु कुछ कर्मों के आधार पर भी ग्रह आपको अशुभ फल देते हैं। व्यक्ति के कर्म-कुकर्म के द्वारा किस प्रकार नवग्रह के अशुभ फल प्राप्त होते हैं, आइए जानते हैं :
चंद्र :सम्मानजनक स्त्रियों को कष्ट देने जैसे, माता, नानी, दादी, सास एवं इनके पद के समान वाली स्त्रियों को कष्ट देने एवं किसी से द्वेषपूर्वक ली वस्तु के कारण चंद्रमा अशुभ फल देता है।
बुध :अपनी बहन अथवा बेटी को कष्ट देने एवं बुआ को कष्ट देने, साली एवं मौसी को कष्ट देने सेबुध अशुभ फल देता है। इसी के साथ हिजड़े को कष्ट देने पर भी बुध अशुभ फल देता है।
गुरु :अपने पिता, दादा, नाना को कष्ट देने अथवा इनके समान सम्मानित व्यक्ति को कष्ट देने एवं साधु संतों को कष्ट देने से गुरु अशुभ फल देता है।
सूर्य :किसी का दिल दुखाने (कष्ट देने), किसी भी प्रकार का टैक्स चोरी करने एवं किसी भी जीव की आत्मा को ठेस पहुँचाने पर सूर्य अशुभ फल देता है।
शुक्र :अपने जीवनसाथी को कष्ट देने, किसी भी प्रकार के गंदे वस्त्र पहनने, घर में गंदे एवं फटे पुराने वस्त्र रखने से शुभ-अशुभ फल देता है।
मंगल :भाई से झगड़ा करने, भाई के साथ धोखा करने से मंगल के अशुभ फल शुरू हो जाते हैं। इसी के साथ अपनी पत्नी के भाई (साले) का अपमान करने पर भी मंगल अशुभ फल देता है।
शनि :ताऊ एवं चाचा से झगड़ा करने एवं किसी भी मेहनतम करने वाले व्यक्ति को कष्ट देने, अपशब्द कहने एवं इसी के साथ शराब, माँस खाने पीने से शनि देव अशुभ फल देते हैं। कुछ लोग मकान एवं दुकान किराये से लेने के बाद खाली नहीं करते अथवा उसके बदले पैसा माँगते हैं तो शनि अशुभ फल देने लगता है।
राहु :राहु सर्प का ही रूप है अत: सपेरे का दिल दुखाने से, बड़े भाई को कष्ट देने से अथवा बड़े भाई का अपमान करने से, ननिहाल पक्ष वालों का अपमान करने से राहु अशुभ फल देता है।
केतु :भतीजे एवं भांजे का दिल दुखाने एवं उनका हक छीनने पर केतु अशुभ फल देना है। कुत्ते को मारने एवं किसी के द्वारा मरवाने पर, किसी भी मंदिर को तोड़ने अथवा ध्वजा नष्ट करने पर इसी के साथ ज्यादा कंजूसी करने पर केतु अशुभ फल देता है। किसी से धोखा करने व झूठी गवाही देने पर भी राहु-केतु अशुभ फल देते हैं।अत: मनुष्य को अपना जीवन व्यवस्थत जीना चाहिए। किसी को कष्ट या छल-कपट द्वारा अपनी रोजी नहीं चलानी चाहिए। किसी भी प्राणी को अपने अधीन नहीं समझना चाहिए जिससे ग्रहों के अशुभ कष्टसहना पड़े।

अशुभ ग्रहों के लक्षण।

ज्योतिष शास्त्र में किसी भी ग्रह का शुभ अथवा अशुभ प्रभाव जन्मकुंडली पर र्निभर करता है। कुंडली में ग्रह दोष हो तो जिन्दगी में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जिन जातको की जन्मपत्रिका नहीं बनी होती अथवा बनी भी हो तो कभी किसी ज्योतिष को दिखाई न हो ऐसी स्थिति में नीचे बताए गए लक्षणों को देखकर यह जानना चाहिए कि आपके लिए कौन सा ग्रह अशुभ प्रभाव दे रहा है
सूर्य- सूर्य से प्रभावित जातक का बाल्यावस्था में ही अपने पिता से संबंध विच्छेद हो जाता है। उसके शरीर में विकार उत्पन्न हो जाते हैं जैसे नेत्र रोग। उसे वो यश नहीं मिल पाता जिसका वो भागिदार होता है। उसे नींद नाम मात्र आती है।
चंद्र- चंद्र से प्रभावित जातक के घर में पानी की समस्या रहती है। उसकी कल्पनाशक्ति कमजोर हो जाती है। उसके घर में दुधारू पशु जैसे गाय, भैंस जीवित नहीं रह पाते और माता का स्वास्थ्य बिगड़ा रहता है।
बुध- बुध से प्रभावित जातक को नशे, सट्टे व जुए की लत लग जाती है। उसकी बेटी व बहन पर सदैव दुख मंडराता रहता है।
गुरु- गुरु से प्रभावित जातक के विवाह में विलंब होता है। उसका सोना खोने लगता है, चोटी के बाल उड़ जाते हैं, शिक्षा में बाधा आती है और अपयश का शिकार होना पड़ता है।
शुक्र- शुक्र से प्रभावित जातक को प्रेम में धोखा मिलता है। उसका अंगूठा बेकार हो जाता है, त्वचा में विकार उत्पन्न होने लगते हैं और वह स्वप्नदोष से ग्रस्त रहता है।
शनि- शनि से प्रभावित जातक घर में आगजनी होता है। उसके घर का नाश हो जाता है, पलकों व भौंहों के बाल गिरने लगते हैं और वह मुसिबतों से घिरा रहता है।
राहु- राहु से प्रभावित जातक के हाथ के नाखून झड़ जाते हैं। अगर वह घर में कोई कुत्ता पालता है तो वह मर जाता है। वह स्वंयं की बुद्धी से काम नहीं लेता। उसके बहुत से शत्रु होते हैं।
केतु- केतु से प्रभावित जातक के पैरों के नाखून झड़ जाते हैं, जोड़ों में दर्द रहता है, मूत्र संबंधित रोग होते हैं और पुत्र अस्वस्थ रहता है.
[ अनजाने में किये हुये पाप का प्रायश्चित कैसे? होता है।
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बहुत सुन्दर प्रश्न है ,यदि हमसे अनजाने में कोई पाप हो जाए तो क्या उस पाप से मुक्ती का कोई उपाय है।

श्रीमद्भागवत जी के षष्ठम स्कन्ध में , महाराज परीक्षित जी ,श्री शुकदेव जी से ऐसा प्रश्न कर लिए।

बोले भगवन – आपने पञ्चम स्कन्ध में जो नरको का वर्णन किया ,उसको सुनकर तो गुरुवर रोंगटे खड़े जाते हैं।

प्रभूवर मैं आपसे ये पूछ रहा हूँ की यदि कुछ पाप हमसे अनजाने में हो जाते हैं ,जैसे चींटी मर गयी,हम लोग स्वास लेते हैं तो कितने जीव श्वासों के माध्यम से मर जाते हैं। भोजन बनाते समय लकड़ी जलाते हैं ,उस लकड़ी में भी कितने जीव मर जाते हैं । और ऐसे कई पाप हैं जो अनजाने हो जाते हैं ।

तो उस पाप से मुक्ती का क्या उपाय है भगवन ।
आचार्य शुकदेव जी ने कहा राजन ऐसे पाप से मुक्ती के लिए रोज प्रतिदिन पाँच प्रकार के यज्ञ करने चाहिए ।

-महाराज परीक्षित जी ने कहा, भगवन एक यज्ञ यदि कभी करना पड़ता है तो सोंचना पड़ता है ।आप पाँच यज्ञ रोज कह रहे हैं । –
यहां पर आचार्य शुकदेव जी हम सभी मानव के कल्याणार्थ कितनी सुन्दर बात बता रहे हैं ।

बोले राजन पहली यज्ञ है -जब घर में रोटी बने तो पहली रोटी गऊ ग्रास के लिए निकाल देना चाहिए ।

दूसरी यज्ञ है राजन -चींटी को दस पाँच ग्राम आटा रोज वृक्षों की जड़ो के पास डालना चाहिए।

तीसरी यज्ञ है राजन्-पक्षियों को अन्न रोज डालना चाहिए ।

चौथी यज्ञ है राजन् -आँटे की गोली बनाकर रोज जलाशय में मछलियो को डालना चाहिए ।

पांचवीं यज्ञ है राजन् भोजन बनाकर अग्नि भोजन , रोटी बनाकर उसके टुकड़े करके उसमे घी चीनी मिलाकर अग्नि को भोग लगाओ।

राजन् अतिथि सत्कार खूब करें, कोई भिखारी आवे तो उसे जूठा अन्न कभी भी भिक्षा में न दे ।

राजन् ऐसा करने से अनजाने में किये हुए पाप से मुक्ती मिल जाती है। हमे उसका दोष नहीं लगता ।उन पापो का फल हमे नहीं भोगना पड़ता।

राजा ने पुनः पूछ लिया ,भगवन यदि
गृहस्त में रहकर ऐसी यज्ञ न हो पावे तो और कोई उपाय हो सकता है क्या।

तब यहां पर श्री शुकदेव जी कहते हैं
राजन्

कर्मणा  कर्मनिर्हांरो न ह्यत्यन्तिक इष्यते।

अविद्वदधिकारित्वात् प्रायश्चितं विमर्शनम् ।।

नरक से मुक्ती पाने के लिए हम प्रायश्चित करें। कोई व्यक्ति तपस्या के द्वारा प्रायश्चित करता है। कोई ब्रह्मचर्य पालन करके प्रायश्चित करता है। कोई व्यक्ति यम,नियम,आसन के द्वारा प्रायश्चित करता है। लेकिन मैं तो ऐसा मानता हूँ राजन्!

केचित् केवलया भक्त्या वासुदेव
परायणः ।

राजन् केवल हरी नाम संकीर्तन से ही
जाने और अनजाने में किये हुए को नष्ट करने की सामर्थ्य है ।

इसलिए सदैव कहीं भी कभी भी किसी भी समय सोते जागते उठते बैठते राम नाम रटते रहो।📚🖍🙏🙌
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कावड यात्रा आधारित जीवन-संदेश :–

कावड़ यात्रा ;- कावड़ यात्रा एक प्रतीक क्रिया है जो कर्मकाण्ड के अन्तर्गत आती है. कावड़ यात्रा के अन्तर्गत हमारे द्वारा “सदानीरा नदी“ के शुद्ध जल से [ अर्थात जो नदी सदैव प्रवाहित बनी रहने वाली है या जिस नदी का प्रवाह कभी थमता नहीं है उस सतत प्रवाह वाली नदी के बहते हुए शुद्ध जल से ] दो छोटे पात्र में जल भरकर तथा दोनों ही पात्र को भाररहित अवस्था में अपने कंधो पर धारणकर शिवमन्दिर की ओर प्रस्थान किया जाता है तथा शिवमन्दिर पहुँचकर, साथ में लाये गये दोनों ही पात्र के जल द्वारा – शिवविग्रह का – जलाभिषेक किया जाता है. कावड यात्रा में हमारा एक ही गन्तव्य होता है – शिवविग्रह को प्राप्त कर, उसका जलाभिषेक करना. इस लक्ष्य प्राप्ति के पूर्व न तो हमारे द्वारा गन्तव्य में परिवर्तन किया जाता है और न यात्रा को विराम ही दिया जाता है. इस प्रकार कावड़ यात्रा को पूर्ण करता हुआ कावड़ यात्री [कावड़िया] स्वयं को कृतार्थ मानता है. वह इस प्रकार शिवपूजन करता हुआ स्वयं को कृतकृत्य जानता है .
अनवरत रूप से चलने वाले इस सृष्टिचक्र में कावड़ यात्रा की यह क्रिया प्रतीकात्मक होकर आत्म-साधना के अति गुप्त रहस्य से सम्बन्धित एवं प्राणोंपासना पर आधारित होना जानी गयी है. इस कावड़ यात्रा का रहस्यबोध प्राप्त करने हेतु विचारणीय है कि – धर्मग्रंथ इस मानव देह में स्थित अविनाशी, अजर, अमर, आत्मा को शिवस्वरूप होना कथन करते हैं. पूज्यपाद आचार्य आदिशंकर द्वारा – शिवोहम, शिवोहम – का जयघोष किया जाकर, स्वयं को ही शिवस्वरूप होना कथन किया है, इस देहस्थ जीवात्मा को ही शिवस्वरूप होने का उद्घोष किया है. आत्मसाधना में योगी पुरुष इस देहस्थ आत्मा को ही आदिदेव शिव का विग्रहरूप होना तथा इसे अनादि एवं देहरूपी मन्दिर में निवास करने वाला जानते हैं. कठोपनिषद में श्रुति इस शिवस्वरूप – परम पुरुष परमात्मा – को ज्योतिर्मय होना एवं अपनी पूर्णता को धारण करते हुए सब मनुष्यों [ स्त्री – पुरुषों ] के हृदय में निवास करने वाला कथन करती है. इसे धूम रहित स्थिर ज्योति के समान होना वर्णन करती है. [कठ.उप. २.१.१२-१३ एवं २.३.१७]
योग – साधना के मार्ग में, सिद्धावस्था को प्राप्त – आत्मज्ञ, वेदविद, मनीषी पुरुष – नासिका के उभय स्वर में सतत प्रवाहित, प्राणवायु के प्रवाह को ही सदानीरा नदी रूप में गंगा और यमुना नदी होना कथन करते हैं. योगी – सिद्धपुरुषों द्वारा नासिका स्वर की इन दोनों ही नाड़ियों को इड़ा और पिंगला तथा सूर्य एवं चन्द्र नाडी भी कहा गया है. इन दोनों ही नाड़ियों द्वारा ग्रहण किया जाने वाला प्राणवायु ग्रहण करते समय शीतलता का बोध प्रदान करता है. चूँकि श्रीमद्भगवदगीता में इस मानवदेह को वस्त्र या अविनाशी आत्मा द्वारा धारण किया गया बाह्य कलेवर कहा गया है. [गीता २.२२ एवं ८.५ व ६ ] अतः स्थूल नदी के जल स्नान करना या डूबकी लगाना तो सदैव ही देहरूपी वस्त्र या अजर – अमर आत्मा द्वारा धारण किये गये बाह्य कलेवर को ही धोना होता है. यह तो मात्र शरीर को शुद्ध करना या देह के मैल या देह की गन्दगी को दूर करना होता है, जो इस जीवात्मा को विकारमुक्त करता नहीं है . अतः जीवात्मा का स्नान तो नासिका के उभय स्वर में सतत प्रवाहित होने वाले प्राणवायु के शीतल प्रवाह में अवगाहन से सम्बन्ध रखता है जिसे सूचित करने के लिए ही इन दोनों नासिका स्वर को गंगा और यमुना नदी कहा गया है. तथा इनके संयुक्त प्रवाह को सुषुम्ना कहा जाकर इसे ही तीर्थराज प्रयाग होना वर्णन किया गया है .
अतः शुद्ध जल और नियत गन्तव्य की भांति आचरण की निर्मलता तथा चित्त की एकाग्रता और धैर्य को अपनाकर नासिका के उभय स्वर में प्रवाहित होने `वाले प्राणवायु के इस शीतल प्रवाह में अवगाहन करना ही जीवात्मा का स्नान करना होता है. इस प्रकार किया गया स्नान ही इस जीवात्मा को कर्म विकार से मुक्त करने वाला होता है. श्रीमद्भगवदगीता में आया ‘नासिकाग्रे दृष्टि और दिशाओं का अवलोकन नहीं करने’ का कथन इस अवस्था को ही सूचित करता है. [गीता ६.१३]
आत्मसाधनारत योगी पुरुषों द्वारा नासिका के दायें स्वर को गंगा नदी एवं बाएं स्वर को यमुना नदी कहा गया है तथा इन दोनों नासिका स्वर में प्राणवायु के एकरूप सम प्रवाह को ही सुषुम्ना नाडी या प्रयागराज कहा गया है. अतः अविनाशी अदृष्य जीवात्मा का स्नान करना तो प्राणवायु की शीतलता से सम्बन्ध रखता है. इस अवसर पर ज्ञातव्य है कि नासिका के उभय स्वर से ग्रहण करते समय प्राणवायु मरुभूमि में भी शीतलता का बोध प्रदान करने वाला होता है. अतः नासिका स्वर से प्रवाहित होने वाले प्राणवायु के शीतल प्रवाह में अवगाहन करना ही इस जीवात्मा का स्नान करना माना गया है.
नासिका के उभय स्वर में प्रवाहित होने वाले प्राणवायु के शीतल प्रवाह में अवगाहन करने हेतु चित्त कि एकाग्रता अपनाना आवश्यक होता है किन्तु सुषुम्ना नाडी में प्रवाहित होने वाला प्राणवायु स्वभावतः शीतलता का बोध प्रदान करता है. जिसे कुण्डलिनी जागरण कहा गया है. इस प्रकार प्रवाहित प्राण ही देहस्थ जीवात्मा को आपादमस्तक शीतलता की अनुभूति प्रदान करता है. यह नासिका के दोनों ही स्वर में भाररहित अवस्था को अपनाकर अल्प मात्रा में प्रवाहित होता है. अतः कावड़ यात्रा की यह स्थूल क्रिया तो नासिका के उभय स्वर से सम्बन्ध रखने वाली है. यह उभय स्वर में प्रवाहित होने वाला प्राण ही देहस्थ अविनाशी आत्मा का बोध प्रदान करता है. सर्वरूप से एकाकार अवस्था का बोध प्रदान करता है अतः इसे ही अमृत प्राप्ति के कुम्भ स्नान से जोड़ा जाकर भी लोकस्मृति में धारण किया गया है. हम देहस्थ शिवस्वरूप आत्मा का बोध प्राप्तकर, कुन्डलिनी की जाग्रत अवस्था को धारण करें, हम स्व – आत्मस्वरूप की शीतलता को प्राप्त करें इस उद्देश्य को प्रतिबोधात्मक रूपमें सूचित करना ही कावड़ यात्रा का एकमेव आधार है.
अतः कावड़ यात्रा की स्थूल क्रिया तो तमोगुण की प्रधानता वाले व्यक्ति के लिए ही लाभप्रद कही जा सकती है. किन्तु जो साधक योगमार्ग के पथिक हैं उनके लिए तो प्राणायाम की प्रक्रिया पर आधारित इस अतिगुढ़ कावड़ यात्रा को अपनाकर, प्राणवायु की शीतलता से ही देहस्थ शिवस्वरूप आत्मा का जलाभिषेक करना ही आत्मकल्याण कारी है. इस प्रकार किया गया शीतलता का स्नान ही शिवस्वरुप अविनाशी आत्मा की आराधना करना है जो इस देहस्थ जीवात्मा को कर्म विकार से मुक्त करने वाला है. यही मनुष्यरूप जीवात्मा को जन्म – जन्मान्तर के कर्म बंधन से मुक्त करने वाला युगों – युगों से प्रचलित साधना मार्ग है जिसे श्रावन मास की कावड़ यात्रा रूप में स्मृति में धारण किया गया है. श्रेय आधारित जनसुविधा और आत्मकल्याण का यही धर्म-मार्ग है. अतः सड़क मार्ग को सुव्यवस्थित एवं गमनागमन योग्य बनाये रखने के लिए युग परिवर्तन के अवसर पर आगामी श्रावण मास में हमें प्राणायाम की प्रक्रिया पर आधारित इस मूल कावड़ यात्रा का ही अनुपालन करना चाहिए । ॥ॐ हरि: ॥. आर्य कौन है ?
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आर्य शब्द का अर्थ करते हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने कहा है। – जो श्रेष्ठ स्वभाव, धर्मात्मा, परोपकारी, सत्य-विद्या आदि गुणयुक्त और आर्यावर्त देश में सब दिन से रहने वाले हैं उनको आर्य कहते है।

मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि भिन्न-भिन्न जातियाँ है। जिन जीवों की उत्पत्ति एक समान होती है वे एक ही जाति के होते है। अत: मनुष्य एक जाति है। जाति रूप से तो मनुष्यों में कोई भेद नहीं होता है। परंतु गुण, कर्म, स्वभाव व व्यवहार आदि में भिन्नता होती है। कर्म के भेद से मनुष्यजाति में दो भेद होते है।

  1. आर्य
  2. दस्यु – आर्य से विपरीत गुणों के दुष्ट व्यक्ति को दस्यु कहते है।

दो सगे भाई आर्य और दस्यु हो सकते है। वेद में कहा है “विजानह्याय्यान्ये च दस्यव:” अर्थात आर्य और दस्युओं का विशेष ज्ञान रखना चाहिए। निरुक्त आर्य को सच्चा ईश्वर पुत्र से संबोधित करता है। वेद मंत्रों में सत्य, अहिंसा, पवित्रता आदि गुणों को धारण करने वाले को आर्य कहा गया है। सारे संसार को आर्य बनाने का संदेश दिया गया है। वेद कहता है “कृण्वन्तो विश्वमार्यम” अर्थात सारे संसार को आर्य बनावों। वेद में आर्य को ही पदार्थ दिये जाने का विधान किया गया है – “अहं भूमिमददामार्याय” अर्थात मैं आर्यों को यह भूमि देता हूँ।

इसका अर्थ यह हुआ कि आर्य परिश्रम से अपना कल्याण करता हुआ, परोपकर वृत्ति से दूसरों को भी लाभ पहुंचवेगा । जबकि दस्यु दुष्ट स्वार्थी सब प्राणियों को हानि ही पहुंचाएगा। अत: दुष्ट को अपनी भूमि आदि संपत्ति नहीं दिये जाने चाहिए चाहे वह अपना पुत्र ही क्यों न हो।

शास्त्रों में आर्य
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बाल्मीकी रामायण में समदृष्टि रखने वाले और सज्जनता से पूर्ण श्री रामजी को स्थान-स्थान पर ‘आर्य’ व “आर्यपुत्र” कहा गया है। विदुरनीति में धार्मिक को, चाणक्यनीति में गुणीजन को, महाभारत में श्रेष्ठबुद्धि वाले को व श्रीकृष्ण जी को “आर्यपुत्र” तथा गीता में वीर को ‘आर्य’ कहा गया है।

आर्य संज्ञा वाले व्यक्ति किसी एक स्थान अथवा समाज में नहीं होते, अपितु वे सर्वत्र पाये जाते है। सच्चा आर्य वह है जिसके व्यवहार से प्राणिमात्र को सुख मिलता है। जो इस पृथ्वी पर सत्य, अहिंसा, परोपकार, पवित्रता आदि व्रतों का विशेष रूप से धारण करता है।

आर्यों का मूल निवास स्थान
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प्रश्न :- मनुष्यों की आदि सृष्टि किस स्थल में हुई ?

उत्तर :- त्रिविष्टप अर्थात जिस को ‘तिब्बत’ कहते है।

प्रश्न :- आदि सृष्टि में एक जाति थी वा अनेक ?

उत्तर :- एक मनुष्य जाति थी। पश्चात ‘विजानह्याय्यान्ये च दस्यव:’ यह ऋग्वेद का वचन है। श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वानों का देव और दुष्टों के दस्यु अर्थात डाकू।

‘उत शूद्रे उतार्ये’ अथर्ववेद वचन। आर्यों में पूर्वोक्त कथन से ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र चार भेद हुए। मूर्खों का नाम शूद्र और अनार्य अर्थात अनाड़ी तथा विद्वानों का आर्य हुआ।

प्रश्न :- फिर वे यहाँ कैसे आए ?

उत्तर :- जब आर्य और दस्युओं में अर्थात विद्वान (जो देव) व अविद्वान (असुर), उन में सदा लड़ाई बखेड़ा हुआ करता। जब बहुत उपद्रव होने लगा तब आर्य लोग सब भूगोल में उत्तम इस भूमि के खण्ड को जानकार यहीं आकर बसे। इसी से इस देश का नाम ‘आर्यावर्त’ हुआ।

प्रश्न :- आर्यावर्त की अवधि कहाँ तक है ?

उत्तर :- मनुस्मृति के अनुसार –उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र। हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर और रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश है। उन सब को आर्यावर्त इसलिए कहते है कि यह आर्यावर्त देव अर्थात विद्वानों ने बसाया । आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त कहाया है।

प्रश्न :- प्रथम इस देश का नाम क्या था और इस में कौन बसते थे?

उत्तर :- इस के पूर्व इस देश का कोई नाम भी न था और न कोई आर्यों के पूर्व इस देश में रहते थे। क्योंकि आर्य लोग सृष्टि की आदि में कुछ काल के पश्चात तिब्बत से सीधे इस देश में आकर बसे थे।

प्रश्न :- कोई कहता है कि ये लोग ईरान से आए है ?

उत्तर :- किसी संस्कृत ग्रंथ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आए। अत: विदेशियों का लेख मान्य कैसे हो सकता है। मनुस्मृति में इस आर्यावर्त से भिन्न देशों को दस्यु और मलेच्छदेश कहा है।

अत: हमारा प्राचीन व उत्तम नाम आर्य है आर्य भारत देश में रहते है। आर्यों के रहने के कारण भारत देश का प्राचीन नाम आर्यावर्त था । मनुष्य को अपनी जड़ो से जुड़े रहना चाहिए । जो व्यक्ति/समाज/जाति अपने पूर्वजों का इतिहास भूल जाती है उसका विनाश हो जाता है । हिन्दू इसका जीता जागता उदहारण है । हिन्दुओं वेदों की ओर लौटे।
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जय श्री राम

काल गणना (ASTROLOGY- QUANTUM PHYSICS …..Time and Space ) PART- 1 – समय की गणना प्राचीन भारत में |

इस सृष्टि की उत्पति कब हुई तथा यह सृष्टि कब तक रहेगी यह प्रश्न मानव मन को युगों से मथते रहे हैं। इनका उत्तर पाने के लिए लिए सबसे पहले काल को समझना पड़ेगा। काल जिसके द्वारा हम घटनाओं-परिवर्तनों को नापते हैं, कबसे प्रारंभ हुआ?
इस सृष्टि की उत्पति कब हुई तथा यह सृष्टि कब तक रहेगी यह प्रश्न मानव मन को युगों से मथते रहे हैं।
आधुनिक काल के प्रख्यात ब्रह्माण्ड विज्ञानी स्टीफन हॉकिन्स ने इस पर एक पुस्तक लिखी – brief history of time (समय का संक्षिप्त इतिहास)। उस पुस्तक में वह लिखता है कि समय कब से प्रारंभ हुआ। वह लिखता है कि सृष्टि और समय एक साथ प्रारंभ हुए जब ब्रह्माण्डोत्पति की कारणीभूत घटना आदिद्रव्य में बिग बैंग (महाविस्फोट) हुआ और इस विस्फोट के साथ ही अव्यक्त अवस्था से ब्रह्माण्ड व्यक्त अवस्था में आने लगा। इसी के साथ समय भी उत्पन्न हुआ। अत: सृष्टि और समय एक साथ प्रारंभ हुए और समय कब तक रहेगा, तो जब तक यह सृष्टि रहेगी, तब तक रहेगा, उसके लोप के साथ लोप होगा। दूसरा प्रश्न कि सृष्टि के पूर्व क्या था? इसके उत्तर में हॉकिन्स कहता है कि वह आज अज्ञात है। पर इसे जानने का एक साधन हो सकता है। कोई तारा जब मरता है तो उसका र्इंधन प्रकाश और ऊर्जा के रूप में समाप्त होने लगता है। तब वह सिकुड़ने लगता है। और भारतवर्ष में ऋषियों ने इस पर चिंतन किया, साक्षात्कार किया। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा गया कि तब न सत् था न असत् था, न परमाणु था न आकाश, तो उस समय क्या था? तब न मृत्यु थी, न अमरत्व था, न दिन था, न रात थी। उस समय स्पंदन शक्ति युक्त वह एक तत्व था।

सृष्टि पूर्व अंधकार से अंधकार ढंका हुआ था और तप की शक्ति से युक्त एक तत्व था। सर्वप्रथम
हमारे यहां ऋषियों ने काल की परिभाषा करते हुए कहा है “कलयति सर्वाणि भूतानि”, जो संपूर्ण ब्रह्माण्ड को, सृष्टि को खा जाता है। साथ ही कहा कि यह ब्रह्माण्ड एक बार बना और नष्ट हुआ, ऐसा नहीं होता। अपितु उत्पत्ति और लय पुन: उत्पत्ति और लय यह चक्र चलता रहता है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, परिवर्तन और लय के रूप में विराट कालचक्र चल रहा है। काल के इस सर्वग्रासी रूप का वर्णन भारत में और पश्चिम में अनेक कवियों ने किया है। हमारे यहां इसको व्यक्त करते हुए महाकवि क्षेमेन्द्र कहते हैं-

अहो कालसमुद्रस्य न लक्ष्यन्ते तिसंतता:।
मज्जन्तोन्तरनन्तस्य युगान्ता: पर्वता इव।।

अर्थात्-काल के महासमुद्र में कहीं संकोच जैसा अन्तराल नहीं, महाकाय पर्वतों की तरह बड़े-बड़े युग उसमें समाहित हो जाते हैं। पश्चिम में 1990 में नोबल पुरस्कार प्राप्त कवि आक्टोवियो पाज अपनी कविता Into the matter में काल के सर्वभक्षी रूप का वर्णन निम्न प्रकार से करते हैं।

A clock strikes the time
now its time
it is not time now, not it is now
now it is time to get rid of time
now it is not time
it is time and not now
time eats the now
now its time
windows close
walls closed doors close
the words gøo home
Nowwe are more alone……….1

अर्थात्

“काल यंत्र बताता है काल
आ गया आज, काल।
आज में काल नहीं, काल में आज नहीं,
काल को विदा देने का काल है आज।
काल है, आज नहीं,
काल निगलता है आज को।
आज है वह काल
वातायन बंद हो रहे हैं
दीवार है बंद
द्वार बन्द हो रहे हैं
वैखरी पहुंच रही है स्व निकेत
हम तो अब हैं अकेले”

इस काल को नापने का सूक्ष्मतम और महत्तम माप हमारे यहां कहा गया है।

श्रीमद्भागवत में प्रसंग आता है कि जब राजा परीक्षित महामुनि शुकदेव से पूछते हैं, काल क्या है? उसका सूक्ष्मतम और महत्तम रूप क्या है? तब इस प्रश्न का शुकदेव मुनि जो उत्तर देते हैं वह आश्चर्य जनक है, क्योंकि आज के आधुनिक युग में हम जानते हैं कि काल अमूर्त तत्व है। घटने वाली घटनाओं से हम उसे जानते हैं। आज से हजारों वर्ष पूर्व शुकदेव मुनि ने कहा- “विषयों का रूपान्तर” (बदलना) ही काल का आकार है। उसी को निमित्त बना वह काल तत्व अपने को अभिव्यक्त करता है। वह अव्यक्त से व्यक्त होता है।”

काल गणना
इस काल का सूक्ष्मतम अंश परमाणु है तथा महत्तम अंश ब्राहृ आयु है। इसको विस्तार से बताते हुए शुक मुनि उसके विभिन्न माप बताते हैं:-

2 परमाणु- 1 अणु – 15 लघु – 1 नाड़िका
3 अणु – 1 त्रसरेणु – 2 नाड़िका – 1 मुहूत्र्त
3 त्रसरेणु- 1 त्रुटि – 30 मुहूत्र्त – 1 दिन रात
100 त्रुटि- 1 वेध – 7 दिन रात – 1 सप्ताह
3 वेध – 1 लव – 2 सप्ताह – 1 पक्ष
3 लव- 1 निमेष – 2 पक्ष – 1 मास
3 निमेष- 1 क्षण – 2 मास – 1 ऋतु
5 क्षण- 1 काष्ठा – 3 ऋतु – 1 अयन
15 काष्ठा – 1 लघु – 2 अयन – 1 वर्ष

शुक मुनि की गणना से एक दिन रात में 3280500000 परमाणु काल होते हैं तथा एक दिन रात में 86400 सेकेण्ड होते हैं। इसका अर्थ सूक्ष्मतम माप यानी 1 परमाणु काल 1 सेकंड का 37968 वां हिस्सा।

महाभारत के मोक्षपर्व में अ. 231 में कालगणना – निम्न है:-

15 निमेष – 1 काष्ठा
30 काष्ठा -1 कला
30 कला- 1 मुहूत्र्त
30 मुहूत्र्त- 1 दिन रात

दोनों गणनाओं में थोड़ा अन्तर है। शुक मुनि के हिसाब से 1 मुहूर्त में 450 काष्ठा होती है तथा महाभारत की गणना के हिसाब से 1 मुहूर्त में 900 काष्ठा होती हैं। यह गणना की भिन्न पद्धतियों को परिलक्षित करती है।

यह सामान्य गणना के लिए माप है। पर ब्रह्माण्ड की आयु के लिए, ब्रह्माण्ड में होने वाले परिवर्तनों को मापने के लिए बड़ी

कलियुग – 432000 वर्ष
2 कलियुग – द्वापरयुग – 864000 वर्ष
3 कलियुग – त्रेतायुग – 1296000 वर्ष
4 कलियुग – सतयुग – 1728000 वर्ष

चारों युगों की 1 चतुर्युगी – 4320000
71 चतुर्युगी का एक मन्वंतर – 306720000
14 मन्वंतर तथा संध्यांश के 15 सतयुग
का एक कल्प यानी – 4320000000 वर्ष

एक कल्प यानी ब्रह्मा का एक दिन, उतनी ही बड़ी उनकी रात इस प्रकार 100 वर्ष तक एक ब्रह्मा की आयु। और जब एक ब्रह्मा मरता है तो भगवान विष्णु का एक निमेष (आंख की पलक झपकने के काल को निमेष कहते हैं) होता है और विष्णु के बाद रुद्र का काल आरम्भ होता है, जो स्वयं कालरूप है और अनंत है, इसीलिए कहा जाता है कि काल अनन्त है।

शुकदेव महामुनि द्वारा वर्णित इस वर्णन को पढ़कर मन में प्रश्न आ सकता है कि ये सब वर्णन कपोलकल्पना है, बुद्धिविलास है। आज के वैज्ञानिक युग में इन बातों की क्या अहमियत है। परन्तु ये सब वर्ण कपोलकल्पना नहीं अपितु इसका सम्बंध खगोल के साथ है। भारतीय कालगणना खगोल पिण्डों की गति के सूक्ष्म निरीक्षण के आधार पर प्रतिपल, प्रतिदिन होने वाले उसके परिवर्तनों, उसकी गति के आधार पर यानी ठोस वैज्ञानिक सच्चाईयों के आधार पर निर्धारित हुई है। जबकि आज विश्व में प्रचलित ईसवी सन् की कालगणना में केवल एक बात वैज्ञानिक है कि उसका वर्ष पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा करने में लगने वाले समय पर आधारित है। बाकी उसमें माह तथा दिन का दैनंदिन खगोल गति से कोई सम्बंध नहीं है। जबकि भारतीय गणना का प्रतिक्षण, प्रतिदिन, खगोलीय गति से सम्बंध है।

