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कोई भी परिस्थिति हमें इतना विचलित नहीं करती जितना कि हमारी मनस्थिति हमें विचलित करती है। अगर मनस्थिति उच्च हो तो दुर्गम से दुर्गम परिस्थिति पर हम भी माँ दुर्गा की तरह विजय प्राप्त कर सकते हैं।। और यदि मनस्थिति निम्न हो तो छोटी से छोटी घटनाओं से हम विचलित होने लगेगें। यह बात ज्यादा मायने नहीं रखती है। कि हमारे सामने परिस्थिति कैसी है।। अपितु जितनी यह बात मायने रखती है। कि हमारी मनस्थिति कैसी है।। परिस्थितियों के साथ जूझने के वजाय अपनी मनस्थिति के साथ सूझने व बूझने का प्रयास करो फिर आपको अपने आप लगने लगेगा कि वाकई परिस्थिति इतनी भी प्रतिकूल नहीं जितना कि मैंने उसे बनाया था। परिस्थिति को नहीं मनस्थिति को सुधारने का प्रयास करें।।
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जब आप किसी की तरफ बहुत प्रेम से देखते हैं, तो आपके भीतर से निकल कर एक ऊर्जा उसकी तरफ बहती है। आप अपने प्रेम को छिपा नहीं सकते।। इसी तरह जब आप घृणा से देखते है। तो घृणा के क्षण में भी एक ऊर्जा छुरी की तरह आप की ओर से जाती है।। प्रेम आपको खिला जाता है, घृणा मारती है। घृणा में एक जहर है, प्रेम में एक अमृत है।। इसलिये सर्व से प्रेम करें। सब के प्रति करुणा का भाव रखें।। जब आप सर्व से प्रेम करेंगे तो आपको परमात्मा ढूंढना नहीं पड़ेगा। वह खुद चल कर आपके पास आएगा।।

   
           

[मन कुछ कहता है, बुद्धि कुछ कहती है, समाज कुछ कहता है लेकिन तुम्हारे हृदय की आवाज सबसे निराली है, तो हृदय की आवाज को ही सत्य मानो, क्योंकि और सब की अपेक्षा हृदय परमात्मा से ज्यादा नजदीक है।। जिसको परमात्मा के स्मरण का मूल्य पता है, जिसने परमात्मा के मार्ग में कदम रखा है। उनके लिए संसार की सुविधाएँ, संसार का सुख त्यागना कोई बड़ी बात नहीं है।। जो अभागे परमात्मा को त्यागकर बैठे हैं। उनको तो संसार का सुख भी नहीं मिलता, थप्पड़ें ही मिलती हैं।।जो आगे बढ़ते हैं वो दूसरों को अटकाते नहीं और जो दूसरों को अटकाते हैं, वे कभी आगे बढ़ते नहीं। दूसरों को दबाकर, पछाड़कर केवल स्वयं ही आगे बढ़नेवाला हो सकता है खेल में जीत जाए परंतु जिंदगी में तो हार ही जाता है।।
[जीवन में भगवत प्राप्ति का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। जो लक्ष्य बनाये बिना ही जीवन व्यतीत कर रहे हैं।। जीवन तो जा रहा है और मौत भी आयेगी ही, इसलिये जीवनका लक्ष्य पहले ही बना लेना चाहिये।। लक्ष्य बनने पर बहुत लाभ होता है, अगर लक्ष्य बन गया तो वह खाली नहीं जायगा, कमी रह जायगी तो योगभ्रष्ट होजाओगेपर भगवत प्राप्ति अवश्य होगी लक्ष्य बनने पर हमारा साधन उद्देश्य को सुनिश्चित करने के लिए होता है।। समय बर्बाद नहीं होता, सार्थक होता है। वृत्तियाँ स्वाभाविक ठीक हो जाती हैं।। अवगुण स्वतः दूर होते हैं। संसारका खिंचाव कम होता है।। आस्तिकभाव बढ़ता है। अगर जीवन में यह परिवर्तन दीख नहीं पड़ रहा है।। तो लक्ष्य नहीं बना है, साधन हाथ नहीं लगा है। सत्संग नहीं मिला है।।
[ मनुष्य शरीर से उतने पाप नहीं करता जितने मन से करता है। इसलिए कहते हैं, कि मन को परमात्मा के पास समर्पित कर दो तो कोई गलत काम नहीं हो पाएगा। इसलिए कहते हैं कि अगर मन साफ है तो किसी तीर्थ स्थलों में यात्रा कर नहाने की जरूरत नहीं इस संसार में जितने भी लोग आयेऔर आकर चले गये या जो अभी जिन्दा है उन सभी लोगों से हमारा रिश्ता सिर्फ़ शक्ल और शरीर का है। कभी आपने सोचा है कि जिस दिन ये शरीर और ये शक्ल नहीं रहेगी तो हमे कौन पहचानेगा सिर्फ ” परमात्मा” और कोई नहीं वो भी तब तक जब आप सिमरन की कमाई करके हक हलाल की मेहनत की खाने वाले गुरुमुख बन कर सतगुरु की पनाह में जाओगे तब, नहीं तो बिना कमाई के तो आपको घरवाले भी नहीं पहचानते।।

जय श्री कृष्ण🙏🙏

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