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परम पूज्य डोंगरेजी महाराज की अमृत वाणी

( 1 ) मनुष्य जन्म दूसरों को सुखी करने के लिए है | दूसरों की सेवा करो |

( 2 ) सभी पापों का मूल वाणी ( बोल ) है | कभी भी किसी से ऊँची आवाज में बात न करो | कर्कशवाणी में से कलह का जन्म होता है | कर्कशवाणी जहर के समान है | जो भी बोलो सोच-समज कर धीरे से बोलो |

( 3 ) जिसका बंगला ( हवेली ) बड़ा हो उसके वहां परमात्मा जल्दी नहीं जाते पर जिसका मन बड़ा हो उसके वहां परमात्मा जल्दी पधारते है |

( 4 ) शास्त्रों में लिखा हुआ है की संपति, संतति और संसारसुख पूर्वजन्म के कर्मो से ही निश्चित होता है |

( 5 ) कोई आपकी निंदा करे या आपसे द्वेष करे तो उसका प्रतिकार मत करो और उसको पेट में छुपाये मत रखो | उस बात को याद मत रखो | सहन कर लो और भूल जाओ | अंतर मन में प्रभु ( हरि ) को रखना है तो उसमे जहर मत रखो |

( 6 ) प्रभु अतिशय सरल है | जीव ( मनुष्य ) बार-बार पाप करता है पर परमात्मा उसको भूल जाते है | किसीका उपकार मत भूलो और किसीका अपकार याद मत रखो |

( 7 ) आपके मन ( ह्रदय ) को माखन की तरह कोमल बनाओ | जरा भी कपट मत करो | कर्कशवाणी मत बोलो , सभी को मान दो | किसी जीव का जरा सा भी अपमान मत करो | किसी को भी कम मत समजो | कोई भी प्राणी या मनुष्य को हल्का मत आंको |

( 8 ) दुःख सहन करके भगवान की भक्ति करे उसको तप कहते है

( 9 ) कपट करने से ह्रदय टेढ़ा हो जाता है | मनुष्य के जैसा कोई लुच्चा ( गठिया ) नहीं है और भगवान के जैसा कोई भोला नहीं है |

( 10 ) मानव-जीवन में धन श्रेष्ठ नहीं है , धर्म श्रेष्ठ है | धन का लोभ अच्छा नहीं है |

( 11 ) कोई मानव राजी हो या नहीं इससे आपको कोई फरक नहीं पड़ना चाहिए | वह राजी या खुश होके आपको क्या देनेवाला था ? या फिर नाराज होके आपका क्या बिगाड़ने वाला था ? हंमेशा ऐसा सोचो की मेरा संबंध सिर्फ इश्वर से है , कोई मेरी कदर करे उसकी अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए |

( 12 ) ज्ञान से त्याग की भावना बढती है और भक्ति करने से समर्पण की भावना बढ़ती है |

( 13 ) व्यवहार बहुत कठिन है | परमार्थ बहुत सरल है | व्यवहार में कोई भूल होती हो तो लोग आपको माफ़ नहीं करते है , सजा करते है | भक्ति में भूल हो जाये तो भगवान क्षमा कर देते है | परमात्मा बहुत बड़े दिलवाला है |

( 14 ) भक्तिमार्ग में भगवान का विस्मरण करना वह पाप के समान है |

( 15 ) आप किसीके साथ दगा मत करो पर व्यवहार में सावधान रहना ताकि आपके साथ भी कोई दगा न कर सके |

( 16 ) आज मेरे प्रभु प्रसन्न हो ऐसा कोई सत्कर्म मैंने किया के नहीं ? अन्दर से ना का जवाब आये तो समज लो की आज के दिन में जिया ही नहीं हूँ , सिर्फ मरा हूँ |

( 17 ) मन को नवराश में मत रखो | मन को कोई काम न मिले तो वह बहुत विचार करने लगता है | मन को कोई आधार मिलना चाहिए | मन परमात्मा का ध्यान नहीं करेगा तो फिर जगत का ध्यान करेगा |

( 18 ) धन का सदुपयोग करो | आपको भगवान ने ज्यादा दिया है तो ऐसा समजो की भगवान के अन्य बालकों को देने के लिए प्रभु ने मुझे ज्यादा दिया है |

( 19 ) आपका खुद का श्राद्ध अपने ही हाथों से करके जगत को जय श्री कृष्ण करना | जीवन को परोपकार और परमात्मा के कार्य में जोड़ देना वहीँ सच्चा श्राद्ध कहलाता है | पुत्र के द्वारा नहीं सदगति तो सिर्फ सत्कर्म से ही मिलती है |

( 20 ) ज्ञान मार्ग में भेद द्रष्टि ही पाप है | जहाँ पे भेदभाव आया वहाँ भय उत्पन्न होता है | म़ोह उत्पन्न होता है |

( 21 ) संसार का सुख वह ( नसीब ) प्रारब्ध का फल है | सत्संग वह परमात्मा की कृपा का फल है |

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