🌹आप भलें ही अपने जीवन से खुश न हों, पर कुछ लोग आप जैसा जीवन जीने को तरसते हैं🌹
विगत दिवस में हमने वार्ता की आलोचना की प्रवृत्ति पर और आज हम बात करेंगे “सीखने की चाह” पर । अक्सर हम सबने अपने मित्रों या सम्बन्धियों अथवा किसी व्यक्ति को ये कहते हुए सुना होगा कि यह काम मुझसे नहीं होगा । मैं यह नहीं सीख पाऊंगा या ये मेरी सीखने की उम्र नहीं है । हम नया कुछ भी सीखने से पूरी तरह बचने लगते हैं । हमारे मन में सीख की आन्तरिक चाह नहीं बचती ,या हम असफलता और उपहास के भय से नया कुछ भी आजमाने से संकोच करने लगते हैं । वास्तव में समाज में ज्ञान विज्ञान से उत्पन्न जो नये अविष्कार या खोज होते हैं ऐसे लोग उन सबकी ओर से आँखे मूंदकर दिन विताते रहते हैं । ऐसे लोग अक्सर समाज से पीछे छूट जाते हैं । क्या ये सत्य नहीं ? हम बात कर रहे थे सीखने की चाह पर सीखना पूरी तरह मन की उस इच्छा पर निर्भर करता है जिसमें हम अपने को कितना परिपूर्ण या भरा हुआ बनाना चाहते हैं । ये एक तरह से अपने को आत्मनिर्भर की संकल्प शक्ति का परिचायक होता है । दुनिया हर पल बदल रही हैं हर पल कुछ नया बन रहा है । कवि आलोक धन्वा जी कहते थे कि – दुनिया रोज बनती है । अगर हम और गहराई से विचार करेंगे तो पायेंगे कि दुनिया रोज नहीं हर पल बनती है । ऐसी बन रही दुनिया में सीखते जाना ही जीने का सबसे शानदार विकल्प है । हम ये भूल जाएं कि न सीख पाने पर लोग क्या कहेंगे । सोचिए की जब हम सीख जायेंगे तो लोग क्या क्या कहेंगे । क्या हम अपना नाम न सीखने वालों में शामिल करना चाहते हैं या फिर सीख गये लोगों में ? इस विषय को और सरलता से समझने के लिए हम आज फिर से एक कहानी की सहायता ले रहे हैं । तो क्या हम सज्ज हैं । आप सबने महान युनानिक दार्शनिक “अफलातून” का नाम तो सुना ही होगा । जब उनकी कीर्ति संसार भर में फैल गई तब भी वह हर दिन कुछ ना कुछ सीखने का प्रयत्न करते ही रहते थे। एक दिन उनके एक मित्र ने उनसे सवाल किया , कि अब जब संसार के बड़े से बड़े लोग आपसे कुछ ना कुछ सीखने आते हैं ऐसे में आप भी किसी से कुछ सीखने के लिए जाते हैं वह भी पूरे उमंग और उत्साह के साथ इतने महान दार्शनिक होकर भी इतने अधिक उम्र में आपको किसी से कुछ सीखते संकोच या लज्जा का अनुभव नहीं होता ? उसकी बात सुनकर अफलातून कुछ देर तक मौन रहे , फिर बोले जब तक मैं सब कुछ नहीं सीख लेता तब तक मुझे किसी से भी कोई भी ज्ञान पाने में शर्म या संकोच नहीं होगा । जब मैं जानता हूँ कि कितनी बातों का ज्ञान मुझे नहीं है तो उसे सीखने के लिए मैं अपनी उम्र और दार्शनिक ज्ञान को क्यों बाधक मानूं ? अन्त में अफलातून ने कहा की कब्र में उतरने तक सीखने का क्रम ही इन्सानियत का तकाजा है और इसे रोकना कहीं से भी उचित नहीं । आप इस तथ्य पर विचार, चिन्तन, मनन अवश्य कीजियेगा । आशा करते हैं कि हमारा ये विषय हम सबके जीवन में कुछ नया अर्थ भरेगा ऐसी मङ्गलकामना करते हुए ।।जय जय श्री राधे राधे जी ।।
💐जय जय श्री महादेव प्रभु जी💐
🕉आमन्त्रण…
