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शिक्षक दिवस के मौके पर एक महान शिक्षक पंडित विष्णु शर्मा (पंचतंत्र के लेखक) पर…..

भारत की प्रसिद्ध कहानियों की किताब है पंचतंत्र. किसी जमाने में ये संस्कृत में लिखी गई थी. अगर धार्मिक किताबों को छोड़ दिया जाये तो ये सबसे ज्यादा बार अनुवाद की गई किताब होती है. बगदाद में अल मंसूर यानि दूसरे अब्बासिद खलीफ़ा ने इसका अनुवाद करवाया तो कहा गया था कि लोकप्रियता में इस से ऊपर सिर्फ कुरआन है.

ग्यारहवीं शताब्दी तक ये किताब यूरोप पहुँच चुकी थी. सोलहवीं शताब्दी में ये ग्रीक, लैटिन, स्पेनिश, इटालियन, जर्मन, पुरानी इंग्लिश, चेक जैसी अनगिनत भाषाओँ में पाई जाने लगी थी.

फ्रांस में देखेंगे तो कम से कम ग्यारह पंचतंत्र की कहानियां तो Jean de La Fontaine की रचनाओं में है. किताब के शुरू में ही बताया जाता है कि इसके रचियेता पंडित विष्णु शर्मा है. कोई और अलग किताब उसी काल के इस नाम के विद्वान् का जिक्र नहीं करती इसलिए उन्हें ही किताब का लेखक माना गया.

कहानी के हिसाब से वो महिलारोप्य नाम की राजधानी से राज्य करने वाले किसी सुदर्शन नाम के राजा के बेटों को पढ़ाते हैं. ये महिलारोप्य नाम की राजधानी भी अब नहीं मिलती.

राजा सुदर्शन के तीन बेटे थे, बाहुशक्ति, उग्रशक्ति, और अनंतशक्ति. राजा तो अच्छे थे लेकिन तीनों राजकुमार बड़े ही उज्जड किस्म के थे. परेशान राजा ने एक दिन दरबारियों से पूछा, किस तरह बच्चों को सही रास्ते पर लाया जाए? ऐसे तो ये नाश कर देंगे.

इस मुद्दे पर सब अपनी अपनी राय रखने लगे. आखिर सुमति नाम के एक विद्वान् ने कहा कि अलग अलग विषय पढ़ाने में बरसों लगेंगे. उनमें राजकुमारों की रूचि होगी या नहीं इसका भी पता नहीं. अगर कोई इन ग्रंथों का सार राजकुमारों को बता सके, वो भी गैर परंपरागत तरीकों से तो कोई बात बने.

राजा सुदर्शन को सलाह अच्छी लगी तो उन्होंने सौ ग्राम (गाँव) देने की कीमत पर पंडित विष्णु शर्मा को बुलाने का प्रयास किया. पंडित विष्णु शर्मा ने शिक्षा के बदले धन लेने से तो मना कर दिया लेकिन राजकुमारों को पढ़ाने के लिए तैयार हो गए. जो कहानियां उन्होंने राजकुमारों को सिखाई वही आज पंचतंत्र के नाम से जानी जाती हैं.

एक कहानी में ही गुंथी हुई दूसरी कथा के रूप में आज भी पंचतंत्र हमारे पास है. पंचतंत्र का नाम पंचतंत्र इसलिए है क्योंकि इसे पाँच तंत्रों (भागों) में बाँटा गया है:

मित्रभेद (मित्रों में मनमुटाव एवं अलगाव)
मित्रलाभ या मित्रसंप्राप्ति (मित्र प्राप्ति एवं उसके लाभ)
काकोलुकीयम् (कौवे एवं उल्लुओं की कथा)
लब्धप्रणाश (हाथ लगी चीज (लब्ध) का हाथ से निकल जाना (हानि))
अपरीक्षित कारक (जिसको परखा नहीं गया हो उसे करने से पहले सावधान रहें; जल्दबाजी में कदम न उठायें)

पंचतन्त्र के कई संस्करण उपलब्ध है. कई शुरूआती अनुवाद जो कि सीरियन और अरबी अनुवादों से लिए गए हैं. क्षेमेन्द्र की लिखी “बृहत्कथा मंजरी” और सोमदेव लिखित ‘कथासरित्सागर’ उसी के अनुवाद हैं. तन्त्राख्यायिका एवं उससे सम्बद्ध जैन कथाओं का संग्रह है. ‘तन्त्राख्यायिका’ को सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है. इसका मूल स्थान कश्मीर है.