पश्चिमी और भारतीय कालगणना का अंतर
चिल्ड्रन्स ब्रिटानिका Vol 3-1964 में कैलेंडर के संदर्भ में उसके संक्षिप्त इतिहास का वर्णन किया गया है। कैलेंडर यानी समय विभाजन का तरीका-वर्ष, मास, दिन, का आधार, पृथ्वी की गति और चन्द्र की गति के आधार पर करना। लैटिन में Moon के लिए Luna शब्द है, अत: Lunar Month कहते हैं। लैटिन में Sun के लिए Sol शब्द है, अत: Solar Year वर्ष कहते हैं। आजकल इसका माप 365 दिन 5 घंटे 48 मिनिट व 46 सेकेण्ड है। चूंकि सौर वर्ष और चन्द्रमास का तालमेल नहीं है, अत: अनेक देशों में गड़बड़ रही।

दूसरी बात, समय का विभाजन ऐतिहासिक घटना के आधार पर करना। ईसाई मानते हैं कि ईसा का जन्म इतिहास की निर्णायक घटना है, इस आधार पर इतिहास को वे दो हिस्सों में विभाजित करते हैं। एक बी.सी. तथा दूसरा ए.डी.। B.C. का अर्थ है Before Christ – यह ईसा के उत्पन्न होने से पूर्व की घटनाओं पर लागू होता है। जो घटनाएं ईसा के जन्म के बाद हुर्इं उन्हें A.D. कहा जाता है जिसका अर्थ है Anno Domini अर्थात् In the year of our Lord. यह अलग बात है कि यह पद्धति ईसा के जन्म के बाद कुछ सदी तक प्रयोग में नहीं आती थी।

रोमन कैलेण्डर-आज के ई। सन् का मूल रोमन संवत् है जो ईसा के जन्म से 753 वर्ष पूर्व रोम नगर की स्थापना के साथ प्रारंभ हुआ। प्रारंभ में इसमें दस माह का वर्ष होता था, जो मार्च से दिसम्बर तक चलता था तथा 304 दिन होते थे। बाद में राजा नूमा पिम्पोलियस ने इसमें दो माह Jonu Arius और Februarius जोड़कर वर्ष 12 माह का बनाया तथा इसमें दिन हुए 355, पर आगे के वर्षों में ग्रहीय गति से इनका अंतर बढ़ता गया, तब इसे ठीक 46 बी.सी. करने के लिए जूलियस सीजर ने वर्ष को 365 1/4 दिन का करने हेतु नये कैलेंडर का आदेश दिया तथा उस समय के वर्ष को कहा कि इसमें 445 1/4 दिन होंगे ताकि पूर्व में आया अंतर ठीक हो सके। इसलिए उस वर्ष यानी 46 बी.सी. को इतिहास में संभ्रम का वर्ष (Year of confusion) कहते हैं।

जूलियन कैलेंडर- जूलियस सीजर ने वर्ष को 365 1/4 दिन का करने के लिए एक व्यवस्था दी। क्रम से 31 व 30 दिन के माह निर्धारित किए तथा फरवरी 29 दिन की। Leap Year में फरवरी भी 30 दिन की कर दी। इसी के साथ इतिहास में अपना नाम अमर करने के लिए उसने वर्ष के सातवें महीने के पुराने नाम Quinitiles को बदलकर अपने नाम पर जुलाई किया, जो 31 दिन का था। बाद में सम्राट आगस्टस हुआ; उसने भी अपना नाम इतिहास में अमर करने हेतु आठवें महीने Sextilis का नाम बदलकर उस माह का नाम अगस्त किया। उस समय अगस्त 30 दिन का होता था पर-“सीजर से मैं छोटा नहीं”, यह दिखाने के लिए फरवरी के माह जो उस समय 29 दिन का होता था जो एक दिन लेकर अगस्त भी 31 दिन का किया। तब से मास और दिन की संख्या वैसी ही चली आ रही है।

ग्रेगोरियन कैलेंडर – 16वीं सदी में जूलियन कैलेन्डर में 10 दिन बढ़ गए और चर्च फेस्टीवल ईस्टर आदि गड़बड़ आने लगे, तब पोप ग्रेगोरी त्रयोदश ने 1582 के वर्ष में इसे ठीक करने के लिए यह हुक्म जारी किया कि 4 अक्तूबर को आगे 15 अक्तूबर माना जाए। वर्ष का आरम्भ 25 मार्च की बजाय 1 जनवरी से करने को कहा। रोमन कैथोलिकों ने पोप के आदेश को तुरन्त माना, पर प्रोटेस्टेंटों ने धीरे-धीरे माना। ब्रिाटेन जूलियन कैलेंडर मानता रहा और 1752 तक उसमें 11 दिन का अंतर आ गया। अत: उसे ठीक करने के लिए 2 सितम्बर के बाद अगला दिन 14 सितम्बर कहा गया। उस समय लोग नारा लगाते थे “Criseus back our 11 days”। इग्लैण्ड के बाद बुल्गारिया ने 1918 में और ग्रीक आर्थोडाक्स चर्च ने 1924 में ग्रेगोरियन कैलेण्डर माना।

भारत में कालगणना का इतिहास
भारतवर्ष में ग्रहीय गतियों का सूक्ष्म अध्ययन करने की परम्परा रही है तथा कालगणना पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य की गति के आधार पर होती रही तथा चंद्र और सूर्य गति के अंतर को पाटने की भी व्यवस्था अधिक मास आदि द्वारा होती रही है। संक्षेप में काल की विभिन्न इकाइयां एवं उनके कारण निम्न प्रकार से बताये गये-

दिन अथवा वार- सात दिन- पृथ्वी अपनी धुरी पर १६०० कि.मी. प्रति घंटा की गति से घूमती है, इस चक्र को पूरा करने में उसे २४ घंटे का समय लगता है। इसमें १२ घंटे पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सामने रहता है उसे अह: तथा जो पीछे रहता है उसे रात्र कहा गया। इस प्रकार १२ घंटे पृथ्वी का पूर्वार्द्ध तथा १२ घंटे उत्तरार्द्ध सूर्य के सामने रहता है। इस प्रकार १ अहोरात्र में २४ होरा होते हैं। ऐसा लगता है कि अंग्रेजी भाषा का ण्दृद्वद्ध शब्द ही होरा का अपभ्रंश रूप है। सावन दिन को भू दिन भी कहा गया।

सौर दिन-पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा 1 लाख कि.मी. प्रति घंटा की रफ्तार से कर रही है। पृथ्वी का 10 चलन सौर दिन कहलाता है।

चान्द्र दिन या तिथि- चान्द्र दिन को तिथि कहते हैं। जैसे एकम्, चतुर्थी, एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि। पृथ्वी की परिक्रमा करते समय चन्द्र का 12 अंश तक चलन एक तिथि कहलाता है।

सप्ताह- सारे विश्व में सप्ताह के दिन व क्रम भारत वर्ष में खोजे गए क्रम के अनुसार ही हैं। भारत में पृथ्वी से उत्तरोत्तर दूरी के आधार पर ग्रहों का क्रम निर्धारित किया गया, यथा- शनि, गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुद्ध और चन्द्रमा। इनमें चन्द्रमा पृथ्वी के सबसे पास है तो शनि सबसे दूर। इसमें एक-एक ग्रह दिन के 24 घंटों या होरा में एक-एक घंटे का अधिपति रहता है। अत: क्रम से सातों ग्रह एक-एक घंटे अधिपति, यह चक्र चलता रहता है और 24 घंटे पूरे होने पर अगले दिन के पहले घंटे का जो अधिपति ग्रह होगा, उसके नाम पर दिन का नाम रखा गया। सूर्य से सृष्टि हुई, अत: प्रथम दिन रविवार मानकर ऊपर क्रम से शेष वारों का नाम रखा गया।

निम्न तालिका से सातों दिनों के क्रम को हम सहज समझ सकते हैं-
चन्द्र बुध शुक्र सूर्य मंगल बृह. शनि
४ ३ २ रवि १ – – –
११ १० ९ ८ ७ ६ ५
१८ १७ १६ १५ १४ १३ १२
सोम १ २४ २३ २२ २१ २० १९
८ ७ ६ ५ ४ ३ २
१५ १४ १३ १२ ११ १० ९
२२ २१ २० १९ १८ १७ १६
५ ४ ३ २ मंगल १ २४ २३
१२ ११ १० ९ ८ ७ ६
१९ १८ १७ १६ १५ १४ १३
२ बुध १ २४ २३ २२ २१ २०
९ ८ ७ ६ ५ ४ ३
१६ १५ १४ १३ १२ ११ १०
२३ २२ २१ २० १९ १८ १७
६ ५ ४ ३ २ बृह.१ २४
१३ १२ ११ १० ९ ८ ७
२० १९ १८ १७ १६ १५ १४
३ २ शुक्र १ २४ २३ २२ २१
१० ९ ८ ७ ६ ५ ४
१७ १६ १५ १४ १३ १२ ११
२४ २३ २२ २१ २० १९ १८

शनि १
पक्ष-पृथ्वी की परिक्रमा में चन्द्रमा का १२ अंश चलना एक तिथि कहलाता है। अमावस्या को चन्द्रमा पृथ्वी तथा सूर्य के मध्य रहता है। इसे ० (अंश) कहते हैं। यहां से १२ अंश चलकर जब चन्द्रमा सूर्य से १८० अंश अंतर पर आता है, तो उसे पूर्णिमा कहते हैं। इस प्रकार एकम्‌ से पूर्णिमा वाला पक्ष शुक्ल पक्ष कहलाता है तथा एकम्‌ से अमावस्या वाला पक्ष कृष्ण पक्ष कहलाता है।

मास- कालगणना के लिए आकाशस्थ २७ नक्षत्र माने गए (१) अश्विनी (२) भरणी (३) कृत्तिका (४) रोहिणी (५) मृगशिरा (६) आर्द्रा (७) पुनर्वसु (८) पुष्य (९) आश्लेषा (१०) मघा (११) पूर्व फाल्गुन (१२) उत्तर फाल्गुन (१३) हस्त (१४) चित्रा (१५) स्वाति (१६) विशाखा (१७) अनुराधा (१८) ज्येष्ठा (१९) मूल (२०) पूर्वाषाढ़ (२१) उत्तराषाढ़ (२२) श्रवणा (२३) धनिष्ठा (२४) शतभिषाक (२५) पूर्व भाद्रपद (२६) उत्तर भाद्रपद (२७) रेवती।

२७ नक्षत्रों में प्रत्येक के चार पाद किए गए। इस प्रकार कुल १०८ पाद हुए। इनमें से नौ पाद की आकृति के अनुसार १२ राशियों के नाम रखे गए, जो निम्नानुसार हैं-

(१) मेष (२) वृष (३) मिथुन (४) कर्क (५) सिंह (६) कन्या (७) तुला (८) वृश्चिक (९) धनु (१०) मकर (११) कुंभ (१२) मीन। पृथ्वी पर इन राशियों की रेखा निश्चित की गई, जिसे क्रांति कहते है। ये क्रांतियां विषुव वृत्त रेखा से २४ उत्तर में तथा २४ दक्षिण में मानी जाती हैं। इस प्रकार सूर्य अपने परिभ्रमण में जिस राशि चक्र में आता है, उस क्रांति के नाम पर सौर मास है। यह साधारणत: वृद्धि तथा क्षय से रहित है।

चान्द्र मास- जो नक्षत्र मास भर सायंकाल से प्रात: काल तक दिखाई दे तथा जिसमें चन्द्रमा पूर्णता प्राप्त करे, उस नक्षत्र के नाम पर चान्द्र मासों के नाम पड़े हैं- (१) चित्रा (२) विशाखा (३) ज्येष्ठा (४) अषाढ़ा (५) श्रवण (६) भाद्रपद (७) अश्विनी (८) कृत्तिका (९) मृगशिरा (१०) पुष्य (११) मघा (१२) फाल्गुनी। अत: इसी आधार पर चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विनी, कृत्तिका, मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन-ये चन्द्र मासों के नाम पड़े।

उत्तरायण और दक्षिणायन-पृथ्वी अपनी कक्षा पर २३ ह अंश उत्तर पश्चिमी में झुकी हुई है। अत: भूमध्य रेखा से २३ ह अंश उत्तर व दक्षिण में सूर्य की किरणें लम्बवत्‌ पड़ती हैं। सूर्य किरणों का लम्बवत्‌ पड़ना संक्रान्ति कहलाता है। इसमें २३ ह अंश उत्तर को कर्क रेखा कहा जाता है तथा दक्षिण को मकर रेखा कहा जाता है। भूमध्य रेखा को ०० अथवा विषुव वृत्त रेखा कहते हैं। इसमें कर्क संक्रान्ति को उत्तरायण एवं मकर संक्रान्ति को दक्षिणायन कहते हैं।

वर्षमान- पृथ्वी सूर्य के आस-पास लगभग एक लाख कि.मी. प्रति घंटे की गति से १६६०००००० कि.मी. लम्बे पथ का ३६५ ह दिन में एक चक्र पूरा करती है। इस काल को ही वर्ष माना गया

आदि से अंत तक जानने की अनूठी भारतीय विधि

युगमान- 4,32,000 वर्ष में सातों ग्रह अपने भोग और शर को छोड़कर एक जगह आते हैं। इस युति के काल को कलियुग कहा गया। दो युति को द्वापर, तीन युति को त्रेता तथा चार युति को सतयुग कहा गया। चतुर्युगी में सातों ग्रह भोग एवं शर सहित एक ही दिशा में आते हैं।

वर्तमान कलियुग का आरंभ भारतीय गणना से ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकेंड पर हुआ था। उस समय सभी ग्रह एक ही राशि में थे। इस संदर्भ में यूरोप के प्रसिद्ध खगोलवेत्ता बेली का कथन दृष्टव्य है-

“हिन्दुओं की खगोलीय गणना के अनुसार विश्व का वर्तमान समय यानी कलियुग का आरम्भ ईसा के जन्म से 3102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकेंड पर हुआ था। इस प्रकार यह कालगणना मिनट तथा सेकेण्ड तक की गई। आगे वे यानी हिन्दू कहते हैं, कलियुग के समय सभी ग्रह एक ही राशि में थे तथा उनके पञ्चांग या टेबल भी यही बताते हैं। ब्राहृणों द्वारा की गई गणना हमारे खगोलीय टेबल द्वारा पूर्णत: प्रमाणित होती है। इसका कारण और कोई नहीं, अपितु ग्रहों के प्रत्यक्ष निरीक्षण के कारण यह समान परिणाम निकला है।”। (Theogony of Hindus, by Bjornstjerna P. 32)

वैदिक ऋषियों के अनुसार वर्तमान सृष्टि पंच मण्डल क्रम वाली है। चन्द्र मंडल, पृथ्वी मंडल, सूर्य मंडल, परमेष्ठी मंडल और स्वायम्भू मंडल। ये उत्तरोत्तर मण्डल का चक्कर लगा रहे हैं।

मन्वन्तर मान- सूर्य मण्डल के परमेष्ठी मंडल (आकाश गंगा) के केन्द्र का चक्र पूरा होने पर उसे मन्वन्तर काल कहा गया। इसका माप है 30,67,20,000 (तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वर्ष। एक से दूसरे मन्वन्तर के बीच 1 संध्यांश सतयुग के बराबर होता है। अत: संध्यांश सहित मन्वन्तर का माप हुआ 30 करोड़ 84 लाख 48 हजार वर्ष। आधुनिक मान के अनुसार सूर्य 25 से 27 करोड़ वर्ष में आकाश गंगा के केन्द्र का चक्र पूरा करता है।

कल्प- परमेष्ठी मंडल स्वायम्भू मंडल का परिभ्रमण कर रहा है। यानी आकाश गंगा अपने से ऊपर वाली आकाश गंगा का चक्कर लगा रही है। इस काल को कल्प कहा गया। यानी इसका माप है 4 अरब 32 करोड़ वर्ष (4,32,00,00,000)। इसे ब्रह्मा का एक दिन कहा गया। जितना बड़ा दिन, उतनी बड़ी रात, अत: ब्रह्मा का अहोरात्र यानी 864 करोड़ वर्ष हुआ।

ब्रह्मा का वर्ष यानी 31 खरब 10 अरब 40 करोड़ वर्ष
ब्रह्मा की 100 वर्ष की आयु अथवा ब्रह्माण्ड की आयु- 31 नील 10 अरब 40 अरब वर्ष (31,10,40,000000000 वर्ष)

भारतीय मनीषा की इस गणना को देखकर यूरोप के प्रसिद्ध ब्रह्माण्ड विज्ञानी कार्ल सेगन ने अपनी पुस्तक “क्दृद्मथ्र्दृद्म” में कहा “विश्व में हिन्दू धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है जो इस विश्वास पर समर्पित है कि इस ब्रह्माण्ड में उत्पत्ति और क्षय की एक सतत प्रक्रिया चल रही है और यही एक धर्म है, जिसने समय के सूक्ष्मतम से लेकर बृहत्तम माप, जो समान्य दिन-रात से लेकर 8 अरब 64 करोड़ वर्ष के ब्राहृ दिन रात तक की गणना की है, जो संयोग से आधुनिक खगोलीय मापों के निकट है। यह गणना पृथ्वी व सूर्य की उम्र से भी अधिक है तथा इनके पास और भी लम्बी गणना के माप है।” कार्ल सेगन ने इसे संयोग कहा है यह ठोस ग्रहीय गणना पर आधारित है।

