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मनुष्य के मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है। संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मन में भलीभाँति प्रतिष्ठित हो जाए तो उससे बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है।
जैसे कछुआ अपने अंगों को सब ओर से सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार जब मनुष्य अपनी सब कामनाओं को सब ओर से समेट लेता है, उस समय तुरंत ही ज्योतिःस्वरूप आत्मा अपने अन्तःकरण में प्रकाशित हो जाता है।
जब मनुष्य किसी से भय नहीं मानता और जब उससे भी दूसरे प्राणी भय नहीं मानते तथा जब वह राग और द्वेष को जीत लेता है, तब अपने आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है। जब वह मन, वाणी और क्रिया द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों में से किसी के साथ न तो द्रोह करता है और न किसी की अभिलाषा ही रखता है, तब परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।
[यत्र तु नार्यः पूज्यन्ते तत्र देवताः रमन्ते, यत्र तु एताः न पूज्यन्ते तत्र सर्वाः क्रियाः अफलाः (भवन्ति)।]
जहां स्त्रीजाति का आदर-सम्मान होता है, उनकी आवश्यकताओं-अपेक्षाओं की पूर्ति होती है, उस स्थान, समाज, तथा परिवार पर देवतागण प्रसन्न रहते हैं । जहां ऐसा नहीं होता और उनके प्रति तिरस्कारमय व्यवहार किया जाता है, वहां देवकृपा नहीं रहती है और वहां संपन्न किये गये कार्य सफल नहीं होते हैं।

वैदिक काल से सूर्योपासना अनवरत चली आ रही है। भगवान सूर्य के उदय होते ही संपूर्ण जगत का अंधकार नष्ट हो जाता है और चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश फैल जाता है। सृष्टि के महत्वपूर्ण आधार हैं सूर्य देवता। सूर्य की किरणों को आत्मसात करने से शरीर और मन स्फूर्तिवान होता है।
नियमित सूर्य को अर्घ्य देने से हमारी नेतृत्व क्षमता में वृद्धि होती है। बल, तेज, पराक्रम, यश एवं उत्साह बढ़ता है
ॐ ऐहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजोराशे जगत्पते।
अनुकंपये माम भक्त्या गृहणार्घ्यं दिवाकर:।।’ (11 बार)
‘ ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय, सहस्त्रकिरणाय।
मनोवांछित फलं देहि देहि स्वाहा: ।।’ (3 बार)
ऊँ घृणि सूर्याय नम: ।।
ॐ सूर्य देवाय नमः ।।
ॐ भास्कराय नमः ।।
उपरोक्त मंत्र सूर्य के जल चढाते समय सीधे आपकी पूजा को सूर्य भगवान तक ले जाते है और आप उनकी कृपा के पात्र बनते है। सूर्य देव के आशीर्वाद से व्यक्ति को निरोगी जीवन प्राप्त होता है और उसका घर धन-धान्य से भर जाता है।

सुद्ध सच्चिदानंदमय कंद भानुकुल केतु।
चरितकरत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु॥
-शुद्ध (प्रकृतिजन्य त्रिगुणों से रहित, मायातीत दिव्य मंगलविग्रह) सच्चिदानंद-कन्द स्वरूप सूर्य कुल के ध्वजा रूप भगवान श्री रामचन्द्रजी मनुष्यों के सदृश ऐसे चरित्र करते हैं, जो संसार रूपी समुद्र के पार उतरने के लिए पुल के समान हैं॥

मैं इस संसार के कण-कण में व्याप्त रहकर भी अनंत हूं तथा सर्वभूतों में व्याप्त हूं। मै हमेशा अपने भक्तों के कल्याण और हित के लिए चिंतित रहता हूं। जो कोई भी श्रद्धा और प्रेम पूर्वक भक्ति से मुझे पुकारता है तो मै उस भक्त के लिए व्याकुल हो उठता हूं और चाहे मै उस भक्त से कितना भी दूर हूं मैं तुरंत उसके लिए दौड़ाता हुआ उसके समीप आता हूं। तुम मेरे वचनो पर विश्वास रखो कि जब भी और जहां भी तुम मुझे पुकारोगे मैं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में तुम्हे सदैव सहायता पहुंचाता रहूंगा। मेरे भक्तों में मेरे प्राण बसते हैं। मै अपने भक्तों का अहित होते हुए नहीं देख सकता क्योंकि मैं तो अपने भक्तों का दास हू

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं,
अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं,
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥
प्रचंड (रौद्र रूप वाले), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखंड, अजन्मे, करोङों सूर्यों के समान प्रकाशवान, तीनों प्रकार के दुखों (दैहिक, दैविक, भौतिक) का नाश करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले, पार्वती-पति और प्रेम से प्राप्त होने वाले श्री शिव को मैं भजता हूँ॥

कौशेयं कृमिजं सुवर्णमुपलाद् दूर्वाऽपि गोरोमतः,
पङ्कात्तामरसं शशांक उदधेरिन्दीवरं गोमयात्।
काष्ठादग्निरहेः फणादपि मणिर्गोपित्ततो रोचना,
प्राकाश्यं स्वगुणोदयेन गुणिनो गच्छन्ति किं जन्मना।।

किडो से रेशम ,पथ्थर से सुवर्ण, गोरोम से दूर्वा, पङ्क से कमल, समुद्र से चन्द्रमा, गोबर से नीलकमल, काष्ठ से अग्नि, सर्प के फण से मणि, औऱ गोपित्त से गोरोचन की उत्पत्ति होती है। अतः यह स्पष्ट है कि गुणि व्यक्ति अपने गुणों के विकास से ही प्रसिद्धि को प्राप्त करता है, ना की जन्म से।।

प्रियमित्रो “अपने अमूल्य जीवनको गलत काम न करने केलिए जो तुम्हेडांटता है वहीतुम्हारा सच्चा साथी है न कि वह जोचाटुकारिता कर तुम्हे लूटताहै ।

     

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