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: उपदेश

यदि परोपकार के भावना से उपदेश दिए तो वह न गलत है और न हीनता ही :-

आइए थोड़ा अल्प बुद्धि से मानस अवलोकन करते हैं-

लाग न उर “उपदेसु,” जदपि कहेउ शिव बारबहु…।
यहाँ शिवजी सती जी को कितना सुंदर भाव से उपदेश दिए थे।
शंभु दीन्ह “उपदेश” हित,नहिं नारदहिं सोहान…।
यहाँ नारदजी को उपदेश देने में शंकर जी की भावना को क्या कहेंगे?उल्टे उनके उपदेश न मानने का परिणाम देखिए,और प्रभु आज्ञा भी –
शिव समान नहीं कोउ प्रिय मोरे….जपहु जाई शंकर सतनामा….।
माता पार्वती जी कहती हैं- तजऊँ न नारद कर “उपदेसू”। नारद जी ने माता पार्वती जी को उपदेश दिए वह किस भावना से….?
सुमिरि सिय नारद बचन…? सखिन्ह “सिखावनु दीन्ह”(कैकेयी को उपदेश) सुनत मधुर परिणाम हित…।
श्रीराम जी द्वारा लक्ष्मण जी को प्रजा पालन का उपदेश-…लक्ष्मण जी- धरम नीति “उपदेसिय ” ताहि..
यहाँ श्रीराम जी की भावना क्या है?
सुमित्रा जी का लक्ष्मण जी को-
जेहिं न राम बन लहहिं कलेसू।
सुत सोइ करेहु इहई “उपदेसू”।।
“उपदेसू ” यह जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहिं।
लक्ष्मण जी निषाद गुह को-सखा समुझि अस परिहरि मोहू।सिय रघुवीर चरन रत होहू।।
गुरु वशिष्ठ जी का भरत को…भरत जी कहे -मोहिं “उपदेसु” दीन्ह गुरु नीका….।
भारद्वाज जी भरत जी से – तुम्ह कहँ भरत कलंक यह,हम सब कहँ “उपदेसु.”..।
श्रीराम जी का भरत को..मुखिया मुख सो चाहिए…।
हाँ! भलाई के उद्देश्य से कुपात्र को दिया हुआ उपदेश,उपदेश कर्ता को भी नुकसान पहुँचा देता है- “उपदेशो हि मूर्खानाम् प्रकोपाय,न शान्तये.”..।
..गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा(उपदेश)..।जदपि कहि कपि अति हित बानी(उपदेश ..मिला हमहिं कपि गुरु बड़ ज्ञानी।) विभीषण जी का रावण को…राम भजे हित नाथ तुम्हारा…।मंदोदरी का रावण को चरण पकड़ कर- नाथ.भजहुँ रघुनाथहिं(उपदेश) अचल होइ अहिवात…।प्रहस्त का पिता रावण को..हित मत( उपदेश) तोही न लागत कैसे।काल बिबस कहुँ भेषज जैसे।।श्रीराम जी का रावण को उपदेश -जनि जल्पना करि सुजसु नासहिं…रावण -मोहिं सिखावत ज्ञान(उपदेश)…।
विभीषण जी को श्री राम जी दिव्य रथ का वर्णन किए तब तब …एहि मिस मोहिं “उपदेसहु ” राम कृपा सुख पुंज।हनुमान रावण संवाद में तो उपदेश का सुंदर दृश्य है…।
हम उच्च कोटि के उपदेश कर्ता चाहते हैं और खुद किस कोटि के श्रोता हैं??
जरा इसपर भी ध्यान दिया जाए क्योंकि…
श्रोता बकता ज्ञान निधि,कथा राम कै गूढ़…और अंतिम पंक्ति तो मित्रों मेरे उपर सही बैठता है-
किमि समुझौं मैं मूढ़ मति कलिमल ग्रसित बिमूढ़।।
अतः किसी से भी ज्ञान ग्रहण करने में हमें हीनता नहीं समझना चाहिए,या हमसे कोई पूछे तो भी दुराव क्यों?
एक अल्प बुद्धि दास के निवेदन को अन्यथा न लें….


सुमंगलं

[: कण कण में भगवान बसते हैं। ईश्वर की स्थिति की अनुभूति हर क्षण, हर कदम पर होती रहती है। किंतु अल्प मति जीव मद के कारण ईश्वर की स्थिति को आभास नहीं कर पाता।

     ईश्वर का अस्तित्व है, केवल आभास करने की देर है। साधरण जीव प्रभु को सुख में भूलकर, दुख में ही स्मरण करते हैं। ईश्वर की स्थिति दुख में मानते हैं, सुख में नहीं

       सुख हमने स्वयं अर्जित किया है ऐसा मानते हैं। जिन्हें ईश्वर की लगन लग गई है वे ही मोह के बंधन को काटकर ईश्वर नाम रूपी स्वाति की बूंदें प्राप्त कर पाते हैं।

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