अपनी मानते ही वस्तु अशुद्ध हो जाती है, भगवान की मानते ही वह शुद्ध और भगवत्स्वरूप हो जाती है। इसी तरह अपने आपको भी भगवान् से दूर और पृथक मानते ही आप अशुद्ध हो जाते हो।। प्रत्येक पल भगवान् का स्मरण करो और उन्हें अपना मानो। इससे उनके प्रति आसक्ति प्रगट हो जाएगी। भगवान् का ह्रदय से आश्रय करते ही भगवदीय गुण स्वतः प्रगट होने लगते हैं। छोटा बालक माँ -माँ करता है।। उसका लक्ष्य, ध्यान, विश्वास माँ शब्द पर नहीं होता अपितु माँ के सम्बन्ध पर होता है। ताकत माँ शब्द में नहीं है, माँ के सम्बन्ध में है।। इसी तरह ताकत भगवान् के सम्बन्ध में है। उच्चारण में नहीं।।
जय श्री राधेकृष्ण
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। यह बात कई बार आपके मुख से निकली होगी और बहुधा दूसरों के द्वारा भी सुनी होगी। जीवन का बहुत बड़ा रहस्य इस साधारण सी लोकोक्ति में छिपा है।। जिसका मन हार जाता है। फिर चाहे दुनिया के कितने भी साधन और शक्ति उसके पास क्यों ना हो वह जरूर पराजित होता है। कुछ ना होते हुए भी मनोबल जिसका बना हुआ है वह एक दिन जरूर विजयी होता है।। इंसान की वास्तविक ताकत तो उसका स्वयं का आत्मबल ही है। मनोबल से हीन व्यक्ति तो निर्जीव ही है। शरीर कितना भी हृष्ट पुष्ट हो, आसान सा कार्य हो लेकिन शरीर को कार्य करने के लिए प्रेरित करने वाला तो मन ही है।। सारे कार्य मन के द्वारा ही तो संचालित होते हैं। मन से कभी भी हार मत मानना, नहीं तो आसान सा जीवन कठिन हो जाएगा।।
जय श्री कृष्णा
मानव मन की एक बहुत बड़ी कामना होती है कि वह दूसरों के हृदय पर अपना प्रभाव जमाए, निःसंदेह संसार में बुद्घिमत्ता का आदर होता है, ज्ञानार्जन के लिए कोई आयु-सीमा नहीं और ज्ञान अनन्त है, अतः जहां से भी जो ज्ञान मिले उसे प्राप्त करने में न चूकें।। सदैव याद रखें कि मधुर वचन है औषधि, कटु वचन है तीर, इन शब्दों को ध्यान में रखकर ऋषियों ने कहा था, संक्षेप बुद्घिमत्ता की आत्मा है। आवश्यकता से अधिक बातें सुनने हेतु अपने को दृढ़ रखें, वार्तालाप जितना लम्बा होगा, उसका प्रभाव उतना ही कम होगा।। आत्म प्रशंसा करने की भूल न करें, इससे आप दूसरे पर प्रभाव नहीं जमा सकते, उसे स्वयं ही पता है कि कौन-सा सीधा, सरल व्यक्तित्व कितना गुणी है, उसे आपके बारे में स्वयं अनुमान लगाने दें, यह तरीका दूसरों पर अपनी महत्ता प्रदर्शित करने में प्रभावशाली होता है। कि आपके कर्म बोलें, शब्द नहीं।।
Զเधॆ Զเधॆ🙏🙏
: सब में सद्भाव रखो। जगत के किसी भी जीव के प्रति कुभाव रखोगे तो वह जीव तुम्हारे प्रति भी कुभाव ही रखेगा। प्रभु सर्वव्यापी हैं।। इसलिए किसी भी जीव के प्रति कुभाव रखना ईश्वर के प्रति कुभाव रखने के बराबर है। किसी जीव के साथ क्या किसी जड़ वस्तु के प्रति भी कुभाव नहीं रखना चाहिए।। जड़ पदार्थों के साथ भी प्रेम करना है। सद्भावना के अभाव में किया गया धर्म सफल नहीं होता। कोई भी क्रिया सद्भाव के बिना सफल नहीं होती।। ईश्वर का भाव जो मन में प्रत्यक्ष सिद्ध करे उसी का धर्म पूर्णतः सफल होता है। अतः संत के साथ जुड़े रहने का प्रयास करते रहिये।।
जय श्री कृष्ण🙏🙏
: संसार में सारे झगड़ों की जड़ यह है कि हम देते कम है और माँगते ज्यादा हैं। जबकि होना ये चाहिए कि हम ज्यादा दें और बदले की अपेक्षा बिलकुल ना रखें या कम रखें। प्रेम और सेवा कोई कर्म नहीं हमारा स्वभाव बन जाये।
संसार में कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं जाता, कुछ ना कुछ उसका फल जरूर मिलता है। निष्काम सेवा का सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि हमारा कोई दुश्मन नहीं बनता। प्रत्येक क्षण हम हर्ष और आनंद से भरे रहते हैं।
किसी से शिकायत करने पर जितना बदला मिलता है उससे कई गुना तो बिना माँगे ही मिल जाता है। प्रेम से उत्पन्न होने वाले आनंद का कोई मोल नहीं है। अपेक्षा ही बन्धन है, अपेक्षा जीवन को परतंत्र बनाती है, मन का सबसे स्वतंत्र हो जाना ही मोक्ष है।
प्रेम में जीने वाला निखर जाता है।
प्रेम से विलग जीने वाला बिखर जाता है॥
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: जब तक मनुष्य आत्मनिरीक्षण या आत्म विश्लेषण नहीं करता तब तक वह प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता। ईश्वर प्राप्ति के लिए ईर्ष्या द्वेष आदि कुटिल भावनाओं का त्याग नितांत आवश्यक है।। ईर्ष्या एक प्रकार की आग है लेकिन यह ऐसी आग है। जो दिखाई नहीं देती जिसका धुआं भी दिखाई नहीं देता।। जो आग दिखाई देती है उसको बुझाना सरल है लेकिन जो दिखाई नहीं देता। उस ईर्ष्या रूपी आग को किस प्रकार बुझाया जाए यह बहुत विकट प्रश्न है।। इसके लिए प्राणिमात्र के प्रति सौहार्द, प्रेम, जन कल्याण की भावना पैदा करनी होगी। दुख का सबसे बड़ा कारण यह है।। कि मनुष्य अपने घर का देखकर उतना प्रसन्न नहीं होता, जितना दूसरों के घर को जलते देख प्रसन्न होता है। यही ईर्ष्या है।। जहां ईर्ष्या का निवास है। वहां ईश्वर भक्ति नहीं पनप सकती।।