ऋषियों की अद्भुत खोज
हमारे पूर्वजों ने जहां खगोलीय गति के आधार पर काल का मापन किया, वहीं काल की अनंत यात्रा और वर्तमान समय तक उसे जोड़ना तथा समाज में सर्वसामान्य व्यक्ति को इसका ध्यान रहे इस हेतु एक अद्भुत व्यवस्था भी की थी, जिसकी ओर साधारणतया हमारा ध्यान नहीं जाता है। हमारे देश में कोई भी कार्य होता हो चाहे वह भूमिपूजन हो, वास्तुनिर्माण का प्रारंभ हो- गृह प्रवेश हो, जन्म, विवाह या कोई भी अन्य मांगलिक कार्य हो, वह करने के पहले कुछ धार्मिक विधि करते हैं। उसमें सबसे पहले संकल्प कराया जाता है। यह संकल्प मंत्र यानी अनंत काल से आज तक की समय की स्थिति बताने वाला मंत्र है। इस दृष्टि से इस मंत्र के अर्थ पर हम ध्यान देंगे तो बात स्पष्ट हो जायेगी।

संकल्प मंत्र में कहते हैं….
ॐ अस्य श्री विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्राहृणां द्वितीये परार्धे- अर्थात् महाविष्णु द्वारा प्रवर्तित अनंत कालचक्र में वर्तमान ब्रह्मा की आयु का द्वितीय परार्ध-वर्तमान ब्रह्मा की आयु के 50 वर्ष पूरे हो गये हैं। श्वेत वाराह कल्पे-कल्प याने ब्रह्मा के 51वें वर्ष का पहला दिन है।

वैवस्वतमन्वंतरे- ब्रह्मा के दिन में 14 मन्वंतर होते हैं उसमें सातवां मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।

अष्टाविंशतितमे कलियुगे- एक मन्वंतर में 71 चतुर्युगी होती हैं, उनमें से 28वीं चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है।

कलियुगे प्रथमचरणे- कलियुग का प्रारंभिक समय है।

कलिसंवते या युगाब्दे- कलिसंवत् या युगाब्द वर्तमान में 5104 चल रहा है।

जम्बु द्वीपे, ब्रह्मावर्त देशे, भारत खंडे- देश प्रदेश का नाम

अमुक स्थाने – कार्य का स्थान
अमुक संवत्सरे – संवत्सर का नाम
अमुक अयने – उत्तरायन/दक्षिणायन
अमुक ऋतौ – वसंत आदि छह ऋतु हैं
अमुक मासे – चैत्र आदि 12 मास हैं
अमुक पक्षे – पक्ष का नाम (शुक्ल या कृष्ण पक्ष)
अमुक तिथौ – तिथि का नाम
अमुक वासरे – दिन का नाम
अमुक समये – दिन में कौन सा समय
अमुक – व्यक्ति – अपना नाम, फिर पिता का नाम, गोत्र तथा किस उद्देश्य से कौन सा काम कर रहा है, यह बोलकर संकल्प करता है।

इस प्रकार जिस समय संकल्प करता है, उस समय से अनंत काल तक का स्मरण सहज व्यवहार में भारतीय जीवन पद्धति में इस व्यवस्था के द्वारा आया है।

काल की सापेक्षता – आइंस्टीन ने अपने सापेक्षता सिद्धांत में दिक् व काल की सापेक्षता प्रतिपादित की। उसने कहा, विभिन्न ग्रहों पर समय की अवधारणा भिन्न-भिन्न होती है। काल का सम्बन्ध ग्रहों की गति से रहता है। इस प्रकार अलग-अलग ग्रहों पर समय का माप भिन्न रहता है।

समय छोटा-बड़ा रहता है। इसकी जानकारी के संकेत हमारे ग्रंथों में मिलते हैं। पुराणों में कथा आती है कि रैवतक राजा की पुत्री रेवती बहुत लम्बी थी, अत: उसके अनुकूल वर नहीं मिलता था। इसके समाधान हेतु राजा योग बल से अपनी पुत्री को लेकर ब्राहृलोक गये। वे जब वहां पहुंचे तब वहां गंधर्वगान चल रहा था। अत: वे कुछ क्षण रुके। जब गान पूरा हुआ तो ब्रह्मा ने राजा को देखा और पूछा कैसे आना हुआ? राजा ने कहा मेरी पुत्री के लिए किसी वर को आपने पैदा किया है या नहीं? ब्रह्मा जोर से हंसे और कहा, जितनी देर तुमने यहां गान सुना, उतने समय में पृथ्वी पर 27 चर्तुयुगी बीत चुकी हैं और 28 वां द्वापर समाप्त होने वाला है। तुम वहां जाओ और कृष्ण के भाई बलराम से इसका विवाह कर देना। साथ ही उन्होंने कहा कि यह अच्छा हुआ कि रेवती को तुम अपने साथ लेकर आये। इस कारण इसकी आयु नहीं बढ़ी। यह कथा पृथ्वी से ब्राहृलोक तक विशिष्ट गति से जाने पर समय के अंतर को बताती है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी कहा कि यदि एक व्यक्ति प्रकाश की गति से कुछ कम गति से चलने वाले यान में बैठकर जाए तो उसके शरीर के अंदर परिवर्तन की प्रक्रिया प्राय: स्तब्ध हो जायेगी। यदि एक दस वर्ष का व्यक्ति ऐसे यान में बैठकर देवयानी आकाशगंगा (Andromeida Galaz) की ओर जाकर वापस आये तो उसकी उमर में केवल 56 वर्ष बढ़ेंगे किन्तु उस अवधि में पृथ्वी पर 40 लाख वर्ष बीत गये होंगे।

योगवासिष्ठ आदि ग्रंथों में योग साधना से समय में पीछे जाना और पूर्वजन्मों का अनुभव तथा भविष्य में जाने के अनेक वर्णन मिलते हैं।

पश्चिमी जगत में जार्ज गेमोव ने अपनी पुस्तक one, two, three, infinity में इस समय में आगे-पीछे जाने के संदर्भ में एक विनोदी कविता लिखी थी-

There was a young girl named liss Bright
who could travel much faster than light
She departed one day
in an Einstein way
and came back on the previous night

अर्थात्- एक युवा लड़की, जिसका नाम मिस ब्राइट था, वह प्रकाश से भी अधिक वेग से यात्रा कर सकती थी। एक दिन वह आइंस्टीन विधि से यात्रा पर निकली और बीती रात्रि में वापस लौट आई

सम्वत्सर (भारतीय CALENDER) की वैज्ञानिकता

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक पश्चिमी देशों में उनके अपने धर्म-ग्रन्थों के अनुसार मानव सृष्टि को मात्र पांच हजार वर्ष पुराना बताया जाता था। जबकि इस्लामी दर्शन में इस विषय पर स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा गया है। पाश्चात्य जगत के वैज्ञानिक भी अपने धर्म-ग्रन्थों की भांति ही यही राग अलापते रहे कि मानवीय सृष्टि का बहुत प्राचीन नहीं है। इसके विपरीत हिन्दू जीवन-दर्शन के अनुसार इस सृष्टि का प्रारम्भ हुए १ अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार, १० वर्ष बीत चुके हैं और अब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से उसका १ अरब, ९७ करोड़, २९ लाख, ४९ हजार, ११वां वर्ष प्रारम्भ हो रहा है। भूगर्भ से सम्बन्धित नवीनतम आविष्कारों के बाद तो पश्चिमी विद्वान और वैज्ञानिक भी इस तथ्य की पुष्टि करने लगे हैं कि हमारी यह सृष्टि प्राय: २ अरब वर्ष पुरानी है।

अपने देश में हेमाद्रि संकल्प में की गयी सृष्टि की व्याख्या के आधार पर इस समय स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत और चाक्षुष नामक छह मन्वन्तर पूर्ण होकर अब वैवस्वत मन्वन्तर के २७ महायुगों के कालखण्ड के बाद अठ्ठाइसवें महायुग के सतयुग, त्रेता, द्वापर नामक तीन युग भी अपना कार्यकाल पूरा कर चौथे युग अर्थात कलियुग के ५०११वें सम्वत्‌ का प्रारम्भ हो रहा है। इसी भांति विक्रम संवत्‌ २०६६ का भी श्रीगणेश हो रहा है।

हिन्दू जीवन-दर्शन की मान्यता है कि सृष्टिकर्ता भगवान्‌ व्रह्मा जी द्वारा प्रारम्भ की गयी मानवीय सृष्टि की कालगणना के अनुसार भारत में प्रचलित सम्वत्सर केवल हिन्दुओं, भारतवासियों का ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण संसार या समस्त मानवीय सृष्टि का सम्वत्सर है। इसलिए यह सकल व्रह्माण्ड के लिए नव वर्ष के आगमन का सूचक है।

व्रह्मा जी प्रणीत यह कालगणना निसर्ग अथवा प्रकृति पर आधारित होने के कारण पूरी तरह वैज्ञानिक है। अत: नक्षत्रों को आधार बनाकर जहां एक ओर विज्ञानसम्मत चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कात्तिर्क, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन नामक १२ मासों का विधान एक वर्ष में किया गया है, वहीं दूसरी ओर सप्ताह के सात दिवसों यथा रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार तथा शनिवार का नामकरण भी व्रह्मा जी ने विज्ञान के आधार पर किया है।

आधुनिक समय में सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित ईसाइयत के ग्रेगेरियन कैलेण्डर को दृष्टिपथ में रखकर अज्ञानी जनों द्वारा प्राय: यह प्रश्न किया जाता है कि व्रह्मा जी ने आधा चैत्र मास व्यतीत हो जाने पर नव सम्वत्सर और सूर्योदय से नवीन दिवस का प्रारम्भ होने का विधान क्यों किया है? इसी भांति सप्ताह का प्रथम दिवस सोमवार न होकर रविवार ही क्यों निर्धारित किया गया है? जैसा ऊपर कहा जा चुका है, व्रह्मा जी ने इस मानवीय सृष्टि की रचना तथा कालगणना का पूरा उपक्रम निसर्ग अथवा प्रकृति से तादात्म्य रखकर किया है। इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि ‘चैत्रमासे जगत्‌ व्रह्मा संसर्ज प्रथमेऽहनि, शुक्ल पक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदय सति।‘ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस को सूर्योदय से कालगणना का औचित्य इस तथ्य में निहित है कि सूर्य, चन्द्र, मंगल, पृथ्वी, नक्षत्रों आदि की रचना से पूर्व सम्पूर्ण त्रैलोक्य में घटाटोप अन्धकार छाया हुआ था। दिनकर की सृष्टि के साथ इस धरा पर न केवल प्रकाश प्रारम्भ हुआ अपितु भगवान्‌ आदित्य की जीवनदायिनी ऊर्जा शक्ति के प्रभाव से पृथ्वी तल पर जीव-जगत का जीवन भी सम्भव हो सका। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के स्थान पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से वर्ष का आरम्भ, अर्द्धरात्रि के स्थान पर सूर्योदय से दिवस परिवर्तन की व्यवस्था तथा रविवार को सप्ताह का प्रथम दिवस घोषित करने का वैज्ञानिक आधार तिमिराच्छन्न अन्धकार को विदीर्ण कर प्रकाश की अनुपम छटा बिखेरने के साथ सृजन को सम्भव बनाने की भगवान्‌ भुवन भास्कर की अनुपमेय शक्ति में निहित है। वैसे भी इंग्लैण्ड के ग्रीनविच नामक स्थान से दिन परिवर्तन की व्यवस्था में अर्द्ध रात्रि के १२ बजे को आधार इसलिए बनाया गया है; क्योंकि जब इंग्लैण्ड में रात्रि के १२ बजते हैं, तब भारत में भगवान्‌ सूर्यदेव की अगवानी करने के लिए प्रात: ५.३० बजे होते हैं।

वारों के नामकरण की विज्ञान सम्मत प्रक्रिया में व्रह्मा जी ने स्पष्ट किया कि आकाश में ग्रहों की स्थिति सूर्य से प्रारम्भ होकर क्रमश: बुध, शुक्र, चन्द्र, मंगल, गुरु और शनि की है। पृथ्वी के उपग्रह चन्द्रमा सहित इन्हीं अन्य छह ग्रहों को साथ लेकर व्रह्मा जी ने सप्ताह के सात दिनों का नामकरण किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि पृथ्वी अपने उपग्रह चन्द्रमा सहित स्वयं एक ग्रह है, किन्तु पृथ्वी पर उसके नाम से किसी दिवस का नामकरण नहीं किया जायेगा; किन्तु उसके उपग्रह चन्द्रमा को इस नामकरण में इसलिए स्थान दिया जायेगा; क्योंकि पृथ्वी के निकटस्थ होने के कारण चन्द्रमा आकाशमण्डल की रश्मियों को पृथ्वी तक पहुँचाने में संचार उपग्रह का कार्य सम्पादित करता है और उससे मानवीय जीवन बहुत गहरे रूप में प्रभावित होता है। लेकिन पृथ्वी पर यह गणना करते समय सूर्य के स्थान पर चन्द्र तथा चन्द्र के स्थान पर सूर्य अथवा रवि को रखा जायेगा।
हम सभी यह जानते हैं कि एक अहोरात्र या दिवस में २४ होरा या घण्टे होते हैं। व्रह्मा जी ने इन २४ होरा या घण्टों में से प्रत्येक होरा का स्वामी क्रमश: सूर्य, शुक्र, बुध, चन्द्र, शनि, गुरु और मंगल को घोषित करते हुए स्पष्ट किया कि सृष्टि की कालगणना के प्रथम दिवस पर अन्धकार को विदीर्ण कर भगवान्‌ भुवन भास्कर की प्रथम होरा से क्रमश: शुक्र की दूसरी, बुध की तीसरी, चन्द्रमा की चौथी, शनि की नौवीं, गुरु की छठी तथा मंगल की सातवीं होरा होगी। इस क्रम से इक्कीसवीं होरा पुन: मंगल की हुई। तदुपरान्त सूर्य की बाईसवीं, शुक्र की तेईसवीं और बुध की चौबीसवीं होरा के साथ एक अहोरात्र या दिवस पूर्ण हो गया। इसके बाद अगले दिन सूर्योदय के समय चन्द्रमा की होरा होने से दूसरे दिन का नामकरण सोमवार किया गया। अब इसी क्रम से चन्द्र की पहली, आठवीं और पंद्रहवीं, शनि की दूसरी, नववीं और सोलहवीं, गुरु की तीसरी, दशवीं और उन्नीसवीं, मंगल की चौथी, ग्यारहवीं और अठ्ठारहवीं, सूर्य की पाचवीं, बारहवीं और उन्नीसवीं, शुक्र की छठी, तेरहवीं और बीसवीं, बुध की सातवीं, चौदहवीं और इक्कीसवीं होरा होगी। बाईसवीं होरा पुन: चन्द्र, तेईसवीं शनि और चौबीसवीं होरा गुरु की होगी। अब तीसरे दिन सूर्योदय के समय पहली होरा मंगल की होने से सोमवार के बाद मंगलवार होना सुनिश्चित हुआ। इसी क्रम से सातों दिवसों की गणना करने पर वे क्रमश: बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार तथा शनिवार घोषित किये गये; क्योंकि मंगल से गणना करने पर बारहवीं होरा गुरु पर समाप्त होकर बाईसवीं होरा मंगल, तेईसवीं होरा रवि और चौबीसवीं होरा शुक्र की हुई। अब चौथे दिवस की पहली होरा बुध की होने से मंगलवार के बाद का दिन बुधवार कहा गया। अब बुधवार की पहली होरा से इक्कीसवीं होरा शुक्र की होकर बाईसवीं, तेईसवीं और चौबीसवीं होरा क्रमश: बुध, चन्द्र और शनि की होगी। तदुपरान्त पांचवें दिवस की पहली, होरा गुरु की होने से पांचवां दिवस गुरुवार हुआ। पुन: छठा दिवस शुक्रवार होगा; क्योंकि गुरु की पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं और बाईसवीं होरा के पश्चात्‌ तेईसवीं होरा मंगल और चौबीसवीं होरा सूर्य की होगी। अब छठे दिवस की पहली होरा शुक्र की होगी। सप्ताह का अन्तिम दिवस शनिवार घोषित किया गया; क्योंकि शुक्र की पहली, आठवीं, पन्द्रहवीं और बाईसवीं होरा के उपरान्त बुध की तेईसवीं और चन्द्रमा की चौबीसवीं होरा पूर्ण होकर सातवें दिवस सूर्योदय के समय प्रथम होरा शनि की होगी।
संक्षेप में व्रह्मा जी प्रणीत इस कालगणना में नक्षत्रों, ऋतुओं, मासों, दिवसों आदि का निर्धारण पूरी तरह निसर्ग अथवा प्रकृति पर आधारित वैज्ञानिक रूप से किया गया है। दिवसों के नामकरण को प्राप्त विश्वव्यापी मान्यता इसी तथ्य का प्रतीक है।

द्वादश स्थान गत लग्नेश
द्वादश स्थान में लग्नेश कि स्थिति दर्शाती है कि यह द्वि द्वादश धुरी में है जो कि उत्तम स्थिति नहीं है लग्न के सभी गुणों कार्कत्वों का नाश हो जाता है; जातक व्यक्तित्व दुविधा ग्रस्त होगा;

