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आचार्य चाणक्य कहते हैं कि “मेहनत करने से दरिद्रता, धर्म करने से पाप और मौन धारण करने से कभी भी कलह नहीं रहता है।”
मेहनत – जिस प्रकार से दस – दस फुट के दस अथवा तो बीस गड्ढे अलग – अलग जगहों पर खोदने पर भी जल की प्राप्ति नहीं हो सकती है। मगर 70 – 80 फुट का गड्ढा एक ही जगह पर खोदा जाए तो जल की प्राप्ति अवश्य हो जाती है। ठीक इसी प्रकार मेहनत करना ही पर्याप्त नहीं अपितु उचित दिशा में अथवा तो एक ही दिशा में मेहनत करना भी अनिवार्य हो जाता है।
धर्म – निसंदेह धर्ममय आचरण ही पापों से मुक्त करता है। सत्य, प्रेम और करुणा ये धर्म का मूल है। धर्म को समग्रता की दृष्टि से देखा जाए तो परोपकार, परमार्थ, प्राणीमात्र की सेवा, सद्कर्म, श्रेष्ठ कर्म, सद ग्रंथ अथवा तो सत्संग का आश्रय, ये सभी धर्म के ही रूप हैं। जब व्यक्ति द्वारा इन दैवीय गुणों को जीवन में उतारा जाता है तो उसकी पाप की वृत्तियां स्वतः नष्ट होने लगती हैं।
मौन – परिवार अथवा समाज में जब तक दो लोगों में अथवा दो पक्षों में से एक मौन रहता है, तब तक संभव ही नहीं कि कोई विवाद हो। मौन का टूटना ही परिवार में अथवा तो समाज में कलह को जन्म देता है। विवाद रूपी विष की बेल काटने के लिए मौन एक प्रबल हथियार है।
आवेश के क्षणों में यदि मौन रुपी औषधि का पान किया जाए तो विवाद रुपी रोग का जन्म संभव ही नहीं।
आवेश के क्षणों में मौन धारण करते हुए धर्म मार्ग का आश्रय लेकर पूरे मनोयोग से मेहनत करो, यही सफलतम जीवन का सूत्र है।
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: संसार में हमें किसी का सहारा मिल जाना अच्छी बात है, किन्तु किसी का सहारा बन जाना उससे भी अच्छी बात है। संसार में हर कोई दूसरों से तो सहारा चाहता है मगर दूसरों को सहारा देना नहीं चाहता।। सच्ची शान्ति के लिए किसी बेसहारे का सहारा बन जाना सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। आप आश्चर्य करेंगे कि जिस आनंद और शांति के लिए हम दर- दर भटके है, जिसके लिए हमने तीर्थों के इतने चक्कर काटे है। आखिर वह आत्मसुख बहुत सस्ते में और आसानी से मिल गया है।। जो व्यक्ति दूसरों को सहारा देता है। उसे अपने लिए सहारा माँगना नहीं पड़ता, परमात्मा स्वतः ही दे, देता है।।
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सफल जीवन के लिए उपयोगी बातें—-
जिस प्रकार बहती हुई नदी के वेग से बालू के कण एक दूसरे से मिलते और बिछड़ते हैं, उसी प्रकार इस संसार रूपी नदी में, समय के प्रभाव से, प्राणियों का मिलना और बिछड़ना होता है।
संसार के जितने भी प्राणी वर्तमान में हमारे साथ हैं, वे सब जन्म के पहले हमारे साथ नहीं थे और मृत्यु के बाद भी साथ नहीं रहेंगे।
विभिन्न जन्मों में सभी एक दूसरे के माता-पिता भाई बंधु और शत्रु मित्र होते रहते हैं, वैसे ही जीवात्मा अपने कर्म के अनुसार कभी इस घर से उस घर में, कभी इस योनी से उस योनी में घूमता रहता है, तो यह सारे रिश्ते शरीर तक ही सीमित हैं ,जीवात्मा से इसका कोई संबंध नहीं है।
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संपूर्ण कामनाओं का त्याग–
इस संसार में केवल कामना करने से किसी वस्तु की प्राप्ति नहीं होती, वांछित प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति की प्राप्ति के लिए प्रारब्ध का संयोग होना भी अनिवार्य है।
प्रारब्ध होगा तो वस्तु मिलेगी, अन्यथा लाख कामना करने एवं प्रयत्न करने पर भी वह वस्तु नहीं मिलेगी। यदि प्रारब्ध होगा तो कामना नहीं करने पर भी इष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाएगी।
उस वस्तु की प्राप्ति के लिए जितने प्रयत्न की आवश्यकता होगी, वह प्रयत्न प्रारब्ध स्वयं करा लेगा। दुख के लिए कोई भी मनुष्य कामना या प्रयत्न नहीं करता, फिर भी प्रारब्ध बस दुख आई जाता है। इसी प्रकार यदि प्रारब्ध होगा तो बिना कामना किए ही सुख भी अवश्य मिलेगा।
[आचार्य चाणक्य कहते हैं, कि “मेहनत करने से दरिद्रता, धर्म करने से पाप और मौन धारण करने से कभी भी कलह नहीं रहता है।” मेहनत-जिस प्रकार से दस-दस फुट के दस अथवा तो बीस गड्ढे अलग – अलग जगहों पर खोदने पर भी जल की प्राप्ति नहीं हो सकती है। मगर 70 – 80 फुट का गड्ढा एक ही जगह पर खोदा जाए तो जल की प्राप्ति अवश्य हो जाती है।। ठीक इसी प्रकार मेहनत करना ही पर्याप्त नहीं अपितु उचित दिशा में अथवा तो एक ही दिशा में मेहनत करना भी अनिवार्य हो जाता है।। धर्म – निसंदेह धर्ममय आचरण ही पापों से मुक्त करता है। सत्य, प्रेम और करुणा ये धर्म का मूल है। धर्म को समग्रता की दृष्टि से देखा जाए तो परोपकार, परमार्थ, प्राणीमात्र की सेवा, सद्कर्म, श्रेष्ठ कर्म, सद ग्रंथ अथवा तो सत्संग का आश्रय, ये सभी धर्म के ही रूप हैं। जब व्यक्ति द्वारा इन दैवीय गुणों को जीवन में उतारा जाता है तो उसकी पाप की वृत्तियां स्वतः नष्ट होने लगती हैं।। मौन – परिवार अथवा समाज में जब तक दो लोगों में अथवा दो पक्षों में से एक मौन रहता है, तब तक संभव ही नहीं कि कोई विवाद हो। मौन का टूटना ही परिवार में अथवा तो समाज में कलह को जन्म देता है। विवाद रूपी विष की बेल काटने के लिए मौन एक प्रबल हथियार है।। आवेश के क्षणों में यदि मौन रुपी औषधि का पान किया जाए तो विवाद रुपी रोग का जन्म संभव ही नहीं।। आवेश के क्षणों में मौन धारण करते हुए धर्म मार्ग का आश्रय लेकर पूरे मनोयोग से मेहनत करो, यही सफलतम जीवन का सूत्र है।।