🌹आज हर क्षेत्र में सभी के लिए कुछ न कुछ उनकी सामर्थ्य के अनुसार है किन्तु मेरे भारत के अधिकतम लोग हीनता के साथ जीते हैं हीनता पर चिन्तन पूर्व में ही कर चुके हैं । लेकिन आज हम सबको मिलकर हीन भावना को त्यागकर कुछ न कुछ सीखने की चाह का आलिंगन करने की आवश्यकता है । कदाचित हम ये भूल जाते हैं की भारत माँ के बहुत से सपूत भारत से सीखकर अन्य देशों में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए हैं । तो बाकी सब क्यों नहीं सीखना चाहते ? इसी बात को ध्यान में रखते हुए विचार प्रवाह को चरितार्थ करने का प्रयास किया है।🌹
हम अपने अनुभव आप सबसे बांट रहे हैं त्रुटि हेतु क्षमा।।
तन्मे मनः शिव संकल्प मस्तु
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आनंद किसी से मिलता नहीं है, भीतर से आता है। सुख सदा बाहर से आता है। सुख सदा किसी पर निर्भर होता है।। इसलिए सुख के लिए आपको सदा दूसरे का मोहताज होना पड़ता है। अगर आप आनंदित होना चाहते है, तो आप अकेले भी हो सकते हैं।। जिसे आनंद मिलता है, उसे दुख का उपाय नहीं रह जाता। सुख का विपरीत दुख है। दया के समानांतर खड़ी है, क्रूरता। आनंद अकेला है।। क्योंकि यह स्वयँ पर है। द्वंद्व के बाहर है।।
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शख्स बनकर नहीं बल्की शख्सीयत बनकर जियो क्योंकि शख्स एक दिन विदा हो जाता है। शख्सीयत जिंदा रहती हैं।। शब्द कितनी भी समझदारी से प्रयोग कीजिए। फिर भी सुनने वाला अपनी योग्यता और मन के विचारों के अनुसार ही उसका अर्थ समझता है।। फिर भी आप स्पष्ट और मधुर रहिये। अपने लहजे में, हो सकता है।। शायद सामने वाला खुद को बदल दे आपके मधुर व्यवहार और स्पष्ट बातों की वजह से जो रिश्ता हमको रुला दे, उससे गहरा कोई औऱ रिश्ता नहीं। जो रिश्ता हमको रोते हुए छोड़ दे, उससे कमजोर कोई औऱ रिश्ता नहीं।।
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जीवन का एक सीधा सा नियम है, और वो ये कि अगर अनुशासन नहीं तो प्रगति भी नहीं।। अनुशासन में बहकर ही एक नदी सागर तक पहुँचकर सागर ही बन जाती है। अनुशासन में बँधकर ही एक बेल जमीन से उठकर वृक्ष जैसी ऊँचाई को प्राप्त कर पाती है।। और अनुशासन में रहकर ही वायु फूलों की खुशबु को अपने में समेटकर स्वयं भी सुगंधित हो जाती है व चारों दिशाओं को सुगंध से भर देती है।। पानी अनुशासन हीन होता है, तो बाढ़ का रूप धारण कर लेता है, हवा अनुशासन हीन होती है। तो आँधी बन जाती है, और अग्नि अगर अनुशासन हीन हो जाती है, तो महा विनाश का कारण बन जाती है।। ऐसे ही अनुशासनहीनता स्वयं के जीवन को तो विनाश की तरफ ले ही जाती है साथ ही साथ दूसरों के लिए भी विनाश का कारण बन जाती है।। गाड़ी अनुशासन में चले तो सफर का आनंद और बढ़ जाता है। इसी प्रकार जीवन भी अनुशासन में चले तो जीवन यात्रा का आनंद और बढ़ जाता है।। जीवन का घोड़ा निरंकुशता अथवा उच्छृंखलता का त्याग करके निरंतर प्रगति पथ पर अथवा तो अपने लक्ष्य की ओर दौड़ता रहे, उसके लिए अपने हाथों में अनुशासन रुपी लगाम का होना भी परमावश्यक हो जाता है।।