जातक सदैव विषाद ग्रस्त एवं अनिंद्राग्रस्त रहेगा; इसके अतिरिक्त व्यक्ति को मुख्यतः हीन भावना सम व्यक्तित्व दुविधा, ऐसे विचार कि व्यक्ति इस संसार के लिए उपर्युक्त नहीं है, से ग्रस्त रहेगा; इसका कारण है कि द्वादश स्थान लग्न से द्वादश है, अतः लग्न के सभी कारकत्व इस स्थान में अस्तित्वहीन हो जाते हैं;
द्वादश स्थान गत लग्नेश के लिए, द्वादश स्थान, सर्वदा अनिष्टकारी नहीं है क्योंकि यह विदेश भूमि से सम्बन्ध दर्शाता है ; जातक विदेशवास एवं वहीँ उपार्जन कर सकता है ; जातक का व्यय पर नियंत्रण होगा तथा जीवनकाल में किये गए कार्यों के लिए मरणोपरांत यश प्राप्त करेगा ; जीवन के उत्तरार्ध में जातक धर्मं कर्म मोक्ष प्राप्ति से सम्बद्ध हो सकता है ;
कुछ दैवज्ञों के अनुसार, द्वादश स्थान में लग्नेश, व्यक्ति को परिभ्रमणकर्ता बनाता है; ऐसा व्यक्ति जो अपने घर से दूर अथवा विदेश में रह सकता है ; जातक परस्त्री आसक्त, पौरुषत्व नाशक हो सकता है एवं दारिद्रय व रोगों से पीढ़ित हो सकता है ; पारिवारिक सदस्यों के प्रति जातक का द्रष्टिकोण उपयुक्त नहीं होगा ;
यदि द्वादश स्थान में लग्नेश सुस्थित हो तो जातक को विलक्षण संचेतना, ईश्वर व धर्म कर्म में संयोग प्राप्त होगा तथा सदैव मुक्ति के लिए प्रयासरत रहेगा तथा यदि जातक किसी समारोह (एक्त्रिकरण) में भी विद्यमान हो तो सदैव यही अनुभव करेगा कि वह वहीँ नहीं है ; द्वादश स्थान गत लग्नेश यदि केतु से संयोग बनाये तो संभावना है कि यह जातक का अंतिम जन्म हो ;
यदि लग्नेश द्वादश स्थान में दूषित हो तो जातक को मिथ्या कारावास. विभ्रम, विश्थापन प्राप्त होते हैं; उसका व्यवहार दूषित हो सकता है, वह वेश्यागामी व अशिष्ट भाषी होगा ; यदि मंगल व केतु से इसका संयोग हो तो व्यक्ति दो व्यक्तित्व का स्वामी हो सकता है ;
इसके विपरीत यदि लग्नेश इस स्थान में बली हो तो जातक अपने व्ययों पर नियंत्रण करने में सक्षम होगा, कामी प्रवृति का नहीं होगा, चापलूसी का स्वाभाव नहीं होगा, किसी के समक्ष अपना दुःख व्यक्त नहीं करेगा तथा मिथ्या कारावास एवं अनिन्द्रपूर्ण रात्रि प्राप्त नहीं होगी ;
यदि लग्नेश का बल छय होता है तो उपरोक्त से विपरीत फलित होगा तथा जातक को योनरोग भी हो सकते हैं, दुराचारी हो सकता है, खाने व पीने का कोई नियत समय नहीं होगा एवं सदैव अन्यों द्वारा आलोच्य होगा तथा जीवन में कारावास अथवा मिथ्याभियोग भी प्राप्त हो सकते हैं :
[20/07, 12:14] Daddy: साधना व मंत्र सिद्धि में आने वाले छ: विघ्न और उसे दूर करने के उपाय।

साधना व मंत्र सिद्धिमें आते है यह छ: बड़े विध्न हैं । अगर ये विध्न न आयें तो हर मनुष्य भगवान के दर्शन कर ले ।

1. निद्रा,
2. तंद्रा, 
3. आलस्य,
4. मनोराज,
5. लय और 
6. रसास्वाद

कभी साधना करने बैठते हैं तो नींद आने लगती है और जब सोने की कोशिश करते है तो नींद नहीं आती । यह भी साधना का एक विघ्न है ।

तंद्रा भी एक विघ्न है । नींद तो नहीं आती किंतु नींद जैसा लगता है । यह सूक्ष्म निद्रा अर्थात तंद्रा है ।

साधना करने में आलस्य आता है । “अभी नहीं, बाद में करेंगे…” ऐसा सोचते हैं तो यह भी एक विघ्न है ।

“जब हम माला लेकर जप करने बैठते हैं, तब मन कहीं से कहीं भागता है । फिर ‘मन नहीं लग रहा…’ ऐसा कहकर माला रख देते हैं । घर में भजन करने बैठते हैं तो मंदिर याद आता है और मंदिर में जाते हैं तो घर याद आता है । काम करते हैं तो माला याद आती है और माला करने बैठते हैं तब कोई न कोई काम याद आता है |” ऐसा क्यों होता है? यह एक व्यक्ति का नहीं, सबका प्रश्न है और यही मनोराज है ।

कभी-कभी प्रकृति में मन का लय हो जाता है । आत्मा के दर्शन नहीं होते किंतु मन का लय हो जाता है और लगता है कि ध्यान किया । ध्यान में से उठते है तो जम्हाई आने लगती है । यह ध्यान नहीं, लय हुआ । वास्तविक ध्यान में से उठते हैं तो ताजगी, प्रसन्नता और दिव्य विचार आते हैं किंतु लय में ऐसा नहीं होता ।

कभी-कभी साधक को रसास्वाद परेशान करता है । साधना करते-करते थोड़ा बहुत आनंद आने लगता है तो मन उसी आनंद का आस्वाद लेने लग जाता है और अपना मुख्य लक्ष्य भूल जाता है ।

इन विघ्नों को जीतने के उपाय :

मनोराज एवं लय को जीतना हो तो दीर्घ स्वर से ॐ का जप करना चाहिए ।

स्थूल निद्रा को जीतने के लिए अल्पाहार और आसन करने चाहिए । सूक्ष्म निद्रा यानी तंद्रा को जीतने के लिए प्राणायाम करने चाहिए ।

आलस्य को जीतना हो तो निष्काम कर्म करने चाहिए । सेवा से आलस्य दूर होगा एवं धीरे-धीरे साधना में भी मन लगने लगेगा।
[: आइये समाज में फैले कु्छ षड्यंत्रों पर प्रकाश डालें :-

अर्धसत्य —फलां फलां तेल में कोलेस्ट्रोल नहीं होता है!

पूर्णसत्य — किसी भी तेल में कोलेस्ट्रोल नहीं होता ये केवल यकृत में बनता है । ✅

अर्धसत्य —सोयाबीन में भरपूर प्रोटीन होता है !

पूर्णसत्य—सोयाबीन सूअर का आहार है मनुष्य के खाने लायक नहीं है! भारत में अन्न की कमी नहीं है, इसे सूअर आसानी से पचा सकता है, मनुष्य नही ! जिन देशों में 8 -9 महीने ठण्ड रहती है वहां सोयाबीन जैसे आहार चलते है । ✅

अर्धसत्य—घी पचने में भारी होता है

पूर्णसत्य—बुढ़ापे में मस्तिष्क, आँतों और संधियों (joints) में रूखापन आने लगता है, इसलिए घी खाना बहुत जरुरी होता है !और भारत में घी का अर्थ देशी गाय के घी से ही होता है । ✅

अर्धसत्य—घी खाने से मोटापा बढ़ता है !

पूर्णसत्य—(षड्यंत्र प्रचार ) ताकि लोग घी खाना बंद कर दें और अधिक से अधिक गाय मांस की मंडियों तक पहुंचे, जो व्यक्ति पहले पतला हो और बाद में मोटा हो जाये वह घी खाने से पतला हो जाता है✅

अर्धसत्य—घी ह्रदय के लिए
हानिकारक है !

पूर्णसत्य—देशी गाय का घी हृदय के लिए अमृत है, पंचगव्य में इसका स्थान है । ✅

अर्धसत्य—डेयरी उद्योग दुग्ध
उद्योग है !

पूर्णसत्य—डेयरी उद्योग -मांस उद्योग है! यंहा बछड़ो और बैलों को, कमजोर और बीमार गायों को, और दूध देना बंद करने पर स्वस्थ गायों को कत्लखानों में भेज दिया जाता है! दूध डेयरी का गौण उत्पाद है । ✅

अर्धसत्य—आयोडाईज नमक से
आयोडीन की कमी पूरी
होती है !

पूर्णसत्य—आयोडाईज नमक का
कोई इतिहास नहीं है, ये
पश्चिम का कंपनी षड्यंत्र
है आयोडाईज नमक में
आयोडीन नहीं पोटेशियम
आयोडेट होता है जो भोजन
पकाने पर गर्म करते समय
उड़ जाता है स्वदेशी जागरण
मंच के विरोध के फलस्वरूप
सन्2000 में भाजपा सरकार
ने ये प्रतिबन्ध हटा लिया था,
लेकिन कांग्रेस ने सत्ता में आते
ही इसे फिर से लगा दिया ताकि
लूट तंत्र चलता रहे और विदेशी
कम्पनियाँ पनपती रहे । ✅

अर्धसत्य— शक्कर (चीनी ) का
कारखाना !

पूर्णसत्य— शक्कर (चीनी ) का
कारखाना इस नाम की आड़
में चलने वाला शराब का
कारखाना शक्कर इसका
गौण उत्पाद है । ✅

अर्धसत्य—शक्कर (चीनी ) सफ़ेद
जहर है !

पूर्णसत्य— रासायनिक प्रक्रिया के
कारण कारखानों में बनी
सफ़ेद शक्कर(चीनी) जहर
है ! पम्परागत शक्कर
एकदम सफ़ेद नहीं होती !
थोडा हल्का भूरा रंग लिए
होती है ! ✅

अर्धसत्य— फ्रिज में आहार ताज़ा
होता है !

पूर्णसत्य— फ्रिज में आहार ताज़ा
दिखता है पर होता नहीं है
जब फ्रिज का अविष्कार
नहीं हुआ था तो इतनी
देर रखे हुए खाने को
बासा / सडा हुआ खाना
कहते थे । ✅

अर्धसत्य— चाय से ताजगी आती है!

पूर्णसत्य— ताजगी गरम पानी से
आती है! चाय तो केवल
नशा(निकोटिन) है । ✅

अर्धसत्य—एलोपैथी स्वास्थ्य
विज्ञान है !

पूर्णसत्य—एलोपैथी स्वास्थ्य विज्ञानं
✅ नहीं चिकित्सा विज्ञान है!

अर्धसत्य—एलोपैथी विज्ञानं ने बहुत
तरक्की की है !

पूर्णसत्य— दवाई कंपनियों ने बहुत
तरक्की की है! एलोपैथी में
मूल दवाइयां 480-520 है
जबकि बाज़ार में 1 लाख
से अधिक दवाइयां बिक
रही है ।✅

अर्धसत्य— बैक्टीरिया वायरस के
कारण रोग होते हैं !

पूर्णसत्य— शरीर में बैक्टीरिया
वायरस के लायक
वातावरण तैयार होने पर
रोग होते हैं ! ✅

अर्धसत्य— भारत में लोकतंत्र है !
जनता के हितों का ध्यान
रखने वाली जनता द्वारा
चुनी हुई सरकार है !

पूर्णसत्य— भारत में लोकतंत्र नहीं
कंपनी तन्त्र है बहुत से
सांसद, मंत्री, प्रशासनिक
अधिकारी कंपनियों के
दलाल हैं उनकी भी
नौकरियां करते हैं उनके
अनुसार नीतियाँ बनाते
हैं, वे जनहित में नहीं
कंपनी हित में निर्णय लेते
हैं ! भोपाल गैस कांड से
बड़ा उदहारण क्या हो
सकता है !जंहा एक
अपराधी मुख्यमंत्री और
प्रधानमंत्री के आदेशानुसार
फरार हो सका ! लोकतंत्र
होता तो उसे पकड के
वापस लोटाते । ✅

अर्धसत्य— आज के युग में
मार्केटिंग का बहुत
विकास हो गया है !

पूर्णसत्य— मार्केटिंग का नहीं ठगी
का विकास हो गया है !
माल गुणवत्ता के आधार
पर नहीं विभिन्न प्रलोभनों
व जुए के द्वारा बेचा जाता
है ! जैसे क्रीम गोरा बनाती
है!भाई कोई भैंस को गोरा
बना के दिखाओ ! ✅

अर्धसत्य— टीवी मनोरंजन के लिए
घर घर तक पहुँचाया
गया है !

पूर्णसत्य— जब टी वी नहीं था तब
लोगों का जीवन देखो और
आज देखो जो आज इन्टरनेट
पर बैठे सुलभता से जीवन जी
रहे हैं !उन्हें अहसास नहीं होगा
कंपनियों का माल बिकवाने
और परिवार व्यवस्था को
तोड़ने
े के लिए टी वी घर घर
तक पहुँचाया जाता है ! ✅

अर्धसत्य— टूथपेस्ट से दांत साफ
होते हैं !

पूर्णसत्य— टूथपेस्ट करने वाले
यूरोप में हर तीन में से एक
के दांत ख़राब हैं दंतमंजन
करने से दांत साफ होते हैं
मंजन -मांजना, क्या बर्तन
ब्रश से साफ होते हैं ?
मसूड़ों की मालिश करने से
दांतों की जड़ें मजबूत भी
होती हैं ! ✅

अर्धसत्य— साबुन मैल साफ कर
त्वचा की रक्षा करता है !

पूर्णसत्य— साबुन में स्थित केमिकल
(कास्टिक सोडा, एस. एल.
एस.) और चर्बी त्वचा को
नुकसान पहुंचाते हैं, और
डाक्टर इसीलिए चर्म रोग
होने पर साबुन लगाने से
मना करते हैं ! साबुन में गौ
की चर्बी पाए जाने पर
विरोध होने से पहले
हिंदुस्तान लीवर हर साबुन
में गाय की चर्बी का
उपयोग करती थी। ✅

किडनी को साफ़ करें वह भी सिर्फ 5 रुपये में।

✅o हमारी किडनी एक बेहतरीन फिल्टर हैं जो सालों से हमारे खून की गंदगी को साफ़ करने का काम करती हैं मगर हर फिल्टर की तरह इसको भी साफ़ करने की जरूरत हैं ताकि ये और भी अच्छा काम करें।
आज हम आपको बता रहे हैं इसकी सफाई के बारे में और वह भी सिर्फ 5 रुपये में।

O✅ एक मुट्ठी भर धनिया लीजिए इसको छोटे छोटे टुकड़ों में काट लें और अच्छी तरह धुलाई कर ले। फिर एक बर्तन में १ लीटर पानी डाल कर इन टुकड़ों को डाल दे, 10 मिनट तक धीमी आँच पर पकने दे, बस अब इसको छान लें और ठंडा होने दो अब इस ड्रिंक को हर रोज़ एक गिलास खाली पेट पिएँ। आप देखेंगे के आपके पेशाब के साथ सारी गंदगी बाहर आ रही हैं। ✅
NOTE : – इसके साथ थोड़ी से अजवायन डाल लें तो सोने पे सुहागा हो जाए।

अब समझ आया कि हमारी माँ अक्सर धनिये की चटनी क्यों बनाती थी और हम आज उनको old fashion कहते हैं।

‘बुफे सिस्टिम’ नहीं, भारतीय भोजन पद्धति है लाभप्रद

आजकल सभी जगह शादी-पार्टियों में खड़े होकर भोजन करने का रिवाज चल पड़ा है लेकिन हमारे शाश्त्र कहते है कि हमें नीचे बैठकर ही भोजन करना चाहिए । खड़े होकर भोजन करने से हानियाँ तथा पंगत में बैठकर भोजन करने से जो लाभ होते हैं वे निम्नानुसार हैं :

खड़े होकर भोजन करने से हानियाँ बैठकर (या पंगत में)भोजन करने से लाभ

१] यह आदत असुरों की है । इसलिए इसे ‘राक्षसी भोजन पद्धति’कहा जाता हैं

१] इसे ‘दैवी भोजन पद्धति’ कहा जाता हैं ।

२] इसमें पेट, पैर व आँतों पर तनाव पड़ता है, जिससे गैस, कब्ज, मंदाग्नि, अपचन जैसे अनेक उदर-विकार व घुटनों का दर्द, कमरदर्द आदि उत्त्पन्न होते हैं । कब्ज अधिकतर बीमरियों का मूल है

२] इसमें पैर, पेट व आँतों की उचित स्थिति होने से उन पर तनाव नहीं पड़ता

३] इससे जठराग्नि मंद हो जाती है, जिससे अन्न का सम्यक पाचन न होकर अजीर्णजन्य कई रोग उत्पन्न होते हैं

३] इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है, अन्य का पाचन सुलभता से होता है

४] इससे ह्रदय पर अतिरिक्त भार पड़ता है, जिससे हृदयरोगों की सम्भावनाएँ बढ़ती हैं

४] ह्रदय पर भार नहीं पड़ता

५] पैरों में जूते -चप्पल होने से पैर गरम रहते हैं । इससे शरीर की पूरी गर्मी जठराग्नि को प्रदीप्त करने में नहीं लग पाती

५] आयुर्वेद के अनुसार भोजन करते समय पैर ठंडे रहने चाहिए । इससे जठराग्नि प्रदीप्त होने में मदद मिलती है । इसीलिए हमारे देश में भोजन करने से पहले हाथ-पैर धोने की परम्परा हैं

६] बार-बार कतार में लगने से बचने के लिए थाली में अधिक भोजन भर लिया जाता है, तो ठूँस-ठूँसकर खाया जाता है जो अनेक रोगों का कारण बन जाता है अथवा अन्न का अपमान करते हुए फेंक दिया जाता हैं

६] पंगत में एक परोसनेवाला होता है, जिससे व्यक्ति अपनी जरूरत के अनुसार भोजन लेता है । उचित मात्रा में भोजन लेने से व्यक्ति स्वस्थ्य रहता है व भोजन का भी अपमान नहीं होता

७] जिस पात्र में भोजन रखा जाता है, वह सदैव पवित्र होना चाहिए लेकिन इस परम्परा में जूठे हाथों के लगने से अन्न के पात्र अपवित्र हो जाते हैं । इससे खिलनेवाले के पुण्य नाश होते हैं और खानेवालों का मन भी खिन्न-उद्दिग्न रहता है ।

७] भोजन परोसनेवाला अलग होते हैं, जिससे भोजनपात्रों को जूठे हाथ नहीं लगते । भोजन तो पवित्र रहता ही हैं, साथ ही खाने-खिलानेवाले दोनों का मन आनंदित रहता हैं ।