इस किताब की वजह से भी पंडित विष्णु शर्मा और महिलारोप्य को कश्मीर का माना जाता है. नेपाल के इलाकों के पंचतंत्र और हितोपदेश का एक रूप भी उपलब्ध होता है.

बिना मौजूद हुए भी पंडित विष्णु शर्मा के लिखे की वजह से हमने काफी सीखा. शायद इसलिए भी सिर्फ श्रुति की परम्पराओं में नहीं, काम की चीज़ों को लिखकर रखना चाहिए. हमने पंचतंत्र की कई कहानियां उठा उठा कर ताज़ा राजनैतिक मामलों पर चिपकाई हैं.

पंचतंत्र के नाम में “तंत्र” होने का एक कारण भी ये है कि ये राजनैतिक समझदारी सिखाती थी. आज शिक्षक दिवस है तो पंडित विष्णु शर्मा को भी नमन.
✍🏼माँ जीवन शैफाली टोपीवाला के makingindia से साभार

डॉ. राधाकृष्णन ने अपनी एम.ए. डिग्री के लिए जो थीसिस लिखी थी उसका विषय था “वेदांत में आचार और अध्यात्म की पूर्वमान्यताएं” | उनका इरादा अपने लेख के जरिये ऐसे लोगों को जवाब देने का था जो कहते थे वेदांत में आचारसंहिताओं जैसी कोई चीज़ नहीं थी | ये थीसिस जब छपी तो वो केवल 20 साल के थे | अपनी इस थीसिस के बारे में खुद डॉ. राधाकृष्णन कहते थे कि “इसाई आलोचकों ने मुझे हिंदुत्व के अध्ययन के लिए मजबूर कर दिया | मिशनरी संस्थानों में हिंदुत्व की जो व्याख्या होती थी, उस से, स्वामी विवेकानंद से प्रभावित मेरा मन बहुत खिन्न होता था | एक हिन्दू के तौर पर मुझे शर्मिंदगी होती थी |”

यही वजह रही कि उन्होंने जीवन भर भारतीय दर्शन और धर्म का अध्ययन किया | हिंदुत्व की ओर से “एकिकृत पश्चिमी आलोचकों” को करारा जवाब देने का काम उन्होंने जीवन भर किया |

डॉ. राधाकृष्णन की दर्शनशास्त्र की पढ़ाई कोई शौकिया नहीं थी | वो एक साधनहीन छात्र थे और उनके रिश्तेदारों में से एक ने पास होने के बाद अपनी दर्शनशास्त्र की किताबें उन्हें दान कर दीं | कोई और किताबें खरीदने में असमर्थ डॉ. राधाकृष्णन के लिए विषय का चुनाव भी अपने आप ही हो गया था | उनका कांग्रेस पार्टी में भी कोई इतिहास नहीं था | वो सिर्फ हिंदुत्व के लिए लड़ते रहे थे | उन्होंने 1946-52 के दौरान UNESCO में भारत का प्रतिनिधित्व किया था | 1949-52 के बीच वो सोवियत यूनियन में भारत के राजदूत थे | डॉ. राधाकृष्णन संविधान सभा के भी सदस्य रहे और 1952 में उन्हें भारत का पहला उप-राष्ट्रपति चुना गया | सन 1962-67 के बीच वो भारत के दुसरे राष्ट्रपति चुने गए थे |

