दोस्तो ,
कई तरह की घटनाओं से मनुष्य कई अनचाहे तनाव के भंवर में फंस जाता है, और अपने जीवन में सुख, शांति, स्वास्थ्य एवं चैन गवां बैठता है। सारी आंतरिक शक्तियां पूर्ण रूप से असंतुलित हो जाती हैं। और इससे ही हमारा बाहरी वातावरण अस्त-व्यस्त हो जाता है। अब इस असंतुलन को पुनः ठीक करने के लिए हम बाहरी परिस्थितियों को ठीक करने में लग जाते हैं। जबकि परिस्थिति को ठीक करने के लिए सबसे पहले मनःस्थिति को ठीक करने की आवश्यकता है। जब मनःस्थिति मजबूत होगी तो आंतरिक शक्तियां स्वतः संतुलित हो जाएंगी और फिर परिस्थितियां भी ठीक हो जाएगी।
किन्तु हम, आन्तरिक शक्तियों की बजाये, बाहरी वातावरण को सुधारने में लगे रहते हैं। और यही सबसे बड़ी गलतियां करते हैं। और फिर कहते हैं, हमारे जीवन में सब कुछ ठीक नही चल रहा, कुछ भी ठीक नही चल रहा, और किसी न किसी व्यक्ति या घटना को दोषी ठहराते रहते हैं। लेकिन कभी खुद में झांककर नही देखते। खुद में उतरकर देखते ही नही। यदि हमारे पास आंख ही ऊपर की है। अंदर की चीजें कैसे ठीक होंगी? यह तो ऐसे हुआ कि, लहरों को देख कर लौट आये, और लोगों से कहने लगे कि सागर देख आया। सागर में जाने का यह ढंग नहीं है। किनारे से तो केवल लहरें दिखाई पड़ेंगी।
सागर को देखना है, जानना है तो सागर में डूबना ही पड़ेगा। इसलिए तो कहानी है कि नानक नदी में डूब गए। लहरों में नहीं है, वह नदी में है। लहरों में नहीं है, सागर में है। ऊपर-ऊपर तो लहरें होंगी। तट से हम देख कर लौट आएंगे। लहर कोई सागर नही हैं, लहरों का जोड़ भी सागर नहीं है। जोड़ से भी ज्यादा है सागर। और जो मौलिक भेद है वह यह है कि लहर अभी है, क्षण भर बाद नहीं होगी, क्षण भर पहले नहीं थी। लहरें क्षणिक हैं, सागर स्थिर है। लहरें अनेक हैं, सागर एक है।
यही सत्य हमारे जीवन के साथ है। हम बाहरी चीजों को दोषी मान रहे। किन्तु अंदर उतरकर खुद में नही देख रहे। बाहरी वातावरण से खुशियां ढूढने में लगे रहते हैं, जो कि क्षणिक है। वास्तविक आनंद, वास्तविक खुशी, वास्तविक शांति तो हमारे अंदर अंदर है, आंतरिक शक्तियों के संतुलन में है, और यही स्थिर है। महावीर जी ने हमें स्वयं से लड़ने की प्रेरणा देते हुए कहा है कि- स्वयं से लड़ो, बाहरी दुश्मन से क्या लड़ना? जो स्वयं पर विजय प्राप्त कर लेगा उसे आनंद की प्राप्ति होगी। क्योंकि आत्मा स्वयं में सर्वज्ञ और आनंदमय है। आनंद बाहर से नहीं आता। संतुलन बाहर से नही आता। आनंद हमारे भीतर है। तो लहरों को मत देखिए, सागर में उतरिये। आर्थत बाहरी वातावरण से संतुलित होने का प्रयास नही करें बल्कि अपने अंदर उतरें।
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दोस्तो ,
जीवन को सुखी बनाने के लिए अनेक गुणों की आवश्यकता होती है। सेवा प्रेम नम्रता दया सहानुभूति समर्पण इत्यादि ।
परंतु एक दोष ऐसा है, जिसका नाम “अभिमान” है । यह इन सब गुणों का विनाश कर देता है। परिणाम यह होता है, कि अभिमानी व्यक्ति किसी के साथ भी मिलकर नहीं रह पाता । जीवन का आनंद नहीं भोग पाता । सदा अभिमान के नशे में चूर रहता है । अपना तथा दूसरों का तनाव बढ़ाता है।
कितना अच्छा होता, यदि लोग अभिमान को छोड़कर नम्रता और प्रेम से रहते , तथा परस्पर एक दूसरे की सुख समृद्धि को बढ़ाते । ईश्वर सबको सद्बुद्धि दें, कि लोग अभिमान को छोड़कर नम्रता से जीवन जिएं तथा आनंदित रहें।
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मानव जीवन में ना तो समस्याएं कभी खत्म हो सकती हैं और ना ही संघर्ष। समस्या में ही समाधान छिपा होता है। समस्या से भागना उसका सामना ना करना यह सबसे बड़ी समस्या है। छोटी- छोटी परेशानियां ही एक दिन बड़ी बन जाती हैं।
कुछ लोग सुबह से शाम तक परेशानियों का रोना ही रोते रहते हैं साथ ही ईश्वर को भी कोसते रहते हैं। जितना समय वो रोने में लगाते हैं उतना समय यदि बिचार करके कर्म करने में लगा दें तो समस्या ही हल हो जायेगी।
ईश्वर ने हमें बहुत शक्तियाँ दी हैं, बस उनका प्रयोग करने की जरुरत है। सोई हुई शक्तियों को कोई जगाने वाला चाहिए। कृष्ण आकर अर्जुन को ना समझाते तो वह कभी भी ना जीत पाता। सब कुछ उसके पास था पर वह समस्या से भाग रहा था तुम्हारी तरह।
🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩
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भक्ति भय से नहीं श्रद्धा और प्रेम से होती है। भय से की गई भक्ति में भाव तो कभी जन्म ले ही नहीं सकता और बिना भाव के भक्ति का पुष्प नहीं खिलता।
श्रद्धा के बिना ज्ञान प्राप्त हो ही ना पायेगा। श्रद्धा ना हो तो व्यक्ति धर्मभीरु बन जाता है। उसे हर समय यही डर लगा रहता है कि फलां देवता नाराज हो गया तो कुछ हो तो नहीं जायेगा।
प्रारब्ध में जितना लिखा है उतना तो तुम्हें प्राप्त होकर ही रहेगा, उसे कोई रोक ना पायेगा। भगवान तो सब पर अकारण कृपा करते रहते हैं, कोई उन्हें माने या ना माने तो भी। उसने हमें जन्म दिया, जीवन दिया और हर कदम पर संभाला। क्या यह सब पर्याप्त नहीँ है प्रभु से प्रेम करने के लिए ? भाव और प्रेम से मंदिर जाओगे तो खिले- खिले लौटोगे।
Զเधॆ Զเधॆ🙏🙏