८] हो-हल्ले के वातावरण में खड़े होकर भोजन करने से बाद में थकान और उबान महसूस होती है । मन में भी वैसे ही शोर-शराबे के संस्कार भर जाते है ।

८] शांतिपूर्वक पंगत में बैठकर भोजन करने से मन में शांति बनी रहती है, थकान-उबान भी महसूस नही

निरोगी रहने हेतु महामन्त्र

मन्त्र 1 :-

• भोजन व पानी के सेवन प्राकृतिक नियमानुसार करें

• ‎रिफाइन्ड नमक,रिफाइन्ड तेल,रिफाइन्ड शक्कर (चीनी) व रिफाइन्ड आटा ( मैदा ) का सेवन न करें

• ‎विकारों को पनपने न दें (काम,क्रोध, लोभ,मोह,इर्ष्या,)

• ‎वेगो को न रोकें ( मल,मुत्र,प्यास,जंभाई, हंसी,अश्रु,वीर्य,अपानवायु, भूख,छींक,डकार,वमन,नींद,)

• ‎एल्मुनियम बर्तन का उपयोग न करें ( मिट्टी के सर्वोत्तम)

• ‎मोटे अनाज व छिलके वाली दालों का अत्यद्धिक सेवन करें

• ‎भगवान में श्रद्धा व विश्वास रखें

मन्त्र 2 :-

• पथ्य भोजन ही करें ( जंक फूड न खाएं)

• ‎भोजन को पचने दें ( भोजन करते समय पानी न पीयें एक या दो घुट भोजन के बाद जरूर पिये व डेढ़ घण्टे बाद पानी जरूर पिये)

• ‎सुबह उठेते ही 2 से 3 गिलास गुनगुने पानी का सेवन कर शौच क्रिया को जाये

• ‎ठंडा पानी बर्फ के पानी का सेवन न करें

• ‎पानी हमेशा बैठ कर घुट घुट कर पिये

• ‎बार बार भोजन न करें आर्थत एक भोजन पूणतः पचने के बाद ही दूसरा भोजन करें


[ब्लॉक नसों को खोलने का उपाय

तेज रफ्तार में भागती जिंदगी ने हमारी जीवनशैली को पूरी तरह से बिगाड़ कर रख दिया है। खान-पान की गलत आदतों के चलते आज हम कम उम्र में सेहत से जुड़ी कई परेशानियों का सामना कर रहे हैं। डायबिटीज, हाई ब्लड प्रैशर, कोलेस्ट्रॉल, अस्थमा, हार्ट से जुड़ी समस्याएं आम हो गई है। इसी के साथ नसों की ब्लाकेज की समस्या भी काफी सुनने को मिल रही है।

आकड़ों की मानें तो उत्तरी भारत में लगभग 40 प्रतिशत लोगों की धमनियां कमजोर है। 20 प्रतिशत महिलाओं को गर्भावस्था के बाद यह परेशानी होती है। इसकी पहचान सही समय पर नहीं हो पाती, जिसका असर वैरिकाज वेंस (varicose veins) के रूप में सामने आता है। पैरों में सूजन व नसों के गुच्छे बनने शुरू हो जाते हैं।

दरअसल, नसों की कमजोरी और ब्लॉकेज होने का कारण हमारी डाइट में पोषक तत्वों की कमी है। संतुलित की बजाए बाहर का तला भूना व फास्ट फूड खाने से हमारे रक्त में अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा बढ़ जाती हैं जो नसों के ब्लड सर्कुलेशन में रूकावट डालना शुरू कर देते हैं।

इससे शरीर में बुरे कोलेस्ट्रॉल की मात्रा बढ़ने लगती है, जिससे नसों में खून का प्रवाह अच्छे से नहीं होता और थका जमना शुरू हो जाता है जो बाद में ब्लाकेज का रूप ले लेता है। हार्ट व शरीर के अन्य हिस्सों में ब्लॉकेज खोलने के लिए सर्जरी व दवाओं का सहारा लिया जाता है जो काफी महंगा इलाज है।

किन लोगों को होती है ब्लाकेज की परेशानी

वेन ब्लॉकेज की परेशानी तब होती है जब खून संचारित होकर दिल तक नहीं पहुंचता जो बाद में गांठों और गुच्छे के रूप में हमारे सामने आता है। यह परेशानी उन लोगों को होती हैं जो लगातार कई घटों रोजाना एक ही पोस्चर में बैठकर काम करते हैं। वैरिकॉज की परेशानी पैरों की धमनियों में अधिक होती हैं क्योंकि यहां खून के प्रवाह का भार अधिक होता है।

आहार जो करते हैं धमनियों की नैचुरल सफाई

मेडिटेरेनियन डाइट प्लान जिसमें कम मात्रा में कोलेस्ट्रॉल हो लेकिन फाइबर की मात्रा भरपूर हो। शुगर व नमक का कम सेवन करें और मक्खन की जगह आलिव ऑयल वसा का इस्तेमाल करें। धमनियों के अनुकूल खाद्य पदार्थ व हर्ब जैसे चने, अनार, जई, एवाकाडो, लहसुन, केसर, हल्दी, कैलामस, हरी सब्जियों व फलों का सेवन करें। खाना खाने के बाद गुनगुना गर्म पानी का सेवन जरूर करें क्योंकि इसे नसों में ब्लाकेज का खतरा काफी हद तक कम हो जाता है। मैटाबॉलिज्म को बढ़ाने के लिए एरोबिक एक्सरसाइज का सहारा लें।

इन घरेलू आहारों का ले सहारा

लहसुन : लहसुन कोलेस्ट्रॉल को घटाने में काफी लाभदायक है इसलिए अपने आहार में लहसुन को जरूर शामिल करें। बंद धमनियों की समस्या होने पर 3 लहसुन की कली को 1 कप दूध में उबाल कर पीएं।

एवोकाडो : एवोकाडो में मौजूद मिनरल्स, विटामिन A, E और C कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल में रखते है। इससे रक्त कोशिकाओं में कोलेस्ट्रॉल जमा नहीं होता और आप ब्लाकेज की समस्या से बचे रहते है।

ओट्स : ओट्स का रोजाना सुबह नाश्ते में सेवन भी ब्लाकेज की समस्या को दूर करता है। इसमें फाइबर भरपूर मात्रा में पाया जाता है।

अनार : एंटीऑक्सीडेंट, नाइट्रिक और ऑक्साइड के गुणों से भरपूर अनार के 1 गिलास जूस का रोजाना सेवन आपको धमनियों की ब्लोकेज के साथ कई हेल्थ प्रॉब्लम से दूर रखता है।

डार्इ फ्रूट्स : रोजाना कम से कम 50-100 ग्राम बादाम, अखरोट और पेकन (Pecan) का सेवन आपकी रक्त कोशिकाओं में कोलेस्ट्रॉल जमा नहीं होने देता। इससे आप ब्लाकेज की समस्या से बचे रहते है।

आयुर्वेदिक हर्ब्स : लहसुन, शहद, हल्दी, केसर, कैमलस और कुसुरा फूल को मिलाकर पीस लें। इसके रोजाना सेवन करने से आप ब्लाकेज की समस्या के साथ कई हेल्थ प्रॉब्लम से बच सकते
हैं।

मोटापे पर रखें कंट्रोल : मोटापे को बीमारियों की जड़ कहा जाता है। नसों की ब्लाकेज के लिए भी आपका बढ़ता वजन जिम्मेदार है इसलिए बटर, चीज, क्रीम, केक, रैड मीट जैसी फैटी डाइट का सेवन कम करें।

पर्याप्त नींद : इसके अलावा भरपूर नींद लें क्योंकि नींद लेने से हार्मोंनल संतुलन नहीं बिगड़ता।

धूम्रपान को कहें ना : धूम्रपान भी नसों की ब्लाकेज का मुख्य कारण है। इसलिए अगर आप स्मोकिंग करते हैं तो उसे आज ही ना कर दें।

व्यायाम : रोजाना 30 मिनट योग एरोबिक या हल्का फुल्का व्यायाम जरूर करें इससे नसों में हलचल होती रहती हैं जिससे ब्लाकेज का खतरा कम रहता है।

पूरे शरीर के ब्लॉकेज खोलने का उपाय

आज के समय में हार्ट ब्लॉकेज की समस्या आम बात हो गई है. गलत खानपान और मिलावटी खाना की वजह से ये समस्या बहुतायत से पाई जाने लगी है. इसलिए आज हम आपको ये घरेलु नुस्खा बताने जा रहे हैं इससे आपके शरीर में किसी भी प्रकार की एडी से चोटी तक शरीर की ब्लाक नसों को खोल देगा. अगर आपने बाई पास या एंजियोप्लास्टी करवा राखी हैं तब तो ये प्रयोग आपके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। क्यों के एंजियोप्लास्टी करवाने के बाद स्टंट के आस पास अधिक मात्रा में कोलेस्ट्रोल जमना शुरू हो जाता हैं और थोड़े समय के बाद दोबारा एंजियोप्लास्टी करवानी पड़ती हैं।

आवश्यक सामग्री

1gm दाल चीनी, 10 gm काली मिर्च साबुत, 10gm तेज पत्ता, 10gm मगज, 10 gm मिश्री डला, 10 gm अखरोट गिरी, 10gm अलसी।

टोटल वजन 61gm सभी सामान रसोई का ही है।

बनाने की विधि

सभी को मिक्सी में पीस के बिलकुल पाउडर बना ले और 6gm की 10 पुड़िया बन जायेगी एक पुड़िया हर रोज सुबह खाली पेट नवाये पानी से लेनी है और एक घंटे तक कुछ भी नही खाना है चाय पी सकते हो ऐड़ी से ले कर चोटी तक की कोई भी नस बन्द हो खुल जाएगी।
[

।। अहँकार ।।

अहँकार नही तो संसार नही , मेरे तेरे का यह संसार अहंकार के आधार पर ही चलता है । अहंकार के अनेकों रूप है अनेको वेश है – क्षण क्षण पल पल रूप बदलना , वेश धरना , इसका स्वभाव जो है । कभी तो वह स्वार्थ का चोला धारण करता है तो कभी धर्म का बाना पहनता है , यही अहँकार कभी हँसता है तो कभी रोता है ,कभी प्रेम करता है तो कभी द्वेष करता है , कभी जागता है तो कभी सोता है ।

जहां जहां पुरुष जाता है वहां वहां अहंकार उसके साथ ही साथ चलता है , कभी तो वह आगे आगे चलता है तो कभी पीछे पीछे , कभी दाँये तो कभी बाँये , कभी नीचे तो कभी ऊपर । सामान्य पक्षी तो अनजाने मे ही फँस जाता है परंतु अहँकार एक एैसा विचित्र पक्षी है जो जानते बूझते – देखते ही देखते फँसता है । व्याध के जाल मे फँस कर प्राणी रोता है परंतु अहँकार के जाल मे फँस कर प्राणी हँसता है । अहँकार के राज्य मे तो रोना ही रोना है , वह हँसना भी रोना ही है । अहँकार का रखवारा हाँकते हाँकते गिराता है और फिर गिरे हुये को उठा कर फिर हाँकता है । कौन मुक्त हो पाया है इस अहँकार से , जो मानता है स्वंय को ‘ निरहँकारी ‘ वास्तव मे तो उससे बडा अहँकारी इस संसार मे नही है ।

‘ अहँकार के ही देवता हैं “ महादेव “ ‘

           ।। महादेव ।।

आजकल कुछ बातें अंतर्जाल (मीडिया) में बहुत चल रहा है, जैसे ——

“बचपन में शिक्षा पर ध्यान दिया होता तो आज काँवड़ नही उठाना पड़ता ।”

“क्या अनपढ़ – गँवार या जाति – विशेष के लोग ही काँवड़ उठाते हैं ?” इत्यादि

पहली बात तो यह है कि विद्या (शिक्षा) से यदि सदाचार – विनम्रता – मानवता जागृत ना हो , तो वह शिक्षा नहीं है , उदरपूर्ति का एक साधन मात्र है , क्योंकि —

“विद्या ददाति विनयम्”

“सा विद्या या विमुक्तये”

सनातन धर्म में शिक्षा विनम्रता – स्वतन्त्रता देने वाली एवं प्रमाद व मृत्यु को भी हरने वाली , अमृतत्व को देने वाली है—– “अविद्यया मृत्युं तीर्त्वाविद्ययाऽमृतमश्नुते ।” 【ईशावास्योपनिषद्】

शिक्षित व श्रेष्ठ वही है जो विद्वान् होने के साथ विनम्र भी हो, दूसरों को अशिक्षित – अनपढ़ – गँवार कहने वाले विनम्र तो हो नही सकते ! अर्थात् वास्तव में मूर्ख वही हैं ।

दूसरी बात यह कि वर्ष भर में ३६५ दिन होते हैं, यदि एक दिन हमने परमात्मा के लिये निकाल दिया तो उससे परोक्ष एवं प्रत्यक्ष दोनों लाभ है ।

पैदल चलने के लाभ तो आप जानते ही हो, और भोलेनाथ की कृपा !
यदि ईश्वर है ऐसा मान ही लेते हैं तो हमारा क्या जाता है ?

थोड़ा सा जल – फूल – माला और थोड़ा सा परिश्रम !

तीसरी बात जो नास्तिक काँवड़ यात्रा को अनपढों के लिये बताते हैं , उनसे पूँछिये —-

आईपीएल के नाम पर हजारों करोड़ों रुपये भारत के जो डूब रहे हैं , और तुम हजारों रुपये के टिकट कटाकर , अपना अमूल्य समय व्यर्थ गंवाकर कौन सी शिक्षा का प्रदर्शन कर रहे हो ?

वैश्याओं का नृत्य , गन्दी फिल्मों – सिनेमाओं में व्यर्थ पैसे बहाकर , समय गँवाकर कौन से शिक्षा का प्रदर्शन कर रहे हो ?

शिक्षा के नाम पर नदियों को , वृक्षों को दूषित कर कौन सी शिक्षा का प्रदर्शन कर रहे हो ? (सबसे अधिक हानि इस शिक्षा ने ही प्रकृति का किया है)

सिगरेट – दारू पीकर कौन सी शिक्षा का प्रदर्शन कर रहे हो ?

यदि ये शिक्षित होने का लक्षण है , तो हम गँवार ही सही हैं ।

चौथी बात भगवान् ने कभी नही कहा कि तुम मेरे लिये पैसे खर्च करो , वो तो स्वयं देने वाले हैं —–

भगवान् तुमको सूर्य जैसा प्रकाश दिया कभी बिल (द्रव्य) माँगा ?

भगवान् ने तुमको जल , वायु , औषधि , वनस्पति , फल , अन्न दिया कभी पैसे माँगे ?

नहीं !

जो हमें देता है , उसको यदि एक लोटा जल हम प्रेम से देते हैं तो हम अनपढ़ पाखण्डी हो गये ?

भगवान् तो कहते हैं —— “पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।”

मुझे तेरा कुछ नही चाहिए , बस पत्र पुष्प जल के अलावा, और यह सब निःशुल्क है ।

हम तो कहेंगे कि अब प्रतिदिन दो – चार किलो मीटर पैदल चलकर काँवड़ यात्रा करनी चाहिए , जिससे ब्लड –
प्रेशर , शुगर भी समाप्त, और भोलेनाथ की कृपा भी !