डॉ. राधाकृष्णन अनुभव(धार्मिक अनुभूति) पर जोर देने वाले विद्वानों में से थे | उनका मानना था कि चैतन्य सोच से अनुभूति नहीं होती, अनुभूति एक अलग स्वतंत्र अनुभव है | उनका मानना था कि अनुभूति स्वतःसिद्ध, स्वसंवेद्य, और स्वयं प्रकाश है | अपनी किताब “एन आइडियलिस्ट व्यू ऑफ़ लाइफ” में अपने इस विचार के समर्थन में उन्होंने कई अच्छे तर्क प्रस्तुत किये हैं | उन्होंने पांच अलग अलग किस्म की अनुभूतियों में भी अंतर स्पष्ट किया है |

डॉ. राधाकृष्णन यहीं नहीं रुके, उन्होंने पांच अलग अलग किस्म के धर्मों का भी वर्गीकरण कर डाला था | ये पांच किस्म के धर्म थे :

  1. परमात्मा के उपासक
  2. व्यक्तिगत देवता के उपासक
  3. अवतार (राम, कृष्ण, बुद्ध) जैसों के उपासक
  4. पूर्वजों, वंश के संस्थापकों, या ऋषियों के उपासक
  5. भिन्न भिन्न शक्तियों और आत्मा के उपासक
    अन्य सभी धर्मों को डॉ. राधाकृष्णन हिंदुत्व के ही, बल्कि अद्वैत वेदांत के ही किसी छोटे अपभ्रंश रूप में देखते थे | अन्य धर्मों को अद्वैत की अपनी अपनी समझ मानते हुए डॉ. राधाकृष्णन बाकी धर्मों का भी हिदुत्विकरण कर डालते हैं |

राइनहार्ट, वसंत कैवार और सुचेता मजूमदार जैसे कुछ लोग उनकी आलोचना में दर्शन और धर्म के राजनैतिक इस्तेमाल का जिक्र करते हैं | ऐसे विद्वानों का मानना है कि धर्म के राजनीतिकरण से राष्ट्रवाद को बल देने में सुविधा होती है | इसे सिद्ध करने के लिए वो डॉ. राधाकृष्णन के वक्तव्य, “वेदांत कोई एक धर्म नहीं, बल्कि वेदांत ही एकमात्र धर्म है” पर ध्यान दिलाते हैं | ( Vedanta is not a religion but religion itself in its “most universal and deepest significance”)

स्वीटमैन जैसे विद्वानों का मत है कि अब धीरे धीरे करीब 1990 के समय से पश्चिमी विद्वान भी हिन्दुओं के प्रति दुर्भावना के साथ नहीं लिखते | अफ़सोस कि ऐसे मतों के बाद भी हमारे पास वेंडी डोनीगर जैसों की किताबें झेलनी पड़ती हैं | कमी कई बार हमारे अन्दर भी होती है, और यहाँ भी कमी काफी हद तक हमारी ही है | सन 1962 से हम डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पर “शिक्षक दिवस” तो मनाते आ रहे हैं, लेकिन उनका लिखा पढ़ने की, उस से सीखने की कोशिश कम ही की गई है | शिक्षक दिवस के मौके पर एक प्रखर हिंदुत्ववादी के लिखे को किताबों से बाहर निकाल कर आम जनता तक पहुंचा देना ही शायद सही अर्थों में शिक्षक दिवस मनाना होगा |

बाकी माल्यार्पण और अगरबत्तियां मूर्ती को दिखा कर किताबें अलमारी में ही पड़ी रहने देने का विकल्प भी है ही ! हमने इस विकल्प का इस्तेमाल भी भरपूर किया है |

वो शिक्षक जो “क्रांति” पढ़ाते थे!
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भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन को “अहिंसक” रंग देने के प्रयास में कई मामले दबा देने पड़ते हैं। मुजफ्फरपुर कांड (1908) सुनाई देता है क्योंकि उससे खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी जुड़े थे। उसके थोड़े समय बाद का दिल्ली कांड (1912) थोड़ा कम सुनाई देता है। इसमें बसंत कुमार बिस्वास, आमिर चंद और अवध बिहारी को फांसी की सजा हुई थी। इस काण्ड में रास बिहारी बोस ने बम फेंका था। ऐसे ही कई मामलों को एक साथ जोड़कर पेशावर कांड (1922-27) नाम दिया जाता है। एक मामला कानपुर बोल्शेविक कांड (1924) का भी था। ऐसे सभी मामलों के साथ एक ख़ास बात ये थी कि इन सभी में छात्र जुड़े हुए थे। अब सवाल है कि क्रन्तिकारी अगर छात्र थे तो उनका शिक्षक कौन था?