और खर्च क्या ? “एक लोटा जल”
🌹✍🏻    दिन चर्या   ✍🏻🌹

जासु कृपा कर मिटत सब आधि,व्याधि अपार

तिह प्रभु दीन दयाल को बंदहु बारम्बार

🌳🌺महिला संजीवनी 🌺🌳


आधुनिक जीवन शैली को छोड़ यदि आयुर्वेद के स्वस्थ रहने के आहार संबंधी इन महावाक्यों के अनुसार दिनचर्या अपनायी जाए तो हम पूर्ण स्वस्थ रहते हुए गैर संचारी रोगों से बच सकते हैं।अवश्य पढ़ें डॉ दीप नारायण जी पांडेय सर का यह आलेख—–

आयुर्वेद के आहार सबंधी 25 महावाक्य

जब भूख लगती है तब सिद्धांत नहीं भोजन चाहिये। भोजन एक व्यक्तिगत मसला है। परन्तु यदि हम आयुर्वेद के कुछ महावाक्यों को याद रखकर, और उस ज्ञान का उपयोग करते हुये भोजन करें तो स्वास्थ्य उत्तम स्वास्थ्य बने रहने की संभावना बनी रहती है। आज की चर्चा आयुर्वेद के आहार-विषयक महावाक्यों पर केन्द्रित है, जिनकी वैज्ञानिकता का लोहा दुनिया भर के वैज्ञानिक आज भी मानते हैं। तो आइये, आनंद लेते हैं इस ज्ञान का जो हमें बीमारी से बचाकर परिवार का लाखों रूपया व्यर्थ होने से बचाने में सक्षम हैं। और हाँ, आयुर्वेद में ज्ञान की सीमायें अनंत हैं। मेरे ध्यान में भोजन से संबंधित लगभग 1000 महावाक्य हैं। उनमें से यह केवल प्रारंभिक सूची है जिसके बिना हमारा काम ही नहीं चल सकता। आप इसमें अपने प्रिय सूत्र या प्रिय महावाक्य जोड़ते रहिये, स्वस्थ रहिये और प्रसन्न रहिये।

  1. आरोग्यं भोजनाधीनम्। (काश्यपसंहिता, खि. 5.9): सबसे पहले तो हमें यह जान लेना चाहिये, जैसा कि महर्षि कश्यप कहते हैं, कि आरोग्य भोजन के अधीन होता है। सारा खेल भोजन का है। इस महावाक्य का अर्थ यह मानिये कि खाने को खानापूर्ति की तरह मत लीजिये।
  2. नाप्रक्षालितपाणिपादवदनो (च.सू.8.20): महर्षि चरक ने कम से कम पांच हजार साल पहले यह महत्वपूर्ण सूत्र दिया था। आचार्य वाग्भट ने भी इसे सातवीं-आठवीं शताब्दी में धौतपादकराननः (अ.हृ.सू. 8.35-38) के रूप में पुनः लिखा। इसका साधारण अर्थ यह है कि भोजन करने के पूर्व हाथ, पाँव व मुंह धोना आवश्यक है। इसके वैज्ञानिक महत्त्व पर बड़ी शोध हुई है। उनमें से एक बात यह है कि लन्दन स्कूल ऑफ़ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के वैज्ञानिकों द्वारा की गयी एक शोध से पता लगा है कि हाथ धोये बिना भोजन लेने की आदत के कारण अनेक बीमारियाँ संक्रमित करती हैं। हाथ धोये बिना खाना खाने की आदत के कारण अकेले डायरिया से ही सालाना 23.25 अरब डॉलर की हानि भारत को हो रही है। यह हानि भारतीय अर्थव्यवस्था के कुल जीडीपी का 1.2 प्रतिशत है। हाथ धोने में लगने वाले कुल खर्च को समायोजित करने के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था को सालाना 5.64 अरब डॉलर की बचत हो सकती है। यह हाथ धोने में संभावित लागत का 92 गुना है। आयुर्वेद में भोजन के सम्बन्ध में अनेक महावाक्य हैं जिनका पालन कर परिवार, समाज और देश का बहुत धन बचाया जा सकता है।
  3. आहारः प्रीणनः सद्यो बलकृद्देहधारकः। आयुस्तेजः समुत्साहस्मृत्योजोऽग्निविवर्द्धनः। (सु.चि., 24.68): स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा और बीमारी को रोकने में भोजन का स्थान रसायन और औषधि से कम नहीं है। इस सूत्र का अर्थ यह है कि आहार से संतुष्टि, तत्क्षण शक्ति, और संबल मिलता है, तथा आयु, तेज, उत्साह, याददाश्त, ओज, एवं पाचन में वृद्धि होती है। सन्देश यह है कि साफ़-सुथरा, प्राकृतिक और पौष्टिक भोजन शरीर, मन और आत्मा की प्रसन्नता और स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है।
  4. नाशुद्धमुखो (च.सू.8.20): अशुद्ध मुंह से अर्थात मुंह की शुद्धता सुनिश्चित किये बिना भोजन नहीं लेना चाहिये। साफ़-सफाई के पश्चात ही भोजन का आनंद लेना उपयुक्त रहता है।
  5. न कुत्सयन्न कुत्सितं न प्रतिकूलोपहितमन्नमाददीत (च.सू.8.20): दूषित अन्न या भोजन या दुश्मन या विरोधियों द्वारा दिया गया भोजन नहीं खाना चाहिये।
  6. न नक्तं दधि भुञ्जीत (च.सू.8.20): रात में दही नहीं खाना चाहिये। असल में दही यदि ताज़ा न हो तो उसके लाभदायक गुण नष्ट हो जाते हैं। इसीलिये यह महावाक्य बहुत उपयोगी है।
  7. नसक्तूनेकानश्नीयान्न निशि न भुक्त्वा न बहून्न द्विर्नोदकान्तरितात् न छित्त्वा द्विजैर्भक्षयेत् (च.सू.8.20): सत्तू—भुने हुये अनाज का आटा—घी और चीनी के मिश्रण के बिना नहीं खाना चाहिये। सत्तू को रात में, भोजन के बाद, अधिक मात्रा में, दिन में दो बार, या पानी पी पी कर ठांस कर, या दांतों को किटकिटाते हुये भी नहीं खाना चाहिये।
  8. पूर्वं मधुरमश्नीयान् (सु.सू.46.460): भोजन में सबसे पहले मधुर या मीठे पदार्थ खाना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि भोजन पूरा करने के बाद मिठाई या आइसक्रीम में हाथ मारना नुकसानदायक है। भोजन का अंत सदैव कटु, तिक्त या कषाय रस से करना चाहिये।
  9. आदौ फलानि भुञ्जीत (सु.सू.46.461): फल भोजन के प्रारंभ में खाना चाहिये। भोजन के अंत में फल खाने की परंपरा अनुचित है।
  10. पिष्टान्नं नैव भुज्जीत (सु.सू.46.494): पीठी वाले भोजन प्रायः नहीं लेना चाहिये। अगर बहुत भूखे हैं तो कम मात्रा में पिष्टान्न लेकर उससे दुगनी मात्रा में पानी पीना चाहिये।
  11. हिताहितोपसंयुक्तमन्नं समशनं स्मृतम्। बहु स्तोकमकाले वा तज्ज्ञेयं विषमाशनम्।। अजीर्णे भुज्यते यत्तु तदध्यशनमुच्यते। त्रयमेतन्निहन्त्याशु बहून्व्याधीन्करोति वा।। (सु.सू.46.494): हितकर और अहितकर भोजन को मिलकर खाना (समशन), कभी अधिक कभी कम या कभी समय पर कभी असमय खाना (विषमाशन) या पहले खाये हुये भोजन के बिना पचे ही पुनः खाना (अध्यशन) शीघ्र ही अनेक बीमारियों को जन्म दे देते हैं। आज की स्थिति में बढ़ रही जीवन-शैली से जुड़ी बीमारियों का यही कारण है।
  12. प्राग्भुक्ते त्वविविक्तेऽग्नौ द्विरन्नं न समाचरेत्। पूर्वभुक्ते विदग्धेऽन्ने भुञ्जानो हन्ति पावकम्। (सु.सू.46.492-493): सुबह खाने के बाद जब तक तेज भूख न लगे तब तक दुबारा अन्न नहीं खाना चाहिये। पहले का खाया हुआ अन्न विदग्ध हो जाता है और ऐसी दशा में फिर खाने वाला इंसान अपनी पाचकाग्नि को नष्ट कर लेता है।
  13. भुक्त्वा राजवदासीत यावदन्नक्लमो गतः। ततः पादशतं गत्वा वामपार्श्वेन संविशेत्।। (सु.सू.46.487): भोजन के बाद राजा की तरह सीधा तन कर बैठना चाहिये ताकि भोजन का क्लम हो जाये। फिर सौ कदम चल कर बायें करवट लेट जाना चाहिये।
  14. भुक्त्वाऽपि यत् प्रार्थयते भूयस्तत् स्वादु भोजनम् (सु.सू.46.482): जिस भोजन को खाने के बाद पुनः माँगा जाये, समझिये वह स्वादिष्ट है।
  15. उष्णमश्नीयात् (च.वि.1.24.1): उष्ण आहार करना चाहिये। परन्तु ध्यान रखिये कि बहुत गर्म भोजन से मद, दाह, प्यास, बल-हानि, चक्कर आना व पित्त-विकार उत्पन्न होते हैं।
  16. स्निग्धमश्नीयात् (च.वि.1.24.2): स्निग्ध भोजन करना चाहिये। परन्तु घी में डूबे हुये तरमाल के रूप में नहीं। रूखा-सूखा भोजन बल, वर्ण, आदि का नाश करता है परन्तु बहुत स्निग्ध भोजन कफ, लार, दिल में बोझ, आलस्य व अरुचि उत्पन्न करता है।
  17. मात्रावदश्नीयात् (च.वि.1.24.3): मात्रापूर्वक भोजन करना चाहिये। भोजन आवश्यकता से कम या अधिक नहीं करना चाहिये।
  18. जीर्णेऽश्नीयात् (च.वि.1.24.4): पूर्व में ग्रहण किये भोजन के जीर्ण होने या पच जाने के बाद ही भोजन करना चाहिये।
  19. वीर्याविरुद्धमश्नीयात् (च.वि.1.24.5): वीर्य के अनुकूल भोजन करना चाहिये। अर्थात् विरुद्ध वीर्य वाले खाद्य-पदार्थों, जैसे दूध और खट्टा अचार आदि को मिलाकर नहीं खाना चाहिये।
  20. इष्टे देशे इष्टसर्वोपकरणं चाश्नीयात् (च.वि.1.24.6): मन के अनुकूल स्थान और सामग्री के साथ भोजन करना चाहिये। अभीष्ट सामग्री के साथ भोजन करने से मन अच्छा रहता है।
  21. नातिद्रुतमश्नीयात् (च.वि.1.24.7): बहुत तेज गति या जल्दबाज़ी में भोजन नहीं करना चाहिये।
  22. नातिविलम्बितमश्नीयात् (च.वि.1.24.8): अत्यंत विलम्बपूर्वक भोजन नहीं करना चाहिये।
  23. अजल्पन्नहसन् तन्मना भुञ्जीत (च.वि.1.24.9): बिना बोले बिना हँसे तन्मयतापूर्वक भोजन करना चाहिये। भोजन और तन्मयता का संबंध इतना प्रगाढ़ है कि भोजन के संबंध में आयुर्वेद में दी गई सम्पूर्ण सलाह निरर्थक जा सकती है, यदि भोजन तन्मयता के साथ न किया जाये।
  24. आत्मानमभिसमीक्ष्य भुञ्जीत (च.वि.1.25): पूर्ण रूप से स्वयं की समीक्षा कर भोजन करना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि शरीर के लिये हितकारी और अहितकारी, सुखकर और दुःखकर द्रव्यों का शरीर के परिप्रेक्ष्य में गुण-धर्म का ध्यान रखते हुये यहाँ दिये गये महावाक्यों के अनुरूप ही भोजन करने का लाभ है।
  25. अशितश्चोदकं युक्त्या भुञ्जानश्चान्तरा पिबेत् (सु.सू.46.482): भोजन के पश्चात युक्तिपूर्वक पानी की मात्रा लेना चाहिये। तात्पर्य यह है कि खाने के बाद गटागट लोटा भर जल नहीं चढ़ा लेना चाहिये।

स्वस्थ रहने के लिये खाद्य-पदार्थों के चयन एवं भोजन के संबंध में आयुर्वेद के इन महावाक्यों की भूमिका को स्वीकार करना और व्यवहार में लाना आवश्यक है। हाल ही में भोजन से जुड़े इन महावाक्यों पर रेण्डम सैम्पल के आधार पर चयनित 60 आयुर्वेदाचार्यों को एक लघु प्रश्नावली भेजी गई। उनके उत्तरों में से स्कोरिंग वाले हिस्से को दुनियाभर में स्वीकार्य लिकर्ट-स्केल पर सहमति या असहमति की तीव्रता को नापा गया। इसमें दृढ़-असहमति, असहमति, न-सहमति-न-असहमति, सहमति, दृढ़-सहमति के स्केल पर एक्सपर्ट-जजमेंट विधि से जानकारी ली गई। प्राप्त निष्कर्षों का सारांश यह था कि रोगियों तथा स्वस्थ व्यक्ति के संबंध में भोजन के इन तमाम आयुर्वेदिक सिद्धांतों की समकालीन उपयोगिता यथावत है। इन सिद्धांतों में सभी उपयोगी हैं अतः सभी का यथासंभव पालन करना चाहिये। परंतु यदि आप अति-विकट परिस्थिति में हैं तो भी तीन महावाक्यों की सलाह के साथ किसी कीमत पर कदापि समझौता नहीं किया जा सकता: पहले किये गये भोजन के जीर्ण होने (पच जाने) पर ही भोजन करना, समुचित मात्रा में भोजन करना, तथा तन्मयतापूर्वक होकर भोजन करना।
भोजन की खामी से होने वाली एसिडिटी या पेट की जलन के लिये ओमेज़, ओम्प्रजोल या प्रिलोसेक या ऐसी तमाम प्रोटोन पंप इन्हिबिटर्स का दीर्घकालिक प्रयोग बहुत हानिकारक है| प्रोटॉन पंप अवरोधक दवा उनमें से हैं जिनका लंबी अवधि के उपचार के लिए उपयोग विशेष रूप से बढ़ रहा है| अक्सर इनके निर्धारित मात्रा से ज्यादा और अनुचित उपयोग से भारी प्रतिकूल प्रभावों का पता चला है| इनमें संक्रमण का खतरा बढ़ना, विटामिन और खनिजों के आंतों में अवशोषण को कम करना, गुर्दे की क्षति और मनोभ्रंश या डेमेंशिया शामिल हैं। इसके अलावा, कुछ अध्ययनों में बृहदान्त्र कैंसर, गैस्ट्रिक कैंसर, हृदय जोखिम, विटामिन बी 12 की कमी, हाइपोमैग्नेसीमिया, हाइपोनैट्रीमिया और फ्रैक्चर का जोखिम बढ़ने का खतरा बताया गया है।

उम्र-आधारित रोग-जनन (ऐज-रिलेटेड पैथोजेनेसिस) का मुख्य कारण भोजन के संबंध में आयुर्वेद की सलाह को न मानना भी है। यदि भोजन, शरीर, मन, व पर्यावरण के अंतर्संबंध को समझ लें तो स्वस्थ रहना संभव है। तनाव-जनित अपक्षयी तथा गैरसंचारी रोग जैसे कैंसर, मधुमेह, उच्च-रक्तचाप आदि की समस्या से जूझ रहे विश्व का कल्याण आयुर्वेद में दी गयी सलाह के प्रयोग पर निर्भर है।

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[अपने ऊपर तान्त्रिक प्रयोग का कैसे पता करें :
अक्सर लोग सोचते हैं की किसी ने उनपर कोई जादू टोना या तांत्रिक प्रयोग कर दी है तो आईये जानते हैं –
1) रात को सिरहाने एक लोटे मैं पानी भर कर रखे और इस पानी को गमले मैं लगे या बगीचे मैं लगे किसी छोटे पौधे मैं सुबह डाले । 3 दिन से एक सप्ताह मे वो पौधा सूख जायेगा है ।
2) रात्रि को सोते समय एक हरा नीम्बू तकिये के नीचे रखे और प्रार्थना करे कि जो भी नेगेटिव क्रिया हूई इस नीम्बू मैं समाहित हो जाये । सुबह उठने पर यदि नीम्बू मुरझाया या रंग काला पाया जाता है तो आप पर तांत्रिक क्रिया हुई है।
3) यदि बार बार घबराहट होने लगती है, पसीना सा आने लगता हैं, हाथ पैर शून्य से हो जाते है । डाक्टर के जांच मैं सभी रिपोर्ट नार्मल आती हैं।लेकिन अक्सर ऐसा होता रहता तो समझ लीजिये आप किसी तान्त्रिक क्रिया के शिकार हो गए है ।
4) आपके घर मैं अचानक अधिकतर बिल्ली,सांप, उल्लू, चमगादड़, भंवरा आदि घूमते दिखने लगे ,तो समझिये घर पर तांत्रिक क्रिया हो रही है।
5) आपको अचानक भूख लगती लेकिन खाते वक्त मन नही करता ।
6) भोजन मैं अक्सर बाल, या कंकड़ आने लगते है ।
7) घर मे सुबह या शाम मन्दिर का दीपक जलाते समय विवाद होने लगे या बच्चा रोने लगे ।
8) घर के मन्दिर मैं अचानक आग लग जाये ।
9) घर के किसी सदस्य की अचानक मौत ।
10) घर के सदस्यों की एक के बाद एक बीमार पढ़ना ।
11) घर के जानवर जैसे गाय, भैंस, कुत्ता अचानक मर जाना।
12) शरीर पर अचानक नीले रंग के निशान बन जाना ।
13) घर मे अचानक गन्दी बदबू आना ।
14) घर मैं ऐसा महसूस होना की कोई आसपास है ।
15) आपके चेहरे का रंग पीला पड़ना ये भी एक कारण हैं की जितना प्रबल तन्त्र प्रयोग होगा आपके मुह का रंग उतना ही पिला पड़ता जायेगा आप दिन प्रतिदिन अपने आपको कमज़ोर महसूस करेंगे।
16) आपके पहने नए कपड़े अचानक फट जाए, उस पर स्याही या अन्य कोई दाग लगने लग जाए, या जल जाए।
17) घर के अंदर या बाहर नीम्बू, सिंदूर, राई , हड्डी आदि सामग्री बार बार मिलने लगे।
18) चतुर्दशी या अमावस्या को घर के किसी भी सदस्य या आप अचानक बीमार हो जाये या चिड़चिड़ापन आने लग जाये ।
19) घर मैं रुकने का मन नही करे, घर मे आते ही भारीपन लगे,जब आप बाहर रहो तब ठीक लगे
[: 🌹त्रिभुज🌹

त्रिभुज को हथेली पर विशिष्ट और स्पष्ट चिन्ह के रूप में देखा जा सकता है और यह परस्पर दो रेखाओं के कटने से नहीं बनता। यह एक अच्छा व भाग्यशाली संकेत माना जाता है लेकिन यह तब अधिक महत्वपूर्ण है जब यह एक स्वतंत्र चिन्ह के रूप में स्थित हो। यह अच्छे विचारों को दर्शाता है तथा जिस स्थान पर यह स्थित होता है उस से संबंधित सफलता को प्रकट करता है।उदाहरण के लिए यदि यह गुरु पर्वत स्थित है, तो यह लोगों को प्रबंधन एवं संगठन में और रोजमर्रा के मामलों को उचित प्रकार से संचालित करने में सफलता का संकेत देता है। यदि त्रिकोण एक रेखा के बराबर स्थित हो, तो इसकी विशेषताएँ उस रेखा पर निर्भर करेगी। त्रिकोण के साथ हाथ वाले व्यक्ति को सफलता की ऊंचाइयां तो प्राप्त नहीं होती है लेकिन वह मानसिक संतोष व धैर्य के साथ एक जिम्मेदार व्यक्ति बनता है। ✍🙏🙏🙏🙏🙏
[घर के प्रेत या पितर रुष्ट हैं तो ये हैं लक्षण और उपाय

बहुत बार आप लोगों ने देखा होगा, सुना होगा कि ज्‍योतिषी के पास जब किसी विषय के संबंध में सलाह लेने के लिए जाते है तो वो आपको कहता है, बताता है कि आपकी कुंडली के ग्रह इत्‍यादि सब ठीक है परन्‍तु आपकी समस्‍या का कारण यह है कि आपकी कुंडली में पितृ दोष है।

वैदिक ज्‍योतिष के नियमों के हिसाब से यदि देखा जाए तो आप पाएंगे कि लगभग सभी व्‍यक्‍तियों की कुंडली में पितृ दोष पाया जाता है। परन्‍तु सब को समस्‍याएं नहीं आती केवल कुछ लोग महसूस करते है कि जैसा उन के साथ हो रहा है, वैसा सब लोगों के साथ नहीं होता। पितृदोष के संबंध में मैं अपने अनुभव के आधार पर इस लेख के माध्‍यम से कुछ आपको बताने जा रहा हूँ यदि आपको ये लक्षण दिखाई दें तो समझ जाएं कि आपके पितृ भी आपसे रूष्‍ट हैं।

सबसे पहले तो मैं आपको स्‍पष्‍ट करना चाहता हूँ कि पहले जान लें कि पितृ कौन है और उनकी नाराजगी का कारण क्‍या है। पितृों की श्रेणी में आपके सभी पूर्वज आते है लेकिन दोषकारक पितृों की श्रेणी में आपके ऐसे पितृ होते है जो इस लोक से परलोक में अतृप्‍त जाता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि परिवार के किसी एक सदस्‍य के साथ भेदभाव किया जाता है, संपत्ति का बंटवारा भेदभाव से किया जाता है। वो इसी भेदभाव को अपने दिल में लिए, याद करता हुआ परलोक में जाता है, परिणाम यह होता है कि ऐसी जायदाद के कारण पीढियों तक झगडे चलते रहते है, उस जायदाद के कारण किसी को भी संतुष्‍टि, खुशी प्राप्‍त नहीं होती।

जब परिवार के किसी सदस्‍य की स्वाभाविक मृत्यु न हो या परिवार का कोई सदस्‍य कुंवारा रहते हुए ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार के व्‍यक्‍ति अतृप्त आत्मा के रूप में विचरते है और परिवार से अपने लिए हक की मांग करते हैं। इस प्रकार की आत्‍मा के असर के कारण अनुभव के आधार पर मैंने देखा है कि घर में बालक जन्म लेने के कुछ समय पश्चात मृत्यु को प्राप्त हो जातें है।

परिवार में खुशी के अवसर वह अतृप्त आत्मा कुछ उम्मीद करती है कि उसे भी परिवार के अन्य सदस्यों के साथ सम्‍मानित किया जाए, खुशी में शामिल किया जाए। शायद इसीलिए दीपावाली त्‍यौहार के दिन पितरों के लिए सुबह के समय अन्य जल, कपड़ा आदि निकाल कर रखा जाता है, पूजा की जाती है। विवाह, शादी के अवसर पर पितृों के लिए वर पक्ष के लोग वधू पक्ष से कुछ वस्तुओं (जैसेकि सफेद कपडा इत्‍यादि) की मांग करते हैं और जहां पर यह रीति रिवाज होते है वहां पर दिक्कत नहीं होती है, जहां ऐसे रिवाजों को नहीं माना जाता, परेशानी वही होती देखी गई है।

पितृों के रूष्‍ट होने के लक्षण

पितरों के रुष्ट होने के कुछ असामान्‍य लक्षण जो मैंने अपने निजी अनुभव के आधार एकत्रित किए है वे आपको बताता हूँ:-

खाने में से बाल निकलना
Khaane me-se baal nikalna
अक्सर खाना खाते समय यदि आपके भोजन में से बाल निकलता है तो इसे नजरअंदाज न करें

बहुत बार परिवार के किसी एक ही सदस्य के साथ होता है कि उसके खाने में से बाल निकलता है, यह बाल कहां से आया इसका कुछ पता नहीं चलता। यहां तक कि वह व्यक्ति यदि रेस्टोरेंट आदि में भी जाए तो वहां पर भी उसके ही खाने में से बाल निकलता है और परिवार के लोग उसे ही दोषी मानते हुए उसका मजाक तक उडाते है।

बदबू या दुर्गंध
कुछ लोगों की समस्या रहती है कि उनके घर से दुर्गंध आती है, यह भी नहीं पता चलता कि दुर्गंध कहां से आ रही है। कई बार इस दुर्गंध के इतने अभ्‍यस्‍त हो जाते है कि उन्हें यह दुर्गंध महसूस भी नहीं होती लेकिन बाहर के लोग उन्हें बताते हैं कि ऐसा हो रहा है अब जबकि परेशानी का स्रोत पता ना चले तो उसका इलाज कैसे संभव है

पूर्वजों का स्वप्न में बार बार आना
मेरे एक मित्र ने बताया कि उनका अपने पिता के साथ झगड़ा हो गया है और वह झगड़ा काफी सालों तक चला पिता ने मरते समय अपने पुत्र से मिलने की इच्छा जाहिर की परंतु पुत्र मिलने नहीं आया, पिता का स्वर्गवास हो गया हुआ। कुछ समय पश्चात मेरे मित्र मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि उन्होंने अपने पिता को बिना कपड़ों के देखा है ऐसा स्‍वप्‍न पहले भी कई बार आ चुका है।

शुभ कार्य में अड़चन
कभी-कभी ऐसा होता है कि आप कोई त्यौहार मना रहे हैं या कोई उत्सव आपके घर पर हो रहा है ठीक उसी समय पर कुछ ना कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि जिससे रंग में भंग डल जाता है। ऐसी घटना घटित होती है कि खुशी का माहौल बदल जाता है। मेरे कहने का तात्‍पर्य है कि शुभ अवसर पर कुछ अशुभ घटित होना पितरों की असंतुष्टि का संकेत है।

घर के किसी एक सदस्य का कुंवारा रह जाना
बहुत बार आपने अपने आसपास या फिर रिश्‍तेदारी में देखा होगा या अनुभव किया होगा कि बहुत अच्‍छा युवक है, कहीं कोई कमी नहीं है लेकिन फिर भी शादी नहीं हो रही है। एक लंबी उम्र निकल जाने के पश्चात भी शादी नहीं हो पाना कोई अच्‍छा संकेत नहीं है। यदि घर में पहले ही किसी कुंवारे व्यक्ति की मृत्यु हो चुकी है तो उपरोक्त स्थिति बनने के आसार बढ़ जाते हैं। इस समस्‍या के कारण का भी पता नहीं चलता।

मकान या प्रॉपर्टी की खरीद-फरोख्त में दिक्कत आना
आपने देखा होगा कि कि एक बहुत अच्छी प्रॉपर्टी, मकान, दुकान या जमीन का एक हिस्सा किन्ही कारणों से बिक नहीं पा रहा यदि कोई खरीदार मिलता भी है तो बात नहीं बनती। यदि कोई खरीदार मिल भी जाता है और सब कुछ हो जाता है तो अंतिम समय पर सौदा कैंसिल हो जाता है। इस तरह की स्थिति यदि लंबे समय से चली आ रही है तो यह मान लेना चाहिए कि इसके पीछे अवश्य ही कोई ऐसी कोई अतृप्‍त आत्‍मा है जिसका उस भूमि या जमीन के टुकड़े से कोई संबंध रहा हो।

संतान ना होना
मेडिकल रिपोर्ट में सब कुछ सामान्य होने के बावजूद संतान सुख से वंचित है हालांकि आपके पूर्वजों का इस से संबंध होना लाजमी नहीं है परंतु ऐसा होना बहुत हद तक संभव है जो भूमि किसी निसंतान व्यक्ति से खरीदी गई हो वह भूमि अपने नए मालिक को संतानहीन बना देती है

उपरोक्त सभी प्रकार की घटनाएं या समस्याएं आप में से बहुत से लोगों ने अनुभव की होंगी इसके निवारण के लिए लोग समय और पैसा नष्ट कर देते हैं परंतु समस्या का समाधान नहीं हो पाता। क्या पता हमारे इस लेख से ऐसे ही किसी पीड़ित व्यक्ति को कुछ प्रेरणा मिले इसलिए निवारण भी स्पष्ट कर रहा हूं

पितर या घर के प्रेत को शांत करने का उपाय
त्रयोदशी के दिन किसी पीपल के वृक्ष के नीचे जाएं और मिट्टी के कुल्हड़ में दूध भर लें उस पर कुछ मीठा रख दें अर्थात ढक्कन लगाकर उस पर कुछ मीठा शक्कर गुड़ आदि रख दें एक दीपक जलाएं और संकल्प लें, प्रार्थना करें कि हे अदृश्य आत्मा, हे अदृश्य शक्ति यदि हमसे कुछ भूल हुई है तो हम उसका प्रायश्चित करते हैं और संकल्प लेते हैं कि जब कभी हमारा कार्य सिद्ध होगा, घर में खुशियां आएगी तब आपको आप का हिस्सा सम्मानपूर्वक हमारी ओर से दिया जाएगा।

यह संकल्प आप अपनी भाषा में किसी भी तरह से कर लें और उस स्थान से वापस जाकर अपने कुलपुरोहित को भोजन, वस्त्, दक्षिणा से संतुष्ट करें। आपको शीघ्र ही सकारात्‍मक परिणाम मिलने लगेंगे
[आपका जन्म किस गण में हुआ है और आपके पास कौनसी शक्तियां मौजूद हैं

शास्त्रों में तीन गणों देवगण, मनुष्यगण, और राक्षसगण में लोगों को विभाजित किया गया है। व्यक्ति के व्यवहार, आचरण और चरित्र के अनुसार व्यक्ति को गणों में विभाजित किया गया है। देवता के समान व्यवहार वाले लोग देवगण में पैदा होते है.साधारण मनुष्य के समान गुणों वाले लोग मनुष्यगण में पैदा होते है। और राक्षसों के समान गुणों वाले लोग राक्षसगण में पैदा होते है। दोस्तों आज हम आपको बताएंगे कि आप का जन्म किस गण में हुआ है और आपके पास कौनसी शक्तियां मौजूद हैं तो वह यह जान लेते हैं।
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देवगण :- देवगण में पैदा होने वाले लोग तेज दिमाग वाले और दयावान होते है। इस गण में पैदा होने वाले लोग दयावान, बुद्धिमान और बडे दिलवाले होते है। इनका दिमाग कंप्यूटर की तरह चलता है.. और अपने दिमाग से ही यह जीवन में उच्च सफलता प्राप्त करते है। जन्म समय यदी चंद्रमाँ – अश्विनी, अनुराधा, श्रावण, मृगशिरा, पुष्‍य, हस्‍त, स्‍वाति, पुर्नवासु, रेवती ईन ९ नक्षत्र के समय में जन्म लेने वाला व्यक्ति “देव-गण” का व्यक्ति होता है।
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मनुष्यगण :- मनुष्यगण में पैदा होने वाले लोगों के सामान्य मनुष्य की तरह गुण होते है। ऐसे लोग जीवन में आने वाले दुख-दर्द और समस्याओं से घबरा जाते है। और उनका सामना नहीं कर पाते है। इसके अलावा इनकी आंखें बड़ी होती है। और इनमें दूसरों को वश में करने की ताकत होती है। जिस जातक के जन्म समय.. यदी चंद्रमां.. यह ९ नक्षत्रमें – पू.फाल्गुनी, उत्तर फाल्गुनी, भरणी, रोहिणी, उत्तर षाढा, आर्दा, पू. षाढ़ा, पू. भाद्रपद, उत्तर भाद्रपद में, जन्म समय हो तो जन्म लेने वाला व्यक्ति मनुष्यगण के अंतर्गत आता है।
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राक्षसगण :- राक्षसगण में पैदा होने वाले लोग भयंकर, डरावने, गुस्से वाले होते है। ऐसे लोगों के लिए लड़ाई-झगड़ा करना आम बात होती है। लेकिन इनकी अच्छाई यह है कि ये किसी भी परिस्थिति में डर कर भागते नहीं है। और डटकर सामना करते है। जन्म समय यदी चंद्रमाँ ईन ९ नक्षत्र, कृत्तिका, धनिष्ठा, चित्रा, मघा, अश्लेषा, विशाखा, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा नक्षत्र के समय जन्म लेने वाला व्यक्ति राक्षस-गण के अंतर्गत आता है ।

🚩 हर हर महादेव 🌷 जय महाकाल🚩
[ जानिए क्‍या होते हैं मंत्र जाप करने के नियम

मंत्रों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर चर्चा करने के बाद हम आपको बता रहे हैं कि मंत्र जाप करने के भी कुछ नियम होते हैं। यदि आप उन नियमों का पालन करेंगे तो आपके घर में न केवल सुख-शांति आयेगी, बल्कि आपका स्‍वास्‍थ्‍य भी अच्‍छा रहेगा- प्रस्‍तुत हैं मंत्र जाप के नियम:-

1- वाचिक जप। 2- उपांशु जप। 3- मानसिक जप।

1-वाचिक जप- वाणी द्वारा सस्वर मंत्र का उच्चारण करना वाचिक जप की श्रेणी में आता है।
2- उपांशु जप- अपने इष्ट भगवान के ध्यान में मन लगाकर, जुबान और ओंठों को कुछ कम्पित करते हुए, इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करें कि केवल स्वंय को ही सुनाई पड़े। ऐसे मंत्रोचारण को उपांशु जप कहते है।
3- मानसिक जप- इस जप में किसी भी प्रकार के नियम की बाध्यता नहीं होती है। सोते समय, चलते समय, यात्रा में एंव शौच आदि करते वक्त भी ’ मंत्र’ जप का अभ्यास किया जाता है। मानसिक जप सभी दिशाओं एंव दशाओं में करने का प्रावधान है।

इन नियमों का भी पालन करें
1- शरीर की शुद्धि आवश्यक है। अतः स्नान करके ही आसन ग्रहण करना चाहिए। साधना करने के लिए सफेद कपड़ों का प्रयोग करना सर्वथा उचित रहता है।
2- साधना के लिए कुश के आसन पर बैठना चाहिए क्योंकि कुश उष्मा का सुचालक होता है। और जिससे मंत्रोचार से उत्पन्न उर्जा हमारे शरीर में समाहित होती है।
3- मेरूदण्ड हमेशा सीधा रखना चाहिए, ताकि सुषुम्ना में प्राण का प्रवाह आसानी से हो सके।
4- साधारण जप में तुलसी की माला का प्रयोग करना चाहिए। कार्य सिद्ध की कामना में चन्दन या रूद्राक्ष की माला प्रयोग हितकर रहता है।
5- ब्रह्रममुहूर्त में उठकर ही साधना करना चाहिए क्योंकि प्रातः काल का समय शुद्ध वायु से परिपूर्ण होता है। साधना नियमित और निश्चित समय पर ही की जानी चाहिए।
6- अक्षत, अंगुलियों के पर्व, पुष्प आदि से मंत्र जप की संख्या नहीं गिननी चाहिए।
7- मं
[ जानिए कैसे असर करते हैं मंत्र ?

मंत्र शब्दों का एक खास क्रम है जो उच्चारित होने पर एक खास किस्म का स्पंदन पैदा करते हैं, जो हमें हमारे द्वारा उन स्पंदनों को ग्रहण करने की विशिष्ट क्षमता के अनुरूप ही प्रभावित करते हैं।

हमारे कान शब्दों के कुछ खास किस्म की तरंगों को ही सुन पाते हैं। उससे अधिक कम आवृत्ति वाली तरंगों को हम सुन नहीं पाते।

हमारे सुनने की क्षमता 20 से 20 हजार कंपन प्रति सेकेंड हैं, पर इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य तरंगे प्रभावी नहीं है। उनका प्रभाव भी पड़ता है और कुछ प्राणी उन तरंगों को सुनने में सक्षम भी होते हैं।

जैसे- कुछ जानवरों और मछलियों को भूकंप की तरंगों की बहुत पहले ही जानकारी प्राप्त हो जाती है और इनके व्यवहार में भूकंप आने के पहले ही परिवर्तन दिखाई देने लगता है। इन्हीं सिद्वांतों पर आज की बेतार का तार प्रणाली भी कार्य करती है।

इसे इस उदाहरण के द्वारा आसानी से समझा जा सकता है कि रेडियो तरंगे हमारे चारों ओर रहती है पर हमें सुनाई नहीं पड़ती, क्योंकि वे इतनी सूक्ष्म होती हैं कि हमारे कानों की ध्वनि ग्राह्म क्षमता उन्हें पकड़ ही नहीं पाती।

मंत्रों की तरंगे इनसे भी अधिक सूक्ष्म होती हैं और हमारे चारों ओर फैल जाती हैं। अब यह हम पर निर्भर है कि हम खुद को उसे ग्रहण करने के कितने योग्य बना पाते हैं।

मंत्रों से निकलने वाली स्थूल ध्वनि तरंगों के अलावा उसके साथ श्रद्धाभाव व संकल्प की तरंगे भी मिली होती हैं। स्थूल ध्वनि तरंगों के अलावा जो तरंगे उठती हैं, उन्हें हमारे कान ग्रहण नहीं कर पाते। वे केश-लोमों के जरिए हमारे अंदर जाकर हमें प्रभावित करती हैं।

मंत्रों के सूक्ष्म तरंगों को ग्रहण करने में केश-लोम बेतार का तार की तरंगे ग्रहण करने वालों की भांति काम करते हैं और उनके माध्यम से ग्रहण किए गए मंत्रों की सूक्ष्म तरंगे हमारी समस्याओं के शमन में सहायक होती हैं�

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