ये सवाल हमें फ़ौरन सचिन्द्र नाथ सान्याल पर ले आता है। ये वो व्यक्ति थे जो चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, जतिंद्र नाथ जैसे क्रांतिकारियों के गुरु थे। जन्तिन्द्र नाथ ने बम बनाना भी इन्हीं से सीखा था। इन्होने 1913 में पटना में “अनुशीलन समिति” की एक शाखा की स्थापना की। गदर काण्ड की योजना में शामिल होने का जब फिरंगियों को पता चला तो सचिन्द्र नाथ सान्याल को 1915 में फरार होना पड़ा। रास बिहारी बोस के जापान फरार होने के बाद वो भारत के क्रांतिकारियों में सबसे वरिष्ठ थे। उन्हें भी जब पकड़ा गया तो बाकी क्रांतिकारियों की ही तरह अंडमान की सेलुलर जेल में डाला गया था। इसी दौर में उन्होंने अपनी आत्मकथा “बंदी जीवन” (1922) लिखी थी। वो थोड़े समय के लिए जेल से छोड़े गए, मगर जब उनकी क्रन्तिकारी गतिविधियाँ जारी रहीं, तो उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया था और उनकी बनारस की संपत्ति भी जब्त कर ली गयी थी।

भारत में क्रांति का नाम लेते ही जिस संगठन का नाम याद आता है वो है एचआरए (हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी)। सन 1922 में जब असहयोग आन्दोलन असफल हो चुका था, तभी इस संगठन के बनने की नींव पड़ चुकी थी। अक्टूबर 1924 में राम प्रसाद बिस्मिल के साथ सचिन्द्र नाथ सान्याल ने एचआरए बनाया। 31 दिसम्बर 1924 को इस संगठन का मैनिफेस्टो कई बड़े शहरों में बांटा गया था। “द रेवोलुशनरी” नाम के इस मैनिफेस्टो के लेखक सचिन्द्र नाथ सान्याल ही थे। सान्याल को काकोरी कांड में शामिल होने के लिए नैनी जेल में डाला गया था जहाँ से वो 1937 में छूटे। वो उन गिने चुने क्रांतिकारियों में से हैं जिन्हें दो दो बार कालापानी की सजा दी गयी हो।

जेल में ही उन्हें टीबी हो गया था जिसकी वजह से उन्हें आखरी दिनों में गोरखपुर जेल भेज दिया गया था। सन 1942 में उनकी मृत्यु हुई। तकनिकी रूप से देखा जाए तो सचिन्द्र नाथ सान्याल किसी स्कूल-कॉलेज के शिक्षक तो नहीं थे। उनके विचारों, या उनके सिखाये हुए का असर देखा जाए तो सरदार भगत सिंह की लिखी प्रख्यात सी पुस्तिका “व्हाई आई एम एन एथीस्ट” में भी सान्याल के विचारों का जिक्र आता है। जो लोग ये मानते हैं कि गाँधी की कांग्रेस ऐसे क्रांतिकारियों से अलग थी, उन्हें भी बताते चलें कि गाँधी और सान्याल के बीच चली लम्बी बहस (चिट्ठियों/लेखों के रूप में) 1920-24 के दौरान यंग इंडिया में छपी थी। मौलाना शौकत अली और कृष्ण कान्त मालवीय जैसे कांग्रेसी भी उन्हें हथियार और पैसे मुहैया करवाते थे।

बाकी जब शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को याद करने की बात चले तो ऐसे शिक्षकों को भी याद किया जाना चाहिए। ये परंपरागत विषय नहीं, क्रांति सिखाते थे और पढ़ाई पूरी करने पर डिग्री नहीं, जेल और फांसी मिलती थी। अपने छात्रों को इतिहास पढ़ाने के बदले इतिहास बन जाना सिखा देने वाले शिक्षकों को भी याद किया ही जाना चाहिए!

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